हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ प्रयोगशील लघुकथा से तात्पर्य ऐसी लघुकथा से है… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’  ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा प्रबुद्ध पाठकों से उनकी  प्रयोगशील लघुकथाओं के लिए आमंत्रण ।)

☆ प्रयोगशील लघुकथा से तात्पर्य ऐसी लघुकथा से है… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

प्रयोगशील लघुकथा से तात्पर्य ऐसी लघुकथा से है… 

प्रयोगशील लघुकथा वह है जिसमें लेखक पारंपरिक ढांचे से हटकर कुछ नया करने का प्रयास करता है। यह प्रयोग कथानक, कथ्य, भाषा, शैली या अन्य किसी भी स्तर पर हो सकता है। आइए इसे विभिन्न उदाहरणों से समझते हैं:

  1. कथानक के स्तर पर प्रयोग:

पारंपरिक लघुकथा: एक सीधी-सादी कहानी जो शुरू से अंत तक एक ही क्रम में चलती है।

प्रयोगशील लघुकथा: कथानक को गैर-रैखिक (non-linear) तरीके से प्रस्तुत किया जाए।  इसके अंतर्गत आदरणीय चंद्रेश कुमार छतलानी जी की लघुकथा को रख सकते हैं। उनकी टेबल के बाद लघुकथा एक अलग कथानक तैयार की गई थी। जिसमें पूरी टेबल यानी पहाड़ी की सहायता से लघुकथा को संपूर्ण किया गया था।

  1. कथ्य के स्तर पर प्रयोग:

पारंपरिक लघुकथा: कहानी का संदेश स्पष्ट और सीधा होता है।

प्रयोगशील लघुकथा: कथ्य को अमूर्त (abstract) या प्रतीकात्मक (symbolic) तरीके से प्रस्तुत किया जाए। जैसे, एक लघुकथा जो मानवीय भावनाओं को प्रकृति के माध्यम से दर्शाती है, जहां पेड़-पौधे या जानवर मनुष्य की भावनाओं को व्यक्त करते हैं। इसे काव्य पंक्तियों, गजल अथवा अन्य कथ्य के माध्यम से भी प्रस्तुत किया जा सकता है।

  1. भाषा के स्तर पर प्रयोग:

पारंपरिक लघुकथा: सरल और स्पष्ट भाषा का प्रयोग।

प्रयोगशील लघुकथा: भाषा को अलंकृत, काव्यात्मक या असंगत (absurd) तरीके से प्रयोग किया जाए। जैसे, एक लघुकथा जिसमें शब्दों का अर्थ बदल दिया जाए या शब्दों को उलट-पलट कर प्रस्तुत किया जाए, जिससे पाठक को एक नया अनुभव मिले। मगर इस सब के बावजूद लघुकथा का अपना स्वरूप ना बदले। विपरितार्थी शब्दों को लेकर भी लघुकथा रची जा सकती है। यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप इसमें किस तरह का प्रयोग कर सकते हैं।

  1. शैली के स्तर पर प्रयोग:

पारंपरिक लघुकथा: सीधी-सादी शैली में लघुकथाएं कही जाती हैं।

प्रयोगशील लघुकथा: शैली में नवीनता लाई जाए। जैसे, एक लघुकथा जो पत्रों, डायरी के अंशों, या संवादों के माध्यम से लिखी गई हो। या फिर एक लघुकथा जो कविता और गद्य के मिश्रण से बनी हो। लघुकथा भले ही संवाद शैली में हो, मगर उसे चित्र प्रस्तुति के आधार पर प्रस्तुत किया जा सकता है। अथवा आप शैली के रूप में नया प्रयोग भी कर सकते हैं।

उदाहरण:

कथानक के स्तर पर प्रयोग:

एक लघुकथा जो अंत से शुरू होती है:

उदाहरण:

“रमेश ने आखिरी सांस ली। उसकी आंखों के सामने पूरा जीवन फिर से घूम गया। बचपन की वो गलियां, पहली नौकरी, पत्नी से पहली मुलाकात… और फिर वो दिन जब उसने अपने बेटे को खो दिया।”

भाषा के स्तर पर प्रयोग:

एक लघुकथा जिसमें शब्दों का अर्थ बदल दिया गया हो:

“आकाश नीला था, पर नीला क्या था? क्या रंग होता है नीला? क्या यह वही है जो हम देखते हैं या वह जो हम महसूस करते हैं? नीला एक भावना थी, एक सपना, एक सच्चाई जो हवा में तैर रही थी।”

शैली के स्तर पर प्रयोग:

एक लघुकथा जो पत्रों के माध्यम से लिखी गई हो:

“प्रिय मित्र,

आज मैंने एक ऐसा सपना देखा जो सच्चाई से भी ज्यादा सच लगा। तुम्हें याद है वो पुराना घर? वहां की दीवारें अब भी मुझसे बातें करती हैं…”

इस प्रकार, प्रयोगशील लघुकथा पारंपरिक ढांचे को तोड़कर नए विचारों और अभिव्यक्तियों को जन्म देती है, जिससे पाठक को एक नया और रोचक अनुभव मिलता है।

तब यह प्रश्न उठ सकता है कि हम लघुकथा में इस तरह का प्रयोग किस तरह कर सकते हैं? क्या उसे किसी और उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है?

तब हमारा उत्तर होगा कि जी हां, प्रयोगशील लघुकथाओं को नए और रचनात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है और उसे उदाहरण द्वारा भी समझा जा सकता है। यहां कुछ ऐसे उदाहरण दिए गए हैं, जो विभिन्न स्तरों पर प्रयोग को दर्शाते हैं:

  1. कथानक के स्तर पर प्रयोग:

उदाहरण:

“वह दिन जब समय ने अपनी दिशा बदल ली। सुबह का सूरज पश्चिम में उगा और शाम को पूर्व में डूब गया। लोगों ने देखा कि उनके बचपन की यादें अचानक भविष्य में चली गईं, और भविष्य के सपने अतीत में खो गए। एक बूढ़ा आदमी जवान होने लगा, और एक बच्चे की आंखों में बुढ़ापे की झुर्रियां दिखाई देने लगीं। समय ने सब कुछ उलट दिया, पर किसी को पता नहीं चला कि यह सब क्यों हुआ।”

प्रयोग:

यहां कथानक में समय के साथ प्रयोग किया गया है। समय की दिशा उलट दी गई है, जो पाठक को एक नया और अलग अनुभव देता है।

  1. कथ्य के स्तर पर प्रयोग:

उदाहरण:

“एक पेड़ ने फैसला किया कि वह अब जड़ें नहीं बढ़ाएगा। उसने अपनी जड़ें जमीन से बाहर निकाल लीं और चलने लगा। लोग हैरान थे, पर पेड़ ने कहा, ‘मैं भी तुम्हारी तरह आजाद होना चाहता हूं।’ धीरे-धीरे उसकी पत्तियां झड़ने लगीं, और एक दिन वह सूखकर गिर गया। उसकी जगह एक नन्हा पौधा उग आया, जिसने फैसला किया कि वह कभी जड़ें नहीं छोड़ेगा।”

प्रयोग:

यहां कथ्य को प्रतीकात्मक तरीके से प्रस्तुत किया गया है। पेड़ की आजादी की चाहत और उसके परिणाम को मानवीय भावनाओं से जोड़कर दिखाया गया है।

  1. भाषा के स्तर पर प्रयोग:

उदाहरण:

“शब्दों ने विद्रोह कर दिया। वे वाक्यों से निकलकर अलग हो गए और हवा में तैरने लगे। ‘प्यार’ शब्द ने कहा, ‘मैं अब किसी वाक्य का हिस्सा नहीं बनूंगा।’ ‘दर्द’ शब्द ने कहा, ‘मैं अब किसी के साथ नहीं जुड़ूंगा।’ शब्दों ने अपनी आजादी का जश्न मनाया, पर जल्द ही वे अकेले हो गए। उन्हें एहसास हुआ कि उनका अर्थ तभी है जब वे एक दूसरे से जुड़े हों।”

प्रयोग:

यहां भाषा के साथ प्रयोग किया गया है। शब्दों को मानवीय गुण दिए गए हैं, और उनकी आजादी की चाहत को एक नए ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

  1. शैली के स्तर पर प्रयोग:

उदाहरण:

“डायरी के पन्ने:

दिन 1: आज मैंने एक तितली देखी। वह मेरे हाथ पर बैठ गई। मैंने सोचा, क्या वह मेरी आत्मा है?

