मराठी साहित्य – ☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “जर – तर ‘ च्या गोष्टी (भाग १ आणि २)” – लेखक – डॉ. बाळ फोंडके ☆ परिचय – श्री हर्षल सुरेश भानुशाली ☆

श्री हर्षल सुरेश भानुशाली

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “जर – तर ‘ च्या गोष्टी (भाग १ आणि २)” – लेखक – डॉ. बाळ फोंडके ☆ परिचय – श्री हर्षल सुरेश भानुशाली ☆

पुस्तक : ‘जर – तर‘ च्या गोष्टी  (भाग १ आणि २)

लेखक: डॉ. बाळ फोंडके

पृष्ठे: ३३८ दोन्ही मिळून

५००₹ 

आपल्या आसपास अनेक घटना घडत असतात. काही नैसर्गिक असतात तर काही मानवनिर्मित असतात. आपण त्या अनुभवतो, त्यांचा आस्वादही घेतो. पण त्यांच्याविषयी का, कसं वगैरे प्रश्न मनातही उभे करत नाही. पण अचानक तशी परिस्थितीही उद्भवते आणि आपण भांबावून जातो. मात्र त्याची पूर्वकल्पना मिळाली तर त्यानंतर आलेल्या विपरीत परिस्थितीवर काय उपाययोजना करायची याचं थंड माथ्यानं विश्लेषण करून त्याचा आराखडा आपल्याकडे तयार असू शकतो. त्या पायीच मग जर असं झालं तर, किंवा जर असं झालं नाही तर, अशा प्रश्नांची तर्कसंगत उत्तरं मिळवण्याची निकड भासू लागते.

जर असं झालं तर, किंवा जर असं झालं नाही तर, अशा प्रश्नांची तर्कसंगत उत्तरं देणारे पुस्तक 

कोरोनानं धुमाकूळ घातला नसता तर, ऑनलाइन शाळा, वर्क फ्रॉम होम, घरपोच सामान मागवणं, अशा पर्यायांचा विचारही आपण केला असता का? पण हे तहान लागल्यावर विहीर खणण्यासारखं झालं. तोपर्यंत कशाला थांबायचं? एरवीही जर कोरोनाचं संकट उभं राहणार नसेल तर? त्याला प्रतिबंध करणारी लस तयार झाली नसेल तर? प्रत्यक्ष एखादी घटना समोर येण्यापूर्वीच भविष्यवेधी अशा ‘जर-तर’च्या प्रश्नांचा विचार केला तर ज्यांची स्वप्नातही कल्पना केली नव्हती असे अनेक पर्यायी उपाय दिसू लागतात. त्यांचा पाठपुरावा करत नवनिर्मितीला चालना मिळते.

परिचय : श्री हर्षल सुरेश भानुशाली

पालघर 

मो. 9619800030

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – मूक प्रेम… ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ☆

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा मूक प्रेम

? लघुकथा – मूक प्रेम ? सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ?

काफी समय से अम्मा एक कटोरे में दाने लेकर बाहर बिछे पलंग पर बैठ जाती , मुट्ठी भर दाने जमीन पर बिखरा कर आवाज लगाती आ .. आ…कुछ ही देर में कबूतर वहां जुटने आरंभ हो जाते. देखते ही देखते सारा आंगन कबूतरों से भर जाता. अम्मा धीरे-धीरे सारे दाने कबूतरों के सामने बिखेर देती. दाने चुगने के बाद कबूतर इकट्ठे होकर अम्मा के पलंग के पास जमा हो जाते और गुटरगूं करते मानो उसका धन्यवाद कर रहे हों.अम्मा भी बड़े प्यार से उनके साथ न जाने क्या-क्या बतियाती रहती .कुछ कबूतर तो उड़कर अम्मा के पलंग पर उसके समीप जा बैठते और अपने प्यार का इजहार करते. अम्मा प्यार से उन्हें सहलाती तो वे आंखें मूंद उस प्रेम को महसूस करते.अब दोनों ही एक दूसरे की प्रेम की भाषा समझते थे.

