हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 566 ⇒ काव्य शास्त्र विनोदेन.. ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “काव्य शास्त्र विनोदेन।)

?अभी अभी # 566 ⇒ काव्य शास्त्र विनोदेन.. ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बचपन में काहे का काव्य और काहे का शास्त्र ! हाँ, विनोद और प्रमोद मेरे दो दोस्त ज़रूर थे। विनोद बड़ा पढ़ाकू और गंभीर किस्म का छात्र था। उसकी माँ ने शायद उसे कभी उसके नाम का अर्थ नहीं बतलाया होगा। प्रमोद बड़ा प्रमादी किस्म का लड़का था। स्कूल में सिर्फ सोने आता था।

बचपन में लोगों की याददाश्त बड़ी अच्छी होती है। भले ही पढ़ाई का सबक कभी याद न हुआ हो, लेकिन आज तक यह याद है कि हिस्ट्री जॉग्रफी बड़ी बेवफ़ा, रात को रटो, दिन में सफा !सितोलिया, अण्टा-पेली, खो-खो, लंगड़ी और गिल्ली-डंडा के अलावा संस्कृत की अभिनवा: पाठावलि के कुछ सुभाषित आज तक याद हैं।।

खेलते-खेलते अथवा नहाते वक्त अगर कुछ गुनगुनाते रहो तो वह अवचेतन में बैठ जाता है। फिर चाहे वह फिल्मी गाना हो, या संस्कृत का कोई सुभाषित ! ऐसा ही एक सुभाषित था –

काव्यशास्त्रविनोदन कालोगच्छति घीमताम् !

व्यसनेन तू मूर्खाणां निद्रये कलहेन वा।।

यह काव्यशास्त्र का विनोद क्या है, अब इस उम्र में जाकर समझ में आया। मूर्ख लोग व्यसन और कलह में उलझे रहते हैं, वह तो आज की राजनीति से साबित हो ही गया है, काव्यशास्त्र की चर्चा कर स्वयं को विद्वान साबित करने की कोशिश में लोग आपको बुद्धिजीवी समझने की भूल भी कर सकते हैं। मालूम है न आज की बुद्धिजीवी की परिभाषा ! इसलिए काव्यशास्त्र से भी तौबा। हम तो मूर्ख ही भले।

कैसे होते हैं ये काव्यशास्त्र के विद्वान, एक बानगी देखिये !

अच्छी फर्राटेदार अंग्रेज़ी में एक दो श्लोक संस्कृत के घुसेड़ दीजिये, संदर्भ और अर्थ तो श्रोता निकालता बैठेगा। जिसका अंग्रेज़ी और संस्कृत पर समान अधिकार हो, वह आपको हर एंगल से विद्वान ही नज़र आएगा।।

एक और तरीका है, विद्वानीयत झाड़ने का ! फलां फलां की क्लिष्ट और अभिजात्य हिंदी में शेक्सपियर और कीट्स के साथ-साथ सामवेद के कुछ श्लोकों का तड़का, और नागार्जुन/धूमिल का मात्र स्मरण ही काफी है। फिलहाल उर्दू से परहेज़ करें।

साहिर और गुलज़ार तक तो ठीक है, लेकिन किसी और को कभी भूलकर भी quote न करें ! बड़ा सेक्युलर बना फिरता है।

बुद्धू बक्से को तिलांजलि दे दें। केवल ट्विटर और फेसबुक पर ही ध्यान दें। विद्वानों की विशेष रात-पाली चलती है यहाँ। रात को एक बजे गुड मॉर्निंग पोस्ट कर, तानकर सो जाते हैं और सुबह 9 बजे की चाय के साथ आपका अभिवादन स्वीकार करते हैं।।

आजकल के विद्वान उल्लू की तरह रात-भर जागते हैं, और दिन में अमेज़ॉन पर अपनी पुस्तकें बेचते हैं। समझदार इंसान कोउल्लू, कुत्ते, चौकीदार और एक विद्वान में फर्क करते आना चाहिए। वैसे आज के युग में एक विद्वान के अलावा सभी अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभा रहे हैं। आपने सुना नहीं ! काव्यशास्त्र केवल विनोद और पुरस्कार के लिए होता है …!!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #34 – गीत – कैसे पारावार लिखूँ… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतगीत – कैसे पारावार लिखूँ

? रचना संसार # 34 – गीत – कैसे पारावार लिखूँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

 भावों की सूखी निर्झरिणी।

कैसे पारावार लिखूँ।

रंग बदलती इस दुनिया का,

कैसे जीवन सार लिखूँ।।

अवसर वादी मनुज हुआ है,

कलुषित विचार धारा है।

भेदभाव की कुटिल चाल से ,

प्रेम -भाव भी हारा है।।

मानवता पीड़ित घातों से,

भूले प्रभु उपकार लिखूँ।

*

भावों की सूखी निर्झरणी,

कैसे पारावार लिखूँ।।

 **

शोषित दैन्य दशा दीनों की,

है निराश तरुणाई भी।

पश्चिम की इस चकाचौंध में,

रोती है अरुणाई भी।।

व्याकुल है ये कवि मन मेरा,

क्या विरही शृंगार लिखूँ।

 *

भावों की सूखी निर्झरणी,

कैसे पारावार लिखूँ।।

 **

साये में बन्दूकों के अब

देख जिन्दगी पलती है।

खंडित प्रीति विकल मन विचलित

अँगड़ाई भी खलती है।

पथराई आँखे जन जन की ,

जलते हैं अंगार लिखूँ।

 *

भावों की सूखी निर्झरणी,

कैसे पारावार लिखूँ।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #261 ☆ भावना के दोहे – नववर्ष ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – नववर्ष )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 261 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – नववर्ष ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

