(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा – दिवाली के दिये।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 45 – लघुकथा – दिवाली के दिये
“माँ हम दीवाली नहीं मनाएँगे क्या? देखो सबके घर में दीये जल रहे हैं। ” गंगा के आठ साल के बेटे ने अपनी माँ से पूछा।
“दीवाली तो अमीरों का उत्सव है बेटा। हम गरीब हैं न हम उत्सव नहीं मना पाते। दीये जलाने के लिए दीये भी तो चाहिए होते हैं न!” गंगा ने अपने इकलौते बेटे को समझाते हुए कहा।
यह दीये की ज़रूरत वाली बात बाल मन में कहीं बस गई।
गंगा विधवा थी। मजदूरी करके जो दिहाड़ी कमाती थी उसी से उन दोनों का पेट पलता था। रास्ते के किनारे गली के भीतर पतरे की झोंपड़ी थी जो उनका घर था। कई अनेक उन जैसे गरीब श्रमिक वहाँ रहते थे। पर उन लोगों की अवस्था गंगा से अच्छी थी क्योंकि वहाँ चार हाथ काम करते थे। यहाँ गंगा अकेली पड़ गई थी। ध्याढ़ी पुरुष मजदूरों को प्रतिदिन 500 रुपये मिलते हैं और स्त्रियों को 350 रुपये दिए जाते हैं। गंगा अकेली थी तो पति वाला हिस्सा उसकी तकदीर में न था। उसे अपने 350 रुपये में ही गुज़ारा करना पड़ता था।
दो वक्त की रोटी वह जुटा लेती थी। एक दो जोड़े कपड़े साल में खरीद लेती थी पर इससे अधिक उसके लिए कुछ और करना संभव न था।
कंस्ट्रक्शन कंपनी वालों ने चार दिन की छुट्टी कर दी थी। अर्थात रोज़ की दिहाड़ी बंद हो रही थी। पर साहब ने दीवाली से पहले हर मज़दूर को एक जोड़े वस्त्र और हज़ार रुपये दिए थे।
गंगा को साड़ी मिली थी। वह अपने बेटे को लेकर बाज़ार गई और उसके लिए शर्ट पैंट खरीदे गए। हाथ में पैसे थे तो उस दिन ठेले पर पाव-भाजी और गुलाब जामुन खाया।
गंगा का बेटा राजू खुश था पर झोंपड़ी में दीये न जलाए जाने का उसे दुख था। वह दूर खड़े होकर लोलुप दृष्टि से बंगले में रहनेवाले बच्चों को आतिशबाज़ी करते हुए देखता। आँखों में उत्साह और जिज्ञासा तैरती रहती, नज़रें आकाश की ओर उठी रहती और रंगीन रोशनी कई छटाओं को बिखेरते हुए देखकर उसका चेहरा चमक उठता।
दीवाली खत्म हो गई। गंगा काम पर गई तो एक प्लास्टिक की थैली लेकर राजू मोहल्ले -मोहल्ले घूमने लगा। जहाँ भी उसे बुझे हुए, फेंके गए मिट्टी के दीये मिले उसने उन्हें इकट्ठे कर लिए।
माँ के लौटने से पहले वह घर लौट आया। हैंड पंप के नीचे ठंडी में बैठकर दीयों को साफ़ किया। उन्हें घर के सामने सूखने के लिए बिछा दिया और माँ की प्रतीक्षा करने लगा।
माँ के लौटने पर बड़ी खुशी से उसने माँ को सारे दीये दिखाए और कहा -माँ अगले साल हम दीवाली में दीये जलाएँगे। देख मैंने कितने दीये इकट्ठे कर लिए।
गंगा अपने लाडले को सीने से लगाकर फ़फ़क उठी। आज उसे अपनी गरीबी और वैधव्य पर पहली बार तीव्र दर्द महसूस हुआ।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – “मृत्यु का भय…” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 335 ☆
आलेख – मृत्यु का भय… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
भगवान गरुड़ उड़ान भरते हुये पाटिलपुत्र में एक विष्णु मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे उन्होने देखा कि मंदिर की मुंडेर पर बैठा एक कबूतर कांप रहा था। गरुड़ जी को दया भाव जागृत हुआ, उन्होंने कबूतर से इसका कारण पूछ लिया। कबूतर ने बताया कि एक ज्योतिषाचार्य ने उसे बताया है कि कल प्रातःकाल उसकी मौत हो जाएगी। इसलिये अपनी आसन्न मृत्यु को सोचकर डर रहा हूं।
गरुड़ जी को कबूतर पर दया आ गई और उन्होंने कबूतर को यमदूतों से छिपा देने का निर्णय लिया। गरुड़ जी ने कबूतर को मलयगंध पर्वत की एक सुरक्षित गुफा में जाकर छिपा दिया, और उसे कहा कि अब तुम निश्चिंत रहो यहां यम दूत पहुंच ही नहीं सकते।
