हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ वी आर एस की रजत जयंती… ☆ श्री अ. ल. देशपांडे ☆

श्री अ. ल. देशपांडे

☆ व्यंग्य ☆ वी आर एस की रजत जयंती… ☆ श्री अ. ल. देशपांडे ☆

पच्चीस साल की बेदाग़ सेवाएँ देने के उपरांत बैंक ने हमारे उत्साहवर्धन एवं चुस्त दुरुस्त सेवाएँ देने की हमारी परम्परा को उज्जवल बनाए रखने हेतु चाँदी की तश्तरी से हमें सम्मानित करने का निर्णय लिया था। हालाँकि सराफ़े की अलग अलग 3 दुकानों से हमने ही तीन कोटेशन भरी धूप में तीन दिन में प्राप्त किए थे। हमारे मित्र श्रीवास्तव जी ने एक ही दुकान से अलग अलग लेटर हेड पर तीन कोटेशन तीन मिनट में प्राप्त कर के हमारे पहले ही प्रस्तुत कर हमें व्यवहार ज्ञान सीखने हेतु प्रेरित किया था। कोटेशन प्रस्तुत करने के बाद एक दुकान से चाँदी की तश्तरी ख़रीदने हेतु हमें स्वीकृति मिली थी।

सोने चाँदी की दुकान हमने इसके पहले कभी देखी नहीं थी ना सोना चाँदी। वैसे बचपन में मेरे कान में सोने की बाली तथा पैर में चाँदी का कड़ा था ऐसे घर के बुजुर्ग बताते हैं। हमारे ब्याह के समय पत्नी ने जो गहने मायके से लाए थे वही हमारी संपत्ति थी। इसमे हम रिटायर्ड होने तक कोई इज़ाफ़ा नहीं कर पाए। वास्तव में हमारी सोने जैसी बहुमूल्य पत्नी में ही मुझे अधिक विश्वास था तथा है अतः सोने चाँदी की दुकान की दहलीज़ हमने लांघी नहीं थी।

हमारी जेब मे एक दिन पूर्व, बैंक खाते से आहरित रुपये एक हज़ार मात्र जो रखे थे, का उपयोग कर एक चमचमाती हुई तश्तरी ख़रीदी थी एवं दूसरे दिन तश्तरी तथा रीएमबर्समेंट हेतु पक्की रसीद मैनेजर साहब को सौंप दी थी। उन्होने रसीद रख ली तथा बोले तश्तरी की क्या ज़रूरत है यह तो आप रख लो। मैं असमंजस में पड़ गया मुझे लगा की शाखा में सम्मान समारोह होगा, फूल मालाएँ पड़ेंगी गले में, समोसा रसगुल्ला रहेगा प्लेटों में। मैंने ज़िक्र किया तो मैनेजर साहब बोले “पंडितजी! कहाँ लगे हो? फूल मालाओं के पीछे! आपको समझता नहीं, एक टुकड़ा फेंक कर आपको मार्च के महीने में फूल बनाया जा रहा है।

मैंने मैनेजर सहाब का अधिक क़ीमती समय ज़ाया न करते हुए लाल रंग की पन्नी में लिपटी हुई तथा सुनहरे डिब्बे से सुसज्जित चाँदी की चमचमाती प्लेट को घर ले आया। श्रीमती तथा बच्चों को यह उपहार देखकर बेहद प्रसन्नता हुई। उन्हें अब बताया गया कि यह सब हमारी बेदाग़ पच्चीस वर्ष की बैंक सेवा का उपहार है। सब को इस बात पर प्रसन्नता हुई कि रोज़ रात्रि साढ़े आठ/ नौ बजे हमारे पति/पापा बैंक से लौटा करते थे तथा अवकाश के दिनों में दोपहर का खाना भी घर में चैन से नहीं खा पाते थे, को सम्मानित किया गया है। घर का वातावरण एकदम प्रसन्न हो गया। हमने उसी दिन तुरंत बच्चों के साथ बाज़ार जाकर एक अच्छी सी फ्रेम में तश्तरी मढवाने हेतु दुकान में दी। दूसरे दिन वह फ्रेम तथा भगवान बजरंग बली का एक और फ्रेम ख़रीद कर (जो हमें आज तक शक्ति प्रदान करते आ रहे थे) उसे अपने शयनकक्ष में स्थापित किया। सोते तथा जागते समय हमें तश्तरी एवं भगवान अंजनीसुत के दर्शन नियमित रूपसे होने लगे। पच्चीस वर्षों से तन मन तथा ईमानदारी से हम जो सेवाएं देते आ रहे थे उसमें चाँदी की तश्तरी देखकर और इज़ाफ़ा होता रहा। अब हमें विश्वास हो गया कि चाँदी, सोना तथा धन इसका मोह छोड़ने के लिए यह तश्तरी हमें प्रेरित कर रही है।

देखते देखते 31/03/01 को हम आज तक की बची हुई सर्विस बेदाग़ पूरी कर वीआरएस  के अंतर्गत सेवानिवृत्त हो गए। 1 अप्रैल को जब हम सुबह स्वास्थ्य लाभ हेतु टहल रहे थे तो मोहल्ले के एक बुजुर्ग ने हमें पास आकर धीरे से पूछा “कितने लाख मिले हैं?” हमने आख़िर तक हमारी कुल जमा प्राप्ति के बारे में मोहल्ले के बुजुर्गों को हवा नहीं लगने दी थी अतः वे हम से पूर्व में जितना स्नेह रखते थे उससे ज़्यादा दूरी रखने लगे। हिक़ारत की नज़र से देखने लगे। वीआरएस  की इस प्राप्ति से हमारे प्रगाढ़ संबंधों में दरार सी पढ़ने लगी। एक बुज़ुर्ग का ब्लड प्रेशर हमें प्राप्त राशि की सही जानकारी उन्हें न देने के कारण बढ़ गया था तथा नॉर्मल होने की संभावना दूर दूर नज़र नहीं आ रही थी।