कहते हैं हम अलविदा, जाने वाला साल।

मीठी यादें हैं बहुत, रखना इसे सम्भाल।।

*

अंतर कुछ भी है नहीं, मन में यही सवाल।

दिवस-रात चलते रहें, तभी बदलता साल।।

*

चन्दा-सूरज हैं वही, नहीं बदलती चाल।

दिवस-महीने बोलते, सज्जित होता साल।।

*

 कैलेंडर बदलाव से, कहाँ बदलते हाल।

बदलो अपनी सोच को, रहता यही सवाल।।

*

खुशियों की है पोटली, लेकर आया वर्ष।

बाँट रहा मुस्कान यों, दिल में छाया हर्ष।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #243 ☆ अब शहर में अखबार बहुत हैं… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी रचना  अब शहर में अखबार बहुत हैं आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 243 ☆

☆ कविता – अब शहर में अखबार बहुत हैं… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

खबरों   के   कारोबार   बहुत  हैं

अब  शहर में  अखबार  बहुत  हैं

होता है पढ़ कर मन भी विचलित

हिंसा , लूट,  बलात्कार   बहुत  हैं

*

खबरी   चैनलों   की   भरमार   है

खबरें   कैद    होती   बेशुमार   हैं

पर दिखती वह हैं जिन पर उनको

मिलता जिनसे माफिक इश्तहार है

*

रद्दी    चौकी    का   चौराहा

जो भी निकला वही  कराहा

बाएं मोड़ भी  गायब दिखते

चलते तब जिसने जब चाहा

*

लाल    बत्ती   ताकती   रहती

नियम यह कितनों ने निभाया

कुछ  केमरे  देख  कर  चलते

जिसने चालान  घर  पहुंचाया

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “नववर्ष पर…” ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता खंडकर

 ☆ कविता  – “नववर्ष पर” 🕯️ ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

बीते हुए कल की तरफ,

मुडकर जरा देखना |

🕯️

खुशियोंवाले लम्हों को,

एक बार फिर जी लेना |

🕯️

दुखभरी यादों का मगर,

गम अभी न करना,

🕯️

तब भी थे साथ, उनका,

शुक्रिया अदा करना |

🕯️

जिंदगी की चुनौतियों को,

हिम्मत से गले लगाना,

🕯️

कामयाबी का स्वागत,

बडी विनम्रता से करना |

🕯️

कार्य के तनाव में,

इन्सानियत न खोना,

प्रेम से विश्वास का,

दीपक जलाये रखना |

🕯️        

© सुश्री प्रणिता खंडकर

ईमेल – [email protected] वाॅटसप संपर्क – 98334 79845.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कॅनवास… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

कॅनवास ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

(वनहरिणी)

मान्य की माझ्या ह्या जन्मीचा, कॅनवास हा अफाट नव्हता

सटवाईने लिहिला भाळी,विधीलेखही अगम्य नव्हता

*

तशी फारशी नव्हती वळणे,वाट बिकट वा नव्हती खडतर

भरकटणे वा चुकणेबिकणे,वहिवाटेला नव्हते मंजुर

*

जन्मजात पण रक्तामधला,होवु लागला मुंज्या जागा

हळूहळू मग चाकोरीला,ग्रासु लागली पिशाच्चबाधा

*

दावे तोडुन एक वासरू,कळपामधुनी गहाळ झाले

बेछूट आणि उदंड होवुन, झपाटलेल्या रानी आले

*

तसाच झालो बंधमुक्त मी,हद्दीमधुनी हद्दपारही

मोडुन तोडुन सर्व नकाशे,जरा जाहलो विश्वंभरही

*

अरुणप्रभेचे सूर्यास्ताचे,चढणीचे अन् उतरंडीचे

क्षणांत साऱ्या रंग मी भरले,काळजातल्या इंद्रधनूचे

*

रंगत गेला रंगसोहळा, कॅनवासही विराट झाला

मुळे पोचली अथांगात अन् शेंडा माझा गगनी भिडला !

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “आली गाडी.. गेली गाडी..…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “आली गाडी.. गेली गाडी…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

