हिन्दी साहित्य – मासिक स्तम्भ ☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #3 – श्री कैलाश मंडलेकर ☆ आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

वर्तमान में साहित्यकारों के संवेदन में बिखराव और अन्तर्विरोध क्यों बढ़ता जा रहा है, इसको जानने के लिए साहित्यकार के जीवन दृष्टिकोण को बनाने वाले इतिहास और समाज की विकासमान परिस्थितियों को देखना पड़ता है, और ऐसा सब जानने समझने के लिए खुद से खुद का साक्षात्कार ही इन सब सवालों के जवाब दे सकता है, जिससे जीवन में रचनात्मक उत्साह बना रहता है। साक्षात्कार के कटघरे में बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं, जो अपना सीना फाड़कर सबको दिखा देते हैं कि उनके अंदर एक समर्थ, संवेदनशील साहित्यकार विराजमान है।

कुछ लोगों के आत्मसाक्षात्कार से सबको बहुत कुछ सीखने मिलता है, क्योंकि वे विद्वान बेबाकी से अपने बारे में सब कुछ उड़ेल देते है।

खुद से खुद की बात करना एक अनुपम कला है। ई-अभिव्यकि परिवार हमेशा अपने सुधी एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच नवाचार लाने पर विश्वास रखता है, और इसी क्रम में हमने माह के हर दूसरे बुधवार को “खुद से खुद का साक्षात्कार” मासिक स्तम्भ प्रारम्भ  किया हैं। जिसमें ख्यातिलब्ध लेखक खुद से खुद का साक्षात्कार लेकर हमारे ईमेल ([email protected]) पर प्रेषित कर सकते हैं। साक्षात्कार के साथ अपना संक्षिप्त परिचय एवं चित्र अवश्य भेजिएगा।

आज इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार – साहित्यकार श्री कैलाश मंडलेकर जी का  खुद से खुद का साक्षात्कार. 

  – जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #3 – व्यंग्य लेखन कहीं न कहीं आदमी को आश्वस्त करता है…..  श्री कैलाश मंडलेकर

श्री कैलाश मंडलेकर

परिचय

हरदा मध्यप्रदेश में जन्म

सागर विश्व विद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर ।

धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, हंस, नया ज्ञानोदय , कथादेश, अहा जिंदगी, लमही, कादम्बिनी, नवनीत, सहित सभी पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य लेखन ।

विगत तीन वर्षों से भोपाल के प्रमुख दैनिक “सुबह सवेरे ” में लिखा जा रहा व्यंग्य कॉलम ” तिरफेंक” बेहद  चर्चित ।

अब तक व्यंग्य की पांच कृतियाँ प्रकाशित ।

भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कृति ” एक अधूरी प्रेम कहानी का दुखांत ” मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी से पुरस्कृत ।

अखिल भारतीय टेपा सम्मेलन उज्जैन का पहला “रामेंद्र द्विवेदी ” सम्मान ।

पहला ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार ।

अभिनव कला परिषद का “शब्द शिल्पी ” सम्मान सहित अनेक पुरस्कार ।

हिंदी रंगमंच में सक्रिय भागीदारी। दुलारी बा , बाप रे बाप आदि नाटकों में जीवंत अभिनय ।

ई मेल [email protected]

व्यंग्य लेखन कहीं न कहीं आदमी को आश्वस्त करता है कि विसंगतियों पर उसकी नजर है…..

खुद से खुद के साक्षात्कार की यह श्रृंखला दिलचस्प है। एक दम सैंया भये कोतवाल टाइप। जब सामने कोई पूछने ही वाला न हो तो डर काहे का। जो मन मे आये पूछ डालो। यह सुविधा का साक्षात्कार है। आजकल व्यंग्य की दुनिया मे ऐसी मारामारी मची है कि किसी को इंटरव्यू लेने की फुर्सत नही है। पर व्यंग्यकार स्वावलंबी होता है। वह साक्षात्कार के लिए दूसरों पर निर्भर नही रह सकता। खुद ही निपटा लेता है। इस श्रंखला के प्रणेता श्री जयप्रकाश पांडेय हैं, वे खुद भी व्यंग्यकार हैं उनका आभार व्यक्त करते हुए अपना इंटरव्यू पेश ए खिदमत है।

सवाल – आप लेखक कैसे बने, यानी किसकी प्रेरणा से, और लेखन में भी व्यंग्य को ही क्यों चुना ?