हमने सोचा कि हमारी कुल जमा प्राप्ति के बारे में मोहल्ले के बुजुर्गों को बताना इतना आवश्यक हो गया है? इसके पहले प्रतिवर्ष बंद लिफ़ाफ़े में हमारी संपत्ति का विस्तृत ब्योरा बैंक को देने की परंपरा का निर्वाह हम बख़ूबी करते आए थे। लेकिन इन बुज़ुर्गों के समक्ष हमें अपने वीआरएस की प्राप्ति का लिफ़ाफ़ा खोलकर रखना आवश्यक हो गया था जिससे हमारे संबंधों में सुधार परिलक्षित हो।

हमने पेंशनर्स फ़ोरम में, (भोर में चहल कदमी करने वाला झुंड) उनके बहुत ज़ोर देने पर सही सही बताया कि 14.32 प्राप्त हो गए हैं। फ़ोरम के महानुभावों के चेहरे पर हमें प्रसन्नता की लकीर नहीं दिखाई दी उन्होंने अच्छा अच्छा कहकर हमें आगे बढ़ने दिया। मैं पेड़ की आड़ में खड़ा होकर बुजुर्ग वाणी की आहट पाने उत्सुकत था। आपस में वे बतिया रहे थे ‘फला दुबे जी कह रहे थे कि उन्हें 30, श्रीवास्तव जी को 50 और  पांडे जी को 40 लाख प्राप्त हुए हैं तथा उन सबने केवल बैंक एफ़डी में ही सब पैसा रखा है। अरे! यह पंडत झूठ बोल रहा है। निकम्मे थे सभी , तभी तो बैंक ने इन्हें वीआरएस में मुक्ति दिलायी है।

 

© श्री अ. ल. देशपांडे

संपर्क – “मथुरा”, मकान नंबर 4, विनोद स्टेट बैंक कॉलोनी, कैंप, अमरावती, महाराष्ट्र – 444602

मो. 92257 05884

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #272 ☆ भावना के दोहे – पवनपुत्र हनुमान ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे – पवनपुत्र हनुमान)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 272 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – पवनपुत्र हनुमान ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

पवन वेग से उड़ रहे, उड़ते हैं हनुमान।

वर्षा पुष्प की कर रहे, देव करे सम्मान।।

*

करते सीता खोज वह, उड़ते सागर पार

पर्वत से सागर कहे, बड़ा करो आकार।।

*

हाथ जोड़ मैनाक है, पवनपुत्र हनुमान।

आड़े आया आपके, कर लो कुछ आराम।।

*

निकले सीता खोज में, वंदन है हनुमान।

मेरे मन में आपका, बहुत बड़ा सम्मान।।

*

लंका की इस राह में, बाधा करें प्रहार।

करना सीता खोज है, पवन न माने हार।।

*

रामदूत हनुमान हूं, बीच करो ना घात।

रूप धरोना सिंहिका, करता हूं आघात।।

*

किया प्रवेश लंका में, भव्य भवन भंडार।

भेंट लंकिनी से हुई, करते पवन प्रहार।।

*

कहा लंकिनी ने बहुत, हे वीर हनुमान।

मेरा जीवन धन्य हुआ, वानर तुझे प्रणाम।।

*

अंत समय अब आ गया, हुए लंका में पाप।

ब्रह्म सत्य अब हो गया, मिला बड़ा ही शाप।।

*

 सीता की इस खोज में, हम है तेरे साथ।

मिलजुल कर हम खोजते, रघु का सिर पर हाथ।।

*

सूक्ष्म रूप से आपने, किया लंका प्रवेश।

सोते देख रावण को, आया है आवेश।।

*

चकित हुए यह देख कर, सुना राम का नाम।

रावण के इस राज्य में, कौन कहेगा राम ।।

*

परिचय पाकर आपका, हर्षित हुए हनुमान।

भाई छोटा लंकपति, है विभीषण नाम।।

*

भक्त राम के आप हैं, मैं भी भक्त श्री राम ।

देखा सीता माता को, पता कहां श्रीमान।।

*

सीता मैया सुरक्षित, वाटिका है विशाल।

घेरे रहती राक्षसी, करते नयन सवाल।।

 *

कहे विभीषण पवन से, प्रभु से कहो प्रणाम।

चरणों में माथा झुके, विनती है श्री राम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 155 ☆ मुक्तक – ।। यही  सच कि  सत्य का कोई जवाब नहीं है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 155 ☆

☆ मुक्तक – ।। यही  सच कि  सत्य का कोई जवाब नहीं है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