दिन 2: तितली उड़ गई, पर मैंने महसूस किया कि मेरा दिल भी उसके साथ उड़ गया।

दिन 3: आज मैंने देखा कि मेरी छाया भी मुझे छोड़कर चली गई। शायद वह भी तितली बन गई।

दिन 4: अब मैं खुद एक तितली हूं। मेरे पंख हैं, पर उड़ने का साहस नहीं।”

प्रयोग:

यहां शैली में प्रयोग किया गया है। कहानी को डायरी के पन्नों के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिससे पाठक को एक अलग अनुभव मिलता है।

  1. संवाद के स्तर पर प्रयोग:

उदाहरण:

“दो पहाड़ों के बीच बातचीत:

पहाड़ 1: ‘तुम्हें लगता है हम हमेशा यहीं खड़े रहेंगे?’

पहाड़ 2: ‘हां, यही हमारी नियति है।’

पहाड़ 1: ‘पर मैं चलना चाहता हूं। समुद्र तक जाना चाहता हूं।’

पहाड़ 2: ‘तुम्हारे पैर कहां हैं?’

पहाड़ 1: ‘शायद मेरे सपनों में।’

पहाड़ 2: ‘तो फिर सपनों में चलो।’

और फिर पहाड़ 1 ने सपनों में चलना शुरू कर दिया।”

प्रयोग:

यहां संवाद के माध्यम से एक गहरी बात कही गई है। पहाड़ों को बोलते हुए दिखाकर एक नया प्रयोग किया गया है।

  1. अमूर्तता के स्तर पर प्रयोग:

उदाहरण:

“एक रंग जो बोलता था। वह नीला था, पर उसकी आवाज लाल थी। जब वह बोलता, तो हवा में हरा रंग छा जाता। लोग उसे समझ नहीं पाते थे, पर वह बोलता रहा। एक दिन उसने कहा, ‘मैं वह हूं जो तुम देख नहीं सकते, पर महसूस कर सकते हो।’ और फिर वह गायब हो गया।”

प्रयोग:

यहां अमूर्तता के साथ प्रयोग किया गया है। रंगों को भावनाओं और ध्वनियों से जोड़कर एक नया आयाम दिया गया है।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि प्रयोगशील लघुकथा में कथानक, कथ्य, भाषा, शैली, संवाद, या अमूर्तता के स्तर पर नए और रचनात्मक प्रयोग किए जा सकते हैं। यह पाठक को एक नया अनुभव देती है और साहित्य को समृद्ध बनाती है।

फिर देर किस बात की — इस तरह के प्रयोग करने के बाद अपनी दो प्रयोगशील लघुकथाएं और उस विचार प्रक्रिया को, जिसकी वजह से लघुकथा ने जन्म लिया है, उसे अपने शब्दों में लिख कर और अपने भावों की अभिव्यक्ति सहित हमें इस ईमेल पर भेज दीजिए।

Email – [email protected]

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माणूसपण… ☆ श्री सुजित कदम  ☆

श्री सुजित कदम

 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ माणूसपण… ☆ 

☆ 

परवा ह्या झाडाखाली बसलो

तेव्हा खूप छान वाटलं

आज त्याचे हाल पाहून

टचकन डोळ्यात पाणी दाटलं..!

 

म्हटलं विचारावं झाडाला

नक्की झालं तरी काय?

कोणत्या नराधमाने

त्याचे तोडले हात पाय

 

मी म्हटलं… ऐकना रे झाडा

तुझ्याशी थोडं बोलायचंय

तुझ्या मनातलं आज मला

सारं काही ऐकायचंय..!

 

सुरवातीला झाड …

काही एक बोललं नाही;

आणि नंतर कितीतरी वेळ

त्याचं रडणं काही थांबलं नाही..!

 

मी म्हटलं झाडा असं

रडू नको थांब

काय झालं एकदा

मला तरी सांग

 

काय सांगू मित्रा तुला

झालं काल काय ..?

कुणीतरी येऊन माझे

तोडू लागलं पाय..!

 

पायाबरोबर जेव्हा माझे

हात सुध्दा तोडू लागले

तेव्हा मात्र माझ्या मनातले

माणूसपण पुसू लागले..!

 

मी जोर जोरात

ओरडत होतो

पण ऐकलं नाही कुणी

आणि तेव्हा कळलं देवानं

आपल्याला दिली नाही वाणी.

 

काय चूक झाली माझी

मला सुद्धा कळलं नाही

इतकी वर्षे सावली दिली

ती कुणालाच कशी दिसली नाही..?

 

कुणीतरी म्हटलं तितक्यात

उद्या येऊन झाडाचे बारीक तुकडे करा..!

बारीक बारीक तुकडे नंतर

गाडीमध्ये भरा…!

 

अरे सावली देणारे हातांचे

असं कुणी तुकडे तुकडे करतं का..?

तूच सांग मित्रा माणसांचं

हे वागणं तुला तरी पटतं का..?

 

माझे हाल झाले त्याचं..

मला काहीच वाटत नाही

पण..आज परतून येणा-या पाखरांना

त्याचं घर मात्र दिसणार नाही

 

मित्रा…

झाडांमध्ये ही जीव असतो

हे माणसांना आता कळायला हवं

आणि आमचा आवाज ऐकू येईल

इतकं माणूसपण तरी टिकायला हवं..!

© श्री सुजित कदम

मो.7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ऋणानुबंध… ☆ प्रा. सौ. सुमती पवार ☆

प्रा. सौ. सुमती पवार

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ऋणानुबंध… ☆ प्रा. सौ. सुमती पवार ☆

प्रथम ऋण ते परमेशाचे जन्म देतो तोच आम्हा

उठल्यावरती म्हणत चला हो, रामा रामा हरे रामा

उपकृत करते वसुंधरा हो ऋण किती ते मोजा ना

गणना करता सरेल आयु ध्यानी मनी हो तुम्ही घ्याना…

*

चंद्र सूर्य हे रोज उगवती करून पहाना सेवा अशी

हात जोडूनी उभा ठाकतो सहस्त्ररश्मी दाराशी

मातपिता ते कसे मी वर्णू अनंत त्यांचे ऋण शिरी

रक्षणकरण्या पाठवतो तो परमदयाळू श्रीहरी..

*

वसुंधरेची बाळे सारी वृक्ष नि वेली उद्याने

किती फुलवली वसुंधरा ती अमाप त्या सौंदर्याने

पिकपाणी नि धनधान्ये ती खनिजे पाणी रत्ने ही

किती ते देणे वसुंधरेचे अफाट पडतो पाऊस ही…

*

राती चांदणे फुलते कसे हो कुंभ सांडती धरेवरी

रजतपटी तो खेळ खेळतो खड्या चांदणी श्रीहरी

नक्षत्रे ती किती मनोहर  नयनपारणे फिटते हो

झुंबर चंद्राचे ते पाहून मनच हरखून जाते हो…

*

वारे वाहती नद्या हासती प्रपात कोसळती मोदे

आम्ही देतो इतके म्हणूनी कधीच केले ना सौदे

अफाट आहे ऋण धरतीचे नारायण तो कृष्णाचे

म्हणून म्हणते व्हा उतराई मुखी नाम राहो त्यांचे…

© प्रा.सौ.सुमती पवार 

 नाशिक

मो. ९७६३६०५६४२; ईमेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ४३ ☆श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ४३ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- लिलाताईच्या आई सहज बोलण्याच्या ओघात बराच वेळ लिलाताईच्या वाचासिद्धीच्या

अनुभवांबद्दलच सांगत होत्या. ते सगळं आरतीला अचंबित आणि मला निश्चिंत करणारच होतं! सगळं ऐकता ऐकता माझ्या नजरेसमोर लिलाताईच्या पत्रातला शब्द न् शब्द तरळत होता. तो प्रत्येक शब्द खरा होणाराय हा माझ्या मनातला विश्वास आरतीपर्यंत कसा पोचवायचा हा प्रश्न मात्र अनुत्तरीतच राहिला होता!)

तिथून बाहेर पडल्यावर पुत्रवियोगाच्या दुःखातून आरतीला सावरायची हीच योग्य वेळ आहे असंच मला वाटत राहिलं. ती मात्र गप्प गप्पच होती.

“लीलाताईच्या आईना भेटायला आलो ते बरं झालं ना?” मी विषयाला हात घातला. तिने होकारार्थी मान हलवली. मला तेवढं पुरेसं होतं.

“तुला.. एक सांगायचं होतं.. “

“कशाबद्दल?”

“हेच. समीरबद्दल. “

“त्याचं काय.. ?”

“.. जे तुला माहित नाहीय असं.. बरंच कांही… “

“म्हणजे?”तिने आश्चर्याने विचारले.

“म्हणजे जे मी फक्त तुलाच नव्हे तर कुणालाच सांगितलेलं नाहीय असं.. “

तेवढ्यांत समोरून रिक्षा येताना दिसताच मी रिक्षा थांबवली. एकतर रस्त्यात सगळं सांगणं शक्य नव्हतं न् योग्यही. जे सांगायचं ते मनात जिवंत होऊन मलाच अस्वस्थ करत राहिलं होतं.