“सांगितलं कि गं तुला कितीतरी बाऱ्या!… माझ्या गावा कडं येताना तू मोकळीच येऊ नगंस म्हनून!… तिकडनं मंमईहून येताना माझ्या सासुरवाशीण लेकीला संगट घेऊन येशील, चार दिवस आपल्या म्हातारीला भेटायला… पन तू काय मनावर घायचं नावं घेत न्हाईस!… अन फुकाच्या मातूर दिसरातीच्या सतरा बाऱ्या येरझारा घालतीस… तसं तुला काय गं कुणाच्या सुखदुखाचं काय पडलेललं नसतयं म्हना!… तू जोडून घेतलेला हाय नव्हं त्यो चौवीस डब्यांचा बारदाना… आमच्यावानी संसाराचा ओढत जातीस तुझा गाडा…बाया बापड्या, बापयं गडी मानूस, लेकरं बाळं, ट्रंका, बोचकी, पिशव्या नि हबशींनी ओतू जातोय डब्बा डब्बा… जसा जीवनाच्या प्रवासाला निघतातं तसं…कुणी हसतया,कुणी रडतया तर कुणी इवळतया तर कुनाची कुजबूज, शबुद नसलेली धुसफूस तर कुनाची कावाकाव…तुला यातलं काही कळंत नसतया तुझी असती रूळावरून वाघ पाठीमागं लागल्यासारखी धावाधाव…जाशील तिकडं मुलूख तुला थोडा जसा दक्षिणेतलं रामेश्वर अन उत्तरेतलं काशी…सगळीच अनोळखी कुणं कुणाची कशाला करतीय चवकशी… जो तो इथं वागतोय तालेवार असल्यावानी…सगळ्यांना घेतीस सामावून तू आपल्याच पोटात.. अन जो तो असतो आपल्याच नादात.. कुणाचं दुखलं खुफलं… मन फुलून आलं आनंदान.. तुला गं पडाया कशाची फिकीर.. शिटीवर शिटी फुंकत जातीस वरडत नि एकेक स्टेशान मागं सोडंत.. जत्रा भरेली फलाटावरची चढ उतार होतेय तू आल्यावर… वाईच पोट होतयं तुझं  ढवळल्यागत… पर तुला काहीच फरक पडतो काय… फलाटाला सोडून गेल्यावर त्या फलाटाचा उसासा तुला कधी कळतो काय?… साधू संतावानी तू अशी कशी गं निर्लेपवानी… अन तुला कसं कळावं एका आईचं आतडं कसं तिळ तिळ तुटतयं  लेकीच्या भेटीसाठी.. चार वर्षांमागं लेकीला गं सासरला धाडलं…काळजाचा तुकडाच दूर दूर गेला नि भेटीगाठीला गं आचवला… सांगावा तो तिचा यायचा सठीसाही माहीला सुखी आहे पोरं कानात सांगुन जायचा.. परी पोरीच्या भेटीसाठी जीव तो आसुसलेला असायचा… लिहा वाचायची वानवा हाय माझ्याजवळ..पतुर पाठवाया  उभा राहायतयं धरम संकट.. फोनची श्रीमंती आमच्या खेड्यातपतूर पोहचलीच नाही… बोलाचाली चा मायेचा शबुद सांग मंग कानावर कसा पडावा बाई..इकडच्या धबडगा घराचा उंबरठा नि शेताचा बांध कधी मला गावाची वेस वलांडून देईनात खुळे… अन तिकडं पोरीला सासरच्या जोखडात अडकवून टाकतात कारणांचे खिळे… मग तुझा घ्यायचा आधार असं मला लै मनात आलं.. म्हटलं तू सारखी ये जा करतीस लाखावरी माणसांची ने आण करतीस मगं तुला माझ्या पोरीला एकडाव तरी संगट घेऊन यायला जड कशाला जाईल.. अगं चार दिसं नसंना पण उभ्या उभ्या येऊन पोरं जरी येऊन भेटून, नदंरला पडून गेली तरी बी लै जीवाला बरं वाटंल बघ.. सकाळी सकाळी तू तिला इथं सोडायचं अन रातच्याला माघारी घेऊन जायचं… तू म्हनशील मगं तूच तसं का करीनास… न्हाई गं बाई… पोरीची अजून कूस उजवली नाही तवर तिच्याकडं जाता येत न्हाई हि परंपरा हायं आमची… तवा तुझ्याकडं पदर पसरून मागणं केलं… काही बी करं कसं बी जमवं पण एक डाव, या वेड्या आईला तिच्या पोरीची भेट एवढी घडवं… आणि पोरीला आणशील तवा हसऱ्या चेहऱ्याने  निळ्या धुराचा पटका हवेत उडवत, आनंदाचा हिरवा बावटा फडकत फलाटावर येशील… गळाभर लेकिला तिचं मी भेटल्यावर मायेच्या पायघड्या घालून तिला माहेराच्या घराकडं नेईन…औटघटकेचं का असंना पण माहेरपण करीन…आणि…रातच्याला पाठवणी करायला येईन तवा तू वेळ झाली निघायची म्हणून शिटीवर शिटी फुंकत…अंधारातल्या आकाशात ताटातुटीचे उमाळाचे काळे सावळे धुराचे सर रेंगाळत सोडशील…अन फलाट सोडून निघशील तेव्हा जड अंतकरणानं पाय टाकत पुढे पुढे जाताना… क्षणभरासाठी का होईना लालबावट्याला बघून थांबशील… वेड्या आईकडं  पोरीनं  पुन्हा एकदा मान वेळावून खिडकीतून बघितलं का याचा अंदाज घेशील… दोन निरोपाचे आसू गालावर टपकलेले निपटलेले  दिसल्यावर तू तिथून हलशील… इतकचं इतकचं माझ्यासाठी करशील… करशील नव्हं… “

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ “लोकसाहित्य-संशोधनात रमलेली विदुषी” – भाग – २  ☆ डॉ. वि. दा. वासमकर ☆

डॉ. वि. दा. वासमकर

?  विविधा ?

☆ “लोकसाहित्य-संशोधनात रमलेली विदुषी” – भाग – २  ☆ डॉ. वि. दा. वासमकर ☆

(विधीनाट्यांमध्ये पूर्वरंग आणि उत्तररंग असे दोन भाग असतात पूर्वरंग हा परंपरेनुसार धर्मविधीसाठी राखून ठेवलेला असतो त्यात ईश्वरविषयक किंवा तत्त्वज्ञानविषयक तात्विक व गंभीर विवेचनाचा भाग असतो. आणि उत्तररंगात तद्नुषंगिक आख्यानात लोकरंजन आलेले असते, असे त्या स्पष्ट करतात.) इथून पुढे —

‘लोककलांची आवाहकता’ या लेखामध्ये अलीकडच्या काळात मराठी रंगभूमी लोककलांचा आश्रय घेताना दिसते. असे त्या सुरुवातीलाच म्हणतात. ‘घाशीराम कोतवाल’ या नाटकापासून दशावतार, गोंधळ, भारूड, जागरण अशा लोकनाट्यविधांचा उपयोग अनेक नवीन नाटकांनी केलेला आहे. याचे कारण सांगताना त्या म्हणतात, -“पश्चिमेचे अनुकरण हे एक कारण आहेच. पण केवळ पश्चिमेच्या एखाद्या नाटकाच्या अनुकरण करणे एवढ्याच एका प्रेरणेने मराठी नागर नाटकात लोकनाट्याचा प्रवेश झाला आहे काय?… आपले एकूणच आधुनिक जीवन हे दिवसेंदिवस तंत्रज्ञानाधीन होत चालले आहे. आधुनिक जीवनाचा निसर्गाशी आणि मातीशी असलेला संबंध तुटत चालला आहे. त्यामुळे भौतिक समृद्धी वाढत असतानाही एका पोकळीची जाणीव होत आहे. अशावेळी मानवी संस्कृती पुन्हा आपली मुळे शोधीत आहे… कलेच्या क्षेत्रातील या प्रेरणेचा आविष्कार पुन्हा नव्याने लोककलांचा शोध घेण्यातून होत आहे. कारण लोककलांमध्ये एक उत्स्फूर्तता असल्याने साक्षात जिवंतपणा असतो… जेथे जेथे समूहमनाशी नाते जोडण्याची तीव्रतेने गरज भासली, तेथे तेथे नागरकलांपेक्षा लोककला प्रभावी ठरलेल्या दिसतात. आजच ब्रेख्टमुळे नागर रंगभूमी लोककलांकडे वळली आहे असे नव्हे”. ताराबाईंच्या या भाष्यातून लोककलांचे महत्त्व आधोरेखित होते. ‘अदाची लावणी आणि नाट्यगीत’ हा आणखी एक महत्त्वाचा लेख या संग्रहात आहे. म्हणजे दरबारातील लावणी किंवा बैठकीची लावणी होय. अदा म्हणजे अभिनय. ही लावणी अभिनयप्रधान असते. तिच्यात अंगप्रत्यंगांचा लयबद्ध अविष्कार असतो. भावनांना चेतवणारे आविष्कार करणे हे या लावणीचे प्राणतत्त्व असते, असे प्रतिपादन करून प्रारंभीच्या सर्व शृंगाररसप्रधान नाट्य गीतांचे स्वरूप पाहिले, अभिनयरूप पाहिले तर बैठकीच्या अदाच्या लावणीचा हा नवा अवतार असल्याचे लक्षात येईल, असे त्या स्पष्ट करतात. अदा करणाऱ्या कलावतीची जागा स्त्रीपार्टी पुरुष नटाने घेतली पण शृंगारप्रधान नाट्यगीताचा आशय, सांगीतिक अविष्कारदृष्ट्या चाली आणि आंगिक अभिनय, मुद्राभिनय हा सर्वच आविष्कार एकसंधपणे पाहिला तर बैठकीच्या लावणीचे हे नवे रूप असल्याचे लक्षात येईल, असे मार्मिक अवलोकन त्या करतात.

