(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष— सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “राह बता देना बस मुझको…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #267 ☆
☆ राह बता देना बस मुझको… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “शीतल हवाएँ”।)
जय प्रकाश के नवगीत # 91 ☆ शीतल हवाएँ ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – लघुकथा – रेशम
दुख से विह्वल थी वह। आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बह रही थी। उसे टकटकी बाँधकर देखता रहा वह। फिर बोला, “ग़ज़ब की ख़ूबसूरती पाई है तुमने। औरतें हँसती हैं तो ख़ूबसूरत लगती हैं पर तुम्हारे तो आँसू भी मोती जैसे हैं। रोती हुई भी तुम मोनालिसा लगती हो।”
उसे लगा रेशम के कीड़े को उबलते पानी में डाल कर किसी ने कहा हो, “तुम्हारा रेशम बहुत मुलायम है।”
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
छायावाद के प्रमुख स्तम्भ महनीय कविराज सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का यह प्रसिद्ध काव्य उनकी चिरंतन प्रेरणास्त्रोत माँ सरस्वती को समर्पित है| शायद इसीलिए माघ शुक्ल ११, संवत् १९५५, अर्थात २१ फ़रवरी, सन् १८९९ को जन्मे ‘निराला जी’ का जन्मदिवस वसंत पंचमी के अवसर पर मनाना प्रारम्भ हुआ| इस ऊर्जावान रचना में कवि माँ शारदा से स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र अमृतमयी मंत्र का दान मांगता है! इसी स्वतंत्रता के वसन्तोत्सव की मनोकामना हर भारतीय के मन में नव आशा के दीप जला गई थी|
मनभावन माघ महीने के प्रारम्भ से नवोल्लास, नवोन्मेष एवं नवचेतना का उदयकाल प्रारम्भ होता है| जब पौधों पर नवीन गुलाबी कोंपल फूटने लगे, अम्बुवा की हर डाली नौबहार से बौराई जाये, जब मंद मंद सुरभि से निहाल हो समीर यत्र तत्र सर्वत्र संचारित होने लगे, जब इस नवयौवना प्रकृति को देख मन में प्रेम का ज्वार उफान पर हों, तो प्रकृति तथा ईश्वर के परिणय पर्व का स्वागत करने को सज्ज हो जाएं क्योंकि ऋतुराज वसंत का आगमन हुआ है| शिशिर ऋतु की ग्लानि और अवसाद को पीछे छोड़ अब हम उमंग से भरे पलों को जीने के लिए अति उत्सुक हैं|
प्रकृति की इस मनमोहनी सूरत और सीरत पर हर कोई मोहित है, क्योंकि इस मौसम में गुलाबी हल्कीसी ठण्ड है और मनचाही सुनहरी धूप भी, शीतल मंद-मंद पवन है, फूलों पर नवरंग और नवरस की कुसुमकोमल नवबहार छा जाती है| खेत खलिहानों में सरसों के पीत सुमन मानों स्वर्ण जैसे चमकने लगते हैं, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलखिलाकर हंसने लगती हैं, आमों के पेड़ों पर मांजर आ जाता है एवं हर तरफ मधु से आकर्षित हो रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं हैं| तभी भँवरे की गुंजन और कोयल की कूक का पंचम स्वर समग्र वातावरण को संगीत के सप्तसुरों में ढाल देता है| इस सुरभित रंग और स्वर से सुसज्जित वसंत बहार से हमारे तनमन पुलकित होते हैं| यहीं तो कारण है कि, हमने वसंत ऋतु को राज सिंहासन पर आसीन करते हुए उसे ‘ऋतुओं का राजा’ कहा है| इस ऋतु से प्रफुल्लित मन से चौंसठ कलाओं का चरमाविष्कार होना तो अति स्वाभाविक है| नृत्य, संगीत, नाट्य, लेखन, शिल्प, आप जो भी कला का स्मरण करें, वे इसी समय सतरंगी प्रकृति से कल्पना के राजसी पंख लेकर नवनिर्मिति के अनुपम आकाश में उड़ान भरने लगतीं हैं| हमारी कला एवं संस्कृति का उच्चतम उत्कर्ष इसी ऋतु में होता दिखाई देता है, क्योंकि मन प्रसन्न हो तो आविष्कार के अंकुरों का सृजन तभी होता है|
माघी शुक्ल चतुर्थी को विद्या-बुद्धि दाता गणेश का पूजन कर इस आनंदमय पर्व का शुभारम्भ करते हुए अगले ही दिन शुक्ल पंचमी यानि वसंत पंचमी या श्री पंचमी का दिन है विद्या की देवी माँ सरस्वती की उपासना का| वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ मास की पंचमी के दिन प्राचीन भारत में बड़ा उत्सव मनाया जाता था| इसी वसंत पंचमी के त्यौहार में विद्या की देवी सरस्वती के साथ साथ प्रेम के अधिष्ठाता कामदेव और ब्रह्माण्ड के संरक्षक विष्णु की भी पूजा की जाती थी|