जवाब – देखिए, लेखक बनने के कोई गुण या दुर्गुण मुझ में नही थे। बचपन एक ऐसे गांव में बीता जहां अभाव और गर्दिशों की भरमार थी। वहां नीम और इमली के कुछ दरख़्त थे जो इतने घने थे कि कई बार अनजान आदमी को यह अंदाज लगाना मुश्किल होता था कि यहां कोई बसीगत भी है या निरा जंगल है। लेकिन वहां बसीगत थी क्योंकि हम उसी जंगल मे रहते थे। रात में गांव वाले अपने घरों में घासलेट की चिमनियां जलाते थे जो फ़क़त इतना उजाला करती थी कि बच्चे अपनी परछाइयों को देख कर मनोरंजन कर सकें। तब बच्चों के मन बहलाव के और कोई साधन नही थे। घासलेट तेल की राशनिंग थी इसलिए रात भर बत्ती जलाने की अय्याशी नही की जा सकती थी।जबकि अंधेरे में कई लोगों को सांप डस लिया करते थे।और हैरत की बात यह कि लोग फिर भी नही मरते थे, ज्यादातर मामलों में सांप को ही मरना पड़ता था। रात में लोग दिया बत्ती बुझा देते थे और सारा गांव एक ख़ौफ़नाक अंधेरे के मुंह मे समा जाता था।अंधेरा सिर्फ रात की ही वजह से नही होता था, उसकी और भी वजहें थीं, और भी रंग थे। अंधेरे की उपस्थिति जब अटल हो जाती है तब लोग उससे प्यार करने लगते हैं अंधेरा बाज दफे सुरक्षा के अभेद्य किले की तरह होता है हम लोग अंधेरे के आगोश में महफूज रहना सीख गए थे। घासलेट की बत्तियों से उजाला नही होता, वे सिर्फ उजाले का भरम पैदा करती थीं। ऐसी मुश्किलातों में रह कर या तो चोर बना जा सकता है या लेखक, बन्दे ने लेखन का रास्ता चुना। व्यंग्य लिखना यों सीखा कि गांव से निकलकर जब कॉलेज पढ़ने शहर में आये तो लाइब्रेरी में परसाई जी को पढ़ने का मौका हाथ लगा।उन्हें पढ़कर लगा कि असली लेखन यही है। फिर धीरे धीरे खुद भी लिखने की कोशिश की। नई दुनिया मे अधबीच में व्यंग्य छपने लगे। छपी हुई रचनाओं की कटिंग्स परसाई जी को भेजते रहे। कुछ दिनों बाद उनसे मिलने भी गए। उन्होंने कहा लिखो, अच्छा लिखते हो। बाद में अजातशत्रु का साथ मिला तो हिम्मत बढ़ती गई। धीरे धीरे किताबें छपने लगी। एक संग्रह ज्ञानपीठ ने छापा। हिंदी के मूर्धन्य आलोचक डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय ने एक इंटरव्यू में कहा कि मध्यप्रदेश के कैलाश मण्डलेकर बहुत अच्छा व्यंग्य लिखते हैं। डॉ ज्ञान चतुर्वेदी ने कई जगह खाकसार के व्यंग्य लेखन की सराहना की। बस यही सब बातें हैं जिन्होंने व्यंग्यकार बना दिया। अब स्थिति यह है कि व्यंग्य ही लिखते बनता है और कुछ नही।हालांकि कहानियां भी लिखी पर उनमें भी व्यंग्य की ही अंतर्धारा है। इधर व्यंग्य आलोचना पर भी काम कर रहा हूँ। व्यंग्य आलोचना पर एक किताब जल्दी ही आने वाली है।

सवाल – आपके व्यंग्य की अपनी अलग शैली है, आपको पढ़कर अलग से पहचाना जा सकता है।इसे आपने कैसे साधा ?

जवाब – यह अच्छी बात है कि मेरे व्यंग्य अलग से पहचाने जाते हैं और अब मैं अपनी मौलिकता के साथ हूँ।जहां तक साधने की बात है तो निवेदन है कि यह मामला मशीनी नही है धीरे धीरे होता है।भाषा तो बनते बनते बनती है।मेरे व्यंग्य लेखन की विशिष्टता, जैसे कि कुछ लोग कहते हैं विशुद्ध निबंधात्मक नही होते उनमें कथा तत्व भी झांकता है। मुझे लगता है कुछ बातें यदि कथा में पिरोकर किसी पात्र के मार्फ़त कही जाए तो वह ज्यादा सटीक और सार्थक ढंग से पहुंचती है।

सवाल – आपके व्यंग्य में जो पात्र होते हैं वे आसपास के ही होते हैं एकदम साधारण, आप इन्हें कैसे खोजते हैं ?

जवाब – मुझे लगता है व्यंग्य हो या कार्टून बहुत गहरे में कॉमन मेंन का ही बयान होता है। तथा सारा लेखन उसी के पक्ष में होता है। व्यवस्था या नोकरशाही का शिकार भी प्रायः आम आदमी ही होता है। ऐसे में हमारे आसपास जो साधारण लोग हैं, खेतिहर हैं गांव में रहते हैं, लाइन में खड़े होकर वोट देते हैं और बाद में तकलीफ उठाते हैं, रोते हैं, गिड़गिड़ाते हैं। ऐसे लोगों से किसी भी कवि का कथाकार का या व्यंग्यकार का जुड़ाव स्वाभाविक है। इन्हें खोजना नही पड़ता ये कलम की नोक पर हमेशा मौजूद रहते हैं। इन्हें जरा सा छू लो तो फफोले की तरह फुट पड़ते हैं। मुश्किल यह है कि व्यवस्था की तंग नजरी इन्हें देख नही पाती। इन्हें हर बार किसी टाउन हॉल या जंतर मंतर पर खड़े होकर चिल्लाना पड़ता है। ऐसे में हर संवेदनशील शील लेखक चाहे या अनचाहे इन्ही की बात करेगा।

सवाल – आप किस तरह की किताबें पढ़ते हैं,आपके पसंदीदा लेखक कौन हैं ?

जवाब – देखिए किसी एक लेखक का नाम लेना मुश्किल है।हाँ व्यंग्य मुझे सर्वाधिक पसंद हैं।परसाई, शरद जोशी श्रीलाल शुक्ल त्यागी ज्ञान चतुर्वेदी अजातशत्रु सबको पढ़ता हूँ।चेखव और बर्नाड शा को भी खूब पढा है।टालस्टाय की अन्ना कैरेनिना और दास्तोवासकी की अपराध और दंड मेरी पसंदीदा किताबें हैं।चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा जिसे सूरज प्रकाश ने अनुदित की है बहुत अच्छी लगी स्टीफेन स्वाइग की कालजयी कहानियां अद्भुत है। आत्मकथाएं और संस्मरण खूब पढ़ता हूँ।विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा लिखित आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की जीवनी व्योमकेश दरवेश पिछले दिनों ही पढ़ी। भगवान सिंह की भारतीय सभ्यता की निर्मिति बहुत पसंद है। एमिली ब्रांटे की वुडरिंग हाइट और ऑरवेल का एनिमल फार्म, ला जवाब है।सरवेन्टिन का डॉन क्विकजोट भी कई बार पढा और मार्खेज का एकांत के सौ वर्ष भी।अलावे इसके हिंदी और उर्दू के जितने व्यंग्यकार हैं सबको पढ़ता हूँ।

सवाल – आपका प्रतिनिधि व्यंग्य कौन सा है, उसकी क्या विशेषताएं हैं

जवाब- लेखक के लिए यह बताना बहुत मुश्किल होता है कि वह अपनी किस रचना को प्रतिनिधि माने।वह तो हर रचना को प्रतिनिधि मानकर ही लिखता है।यह सवाल तो पढ़ने वालों से पूछा जाना चाहिए कि वे किस रचना को श्रेष्ठ मानते हैं। हालांकि उसमे भी टंटा है, क्योंकि हर पाठक का अपना टेस्ट और टेम्परामेंट होता है।