रोज के समय पर आज कबूतर वहां आए तो देखा अम्मा पलंग पर नहीं थी. आंगन में लोगों का जमावड़ा लगा था. मूक प्राणी कुछ नहीं समझ सके.

कुछ समय बाद वहां से अम्मा की अर्थी उठी. बेटा बड़ा अफसर था इसलिए अच्छी खासी भीड़ शव यात्रा में थी. लगभग  नब्बे वर्ष की उम्र पार कर चुकी अम्मा की अर्थी पर फूल बरसाए जा रहे थे. वह अपने जीवन में सारे सुख देख चुकी थी इसलिए बैंड बाजे बज रहे थे .

तभी कबूतरों का एक बड़ा झुंड आया और शवयात्रा के साथ  धीरे धीरे उड़ने लगा जैसे अम्मा की अर्थी को बेटे कंधा दे रहे हों .जब चिता को अग्नि देने के बाद लोग लौटने लगे तो सारे कबूतर भी धीरे धीरे उड़कर वापस लौटने लगे भूखे प्यासे, उदास, पस्त से। आज अम्मा के हाथों से दाने न मिलने पर सभी ने भूखे रहकर मानो उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए अपने मूक प्रेम को प्रदर्शित किया था.

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

संपर्क –  सी-१२०३, वाटर्स एज, विशालनगर, पिंपले निलख, पुणे- ४११०२७ (महाराष्ट्र) मो.  9325261079 

Email-  [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 232 ☆ व्यवहार का केंद्रीकरण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना व्यवहार का केंद्रीकरण। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 232 ☆ व्यवहार का केंद्रीकरण

समय के साथ व्यवहार का बदलना कोई नयी बात नहीं है। परिवर्तन तो प्रकृति भी करती है, तभी तो दिन रात होते हैं, पतझड़ से हरियाली, फिर अपने चरम उत्कर्ष पर बहारों का मौसम ये सब हमें सिखाते हैं समय के साथ बदलना सीखो, भागना और भगाना सीखो, सुधरना और सुधारना सीखो।

ये सारे ही शब्द अगर हम क्रोध के वशीभूत होकर सुनेंगे तो इनका अर्थ कुछ और ही होगा किंतु सकारात्मक विचारधारा से युक्त परिवेश में कोई इसे सुने तो उसे इसमें सुखद संदेश दिखाई देगा।

जैसे भागना का अर्थ केवल जिम्मेदारी से मुख मोड़ कर चले जाना नहीं होता अपितु समय के साथ तेज चलना, दौड़ना, भागना और औरों को भी भगाना।

सबको प्रेरित करें कि अभी समय है सुधरने का, जब जागो तभी सवेरा, इस मुहावरे को स्वीकार कर अपनी क्षमता अनुसार एक जगह केंद्रित हो कार्य करें तभी सफलता मिलेगी।

***

नेह की डोरी सजोते, साथ जीवन भर चले।

सत्य की अनुपम कहानी, सुन सुनाकर ही पले।।

चेतनामय हो मधुरता, जोड़कर सबको रखे।

 राम सीताराम सीता, नित्य रसना यह चखे।।

***

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नेह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – नेह ? ?

जितना दबाओ, स्मृतियाँ

उतनी उभर आती हैं,

उभारो तो निर्वासन

को मचल जाती हैं,

दुधारी तलवार है

नेह की पीड़ा,

कहीं से भी थामो

कलेजा चीर कर

निकल जाती है।

?

© संजय भारद्वाज  

2:01.2021, 23.12 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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English Literature – Poetry ☆ Defiant Heart… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poem Defiant Heart We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  
?~ Defiant Heart… ~ ?