उपनिषदों की कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभिक काल में ब्रह्मा ने कई जीवों की, यहाँ तक कि मनुष्य योनि की भी रचना की। लेकिन अपनी सर्जनशीलता से वे संतुष्ट नहीं थे| उन्हें लगता था कि कुछ कसर अभी भी बाकि है| ब्रह्मा जी ने भगवान श्री विष्णु की स्तुति करनी आरम्भ की। तब भगवान विष्णु उनके सम्मुख प्रकट हो गए और उनकी समस्या जानकर भगवान विष्णु ने आदिशक्ति दुर्गा माता का आवाहन किया| अब भगवती दुर्गा वहां तुरंत ही प्रकट हो गयीं तब ब्रम्हा एवं विष्णु जी ने उन्हें इस संकट को दूर करने का निवेदन किया।
ब्रम्हा जी तथा विष्णु जी बातों को सुनने के बाद उसी क्षण आदिशक्ति दुर्गा माता के शरीर से स्वेत रंग का एक भारी तेज उत्पन्न हुआ जो एक दिव्य नारी के रूप में बदल गया। यह स्वरूप एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था| तेज से प्रकट होते ही उस सुन्दर देवी के द्वारा वीणा का मधुर नाद करते ही संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी का वरदान प्राप्त हुआ| जलधारा की कलकल और पवन की सरसराहट से ब्रह्माण्ड में स्वर अधिष्ठित होने लगे| तब सभी देवताओं ने शब्द और रस का संचार कर देने वाली उन देवी को वाणी की अधिष्ठात्री देवी “सरस्वती” कहा| फिर आदिशक्ति भगवती दुर्गा ने ब्रम्हा जी से कहा कि मेरे तेज से उत्पन्न हुई ये देवी सरस्वती ही आपकी शक्ति होंगी।
त्रिदेवियोंकी द्वितीय देवी- सरस्वती
त्रिगुणी त्रिदेवियाँ स्त्री शक्ति की प्रतीक, माँ दुर्गा शक्ति, विद्यादात्री माँ सरस्वती एवं वैभव का रूप माँ महालक्ष्मी, इन तीन रूपों के समक्ष अखिल मानव जाति नतमस्तक होती है| माता सरस्वती को शारदा, वीणावादिनी, वाग्देवी, वागीश्वरी, बुद्धि धात्री, विदुषी, अक्षरा जैसे नामों से भी जाना जाता है। माँ सरस्वती के वीणा का नाम ‘कच्छपि’ है| उनकी पूजा मुख्य रूप से बसंत पंचमी (माघ शुक्ल पंचमी) पर होती है, जो उनके प्राकट्य का दिवस भी माना जाता है। वे विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके प्रकटोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
अर्थात, ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। उनके स्वरूप का वर्णन देखिये कितना लुभावना है: जो शुभ्र वस्त्र धारण किये हुए है, जिनके एक मुख, चार हाथ हैं, मुस्कान से उल्लास बिखरता है एवं दो हाथों में वीणा है जो भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है। पुस्तक से ज्ञान और माला से ईशनिष्ठा-सात्त्विकता का बोध होता है। मां सरस्वती का वाहन राजहंस माना जाता है और इनके हाथों में वीणा, वेदग्रंथ और स्फटिकमाला होती है। माँ सरस्वती के वीणा का नाम ‘कच्छपि’ है| मान्यता यह है कि इस वीणा के गर्दन भाग में भगवान शिव, तार में माता पार्वती, पुल में माता लक्ष्मी, सिरे पर भगवान नारायण और बाकी हिस्से में माता शारदा का वास होता है| सरस्वतीवंदना का निम्नलिखित श्लोक अत्यधिक प्रचलित है| साहित्य, संगीत, कला की देवी की पूजा में इस वंदना को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाता है। कई स्कूलों और विद्यालयों में इसका पाठ प्रातःप्रार्थना के रूप में किया जाता है|
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता,
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता,
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥१॥
अर्थात, जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली मां सरस्वती हमारी रक्षा करें|
शिक्षाविद वसंत पंचमी के दिन माँ शारदा की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं। यदि हम वसंत पंचमी के पौराणिक महत्व को देखें तो हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं का स्मरण होता है| त्रेता युग में रामकथा के अंतर्गत सीता हरण के पश्चात् जब श्रीराम उनकी खोज में दक्षिण की ओर जाते हैं तो दण्डकारण्य में उनकी भेंट शबरी नामक भीलनी से होती है| भक्तिभाव के चरम आदर्श के रूप में शबरी द्वारा चखे जूठे बेर राम ने विनसंकोच खाए थे| ऐसा माना जाता है कि वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी शबरी के आश्रम में पधारे थे| उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रध्दा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है।