यही  सच कि  सत्य का कोई जवाब नहीं है।

एक सच ही जिसके चेहरे पर नकाब नहीं है।।

सच  सा  नायाब  कोई  और नहीं है दूसरा।

इक सच ही तो  झूठा  और  खराब नहीं है।।

=2=

सच  मौन   हो  तो  भी  सुनाई  देता है।

सात परदों के पीछे से भी दिखाई देता  है।।

फूस में चिंगारी सा छुप कर आता है बाहर।

सच ही हर मसले की सही सुनवाई देता है।।

=3=

चरित्र  के  बिना  ज्ञान एक झूठी  सी ही बात है।

त्याग बिन  पूजन  तो  जैसे दिन  में  रात  है।।

सिद्धांतों बिन राजनीति भी विवेकशील होती नहीं।

मानवता  बिन  विज्ञान  भी  गलत  सौगात  है।।

=4=

सत्य स्पष्ट सरल इसमें   नहीं  कोई  दाँव  होता है।

जैसे  धूप  में  लगती  शीतल  सी  छाँव  होता है।।

गहन  अंधकार  को  भी सच का सूरज है चीर देता।

सच के सामने नहीं टिकता झूठ का पाँव नहीं होताहै।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा #220 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कविता – परीक्षाओं से डर मत मन… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – परीक्षाओं से डर मत मन…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 220

☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – परीक्षाओं से डर मत मन…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

धरा को जब तपा दिनभर प्रखर रवि झुलस देता है

तभी चंदा की शीतल चाँदनी की रात होती है।

क्षितिज तब जब कभी नभ को सघन घन घेर लेते

हैं कड़कती बिजलियाँ, तब ही सुखद बरसात होती है।

*

डुबा चुकता है जब बस्ती उतरता बाढ़ का पानी

हमेशा धैर्य से ही सब दुखों की मात होती है।

निराशा के अँधेरों में कोई जब डूब जाता है

अचानक द्वार पै कोई खुशी बात होती है ॥

*

परीक्षाओं से डर मत मन ये तो हिम्मत बढ़ाती है

सही जीवन की इनके बाद ही शुरुआत होती है।

नहीं होता किसी के साथ जब कोई अँधेरे में तो

तब हरदम अंजाने उसके हिम्मत साथ होती है॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हनुमान जयंती विशेष – जय-जय हे! बजरंगबली ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ हनुमान जयंती विशेष – जय-जय हे! बजरंगबली ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

सदा सहायक देव प्रबलतम, परमवीर हनुमाना।

संकटमोचन, शत्रु विनाशक, जय जय दयानिधाना।।

मातु अंजनालाल शौर्यमय, असुरों को संहारें।

रामकाज करने को आतुर, पाप जगत के मारें।।

*

सूर्य निगलकर बने अनूठे, वायुपुत्र देवंता।

महावीर सुग्रीव सहायक, करें दुःखों का अंता।।

*

भयसंहारक, मंगलकारी, पूजन बहुत सुहाना।।

संकटमोचन, शत्रु विनाशक, जय-जय दयानिधाना।।

 *

दहन करी लंका हे ! देवा, तुम हो प्रलयंकारी।

परम शक्तियाँ तुम में रहतीं, बनकर के साकारी।।

*

हे हनुमंता, हे भगवंता, तेरा रूप निराला।

हर दिन है उजला हो जाता, हो कितना भी काला।।

*

जीवन सुमन खिलाते हरदम, जग ने तुमको माना।

संकटमोचन, शत्रु विनाशक, जय जय दयानिधाना।।

रामदूत, अतुलित बलधामा, जीवन देने वाले।

सब कुछ तुम गतिमय कर देते, काट व्यथा के जाले।।

*

सीता की कर खोज बन गए, तुम तो एक कहानी।

लक्ष्मण के प्राणों के रक्षक, परम शक्तिमय, ज्ञानी

*

शरण गया जो देव आपकी, दया मिली भगवाना।

संकटमोचन, शत्रु विनाशक, जय-जय दयानिधाना।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ तळ मात्र ठरलेलाच ! ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

☆ तळ मात्र ठरलेलाच ! ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

अस्वस्थतेची नदी दुथडी भरून वाहत असताना

चालावे का तिच्या काठाकाठाने

जराही स्पर्श न होऊ देता?

की घुसावे तिच्या पात्रात

आणि जावे बुडून तिच्यात गटांगळ्या खात?

*

नदीचा प्रवाह अखंड वाहत असताना

नकळतपणे अडकतोच आपण

एखाद्या भोव-यात !

वरुन खाली, खालून वर

घुसळून निघताना

पुढच्या क्षणाची नसते हमी

कधी वाहत जातो, कधी वाहवत जातो

हातापायांची धडपड,

केविलवाणी—

केवळ समाधानासाठी

*

काठ सापडेल, न सापडेल,

तळ मात्र ठरलेलाच

तळ मात्र ठरलेलाच !

© श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हनुमान जयंती विशेष – रामभक्त हनुमान…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव ?

☆ हनुमान जयंती विशेष – रामभक्त हनुमान…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कपी केसरी अंजनी,

करी शिव आराधना.

जन्मा यावे महादेव,

करी दांपत्य याचना…!१

*

वानरांचे रुपांमध्ये,

शिव पार्वती गमन.

माता पार्वतीचा गर्भ,

वात केसरी वहन..!२

*

अंजनीचे  पोटी आले,

शक्तीशाली शिवरुप.

वायुदेव केसरीचे,

भक्तीमय निजरूप..!३

*

भक्ती शक्तीचा वारसा,

रुप वानराचे घेई.

अंजनेरी पर्वताते,

शिवतेज जन्मा येई…!४

*

शारीरिक मानसिक,

धैर्य सामर्थ्य अफाट.

रामभक्त‌ मारुतीचे ,

शौर्य,साहस,अचाट…!५

*

त्याग,शौर्य सेवा,भक्ती ,

आले जेव्हा मूर्त रुप.