सवाल –वर्तमान साहित्यिक परिवेश को आप कैसे देखते हैं ? क्या महसूस करते हैं

जवाब – अच्छा है। बहुत निराशाजनक नही कहा जा सकता। छापे की तकनीक सुगम हो गई है, किताबें आसानी से छप जाती हैं। इधर साइबर संसार भी विस्तृत हुआ है लिहाजा हर कोई अपनी भावनाओं को व्यक्त कर लेता है। फिर वह परम्परागत अर्थों में साहित्य हो न हो। अनुभव तो उसमें भी होते हैं।यहां संपादक का डर नही  है कि वह वापस भेज देगा। नेट पर कई बार अच्छी और दुर्लभ सामग्री भी उपलब्ध हो जाती है जो अन्यथा पढ़ने को नही मिलती। पत्रिकाएं तो अमूमन सभी नेट पर हैं। अच्छे या बुरे साहित्य का आकलन तो हमेशा की तरह समय के हवाले किया जाना चाहिए। अनुभव की गहराई से लिखा गया साहित्य सार्वकालिक होता है। साहित्य का सारा मामला गहरे पानी पैठ वाला है।

सवाल – आज व्यंग्य आत्यंतिक रूप से लिखा जा रहा है। प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। आप क्या सोचते हैं

जवाब – प्रतिस्पर्धा में बुराई नही है। प्रतिस्पर्धा स्वस्थ होनी चाहिए। आज व्यंग्य ज्यादा इसलिए लिखा जा रहा है कि आदमी व्यवस्था से त्रस्त है।सामाजिक और राजनीतिक छद्म बढ़ते जा रहा है। व्यंग्य लेखन कहीं न कहीं आदमी को आश्वस्त करता है कि विसंगतियों पर उसकी नजर है और उनसे लड़ने की तैयारी भी है। इसलिए व्यंग्य की प्रतिष्ठा ज्यादा है।यह अलग बात है कि व्यंग्य से भी आमूलचूल बदलाव सम्भव नही है। दरअसल व्यंग्य हो या कोई भी विधा हो, साहित्य से चमत्कारिक बदलाव नही होते, यह एक कारगर लेकिन धीमी प्रक्रिया है। हाँ व्यंग्य व्यवस्था के खिलाफ बगावती तेवर जरूर तैयार करता है।सोए हुओं को जगाता है। यही व्यंग्य लेखन की सार्थकता भी है।

आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई- अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#4 – [1] अजीब श्राप [2] स्वर्गलोक ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “अजीब श्राप“एवं “स्वर्गलोक”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा।)

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#5 – [1] अजीब श्राप  [2] स्वर्गलोक

[1]

अजीब श्राप

वृद्धा का सामान आँगन में बिखरा पड़ा था। उसे वृद्धाश्रम भेजने की पूरी पूरी तैयारी थी । पुत्र के साथ पुत्र वधु भी सहयोग कर रही थी।

तब तक उसकी बेटी वहां आ पहूंची। बोली- ‘मैं तेरी सेवा करुँगी माँ। देख तो तेरे दामाद बाबू भी तो आए हैं।’

वृद्धा का सब्र का बाँध टूट गया। वह हिचकियाँ लेकर रोने लगी। रोते – रोते वह श्राप दे रही थी – मेरी तो एक लड़की थी जो मुझे लेने आ गयी। मैं तुम्हें श्राप देती हूँ कि तुझे लड़के ही लड़के हों ताकि वृद्धाश्रम भेजते  समय तेरी कोई लड़की ही न हो।

बेटा बहू ऐसे अजीब श्राप को सुनते ही सकते में आ गए।

 

[2]

स्वर्गलोक

एक पढ़ी लिखी नौकरी करती लड़की ने अपने पिताश्री को फोन किया, एक अमेरिकी लड़का भारत आ रहा है। मेरी कंपनी का ही जूनियर है। मुझसे शादी करना चाहता है।

पिता ने कहा-‘ बेटी तुम समझदार हो, तुम्हारे फैसला हमें हर हाल में मंजूर होगा।’

बेटी बोली- ‘पापा अब इंडिया भी कोई रहने लायक है। अमेरिका स्वर्गलोक है। दरअसल मैं अब वहीँ सेट होना चाहती हूँ । आप उसे पास कर देना प्लीज़।’

पिता बोले- ‘हमें कोई पागल कुत्ते ने काटा है, जो हम मना कर देंगे। इस धूल धक्कड़ से जितने जल्दी पीछा छूटे उतना अच्छा।’

मैं तो अभी से अमेरिका के सपने देखने लगा हूँ जो है सो।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -3 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 3 ☆  संजय भारद्वाज ?

नज़रसाहब- एक मिनट मियाँ। इस पेंटिंग के बारे में एक आइडिया आया है, ज़रा उसको पूरा कर लूँ। (पेंटिंग पर  ब्रश से कुछ  स्ट्रोक्स मारता है। रमेश, अनुराधा एक दूसरे को देख कर मुस्कराते हैं। काम पूरा करने के बाद पीकदान में पीक थूँकता है।)है।)

नज़रसाहब- हाँँ क्या पूछा था? टोक भी लिया करो भाई बीच-बीच में। वरना हम एक बार अपनी पेंटिंग में खो गए तो फिर बैठे रहियेगा यहींं दो, चार, पाँच दिन। नज़रसाहब यूँँ ही नज़रसाहब तो बने नहीं। एक बार अगर पेंटिंग में लग गए तो अरे मियाँँ चार-चार दिन होश नहीं रहता। नौकर खाना रख जाता है। खाना ज्यों का त्योंं पड़ा रहता है। बेचारा फिर वापस ले जाता है। फिर रख जाता है, फिर वापस। (हँसता है।) ये चार-चार दिन खयाल ना रहने वाली बात नोट कर लें। अपने अखबार में ज़रूर लिखें।

अनुराधा- नज़रसाहब, आपने जब उस भिखारिन को देखा तो वह क्या कर रही थी? किस तरह के कपड़े लपेटी थी? कैसी लग रही थी? आख़िर ऐसा क्या था कि उसने नज़रसाहब जैसे जाने-माने चित्रकार को इतना प्रभावित किया कि वे उसे अपनी पेंटिंग का विषय बना बैठे!