Surely I may be growing older,

but I still rise with the Sun,

Mortality keeps whispering,

“Oh!  You have  just begun”

The  fire  of  the  yore  within,   

still flickers as a cinder bright,

A  desire  to  be naughty again,

A  treasured  sparking  delight

Adage says, age is just a number,

Certainly not a carrier of  fate,

It’s a passion, a catalyst for sure

Making the life eternally great

Curiosity, a critical key, that it’s,

Unlocks  the treasure, each  day,

A chance to laugh & gladly dance

Making merry to  seize the way

Fear  of  time,  a  perennial  thief, 

that steals the fun and  delight,

I’ll  never succumb to such thefts  

And be a prisoner, of fading light

Every moment is God’s unique gift,

A chance to make merry and alive

To march forward with endless joy,

to be jubilant, where hearts thrive

So let the years keep accumulating

Like piles & piles of autumn leaves,

I’m  not destined be bound by time,

Be it a calamity or fleeting breeze

Be it a hailstorm or catastrophe big

The flame continues to burn bright,

My heart will remain defiant for ever

Ever illumining the darkest of night!

~Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

06 February 2025

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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English Literature – Articles ☆ Meditate Like The Buddha # 15: MINDFULNESS OF BREATHING ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Meditate Like The Buddha # 15: MINDFULNESS OF BREATHING

“Bhikkhus, when mindfulness of breathing is developed and cultivated, it is of great fruit and great benefit. When mindfulness of breathing is developed and cultivated, it fulfils the four foundations of mindfulness. When the four foundations of mindfulness are developed and cultivated, they fulfil the seven factors of enlightenment. When the seven factors of enlightenment are developed and cultivated, they fulfil true knowledge and deliverance.” — Buddha

The Significance of Mindfulness of Breathing

The meditation on in-and-out breathing was expounded by the Buddha as the gateway to enlightenment and Nibbana. When the Blessed One sat beneath the Bodhi Tree, he took up mindfulness of breathing as his meditation subject and attained the limitless wisdom of a Fully Enlightened Buddha.

The Buddha emphasized this practice, considering it a noble and divine dwelling:

“If anyone, bhikkhus, speaking rightly could say of anything, ‘It is a noble dwelling, a divine dwelling, the Tathagata’s dwelling,’ it is of concentration by mindfulness of breathing that one could rightly say this.”

One of the Buddha’s most valuable contributions to humanity is his structured instructions for meditation, offering a clear and systematic approach to practice.

The Steps of Mindfulness of Breathing

“A bhikkhu, gone to the forest or to the root of a tree or to an empty hut, sits down, having folded his legs crosswise, set his body erect, and established mindfulness in front of him. Ever mindful, he breathes in; mindful, he breathes out.”

The Buddha elaborated on the steps of mindfulness of breathing, explaining its role in fulfilling the four foundations of mindfulness, the seven factors of enlightenment, and ultimately, true knowledge and deliverance.

Fulfilment of the Four Foundations of Mindfulness

Mindfulness of breathing, when developed and cultivated, fulfils the four foundations of mindfulness:

  1. Contemplation of the Body: Observing the breath in its natural rhythm, understanding its length, experiencing the whole body, and relaxing the body.
  2. Contemplation of Feelings: Recognizing feelings—rapture, pleasure, mental formations, and tranquillity.
  3. Contemplation of the Mind: Experiencing the mind, gladdening it, concentrating it, and liberating it.
  4. Contemplation of Mind-Objects: Reflecting on impermanence, fading away, cessation, and relinquishment.

On each occasion, one remains fully aware, ardent, and mindful, having put away covetousness and grief for the world.

Fulfilment of the Seven Factors of Enlightenment

The development of the four foundations of mindfulness leads to the arising and fulfilment of the seven enlightenment factors:

  1. Mindfulness – Maintaining constant awareness of the present moment.
  2. Investigation of States – Examining mental and physical phenomena with wisdom.
  3. Energy – Cultivating tireless effort and enthusiasm.
  4. Rapture – Developing deep joy in meditation.
  5. Tranquillity – Achieving inner peace and stillness.
  6. Concentration – Attaining deep, unwavering focus.
  7. Equanimity – Cultivating impartiality and balance of mind.

