English Literature – Poetry ☆ – ‘Indomitable Spirit…’ – ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem ~ Indomitable Spirit…~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

☆ ~ Indomitable Spirit…~? ☆

With the fire of unmitigated zest,

passionate dreams get created,

With the procrastination dropped,

a soulful progress gets generated

 *

Dauntlessly heartbeats go strong,

with every challenge we face,

And the triumph’s sweet bounty

is the prize we get to embrace

 *

With every step taken forward,

apprehension and fears subside,

An incandescent flame gets ignited,

with the exuberance of spirit inside

 *

Rises up, unshaken, like Phoenix

from the ashes so dusty and cold,

An accomplishment will be achieved,

with a timeless glory, yet to unfold

 *

Your lasting legacy will stay alive

with every challenge won over,

And in the hearts of one and all,

your brave saga will live forever..!

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

24 September 2024

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 565 ⇒ आज का दिन ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आज का दिन।)

?अभी अभी # 565 ⇒ आज का दिन ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज का दिन सभी उगा नहीं, लेकिन कल, चला गया। रात अभी बाकी है, लेकिन एक नई सुबह हो ही गई। क्या एक रात में वक्त बदल जाता है, तारीख बदल जाती है, बरस बदल जाता है। अगर नहीं बदलता, तो बस इंसान नहीं बदलता।

आज के दिवाकर के उदय होने के पूर्व ही, कल सोशल मीडिया पर दिनकर चले, और खूब चले ! दिनकर चले गए, उनकी कविता चलती रही। विचार एक धारा है, विचार में धार होती है, चाकू में धार होती है, तलवार में धार होती है। चाकू से सब्ज़ी काटी जाती है, तलवार से इंसानों को भी गाजर मूली की तरह काटा जाता था। इसलिए बंदर के हाथ में आजकल तलवार नहीं दी जाती, उसे एक विचारधारा पकड़ा दी जाती है। वह जीवन भर उसकी ही धार तेज करता रहता है।।

यह आज तो मेरा है, पर यह बरस मेरा नहीं ! केवल दिनकर का ही नहीं, कइयों का नया वर्ष, चैत्र वर्ष प्रतिपदा, २१ जनवरी से २१ फरवरी के बीच हिन्दू कैलेंडर के अनुसार, गुड़ी पड़वा से शुरू होता है। हम हर जगह तेरा मेरा तो कर सकते हैं, अपनी मान्यता अनुसार नया वर्ष भी निर्धारित कर सकते हैं लेकिन वक्त को नहीं बदल सकते।

पुरुषार्थ क्या नहीं कर सकता। क्या आपने देखा नहीं, पहले कैसा वक्त था और हमने वक्त के पहिए बदल दिए, वक्त की चाल बदल दी, जंग लगी तलवार बदल दी, ढाल बदल दी। बस नहीं बदल पाए तो दुनिया की तकदीर नहीं बदल पाए। कोरोना काल की कसैली यादें आज भी दिल को झकझोर देती हैं। वक्त सहमा सहमा सा गुजरता रहा। कारवां अभी गुजरा नहीं, गुबार के बीच केवल वक्त गुजरा है।।

शुभ दिन का इंतज़ार नहीं किया करते। अगर बहारें मुहूर्त देखती तो चौघड़िए आड़े आ जाते। फूल को रोज खिलना है। कुदरत का हर पल, हर लम्हा, एक मुहूर्त है। प्रकृति भी अपने उत्सव मनाती है। उसके लिए पतझड़ भी एक उत्सव है। उसे आप कायाकल्प भी कह सकते हैं।

हमें भी बहारों का इंतज़ार है।

हमारा भी कायाकल्प होना है। क्यों न आज ही वह शुभ घड़ी साबित हो। शुभ संकल्प के लिए मुहूर्त नहीं तलाशे जाते, सिर्फ कृत – संकल्प होने से ही काम चल जाता है। मत मानें दिनकर की तरह आप भी इस आज के दिन को वर्ष का पहला दिन, लेकिन एक अच्छा दिन तो मान ही सकते हैं। सूरज अभी उगा नहीं,

अगर हमारे इरादें नेक हैं तो उम्मीद का सूरज भी आज ही निकलेगा जो कल से बेहतर होगा। आज का आपका दिन शुभ हो। वर्ष २०२५ मानवता के लिए मंगलमय हो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नववर्ष मूलक कुंडलिया ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ नववर्ष मूलक कुंडलिया ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

(1)

लेना तुम संकल्प यह, हो हर पल का मान।

लक्ष्य ध्यान में नित्य रख, कर नित ही उत्थान।।

कर नित ही उत्थान, कर्म से दूर न होना।

किंचित भी निज ताप, बंधु तुम कभी न खोना।।

आशा का तो दीप, कभी बुझने मत देना।

गया वर्ष जो बीत, उसे उर में भर लेना।।

(2)

बीता जो, वह जा रहा, लिखकर नव इतिहास।

कभी रुदन उसने दिया, कभी रचाया हास।।

कभी रचाया हास, आज नूतन की माया।

हुई तरंगित देह, सुखद मौसम है आया।।

अंतर का उल्लास, आज निश्चित ही जीता।

मची नवल की धूम, जा रहा जो है बीता।।

(3)

जाने वाला जा रहा, देकर मंगल भाव।

आने वाला आ रहा, लेकर पावन ताव।।

लेकर पावन ताव, नया सब अच्छा होगा।

वह अब हो बेक़ार, अभी तक जो है भोगा।।

कहने का यह मर्म, नया नव गाने वाला।

करता है गुड बाय, बंधुवर जाने वाला।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 233 ☆ बाल गीत – ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 233 ☆ 

☆ बाल गीत – ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

जो हमको हँसना सिखलाते

थोड़ा-सा मुस्काना जी।

रंग-बिरंगे सारे खिलकर

गाते नया तराना जी।।

कोई कहता इन्हें मंजरी

कोई कहता इन्हें सुमन।

तितली ,भौंरे इनसे खेलें

बातें करता गुनगुन मन।।

 *

कोमल तन है पंखुड़ियों का

कितने प्यारे लगें प्रसून।

सबको ही ये खूब लुभाते

परियाँ लेकर पहुंचें मून।।

 *

सबका हित ही ये करते हैं

प्रभु को खुद अर्पण करते।

माक्षी इनसे शहद बनाएँ

श्रद्धा से शहीद पर चढ़ते।।

 *

बच्चों बोलो कौन सारथी

जीवन में आता है काम।

देवी-देव सभी को प्यारे

इनमें बसते कृष्णा राम।।

 *

सभी का उत्तर-पुष्प , फूल

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे

💐 अ भि नं द न 💐

तितिक्षा इंटरनॅशनल पुणे यांच्या दशकपूर्ती संमेलनात आयोजित बक्षीस समारंभात आपल्या समुहातील ज्येष्ठ कवयित्री सौ. ज्योत्स्ना तानवडे यांना दोन पुरस्कार प्राप्त झाले आहेत.