फिर गरुड़राज उड़कर यमलोक जा पहुंचे और हंसकर यमराज को बताया कि वे किस प्रकार कबूतर को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा चुके हैं। यमराज ने मुस्कराते हुये कबूतर का लेखा-जोखा मंगवाया। व्यवस्था थी कि पाटिलपुत्र के विष्णु मंदिर में रहने वाले कबूतर की मृत्यु अमुक तिथि को मलयगंध पर्वत की गुफा में सर्प द्वारा भक्षण किये जाने से होगी। गरुड़ जी विस्मित रह गए और तुरंत लौट कर पर्वत पर जा पहुंचे, उन्होने देखा कि एक सांप कबूतर को निगल रहा है। गरुड़ जी यह सोचकर बहुत दुखी हुये कि मैं रक्षा करने के उद्देश्य से इसे यहां लाया था, लेकिन अब मेरे ही कारण इसकी जान चली गई।
कलियुग में उस कबूतर ने अतीक अहमद नामक माफिया बनकर धरती पर जन्म लिया, वह अपने कुकर्मो की सजा भोगता साबरमती जेल में बन्द था। उसे नैनी जेल ले जाया जा रहा था। अतीक को जेल से जेल शिफ्ट करने वाली, माफिया विकास यादव के एनकाउंटर की कथा याद आ रही थी। वह डर से सारी राह कांप रहा था। जब वह सकुशल नैनी जेल की बैरक में पहुंच गया तो उसने भयग्रस्त होते हुये भी किंचित मुस्कराते हुये अपने आकाओ की ताकत पर भरोसा कर चैन की सांस ली।
तभी पास ही कहीं लाउड स्पीकर पर भागवत की कथा चल रही थी। कथा वाचक बता रहे थे कि जब गरुड़ जी द्वारा कबूतर को मलय पर्वत पर छिपा देने और वहां उसकी मृत्यु की घटना की जानकारी भगवान विष्णु को हुई तो भगवान ने गरुड़ जी को समझाया कि जन्म की तरह सबका मरण भी सुनिश्चित है। नियत समय, स्थान और नियत कारक से मरने से कोई बचता नहीं।
पता नहीं कि माफिया डान यह सुन सका या नहीं कि कथा सार में यह भी बताया गया कि मृत्यु तो टाली नहीं जा सकती इसलिये समय रहते जीवन का सदुपयोग कर लेना चाहिये।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर आधारित विचारणीय लघुकथा “संगम में समागम”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 217 ☆
🌻🙏 संगम में समागम 🙏🌻 🌧️जलसंरक्षण🌧️
प्रयागराज कुंभ का महापर्व, आस्था की डुबकी, श्रद्धा की चुनरी, पुलिस प्रशासन की जिम्मेदारी, सरकार की चुनौती, अमृत स्नान की मारामारी, सोशल मीडिया की उन्नति, साधु-संतों की डेरी, लुटपाट की होशियारी, हजारों नाकेबंदी, फिर भी मन को भाते पूरी कचौरी 😊 मन बड़ा ही प्रसन्नता से भरा है।
गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम 144 वर्षों का सुयोग, बड़ी कठिनाई से आज साक्षी संगम में स्नान करने पहुंचीं। गदगद ह्रदय से वह डुबकियाँ लगाकर माँ गंगा को साड़ी, चुनरी, पुष्प अर्पित करके, 🙏 हाथ जोड़ यही प्रार्थना करते दिखी– ‘हे गंगा मैया जब किसी अबोध, अबला नारी को अपने लाज, स्वाभिमान को बचाने की बात आए, बस आप लहरों की तरह उसके साथ लिपटी रहियेगा। क्योंकि अब किसी द्रौपदी की तरह चीर हरण में गिरधारी नहीं आयेंगे। इस धरा पर आप साक्षात सर्व शक्ति मान, निर्मल मातृशक्तियों की पहचान है। आज के बदलते परिवेश में मेरी ये आस्था, लाजकी चुनरी आपके श्री चरणों में।’
आसपास कुंभ स्नान करते लोगों ने यह बात सुनी, नतमस्तक होकर साक्षी के शब्दों को “हर हर गंगे” के साथ स्वीकृति देते दिखाई दिए।
साक्षी की चुनरी साड़ी लहराते हुए माँ गंगा संगम में समागम होते देखती रही। मानों लहरे हिलोर लेती कह रही हो——
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 119 ☆ देश-परदेश – बाप तो बाप ही होता है ☆ श्री राकेश कुमार ☆
कुछ दिन पूर्व एक पिता ने पुत्र के अपहरण की शिकायत पुणे पुलिस को की थी। पिता राजनीति पेशे से है, तुरंत कार्यवाही हुई और पता चला पुत्र को एक चार्टर्ड प्लेन से अगवा कर बैंकॉक ले जाया जा रहा है।
सरकार के सभी घोड़े छोड़ दिए गए पुत्र की लोकेशन पोर्ट ब्लेयर के आस पास थी। सरकारी प्रभाव के उपयोग से पायलट ने वायुयान को वापस मोड़ कर पुणे में सुरक्षित वापसी कर दी थी। जहां यात्रियों के स्वागत के लिए पुलिस तैनात थी।