डाॅ. जोशींकडून त्यांच्या मनाविरुद्ध डिस्चार्ज घेऊन बाहेर पडल्यानंतर जवळजवळ महिनाभर समीर डाॅ. देवधरांच्या निगराणीखाली होता तेव्हाची गोष्ट. त्यांच्या ट्रीटमेंटमुळे कणाकणानं कां होईना समीर सुधारु लागला होता. तरीही तेव्हाचे त्याचे हाल आणि अवस्था सातत्याने सुरु असलेल्या ऍलोपॅथी औषधांच्या अपरिहार्यतेमुळे अतिशय नाजूक आणि केविलवाणी होत चालली होती. त्या दरम्यानचा एक अतिशय करूण प्रसंग आठवला तरी अजूनसुध्दा अंगावर सरसरून काटा येतो.. !

डाॅ. देवधरांकडे ट्रिटमेंट सुरु झाली तेव्हा सुरुवातीला समीरला सलाईन लावल्यावर ‘थेंबभर पाणीही त्याच्या पोटात घालू नका’ असं नर्सने बजावून सांगितलं होतं. मी तिथे गेलो तेव्हा आरतीने मला अजिबात आवाज न करण्याची खूण केली.

“का?” मी हलक्या आवाजात विचारलं.

“खूप रडत होता. सलाईन

लावल्यामुळे त्याचा हातही दुखत असेल. सकाळपासून थेंबभरही पाणी पोटात नाहीये. त्यामुळे तहानही लागली असेल. बघा ना हो किती सुकून गेलाय.. ” आवाज भरून आला तशी ती बोलायची थांबली. ते ऐकणंही मला वेदनादायी वाटत होतं. समीरच्या चेहऱ्यावरचं थिजून गेलेलं दुःख आणि केविलवाणेपण मला त्रास देऊ लागलं. तिथेच मागे टेबलवर भरून ठेवलेल्या तांब्याभांड्याकडे सहजच माझं लक्ष गेलं आणि तहानेने कधीपासून आपल्या घशाला कोरड पडलीय हे मला प्रथमच जाणवलं. मी उठलो. ते तांब्याभांडं अलगद उचललं. तांब्यातलं पाणी भांड्यात ओतत असताना त्या बारीकशा धारेच्या आवाजानेच जणू संकेत दिल्यासारखे समीरने इवलेसे डोळे उघडून त्या आवाजात लपून राहिलेल्या तृप्तीच्या हव्यासानेच जणू आपली व्याकुळ नजर त्या दिशेला वळवली. त्या नजरेचा त्या पाण्याच्या धारेला स्पर्श झाला मात्र.. तळपत्या उन्हातल्या तहानलेल्या कुत्र्यासारखी त्याची जीभ आत बाहेर लवलव करु लागली. तहानेने व्याकुळ झालेल्या माझ्या बाळाला मी

थेंबभर पाणीही देऊ शकत नसताना भांड्यातलं ते पाणी माझ्या घशाखाली उतरणं शक्य तरी होतं का? समीरची अगतिक अवस्था पाहून मी तहान विसरलो. भांड्यातलं पाणी न पिताच तसंच तांब्यात ओतून ते तांब्याभांडं कोरडेपणानं बाजूला सारलं. पाणी दृष्टीआड होताच बाळाच्या जिभेची लवलव मार खाल्ल्यासारखी थांबली, पण ती कासावीस करणारी तहान मात्र त्याच्या केविलवाण्या नजरेतून झिरपतच होती.. !

“बोला ना.. गप्प कां असे? काय सांगत होतात?”

घरी येताच आरतीने विचारले.

“हो.. सांगतो. पण तू शांतपणे ऐकून घेणार असशील, तेच मनात ठेवून त्रास करून घेणार नसशील तरच सांगतो.. ” मी बोललो आणि पाय धुवायला आत निघून गेलो.

मला सांगणं टाळायचं तर नव्हतं आणि सांगताही येत नव्हतं. डॉक्टरांच्या औषधोपचारांनी समीरची तब्येत थोडीफार सुधारु लागली होती. त्याचं किरकिरणं, रडणं बऱ्याच प्रमाणात कमी होत चाललं होतं. अधूनमधून घोटभर पाणी, अंदाज घेत दिलेलं दोन-तीन चमचे दूध हळूहळू पचू लागलं होतं. डॉक्टरांच्या अथक प्रयत्नांना आणि समीरबाळाच्या सहनशक्तीला यश मिळणार अशी परिस्थिती निर्माण झाली आणि आमच्या मनावरचं भीतीचं सावट विरु लागलं. त्याला सलग शांत झोप लागू लागली तसं मी जमेल तसं दोन-तीन तास बँकेत जाऊन साचत राहिलेली महत्त्वाची कामे हातावेगळी करू लागलो. आरती न् मी जवळजवळ दोन महिने अक्षरशः जागून काढले होते. घरी माझी आई, लहान भाऊ, सासूसासरे सर्वजण मदतीला होतेच. तेही आता आलटून पालटून दवाखान्यात येऊन आम्हाला थोडावेळ रिलिव्ह करु लागले.

पण… हे सकारात्मक बदल, हा दिलासा हे सगळं एक चकवाच होतं याचा प्रत्यय पुढं चार-सहा दिवसातच आम्हाला आला आणि तोही अतिशय धक्कादायक पध्दतीनं! तो आजारी पडला तेव्हापासूनचे हे दोन अडीच महिने तेव्हाचे माझे ब्रॅंच मॅनेजर श्री. घोरपडेसाहेब यांनी मला अतिशय मोलाचा असा भावनिक आधार दिला होता. आता त्यांचं कामाचं ओझं कमी करणं हे माझं कर्तव्य होतं. त्यामुळेच समीरची तब्येत थोडी सुधारु लागल्यानंतर मी बँकेत हजर झालो. एक-दोन दिवस निर्विघ्नपणे गेले. तो शनिवार होता. रविवारी आमच्या पुण्यातल्या रीजनल ऑफिसमधे ब्रॅंच मॅनेजर्स मीटिंग होती. त्यासाठी घोरपडे साहेबांना संध्याकाळी उशिरा बसून मीटिंगची तयारी करण्यासाठी मी मदत करत होतो. मिटींगला जाताना एक महत्त्वाचं लोन प्रपोजल त्यांना तयार करुन अॅप्रूव्हलसाठी न्यायचं होतं. ते तयार करत आम्ही त्यांच्या केबिनमधे बसलो होतो. टायपिस्ट घरी गेल्यामुळे आता हे प्रपोजल स्वतःच लिहिणे आवश्यक होते. घोरपडे साहेबांचा हात लिहिताना थरथरत असे. त्यामुळे मला ते डिक्टेट करीत आणि मी ते लिहित होतो. ते पावसाळ्याचे दिवस होते. सगळं काम आवरत आलं. खूप अंधारून आलंय हे लक्षात आलं ते केबिनच्या खिडकीबाहेर उभं राहून धुवांधार पावसात कशीबशी छत्री सावरत उभ्या माझ्या आईने आणि लहान भावाने मला हाक मारली तेव्हा!

“बाळ खूप सिरीयस आहे. डॉक्टरनी तुला लगेच बोलवलंय. ” आई सांगत होती.

“आम्ही रिक्षानेच आलोय. रिक्षा थांबवलीय.. चल लगेच ” भाऊ म्हणाला. मी मनातून थोडा हबकलो. समीरच्या काळजीने व्याकुळ झालो. पण नेमक्या त्या क्षणीचं माझं घोरपडे साहेबांच्या संदर्भातलं माझं कर्तव्य मी विसरूही शकत नव्हतो.

” हो.. मी.. मी आलोच. लग्गेच निघतो. पण तुम्ही थांबू नका. त्या रिक्षानं तुम्ही पुढं व्हा. मागोमाग मीही पोचतोच.. “

आई आणि भाऊ क्षणभर घुटमळले.

“आरती तिथं एकटी असेल.. खरंच निघा तुम्ही.. मी आलोच.. “

ते घाईघाईने निघाले. लोन प्रपोजलमधली शेवटची ओळ मी पूर्ण करू लागलो.

“एs.. वेडा आहेस का तू? काय करतोयस हे ? जा.. ऊठ मुकाट्यानं.. थांबव त्यांना.. नीघ तूही.. ” घोरपडे साहेब ओरडले. माझ्या हातातलं पेन काढून घ्यायला त्यांनी हात पुढं केला. मी अजिजीनं त्यांच्याकडं पाहिलं.