१) गणेशोत्सवानिमित्त दहा दिवसीय विशेष काव्यलेखन स्पर्धा — भावस्पर्शी पुरस्कार

२) नवरात्रीनिमित्त आदिमाया आदिशक्ती काव्यलेखन महोत्सव – दहा दिवसीय विशेष काव्यलेखन स्पर्धा — तृतीय क्रमांक

 दोन्ही स्पर्धांमध्ये दहा दिवस वेगवेगळे विषय आणि वेगवेगळा काव्यप्रकार लिहायचा होता. त्यांच्या या उज्ज्वल यशाबद्दल समुहातर्फे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि शुभेच्छा 💐

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

✒️✒️

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ (१) विसर्जन आणि (२) घट बसले.. ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ (१) विसर्जन ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆

(तितिक्षा इंटरनॅशनल पुणे आयोजित गणेश काव्यलेखन स्पर्धा)

(विषय — निरोप, वृत्तबद्ध रचना, वृत्त – लवंगलता)

निरोप तुजला देता देवा कंठ दाटून येतो

पुढल्या वर्षी लवकर यावे प्रार्थना तुला करतो

*

गणेश उत्सव आनंदाचा धामधुमीतच सरला

प्रत्येक दिवस भावभक्तिने प्रसन्नतेचा ठरला

*

गणेश आले पार्थिव मूर्ती प्रतिष्ठापना केली

सुंदर ऐसे मखर सजविले छान सजावट केली

*

दुर्वा पत्री फळा फुलांनी पूजा सुरेख सजली

पंचखाद्य अन मोदक पेढे प्रसाद पाने भरली

*

उच्चरवाने जयघोष करत आरत्या पठण झाले

दहा दिवस हे मंत्र भारले मन तृप्त तृप्त झाले

*

क्षणभंगुर हे जीवन आहे आनंदाने जगणे

कर्तृत्वाचे प्रसाद वाटप सकल जनासी करणे

*

हसत जगावे हसतच जावे कीर्तिरुपाने उरणे

उत्सवात तू हेच सांग*शी मनापासून शिकणे

*

आली अनंत चतुर्दशी ही मन जडावले आता

निरोप कसला बाप्पा सदैव अंतर्यामी असता

*

कुसंगती अन दुर्बुद्धीचे आज विसर्जन व्हावे

मन गाभारी परी गणेशा तू आसनस्थ व्हावे

ज्योत्स्ना तानवडे. पुणे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ (२) घट बसले..  ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆

(आदिमाया आदिशक्ती काव्यलेखन महोत्सव – दहा दिवसीय विशेष काव्यलेखन स्पर्धा)

(विषय — घटस्थापना – (अष्टाक्षरी))

चराचरी भरलेले

तत्व ईश्वरी सजले

नवरात्र घरोघरी

आज हे घट बसले ||

*

आई संस्थापित होते

आज ही घटस्थापना

शस्त्रसज्ज दुर्गामाता

उभी खलनिर्दालना ||

*

रूप घटाचे आगळे

दैवी अस्तित्व पेरते

आदिमाया आदिशक्ती

बीजातून अंकुरते ||

*

शारदीय नवरात्र

करू आईचे पूजन

मन शांत शांत होई

तिचे मंगल दर्शन ||

*

माझ्या देहाच्या घटात

पूजा देवीची मांडली

नेत्रज्योती तेजाळून

मनी आरती गायली ||

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “औडक चौडक ताराबाई” ☆ प्रा. अविनाश सप्रे ☆

प्रा. अविनाश सप्रे

?  विविधा ?

☆ “औडक चौडक ताराबाई☆ प्रा. अविनाश सप्रे ☆

ताराबाई भवाळकरांची मराठी महामंडळाने दिल्ली येथे भरणाऱ्या आगामी साहित्य संमेलनाच्या अध्यक्षपदासाठी केलेली निवड चतुरंग अन्वयसाठी या परिसरातील लेखक, कवींच्यासाठी आणि मुख्य म्हणजे समस्त सांगलीकरांसाठी आनंदाची आणि अभिमानाची घटना वाटणे साहजिकच म्हणता येईल, पण ही बातमी प्रस्तुत झाल्यानंतर बघता बघता समाज माध्यमातून, वृत्तपत्रातून, दूरदर्शन आणि आकाशवाणीवरून, दूरध्वनीवरून आणि प्रत्यक्ष भेटून प्रचंड प्रमाणात बाईच्यावर जो अभिनंदनाचा वर्षाव झाला, तो अभूतपूर्व स्वरूपाचा होता. सर्वसाधारणपणे संमेलनाच्या अध्यक्षपदाच्या नावांची चर्चा सुरू झाली आणि नंतर प्रत्यक्ष निवड झाली. वादविवाद होतात, उलटसुलट चर्चांना उधाण येते, निवडीमागच्या राजकारणाबद्दल बोलले जाते, खऱ्या खोट्या बातम्या पसरल्या किंवा पसरवल्या जातात, असा आजवरचा अनुभव, पण ताराबाईची निवड असे काहीही न होता झाली आणि तिचे सार्वत्रिक स्वागत झाले. एवढेच नव्हे तर ताराबाईची निवड या अगोदरच व्हायला हवी होती, अशीही प्रतिक्रिया उमटली. ताराबाईच्या ज्ञानसाधनेबद्दल आणि बौद्धिक कर्तृत्वाबद्दल वाटणारा आवर या निमित्ताने प्रकट झाला असे म्हणता येईल.

पुण्यातील शनिवार पेठेच्या सनातनी आणि पारंपारिक, कर्मठ वातावरणात आणि चित्रावशास्त्रीच्या वाड्यात बाईचे बालपण व्यतीत झाले. पुढे त्यांचे कुटुंब नाशिकला गेले आणि तिथे त्यांची वैचारिक जडणघडण होऊ लागली. इथे त्यांना कविवर्य कुसुमाग्रजांचा सहवास लाभला. याच काळात त्यांनी हरिवंशराय बच्चन यांच्या मधुशाला या प्रसिद्ध काव्यसंग्रहाचा मराठी अनुवाद केला. त्यानंतर नोकरी निमित्ताने सांगलीस आल्या आणि इथे त्यांचे वैचारिक आणि वाड्मयीन कर्तृत्व बहाला आली आणि नामवंत विदूषी म्हणून त्यांचा लौकिक झाला. पंचावन्न वर्षापेक्षा अधिक काळापासून बाईचे सांगलीमध्ये वास्तव्य आहे आणि सर्वत्र संचार करूनही सांगली हीच आपली कर्मभूमी आहे असे त्या अभिमानाने सांगतात.