रमेश-  पहली प्रतिक्रिया वाली बात भी पूछ लेना अनुराधा।

नज़रसाहब- हमें ध्यान है। है ध्यान हमें। एक-एक कर सारी बातों का खुलासा करेंगे हाँ..(पीक थूकता है)।  कहाँ थे हम?

रमेश- मेनपोस्ट पर।… मतलब मेनपोस्ट तक पहुँच गए थे।

नज़रसाहब- हां जब हम मेनपोस्ट पर उतरे और सामने वाले फुटपाथ पर नज़र डाली तो वहाँ अच्छी-ख़ासी भीड़ इकट्ठा हो रखी थी। अब हम तो उसे यों जाकर देख नहीं सकते थे न। आख़िर नज़रसाहब कोई ऐसे आदमी तो हैं नहीं कि कहीं भी भीड़ में खड़े हो जाएँ। भई अपने फैन्स जीना मुश्किल कर दें।

रमेश- तो फिर आपने…?

नज़रसाहब- उस फुटपाथ के साथ ही हमारे हुसैन मियाँ घड़ीसाज़ हैं न,  हुसैन वॉच रिपेअर्स, वह दुकान है ना। पहुँच गए वहाँ, कह दिया घड़ी थोड़ा पीछे चलती है। हुसैन मियाँ ने कुर्सी दी, चाय का इंतज़ाम किया तो हम वहाँ आराम से बैठ गए। वहाँ से  हमारे और भिखारिन के बीच बमुश्किल पाँच-सात हाथ का फ़ासला होगा। हमारी नज़र उस भिखारिन पर पड़ी और देखते ही रह गए, मियाँ देखते ही रह गए हम। करीबन उन्नीस-बीस साल की छोकरी। उलझी हुई बालों की लटों से बाहर आती हवा से उड़ती थोड़ी-सी जुल्फें। पतली, हल्की-सी उठी हुई नाक, बहुत बड़ी-बड़ी बोलती आँखें, आसमान की ओर देखती हुई, दुनिया से बेभान, ख़ूबसूरती से झुके हुए कंधे। अपने भीतर सारे जहां की खूबसूरती समेटे, दुनिया भर के जोबन से लदे दो घड़े,…सब कुछ यूँ ही खुला छोड़े, अधनंगी..! बदन के साथ लाजवाब एंगल बनाए पतली-सी कमर, कमर के नीचे केवल एक निकर पहने…, दोनों टांगें मोड़े, उन टांगों पर चढ़ आई मिट्टी की लकीरें भी भीतर की ख़ूबसूरती को छिपा नहीं पा रही थी…देखते ही रह गए हम…और हमने उन बोलती ख़ूबसूरत आँखों, सैलाबी जवानी की मुमताज़ मूरत, खूबसूरती को खुद में खूबसूरत ढंग से समेटे उस ज़िंदा पेंटिंग को नाम दिया ‘खूबसूरत।’

रमेश-  नज़रसाहब, इस खूबसूरत ज़िंदा पेंटिंग को आपने भीख में सौ-दो सौ रुपये तो दे ही दिए होंगे।

अनुराधा- रमेश, यह भी कोई पूछने की बात है। ‘खूबसूरत’ पर रिकॉर्ड दाम की बोली चढ़ेगी। इस पेंटिंग की प्रेरणा को नज़रसाहब ने रुपयों से तौलने की सोची हो तो भी ताज्ज़ुब नहीं होना चाहिए।

नज़रसाहब- लो कर लो बात। तुम दोनों ने कभी किसी तरह की छोटी-मोटी पेंटिंग भी की है।… नहीं ना.., तभी इस तरह की वाहियात बातें कर रहे हो। हम तो उसके किसी एंगल में एक परसेंट भी फर्क नहीं चाहते थे। तीन दिन हर रोज हुसैन की दुकान में बैठकर उसे देखते रहे। हुसैन मियाँ भी समझ गए थे कि घड़ी तो बहाना है, कोई और निशाना है।….. अच्छा हुआ इन तीन दिनों में शायद उसे किसी ने कुछ नहीं दिया था। उसके बदन में एक सूत का भी फ़र्क आ जाता तो ऐसी ग्रेट पेंटिंग नहीं बन पाती, कभी नहीं बन पाती। इस पेंटिंग का पहला एक्जिबिशन हम लंदन में करेंगे। वहां रॉयल फैमिली के एक मेम्बर के हाथों इसका इनॉगुरेशन होगा। तारीख अभी तय नहीं हुई है  पर अगले महीने के पहले हफ्ते के आसपास होगा।… अब खास तौर से लिखें कि इनागुरेशन यूके के राजघराने के एक मेम्बर के हाथों होगा। ‘खूबसूरत’, ‘खूबसूरत’ एन इंटरनेशनल पेंटिंग बाय नज़रसाहब, द इंटरनेशनल पर्सेनेलिटी। (हँसता है)।

रमेश- नज़रसाहब, यह तो हुई चित्रकार नज़रसाहब की प्रतिक्रिया। मैं नज़रसाहब के भीतर छिपे पुरुष, एक मर्द की ईमानदार और सच्ची प्रतिक्रिया जानना चाहूँगा।

नज़रसाहब- क्या मतलब?