“साहेब, मी हे रिकमंडेशनचं शेवटचं एक वाक्य राहिलंय फक्त ते पूर्ण करतो न् निघतोच लगेच. तुम्हाला सलग लिहिता येणार नाही. अक्षरात फरक पडू नये म्हणून. झालंच. “

मी माझी सही करून प्रस्ताव त्यांच्यापुढे सरकवला आणि ताडकन् उठलो. तो स्वतःच्या ब्रिफकेसमधे ठेवून घोरपडे साहेबही घाईघाईने उठलेच.

” एक.. एक मिनिट. मीही आलोच. पाऊस थांबलाय तोवर मी तुला बाईकवरून हॉस्पिटलमधे सोडतो न् मग घरी जातो ” ते म्हणाले.

मी घड्याळ्याकडे पाहिलं.

“नाही सर. तुमचं जेवण व्हायचंय अजून. ट्रेन चुकेल. मी जाईन रिक्षानं. खरंच. “

बोलता बोलता मी ब्रॅंचचं ग्रील ओढून कुलूप लावलं. तोवर घोरपडेसाहेबांनी त्यांची बाईक गेटच्या बाहेर काढलीही होती.

“बैस लवकर.. “

हॉस्पिटल येताच मी पटकन् उतरून निघालो तोवर बाईक लॉक करून तेही माझ्या मागून येत होते.

” मी जाईन. तुम्ही नका येऊ… खरंच. “

“हो.. मी थांबणार नाहीय.. पण डॉक्टरांना भेटतो न् निघतो लगेच.. “

आम्ही आत गेलो तेव्हा आरती, माझी आई आणि भाऊ केबिनच्या बाहेर खुर्च्यांवर बसले होते. तिघांचेही डोळे भरून वहात होते. मी आरतीजवळ गेलो..

“काय झालंय.. ?कसा आहे समीर.. ?”

तिला हुंदकाच आला.

“तो सिरियस आहे.. डाॅक्टर तुझीच वाट बघतायत. जा लगेच.. बोल त्यांच्याशी… “आई म्हणाली.

आत माझ्यापुढे काय वाढून ठेवलं असेल या आशंकेनेच मी कसंबसं स्वत:ला सावरत डाॅक्टरांच्या केबिनकडे धाव घेतली…!!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ माझा मित्र… ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

सौ. वृंदा गंभीर

? जीवनरंग ?

☆ माझा मित्र…  ☆ सौ. वृंदा गंभीर

” माझा मित्र आणि मी एकाच दिवशी जन्मलो, बारसं एकत्र झालं, एकत्र वाढलो बरोबर शिकलो.

” जय, विजय, नावं ठेवली. आमच्या दोघांच्या आई मैत्रिणी त्यामुळे सगळं सारखं मिळत गेलं.

” दोघांचे पप्पा पोलीस अधिकारी. बदल्या होत होत्या सारख्या म्हणून आम्हाला एकत्र फ्लॅट घेऊन ठेवलं आणि नोकर ठेवले आमचं बघायला. ”

” जय अतिशय हुशार त्याच्या मनाने मी थोडा कमी पण त्याने कधी तसं दाखवलं नाही मला बरोबरीने आणण्याचा प्रयत्न केला.

” बारावी झाली दोघांनी डॉक्टर होण्याचा निर्णय घेतला, आणि M. B. B. S. साठी नंबर नागपूरला लागला…..

“कॉलेज सुरु झालं अभ्यास वाढत होता दोघेही मन लावून अभ्यास करत होतो आणि प्रगती तशीच होती….

एका मागून एक वर्ष संपले आम्ही डॉक्टर झालो, पुढे शिकण्यासाठी परदेशी गेलो निरोलॉजिष्ट मेंदूविकार तज्ञ म्हणून भारतात आलो……

” पप्पांची गाडी यायला उशीर होता म्हणून आम्ही विमानतळावर वाट बघत बसलो……

” लांब एक गरीब मुलगी उभी होती, तिला बघून वाईट वाटलं मी तिच्याकडे बघत होतो तेवढ्यात ती खाली पडली….. मी पळालो तिला पाणी देऊन शुद्धीत आणलं जवळच हॉस्पिटल बघून तिला तिथे घेऊन गेलो.

” तीच चेकप झालं तिच्या मेंदूत गाठी होत्या, ती म्हणाली डॉक्टर मला जाऊद्या मी गरीब आहे आई वडील मोलमजुरी करून पोट भरतात आम्ही पैसे नाही देऊ शकत..

” विजय म्हणाला आपण उपचार करू हिच्यावर, उपचार सुरु झाले तिच्या घरी कळवलं ती गावाकडून काम शोधायला शहरात आली होती.

“आई वडील घाबरले काय झालं मुलीला म्हणून रडायला लागले. मी त्यांना सांगितलं घाबरू नका ती ठीक होईल…..

” रूपा तीच नावं नावासारखीच रुपवान आणि गुणी मुलगी, , , , ,

रूपा हळू हळू बरी झाली, आम्ही तिला ऍडमिट करून घरी गेलो मोठ्या उत्साहात स्वागत झालं, का वेळ लागला म्हणून विचारलं घरी सगळी हकीकत सांगितली आणि घरचे खुश झाले.

” रूपा घरी जाणार त्या दिवशी तिचे आई वडील पाया पडायला लागले.

” मी म्हणालो काका पाया पडू नका मी माझं कर्तव्य केलं मी स्वतःला समाजसेवेसाठी वाहून घेणार आहे तुम्हाला काही गरज पडली तर येत जा…..

” काका म्हणाले डॉक्टर साहेब आम्ही खेड्यातले लोक आमच्या गावात आसपास डॉक्टर नाही आम्ही झाडापाल्यावर औषधं करतो, , , , , मला ऐकून वाईट वाटलं.

मी मनात ठरवलं एकदा त्यांच्या गावी जायचं मी जय ला बोललो आणि जय म्हणाला आपण आत्ताच जाऊ त्यांना आपल्या गाडीत घेऊन जाऊ तो हो म्हणाला आणि आम्ही निघालो.

” रूपाच गावं आलं, गावं निसररम्य होतं स्वच्छ हवा होती पण सोय काहीच नव्हती.

“गावं बघितलं त्यांना सोडून आम्ही घरी आलो पप्पा म्हणाले आमचं बोलणं झालं तुम्हाला दोघांना हॉस्पिटल टाकून द्यायचं, जागा बघून ठवली आहे तुम्ही बघून घ्या कामाला सुरवात करू.

” माझं मन लागत नव्हतं मी विचार करून सांगतो म्हणालो जय आणि मी बाहेर निघून गेलो.

” आम्ही दोघांनी ठरवलं रूपा च्या गावी सेवा द्यायची आणि ग्रामीण भागाचा विकास करायचा.

“घरी आलो पप्पांना निर्णय सांगितला त्यांना तो आवडला परवां गी दिली.

” आम्ही गावी आलो दवाखाना चालू केला लोकांना आधार वाटला….

” हॉस्पिटल चं काम चालू केलं जवळ पास च्या गावातील लोक उपचारासाठी येऊ लागले.

सगळ्यांनी श्रमदान करून हॉस्पिटल उभारलं गावाला नवीन ओळख मिळाली.

” रूपा हुशार होती म्हणून हॉस्पिटल मध्ये नोकरी दिली तसच नर्सिंग शिक्षण चालू केलं……

तिचे बाबा माळी म्हणून काम बघू लागले तर आई स्वयंपाक करत होती.

” गावाचे दिवस पालटले तसे रूपाच्या कुटुंबाचे दिवस पालटले.

” आमच्या मैत्रिणी गावं बघायला आल्या आणि गावाच्या आणि आमच्या प्रेमात पडल्या तिथे राहिल्या 

आता सगळ्यांच्या साथीने शहरातील रुग्ण तिथे येत होते आणि आम्ही सेवा देत होतो.

” आमचं लग्न झालं दोघांचा सुखी संसार सुरु झाला. गावाच्या मोकळ्या हवेत सुंदर आयुष्य जगत होतो.

एक दिवस निवांत बसल्यावर जय म्हणाला आपला निर्णय योग्य ठरला….

गावचं सुख बघून मन भरून येत होतं.

आणि गावातील लोक आदर सन्मान देत होते जो शहरात कधीच मिळाला नसता.

आज गांधीजींचे वाक्य आठवते – – – 

“चला पुन्हा खेड्याकडे “

© सौ. वृंदा पंकज गंभीर (दत्तकन्या)

न-हे, पुणे. – मो न. 8799843148

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “प्रयागराज येथील महाकुंभ.. एक अनुभव…” – लेखिका : सुश्री रविबाला काकतकर   ☆ प्रस्तुती – डाॅ.भारती माटे  ☆

डाॅ.भारती माटे

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☆ “प्रयागराज येथील महाकुंभ.. एक अनुभव…” – लेखिका : सुश्री रविबाला काकतकर   ☆ प्रस्तुती – डाॅ.भारती माटे 

आत्ता नुकतेच महाकुंभला जाता आले. तीन रात्री आणि चार दिवस असे वास्तव्य होते. उत्तर प्रदेश सरकारच्या ‘आगमन’ ह्या टेन्ट सिटी मध्ये बुकिंग केले होते.