लोकसाहित्य, लोकसंस्कृती आणि लोककला या बाईच्या विशेष आस्थेचा, अभ्यासाचा आणि संशोधनाचा विषय राहिला आहे महाराष्ट्रत, महाराष्ट्रबाहेर एकट्याने भ्रमंती करून बाईनी या विषयाचा वेध घेतला, साधनसामग्री गोळा केली, साहित्य गोळा केले, मौखिक संस्कृतीचे स्वरूप समजून घेतले. त्यांच्या आविष्कार पद्धती आणि शैलींचा विचार केला. त्याची चिकित्सा केली आणि या मौल्यवान लोकसंचिताला अभिजनांच्या विचार विश्वात महत्त्वाचे स्थान मिळवून दिले. बहुजनांचे लोकसाहित्य म्हटले की एकतर भाबड्या श्रद्धेने बघणे (बाई त्याला गहिवर संप्रदाय म्हणतात) किंवा उच्चभ्रू अभिजन त्याकडे अडाण्यांचे साहित्य समजून तुच्छतेने, उपेक्षेने पाहतो. ही दोन्ही टोके बाजूला सारून बाईनी या संस्कृतीकडे चिकित्सेने, डोळसपणे पाहिले, त्यातले हिणकस बाजूला करून सत्व शोधले आणि या विषयाकडे बघण्याची नवी दृष्टी दृष्टी दिली. ४० च्या वर बाईची ग्रंथसंपदा आहे आणि त्यातल्या ‘लोकपरंपरा आणि स्त्री प्रतिमा’, ‘यक्षगात आणि मराठी नाट्यपरंपरा’, ‘लोकजागर रंगभूमी’, ‘मिथक आणि नाटक’, ‘लोकसंचित’, मायवाटेचा मागोवा, मातीची रूपे, लोकसंस्कृतीच्या पाऊलखुणा, महामाया इत्यादी ग्रंथामधून त्यांनी लोकसाहित्य आणि संस्कृतीवर मूलभूत प्रकाश टाकला आहे. या ग्रंथांना लोकसाहित्याच्या अभ्यासात संदर्भ ग्रंथ म्हणून महत्त्वाचे स्थान आहे. मराठी विश्वकोशासाठीही त्यांनी या विषयावर लिहिलेल्या नोंदी आणि या विषयांचे केलेले सिद्धांतन महत्वाची मानले जाते.

नाटक आणि स्त्रीवाद हे बाईचे आणखी दोन अत्यंत जिव्हाळ्याचे विषय आहेत. ‘मराठी पौराणिक नाटकाची जडणघडण प्रारंभ ते १९२०’ या विषयावर त्यांनी पीएच. डी. केली आणि त्यांच्या प्रबंधाला पुणे विद्यापीठाचे सर्वोत्कृष्ट प्रबंधाचे सुवर्णपदक मिळाले अलीकडेच त्यांनी आद्य नाटककार विष्णुदास भावे यांचे चरित्र लिहिले. ‘मराठी नाटक नव्या दिशा, नवी वळणे’ हा त्यांचा नव्या नाटकांवरचा ग्रंथही प्रसिद्ध आहे. पुणे विद्यापीठाच्या ललित कला विभागात त्यांनी वेळोवेळी नाटकावर व्याख्याने दिली आहेत. सांगलीमध्ये तरुण व हौशी रंगकर्मीना घेऊन त्यांनी ए. डी. ए. ही नाट्य संस्था स्थापन केली आणि नवीन नाटके सादर केली. राज्य नाट्य स्पर्धेत सादर केलेल्या नाटकात त्यांनी स्वतः काम केले आणि त्यांना अभिनयाचे रौप्यपदकही मिळाले. मुळातच प्रखर आत्मभान असणाऱ्या बाईनी नव्याने आलेल्या ‘स्त्रीवादाचा’ पुरस्कार केला आणि स्त्रीमुक्ती चळवळीला सक्रिय पाठिंबा दिला. याच दृष्टीतून त्यांनी संत स्त्रियांच्या क्रांतिकारकत्वाची नव्याने ओळख करून दिली आणि लोकसाहित्याची स्त्रीवादी दृष्टीतून नवी मांडणी केली. अलीकडेच प्रकाशित झालेल्या त्यांच्या ‘सीतायन’ या पुस्तकातून त्यांचा हा दृष्टिकोन प्रखरपणे अधोरेखित झाला आहे.

औडक चौडक हा ताराबाईचा शब्द. त्याचा अर्थ ऐसपैस, आडवं तिडवं, वेडंवाकडं, आखीव रेखीव नसलेलं, स्वच्छंदी, मोजून मापून नसलेलं आपलं आजवरच जगणं आणि वाटचाल अशी आहे, असं त्यांना सुचवायचे असते, त्यामुळेच आपलं आयुष्य समृद्ध झालं असं त्या सांगतात. वयाची ८० पार करूनही त्या सदासतेज असतात या मागचं हे रहस्य आहे. बाई एकट्या राहतात, पण एकाकी नसतात. विचारांच्या संगतीत असतात, पुस्तकांच्या संगतीत असतात, लिहिण्याच्या संगतीत असतात, जोडलेल्या असंख्य लहान थोर, तरुण वृद्ध मित्र-मैत्रिणींच्या संगतीत असतात. जे घडले तेची पसंत अशा समाधानतेनं राहतात. अनेकांच्यासाठी आधारवड असतात.

प्रा. अविनाश सप्रे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “लोकसाहित्य-संशोधनात रमलेली विदुषी” – भाग – १  ☆ डॉ. वि. दा. वासमकर ☆

डॉ. वि. दा. वासमकर

?  विविधा ?

☆ “लोकसाहित्य-संशोधनात रमलेली विदुषी” – भाग – १  ☆ डॉ. वि. दा. वासमकर ☆

मराठीमध्ये लोकसाहित्य संशोधकांची एक मोठी परंपरा आहे. साने गुरुजी, डॉ. सरोजिनी बाबर, कमलाबाई देशपांडे, दुर्गा भागवत, ना. गो. नांदापूरकर, रा. चि. ढेरे, प्रभाकर मांडे, गं. ना. मोरजे, विश्वनाथ शिंदे इ. लोकसाहित्यमीमांसकांनी मराठी लोकसाहित्याच्या क्षेत्रात मोलाचे योगदान दिले आहे. या लोकसाहित्यमीमांसकांमध्ये आपल्या वैशिष्ट्यपूर्ण लोकसाहित्य संशोधनाचे मौलिक योगदान देणाऱ्या ज्येष्ठ लेखिका आणि दिल्ली येथे होऊ घातलेल्या 98 व्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनाच्या अध्यक्षा डॉ. तारा भवाळकर यांचा समावेश होतो.