वायुयान में दो व्यक्ति और भी पुत्र के साथ यात्री थे। बताया जाता है, मात्र अठत्तर लाख रुपए से एक तरफा पुणे से बैंकॉक के लिए भुगतान हुआ था। वापिस यात्रा के समय यात्रियों के सामने लगा हुआ स्क्रीन बंद कर दिया गया था, ताकि उनको पता ना लगे कि उनके विमान की क्या लोकेशन है। लौट के बुद्धू घर को आए।
अब ऐसा बताया गया कि राजनेता पुत्र किसी व्यापार के सिलसिले में बैंकॉक की यात्रा पर थे। पिता को बिना बताए ही उन्होंने विमान की बुकिंग की थी।बाप तो बाप ही होता है, आसमान से धरती पर लाकर पटक दिया। आसमान के उड़ते पक्षी को जमीन की धूल चटवा कर रख दी एक बाप ने। ये भी हो सकता है, वो बैंकॉक बौद्ध धर्म के ज्ञान के लिए गए हों। जितने मुंह उतनी बातें, बैंकॉक यात्रा के बारे में तो लोग किसी के लिए भी कुछ भी कह देते हैं।
ये सब जानकार हमें भी अपने बाप की याद आ गई, वर्ष सत्तर में “चेतना” फिल्म देखने के लिए स्कूल की नवमी कक्षा से भाग कर गए थे। इंटरवल में पिता जी ने हॉल से रंगे हाथ पकड़ कर हमारे शरीर का रंग नीला कर दिया था। उनको हमारी लोकेशन की जानकारी उनके किसी सूत्र ने दे दी थी।
उस दिन जो चेतना जाग्रत हुई थी, आज भी जब पिक्चर देखने जाते है, तो हॉल के अंदर हुई हमारी पिटाई से जहन सिहर उठ जाता है। समय बदल गया लेकिन बाप नहीं बदले।
मी फिरत फिरत समुद्र किना-यावर गेले तांबूस पिवळा मावळता सूर्य मला नेहमीच भुरळ घालतो, लाटा आज जरा मोठ्याच होत्या जमेल तेवढी पुढे गेली, दगडांवर, भिंतीवर आपटणा-या लाटांचे तुषार छान पैकी उसळून अंगावर येत होते त्यांची खारट चव ओठांवर जाणवत होती. हलकेच पण बोचरा होऊ लागलेला सांजवारा.. पक्षांचे थवे घरट्याच्या ओढीने परतीला निघाले होते पण असं का वाटत होतं मला की आज सूर्य अस्ताला जायला उशिर करतोय… ?
आज संध्याकाळ जरा जास्तच रेंगाळली.. तिलाही कळलं मला तुझी आठवण आली.. ! स्वाभाविकच आहे म्हणा. अश्या रम्य वेळी त्याची आठवण येणारच की.. निसर्गच तो आपल्याला स्वत:त गुंतवतो हे मात्रं खरं.. समुद्र किना-यावरची संध्याकाळ आणि श्यामल काळे ढग जमा होता होता दूरवरून येणारा मातीचा सुगंध येऊ लागला कि आपसूकचं आठवणी जिवंत होऊ लागतात. पावसासोबत आमचं खूप प्रेमळ नातं आहे किंबहुना प्रत्येकाच तसं असतचं नाही का ? मग
ढगांनी केली सरींची पाठवण मग तो आला तर एकटा कसा येईल? त्याला सुद्धा आठवण करून देईल… ! आली असेल का त्याला माझी माझी आठवण ?
पाऊस पडायला लागला की सारं कसं मस्त, प्लेझंट, वेगळच हव हवंस वाटायला लागतं. पावसानं यावं, धुवांधार बरसावं आणि हो अशा वेळी नेमकी आपल्याकडेच छत्री असावी व त्यानं स्वतःची विसरून यावी.. ! किंवा याच्या उलट झालं तरी चालेल मग सर्वांच्या देखत, स्वतःच्या नकळत मला सावरत, भिजत घेउन जायचं, पुन्हा दुस-या दिवसासाठी त्याच ओढीनं एकमेकांकडे पहायचं… जसं.. धरणीच्या ओढीनं सरी येतात नी बरसतात.. केव्हा तरी परिस्थिती गडबड करते त्याच नसणं जास्त बोचरं भासतं.. एकटेपणाचं वाटतं मग माझ मन कशातच रमत नाही… उगीचच छातीत धडधडायला लागतं पण चेह-यावर ते न दाखवता काम करत रहायचं.. पण मनाचं काय ? ते तर केव्हाच ट्रांन्समध्ये गेलेलं असतं आठवणींच्या सरीत चिंब भिजत राहीलेलं असतं…. दोन्हीकडे तिचं परीस्थिती कुणी कुणाला समजावयच ? पण ते शक्य नसतं उरतं फक्त परस्परांसाठी झुरणं… कधी थेंब थेब अश्रुंचं झरणं..
चिंब पावसात आठवणींच्यात भिजायचं..
सवय लागते मग एकमेकांसाठी झुरण्याची.. !
पाऊस दरवर्षी येतच राहतो ॠतूचक्रा सोबत जीवनचक्र पण चालत रहातं आता एक छोटी छत्री सोबत आलेली असते मग पावसाची परीभाषा थोडीशी बदलते बोबडी होऊ लागते… पाऊस येतच राहतो… येतच राहतो
मग येते अशीच एक सांज संध्याकाळ आयुष्याची… पुन्हा नवा भूतकाळ दुस-याला गोठवतो. आराम खुर्चीत बसून आठवणींचे झोके घेत रहातो डोळ्यांच्या कडा ओल्या होऊन सुकत जात असतात… आपोआप डुलकी लागते. शरीराच्या थकव्याने व मनाच्या एकटेपणाने.. मग सारी मरगळ दूर होते व त्या सोबतच परत एक संध्याकाळ स्मरू लागते आणि ती संध्याकाळ मनात रेंगाळत राहते..