तारा भवाळकर या जशा लोकसाहित्यमीमांसक आहेत, तशाच त्या स्त्रीवादी दृष्टिकोनातून विचार करणाऱ्या विचारवंतही आहेत. स्त्रीवादाच्या अनुषंगाने त्यांनी अनेक पुस्तके लिहिली आहेत. त्यातील एक म्हणजे ‘मायवाटेचा मागोवा’ हे पुस्तक. हे पुस्तक श्रीरामपूरच्या शब्दालय प्रकाशनने 1998 मध्ये प्रसिद्ध केले. या पुस्तकात दहा लेखांचा समावेश केला आहे. ‘लोक साहित्याचे पुनराकलन’ हा या संग्रहातील दुसरा लेख. हा लेख त्यांनी स्त्रीवादविषयक चर्चासत्रामध्ये वाचला होता. या लेखाच्या सुरुवातीला ताराबाईंनी स्त्रीवाद म्हणजे काय याचे स्पष्टीकरण दिले आहे. ते थोडक्यात असे -आधुनिक जीवनातील अनेक विचारधारांची निर्मिती पाश्चिमात्य जगतात झाली. आणि नंतर त्या जगभर पसरल्या. त्यातीलच एक म्हणजे स्त्रीवाद… स्त्रीकडे पाहण्याचा, तिला वागवण्याचा, तिच्याशी वागण्याचा दृष्टिकोन जगभर एकाच प्रकारचा आहे. आणि तो पुरुषांच्या तुलनेने गौणत्वाचा आहे. विषमतेचा आहे. स्त्री गौण आहे; पुरुषप्रधान आहे; ही भूमिका कुटुंब, समाज, धर्म, राज्य, अर्थ, संस्कृती आदी सर्व क्षेत्रात अनेक वर्षे नांदत आहे. आणि ही विषमता केवळ लिंगाधारित विषमता आहे… स्त्री-पुरुष विषमतेतून खरे तर विषमतेच्या जाणिवेतून, आधुनिक जगात स्त्री विषयक चळवळी सुरू झाल्या. यांतून संघर्षरत असलेल्या स्त्रीच्या जाणिवा अधिक विकसित झाल्यानंतर स्त्रीला स्वतःच्या स्थितीचा आणि म्हणूनच एकूणच मानवी समाजातल्या स्त्री-पुरुष नातेसंबंधाचा पुनर्विचार करण्याची तीव्र गरज भासू लागली… सृजनशील स्त्रीला आपले गौणत्व नेहमीच जाचत होते. प्रस्थापित व्यवस्थेविरुद्ध तिने आवाज उठवायला सुरुवात केली आणि या चळवळीतून सिमॉन द बोव्ह या फ्रान्समधील स्त्रीच्या ‘द सेकंड सेक्स’ या ग्रंथाची निर्मिती झाली 1949 मध्ये प्रकाशित झालेल्या या ग्रंथाचा जगाच्या पाठीवरील सर्व प्रमुख भाषांमध्ये भाषांतर झाले. आणि यातून स्त्रीवादी चळवळीचा उदय झाला. आपल्याकडेही अनेक विचारवंत स्त्रिया या चळवळीशी निगडित झाल्या. त्यातील एक म्हणजे डॉ. तारा भवाळकर. ताराबाईंनी स्त्रियांच्या भावना त्यांच्या गीतातून, कथातून, किंवा म्हणी – उखाण्यातून कशा प्रकट झाल्या आहेत याचे चित्रण अनेक लेखांमध्ये केले आहे. ‘लोकसाहित्याचे पुनराकलन’ या लेखांमध्येही त्याचा प्रत्यय येतो. त्या लिहितात – 

देवा नारायणा माझी विनंती फार फार |

जन्म बायकांचा नको घालूस वारंवार ||

अशा स्त्री जन्माला नकार देणाऱ्या ओव्या स्त्रीगीतातून अक्षरशः शेकड्याने सापडतात, असे ताराबाई म्हणतात. त्या पुढे म्हणतात, “लोकगीतातून एरव्ही रामाचे कितीही कौतुक केले असले तरी त्याने गर्भवती सीतेचा परित्याग करणे स्त्री मनाला रुचलेलं नाही. तो लोकगीतातील स्त्री मनाला फार मोठी जखम करून गेलेला दिसतो.