वायूपुत्र मारुती हा,

बजरंग निजरुप..!६

*

दैवी शक्ती वरदाने,

झेप घेई अकल्पित.

सूर्य बिंब गिळंकृत.

बाललीला संकल्पित…!७

*

सूर्य देव संकटात,

इंद्रदेव सजा देई.

वज्राघाते हनुवरी,

बालकांते दूर नेई…! ८

*

हनुर्भंग होता क्षणी,

नाम झाले हनुमंत.

असा बलशाली पुत्र,

चिरंजीवी गुणवंत…!९

*

गुण खोडकर वृत्ती,

देई त्यास अभिशाप.

पडे शक्तीचा विसर,

भोगीतसे भवताप…! १०

*

राजा सुग्रीवाचे धामी,

सेवा कार्य ते अर्पित.

राम भेट होता क्षणी,

केला देह समर्पित…!११

*

रामायणी हनुमान,

रामभक्त रामदूत

झाला भक्त बजरंग

महाबली कपीसूत…!१२

*

शक्ती सामर्थ्याची शक्ती,

नामातून चेतविली.

विस्मरणे गेली शक्ती,

जांबुवंते जागविली…!१३

*

जिथे जिथे राम नाम,

तिथे हनुमंत जागा.

चिरंजीव होऊनिया,

जोडी कैवल्याचा धागा…!१४

*

हाती आली दिव्य गदा,

शक्ती‌बल सामर्थ्याने.

पराभूत होणे नाही,

वीर अजिंक्य शौर्याने…!१५

*

निष्ठा आणि पराक्रम,

युद्ध कौशल्य विपुल.

दास रामाचा निस्वार्थी,

बुद्धी चातुर्य अतुल…!१६

 

*

कैक योजने उड्डाण,

सप्त सागर लांघन.

गदाधारी हनुमान,

साध्य शक्ती संघटन..!१७

*

इच्छाधारी लाभे रुप,

पिता देई वरदान.

सूक्ष्म विराट रुपात,

विहरतो हनुमान…!१८

*

त्याच वरदाने त्याने,

शोधियली सीतामाई.

साक्ष मुद्रिका घेऊनी,

दिली सुरक्षेची ग्वाही..!१९

*

राम नामाची महती,

कृतीतून दाखविली.

एका राम सेवकाने,

झणी लंका पेटविली…!२०

*

सीतामाई शोधताना,

केले लंका निरीक्षण.

हेर रामाचा होऊन,

केले गुप्त सर्वेक्षण…!२१

*

सीतामाई संवादात

सिंदुराचा लागे शोध

दीर्घायुष्य आरोग्याचा

रामभक्त घेई बोध…! २२

*

झाला भगवा केशरी,

सर्वांगासी विलेपन.

पाहुनीया हनुमंता,

संतोषले राममन…! २३

*

बजरंग दिले नाम,

जाणियली दिव्य शक्ती.

बजरंग बली रुप,

दर्शविते राम भक्ती…! २४

*

रामसेतू बंधनात,

बजरंग दावी दिशा.

राम जयघोषी सरे,

तमोमय दुःख निशा..! २५

*

राम रावण युद्धात,

हनुमान अग्रेसर.

दृढ विश्वास निष्ठेचा.

हाची एक रत्नाकर…!२६

*

कौमोदकी दिली गदा,

कुबेराचे वरदान.

हाती असेल जोवरी,

अजिंक्यसा बहुमान..!२७

*

वायु देवतेच्या कृपे,

प्राप्त झाल्या सिद्धी शक्ती.

रामायण प्रसंगात,

दृढ झाली राम भक्ती…! २८

*

सप्त सिंधू उल्लंघन,

घर्मबिंदू गर्भ रुप.

तोची हनुमंत सूत,

मगरीचे निजरूप..!  २९

*

करी घात कलंकीत,

काल नेमी एक पूत.

मामा असे रावणाचा,

दैत्य मारिचाचा सूत…!३०

*

रुप साधुचे घेउन‌,

हनुमंता अडविले.

द्रोणागिरी आणताना,

कार्य थोर थांबविले…!३१

*

ओळखून खरे रूप,

दिली सजा योग्य ठायी.

तोच दैत्य कालनेमी,

दिसे मारुतीच्या पायी..!३२

*

शनी पिडा निवारण,

करा मारुतीचे ध्यान.

भूत प्रेत सरे बाधा,

रक्षीतसे पंचप्राण..!.३३

*

जिथे जिथे राम नाम,

तिथे तिथे उभा दास.

यांच्या अंतरात आहे,

राम सीता सहवास…!३४

*

देव शक्तीशाली असा,

चिरंजीव भक्त रूप .

सेवा भक्ती साधनेत,

जळे रामनाम धूप..!.३५

*

आहे वज्र याचे करी,

मुष्ठीमधे आहे शक्ती.

बलशाली‌ हनुमान ,

शिकवितो दास्य भक्ती…!३६

*

तेज तत्व जिंकणारा,

वायु पुत्र हनुमान .

शक्ती,स्फूर्ती नी उर्जेचे,

आहे मारुती प्रमाण…!३७

*

शंकराचे पाशुपत,

वरदान अजेयाचे  .

शूल त्रिशुलादी शस्त्रे,

शक्ती सामर्थ्य दासाचे…! ३८

*

नखाग्राने रामनाम,

केळीच्याच पानावरी.