दुर्दैवानी माझी मैत्रीण आणि मी असे जाणार होतो. पण ऐनवेळी काही कारणांनी तिचे येणे cancel झाले. त्यामुळे एकटीने जाण्याचे धैर्य केले.

माझ्या जावयानी बुकिंग केले, त्या एजन्टनी दिलासा दिलान की “खूप सुरक्षित आहे तुम्ही जा. मी गाईडची व्यवस्थाही केली आहे. “

पुणे दिल्ली प्रयागराज असा विमान प्रवास करून तारीख 15 जानेवारीच्या रात्री टेन्ट सिटी ला पोहोचले. Reception मध्ये गळ्यात एक सिल्कीश स्कार्फ घालून स्वागत झाले. अतिशय उत्कृष्ट असा डिलिक्स टेन्ट आणि त्यालाच लागून असलेले स्वतंत्र न्हाणीघर अशी व्यवस्था

होती. मुख्य आखाडे, नदी, त्रिवेणी संगम सर्वांपासून हे हॉटेल किमान दोन किलोमीटर इतक्या दूर वर आहे. हॉटेलचा एकूणच परिसर खूप मोठा होता. त्यामुळे सर्वदूर जायला गोल्फ कार्ट्स होत्या. जेवणघर, स्वागतकक्ष आणि शेकडो टेन्ट्स.

बरेच परदेशी लोकही होते. मोठमोठ्या गाड्या भरून पाहुणे येतच होते.

मुख्य प्रश्न होता दुसरी कोणतीच सार्वजनिक वाहतूक व्यवस्था नसताना मी दुसऱ्या दिवशी गावात कशी जाणार? कारण गाडीचे भाडे दर दिवसाला 7. 8 हजार, गाईडचे भाडे 6 हजार एका दिवसाला. मी तीन रात्री चार दिवसांचे बुकिंग केले होते. मग गाईड असला तरी जाणे परवडणारेच नव्हते.

गाईडशी दुसऱ्या दिवशी सकाळी बोलल्यावर कळले ते वेगळेच. विद्यार्थ्यांची एक टीम यात्रेकारुंना सर्व दाखविण्यासाठी प्रशिक्षित केली आहे. पण त्याच्या पैकी कोणाला टेन्ट सिटी च्या आत प्रवेश नव्हता.. त्यामुळे बाहेर उभे राहून त्यातले तीनजण माझ्याशी बोलत होते. हॉटेलच्या स्टाफ पैकी एका मुलीने माझे गाईडसाठी पुण्याहून येण्यापूर्वी पैसे घेतले होतेन. तिनी आश्वस्त केल्यावर त्यांनी एक सुझाव मांडला की मी एकटी आहे आणि जर मला चालणार असेल तर ह्या मुलाच्या मोटर सायकलवर मागे बसून तो मला हा सर्व परिसर, देवळे, संगम इत्यादी दाखवेल. मी तयार झाले. कारण दुसरा काही पर्याय नव्हता. पण ह्या मुलानी तिनही दिवस माझी खूप काळजी घेतलीन. मला सर्व वेळ माझे वय पाहून मला दादीदादी म्हणत फिरवून आणले! 😄

ह्याच हॉटेलच्या मागे गंगेचा एक प्रवाह येत होता. तिथे ह्या टेन्ट सिटी च्या लोकांसाठी स्नानाची व्यवस्था होती.

सकाळपासून आणि रात्री तर खूपच थंडी होती.

त्यामुळे पाण्यात जाण्याचे धाडस होत नव्हते.

आंघोळीला पाणी नळाला गंगेचेच येत होते मग वेगळे थंडीत जाऊन पाण्यात स्नान करण्याचे धाडस होतं नव्हते. 😄 पण अखेर शेवटच्या दिवशी गार आणि स्वच्छ पाण्यात नाक दाबून डुबी घेतल्या तेव्हा जाणवले की, हा अनुभव आधीच हे का घेतला नाही 🙆‍♂️ इतके छान वाटत होते.

कुंभ मधील शाही स्नानाचे दिवस सोडले तर गर्दी खूपच कमी होती सर्वच रस्त्यांवर. आणि 

तिथल्या हॉटेल्सचे रेट्स अश्यावेळी निम्मे होतात.

पहिल्या दिवशी गंगा, यमुना आणि गुप्त सरस्वती ह्याच्या संगमाला भेट दिली.

वेणी माधव हे प्रसिध्द विष्णू – लक्ष्मी मंदिर, वासुकी नागाचे मंदीर ह्यांना भेट दिली.

झोपलेल्या हनुमानाच्या मंदिराला काही वर्षांपूर्वी भेट दिली असल्यामुळे गर्दीत गेले नाही.

त्या आधी विविध आखाड्यांना भेट दिली. जुना आखाडा येथे नागा साधू. एकानी डोक्यावर काही किलोंचे ओझे रात्रंदिवस बाळगणारा साधू, तर एकानी, त्याचा दावा हात, सतत आकाशात उंच ठेवण्याचे

आव्हान पेललेले दिसले.

तो फक्त फळांहारावर जगतो आहे.

पुढे त्यांना नेमून दिलेल्या जागांवर धुनी इतवून येणाऱ्या भक्तांना प्रसादाची राख कपाळाला लावत होते.

त्यानंतर किन्नरांच्या आखाड्याला भेट दिली.

अनेक साधू त्यांच्यापुढे ताट ठेवून त्याच्यामध्ये येणाऱ्या भक्तांना पैसे टाकण्याची विनंती करत होते. हे सर्व खूप कमर्शिअल वाटलं तरी सुद्धा त्या साधूंच्या पोटापाण्याच्या व्यवस्थे करता लोकांना आशीर्वाद देणे हा त्यांचा व्यवसाय असावा असेही वाटले.

स्वामी अवधेशानंद यांच्या आश्रमाला भेट दिली हा एक अगदी फाईव्ह स्टार मोठा आखाडा आहे. पुण्याची माझी एक मैत्रीण तिथे सेवा देत आहे.

म्हणून तिथे भेट दिली.

स्वामीजींचे दर्शन मिळाले. त्यांची राम कथा एक तास ऐकली. या स्वामीजींना भेटायला अनेक मोठी मान्यवर लोक येतात असे समजले.

माजी राष्ट्रपती रामनाथ कोवीद यायचे होते असेही समजले.

चौथ्या दिवशी आचार्य रामभद्राचार्य जे स्वतः दोन्ही डोळ्यांनी अंध आहेत अनेक भाषांचे तज्ञ स्वतःचे विद्यापीठ असलेले आणि संत तुलसीदास यांचे रामायण मुखोद्गत असलेले गीता तसेच अनेक संस्कृत वेद मुखदगत असलेले अशी त्यांची ख्याती असल्यामुळे मला त्यांना भेटण्याची उत्सुकता होती तिथे गेल्यानंतर किमान दोन तास वाट पाहावी लागली प्रचंड गर्दीतून वाट काढत त्यांची अखेर दर्शन झाले.

वासुकी मंदिर बद्दल एक कथा कळली 

जेव्हा देव आणि दानव यांचे युद्ध झाले आणि समुद्रमंथनावेळी ज्या गोष्टी बाहेर पडल्या त्यातील जो अमृत कलश बाहेर पडला. त्याचे चार थेंब चार ठिकाणी जिथे पडले तिथे आता कुंभ आयोजित केला जातो हे सर्वश्रुत आहे उज्जैन हरिद्वार नाशिक आणि प्रयाग. देव आणि दानवांच्या या युद्धानंतर विविध वस्तू दोघांनाही मिळाल्यानंतर युद्ध समाप्त झाले परंतु ज्या वासुकीला ह्या मंथनासाठी घुसळण्यासाठी वापरण्यात आले होते त्याचे संपूर्ण अंग सोलवटल्यामुळे तो जखमी झाला. म्हणून त्यानी देवाकडे प्रार्थना केली की मला काय मिळाले?त्यावर देवाने त्याला असे सांगितले की गंगेकाठी तुझे मंदिर बांधले जाईल. तू येथे विश्रांती घे.

वेणी माधव मंदिर आणि नागवासुकीचे दर्शन झाल्याशिवाय ही यात्रा पूर्ण होणार नाही.

अशा या नागवासुकी मंदिराला जाण्यासाठी देखील प्रचंड रांग होती तरी सुदैवाने मला लवकर दर्शन मिळाले.

अशा रीतीने चौथ्या दिवशी माझी यात्रा समाप्त झाली.