रमेश-  मतलब कि.. एक जवान औरत को खुले बदन देखकर भीतर का मर्द कहीं ना कहीं तो…

नज़रसाहब- लाहौल विला कूवत, लाहौल विला कूवत!  ऐसे ओछे और छिछोरे सवाल नज़रसाहब से करने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी? शर्म आनी चाहिए। नज़रसाहब आज केवल हिंदुस्तान में नहीं, दुनिया में एक जाना- माना नाम है। उसके कैरेक्टर पर इस तरह कीचड़ उछालना.., लाहौल विला कूवत! गंदगी की भी कोई हद होती है! (अनुराधा नज़रसाहब को सम्मोहित करती है।)

अनुराधा-  मेरी आँखों में देखो, मेरी आँखों में देखो, मेरी आँखों में देखो।

(नज़रसाहब का सम्मोहित होना। अनुराधा, दर्शकों की ओर पीठ करके खड़ी होती है। कुर्ते के ऊपर डाले जैकेट को उतारने की मुद्रा में फैलाती है। पात्र की वेशभूषा के अनुसार ऐसा संकेत देना है जैसे वह भिखारिन की तरह शरीर के ऊपरी भाग को अनावृत किए हुए है। नज़र का बौखलाना।)

रमेश-  नज़र, तुम्हें यह चाहिए न?

नज़रसाहब-  हाँ,..हाँ..।

रमेश-  भिखारिन को खुले बदन देखकर कैसा लगा?

नज़रसाहब- अच्छा, बहुत अच्छा। बहुत खूबसूरत थी वह। ग़ज़ब की ख़ूबसूरत। तीन दिन लगातार उसका एक-एक अंग देखा है। कमबख्त ने पागल कर दिया था। ऐसा मन होता था…

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 89 – बाल कविता – चोर-सिपाही, राजा-रानी…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी बाल कविता चोर-सिपाही, राजा-रानी…..। )

☆  तन्मय साहित्य  #89 ☆

 ☆ बाल कविता – चोर-सिपाही, राजा-रानी….. ☆

चोर सिपाही राजा रानी

मची हुई थी खींचातानी।

 

चोर कहे, चोरी नहीं की है

कहे सिपाही अलग कहानी।

 

रानी जी को गुस्सा आया

राजा ने भी, भृकुटी तानी।

 

फिर न्यायाधीश को बुलवाया

करी सिपाही ने अगवानी।

 

न्यायाधीश ने समझाया कि,

सही बोल, मत कर मनमानी।

 

झूठ कहा तो, दंड मिलेगा

हवा जेल की पड़ेगी खानी।

 

हाँ साहब जी, भूल हो गई

चोर ने अपनी गलती मानी।

 

अब न करुँगा आगे चोरी

माफ करो मेरी नादानी।

 

तंग गृहस्थी और गरीबी

नरक हुई मेरी जिंदगानी।

 

न्यायाधीश को रहम आ गया

चिंतित भी थी सुनकर रानी।

 

राजा को भी दया आ गई

थोड़ी सजा की मन में ठानी।

 

गर्मी के मौसम भर तुम्हें

पिलाना है प्यासों को पानी।

 

खत्म हो गई यहाँ कहानी

एक था राजा एक थी रानी।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75-10 – बिनसर वन अभ्यारण ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -10 – बिनसर वन अभ्यारण”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75-10 – बिनसर वन अभ्यारण ☆ 

बिनसर वन अभ्यारण, अल्मोड़ा जिले में स्थित है । एक ऊंची पहाड़ी चोटी में हरे भरे वृक्षों से आच्छादित यह स्थल लगभग 200 प्रजातियों की वनस्पतियों और 150 किस्म के पक्षियों का घर है । स्थानीय भाषा में इस पहाड़ी को झांडी ढार  कहते हैं लेकिन बिनसर का अर्थ है नव प्रभात और इस पहाड़ी से सुबह सबरे नंदा देवी पर्वत शिखर में सूर्योदय देखना अनोखा अनुभव प्रदान करता है । सूर्य की प्रथम किरण जब नंदा देवी पर पड़ती है तो 300 किलोमीटर की यह पर्वतमाला गुलाबी रंग से सरोबार हो उठती है और फिर ज्यों ज्यों सूर्य की रश्मियाँ अपने यौवन की ओर बढ़ती हैं तो पूरी पर्वत श्रंखला रजत हो उठती है । यद्दपि हमने पिछली बार कौसानी से सूर्योदय के समय गुलाबी होते हिम शिखर के दर्शन किये थे पर इस सौभाग्य से हम बिनसर में तीन दिन तक रुकने के बाद भी वंचित ही रहे । प्रकृति के एक अन्य रूप, जल शक्ति के प्रतीक वरुण देवता ने धुंध और बादलों का ऐसा जाल बिछाया कि हिम शिखर का दिखना तो दूर , हिमालय की निचली पहाड़ियां भी लुकाछिपी का खेल खेलती रही । इस ऊँची पहाड़ी पर कुमायूं विकास मंडल ने एक सुन्दर होटल का निर्माण किया है । मेरी पुत्री को इंटरनेट के माध्यम से कुछ कार्य करना था और वाई-फाई की आशा में हम इस होटल के प्रबंधक से मिले । उन्होंने हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया । हमारे ड्राइवर महाशय होटल का एक चक्कर लगा आये और उनसे हमें पता चला कि यहाँ से हिम दर्शन हो रहे हैं, फिर क्या था हम होटल द्वारा निर्मित व्यू पॉइंट की ओर चले गए और वहाँ से हिमालय को निहारते रहे । बर्फ की श्वेत चादर से ढका  नंदा देवी पर्वत माला की चोटियों हमें  रुक रुक कर दिखने लगी । जब कभी बादलों के बीच से सूर्य देव अपनी छटा इन चोटियों पर बिखेरते तो अचानक ही हिम शिखर चांदी जैसा चमकने लगता । हम इस अद्भुत दृश्य को निहार ही रहे थे कि होटल प्रबंधक ने हमारे लिए गर्मागर्म चाय भिजवा दी । चाय की ट्रे लिए बेयरे ने हमारे अनुरोध को अनमने ढंग से स्वीकार करते हुए त्रिशूल से लेकर नेपाल तक फैली हिम चोटियों की दिशा बताई और साथ ही यह सूचना भी दी की मुख्य  शिखर बादलों की ओट में छिपे हुए हैं यह सब कुछ पर्वत माला का निचला हिस्सा है । लेकिन हमें इस सूचना से कोई सरोकार न था हम तो चाय की चुस्कियों के साथ हिमालय को निहारते रहे । कोई आधे घंटे में पुत्री ने  भी अपना काम निपटा लिया और हम सब बिनसर वन अभ्यारण में ट्रेकिंग के लिए निकल गए । मौसम खराब होने के कारण पर्यटक भी नहीं थे और गाइड भी गायब थे । मैंने वनस्पति शास्त्र के अपने अल्प ज्ञान का प्रयोग कर कुछ वनस्पतियों जैसे देवदार, चीड़, ओक आदि की पहचान की तो वाहन चालक ने हमें बांज, उतीस, बुरांश  के पेड़ दिखाए । देवदार एक सीधे तने वाला ऊँचा शंकुधारी पेड़ है, जिसके पत्ते लंबे, हरे रंग के और कुछ लाली लिए हुए होते है और कुछ गोलाई लिये होते हैं तथा लकड़ी मजबूत किन्तु हल्की और सुगंधित होती है। संस्कृत साहित्य में इसका बड़ा गुणगान किया गया है और इसका प्रयोग  औषधि व यज्ञादि में होता है । ओक या सिल्वर ओक की खासियत यह है कि इसके पत्ते खाँचेदार होते हैं। पेड़ की पहचान इसके पत्तों और फलों से होती है। सिल्वर ओक की लकड़ी सुन्दर होती  है और उससे बने फर्नीचर उत्कृष्ट कोटि के होते हैं। एक समय जहाजों के बनाने में इस्सका काष्ठ ही प्रयुक्त होता था। बुरांश, जिसे हमारे वाहन चालक ने पहचाना,  हिमालयी क्षेत्रों में 1500 से 3600 मीटर की मध्यम ऊंचाई पर पाया जाने वाला सदाबहार वृक्ष है। बुरांस के पेड़ों पर मार्च-अप्रैल माह में लाल सूर्ख रंग के फूल खिलते हैं। बुरांस के फूलों का इस्तेमाल दवाइयों में किया जाता है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में पेयजल स्रोतों को यथावत रखने में बुरांस महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बुरांस के फूलों से बना शरबत हृदय-रोगियों के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। बुरांस के फूलों की चटनी और शरबत बनाया जाता है, वहीं इसकी लकड़ी का उपयोग कृषि यंत्रों के हैंडल बनाने में किया जाता है। हमें ऐसी जानकारी थी कि बिनसर वन्य जीव अभयारण्य में तेंदुआ पाया जाता है। इसके अलावा हिरण और चीतल तो आसानी से दिखाई दे जाते हैं। पर अभ्यारण्य में एक भी पशु नहीं दिखा हाँ लौटते वक्त एक लंगूर अवश्य दिख गया । यहां 150 से भी ज्यादा तरह के पक्षी पाये जाते हैं। इनमें उत्तराखंड का राज्य पक्षी मोनाल सबसे प्रसिद्ध है पर इन विभिन्न पक्षियों की  मधुर आवाज तो हमें सुनाई दी पर दर्शन किसी के न हुए ।  इस दो किलोमीटर की ट्रेकिंग का अंत जीरो प्वाइंट पर होता है । यह इस पहाड़ी की  सबसे उंचा शिखर है और यहाँ से हिम शिखर के दर्शन होते हैं ।  अधिक सर्दी पड़ने पर यहाँ बर्फबारी भी हो जाती है ।