लिहितसे बजरंग ,

रामनाम वर्णाक्षरी…!३९

*

स्वामी निष्ठ‌ सेवकाला,

तेल शेंदूर अर्पण.

माळ रुईच्या पानांची,

भक्ती भावे समर्पण.४०

*

असा बजरंग बली,

बलोपासनेचे धाम.

होई हजर सत्वर,

उच्चारता राम नाम…!४१

*

कविराजे ‌वर्णियेला

यथाशक्ती हनुमान

शब्द शारदा पुरवी

अनुभूती वरदान..!४२

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “विश्वास….” ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ ☆

सौ विजया कैलास हिरेमठ

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “विश्वास ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ 

दिवसामागून दिवस जातात

ऋतू मागून ऋतू सरतात

प्रत्येकासाठी ते सारखेच असतात

तरीही वेगवेगळे का भासतात….

*

कधी हवेहवेसे कधी नकोसे

दिवस नसतात सगळे सारखे

नाही पाहत आपण जसेच्या तसे

म्हणूनच होतो सुंदरतेस पारखे….

*

एकच ऊर्जा सगळीकडे

सर्वांसाठी सारेच खुले

आपल्यालाच असते कोडे

काय आणि किती निवडावे…

*

खरे तर काहीच नसते अवघड

आपलीच असे आपल्यासाठी निवड

दृष्टीकोन असतो ज्याचा त्याचा

जग दुनियेकडे पाहण्याचा…..

*

अगाध, अथांग, अपरंपार

परमेश्वर देत आहे अपार

मानूया त्याचे मनापासून आभार

विश्वास हाच जगण्याचा आधार….

💞शब्दकळी विजया 💞 

©  सौ विजया कैलास हिरेमठ

पत्ता – संवादिनी ,सांगली

मोबा. – 95117 62351

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ महाराष्ट्रातील संत स्त्रिया – भाग – ४ – संत सोयराबाई…☆ सौ शालिनी जोशी ☆

सौ शालिनी जोशी

🔅 विविधा 🔅

☆ महाराष्ट्रातील संत स्त्रिया – भाग – ४ – संत सोयराबाई… ☆ सौ शालिनी जोशी

संत सोयराबाई या संत चोखोबांची पत्नी होत्या. १४ व्या शतकातील मंगळवेढ्याचे हे कुटुंब. नवऱ्याबरोबर ग्राम स्वच्छतेत काम करणाऱ्या सोयराबाई पण त्यानी सांगितलेले तत्त्वज्ञान अचंबित करते. जातीव्यवस्थेला प्रश्न विचारून दलीतांच जगणं त्यांनी वेशीवर मांडलं. त्यांना चोखोबा गुरुस्थानी होते. चोखोबांची सगुणभक्ती, नामभक्ती, अभंग रचना या अध्यात्मिक जगाबरोबर त्यांच्या गरिबीतल्या संसारातही त्या अर्धांगिनी होत्या. नामस्मरणातून त्यांनी भक्तीयोग सांगितला. त्या म्हणतात,

नामेची पावन होती जगी जाण l नाम सुलभ म्हणा विठोबाचे ll

संसार बंधने नामेचि तुटती l भक्ती आणि मुक्ती नामापाशी ll

त्यांची नामभक्ती हे त्यांचे स्वतःचे अनुभव आहेत. असे ९२ अभंग त्यांनी लिहिले आणि अभिमानाने स्वतःचा उल्लेख ‘महारीचोखियाची’ असाच केला. त्यांच्या अभंगांची भाषा साधी, सरळ, सोपी पण रसाळ आहे. हळूहळू सगुणाच्या वाटेकडून निर्गुणाच्या वाटेकडे त्या चालू लागल्या आणि मग शब्द स्फुरु लागले.

अवघा रंग एक झाला l रंगी रंगला श्रीरंग ll १ ll

मी तू पण गेले वाया l पाहता पंढरीच्या राया ll. २ ll

नाही भेदाचे ते काम lपळून गेले क्रोध काम ll ३ ll

देही असोनि विदेही l सदा समाधिस्थ पाही ll ४ ll

पाहते पाहणे गेले दूरी l म्हणे चोखियाची महारी ll५ ll

किती सोप्या भाषेत सोयराबाईनी आपला अनुभव सांगितला. शेकडो वर्षे लोटली तरी आजही ते शब्द आपलं मन हळव करतात, मंगल करतात. किशोरीताईंच्या स्वर्गीय आवाजाने हा अनुभव अमर केला आहे.

शूद्रांच्या सावलीचाही विटाळ मानण्याचा तो काळ होता. तरीही त्यांनी भागवतांच्या मांदियाळीत मानाचे स्थान मिळवले. समाजाने त्या कुटुंबाचा छळ केला. खालची म्हणून नुसता अपमान नाही तर मारही खावा लागला. ती व्यथा सोयराबाईंच्या अभंगातून दिसते. त्या म्हणतात, ‘हीन हीन म्हणूनी का ग मोकलिये l परि म्या धरिले पदरी तुमच्याl’ विठोबाच्या दर्शनाची आज धरली म्हणून बडव्यांनी चोखोबाना कोंडून मारले. इच्छा असूनही देवाची भेट झाली नाही.