डॉ. तारा भवाळकर ह्या मराठी विषयाच्या निष्णात प्राध्यापक असून; एक मर्मग्राही लोकसाहित्यसंशोधक म्हणून मराठी साहित्यविश्वाला परिचित आहेत. त्यांनी लोकसाहित्याचे संकलन आणि चिकित्सा तर केली आहेच; शिवाय नाट्य रंगभूमीवरील त्यांचे योगदानही तितकेच महत्त्वाचे आहे. लोकसाहित्य आणि रंगभूमीबरोबरच त्या स्त्रीवादी साहित्य चळवळीशी जोडल्या गेल्या आहेत. तसेच त्यांनी ललित आणि समीक्षणात्मक लेखनही केले आहे. या त्यांच्या व्यक्तिमत्त्वाचे प्रतिबिंब त्यांच्या विपुल लेखनात दिसून येते. हे लेखन पुढील काही ग्रंथांमध्ये समाविष्ट झाले आहे. ते ग्रंथ असे – ‘लोकसंचित’, ‘लोकसाहित्याच्या अभ्यासदिशा’, ‘लोकसाहित्य : वाङ्मय प्रवाह’, ‘मायवाटेचा मागोवा’, ‘महामाया’, ‘लोकपरंपरा आणि स्त्रीप्रतिभा’, ‘लोकसाहित्यातील स्त्रीप्रतिमा’, ‘लोकपरंपरेतील सीता’, ‘यक्षगान आणि मराठी नाट्य परंपरा’, ‘लोकनागर रंगभूमी’, ‘मराठी नाटक : नव्या दिशा नवी वळणे’, ‘मराठी नाट्यपरंपरा : शोध आणि आस्वाद’, ‘मिथक आणि नाटक’, ‘तिसऱ्या बिंदूच्या शोधात’, ‘आकलन आणि आस्वाद’ ‘निरगाठ सुरगाठ’, ‘प्रियतमा’, ‘. मरणात खरोखर जग जगते’, ‘माझिये जातीचे’, ’बोरीबाभळी’, ‘स्त्रीमुक्तीचा आत्मस्वर’, ‘स्नेहरंग’’, ‘मधुशाळा’ (हरिवंशराय बच्चन यांच्या ‘मधुशाला’ या पुस्तकाचे मराठीतील पहिले भाषांतर) अशा विविध विषयांवरील सुमारे चाळीस ग्रंथ ताराबाईंच्या विपुल आणि मर्मग्राही लेखनाचे दर्शन घडवितात. ताराबाईंच्या या विपुल लेखनाचा विचार करणे या छोट्याशा लेखात शक्य नाही म्हणून त्यांच्या काही लोकसाहित्यविषयक ग्रंथांचा येथे थोडक्यात विचार करू.

‘लोकसाहित्याच्या अभ्यासदिशा’ हा तारा भवाळकर यांचा ग्रंथ स्नेहवर्धन प्रकाशनने २००९मध्ये प्रकाशित केला. या ग्रंथात ताराबाईंनी लोकसाहित्याच्या अभ्यासाची तात्त्विक मांडणी करणारे अठरा लेख समाविष्ट केले आहेत. ‘लोकसाहित्याच्या अभ्यासदिशा’ या पहिल्याच लेखात ताराबाईंनी लोकसाहित्य म्हणजे काय याची चर्चा केली आहे. Folklore या इंग्रजी शब्दाच्या आशयाची व्याप्ती त्यांनी सविस्तर स्पष्ट केली आहे. ‘लोकसाहित्य’ या सामासिक शब्दाची फोड करताना आणि त्याचा अर्थ स्पष्ट करताना ‘साहित्य’ हा शब्द ‘साधन’-वाचक आहे असे ताराबाई म्हणतात. आणि ‘लोक’ या शब्दाचा अर्थ त्या पुढीलप्रमाणे स्पष्ट करतात- “लोक म्हणजे केवळ ग्रामीण लोक नव्हेत की जुन्या काळातील लोक नव्हेत तर ‘लोकशाही’ या शब्दातील ‘लोक’ (people) या पदाला जवळचा असा आशय व्यक्त करणारा ‘लोक’ हा शब्द आहे” असे त्या म्हणतात. म्हणजेच सांस्कृतिकदृष्ट्या विशिष्ट मानसिक जडणघडणीचा समावेश ज्या समाजात किंवा ज्या समूहामध्ये आढळतो, असा मानवसमूह म्हणजे ‘लोक’! लोक हा शब्द नेहमीच समूहवाचक असतो. या अर्थाने लोकशाहीतील ‘लोक’ हा शब्दही समूहवाचक आहे असे त्यांचे मत आहे. लोकसाहित्याची अशी व्याख्या देऊन; ताराबाईंनी दुर्गा भागवत, दत्तो वामन पोतदार, हिंदीतील वासुदेव शरण अग्रवाल, पंडित कृष्णदेव उपाध्याय, रा. चि. ढेरे, यांच्या व्याख्या देऊन त्यांचा अर्थ स्पष्ट केला आहे. लोकसाहित्य या शब्दात लोकगीते, लोककथा, म्हणी, उखाणे, कोडी ही शाब्द लोकसाहित्याची अंगे आहेत, असे त्यांनी म्हटले आहे. लोकसाहित्य ही प्रवाही घटना असते; अबोध समूह मनाच्या (collective unconscious) प्रेरणेतून लोकसाहित्य घडते, असेही त्या स्पष्ट करतात. भारतातील अनेक विद्यापीठातून लोकसाहित्याचे स्वतंत्र अभ्यासविभाग सुरू झालेले आहेत ही समाधानाची गोष्ट आहे, असे या लेखाच्या शेवटी त्या म्हणतात. लोकसाहित्याशी अन्य ज्ञानशाखांचा संबंध कसा येतो हे त्यांनी ‘लोकसाहित्य आणि ज्ञान शाखा’ हे शीर्षक असलेल्या तीन लेखांमधून स्पष्ट केले आहे. त्यामध्ये मानसशास्त्र, मानववंशशास्त्र, समाजशास्त्र व भाषाविज्ञान यांचे महत्त्वाचे योगदान असून; इतिहास, पुरातत्त्वशास्त्र आणि भूगोल यांचेही लोकसाहित्याशी जवळचे नाते असते असे त्या म्हणतात. लोकसाहित्याचे सामाजिक आणि सांस्कृतिक जीवनाशी घनिष्ठ नाते असते, असे त्यांचे प्रतिपादन आहे. कृषिनिष्ठ भारतीय जीवनातील सणवार व धर्मव्रते निसर्गसंबद्ध कसे आहेत हे त्या दाखवून देतात. लोकजीवनातील यात्रा उत्सवही निसर्गाशी संबद्धच असतात असे सांगून यात्रांमध्ये लोकसंस्कृतीच्या व लोकजीवनाच्या अनेक पैलूंचा अविष्कार होतो; देवतांविषयीचा आदर व्यक्त होतो. बहुरूपी, गोंधळी, भुत्ये, वासुदेव असे अनेक लोक कलावंत यात्रा जत्रात आपल्या कलेचे प्रदर्शन करतात लोक जीवनातील या सर्व अविष्कारालाच बहुदा धर्म हे नाव दिले जाते. नागपंचमीची नागपूजा, बैलपोळ्याला बैलाची पूजा, मंगळागौरीची पूजा, नवान्नपौर्णिमा, गौरी-गणपतीची पूजा, आणि वटसावित्रीची पूजा इत्यादी पूजा व्रते हे सगळे धर्म म्हणून ओळखले जातात मात ताराबाईंच्या मते हे सर्व लोकधर्मच आहेत आणि या लोकसंस्कृतीमध्ये धर्माचे रूप निसर्ग धर्माचे आहे असे त्या म्हणतात. या लोक धर्मामध्ये मोक्षाची मागणी नसते तर ऐहिक जीवनाविषयीच्याच मागणी करणारे हे लोकधर्म असतात. असे त्या प्रतिपादन करतात. ताराबाईंच्या या विवेचनातून प्रस्थापित धर्मापेक्षा लोकधर्माला महत्त्व दिलेले दिसून येते. ‘नाट्यात्मक लोकाविष्कारांची काही उदाहरणे’ या लेखामध्ये वारकरी, नारदीय, आणि रामदासी संप्रदायांच्या कीर्तनपद्धतीचा व विवाह विधींचा ताराबाईंनी परामर्श घेतला आहे. अशा रीतीने लोकसाहित्यविषयक तात्त्विक भूमिका मांडल्यानंतर या ग्रंथाच्या शेवटी साने गुरुजींच्या लोकसाहित्याच्या संकलनविषयक कार्याची ताराबाईंनी ओळख करून दिली आहे.