सीता पतिव्रता नाही रामाला कळाली |

वनाच्या वाटेवरी चाके रथाची गळाली ||

असे म्हणून पुरुषसत्तेचा प्रतिनिधी असलेल्या रामाची अन्यायी वृत्ती चव्हाट्यावर मांडली आहे. ‘किती चतुर बायका’ हा लेखही स्त्रीवादी दृष्टिकोनातून लिहिला आहे. या लेखामध्ये शंकर-पार्वतीचा एक संवाद उद्धृत केला आहे. या संवादात शंकर आणि पार्वती एकमेकाला कोडी घालत असतात – ऐका हो शंकरा बोलाचा अर्थ करा असे पार्वतीने म्हटल्यावर संशयग्रस्त शंकर विचारतात – ऐकलं ग पार्वती बोलाचे अर्थ किती? कोणाला हात देत होतीस, कोणाला पाय देत होतीस, कोणाच्या मुखाकडे पाहून तू हसत होतीस या ओळींमध्ये शंकराने एका परीने पार्वतीला आरोपीच्या पिंजऱ्यात उभं केलं आहे. यावर पार्वती मिश्किलपणे म्हणते- कासाराला हात देत होते, सोनाराला पाय देत होते, आरशाच्या मुखाकडे पाहून मी हसत होते हे उत्तर ऐकत राहताना पार्वतीच्या ओठाच्या कोपऱ्यात हसू दिसायला लागतं. हे उत्तर देणारी पार्वती नक्कीच चतुर आहे; असे ताराबाई म्हणतात.

 सारांश डॉ. तारा भवाळकर यांचे लोकसाहित्य संशोधन विचारात घेतले की, त्यांच्या चिकित्सक, मर्मग्राही दृष्टिकोनाचा सहज प्रत्यय येतो. त्यांच्या विपुल लेखनाचे सार थोडक्यात सांगायचे झाले तर त्या लोक संस्कृतीशी, स्त्रीच्या मानसिकतेशी अंत:करणापासून जोडल्या गेल्या आहेत.

– समाप्त –

लेखक : डॉ. वि. दा. वासमकर

सांगली (महाराष्ट्र)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “गोष्ट तशी जुनीच…” – भाग – २ –  लेखिका : डॉ. तारा भवाळकर ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? जीवनरंग ❤️

☆ “गोष्ट तशी जुनीच…” – भाग – २ –  लेखिका : डॉ. तारा भवाळकर ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित

(ही बहिणही रडत भेकत माहेरी आली. तर सगळे तिला म्हणाले, ” हे बघ, एकदा नीट पाहून तुझे आम्ही लग्न लावून दिलं होतं. आता तू आणि तुझं नशीब. ” ) – इथून पुढे — 

” असं कसं, असं कसं ? आता तिच एकटीचच नशीब कस?

त्या नव-याचही नशीब नाही का ?आणि तिची सासू आमच्या

मरून गेलेल्या आईचा काय म्हणून उद्धार करते ? मोठ्या ताईला आणि दुस-या माईला दोन दोन मुलगे कसे झाले मग आधी ? त्या नाहीत का याच आईच्या लेकी. “

” पुरे ग, तुझी अक्कल नको पाजळू. प्रसंग काय, ही बोलतीय काय ? “

” काय चुकीचं बोलले ? अं, खरं तर हे तुम्ही तिच्या सासरच्या माणसांना ठणकावून सांगायला हवं होतं. आणि तिचा नवरा एवढा शिकला सवरलेला हिला काडीमोड न देताच असं कसं दुसरं लग्न करतो ? बेकायदेशीर नाही का ते ? ही आपली रडत भेकत इथं आली. तिथं नव-याला आणि सासूला नाही का जाब विचारायचा. लग्नाच्या आधी माहित होतं ना त्यांना आम्ही चौघी बहिणीच आहोत म्हणून. “

“अग पण तुला विचारलय का कुणी ? अं? आम्ही मोठी माणसं आहोत ना ? तिला त्यांनी घटस्फोट दिला आणि उद्या ही पोरींच्या सकट माहेरी पाठवून दिली तर सांभाळणार कोण त्यांना ? “

” मग काय त्याच घरात राहणार काय ही सवती बरोबर ? “

” काय करणार मग? त्याच्याशी बोलणं झालंय आमचं. तो हिलाही नांदवायला तयार आहे. हा मोठेपणाच की त्याचा. “

” डोंबलाचा मोठेपणा. मुलगा किंवा मुलगी होण्यात बाईचा काहीच दोष नसतो, असला तर पुरुषाचाच असतो हे शास्त्रानं सिद्ध झालय. तुम्हालाही हे माहित आहे आणि त्यालाही हे माहीत आहे. “

” अग पण त्यांच्या वंशाला मुलगा हवा असला तर त्यांना ? “

” कशाला पण ? मुलगी नाही का वंशाचं नाव मोठं करीत ? आणि मुलगा व्यसनी, मठ्ठ, गुन्हेगार झाला आणि एकुलता एक म्हटलं की हमखास अती लाडानी तो तसाच होतो, तर मग त्या वंशाचं नाव काय कोळश्यानं लिहीणार आहेत का हे लोक ? “

” अग बाई, काय तोंडाला हाड आहे का नाही तुझ्या ? जरा शुभ बोलायला काय होतं तुला ? “

” तुम्ही सगळी करणी अशुभ करा. “

” जाऊ दे, मरु दे. आता हिचचं एकदा लग्न करून द्या. मग हिची चुरुचुरू बोलणारी जीभ काय करते ते दिसेल “

अखेर वडीलच म्हणाले 

” हिने आजवर माझं काहीच ऐकलं नाही. ” ते ही थकले होते आता.

” काॅलेजला जाऊ नको म्हटलं, गेली. मैदानावर मुलांच्या बरोबर खेळू नको म्हटलं तर अर्धी चड्डी घालून उंडारतीय. तोंड सुटल्यासारखी कुठे कुठे भाषण करतीय. कोण हिच्याशी लग्न करणार? सज्जन घरात तर हिचा निभाव लागणं कठीण! “

” कुणी सांगितलं तुम्हाला माझं लग्न करा म्हणून. आणि यांना सगळ्यांना जी सज्जन घरं पाहून दिली होती त्यांनी काय दिवे लावलेत ? “

खरंतर तिचं म्हणणं सगळ्यांना मनातून पटत होतं. पण कबूल करवत नव्हत. घरातला विरोधही दिवसेंदिवस बोथट होत गेला होता.