सोयराबाईनी शरीराच्या विटाळा संबंधी धर्मशास्त्रने निर्माण केलेल्या कल्पना साफ नाकारल्या. देहापासून निर्माण झालेली आणि देहात गुंतून पडलेली विटाळाची संकल्पना त्या स्पष्ट करतात. देहाच्या निर्मितीमध्ये विटाळ ही सक्रिय सहभागी झालेला असतो. म्हणून देह आहे तेथे विटाळ असणारच. मग कोणताही वर्ण विटाळातून अलिप्त राहू शकत नाही. असे असेल तर सर्व मानव जातच विटाळलेली, अपवित्र, अस्पृश्य म्हटली पाहिजे. म्हणून स्त्रिया आणि शूद्र यांच्यावर केलेला विळालाचा आरोप मानवनिर्मित आहे. असा तर्कशुद्ध युक्तिवाद सोयराबाईनी केला. त्या थेट पांडुरंगालाच प्रश्न विचारतात,

देहासी विटाळ म्हणती सकळ l आत्मा तो शुद्ध बुद्ध ll

देहाचा विटाळ देहीच जन्मला l सोवळा तो झाला कवण धर्म ll

विटाळा वाचून उत्पत्तीचे स्थान l कोणी देह निर्माण नाही जगी ll

म्हणूनि पांडुरंगा वानितसे थोरी l विटाळ देहांतरी वसतसे ll

 देहीचा विटाळ देहीच निर्धारी l म्हणतसे महारी चोखियाची ll

यातून विटाळाची संकल्पना जीवशास्त्रीय असल्याचे त्या स्पष्ट करतात.

उशीराने पुत्र प्राप्ती झाल्यावर आनंदीत झालेली सोयरा बारशासाठी विठ्ठलरखमाईला आमंत्रण देते. ‘विठ्ठल रुक्मिणी बारसे करी आनंदानी’ असे ती म्हणते. असे म्हणतात की विठ्ठल तिचे बाळंतपण करण्यासाठी तिच्या नणंदेचे, निर्मलेचे रूप घेऊन एक महिना तिच्या घरी राहिला होता. शेवटी देव भावाचा भुकेला. कर्ममेळा हा सोयराबाईं चा मुलगा. निर्मळा ही नणंद तर बंका हा निर्मळेचा नवरा. हे सर्व कुटुंब विठ्ठल भक्त. सर्वांनी चोखोबांना गुरुस्थानी मानलं होतं. सर्वांच्याच अभंग रचना अर्थपूर्ण व परिस्थितीचे चित्र उभे करणाऱ्या आहेत. पराकोटीचे दारिद्र्य, अपमान, अवहेलना व्यक्त करण्याचे अभंग हेच एकमेव साधन त्यांच्याकडे होते. संतांच्या मांदियाळीत हे कुटुंब वेगळे उठून दिसते.

सोयराबाईंची समाजाचे उपेक्षा केली. त्यांना लिहिला वाचायला येत नव्हतं म्हणून त्या निरक्षर असल्या तरी त्याच खऱ्या सुशिक्षित, सुसंस्कृत ठरतात.

चित्र साभार – संत सोयराबाई अभंग – sant sahitya – charitra mahiti abhang gatha granth rachana – संत साहित्य 

©  सौ. शालिनी जोशी

संपर्क – फ्लेट न .3 .राधाप्रिया  टेरेसेस, समर्थपथ, प्रतिज्ञा मंगल कार्यालयाजवळ, कर्वेनगर, पुणे, 411052.

मोबाईल नं.—9850909383

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ त्या परदेशी पाहुण्याच्या आठवणीत…! ☆ श्री संदीप काळे ☆

श्री संदीप काळे

?जीवनरंग ?

त्या परदेशी पाहुण्याच्या आठवणीत…! ☆ श्री संदीप काळे ☆

मुंबईला 23 फेब्रुवारी रोजी “व्हाईस ऑफ मीडिया” आणि राज्य शासनाच्या संयुक्त विद्यमाने पुरस्कार वितरण सोहळा होणार आहे. या पुरस्कार वितरण सोहळ्यासाठी दरवर्षी मी आशितोष कांबळे या चित्रकाराकडून मोमेंटो तयार करून घेतो. यावर्षी देखील कार्यक्रमाच्या निमित्ताने मोमेंटो तयार करण्यासाठी मी आशितोषला भेटण्यासाठी वाशीला गेलो.

घराची कडी वाजवल्यावर आशितोषच्या बहीणीने दरवाजा उघडला. ती म्हणाली, “दादा खाडीवर गेला आहे. ”

मी विचारले, “खाडी किती दूर आहे आणि तो तिथे का गेला आहे?”

त्यावर तिने उत्तर दिले, “खाडीवर परदेशी पाहुणा आला आहे. त्याला पाहण्यासाठी दादा तिथे गेला आहे. ”

मी आश्चर्याने विचारले, “परदेशी पाहुणा म्हणजे कोण?”

ती म्हणाली, “एक परदेशी पक्षी आहे, जो आपल्या भारतीय मैत्रिणीला भेटण्यासाठी दरवर्षी वाशीच्या खाडीवर येतो. काही दिवस इथे राहतो आणि मग परत जातो. त्याच पाहुण्याला पाहण्यासाठी दादा गेला आहे. ”

ज्या दिशेने खाडी आहे, तिकडे मी निघालो. थोडं अंतर चालल्यावर, पक्ष्यांच्या थव्याजवळ काही लोक उभे असलेले दिसले. मी थोडं पुढे गेल्यावर आशितोष मला दिसला. तिथे दोन पक्षी होते—एक, जो मी कधीच पाहिला नव्हता आणि दुसरा, जो सातत्याने खाडीच्या कडेला असतो. आशितोष आणि त्याचे दोन-तीन मित्र त्या दोन्ही पक्ष्यांच्या भोवती ये-जा करत होते.