‘लोकसंचित’ हा ताराबाईंचा आणखी एक महत्त्वाचा लोकसाहित्यविषयक ग्रंथ. पुण्याच्या राजहंस प्रकाशनने हा ग्रंथ डिसेंबर 1989 मध्ये प्रकाशित केला. या ग्रंथात वीस लेख समाविष्ट झाले आहेत. या ग्रंथातही सुरुवातीला लोकसाहित्यविषयक तात्त्विक भूमिका आली आहे. ‘लोकनाट्यातील धार्मिकता आणि लौकिकता’ या पहिल्याच लेखात ‘लोकनाट्य’ ही संकल्पना स्पष्ट करताना तमाशा, खंडोबाचे जागरण, गोंधळ, कोकणातले नमन, दशावतारी खेळ यांचा विचार करून हे सर्व एकाच गटात बसणार नाहीत असे त्या म्हणतात तमाशा हा प्रकार प्रयोगविधांपेक्षा भिन्न आहे आणि आजच्या तमाशात धार्मिकतेचा अंश इतका पुसट झाला आहे की तो शोधूनच काढावा लागतो, असे त्या म्हणतात. मात्र दशावतारी खेळ, खंडोबाचे जागरण, गोंधळ इत्यादी विधिनाट्यांमधून धार्मिकतेचा प्रत्यय येतो असे त्या सूचित करतात. कारण या विधीनाट्यांमध्ये पूर्वरंग आणि उत्तररंग असे दोन भाग असतात पूर्वरंग हा परंपरेनुसार धर्मविधीसाठी राखून ठेवलेला असतो त्यात ईश्वरविषयक किंवा तत्त्वज्ञानविषयक तात्विक व गंभीर विवेचनाचा भाग असतो. आणि उत्तररंगात तद्नुषंगिक आख्यानात लोकरंजन आलेले असते, असे त्या स्पष्ट करतात.

– क्रमशः भाग पहिला 

लेखक : डॉ. वि. दा. वासमकर

सांगली (महाराष्ट्र)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “गोष्ट तशी जुनीच…” – भाग – १ –  लेखिका : डॉ. तारा भवाळकर ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? जीवनरंग ❤️

☆ “गोष्ट तशी जुनीच…” – भाग – १ –  लेखिका : डॉ. तारा भवाळकर ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित

आटपाट नगर होतं. तिथं एक राजा होता. खरं तर राजा होता की डाॅक्टर होता की पुढारी होता की शेतमजूर होता याला महत्व नाही. पण आटपाट नगर म्हटलं की ‘तिथं एक राजा होता’ असं म्हणायची तोंडाला आणि ऐकायची कानाला इतकी सवय झालीय की म्हणून टाकलं आपलं रितीप्रमाणं. , “तिथं एक राजा होता “. या गोष्टीपुरतं नेमकं सांगायच झालं तर तो चार पोरींचा बाप होता हे महत्वाचं. उद्योग त्याचा काही का असेना, मुलींचा बाप हे महत्वाच ! शिवाय प्रत्येक घरातला बाप हा कुटुंब प्रमुख म्हणून आपल्यापुरता राजाच असतो की आपल्या कुटुंबाचा.

सर्वसत्ताधारी ! तसाच हा ही. तर त्याला चार मुली होत्या. एखादी मुलगी असली तर मागच्या जन्मीचं पाप, उरावरची धोंड अस काय काय काय असतं. इथं तर चार मुली ! संस्कृत मध्ये एक वचन आहे ना, ” एकैकमपि अनर्थाय किमुयत्र चतुष्ठयम् ” एक अनर्थकारक असतं तर चार एकत्र आल्यावर किती मोठा अनर्थ होईल!सुभाषित आहे वेगळ्या संदर्भातलं. पण मुलींच्या बापाच्या दृष्टीने ते इथं अगदी फिट्ट बसत. एक मुलगी झाली तेव्हा मनाची समजूत घातली ‘पहिली बेटी मुलगा होईल तिच्या पाठी’, म्हणून तिचे थोडेफार लाडही झाले. पण दुसरीही मुलगी ! तिसरीही मुलगी ! बापाच्या उत्साहाचा पारा खाली खाली आणि रागाचा पारा वरती

वरती. मुलींची अनुभवी आज्जी म्हणाली, ” वाट पहा, आता चौथ्यांदा नक्की बेटा होणार. अनेकदा तिघींच्या पाठीवर मुलगा होतोच. कसलं काय!, चौथीही मुलगीच. मग थकल्या भागल्या मुलींच्या आईनी लवकरच राम म्हटला, कायमचा!. मुली म्हटलं

की कधी ना कधी लग्न ही होणारच. दुपट्यातनं बाहेर पडून आपल्या दोन पायावर मुली चालायला लागल्या की त्यांना सगळं जग उठल्या बसल्या लग्नाचीच आठवण करून देत असतं. तसच या मुलींच्याही मनात लहानपणापासून घट्ट धरुन ठेवलेलं, लग्नाशिवाय आपलं काही खरं नाही. लग्न तर करायलाच हवं. मुलीच्या जातीनं दुसर करायचचं काय म्हणा ? एकदा आज्जीनं सांगितलं.