अजून बरेच आखाडे आहेत परंतु त्या सर्व ठिकाणी जाता आले नाही. अनेक आखाड्यांमधून विविध प्रकारची भजने मोठ्या आवाजामध्ये चालू असतात जणू त्यांची स्पर्धाच आहे. परंतु तोही हा सर्व महा कुंभाचाच एक भाग होय. मोठमोठे वॉच टॉवर्स त्रिवेणीच्या काठी बांधलेले आहेत तेथे हरवलेल्या लोकांच्या वस्तू आणि हरवलेली माणसे यांच्यासाठी स्पीकर वरून घोषणा केल्या जातात. त्यातील एक घोषणा खूपच गमतीशीर वाटली. तो पोलीस स्पीकर वरून सांगत होता की, अजमेर से आई हुई एक सीता मैया अपने राम की राह देख रही है त्या सीतामय्याचं आणि रामाचं नाव घेऊन तीन वेळा तो पुकारत होता!

महाकुंभला भेट देण्याचा 

अनुभव फक्त

‘महसूस’ करना चाहिए, असाच आहे!

स्वच्छतेच्या जनजागृतीबद्दल सरकारचे मनःपूर्वक कौतुक आणि अभिनंदन. प्लास्टिक आणि कागद मुक्त रस्ते आणि नदीघाट बघून सरकारचे, सतत झाडत असलेल्या कर्मचाऱ्यांचे आणि भक्तांचेही आभार. अनेक ठिकाणी कचरापेट्या ठेवाल्याचाही परिणाम.

नदी काठी झालेली गंगा आरती आणि त्यानंतर शेकडो लोकांनी एकावेळी म्हटलेले राष्ट्रगीत निःशब्द करणारे होते! 🙏

त्यावेळी निर्माण झालेली प्रचंड सकारात्मक ऊर्जा आजही अंग रोमांचित करते आणि ह्या इतक्या उत्तम देशात आपण जन्मलो ह्याबद्दल परमेश्वरपुढे नतमस्तक होतो.

गंगेच्या पाण्याच्या जलतत्वाशी एकरूप होण्यासाठी गंगेकाठी काही काळ तरी बसणे हवे.

तेव्हा सुरु झालेल्या आतल्या प्रवासाचा आनंदमयी अनुभव हा सर्वस्वी आपला स्वतःचाच आणि प्रत्येकाचा वेगळा.

त्याचा प्रत्यय घ्यावा मात्र जरूर.

पुराणकथांमधील कथांच्या 

सत्या -सत्यतेचा ऊहापोह न करता श्रद्धा आणि भक्तीने ओताप्रोत भरलेल्या आणि मैलोनमैल डोक्यावर सामान घेऊन चालणाऱ्या भाविकांच्या सागरात आपणही बुडून जावे हे खरे.

त्याचमुळे दैनंदिन जीवनातील संकटांना आपण तो आपला भाग

समजून नवी उमेद घेऊन जगू शकतो. हे सर्व केवळ स्तिमीत करणारे आहे.

त्याचप्रमाणे दुसऱ्याला अनेक हातांनी केवळ देणाऱ्या भंडाऱ्यांमधील अन्नछत्रे तिथे येणाऱ्या हजारो भाविकांचा मोठा आधार आहेत.

तिथल्या जेवणाला खरंच वेगळी रुची होती ह्याचा अनुभव घ्यायला मिळाला.

एकूणताच उर्वरित दिवसांमध्ये एकदा तरी सर्वांनी महाकुंभला जरूर भेट द्यावी आणि त्या एका वेगळ्याच वातावरणाचा अनुभव घ्यावा 

🌹 🙏

लेखिका : सुश्री रविबाला काकतकर

पुणे.

प्रस्तुती : डॉ. भारती माटे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ स्वान्तसुखाय निर्णय… ☆ सुश्री अपर्णा परांजपे ☆

सुश्री अपर्णा परांजपे

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☆ ✍️ स्वान्तसुखाय निर्णय… ☆ सुश्री अपर्णा परांजपे

१: निर्णय घ्यायचा असेल तर…

आपण एखाद्या निर्णय घेतो तेव्हा एकदा दुसऱ्या बाजूचा ही विचार व्हावा. जरी पटत नसली तरी दुसरी बाजू तरीही शांतपणे एकदा पुन्हा विवेकाने निःपक्षपातीपणे विचार करावा व मगच ठोस निर्णय घ्यावा. कारण आपण स्वतः घेतलेला एक निर्णय आपलेच जीवन बदलवत असतो.

बुध्दी व हृदय दोन्ही एकत्र करून विवेकाने, जागृतपणे, सावधानतेने सारासार विचार करूनच पक्का निश्चय करावा.

२: निर्णय आपल्या हातातच नसेल तर

प्रामाणिकपणाने, आत्मविश्वासाने परिणामांना शांतपणे सामोरे जावे.

आत्मिक समाधान यावरच अवलंबून असते.

*

भगवंत हृदयस्थ आहे 🙏

© सुश्री अपर्णा परांजपे

कात्रज, पुणे

मो. 9503045495

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ “मिले सूर मेरा तुम्हारा…sss… अजरामर गाण्याची अद्भुत कहाणी” – लेखक :  डॉ. धनंजय देशपांडे ☆ प्रस्तुती : सुश्री सुलभा तेरणीकर ☆

सुश्री सुलभा तेरणीकर

? इंद्रधनुष्य 

भारतरत्न पं. भीमसेन जोशी

☆ “मिले सूर मेरा तुम्हारा…sss… अजरामर गाण्याची अद्भुत कहाणी” – लेखक :  डॉ. धनंजय देशपांडे ☆ प्रस्तुती : सुश्री सुलभा तेरणीकर ☆

मिले सूर मेरा तुम्हारा ssssss हे गाणे माहित नाही असा एकही भारतीय नसेल. इतकं हे गाणं सगळ्यांच्या हृदयात वसलेलं आहे. हे गाणे जितके श्रवणीय तितकीच त्याच्या निर्मितीची कहाणी देखील अद्भुत आहे.

झालं असं की, पंतप्रधान स्व. राजीव गांधी यांच्या मनात एक विचार आला की, तरुणांना विशेषतः लहान मुलांना प्रेरित करणारे आणि एकतेचा संदेश देणारे एखादं गाणे तयार करून ते दूरदर्शनवरून सर्वत्र पोचवावे. ज्यातून “मेरा भारत महान” हि संकल्पना तर सर्वत्र जाईलच शिवाय प्रत्येकाला यात आपला प्रांत सामावून घेईल. त्यांच्या इच्छेनुसार मग एक प्रस्ताव तयार करण्यात आला. आणि भारतरत्न पं. भीमसेन जोशी यांच्याकडे हे गाणे कंपोज करण्यासाठी आले.

*

संपूर्ण फिल्म इंडस्ट्री एकत्र :

या एकूणच गाण्याची व ते कसे कसे आणि कुठे कुठं शूट करायचे, यात कुणाकुणाला घ्यायचे इत्यादींची संकल्पना सुरेश मलिक आणि प्रसिद्ध ऍड फिल्ममेकर कैलाश सुरेंद्रनाथ यांची आहे. विशेषतः यातील सिनेकलाकार यांच्या तारखा मिळवताना त्रास होईल असा या जोडगोळीचा अंदाज होता मात्र एकूण एक कलाकारांनी अगदी हव्या त्या तारखा यांना दिल्या त्यामुळे जवळपास पूर्ण फिल्म इंडस्ट्री यात दिसते.

*

विश्वविक्रमी गाणे :

15 ऑगस्ट 1988 रोजी दूरदर्शनवरून हे गाणे प्रथमच रिलीज करण्यात आले. याचे संगीतकार पं. भीमसेन जोशी, भैरवी रागातील या गाण्याचे गीतकार होते प्रसिद्ध कवी पियुष पांडे. भारतातील प्रमुख अशा चौदा भाषेत प्रथमच असं हे गाणं तयार झालं असून तोही एक विश्वविक्रम आहे. हिंदी, काश्मीरी, पंजाबी, सिंधी, उर्दू, तामिळ, कन्नड, तेलगू, मल्याळम, बांगला, आसामी, उडिया, गुजराती आणि मराठी भाषेत दोन दोन ओळी रचल्या गेल्यात.