तिला जे जे करावसं वाटत होतं ते ते ती करतच होती. पण वडिलांच्या कडून पैसे घेणे तिने कधीच बंद केलं होतं. हायस्कूल मध्ये ती सतत वरच्या वर्गात होती. त्यामुळे तिला फी पडत नव्हती. शिवाय किरकोळ खर्चासाठी शिष्यवृत्ती मिळत होती. सतत कुठल्या ना कुठल्या स्पर्धेत तिला बक्षीस मिळत होती. इतकं करून कॉलेजला इतर मुलींच्या सारखे तिचे नखरे नव्हते. नटण्या मुरडण्याची, दाग दागिन्यांची तिला आवड नव्हती. मोजके पण व्यवस्थित कपडे आणि नीटनेटकी स्वच्छ रहाणी. तरी अशी काय भणंगासारखी राहते ? मुलीच्या जातीला शोभेसं राहू नये का? बांगड्या नाहीत, गळ्यात नाही. काही नाही. घराण्याची अब्रू काढते नुसती. अशा कुरबुरींच्याकडे तिने कधीच लक्ष दिल नाही. कॉलेजच्या दुसऱ्या वर्षापासूनच तिने एका कारखान्यात अर्धवेळ नोकरी धरली होती. एक श्रीमंत सेवाभावी गृहस्थानी केवळ बायकांना स्वावलंबी होता यावं म्हणून हा कारखाना सुरू केला. तिचं कामातलं कौशल्य, लोकसंपर्क साधण्याची कला, कष्टाळूपणा, प्रामाणिकपणा याची नोंद वरिष्ठांनी कधीच घेतली होती. तिचं काॅलेजच पदवीचं वर्ष संपलं आणि मालकांनी तिला मुद्दाम बोलावून घेतल.

“आता काय करणार आहेस ?”

“तसं काही ठरवलं नाही. पण काहीतरी कायमची नोकरी, कामधंदा करायचा आहे हे निश्चित. “

” आहे हेच काम वाढवायला आवडेल तुला?”

” म्हणजे ?”

“एक नवीन युनिट सुरू करायचय. खास ग्रामीण महिलांसाठी. इथं कोणती 

उत्पादन करायची, महिलांना प्रशिक्षण कसं द्यायचं, दर्जा कसा वाढवायचा, बाजारातला खप कसा वाढवायचा अशा सर्वांगीण जबाबदारी घेणाऱ्या व्यक्तीच्या शोधात मी आहे. तुझी इच्छा असेल तर ही जबाबदारी घेण्यासाठी मी तुला निमंत्रण देतोय असं समज. “

क्षणभर ती गोंधळली. पण दुस-याच क्षणी तिच्या नजरेत आणि अविर्भावात असा भाव होता की हे असच व्हायला हवं होतं. मला प्रथम विचारलं याच्यात काहीच आश्चर्य नाही. तरी मृदूपणाने ती म्हणाली 

” तुमच्या विश्वासाला मी तडा जाऊ देणार नाही. “

आणि आता ? आता ती कारखानामय झाली. घरात राहणं जवळजवळ संपलं. आवश्यक कामासाठीही घरी जायला वेळ मिळेना. अखेर मालकांनीच कारखान्याजवळ तिच्या निवासाची चांगली व्यवस्था केली. एक दिवस शिपाई काम करणारी तिची सहकारी बाई सांगत आली, “बाहेर दोघीजणी तुम्हाला भेटण्यासाठी केव्हाच्या थांबल्या आहेत. तुम्ही मिटींग मधे होतात म्हणून सांगितल, “थांबा”. पण तरीही त्या थांबूनच राहिल्या. आता यातही तिला नवीन काहीच नव्हतं. तिची आणि तिच्या कारखान्याची कीर्ती, व्याप वाढतच होता. कोणी कोणी माणसं अखंड तिच्या भेटीसाठी खोळंबून असत. कधी व्यापारी, छोटे उद्योजक, कधी कुठल्या संस्थेच्या

कार्यक्रमासाठी तिला पाहुणे म्हणून निमंत्रण करणारे आणि कधी कधी काम मागणारे. आता केवळ स्त्रियांसाठी यापेक्षा गरजू आणि पात्र कामगारांसाठी मग त्या स्त्रिया असोत की पुरुष. तिचा कारखाना चालू होता. त्यातून तरुण तरुणी नवनवीन कल्पना घेऊन ताज्या उत्साहाने तिच्या कारखान्यात काम करत होते. माणसातल्या कष्टाळूपणाला आणि प्रामाणिकपणाला तिथे जास्त किंमत होती. दिखाऊ दिमाख त्यांना वर्ज्य होता.

“बाईसाहेब, पाठवू का त्या दोघींना आत ? “

खरंतर आता तिला थोडी शांतता हवी होती. खूप वेळ कामात राहिल्याने शीण आला होता. तरी ती म्हणाली “हो पाठव ” 

दोन ओढलेल्या प्रौढा समोर खालमानेने उभ्या होत्या. फाईल मध्ये पाहतच, अंदाज घेत तिने विचारलं “हं, काय काम होतं ?”

त्रयस्थ स्वर ऐकून त्या आणखीनच काव-या बाव-या झाल्या. तिची मान अजून फाईलमध्येच होती.

” काम हवं होतं. “

हे ही नेहमीचचं.

कसलं काम? काय करायची तयारी आहे ? “

” काहीही “

” कधीपासून येणार? “

” अगदी आजपासूनही. फार गरज आहे हो. “

सलग दोन वाक्य कानावर पडली तेव्हा ती काहीशी चमकली. हळूच नजरेच्या कोपऱ्यातून दोघींच्याकडे तिने पाहिलं. अंदाज खरा होता. क्षणभर ती विमनस्क झाली. आपल्याला वाईट वाटतंय की संताप येतोय हे तिचं तिलाच कळेना. पण आपल्या भावनांच्या वर नियंत्रण ठेवणं आता तिचा स्वभाव झाला होता. त्याखेरीज हा एवढा मोठा व्याप जबाबदारीने सांभाळणं शक्य नव्हतं.