सगळ्यांनी माना डोलावल्या. सगळ्यांनी म्हणजे थोरल्या तिघींनी. धाकटी जरा अवखळच.

” म्हणजे काय ? मुलींनी लग्नाशिवाय दुसरं काहीच कसं करायचं नाही ? मुलगी लग्न करते तेव्हा एक मुलगाही लग्न करतोच ना ? “

” अगं मग त्याशिवाय का मुलीचं लग्न होतं ?”

सगळ्या तिच्या अडाणी प्रश्नावर फिसफिसल्या.

” तसं नाही, तसं नाही, तसं नाही, मला म्हणायचं होतं की मुलगा लग्न करुन स्वस्थ बसतो का घरात ? त्याचे आधीपासूनचे सगळे उद्योग चालुच असतात की नाही नंतर पण?”

कोण असल्या तिरपांगड्या मुलीबरोबर बोलणार? 

तरीही तिचं आपलं चालायचंच.

” काय ग ताई, अभ्यास करायला काय होतय तुला ? यंदाही नापासच झालीस ना ? “

” होऊ दे झाली तर. तिला थोडीच नोकरी चाकरी करायची आहे? कशी गोरीगोमटी नक्षत्रासारखी मुलगी कुणीही हासत उचलून नेईल. “

” शी, कुणी उचलून नेलं तर चालेल तुला ताई ? लाजतेस काय अशी ? तू म्हणजे काय बाजारातली भाजी आहेस ? तुला तुझं काही मतबीत आहे की नाही ?”

भारीच बाई ढालगज ही धाकटी. हा एकूण घरादाराचा अभिप्राय! 

दिवस काही बसून रहात नाहीत. आज्जी आता थकली आणि तिची भुणभुण सुरु झाली.

वेळेवारीच आपल्या समया उजवलेल्या ब-या. बापालाही ते एकदम पटलं. आधी आपल्या पोरींची पारख आपणच करावी म्हणून त्यांनी आपल्या चारी पोरींना समोर बसवलं. पहिल्या तिघी, साज-या, गोज-या, लाजाळू, खालमानी, सालसपणानी येऊन ओठंगून उभ्या राहिल्या. धाकटी जरा अवखळ, आईवेगळी. म्हणून जरा आज्जीची लाडावलेली. बापानं दुर्लक्षलेली. शिवाय वय थोडं लहान.

बापाने बापाला शोभेल अशा गंभीरपणाने मुलींना बोलावण्याचा उद्देश सांगितला. ” “आता तुमची लग्न करायचा इरादा आहे. इतके दिवस तुमची जबाबदारी माझी होती. मीच तुमचा कर्ता धर्ता. माझ्या जीवावर तुम्ही लाडाकोडात वाढलात. सगळ्यांनी माना डोलावल्या.

” म्हणजे काय ? बाबा कसले लाड केलेत हो तुम्ही ? दोन वेळेला जेवाय खायला घालून अंगभर कपडे दिले एवढेच ना? ” धिटुकलेपणाने धाकटी बोलली. बाबा सकट चमकून सगळ्यांनी माना वर केल्या.

” काय तरी हा अबूचरपणा ? असं बोलतात का कोणी बापाला?”

 थोरलीने तिला चिमटा काढला. तर किंचाळत ती म्हणाली ” काय चुकीचं बोलले ग मी ताई ? तुम्ही सुद्धा? “

दुसरीनं तिला डोळ्यानी दटावलं.

तिसरी घाई गर्दीन म्हणाली, ” नाही, नाही. खरं आहे बाबा. तुम्ही ना तिच्याकडे लक्ष नका देऊ. तुमच्या मुळेच तर आम्ही जगलो. तुमचं नशीब ते आमचं नशीब. “

“असं कसं, असं कसं, असं कसं होईल पण ? ज्याचं त्याचं नशीब वेगळंच असतं. स्वतंत्र असतं. ज्याचं 

शरीर जसं स्वतंत्र असत ना, तसं ज्याचं त्याचं नशीब पण स्वतंत्र असतं. ” पुन्हा धाकटी बोलली.

” गप गं, कळतं का काही तुला ? “

” पण परवाचं तर सगळे म्हणतं होते ना धाकट्या आत्याला सासुरवास होतो तर तिचं नशीबच तसलं.

मग आजोबांचं श्रीमंत नशीब का नाही बरं तिचं झालं ?का वाईट झालं तर तिचं नशीब आणि चांगलं झालं की तिच्या बाबांचं नशीब. “

” गप गं बाई. तुझं तुला तरी कळतं का तू काय बोलती आहेस ते ? “

“कळतं. तुम्हालाच कळत नाही तुम्ही काय म्हणताय ते. आंधळ्या आहात तुम्ही सगळ्या. “

‘हे बघ तू सध्या गप्प बस. तुझं मत मी विचारलेलं नाही. विचारेन तेव्हा सांग. ” बाबाच असं म्हणाले तेव्हा ती गप्प बसली. पण आपल्याला विचारलं की अगदी मनात असेल ते स्पष्ट सांगायचं असं तिने ठरवून टाकलं. मग अगदी गोष्टीतल्या सारखच घडलं. बाबांनी प्रत्येकीला विचारल, ” तू कोणाच्या नशिबाची बाई ? ” 

“तुमच्याच की बाबा. ” 

प्रत्येकीन खालमानेनं उत्तर दिलं. बाबांना स्वर्ग दोन बोटे उरला. किती मान देतात पोरी. आपल्या शब्दाच्या बाहेर नाहीत. “छान, आता तुमच्यासाठी मी नवरे शोधतो.

सगळ्यांनी माना डोलावल्या. मग गोष्टीत सांगितल्याप्रमाणेच त्यांच्या बापाच्या मते चांगली असलेली स्थळे पाहून थाटामाटात लग्ने लावून दिली. मग रितीप्रमाणे सगळ्याजणी एकमेकींच्या गळ्यात पडून रडल्या आणि नवऱ्या शेजारी गाडीत बसल्यावर नवऱ्याकडे पाहून खुदकन हसल्या. धाकटीला मनातल्या मनात सगळाच खुळचटपणा वाटत होता. तसं ती चुलतीला म्हणाली सुद्धा. तर हीच खुळचट असल्यास्रख चुलतीनं तिच्याकडं बघितलं.

थोरली पहिल्या बाळंतपणासाठी आली आणि महिनाभरात परत जायची घाई करायला लागली. नवऱ्याला एकटं ठेवणं तिला धोक्याचं वाटत होतं. चुलती म्हणाली, ” अगं पण घरात आक्काताई आहेत ना त्यांना रांधून घालायला ?”