*

लतादीदीची एन्ट्री :

खरेतर सुरुवातीला यातील गायिकेच्या आवाजातील सर्व ओळी भारतरत्न लता मंगेशकर गाणार असं ठरलं होत. मात्र जेव्हा गाणे रेकॉर्डिंग करण्यासाठी स्टुडिओ बुक करण्यात आला, तेव्हा नेमक्या लतादीदी परदेशात होत्या. त्यामुळे मग कविता कृष्णमूर्ती यांच्या आवाजात ते गाणे सुरुवातीला रेकॉर्ड करण्यात आले. मात्र गाणे रिलीज होण्याच्या दोन दिवस आधी लता दीदी भारतात परतल्या. त्यांना हे गाणे रेकॉर्ड झाल्याचे कळले. त्यांनी स्टुडिओत जाऊन ते गाणे ऐकले आणि म्हणाल्या, “पंडितजी…. मला हि संधी सोडायची नाहीय. काहीतरी जुळवून आणा. मी आजच रेकॉर्डिंगसाठी वेळ देते”

आता पंचाईत झाली. कारण त्यामुळे कविताजीचे नाव आणि गायन वगळून तिथं दीदीचे बसवायचे…. कविताजी नाराज झाल्या खऱ्या पण मन मोठं करून त्यांनी यासाठी आनंदाने होकार दिला याबद्दल दीदी इतक्या ज्येष्ठ असूनही त्यांनी कविताजी यांचे आभार मानले. आणि मग लता दीदी तिरंगी ध्वज रंगाचा पदर असलेली पांढरी साडी परिधान करून स्टुडिओत आल्या आणि त्यांच्या स्वरात हे गाणे रेकॉर्ड झाले. मात्र परस्पर सामंजस्याने नंतर असं ठरलं की कविताजी यांनीही मेहनत घेतलेली आहे तर किमान एक दोन ओळी त्यांच्या पण असूद्यात ! त्याप्रमाणे मग गाण्यात शबाना आझमीच्या तोंडी असलेल्या ओळी या कविता यांच्या आहेत तशाच ठेवण्यात आल्याचे सांगितले जाते.

*

प्रसिद्ध धबधबा :

या गाण्यात सुरुवातीला पं. भीमसेनजी ज्या धबधब्याजवळ उभे राहून गाणे गाताना दिसतात तो कोडईकनाल पम्बर फॉल्स आहे ! हाच तो धबधबा आहे जिथं लिरिल साबणाची त्या काळात सुपर हिट झालेली जाहिरात शूट करण्यात आली होती. त्यामुळे त्याला नंतर “लिरिल फॉल्स” असेच नाव पडले !

*

ताजमहाल शूटिंग किस्सा :

या गाण्यातील एका कडव्यात ताजमहाल दिसतोय जो एरियल व्ह्यू स्टाईलने शूट करण्यात आला आहे. खरेतर वर्ल्ड हेरिटेज जाहीर झालेल्या वास्तूच्या भोवती असं एरियल शूट करण्याची परवानगी नसते. मात्र कैलाशजी याना तसेच शूट हवे होते मग प्रॉडक्शन टीमसह भीमेसनजी यांनी थेट एयर मार्शल यांची भेट घेऊन इच्छा सांगितली. शिवाय हा प्रोजेक्ट खुद्द पंतप्रधान यांच्या मनातला आहे हेही सांगितलं आणि त्यानंतर परमिशन मिळाली. इतकंच नव्हे तर भारतीय सेनेच्या हेलिकॉप्टरमधून ते एरियल व्ह्यू शूट घेण्यात आलं.

*

गाण्यातील एका कडव्यात पाण्यात हत्ती खेळताना दिसतात, ते शूटिंग केरळ येथील पेरियार नॅशनल पार्कमधील असून हत्तीही तिथलेच आहेत. यासाठीही वन विभागाने तातडीने हालचाल करून सर्व त्या परवानग्या दिल्या. नाहीतर अशा रिजर्व पार्क मध्ये शूटिंगला परवानगी नसते.

*

दोन महत्वाच्या रेल्वे :

या गाण्यात दोन ठिकाणी दोन वेगवेगळ्या रेल्वे दिसतात. त्या दोन्ही पूर्ण देशभरात प्रसिद्ध अशा रेल्वे आहेत. पहिली आहे ती कलकत्याची मेट्रो रेल्वे आणि दुसरी आहे आपल्या महाराष्ट्राची शान असलेली डेक्कन क्वीन ! तनुजा जेव्हा मराठी ओळी गाताना दिसतात त्यावेळी हि रेल्वे येते !

आहे न अभिमानाची गोष्ट !

*

कोरस मंडळींचा मोठेपणा :

या गाण्यात सर्वात शेवटी भारताच्या नकाशाच्या आकारात अनेक माणसे उभी असलेली दिसतात न ते सगळं शूटिंग मुंबईच्या फिल्मसिटीत करण्यात आलं आहे. विशेष म्हणजे फिल्म इंडस्ट्रीमध्ये अशा कोरस शॉटसाठी माणसे पुरवणारी एजंसी असते त्यांनी नेहमीप्रमाणे पैसे ठरवून माणसे बोलावली. शूटिंग झालं आणि शूट झाल्यावर लोकांना कळलं की ते किती मोठ्या प्रोजेक्ट मध्ये सहभागी आहेत आणि देशासाठीचे हे गीत आहे म्हटल्यावर त्यातल्या एकानेही एक रुपयाही मानधन घेतलं नाही. तसेच यातील एका ओळीत शाळेतील लहान मुले तिरंगी गणवेशात एकत्र धावत येतात त्याचे शूटिंग उटी येथील बोर्डिंग स्कुल मध्ये झाले आहे.

*

स्वतःचे कपडे वापरणारे कलाकार :

गाण्यात एका सीनमध्ये अमिताभ, जितेंद्र आणि मिथुन चक्रवर्ती आहेत. या तिघांचे शूटिंग भल्या सकाळी एका बंगल्याच्या खाजगी बागेत करण्यात आले. आणि अवघ्या दहा मिनिटात तो सिन वन टेक शूट झाला. विशेष म्हणजे यात त्यांच्या अंगावर जे कपडे आहेत ते त्यांचे त्यांचे स्वतःचे आहेत. अन्यथा इतरवेळी शुटिंगवाल्याकडून कपडे पुरवले जातात. ज्याला बऱ्यापैकी खर्च येतो मात्र या तिघांनी त्याला नम्र नकार देऊन स्वतःचे कपडे आणले होते.

*

कमल हसन यांची ऐनवेळी एंट्री

दाक्षिणात्य प्रसिद्ध गायक एम. बालमुरलीकृष्ण यांचे या गाण्यातील दोन ओळीचे रेकॉर्डिंग होते. त्यावेळी स्टुडिओत अचानक कमल हसन आले. ते कसे काय आले इथं ? असं विचारण्यात आले तेव्हा ते म्हणाले की, “माझे गुरु आहेत बालमुरलीकृष्ण…. त्यामुळे त्यांचे गाणे रेकॉर्ड होताना पाहावे म्हणून आलोय”

यावर कैलाशजी म्हणाले की, ” संध्याकाळी या ओळीचे शूटिंग आहे समुद्र किनारी तर वेळ असेल तर या की तिथेही “

आणि कमल हसन तिथं नंतर पोचले आणि चक्क त्यांनाच शूटिंग मध्ये सहभागी करून घेण्यात आले आणि अशारितीने ऐनवेळी त्यांची एंट्री यात झाली.

*

जगाच्या पाठीवर प्रथमच असे काहीतरी :

एकतेचा संदेश देणाऱ्या या गाण्यात जवळपास सर्वच क्षेत्रातील दिग्गज मंडळी दिसतात. जगाच्या पाठीवर प्रथमच एका गाण्यासाठी हे घडलं आहे. फिल्म लाईन, क्रीडा, गायक, वादक, चित्रकार, कार्टूनिस्ट, फिल्म निर्माता, आर्किटेक्ट, टेलिव्हिजन होस्ट असं सगळं सुंदर मिश्रण यात जुळून आले आहे. एखादं गाणं इतकं अजरामर का होतं…. त्या मागे किती काय काय घडत असत अन किती जणांचे कष्ट असतात हे आपल्यापैकी अनेकांना माहित नसतं. ते माहित असावं म्हणून हा पोस्ट प्रपंच !

थोडक्यात सांगायचं तर… 

… असं गाणं पुन्हा होणे नाही !!!

*

लेखक :  डॉ. धनंजय देशपांडे 

प्रस्तुती : सुलभा तेरणीकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “ज्योत ज्योतीने जागवा…” – लेखिका: श्रीमती संजीवनी बोकील ☆ प्रस्तुती – श्री कमलाकर नाईक ☆

श्री कमलाकर नाईक

?  वाचताना वेचलेले  ? 

☆ “ज्योत ज्योतीने जागवा…” – लेखिका: श्रीमती संजीवनी बोकील ☆ प्रस्तुती – श्री कमलाकर नाईक ☆

काही घटना, काही शब्द, काही ओळी काळजावर छिन्नीने अशा कोरल्या जातात की सदैव दिसत राहतात. काळाची धूळ बसली तरी तो झिरझिरीत पडदा त्यांचे अस्तित्व पुसू शकत नाही. कधीतरी आनुषंगिक संदर्भ ती धूळ पुसतात आणि मग ते कोरीव काम लख्ख दिसू लागते.