पुन्हा त्यांच्याकडे पाहिलं न पाहिलंस करुन तिनं शिपाई बाईला तिच्या हाताखालच्या व्यवस्थापकांच्याकडे न्यायला सांगितलं आणि त्या बाहेर पडताच व्यवस्थापकांना फोनवरून आवश्यक त्या सूचना दिल्या. दोन महिने गेले. दोन-तीन दिवस कारखान्याला दिवाळीची सुट्टी होती. रितीप्रमाणे सर्वांना दिवाळी भेट दिली गेली.

कारखाना आता शांत वाटत होता.

त्या दोघींच्याकडं तिचं नकळत लक्ष होतं. आता त्या रुळल्या होत्या. बुजरेपणा कमी झाला होता. सुरुवातीला संध्याकाळी थकल्यासारख्या दिसायच्या. आता उत्साही दिसत. दिवाळीची भेटवस्तू घेऊन जाताना आज त्या ताठ मानेने ब

बाहेर गेल्या. दिवाळीची सकाळ. तिने निरोप दिल्याप्रमाणे ठरल्यावेळी त्या दोघी तिच्या घरी गेल्या. आज तीच काहीशी कावरी बावरी झाली होती. आपण केलं ते बरं की वाईट तिचं तिलाच ठरवता येत नव्हतं. तरी समाधान होतच. दारातून प्रसन्नपणे तिने दोघींना हात धरुन आत आणलं. कोचावर बसवत म्हणाली, ” या, ताई, माई. खूप बरं वाटलं. “

” तुम्ही ओळखलतं? “

“तूच म्हणा. मी प्रथमच तुम्हाला ओळखलं होतं. तुमची परिस्थिती माझ्या कानावर येत होती. पण मी जाणीवपूर्वक घराकडे पाठ फिरवली होती. आपली विश्वं एकमेकांच्या पासून फार दूर होती. रोज खाणाखाणी करत एकमेकांना घायाळ करत जगण्यातनं काय निष्पन्न होणार होत? तुमची पिढ्यान पिढ्यांची चाकोरी, विशेषतः मनांची, माझ्या बोलण्या वागण्याने बदलणार नाव्हती. उलट कटूता वाढणार होती. म्हणून मी शांतपणे घर सोडलं. पण तेव्हाही मला माहीत होतं, एक दिवस नक्की तुम्ही माझ्याकडे येणार आहात. “

” मग आम्ही आलो त्यावेळी ओळख का नाही दिलीसं?”

” फार अवघड गेल मला तेव्हा दुरावा दाखवणं. पण तुमची तुम्हाला नीट ओळख व्हावी म्हणून दूर राहणं मला गरजेचं वाटलं. “

“नाही, खरं आहे. त्यावेळी तू ओळख दाखवली असतीस तर आम्ही परत ऐदीपणानं तुझ्याकडूनच मदतीची अपेक्षा करत राहिलो असतो. त्याचा सर्वांनाच त्रास झाला असता. “

“मुख्य म्हणजे तू म्हणतेस तशी आमची आम्हाला ओळखच पटली नसती. खऱ्या अर्थाने तुझी ही ओळख झाली नव्हती. कामातला आणि स्वावलंबनातला आनंद या दोन महिन्यांनी दिला. महत्त्वाचे म्हणजे स्वातंत्र्याचा अर्थ कळला. बळ कळलं. हो, नाहीतर पूर्वीसारखच म्हणत राहिलो असतो, स्वातंत्र्याच्या नावावर ही भरकटतीय. खरंतर केवढी मोठी जबाबदारी तू पेलतीयेस. स्वातंत्र्य म्हणजे जबाबदारी. त्यात बळही आहे. आनंदही आहे. वेगळ्या नशिबाची गरजच काय. “

कितीतरी वर्षांनी सगळ्या बहिणी खऱ्या अर्थाने मायेने जवळ आल्या होत्या. सगळे तपशील त्यात वाहून गेले होते.

— समाप्त —

लेखिका : डाॅ. तारा भवाळकर 

प्रस्तुती : सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – आत्मसाक्षात्कार ☆ मी… तारा… – भाग – ३ ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? आत्मसाक्षात्कार ?

☆ मी… तारा… भाग – ३ ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

(आत्मसाक्षात्कार म्हणजे स्वत:शीच केलेलं हितगुज किंवा आपणच घेतलेली आपली मुलाखतच म्हणा ना!

डॉ. तारा भावाळकर या लोकसाहित्याच्या आणि लोकसंस्कृतीच्या अभ्यासक समीक्षक आणि संशोधक. या व्यतिरिक्त नाट्य, समाज, शिक्षण इ. अन्य क्षेत्रातही त्यांच्या लेखणीने करामत गाजवली आहे. त्यांनी आपला लेखन प्रवास, कार्यकर्तृत्व, आपले विचार, धारणा याबद्दल जो आत्मसंवाद साधला आहे… चला, वाचकहो… आपण त्याचे साक्षीदार होऊ या. वस्तूत: ही मुलाखत १३ एप्रील १९२१ पासून क्रमश: ई-अभिव्यक्तीवर ५ भागात प्रसारित झाली होती. आज डॉ. तारा भावाळकर विशेषांकाच्या निमित्ताने ही मुलाखत आम्ही पुन्हा प्रकाशित करत आहोत.. उज्ज्वला केळकर )

तारा – याशिवाय ताराबाईंनी आणखी काही लिहिलय की नाही?