एक ऐतिहासिक महत्व बताया जाता है कि, राजा भोज का जन्मदिवस वसंत पंचमी को था। वे इस दिन एक बड़ा उत्सव करवाते थे जिसमें पूरी प्रजा के लिए एक बड़ा प्रीतिभोज रखा जाता था, जो चालीस दिन तक चलता था। महान स्वतंत्रता सेनानी गुरू रामसिंह कूका का जन्म १८१६ में वसंत पंचमी पर लुधियाना में हुआ था। उनके द्वारा किया गया ‘कूका विद्रोह’ स्वतंत्रता संग्राम का स्वर्णिम पन्ना है|
प्रिय मित्रों, हमें इस वासंतिक पर्व के चलते पीत सुरभित आम्रमंजिरि और सरसों के पीले लहलहाते खेतों को देख यह प्रतीत होता है मानों प्रकृति ने पीली चुनरिया ओढ़ ली है| इसी पीली चुनरिया पर लुब्ध हो इस दिन पवित्र पीले वस्त्र परिधान करने का औचित्त्य है| इसमें हमें प्रकृति सन्देश अवश्य देती है कि, हे मानव, मेरे रंग में रंगना तो तुम्हारे लिए आनंद की अपार अनुभूति अवश्य है, परन्तु यह सदैव स्मरण रहे कि मेरे इस स्वर्ण वैभव को जतन करना भी तुम्हारा परम कर्त्तव्य है|
टिपण्णी– दो गानों की लिंक जोड़ रही हूँ|
‘वर दे वीणावादिनि वर दे।’ – गीतकार-सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, गायिका और संगीतकार-प्रियंका चित्रिव
‘या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता’ – गायिका और संगीतकार- श्रेया घोषाल
☆ Meditate Like The Buddha # 14: A Lifetime’s Work ☆
Meditation is a lifelong journey. It is simple, yet not easy. It requires discipline, patience, and perseverance.
The Path So Far
Your journey of a thousand miles is well begun. You have learned and practised the foundational steps of mindfulness of breathing meditation, also known as Anapana meditation. This was the very practice through which the Buddha attained enlightenment.
Meditation consists of four main sections:
Contemplations of the body
Contemplations of feelings
Contemplations of the mind
Contemplations of wisdom
Each section contains four contemplations, making sixteen contemplations in total. Learning these basics is just the beginning. To truly benefit, you must go deeper.
Refining Your Practice
Observe your breath more closely, with increased awareness and ardency.
Develop one-pointed concentration by minutely observing your breath at the nostrils.
Achieving deep concentration may take hours, days, or even longer—patience is key.
Similarly, experiencing and relaxing the body requires mindful attention:
Begin by observing major parts of the body and gradually refine your awareness to even the smallest sensations.
Each day’s practice will be unique—some days, the breath may feel shallow, other days, smooth. Accept this variability with equanimity.
Exploring Feelings and Sensations
Feelings arise as pleasant, unpleasant, or neutral.
They may be joyful, sorrowful, sensuous, or spiritual.
Observe bodily sensations—both gross and subtle—with full mindfulness.
When negative emotions like anger arise, observe the corresponding bodily sensations. Emotions—positive, negative, or neutral—manifest physically. Ardently observe and let them pass.
Understanding the Mind
Meditation is far from dull—it cultivates joy and inner happiness.
Exploring the mind is a profound journey. Do not get stuck; keep moving.
Observe your thoughts without attachment. Be a spectator.
Free your mind from craving, aversion, and ignorance.
Deepening Wisdom
The contemplation of wisdom is a lifetime’s work.
Begin by contemplating suffering, its origin, and the path to its cessation.
Reflect on impermanence, suffering, and non-self.
Contemplate fading away, cessation, and relinquishment.
Wisdom arises not from blind belief but from direct experience. Continue refining your understanding through consistent practice.
Fruits of Deep Meditation
Deep meditation leads to deep insights:
Concentration and serenity are the initial experiences.
With deep concentration, wisdom naturally follows.