By practicing mindfulness of breathing, one develops each enlightenment factor, leading to spiritual progress and fulfilment.

Fulfilment of True Knowledge and Deliverance

When developed and cultivated, the seven factors of enlightenment lead to true knowledge and deliverance:

  • Supported by seclusion, dispassion, and cessation, mindfulness of breathing leads to relinquishment.
  • The systematic development of investigation, energy, rapture, tranquillity, concentration, and equanimity brings about complete liberation.

“Bhikkhus, this concentration by mindfulness of breathing, when developed and cultivated, is peaceful and sublime, an ambrosial pleasant dwelling, and it disperses and quells on the spot evil unwholesome states whenever they arise.”

Conclusion

Mindfulness of breathing is a complete and profound practice leading to insight, serenity, and ultimate freedom. Through diligent practice, one follows in the footsteps of the Buddha, progressing steadily toward enlightenment.

♥ ♥ ♥ ♥

Please click on the following links to read previously published posts Meditate Like The Buddha: A Step-By-Step Guide” 👉

English Literature – Articles ☆ Meditate Like The Buddha # 8: Midway Recap ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

English Literature – Articles ☆ Meditate Like The Buddha # 9: Experience Your Mind ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

English Literature – Articles ☆ Meditate Like The Buddha # 10: Liberate the Mind ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

English Literature – Articles ☆ Meditate Like The Buddha # 12: The End of suffering ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

English Literature – Articles ☆ Meditate Like The Buddha # 13: A Summary of the Steps ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

English Literature – Articles ☆ Meditate Like The Buddha # 14: A Lifetime’s Work ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

© Jagat Singh Bisht

Laughter Yoga Master Trainer

FounderLifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 40 – साहब का हंटर और बाबू की बेबसी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना साहब का हंटर और बाबू की बेबसी)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 40 – साहब का हंटर और बाबू की बेबसी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

जब मिस्टर हरगोबिंद लाल (उर्फ हरि बाबू) को सरकारी दफ्तर में नया अफसर बना कर भेजा गया, तो उनके मन में बड़े-बड़े अरमान थे। उन्होंने बचपन से ही सरकारी सिस्टम के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। यह कि सरकारी दफ्तरों में लोग आलसी होते हैं, यह कि कर्मचारियों को सिर्फ वेतन से मतलब होता है और यह कि अफसरों को सख्ती करनी चाहिए। उन्होंने दफ्तर का कार्यभार सँभालते ही मैकेनिक की तरह मशीन को देखना शुरू किया।

मशीन में बड़े-बड़े मंत्री और वरिष्ठ अधिकारी थे, जो किसी और तर्ज़ पर काम कर रहे थे—अर्थात् अपने फायदे की। कर्मचारी इस मशीन के छोटे-छोटे पुर्जे थे, जिन्हें हरगोबिंद लाल सुधारने का ठान चुके थे। उनका सोचना था कि जब ये छोटे पुर्जे ठीक हो जाएंगे, तो पूरी मशीन सुचारू रूप से चलेगी। लेकिन उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि मशीन में सबसे बड़ी समस्या वे बड़े-बड़े मंत्री और अधिकारी खुद थे।

हरि बाबू के ऑफिस में अधिकतर कर्मचारी बुजुर्ग हो चुके थे। सरकार ने सालों से नई भर्ती नहीं की थी, और पुराने कर्मचारियों की रिटायरमेंट उम्र बढ़ा-बढ़ा कर काम चलाया जा रहा था। ये सभी अपनी कुर्सियों से ऐसे चिपके हुए थे, मानो यह उनकी पुश्तैनी जागीर हो। जब भी कोई सरकारी कार्यक्रम होता, तो मंच के सामने सफेद बाल, नकली दाँत और मोटे चश्मे पहने हुए कर्मचारियों की अच्छी-खासी प्रदर्शनी लग जाती।