☆ पाहुणे…! – लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ.स्मिता सुहास पंडित ☆
मला संतोष पवार भेटला, तेव्हा मी त्याला विचारले “आता तुझ्यासोबत हे कोण पाहुणे आहेत ?”
तो म्हणाला, ” हे माझे आईवडील आहेत. “
मला खुप आश्चर्य वाटले. मी त्याला लगेच म्हणालो, ” मागच्या वेळी तर वेगळे होते. हे तर दुसरेच कोणीतरी आहेत. हे कसं काय ?”
तर तो मला म्हणाला, ” आपण हाॅटेलमध्ये बसून बोलूया. “
आम्ही जवळच असलेल्या चहाच्या टपरीवर गेलो. तेथे बाकावर बसलो. तो मला सांगू लागला,
“माझे आई वडील लहानपणीच वारले. माझ्या काकाकाकूंनीच मला वाढवले. नोकरी लगेच मिळाली आणि छोकरीही. कारण माझे वर्गातील एका मुलीवर प्रेम होते. मला नोकरी लागताच मी माझ्या काकांना या प्रेमाबद्दल सांगितले. त्यांनी होकार तर दिलाच, शिवाय ते माझ्यासोबत मागणी घालायला तिच्या घरीसुध्दा आले. लग्न नोंदणी पध्दतीने झाले आणि माझी बदली नागपूराहून थेट मुंबईला झाली. आमच्या कंपनी ने मला रहायला विरारला बैठे घर दिले. तेथे सर्व सुखसोयी होत्या, पण मी नोकरीला जाताच घरी बायको कंटाळुन जायची.
मला ती नेहमी म्हणायची “सासूसासरे असते तर बरे झाले असते. त्यांची घरात थोडी मदतही झाली असती आणि मुलांना छान संस्कार मिळाले असते. “
एकदा आम्ही बागेत सगळे फिरायला गेलो होतो. तेथे एक आजी आजोबा उदास बसलेले दिसले. मी विचारले, ” काय काका, काही त्रास होतो आहे का ? मी काही मदत करु शकतो का ?”
तर ते म्हणाले, ” बाळा, आम्हा दोघांना एकटेपणा खातो आहे रे. आयुष्य गेलं स्वप्ने रंगवण्यात. आता काम होत नाही. लगेच थकवा येतो. पण काम करण्याशिवाय पर्यायही नाही. “
मी म्हणालो, “मुले सांभाळत नाहीत ?”
त्यावर ते म्हणाले, ” मुलगा सून अमेरिकेतच असतात. ” आणि दोघांनी त्यांची तोंडे बाजूला वळवली आणि डोळ्यांना रुमाल लावला.
मी काय समजायचे ते समजलो. आणि म्हणालो, “आमच्याकडे येता का आठ दिवस रहायला ? तेवढाच हवाबदलही होईल आणि या दोन नातवंडात वेळही जाईल. “
तर ते म्हणाले, “बाळा तुला कशाला आमचा त्रास ? अरे नेहमी इथेच भेटु आपण सगळे रविवारचे. “
आणि मग दर रविवारी आमची त्यांची भेट होऊ लागली.
माझ्या मनात होतं की बायकोला विचारावे की या दोघांना आपल्याच घरी ठेवुया का ?
पण एकदा तीच मला म्हणाली, “काही बोलायचे होते तुमच्याशी. ” मी म्हणालो, ” बोल ना काय बोलायचे आहे ते. ” तर ती म्हणाली, ” रविवारी आपण बागेत त्या आजीआजोबांना भेटतो ना, त्यांना आपल्या घरीच आणुया का ? म्हणजे मला असं वाटतंय की, आपल्या मुलांनाही त्यांच्या भेटीची उत्सुकता असते आणि दोघेही आपल्या मुलांबरोबर किती आनंदात असतात ना !!”
मला तिचे म्हणणे पटत होते, पण कंपनीने दिलेल्या घरात यांना कसे ठेवायचे ?
आणि आम्ही दोघांनी एक निर्णय घेतला. या दोघांना दत्तक घ्यायचा. कागदोपत्री दत्तक घेतले व कंपनीला ते दत्तक पेपर्स दाखवले. कंपनी मालकाने माझा सत्कार केला आणि माझा पगार त्यांनी दिडपट केला. आजीआजोबांना एक खोली दिली.