ताराबाईलिहिलय….. इथून पुढे )

ताराबाईज्याला संकीर्ण स्वरूपाचं म्हणता येईल, असं ताराबाईंनी खूप काही लिहिलय. सुरुवातीच्या काळात हरिवंश राय बच्चन यांच्या कवितांचा… खंडकाव्याचा… ‘मधुशाला’चा अनुवाद त्यांनी केलाय. निरनिराळी व्यक्तिचित्रे असलेले, ‘माझीये जातीचे’ सारखे पुस्तक त्यांनी लिहिले आहे. ‘मरणात खरोखर जग जगते’ सारखा एखादा कथासंग्रह आहे. ललित लेखन आहे. समीक्षा लिहिल्या आहेत. काही संपादनं केली आहेत. आचार्य जावडेकर यांच्या जेलमधील पत्रांचे संपादन केलं आहे. रा. रं. बोराडे यांच्या ग्रामीण स्त्रीविषयक कथांचे संपादन केले आहे. त्याला प्रस्तावना लिहिल्या आहेत. ज्याला अवडक-चवडक म्हणता येईल, असं आत्मकथनपर लेखनही त्यांनी बरंच केलं आहे.

तारातर ताराबाई, तुमच्या एकंदर लेखनाचा धावता परिचय तुम्ही करून दिलात, आता तुम्हाला मागच्या आयुष्याकडे वळून पहाताना काय वाटत? धन्यता वगैरे… ? आणि ही वाटचाल करताना तुम्हाला मार्गदर्शन कुणाचं मिळालं का? तुम्हाला कुणाचं काही घ्यावसं वाटलं का? किंवा तुमच्यासमोर लेखनाबाबत कुणाचे आदर्श होते, याबद्दल काही सांगाल का?

ताराबाईत्याचं काय आहे, एकाच एका मार्गदर्शकाची ताराबाईंना कधी गरज वाटली नाही आणि ते शक्यही नव्हतं. कारण त्या महाविद्यालयात गेल्या नाहीत. शिकणं आणि शिकवणं या गोष्टी एकाच वेळी त्या परस्परावलंबी अशा करत गेल्या. पण सुदैवाने प्राथमिक शिक्षणापासून, कुणी ना कुणी तरी, ज्यांना आपण गुणी माणसं म्हणतो, मोठी माणसं म्हणतो, ते पाठीवर हात ठेवणारे लोक मिळत गेले. लोकसाहित्याच्या अभ्यासाला दिशा दाखवणारी, रा. चिं. ढेरे, प्रभाकर मांडे यासारखी जेष्ठ मंडळी, नरहर कुरूंदकर, मुंबई विद्यापीठाच्या उषाताई देशमुख, सरोजिनी वैद्य अशी मंडळी भेटत गेली. सरोजिनी वैद्य यांच्या बरोबर त्या अमेरिकेला एक संशोधनपर निबंध वाचण्यासाठीही जाऊन आल्या. १९९१मध्ये आरीझोना स्टेट युनुव्हर्सिटी, अमेरिका येथील चर्चासत्रात त्यांचा सहभाग होता आणि यावेळी त्यांनी आपला लोकसाहित्यावरील संशोधनपर निबंध वाचला होता.

शांताबाई शेळके यांनी ताराबाईंचे लोकसाहित्यावरचे लेखन वाचल्यानंतर म्हंटले होते, ‘ताराबाई स्त्रीकेन्द्रित लेखन करतात. स्त्रियांविषयी पोटातिडिकेने लिहितात पण स्त्रीमुक्तीवाल्यांच्या लेखनात जी उंच पट्टी जाणवते, ती ताराबाईंच्या लेखनात नाही. त्यांचे लेखन आक्रोशी नाही. ’ कोल्हापूरला ताराबाईंना एक पुरस्कार मिळाला होता. ‘मंगल पुरस्कार’. साहित्य क्षेत्रातील विशेष योगदानाबद्दल त्यांना तो दिला गेला होता. हा पुरस्कार शांताबाई शेळके यांच्या हस्ते देण्यात आलेला होता. त्यावेळी बोलताना हे उद्गार त्यांनी काढले होते. हे भाषण चालू असतानाच अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमलनासाठी शांताबाईंची एकमताने निवड झाल्याची बातमी आली. त्यामुळे हा प्रसंग ताराबाईंच्या विशेष स्मरणात आहे.

बेळगावच्या इंदिरा संत जवळिकीच्या. कुसुमाग्रज हे नेहमीच पाठीशी होते. ताराबाईंच्या ‘लोकनागर रंगभूमी’ पुस्तकाचं पु. ल. देशपांडे यांनी विशेष कौतुक केलं होतं. पुण्याला किर्लोस्कर शताब्दीच्या निमित्ताने भाषणे करायची संधी, त्यांना पु. ल. देशपांडे यांच्या प्रशस्तीमुळे मिळाली होती. तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी यांनी पत्र पाठवून विश्वकोशात अतिथी संपादक म्हणून काम करण्याची विनंती केली होती. त्यावेळी विश्वकोशात लोकसाहित्य हा विषय प्रथम समाविष्ट झाला. असे ताराबाईंच्या पाठीवर हात ठेवणारे, प्रोत्साहन देणारे असे अचानक भेटत गेले. जगण्याच्या प्रवाहात, कुणी येतात, भेटतात, कुणी हात सोडून जातात, तसं त्यांच्याबाबतीतही झालं.

अडचणी येतच असतात. एकीकडे नोकरी, घर सांभाळणं, लेखन, भाषण, संशोधन या सगळ्या गोष्टी एकाच वेळी करत असताना, काही बर्‍या-वाईट गोष्टी घडत असतात. ताराबाई म्हणतात, ‘वाईट ते सोडून द्यायचं!’

ताराताराबाईंच्या आयुष्यात अडचणी आल्या, पण त्याचप्रमाणे अचानक आनंद देणार्‍या घटनाही घडल्या असतीलच ना!

ताराबाईहो. तर! नशिबाने चांगली माणसंही भेटत गेली. प्रोत्साहन देणारी माणसं भेटत गेली.

क्रमश: भाग ३ 

डॉ. ताराबाई भावाळकर

संपर्क – ३, ’ स्नेहदीप’, डॉ. आंबेडकर रास्ता, सांगली, ४१६४१६ मो. ९८८१०६३०९९

 प्रस्तुती – सौ उज्ज्वला केळकर 

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