गेली अनेक वर्षे अशी अनेक कोरीव लेणी मनात टिकून राहिली आहेत.

काल आपटे हायस्कूलच्या एका माजी विद्यार्थ्याने एक जुना फोटो पाठवला. त्याच्या खाली त्याने लिहिले होते, ” बाई, सततआठवते का?”

ही आव्हाने जितकी नाजूक असतात, तितकीच मुश्किलही असतात. पण एखाद्या लहान मुलीने स्वतःच डोक्यावर चादर घ्यावी आणि काही क्षणात स्वतःच ती दूर करून बोळके पसरून हसावे तशी त्यांच्यावरची अनेक आवरणं झुगारून ती कधीकधी स्वतःच उघड होतात.

तसेच झाले आणि त्या फोटोतला काळ दूर गेलाच नसल्यासारखा समोर येऊन उलगडला.

परमवीरचक्र विजेत्या पैगंबरवासी अब्दुल हमीदच्या वीरपत्नीला शिवणकाम करून पोट भरावे लागते, अशा बातमीने व्यथित होऊन ती मी माझ्या ९ वी ब च्या वर्गात वाचून दाखवली. त्या व्यथेतून एक मोठा उपक्रम आकाराला आला-‘ पै. अब्दुल हमीद कृतज्ञता निधी. ‘७८ मुलांच्या वर्गानं स्वकमाईने ‘कृतज्ञता निधी’ उभारला. त्यात नंतर ९वी क देखील सामील झाला व समाजातल्या काही संवेदनशील व्यक्तींनीही थोडी भर घातली.

पुण्यातील टिळक स्मारक मंदिरात, एका भव्य कार्यक्रमात, ल. आपटे प्रशालेचे मुख्याध्यापक श्री. पु. ग. वैद्य, श्री. शशिकांत सुतार, विक्रम बोके, पुण्यात स्थायिक झालेल्या परमवीरचक्र विजेत्या श्री. रामराव राणे यांच्या सुविद्य पत्नी श्रीमती राजेश्वरी राणे आणि अभिनेते नाना पाटेकर यांच्या उपस्थितीत दै. सकाळचे तत्कालीन व्यवस्थापक श्री. के मो. भिडे यांच्याकडे तो निधी जाहीरपणे सुपूर्त केला गेला.

याची दोन कारणे होती. एक म्हणजे तो उपक्रम दै. सकाळमधील बातमीमुळेच आकाराला आला होता आणि दुसरे म्हणजे हा निधी सार्वजनिक कामातून उभा राहिला होता म्हणून तो सार्वजनिक रूपातच जाहीरपणे हस्तांतरित होणे गरजेचे होते.

राखीपौर्णिमेचा दिवस यासाठी निवडला होता कारण ती भावनाही या कार्यक्रमाच्या मागे होती. मुलांच्या तुडुंब उत्साही गर्दीत कार्यक्रम शानदारपणे पार पडला. पाटेकरांनीही या निधीत मोलाची भर घातली. व्यासपीठावरच्या संपूर्ण कार्यक्रमातल्या सर्व भूमिका मुलांनी जबाबदारीने अचूक पार पाडल्या. कार्यक्रम संपल्यावर व्यासपीठावरच्या सन्माननीय व्यक्तींना भेटण्यासाठी लोकांची गर्दी झाली होती. त्यांच्यासाठी चहा-बिस्किटे सतत मागवली जात होती. टिळक स्मारकच्या खालच्या कँटिनमधून भरलेले ट्रे वर येत होते. माझ्याही भोवती गर्दी असल्याने मला याचा कोणताही हिशेब ठेवता येत नव्हता….

हळूहळू हॉल रिकामा होऊ लागला आणि कँटिनचे मालक श्री. भागवत माझ्याजवळ आले. त्यांच्या हातात झालेल्या चहापाण्याचे बिल होते. माझ्या पोटात गोळा आला. स्टेजवर जाणारे ते भरलेले ट्रे दिसू लागले. किती रक्कम मांडली असेल कोणास ठाऊक अशा विचारातच मी ते बिल हातात घेतले.

बिलातल्या रकमेच्या खालच्या जागेत लिहिले होते- ‘ही रक्कम आमच्यातर्फे आपल्या ‘कृतज्ञता निधी’त जमा करावी. ‘ उपक्रमाचे कौतुक करून, नमस्कार करून ते शांतपणे निघून गेले. शाळेत शिकवत असलेल्या कवितेच्या कोरीव ओळी माझ्या डोळ्यासमोर नाचू लागल्या-

‘ज्योत ज्योतीने जागवा

करा प्रकाश सोहळा

इवल्याश्या पणतीने

होई काळोख पांगळा. ‘

 * * *

आपटे प्रशालेच्या नववी ब व ९ वी क च्या मुलांनी हा ‘कृतज्ञता निधी’ जिच्या पाठीशी उभे राहण्यासाठी उभारला होता त्या वीरपत्नीला – श्रीमती रसूलन बेगम यांना उत्तर प्रदेशातील गाझियाबादपासून ८० किलो मीटर दूर असलेल्या धामुपूर येथे प्रत्यक्ष जाऊन तो देण्याची खूप इच्छा होती पण ते शक्य नव्हते.

दै. सकाळने मुलांचे कष्ट, त्यांच्या भावना व त्यांच्यातील सामाजिक कर्तव्यांचे भान यांचे मोल जाणून त्यांचे लखनौ येथील प्रतिनिधी श्री. शरद प्रधान यांच्याकडे हे काम सोपवले. मुलांनी वीरपत्नीसाठी हिंदी व उर्दूमध्ये लिहिलेले प्रातिनिधिक, हृदयस्पर्शी पत्रही त्यांच्याकडे दिले होते.

गाझियाबादपासून धामुपूर येथे जाण्यासाठी वेळेवर काही वाहन न मिळाल्याने श्री. प्रधान यांनी एका ट्रकचालकाला विनंती केली. त्यासाठी शंभर रुपये आकार मान्य करून प्रधान ट्रकमध्ये चालकाशेजारी बसले. वाटेत गप्पा सुरू झाल्या. इतक्या आडगावात हा सुशिक्षित माणूस कशासाठी चालला आहे, अशी उत्सुकता त्याला वाटणे स्वाभाविक होते. दूरवरच्या महाराष्ट्रातल्या एका पुणे नावाच्या गावातल्या शाळकरी मुलांनी स्वतः कष्ट करून हा निधी उभा केला आहे, हे कळताच त्याचे डोळे विस्फारले. “साब, इतने साल यहाँ से आते-जाते हॆं, कभी उनसे मिलने की भी बात हमारे दिमाग में नहीं आई और इतनी बड़ी बात इतनी दूर के छोटे बच्चों ने सोची?”

बोलता बोलता धामुपूर गाव दिसू लागलं. प्रधानांनी आपल्या पाकिटातून शंभराची नोट काढून चालकापुढे धरली. त्यांचे हात हातात धरीत चालक डोळ्यात पाणी आणून म्हणाला, ” नहीं, नहीं साहब! ये पॆसे लूँगा तो अपने आपको आइने में नहीं देख पाऊँगा! शरमिंदा मत कीजिए। चलो, इस बहाने हमसे भी देश की थोड़ी-सी सेवा हो गई।”

प्रधान खाली उतरले आणि ती नोट त्यांनी मुलांनी दिलेल्या मखमली बटव्यात सरकवून दिली. नंतर फोन करून त्यांनी ही गोष्ट मला कळवली व फोटो पाठवले.

एक शाळकरी ज्योत किती ज्योती लावत गेली…. गोष्ट जुनी पण आज आठवली.. !

(‘आत्मचित्र’ मधून) 

लेखिका: श्रीमती संजीवनी बोकील

संग्राहक  : श्री कमलाकर नाईक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – बिंब – प्रतिबिंब – ☆ सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे ☆

सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? – बिंब – प्रतिबिंब – ☆ सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे ☆

बिंबाचे हे प्रतिबिंब 

किती दिसते साजिरे 

बसे मायेच्या कुशीत 

पहा दृष्टी भिरभिरे ||

*

वात्सल्याच्या पदराला 

कशी घेते लपेटून 

अनुकरण आईचे

दिसे भारीच शोभून ||

*

मायलेकीतली नाळ 

असे घट्ट बांधलेली 

तिच्या भावी आयुष्याची 

स्वप्नं उरी दाटलेली ||

*

कष्ट मायेचे बघते 

जाण लेकीत रुजते 

लेकीसाठी राबताना 

माय स्वप्नात रंगते ||

*

स्वप्नं माझी हरवली 

लेक आणील सत्यात

तिच्या रूपाने लाभले 

बळ कष्टांना हातात ||

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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