त्यांचे नाव श्री सुहास कळसकर व सौ सुहासिनी कळसकर अशी आहेत. त्यांचे टेलरिंगचे दुकान होते. त्यांना एक मुलगा झाल्यावर त्यांनी कुटुंबनियोजन केले व याच मुलाला खुप शिकवायचे ठरवले. मुलाला इंजिनियर केले व पुढील शिक्षणासाठी अमेरिकेत पाठवले. एमबीए करताना तेथील एका मुलीच्या प्रेमात पडला व परस्पर लग्न करुन मोकळा झाला. सुनेला एकदा दाखवायला आणलं होते. नंतर दर तीन चार महिन्यांनी पैसे पाठवायचा. नंतर नंतर सहा महिन्यांनी पैसे येऊ लागले. एकदा तो भारतात आला होता. म्हणाला तुम्ही दोघे तिकडेच रहायला चला. ही तयार नव्हती पण नंतर खुप दिवसांनी तयार झाली पण खुप उशीर झाला होता. नंतर पैसे यायचेही बंद झाले.
पत्रव्यवहार केला तर कळले तो दुसरीकडे वेगळ्या शहरात राहतो. आणि त्याला फोन केला तर त्याने त्याची नोकरी गेल्याचे सांगितले. बायकोच त्याला सांभाळते. सातआठ वर्षात फक्त फोनवर बोलतो. त्याच्या मित्राने सांगितले, ‘त्याची नोकरी वगैरे काही गेली नव्हती उलट बढती मिळाली होती. एक बंगला व गाडी आहे.
आपलेच मुल आहे म्हणून माफ केले आणि नव्या जीवनाला सुरुवात केली.
कळसकर दांपत्याला दत्तक घेतल्यावर आम्हाला जोशी दांपत्य भेटले. त्यांची कथा वेगळीच. त्यांना मुलंच नव्हते आणि ती अतिशय गोड बोलणारी व संस्कारी जोडी होती. मग त्यांनाही आमच्या घरात सामील करुन घेतले. ते आनंदाने आमच्यात राहतात. ते जोशी काका म्हणजे आत्ता माझ्याबरोबर आहेत ते. त्यांना भाजी आणायची खुप आवड. जोशी काकू स्वयंपाक खुप छान करतात. चौघी मिळुन स्वयंपाक घर सांभाळतात आणि आता तर माझी मुलगीही त्यांच्या हाताखाली स्वयंपाक शिकते आहे.
मधल्या काळात आणखी एक जोडी आमच्यात आली. कांबळे काका काकू. त्यांचा तरुण मुलगा अपघातात ठार झाला. ते आमच्यात आले आणि त्यांनाही मी दत्तक घेतले. आता मला तीन आईवडील आहेत. कांबळे काका काकू नोकरी करत होते. त्यांना पेंशन आहे. त्यां दोघांनी त्यांच्याकडील पीएफचे तीस लाख आम्हाला दिले, मग त्यात माझे सेव्ह केलेले टाकले. बायकोने तिचे दागिने विकून आम्ही एक मोकळी जागा घेऊन त्यावर एक बैठे मोठे घर बांधले.
बंगल्याप्रमाणे पुढे बाग केली आहे. कांबळे काका त्यात रमतात. जोशी काका पूजेचे पाहतात व भाजीही आणून देतात.
माझा मुलगा आता काॅलेजमध्ये आहे. मुलीने फॅशन डिझाईनिंगचा कोर्स केला म्हणून तिने बुटीक टाकले त्यात कळसकर काका सुध्दा तिला मदत करतात.
तु तुझ्या फॅमिलीला घेऊन ये ना आमच्या घरी रहायला. पहा घर कसे आनंदाने भरुन वहात असते. आमच्या हातातील चहा केव्हाच संपला होता. मी चहाचे पैसे देत होतो तर चहावाल्याने घेतलेच नाहीत. म्हणाला, “साहेबांकडुन पैसे घेतले तर मला पाप लागेल. माझ्या मुलांच्या शिक्षणाचा सर्व खर्च तेच करतात. किमान फुल ना फुलाची पाकळी उपकार थोडे परतफेड तरी करु द्यात हो. ” असं म्हणताना त्याचे डोळे ओले झाले होते.
संतोष पवार शाळेत खुप अबोल असायचा. आज कळले की आई वडिलांची किंमत फक्त त्यालाच कळाली होती. म्हणूनच तर त्याने तीन आईवडील दत्तक घेतले होते. लहानपणीच्या आईवडिलांची भरपाई करत समाजालाही त्याने एक मोठी शिकवण दिली. कशाला पाहिजेत वृध्दाश्रम ? ज्यांना शक्य आहे त्यांनी एक एक आजीआजोबा दत्तक घ्यायचे आणि समाजाप्रती आपले कर्तव्य पार पाडायचे हीच तर खरी आधुनिक जगाची उभारणी झाली म्हणता येईल.
मी असा विचार करत करतच घरी आलो आणि बायकोला सगळे सांगितले. ती म्हणाली पुढच्या आठवड्यात आपण सगळेच जण जाऊया…. भरपूर गिफ्ट घेऊन जाऊ.