अक्काताई म्हणजे तिची विधवा चुलत जाऊ. तर ती पटकन म्हणाली, ” म्हणून तर काळजी वाटते ना ! ” आणि तिने जीभ चावली. धाकटीला थोरलीची फार फार दया आली. ही थोरली दिसायला सगळ्यात उजवी.

म्हणून म्हणे नवऱ्याची लाडकी. आणि तिची ती अक्काताई? ती म्हणजे तो नुसता पठाण. फदक फदक चालायची आणि तिच्या मागच्या पुढचे गोलवे हिंदकळायचे. सगळ्या पुरुषांच्या नजरा आपल्या तिथेच. थोरलीला आपल्या नवऱ्याचा म्हणून तर भरोसा वाटत नव्हता आणि धाकटीला ती कायम काळी ढुस्सं आणि नकटी चिपटी म्हणून चिडवायची. धाकटीला वाटलं या गोऱ्या गोमटीला तरी कुठे सुरक्षित वाटतय ? आता हिचा नवरा बहकला तर दोष कुणाच्या नशिबाचा ? बाबांच्या की हिच्या ? 

दुसरीच्याही संसाराची रडकथा वर्षभरातच कानावर आली. आधीपासूनच म्हणे त्याला दारूचं व्यसन.

लग्न झाल्यावर पैसा पुरेना. म्हणून जोडधंद्यासारखा तो जुगार खेळायला लागला होता. आता घरचे म्हणायला लागले

” नशीब तिचं “

“मग तेव्हा कशा सगळ्यांनी माना डोलावल्या होत्या आम्ही बाबांच्या नशिबाच्या म्हणून? अं?” धाकटी बोलली.

आता या चोंबडीनी आत्ता बोलायलाच हवं होतं का ? असं प्रत्येकीच्या मनात येऊन गेलं.

 तिस-या बहिणीची तिसरीच त-हा. तिला तर लागोपाठ तिन्ही मुलीच झाल्या. सासरच्यांनी तिला सळो की पळो करुन सोडलं. सासू तर उठबस म्हणायची, ” आई तशी लेक आणि दोहीची खोड एक. ” नवरा तसा शिकला सवरलेला. तो आपला मुखस्तंभ. सासूनं सरळ आपल्या माहेरची एक मुलगी पाहिली आणि आपल्या मुलाचं दुसरं लग्न लावून दिलं. ही बहिणही रडत भेकत माहेरी आली. तर सगळे तिला म्हणाले, ” हे बघ, एकदा नीट पाहून तुझे आम्ही लग्न लावून दिलं होतं. आता तू आणि तुझं नशीब. “

 — क्रमशः भाग पहिला 

लेखिका : डाॅ. तारा भवाळकर 

प्रस्तुती : सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून  ☆ माझी कामाठीपुर्‍यातली भिक्षुकी – मी धूपार्तीचा भिक्षुक.. ! – भाग – १  – लेखक : श्री तात्या अभ्यंकर ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

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☆ माझी कामाठीपुर्‍यातली भिक्षुकी – मी धूपार्तीचा भिक्षुक.. ! – भाग – १  – लेखक : श्री तात्या अभ्यंकर ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास सोहोनी ☆

१९९१-९२चा सुमार. मी तेव्हा नौकरी करत होतो.. फोरासरोडवरील झमझम नावाच्या सरकारमान्य देशी दारूच्या बारमध्ये.. कॅशियर कम मॅनेजर होतो मी.. आजूबाजूला सारी वेश्यावस्ती, दारुवाले, मटकेवाले, पोलिस, गुंड.. यांचंच सारं राज्य.. आयुष्यात एके से एक अनुभव आले त्या दुनियेत. कधी सुखावणारे, कधी दुखावणारे, कधी विचार करायला लावणारे, काही चित्र, काही विचित्र, काही नैसर्गिक, काही अनैसर्गिक.. अस्वस्थ करणारे.. आजूबाजूला अनेक प्रसंग रोजच्या रोज घडत होते.. स्वाभाविक, अस्वाभाविक.. पण प्रत्येक प्रसंग एक अनुभव देऊन गेला..

बारमध्ये असंख्य प्रकारची माणसं येत.. रोजचे नियमित-अनियमित बेवडे हजेरी लावायचेच.. त्याशिवाय रोज एखादी ‘काय अभ्यंकर, सगळं ठीक ना? काय लफडा नाय ना?” असं विचारणारी नागपाडा पोलिस स्टेशनच्या कदम हवालदाराची किंवा त्याच्या सायबाची फेरी.. मग कुठे बरणी उघडून फुकट चकली खा, चा पी असं चालायचं.. कधी हलकट मन्सूर किंवा अल्लाजान वेश्यांकरता भूर्जी, आम्लेट, मटन सुका, खिमपाव असं काहीबाही पार्सल न्यायला यायचे.. कधी अफूबाज, चरसी डब्बल ढक्कन यायचा.. कधी बोलबोलता सहज सुरा-वस्तरा चालवणारे हसनभाय, ठाकूरशेठ सारखे गुंड चक्कर काटून जायचे.. “क्यो बे तात्या, गांडू आज गल्ला भोत जमा हो गया है तेरा.. साला आजकल बंबैकी पब्लिकभी भोत बेवडा हो गएली है.. साला, एक हज्जार रुप्या उधार दे ना. ” असं म्हणून मला दमात घ्यायचे..

कधी त्या वस्तीत धंदा करणारे हिजडे यायचे.. उगीच कुठे ठंडा, किंवा अंडापाव, असंच काहीबाही पर्सल न्यायला यायचे.. ‘ए तात्या… म्येरा पार्सल द्येव ना जल्दि.. कितना मोटा है तू.. ‘ अश्या काहितरी कॉमेन्टस करत माझ्या गल्ल्याशी घुटमळत.. मी त्रासाने हाकलून द्यायला लागलो की काडकन टाळी वाजवून ‘सौ किलो.. !’ असं मला मिश्किलपणे चिडवायचे! अक्षरश: नाना प्रकरची मंडळी यायची त्या झमझम बारमध्ये आणि केन्द्रस्थानी तात्या अभ्यंकर!

गणपतीचे दिवस होते.. रस्ता क्रॉस केल्यावर आमच्या बारच्या समोरच्याच कामाठीपुर्‍यातल्या कोणत्याश्या (११ व्या की १२ व्या? गल्ली नंबर आता आठवत नाही.. ) गल्लीत हिजड्यांचाही गणपती बसायचा. हो, हिजड्यांचा गणपती! वाचकांपैकी बर्‍याच वाचकांना कदाचित ही गोष्ट माहीत नसेल. परंतु मुंबैच्या कामाठीपुर्‍यात अगदी हिजड्यांचाही गणपती बसतो.. साग्रसंगीत त्याची पूजा केली जाते.. कामाठीपुर्‍यात काही तेलुगू, मल्लू भाषा बोलणारे, तर काही उत्तरप्रदेशी हिजडे आहेत ते दरसाल गणपती बसवतात.. बरेचसे मुस्लिम हिजडेही त्यात आवर्जून सहभाग घेतात..