हरगोबिंद लाल ने पहला आदेश जारी किया—”काम का समय सुबह 10 बजे से शाम 6 बजे तक रहेगा। कोई देर से नहीं आएगा, और कोई बिना काम किए नहीं जाएगा।”

कर्मचारियों ने उनकी ओर देखा और मुस्कुराए। उन्होंने अफसरों के बदलने की आदत डाल ली थी। कोई अफसर नया-नया आता, गर्मी दिखाता और कुछ ही महीनों में ठंडा पड़ जाता।

हरि बाबू ने जब कर्मचारियों से बातचीत शुरू की, तो उन्हें अलग ही जवाब मिले।

“सर, जब हमने नौकरी जॉइन की थी, तब से यही सुन रहे हैं कि फला योजना बहुत जरूरी है, अला योजना बहुत महत्वपूर्ण है। जब कोई नई फाइल आती है, तो कहा जाता है कि इसे तुरंत निपटाना है। साहब, हमारी हड्डियाँ अब थक चुकी हैं। पहले भी बहुत दौड़ चुके हैं, अब और नहीं दौड़ा जाता।”

हरि बाबू ने गुस्से में कहा, “यह सब बहानेबाजी नहीं चलेगी। इन्क्रीमेंट, डी.ए., प्रमोशन चाहिए, तो काम भी पूरा करना होगा। छुट्टी के दिन भी आना होगा। देर रात तक रुकना होगा। और अगर किसी ने लापरवाही की, तो इज्जत से रिटायर नहीं होने दूँगा।”

बुजुर्ग कर्मचारियों ने एक-दूसरे को देखा और ठंडी आह भरी।

तभी पुराने बाबू रामदयाल ने कहा, “हुजूर, मेरी हालत देखिए। उम्रदराज हो चुका हूँ। खाल पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं, आँखें कमजोर हो चुकी हैं, खुर घिस चुके हैं। बहुत दिन हुए खरैरा नहीं हुआ है। पहले वाले अफसर ने कहा था कि फलाँ मंजिल तक पहुँचना जरूरी है। मैंने जान लगा दी और किसी तरह हाँफते-हाँफते पहुँच भी गया। लेकिन वहाँ पहुँचते ही नया मिशन दे दिया गया। यह सिलसिला चलता ही जा रहा है। अब और नहीं दौड़ा जाता, हुजूर।”

हरि बाबू ने हँसते हुए कहा, “तुम लोगों की आदतें बिगड़ चुकी हैं। अब यह आलसीपन नहीं चलेगा।”

कर्मचारियों ने सिर हिलाया और बेमन से काम में जुट गए।

लेकिन जल्दी ही हरि बाबू को अहसास हुआ कि सरकारी दफ्तर का सिस्टम सच में एक अजीबोगरीब मशीन है। एक दिन उन्होंने एक फाइल तेजी से आगे बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन बाबू मोहनलाल ने बड़ी मासूमियत से कहा, “साहब, यह काम कल हो जाएगा।”

“कल क्यों? आज क्यों नहीं?”

“क्योंकि आज तक कभी कोई फाइल एक ही दिन में आगे नहीं बढ़ी, साहब। ऐसा पहली बार होगा, इसलिए सिस्टम को समय चाहिए।”

हरि बाबू ने माथा पीट लिया।

धीरे-धीरे उन्हें समझ आने लगा कि यह सिस्टम अपने आप में एक अलग ही जीव है। यहाँ लोग दिनभर काम करने का दिखावा करते थे, लेकिन असली काम तब होता था जब कोई मिठाई का डिब्बा लेकर आता था। जब तक जेब गरम नहीं होती, तब तक कोई काम आगे नहीं बढ़ता।

हरि बाबू ने रिश्वतखोरी खत्म करने का संकल्प लिया। लेकिन जल्दी ही उन्हें एहसास हुआ कि यह कार्य लगभग असंभव है। उन्होंने एक बाबू को पकड़कर डाँटा, “तुम फाइल आगे बढ़ाने के लिए पैसे क्यों लेते हो?”