लेखक – अज्ञात
संग्राहिका – सौ. स्मिता पंडित
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
ताई आणि संध्या दोघीही कला शाखेत पदवीधर झाल्या. दोघींनी वेगवेगळ्या विषयात पदव्युत्तर शिक्षणही घेतले. संध्याला मुंबई विद्यापीठाची फेलोशिपही मिळाली. माझ्या आठवणीनुसार ताईने एम. ए. ला सोशिऑलॉजी हा विषय घेतला होता आणि त्यानंतर तिला सचिवालयात चांगली हुद्देवाली नोकरी मिळाली. त्याचवेळी उपवर कन्या ही सुद्धा जोड पदवी दोघींना प्राप्त झाली होती. परिणामी आमच्या जातीतल्याच काही इच्छुक आणि एलिजिबल बॅचलर्सच्या कुटुंबीयांकडून दोघींसाठी सतत विचारणा होऊ लागली. काय असेल ते असो पण ताई मात्र याबाबतीत फारशी उत्सुक वाटत नव्हती. काही विचारलं तर उडवाउडवीची उत्तर द्यायची शिवाय आमचं कुटुंब हे व्यक्ती स्वातंत्र्य जपणारं असल्यामुळे आमचे आई पप्पा याबाबतीत तसे शांतच होते. मात्र संध्याचे वडील ज्यांना आम्ही बंधू म्हणायचो ते मात्र “संध्याचे लग्न” याबाबतीत फारच टोकाचे बेचैन आणि अस्वस्थ होते. “ यावर्षी संध्याचं लग्न जमलंच पाहिजे. ” या विचारांनी त्यांना पुरेपूर घेरलं होतं. संध्याचं लग्न जमण्याबाबत काहीच नकारात्मक नव्हतं. सुंदर, सुसंस्कारित, सुविचारी, सुशिक्षित आणखी अनेक “सु” तिच्या व्यक्तिमत्त्वाभोवती दिमाखदारपणे जुळले होते. प्रश्न होता तो तिच्याकडून होणाऱ्या योग्य निवडीचाच. अशातच कोल्हापूरच्या नामवंत “मुळे” परिवारातर्फे संध्या आणि अरुणा या दोघींसाठी लग्नाचा प्रस्ताव आला. घरंदाज कुटुंबातील, अमेरिकेहून केमिकल इंजिनिअरिंगची पदवी घेतलेला, भरगच्च अकॅडॅमिक्स असलेला, कलकत्ता स्थित, “युनियन कार्बाइड” मध्ये उच्च पदावर मोठ्या पगाराची नोकरी असणाऱ्या “अविनाश मुळे” या योग्य वराची लग्नासाठी विचारणा करणारा प्रस्ताव आल्यामुळे सारेच अतिशय आनंदित झाले.
रितसर कांदेपोहे कार्यक्रम भाईंकडेच (आजोबांकडे) संपन्न झाला. मुलगा, मुलाकडची माणसं मनमोकळी आणि तोलामोलाची होती. विवाह जमवताना “तोलामोलाचं असणं” हे खरोखरच फार महत्त्वाचं असावं आणि अर्थात ते तसं त्यावेळी होतं हे विशेष.
आतल्या खोलीत बंधूंनी पप्पांना सांगितलं की, ” मुलाच्या उंचीचा विचार केला तर या मुलासाठी संध्याच योग्य ठरते नाही का जना?”
पप्पा काय समजायचं ते समजलेच होते. शिवाय त्यांना मूळातच अशा रेसमध्ये भाग घ्यायचा नव्हता. ते दिलखुलासपणे बंधूंना म्हणाले, ” अगदी बरोबर आहे, आपण संध्यासाठीच या मुलाचा विचार करूया आणि तसेही अरुला एवढ्यात लग्न करायचेही नाहीय. ”
बघण्याचा कार्यक्रम अतिशय सुंदर, आनंदात, खेळीमेळीच्या वातावरणात पार पडला. न बोलताच होकारात्मक संकेत मिळालेही होते. तरीही पत्रिका जमवण्याचा विषय निघाला. वराच्या माननीय आईने दोघींच्याही पत्रिका मागितल्या आणि या “पत्रिकेमधील कोणती जुळेल त्यावर आपण पुढची बोलणी करूया. ” असं त्या म्हणाल्या.
बंधूंचा चेहरा जरा उतरलाच असावा. पपांनी त्यांच्या खांद्यावर हात ठेवला. न बोलताच स्पर्शातूनच सांगितले, “काळजी करू नका. होईल सगळं तुमच्या मनासारखं. ”
मी त्यावेळी प्रतिक्रिया देणे हा कदाचित उद्धटपणा ठरलाच असेल पण तरीही मी म्हणालेच, ” इतकी वर्षं अमेरिकेत राहणारा मुलगाही पत्रिकेत कसा काय बांधला जाऊ शकतो किंवा आईच्या विरोधात जाण्याचं टाळत असेल का ? निर्णय क्षमतेत जरा कमीच वाटतोय मला. ” परंतु “अविनाश मुळे” हा मुलगा सर्वांनाच खूप आवडला. माझ्या त्यावेळच्या शंकेचंही निरसन कालांतराने झालंच. बाबासाहेब.. ज्यांना आम्ही संध्याच्या लग्नानंतर हे संबोधन दिले.. ते अतिशय उच्च प्रकारचं व्यक्तीमत्त्व होतं. त्यांचं आदरणीय स्थान माझ्या मनात कायमस्वरुपी आहे.