तो कधीही न पाहिलेला पक्षी थोडासा पुढे जायचा, मग मागे यायचा आणि आपले पंख पसरून त्या दुसऱ्या पक्ष्याला सामावून घ्यायचा. मी आशितोषला विचारलं, “घरी ताई ज्या पक्ष्यांच्या प्रेमाविषयी बोलत होती, हेच ते दोन पक्षी आहेत का?”

आशितोष माझ्यावर ओरडला आणि म्हणाला, “चूप बस, बाबा!” माझ्या जवळ येत त्याने हळू आवाजात सांगितलं, “अरे संदीप, हळू बोल! इथल्या लोकांना याबद्दल फार काही माहिती नाही. नाहीतर उद्यापासून हे पक्षी बघायला येथे गर्दी जमेल. ”

मी त्याला विचारलं, “नेमका प्रकार काय आहे, ते सांग. काही अडचण नाही. ”

त्यावर आशितोष म्हणाला, “मागच्या सात वर्षांपासून फेब्रुवारी महिन्याच्या पहिल्या आठवड्यात हा नर परदेशी पक्षी दुसऱ्या देशातून या मादी पक्ष्याला भेटायला इथे येतो. परवा तो इथून परत जाणार आहे. माझे काही मित्र आले होते, त्यांना हे दाखवण्यासाठी मी आलो होतो. ”

मी विचारलं, “हा पक्षी दरवर्षी याच वेळी इथे येतो आणि किमान दहा दिवस थांबतो हे तुम्हाला कसं समजलं?”

आशितोष म्हणाला, “सतीश राजन नावाचे माझे एक पक्षी निरीक्षक मित्र आहेत. त्यांनी मला पक्ष्यांच्या हालचाली, त्यांचे वर्तन, आणि पक्ष्यांमधील प्रामाणिक नात्यांविषयी महत्त्वाची माहिती दिली होती. त्यामुळे मीही पक्ष्यांचे निरीक्षण करायला सुरुवात केली. एकदा मी आणि सतीश खाडीच्या कडेला बसलो होतो, तेव्हा आम्हाला हे दोन पक्षी वेगळेच वाटले.”

आशितोष पुढे म्हणाला, “खाडीमधल्या बाकीच्या पक्ष्यांमध्ये असलेला एक पक्षी एका वेगळ्या परदेशी पक्ष्याबरोबर काय करतोय, हे आम्हाला आश्चर्य वाटलं. सतीशने अनुमान काढलं आणि मला सांगितलं की, हा नर परदेशी पक्षी दरवर्षी याच मादीला भेटायला इथे येतो. पुढच्या वर्षीही लक्ष ठेवून राहा, तो नक्कीच परत येईल.”

मी त्याला विचारलं, “हेच ते दोन पक्षी आहेत, हे आपण नेमकं ओळखायचं कसं?”

त्यावर सतीश म्हणाला, “यासाठी आपल्याला दोन-तीन दिवस त्यांचं निरीक्षण करावं लागेल. त्यांच्या हालचाली, एकमेकांशी असलेलं प्रेम, आणि त्यांचे वेगळेपण ओळखलं की आपल्याला खात्री पटते.

सतीशने ज्या पद्धतीने मला सांगितलं, त्या पद्धतीने आम्ही दोघांनीही त्या दोन्ही पक्ष्यांची ओळख पटवण्यासाठी एक युक्ती लढवली. आम्ही दिवसभर त्या पक्ष्यांना दोन-तीन वेळा अन्न देत असू. दोन-तीन दिवस हे सलग सुरू राहिल्यावर त्या पक्ष्यांना आमच्यावर विश्वास वाटायला लागला. ते पक्षी हळूहळू आमच्याकडे येऊ लागले आणि आम्हाला स्पर्शही करू लागले.

ते दोघं एकमेकांच्या समवेत राहायचे, एकमेकांकडे सतत पाहायचे आणि एकमेकांना सातत्याने स्पर्श करत राहायचे. नित्यनेमाने बागडणं, उड्या मारणं, आणि एकमेकांच्या अंगावरून फिरणं हे सारं त्या दोघांमध्ये होत होतं. आम्ही अनेक वेळा त्यांना हातात घेऊन पुन्हा खाली सोडायचो.

त्या दोन्ही पक्ष्यांची ओळख पक्की करण्यासाठी आम्ही त्यांच्या शरीरावर, पंखाच्या वरच्या आणि खालच्या भागात गडद रंग लावला. चौथ्या दिवशी आम्ही खाडीवर गेलो, तेव्हा त्या दोघांपैकी एकच पक्षी तिथे बसलेला होता. तो परदेशी पक्षी त्या दिवशी आलाच नव्हता. दुसऱ्या दिवशीही तो दिसला नाही.

सतीशने यावर अनुमान काढलं की, दरवर्षी फेब्रुवारीच्या शेवटच्या आठवड्यात हा परदेशी पक्षी त्याच्या प्रिय पक्षी मादीला भेटण्यासाठी येतो. मला तेव्हा यावर फारसा विश्वास बसला नाही. पण दुसऱ्या वर्षीही, अगदी याच वेळेत आम्ही त्या परदेशी पक्ष्याला त्याच्या प्रेयसीला भेटण्यासाठी आलेलं पाहिलं. आम्हाला खरंच आश्चर्य वाटलं.