जब हम पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे तो एक पुरानी कोठरी पर मेरी निगाह पड गई । पत्थरों  से निर्मित    यह जल स्त्रोत 120 वर्ष पुराना है जिसका जीर्णोदार कैम्पा योजना के तहत अभी कोई दो बर्ष पहले किया गया था । सदियों पुरानी पेयजल की यह व्यवस्था कुमाऊं के गांवों में नौला व धारे के नाम से जानी जाती है। यह  नौले और धारे यहां के निवासियों के पीने के पानी की आपूर्ति किया करते थे। इस व्यवस्था को अंग्रेजों ने भी नहीं छेड़ा था। नौला भूजल से जुड़ा ढांचा है। ऊपर के स्रोत को एकत्रित करने वाला एक छोटा सा कुण्ड है। इसकी सुंदर संरचना देखने लायक होती है। ये सुंदर मंदिर जैसे दिखते हैं। इन्हें जल मंदिर कहा जाय तो ज्यादा ठीक होगा। मिट्टी और पत्थर से बने नौले का आधा भाग जमीन के भीतर व आधा भाग ऊपर होता है।नौलों का निर्माण केवल प्राकृतिक सामग्री जैसे पत्थर व मिट्टी से किया जाता है।नौला की छत चौड़े किस्म के पत्थरों  से ढँकी रहती है। नौला के भीतर की दीवालों पर किसी-न-किसी देवता की मूर्ति विराजमान रहती है।  हमारे वाहन चालक ने हमें बताया कि शादी के बाद जब नई बहू घर में आती है तो वह घर के किसी कार्य को करने से पहले नौला पूजन के लिए जाती है और वहां से अपने घर के लिए पहली बार स्वच्छ जल भरकर लाती है। यह परंपरा आज तक भी चली आ रही है। विकास की सीढ़ियों को चढ़ते हुए अब लोगों ने इस व्यवस्था को भुला देना शुरू कर दिया है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 40 ☆ कांटों भरी डाल ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘कांटों भरी डाल। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 40 ☆

कांटों भरी डाल

 

माना मैं कांटों भरी डाल हूँ ,

मगर यकीन करिये दिल से मैं गुलाब हूँ ||

बेशक कांटों भरी चुभन हूँ,

मगर सबके लिए खुशबू भरा अहसास हूँ ||

नहीं आती मुझे दुनियादारी,

गलती हो जाए कभी तो अपनी गलती तुरंत मानता हूँ ||

सबको खुश रखना मेरे बस की बात नहीं,

मगर सबको खुश रखने की कोशिश पूरी करता हूँ ||

मैं कोई मजबूत ड़ोर नहीं,

कच्चा धागा हूँ थोड़ा सा खींचने से ही टूट जाता हूँ ||

प्यार सबका पाने को आतुर हूँ,

धागा बन सबको माला में पिरोये रखने की तमन्ना रखता हूँ ||

माना मैं कांटों भरी डाल हूँ,

मगर यकीन करिये दिल से मैं गुलाब हूँ ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३५॥ ☆