संध्याच्या चेहऱ्यावरचे त्यावेळचे अस्फुट, संदिग्ध भावही तिची पसंतीच सांगत होते. त्या काही दिवसांपुरता तरी “या सम हाच” हेच वातावरण आमच्या समस्त परिवारात होते. त्याच दरम्यान ताईने संध्याजवळ हळूच म्हटलेलं मी ऐकलंही, “तुझीच पत्रिका जुळूदे बाई! म्हणजे प्रश्नच मिटला. ”
पत्रिका संध्याचीच जुळली आणि घरात सगळा आनंदी आनंद झाला. लग्न कसं करायचं, कुठे करायचं, कपडे दागिने, खरेदी, जेवणाचा मेनु, पाहुण्यांचे स्वागत.. उत्साहाला उधाण आले होते. दरम्यान अविनाश दोन-तीन वेळा येऊन संध्याला वैयक्तिकपणे भेटलेही. एकंदर सूर आणि गुण दोन्ही छान जुळले. ताई मात्र प्रचंड आनंदात होती. नकारातही दडलेला हा तिचा खुला आनंद मला मात्र जरा विचार करायला लावणारा वाटला पण सध्या तो विषय नको. “संध्याचं लग्न” हाच आघाडीचा प्रमुख विषय नाही का?
अवर्णनीय असा संध्याच्या लग्नाचा सोहळा होता तो! सनईच्या मंगल सुरांसोबत संध्या मनोभावे गौरीहर पूजत होती. बाहेर दोन्ही वर्हाडी मंडळीत गप्पागोष्टी, खानपान मजेत चालू होतं भेटीगाठी घडत होत्या, जुन्या आठवणींना उजाळा मिळत होता, नव्याने काही नात्यांचं पुनर्मिलन होत होतं. करवल्या मिरवत होत्या. पैठण्या शालू नेसलेल्या, पारंपरिक दागिने घालून महिला ठुमकत होत्या. नवी वस्त्रं, नवी नाती, नवे हितसंबंध, नव्या भावना. याचवेळी पप्पा हळूच गौरीहर पुजणाऱ्या सौभाग्यकांक्षिणी संध्याजवळ प्रेमाने गेले. संध्या आमची सहावी बहीणच. “मावस” हे नुसतं नावाला. लेक चालली सासुरा या भावनेने पप्पांना दाटून आलं होतं. डोळे पाणावले होते. संध्याने पप्पांकडे साश्रू नयनाने पाहिले. तिच्या नजरेत, ” काय पप्पा?” हा प्रश्न होता.
“ बाबी! या डबीत एक ताईत आहे लग्नानंतर तू तो सतत जवळ ठेव, नाहीतर गळ्यात घाल. तुझ्या सौभाग्याचं हा ताईत सदैव रक्षण करेल. ”
त्या क्षणी संध्याच्या मनातला गोंधळ पप्पांना जाणवत होता. “ पप्पा तुम्ही हे सांगताय? हा प्रश्न तिच्या ओठावर आलाही असणार. पप्पा एव्हढंच म्हणाले, ” बाबी! नंतर बोलु. तुझ्या वैवाहिक जीवनासाठी या बापाचे खूप आशीर्वाद तुझ्या पाठीशी आहेत. ”
संध्याचा पपांवर निस्सीम विश्वास होता.
तर्काच्या पलिकडच्या असतात काही गोष्टी खरं म्हणजे! पप्पांचा ज्योतिष शास्त्रावरचा सखोल अभ्यास होता. ते स्वतःही जन्मपत्रिका मांडत. आमच्या, आमच्या मुलांच्या ही पत्रिका त्यांनीच अचूक मांडल्यात पण तरीही भविष्य सांगण्यावर आणि मानण्यावर त्यांचा कधीच भर नव्हता. एकाच वेळी ते “ज्योतिष” या शास्त्राला मानत असले तरी ते त्यावर विसंबून राहण्याबाबत फार विरोधात होते. पत्रिका जुळवून लग्न जमवणे, कुंडलीतले ग्रहयोग, त्यावरून ठोकताळ्याचं चांगलं -वाईट भविष्य अथवा चांगल्यासाठीची व्रत वैकल्यं, वाईट टळावं म्हणून शांती वगैरे संकल्पनांवर त्यांचा अजिबात विश्वास नव्हता. Rule your stars.. असेच ते कुणालाही सांगायचे. मग अशा व्यक्तीकडून संध्याबाबतच्या या छोट्याशा घटनेचं कसं समर्थन करायचं? काय अर्थ लावायचा?
त्याचं असं झालं.. डोंबिवलीच्या एका ज्योतिषांकडे( मला आता त्यांचं नाव आठवत नाही) “अविनाश मुळे” यांच्या पत्रिकेशी जुळतात का हे तपासण्यासाठी संध्या आणि अरुणाच्या पत्रिका आल्या होत्या. त्यांनी काही निर्णय देण्याआधीच बंधू त्यांना भेटले होते. गंमत अशी की हे डोंबिवलीचे सद् गृहस्थ आणि पप्पा बऱ्याच वेळा एकाच लोकल ट्रेनने व्ही. टी. पर्यंतचा आणि व्ही. टी. पासून चा (आताचे शिवाजी छत्रपती टर्मीनस) प्रवास करत. दोघांची चांगलीच मैत्री होती. त्या दिवशी पप्पांना गाडीत चढताना पाहून या सद्गृहस्थांनी पप्पांना जोरात हाक मारली, “ढगेसाहेब! या इकडे, इथे बसा. ” त्यांनी शेजारच्या सहप्रवाशाला चक्क उठवले आणि तिथे पप्पांना बसायला सांगितले.