त्या पक्ष्यांचा पाहुणचार करण्यासाठी आम्ही त्यांना रोज धान्य खायला घालत असू. ठरलेल्या वेळेत तो परदेशी पक्षी पुन्हा उडून जात असे. अनेक वर्षांपासून आम्ही त्या दोघांमधलं प्रेम पाहात आलो आहोत. मी एकदा सतीशला विचारलं, “जर तो पक्षी तिला इतकं प्रचंड प्रेम करतो, तर तिला सोबत घेऊन परदेशी का जात नाही?”

यावर सतीश म्हणाला, “प्रत्येक पक्ष्याची उड्डाण क्षमता वेगळी असते. काही पक्ष्यांना त्यांच्या मर्यादा माहीत असतात. माणसांप्रमाणे अतिविश्वासाने त्यांचं आयुष्य चालत नाही. पक्ष्यांची जगण्याची पद्धत जरा वेगळी असते. ” सतीशने त्या एकट्या मादी पक्ष्याला “देशी मैना” असं नाव दिलं होतं. “

आता आज ना उद्या, यावर्षीसुद्धा तो प्रियकर परदेशी पक्षी आपल्या मायदेशी, त्याच्या प्रेयसीला इथेच सोडून जाणार होता. आशितोष त्या दोन्ही पक्ष्यांना दाणे भरवत होता. त्याचे पाय आणि हात चिखलाने माखले होते. एका परदेशी पाहुण्याचा आपण पाहुणचार करतोय, याचा आनंद त्याच्या मनामध्ये होता. उद्या खाडीवर पाहिलं तर, तो परदेशी पाहुणा उद्याही इथे राहील का नाही, याची खात्री नव्हती. मात्र, तो परदेशी प्रियकर कधी जाणार आहे, याची माहिती मात्र देशी मैनाला नक्की असावी.

त्या दिवशी आम्ही घरी परतलो. कामाविषयी चर्चा सुरू होती, पण माझं लक्ष मात्र त्या परदेशी पक्षी आणि देशी मैनेकडेच होतं. घरी जेवायला बसल्यावर मी आशितोषला विचारलं, “वहिनी कुठे आहेत? दिसत नाहीत. ”

पण आशितोष काहीच बोलला नाही. मला काहीतरी खटकलं.

मी पुन्हा वहिनीचा विषय काढला. यावर त्याची बहीण म्हणाली, “काय सांगावं दादा, सध्या सगळं नवलाईचं आहे. कॉलेजमध्ये असताना दादाच्या मैत्रिणीने दादाला दिलेलं एक ग्रीटिंग पाहिलं. त्यावरून वहिनी रागारागाने माहेरी निघून गेली. ”

तिच्या जाण्याला आता एक वर्ष झालं. कसं असतं बघा माणसाचं प्रेम—थोडासा गैरसमज झाला की सगळं संपतं.

बोलता बोलता आशितोषने त्यांच्या बहिणीविषयीही सांगितलं. ताईचा नवरा, जो उच्च शिक्षण घेतलेला होता, नोकरीनिमित्त परदेशात गेला आणि तिथेच त्याने ऑफिसमधील एका प्रचंड श्रीमंत सहकाऱ्याशी दुसरं लग्न केलं. याला आता दहा वर्षे झाली.

मला त्या दोघांना काय बोलावं हेच सुचत नव्हतं. माझ्या डोक्यात तीन वेगवेगळ्या कथा एकाच वेळी सुरू होत्या—दोन्ही पक्ष्यांची प्रेमकहाणी, आशितोष आणि त्याची बहीण यांची कथा. त्या दिवशी मी घरी निघालो. दुसऱ्या दिवशी ठरलेल्या वेळी पुन्हा आशितोषकडे गेलो. घरी गेल्यावर समजलं की आशितोष वाशीच्या खाडीवर गेला आहे.

मी खाडीवर गेलो तर मला दिसलं की आशितोष त्या एकट्या देशी मैनेला जवळ घेऊन तिचे अश्रू पुसत होता. मला पाहताच आशितोषला डोळ्यांतले अश्रू आवरले नाहीत. तो म्हणाला, “परदेशी पाहुणा बिचारीला सोडून गेला रे, संदीप. आता वर्षभर ती वाट पाहणार. पुन्हा तो वर्षभरानेच येईल. ”

आशितोषने मुठीत असलेले उर्वरित दाणे देशी मैनाच्या समोर टाकले आणि आम्ही जड पावलांनी घरी निघालो. काम करताना आशितोषचा मूड अजिबात नव्हता. तो जे चित्र काढत होता, त्यात नाराजीचे भाव स्पष्ट दिसत होते.

मी आल्या पावलानेच परत घरी निघालो. वाटेने जाताना माझ्या मनात प्रश्न उभा राहिला—खरं प्रेम कोणतं? घर सोडून जाणारी पत्नी, पैशासाठी दुसरं लग्न करणारा ताईचा नवरा, की दरवर्षी न चुकता त्याच वेळेला आपल्या प्रेयसीला भेटायला परदेशातून येणारा प्रियकर पक्षी? हल्ली माणसांना पक्ष्यांसारखं वागा असं म्हणायची वेळ आली आहे—ते पक्षी पहा कसं नि:स्वार्थीपणे एकमेकांवर प्रेम करतात, असे म्हणायची वेळ आली आहे. बरोबर ना?

© श्री संदीप काळे

चीफ एडिटर डायरेक्टर एच जी एन मीडिया हाऊस मुंबई.

मो. 9890098868

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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