 

वामश चास्याः कररुहपदैर मुच्यमानो मदीयैर

मुक्ताजालं चिरपरिचितं त्याजितो दैवगत्या

संभोगान्ते मम समुचितो हस्तसंवाहमानां

यास्यत्य ऊरुः सरसकदलीस्तम्भगौरश चलत्वम॥२.३५॥

मम नखक्षतो से लिखित दीर्घ परिचित

मुक्ताओ की माल दुर्देव मारे

इस आ पडी विरह की दुख घडी मे

रसनाभरण आदि जिसने उतारे

जंघा मृदुल वाम मम हस्त तल ने

दुलारा जिसे रति विरति पर हमारे

शीलत सुखद तरूण कदली सुदृश गौर

होगी स्फुरति पहुंचने पर तुम्हारे

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 92 ☆ सावळ बाधा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 92 ☆

☆ सावळ बाधा ☆ 

(वृत्त-वररमणी)

हे गोविंदा तुझ्याच साठी जन्म घेतला नवा कितीदा या भूमीवरती

अवचित आले भान असे की,तशीच आहे विरहवेदना याही जन्मांती

 

वादळवेडी अभिसाराची प्रतिमा आहे तुझ्या प्रीतिच्या डोहामधली मी

अनंत वेळा तुझीच झाले,घरदाराला सोडुन सारे कोळुन प्यालेली

 

या देहाच्या किती कामना, अभिलाषा की म्हणू मागण्या तारूण्याच्या या

पिसे लागले तुझे जिवाला या संसारी चित्त रमेना जळते ही काया

 

श्रीरंगा मी तुझीच राधा जन्मोजन्मी एकच बाधा श्यामल रंगाची

तुझे सावळे रूप मनोहर पुरुषोत्तम तू माझा ईश्वर व्याख्या प्रेमाची

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ तू हरवलीस…. ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

☆ कवितेचा उत्सव ☆ तू हरवलीस…. ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆ 

स्वयंपाक करताना

कविते, नको मनात येवू

लेकरं माझी

जाणार आहेत शाळेत जेवून

तुला लिहित बसले तर

कसं होणार काम?

मी म्हणते जरा तू थांब

 

आॅफिस मध्ये आहे

फाईलींचा ढिग

काम करता करता

जाईन मी वाकून

तिथ तू आलीस तर

काम कसं होणार

पगार नाही मिळाला तर

घर कसं चालणार

कविते तू इथ नको  येवू

 

संध्याकाळी घरी

जाण्यांची घाई

चिमणी पाखरं माझी

वाट बघतात बाई

अंमलेल्या मनात तूला कुठं ठेवू

कविते तू आता नको येवू

 

दिवसभराच्या कामाने

कंटाळा आला भारी

निद्रादेवीच्या कुशीत

शिरली स्वारी

दुसऱ्या दिवशीच्या

कामाची यादी समोर आली

कविते तू  कुठं ग  हरवलीस?

 

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

मो.९६५७४९०८९२

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सांजवात…भाग 3 ☆ सुश्री गायत्री हेर्लेकर

सुश्री गायत्री हेर्लेकर

☆ जीवनरंग ☆ सांजवात…भाग 3 ☆ सुश्री गायत्री हेर्लेकर ☆

सत्येन…. हो, त्याच्याशी बोलल्याशिवाय मनाची घालमेल कमी होणार नाही, हे ज्योतीला अनुभवातून माहित होते. म्हणुन तिने लगेचच फोन करुन त्याला सांजवातमध्ये येण्यास सांगितले. डोळे झाकून ती शांत बसुन राहिली. ज्योती अस्वस्थ आहे हे मायाने ओळखले.

“ज्योतीताई, बरे वाटत नाही? कॉफी आणु का? नाहीतर खोलीत जाऊन जरा विश्रांती घेता? कामांचे काय हो ,ती करु नंतर.”

“नाही, नाही, नको मला काहीच. I am ok,”

दोन मिनीटे थांबुन…. मनात काहीतरी नक्की करुन. ज्योतीच पुढे म्हणाली, “हे बघ माया,… तु खोलीत जाऊन त्या अनुराधा जोशींना  सामान आवरायला सांग,. नाही,  तुच मदत कर त्यांना. अन् हो, रेखा आली की त्यांना ईकडे च घेऊन ये”

“ठीक आहे” म्हणुन माया निघाली. म्हणजे त्यांना ठेवुन घ्यायचे नसावे असा विचार माया च्या मनात आला.

स्वातीताईच्या कानावर घालुया, तिला काय वाटते ते पण बघुया. असा विचार करुन ज्योतीने स्वातीला फोन लावले. अन् बराच वेळ बोलणे झाले.

“हो ताई…. माझ्या तरी मनात तसे आहे, खुप धीर वाटला तुझ्याशी बोलुन.  हं,हं, सत्येन आला वाटते, रात्री निवांत बोलुयाच, काय होते ते” म्हणुन फोन ठेवला.

अचानक तातडीने का बोलावले या संभ्रमात सत्येन होता. पाठोपाठ रेखा आणि सुरेशही आले. रेखाने…. गेल्या २, ४ दिवसातील सर्व घटना थोडक्यात सांगितल्या.

नंदन तब्येत बरी रहात नसल्यामुळे इथला सर्व व्यवसाय बंद करुन कायमचा अमेरिकेला  मुलाकडे जाणार आहे. त्याची बायको, मुलगा आणि सून सगळ्यांचाच अनुआईला तिकडे नेण्यास विरोध, अगदी कडाडून विरोध.

म्हणुन २५ लाख रु, डिपॉझिट देऊन त्याने तिची व्यवस्था ईथे करायचे ठरवले,. सर्व बंगले, घरेही विकुन टाकली.