झमझम बारचा म्यॅनेजर म्हणून मला आणि आमच्या बारच्या सार्‍या नौकर मंडळींना त्या हिजड्यांचं सन्मानपूर्वक बोलावणं असायचं.. ‘तात्यासेठ, गनेशजीको बिठाया है.. ‘दरसन देखने आनेका.. खाना खाने आनेका.. ‘ असं आग्रहाचं बोलावणं असायचं.. ! अल्लाजान मला घेऊन जायचा त्या गणेशोत्सवात..

संध्याकाळचे सात वाजले असतील.. मी गल्ल्यावर होतो.. पूजाबत्ती करत होतो. तेवढ्यात अल्लाजान मला बोलवायला आला.. “गनेशके दरसन को चलनेका ना तात्यासेठ?”

मी दिवाबत्ती केली.. अर्जून वेटरला गल्ल्याकडे लक्ष द्यायला सांगितलं आणि हिजड्यांच्या गणपतीच्या दर्शनाला अल्लाजानसोबत निघालो. कामाठीपुर्‍याच्या त्या गल्लीत गेलो.. खास दक्षिणेकडची वाटावी अशी गणेशमूर्ती होती.. नानाविध फुलं, मिठाई, फळफळावळ, थोडे भडक परंतु सुंदर डेकोरेशन केलेला हिजड्यांचा नानाविध अलंकारांनी नटलेला ‘अय्यप्पा-गणेश’ स्थानापन्न झाला होता.. एका म्हातार्‍या, स्थूल व टक्कल पडलेल्या हिजड्यानं माझं स्वागत केलं.. तो त्यांचा म्होरक्या होता. बसायला खुर्ची दिली.. झमझम बारचा म्यॅनेजर तात्याशेठ! म्हणून मोठ्या ऐटीत माझी उठबस त्या मंडळींनी केली.. अगदी अगत्याने, आपुलकीने.. !

हिजड्यांबद्दल काय काय समज असतात आपले? परंतु ती देखील तुमच्याआमच्यासारखी माणसंच असतात.. आपल्यासारख्याच भावभावना, आवडीनिवडी, रागलोभ असतात त्यांचे.. ते हिजडे कोण, कुठले, या चर्चेत मला शिरायचं नाही. ते धंदा करतात एवढं मला माहित्ये. चक्क शरीरविक्रयाचा धंदा.. पोटाची खळगी भरणे हा मुख्य उद्देश. आणि असतातच की त्यांच्याकडेही जाणारी आणि आपली वासना शांत करणारी गिहाईकं! कोण चूक, कोण बरोबर हे ठरवणारे आपण कोण?

मला सांगा – एखाद्या सिने कलाकाराने म्हणा, किंवा अन्य कुणा सेलिब्रिटीने म्हणा, दगडूशेठला किंवा लालबागच्या राजाला भेट दिल्यानंतर त्याचं होणारं आगतस्वागत आणि कामाठीपुर्‍यातल्या हिजड्यांच्या गणेशोत्सवाला तिथल्याच एका देशीदारूच्या बारच्या तात्या अभ्यंकराने भेट दिल्यावर हिजड्यांनी त्याच आपुलकीनं त्याचं केलेलं आगतस्वागत, यात डावंउजवं कसं ठरवायचं?

लौकरच एक अतिशय स्वच्छ प्लेट आली माझ्या पुढ्यात. वेफर्स, उतम मिठाई, केळी, चिकू, सफरचंद इत्यादी फळांच्या कापलेल्या फोडी, दोनचार उत्तम मावा-बर्फी, काजुकतलीचे तुकडे.. ! 

तो म्हातारा हिजडा मोठ्या आपुलकीनं आणि प्रेमानं मला म्हणाला..

“मालिक, थोडा नाष्टा करो.. “

“बादमे तुम्हे हमारा गणेशका पूजा करना है. और बादमे खाना भी खानेका.. !”

बापरे.. ! ‘मला यांच्या गणपतीची पुजा करायच्ये?’ मला काही खुलासा होईना.. ‘बघू नंतर काय होईल ते होईल, आपण आपली पुढ्यातली ही डिश खाऊन काहितरी कारण सांगून सटकू इकडनं.. ‘ अस ठरवून मी समोरच्या बर्फीचा एक तुकडा तोंडात टाकला.. सुरेखच होती बर्फी.. अगदी ताजी!

समोरच्या डिशमधलं थोडंफार खाल्लं मी. जरा वेळ तसाच तिथे बसून राहिलो. ‘आता दर्शन घ्यायचं आणि निघायचं’ असा मनाशी विचार केला आणि उठलो.. तोच तो मगासचा टकल्या हिजडा आणि इतर दोघेचौघे हिजडे पुढे सरसावले. त्यापैकी एकाच्या हातात मोठासा स्वच्छ नॅपकीन!

“आओ तात्यासेठ, अब न्हानेका और पूजा करनेका.. !”

न्हानेका और पूजा करनेका? मला काहीच समजेना. अल्लाजान होताच माझ्यासोबत. तो त्यांच्यातलाच.. त्याच्याशी बोलताना मला कळलं की आज मी त्यांचा पेश्शल पाहुणा आहे आणि मला पूजा करायच्ये किंवा सांगायच्ये!

ही कुठली पद्धत? कुणाला विचारून? मला क्षणभर काय करावं ते कळेचना! ‘सगळं झुगारून निघून जावं का इथून?’ हा विचार माझ्या मनात सारखा येत होता. पण माझ्या आजुबाजूला जमलेल्या, माझी इज्जत करणार्‍या त्या हिजड्यांच्या चेहर्‍यावर मला खूप आनंद दिसत होता, उत्साह दिसत होता..

‘देखे क्या होता है.. जो भी होगा, देख लेंगे.. ‘ या माझ्या नेहमीच्या स्वभावानुसार मी ती मंडळी म्हणतील ते करायचं ठरवलं. अधिक माहिती विचारता अल्लाजानकडून मला असं समजलं की मी एक पांढरपेशा उच्चभ्रू आहे असा त्यांचा समज आहे आणि माझ्या हातून आज त्यांच्या गणपतीची पूजा व्हावी अशी त्या मंडळातल्या हिजड्यांची इच्छा आहे आणि तशी पद्धतही आहे.. !

साला, मी एक पांढरपेशा उच्चभ्रू? जाऊ दे, तो चर्चेचा विषय आहे! झमझम बारमध्ये महिन्याकाठी सताठशे रुपये पगार मिळणारा मी उच्चभ्रू?!

— क्रमशः भाग पहिला 

लेखक : श्री तात्या अभ्यंकर 

प्रस्तुती – श्री सुहास सोहोनी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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