बाबू ने सहजता से जवाब दिया, “साहब, आप अफसर हैं, आपको तनख्वाह के अलावा गाड़ी, बंगला, टी.ए.-डी.ए. सब मिलता है। लेकिन हमें क्या मिलता है? सिर्फ सैलरी, और वो भी इतनी कम कि गुजारा मुश्किल है। इसलिए हमें अपनी ‘इन्क्रीमेंट’ खुद बनानी पड़ती है।”

हरि बाबू के पास कोई जवाब नहीं था।

फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने कर्मचारियों पर सख्ती बरती। इसका असर यह हुआ कि कुछ कर्मचारी डर के मारे काम में लग गए, लेकिन कुछ ने बीमार पड़ने का बहाना बना लिया।

धीरे-धीरे समय बीतता गया। हरि बाबू ने बहुत कुछ सुधारने की कोशिश की, लेकिन जैसे-जैसे दिन गुजरते गए, उनकी ऊर्जा भी कम होने लगी।

एक दिन वे सुबह-सुबह ऑफिस पहुँचे, तो देखा कि पुराना चपरासी शिवराम कुर्सी पर बैठा सुस्ता रहा था।

“शिवराम, तुम अभी तक सेवानिवृत्त नहीं हुए?”

“नहीं, साहब। सरकार हमारी उम्र बढ़ाती जा रही है। अब सुना है कि रिटायरमेंट की उम्र और बढ़ेगी।”

हरि बाबू ने अपना माथा पीट लिया।

उन्होंने आखिरकार समझ लिया कि यह नौकरी नहीं, बल्कि एक जाल है, जिसमें घुसने के बाद आदमी पूरी उम्र फँसा रहता है। यह नौकरी एक ऐसी ठगनी है, जो आदमी की जवानी खा जाती है, उसके बुढ़ापे को भी चैन से जीने नहीं देती।

हरि बाबू ने ठंडी आह भरी और सोचा, “कबीर दास जी सच ही कह गए हैं—

नौकरी महा ठगनी हम जानी,

करें नौकरी, वही पछतानी।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 334 ☆ कविता – “कम हैं वे लोग…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 334 ☆

?  कविता – कम हैं वे लोग…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

आधे लोग परेशान हैं

दुनियां में

अपनी

मानसिक स्थितियो से

डिप्रेशन,

ऑटिज्म,

मूड डिसआर्डर, नर्वसनेस,

एंकजाइटी, सिजोफ्रेनिया,

सोशल एंक्जायाटी

वगैरह वगैरह से।

 

और ढेर सारे लोगों को

पता ही नहीं

कि उनकी मनोदशा ठीक नहीं है।

वे उनकी बातों में परिवेश की बुराई कर

अपनी डींगे हांककर

खुद की मानसिक चिकित्सा

कर लेते हैं चुपचाप ।

 

काश बन सके

वो दुनियां

जहां सब

सुकून से सो पायें सितारों की छांव में और

भोर के सूरज से जी भर

मन की बातें कर सकें

हवा के झोंको का, क्यारी के फूलों से

अन्तर्संवाद सुन समझ

लिख सकें

दो शब्द बेझिझक

प्यार के ।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 605 ⇒ खेत और बागड़ ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खेत और बागड़।)

?अभी अभी # 605 ⇒ खेत और बागड़ ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

खेत अगर फसल है तो बागड़ उसकी हद और सुरक्षा। खेत बिना बागड़ के हो सकते हैं, घर बिना छत और दीवार के नहीं। ईश्वर की इस बेहद सुंदर वसुंधरा का कोई आदि नहीं, कोई अंत नहीं। ना कोई हद, ना कोई छत और ना कोई दरो दीवार। यह पृथ्वी स्वयं अपने आप में स्वर्ग का द्वार है। खुला आसमान ही इसकी छत है और सूरज, चांद सितारे, इसकी आंख के तारे।