“हं! बोला महाशय काय हुकूम?” पपांनी पुढचा संवाद सुरू केला.
“ अहो! हुकूम कसला? एक गुपित सांगायचंय. बरे झाले तुम्ही भेटलात. ”
मग त्यांनी विषयालाच हात घातला. “अविनाश मुळे” यांच्या पत्रिकेशी कुठलीच पत्रिका नाही जुळत हो! अरुणाची सहा गुण आणि संध्याची केवळ पाच गुण. पण श्रीयुत निर्गुडेंमुळे(बंधु) थोडा नाईलाज झाला. गृहस्थ फारच नाराज झाले होते. ”काहीतरी कराच” म्हणाले.
“ काय पंडितजी तुम्ही सुद्धा ? तुमच्याकडून ही अपेक्षा नव्हती. बरं मग पुढे काय आता. ?”
“निर्गुड्यांना मी काहीच सांगितलेले नाही. हे बघा. पत्रिकेत मृत्यूयोग आहे. लग्न झाल्यावर आठ वर्षानंतर काहीतरी भयानक घडणार आहे पण ही पनवती, हे गंडांतर जर टळले तर मात्र उभयतांचा पुढच्या आयुष्याचा प्रवास अत्यंत आनंददायी आहे हे निश्चित. ”
“ म्हणजे सत्यवान सावित्रीची कलियुगातील कथा असेच म्हणूया का आपण?”
पप्पांना गंभीर प्रसंगी विनोद कसे सुचत?
“ ढगे साहेब हसण्यावारी नेऊ नका. माझं ऐका. मी एक ताईत तुम्हाला देतो. तेवढा कन्या जेव्हा गौरीहर पुजायला बसेल ना तेव्हा तिच्या हाती सुपूर्द करा किंवा तिच्या गळ्यात तुम्ही स्वत: घाला. उद्या आपण याच संध्याकाळच्या सहा पाचच्या लोकलमध्ये नक्की भेटू. ?”
पप्पांनी फक्त त्या सद् गृहस्थांच म्हणणं ऐकलं आणि एका महत्त्वाच्या माध्यमाची भूमिका पार पाडली होती. त्यात त्यांची अंधश्रद्धा मुळीच नव्हती. होतं ते संध्यावरचं लेकी सारखं प्रेम आणि केवळ तिच्या सुखाचाच विचार. त्यात ते गुंतलेले नसले तरी कुठेतरी सतत एका अधांतरी भविष्याचा वेध मात्र ते घेत असावेत. बौद्धिक तर्काच्या रेषेपलिकडे जेव्हा काही घडतं ना तेव्हा त्यावर वाद आणि चर्चा करण्यापेक्षा त्या घटनांकडे तटस्थपणे पहावे नाही तर त्या जशाच्या तशा स्वीकाराव्यात हेच योग्य. फार तर “आयुष्यात आलेला असा एक अतिंद्रिय अनुभव “या सदरात समाविष्ट करावे.
संध्याचे लग्न झाले. बंगालच्या भूमीत एक महाराष्ट्रीयन संसार आनंदाने बहरू लागला. दिवस, महिने, वर्षं उलटत होती. आणि ते पनवतीचं आठवं वर्षं उगवलं. खरं म्हणजे पपांशिवाय कुणाच्याच मनात कसलीच भीती नव्हती. कारण सारेच अनभिज्ञ होते. पण आठव्या वर्षीच आमच्या परिवाराला प्रचंड दडपण देणारे ते घडलेच. बाबासाहेबांना अपघात झाला होता. संध्याचाच भाईंना फोन आला होता. तशी ती धीर गंभीर होती पण एकटी आणि घाबरलेली होती. ताबडतोब कलकत्त्याला जाण्याची तयारी झाली. प्रत्यक्ष भेटीनंतर बराच तणाव हलका णझाला. कारण
श्री. अविनाश मुळे हे केवळ योगायोगाने किंवा दैवी चमत्काराने किंवा पूर्व नियोजित अथवा पूर्व संचितामुळेच एका भयानक प्राणघातक अपघातातून सही सलामत वाचले. जणू काही त्यांचा पुनर्जन्मच झाला. आता तुम्ही काही म्हणा.
“ काळ आला होता पण वेळ आली नव्हती. ”
अथवा
“आयुष्याची दोरी बळकट किंवा देव तारी त्याला कोण मारी.
पण यानंतरची पप्पांची प्रतिक्रिया फक्त मला आठवते. ओंजळभर प्राजक्ताची फुले त्यांनी देव्हाऱ्यातल्या कृष्णाच्या मूर्तीवर भक्तीभावाने वाहिली आणि ते म्हणाले,
हे जगन्नाथा! कर्ताकरविता तुज नमो।
अजूनही माझ्या मनात एक प्रश्न आहे. डोंबीवलीच्या त्या होरापंडितांनी त्यावेळीचं गुपित बंधुंनाच का सांगितलं नाही आणि पपांनाच का सांगितलं? या मागचं गुपित काय असेल?
जाउदे! काही प्रश्नांची उत्तरं न मिळण्यातच आयुष्याची जडणघडण असते हेच खरं!