ज्योतीच्या मनात आले, बाबांची कोट्यावधी ची इस्टेट. आपल्याला काही नाहीच. पण त्याच्या बायकोला, जिच्यामुळे हे मिळाले त्या सख्ख्या आईला फक्त २५ लाख रु, तेही डिपॉझिट. देणगी नाही, एखादे छोटेसे हक्काचे घर तरी ठेवायचे तिला. चिड आली त्याच्या स्वार्थी वृत्तीची. खरे तर सत्येन आणि स्वातीताईकडे मिस्टर यांचा विरोध म्हणुन कोर्टकचेरी केली नाही, आपलाही हक्क आहेच ना बाबांच्या इस्टेटीत.

“रेखा, ज्यो…. तुला माहित आहेच, सांजवातला पैशाची गरज कायमच असते. पण, तरीही त्यांच्या ईथे रहाण्याने तुला मानसिक त्रास होणार, ताण येणार म्हणुन आपण त्यांना नाही म्हणणार आहोत.”

संस्थेची पैशाची गरज महत्वाची आहे, ही संधी सोडुन नये, फारतर ज्योती सांजवातमधुन बाहेर पडेल, असे सत्येन मत.

पण पैसा नंतरही मिळेल पण ज्योती सारखी कार्यकर्ती, founder member गमवायची नाही, त्यांची सोय आपणच दुसरीकडे करून देऊ. असा सुरेश आणि रेखाचाच युक्तिवाद. यावरही बरीच उलट सुलट चर्चा झाली.

ज्योतीचा कशातच सहभाग नव्हता.

शेवटी रेखा तिच्याजवळ जाऊन “ज्यो… खरंच सांग तुला काय वाटते? तुझ्या मनात काय आहे?”

डोळ्यात आलेले पाणी पुसुन, ज्योती अगदी शांतपणे म्हणाली “सत्येन, आपल्या लग्नाच्या

आधीपासुन सर्व निर्णय आपण दोघांनी मिळुन घेतले, किंवा एकमेकांच्या निर्णयाला पाठिंबा दिला. मला वाटते, आजही तसाच तुझ्याकडून मिळेल. रेखा, सुरेश, मला वाटते, अनुआईला ईथे ठेवू नये”  ज्योतीने एकदा सगळ्यांकडे बघितले.

“अनुआईला, आमच्या घरीच कायमचे रहायला घेऊन जावे”, सर्वजण तिच्याकडे अवाक होऊन पाहु लागले. पण तिने आपले बोलणे ठामपणे पुढे चालु ठेवले.

“केवळ लहरींखातर किंवा नंदुदादावर मनात करायची म्हणुन मी हा निर्णय घेत नाही, अनुआईवर आतापर्यंत झालेले अन्याय, तिची मानसिक कुचंबणा, तिच्या डायरीतुन वाचली होती, प्रत्यक्षात बघत होते, पण तेंव्हा काही करु शकत नव्हते, नवविधासाठी काम करतांना, ईतर सर्व बायकांना मदत करतांना हे मला कायम टोचतो असे की माझ्याच घरातील अन्याय  मी काही करु शकत नाही, अन् आता संधी मिळते आहे, मी अनुआईला सन्मानाने जगण्यासाठी माझ्या घरी नेणार, माझ्या बाबांनी तिची घेतलेली जबाबदारी, मी स्वीकारणार”

पुढची फाईल बंद करुन बाजुला सारुन ज्योतीने जणु सांगितले की तिचा निर्णय झाला आहे, पक्का झाला आहे. “मघाशी, स्वातीताईशी बोलले, तिचाही पाठिंबा आहे.”

सत्येन, तिच्याजवळ जाऊन, “ज्यो, I am really proud of you, आणि माझ्यावर विश्वास ठेवुन, होकार समजलास, Thanx”

रेखा, सुरेशकडे बघुन, “सुरेश, तु म्हणतोस ते बरोबर आहे, पैसा आपण कुठूनही मिळवू नंतर .पण आता मात्र, तो चेक नंदनला परत देऊन टाका. आम्हाला अनुआईंसाठी एक पैसा ही नको त्यातला.”

तेवढ्यात मागुन, “नाही, नंदनला तो चेक परत द्यायचा नाही, त्याचा या पैशावर काहीही अधिकार नाही.” अनुआई दारातून आत येत म्हणाली.

“अनुआई, अनुआई…” म्हणत ज्योतीने धावत जाऊन मिठी मारली.

तिला जवळ घेत, “ज्यो… ज्यो.. खरंच कौतुक वाटते तुझे अन् सत्येन म्हणतात तसा अभिमानही. तुझा, तुझ्या विचारांचा, आणि तुझ्या या कार्याचाही. पैसे नंदन ने दिलेत कबुल आहे. पण ते आहेत माझ्या नवर्याचे. माझ्या मुलींच्या वडिलांचे, त्यांचाही तेवढाच हक्क आहे त्यावर. माझ्या मुलीच्या कामासाठी, सांजवात प्रकाशमान होण्यासाठीच तो वापरायचा. डिपॉझिट नाही तर, देणगी आहे ही.”

सर्वचजण तिच्याकडे बघु लागले, रेखा काहीतरी बोलणार, तेवढ्यात अनुआई “मायाबरोबर सामानाची आवरा आवर करुन मघाशीच बाहेर येऊन बसले, विझायच्या मार्गावर असलेल्या या दिव्याला आणखी कुठल्या वादळात जावे लागणार, आता उरलेल्या आयुष्याला अजुन कोणत्या बदला ला सामोरे जावे लागणार.. या विचाराने, उदास, निराश झाले होते. पण तुमचे सगळे बोलणे कानावर पडले. ज्योचे किती आणि कसे आभार मानू तेच समजत नाही.”

अनुआईच्या डोळ्यांतील पाणी पुसत, “नाही, अनुआई, नाही, लेकीचे आभार मानतात चा कधी?”

रेखाही पुढे होऊन “आणि… अनुआई. विझायच्या मार्गावरचा दिवा म्हणु नका हं. उलट आतापर्यंत वादळवार्याला तोंड देणारी तुमची जीवनज्योत आता मानाने, शांतपणे… तेवत रहाणार आहे ज्योच्या घरात सांजवात म्हणुन”

कथा समाप्त

©  सुश्री गायत्री हेर्लेकर

201, अवनीश अपार्टमेंट, कोथरुड, पुणे.

दुरध्वनी – 9403862565

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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