हम बच्चे इसके आंगन में घर घर खेलते हैं। हम अपने घर, अपनी छत, अपनी दीवार, अपनी गृहस्थी अलग बना लेते हैं। जमीन को बांट लेते हैं, अपना देश, अपना संविधान और अपना झंडा बना लेते हैं और दुनिया में एकता, प्रेम, शांति और भाईचारे की बातें करते हैं। फिर भी भारत में महाभारत होता है और विश्व में विश्व युद्ध।।

जीवः जीवस्य भोजनं। इंसान जिंदा रहने के लिए कुछ तो खाएगा ही। कुछ खाने के लिए उसे कुछ बोना भी पड़ेगा। वनस्पति और प्राणी दोनों में जीव है, जिनके कारण ही यह सृष्टि सजीव है। यह सब इस पृथ्वी पर मौजूद पांच तत्वों का ही प्रताप है जिसे हम पंच तत्व कहते हैं।

आइए खेत पर चलें ! कृषि हमारा प्रमुख उद्योग रहा है। काम के बदले अनाज ही, कभी हमारी आर्थिक व्यवस्था थी। अनाज से आप कुछ भी खरीद सकते थे। हमने अन्न का अकाल भी देखा है और कृषि की क्रांति भी। आप जवाहर लाल को भले ही भूल जाएं, लाल बहादुर को नहीं भूल सकते। आज किसान के भले के लिए ही कानून बनाए और वापस लिए जा रहे हैं। खेत खामोश है, बागड़ परेशान।।

हमने भी एक खेत बोया है लोकतंत्र का, जहां संविधान के अनुसार ही फसल बोई और काटी जाती है। खेत का मालिक और किसान एक चुनी हुई सरकार होती है और उस खेत की सुरक्षा के लिए उसकी हद और बागड़ की भी संवैधानिक व्यवस्था है, जिसे आप चाहें तो विपक्ष कह सकते हैं।

जब तक खेत और बागड़ में आपसी समझदारी है, तालमेल है, खेत भी सुरक्षित है और फसल भी। बागड़ थोड़ी सूखी और कंटीली जरूर होती है, लेकिन जानवरों से खेत को दूर रखने में मदद करती है। कभी कभी जब बागड़ की नीयत हरी हो जाती है, यह फसल पर ही डोरे डालना शुरू कर देती है और खेत बागड़ एक हो जाते हैं।।

कोई बागड़, कोई दीवार, कोई सुरक्षा लोकतंत्र के इस खेत पर अगर मौजूद नहीं हुई तो फिर इसकी फसल का तो भगवान ही मालिक है। रासायनिक खाद का जहर वैसे ही लोगों की सेहत और खेत की मिट्टी खराब कर रहा है, बागड़ और खेत के बीच कोई नफरत के बीज ना फैलाए। खेत की फसल लोगों तक पहुंचे, किसान को उसका उचित मूल्य मिले, फिर से हो एक ही धरती और एक ही आसमां। कितना सुहाना हो वह समा।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 239 ☆ गीत – रक्षा अपने देश की हम सबको करना है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। अब तक लगभग तेरह दर्जन से अधिक मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग चार दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 239 ☆ 

☆ गीत – रक्षा अपने देश की हम सबको करना है…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

देश के गौरव में सौरभ हमें भरना है।

देश के लिए हमें लड़ते- लड़ते मरना है

शहीदों की स्मृतियों में दीपक जलाइए।।

भाईचारा आप हिंदुस्तान में बढ़ाइए।।

 

छोड़िए कुरीतियां सत्य पंथ अपनाइए।

बीज नफरतों के नहीं मन में उगाइए।

जाति भेद मेंटिए, प्रेम को बढ़ाइए।

राष्ट्र के विकास में योग करवाइए।।

भाईचारा आप हिंदुस्तान में बढ़ाइए।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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