Progressively, defilements are removed and wholesome qualities cultivated.
Cultivate virtues like loving kindness, compassion, altruism, and equanimity. Day by day, drop by drop, let these qualities fill your heart.
Commitment to Daily Practice
Meditate joyfully and with inner happiness.
Establish a consistent routine—one hour in the morning, half an hour in the evening is sufficient.
As the Buddha said:
“When mindfulness of breathing is developed and cultivated, it is of great fruit and great benefit.”
May the wisdom of the Buddha guide your meditative path.
“Over there are the roots of trees; over there, empty dwellings. Practice jhana (meditation), monks. Don’t be heedless. Don’t later fall into regret. This is our message to you.” – Buddha
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A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
☆ आलेख ☆ संत रविदास जयन्ती विशेष – महान संत गुरु रविदास ☆ श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ ☆
(भारतीय संत परम्परा के महान संत गुरु रविदास की जन्म जयंती पर विशेष.)
राम शब्द की महिमा जिस किसी भी अर्थ में कही जाए, राम नाम को जिस भी रूप में स्मरण किया जाये सर्वथा पुण्य फलदायी है, क्योंकि राम शब्द स्वयं साकार स्वरूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम एवं निराकार स्वरूप में परम ब्रह्म है l
इस शब्द विशेष को कोई भी संत अलग होना नहीं चाहता , चाहे वह अध्यात्म के किसी भी मत या परम्परा से सम्बन्ध रखता हो, क्योंकि राम शब्द समाज में प्रेम, भाई चारा, अनुराग पैदा करने वाला एवं एक दूसरे को जोड़ने वाला महामंत्र है l
सगुन उपासक तुलसी के राम, निर्गुण उपासक कबीर के राम रामानंद के शिष्य रविदास के राम, भारतीय जनमानस श्वासो में रमने वाले राम के नाम की ही महिमा अपरंपार है l यानी राम नाम निराकार – साकार, ब्रह्म के दोनों स्वरूपों में रमण करने वाला सद्मार्ग प्रदान करने वाला महा मन्त्र है l
आज माघ माह की पूर्णिमा तिथि है l भारतीय सनातन संस्कृति में इस तिथि का बहुत बड़ा महत्व है l माघ मास की पूर्णिमा को मां गंगा की गोद में डुबकी लगाने यानि गंगा स्नान करने का विशेष महत्त्व है l आस्थावान संत, महात्मा, ऋषि, गृहस्थ, सबके सब इस पूर्ण को प्राप्त करना चाहते हैं l
दूसरी ओर इसी पावन तिथि को ज्ञान गंगा की पावन नगरी काशी में संत रविदास का जन्म होता है जो अपनी निर्मल भक्ति के दम पर माँ गंगा को अपनी कठोता में लाने का सामर्थ्य रखते हैं (मन चंगा तो कठोती में गंगा)l
गंगा और राम किसी न किसी रूप में इन संतो के पास सदैव ही विद्यमान रहती हैं l
भारत की सांस्कृतिक राजधानी, एक से एक विद्वान् एवं महान संतों को जन्म देने वाली काशी ने हर एक कालखंड में न सिर्फ एक से एक महान संतों का जन्म दिया है, बल्कि अनेकों विचारों को भी जन्म दिया है l लेकिन विशेष बात यह है कि ये सारे विचार राम नाम महामंत्र का आश्रय पाकर स्वयं को धन्य करते हैं l
इन्हीं काशी के संतो में संत रविदास का जन्म भी माघ मास की पूर्णिमा को काशी की पावन भूमि में होता है l इस महान संत के जन्म से काशी एक बार पुनः धन्य होती है l
जिस तिथि को लाखों लाखों लोग गंगा के पावन जल में डुबकी लगा रहे होते हैं, परम पुण्य को प्राप्त कर रहे होते हैं, काशी इसी तिथि को एक और संत को जन्म देकर पुनः अपने वैभव के एक और पायदान को प्राप्त कर आगे बढ़ रही होती है l
काशी के संत रामानंद के बारह शिष्यों की कड़ी में संत रविदास का नाम भी शुमार होता है l इसके साथ ही काशी की गुरु -शिष्य परंपरा और अधिक पुष्ट होती है l
बौद्धिक, वैदिक, आध्यात्मिक ज्ञान का अर्जन करना और अपने ज्ञान को अपने शिष्यों तक पहुंचाना, गुरु -शिष्य परंपरा की सर्वोच्च सिद्धि और उपलब्धि है l
मेवाड़ की महारानी एवं श्री कृष्ण की भक्तिन मीरा बाई को भी गुरु की तलाश है l काशी जो स्वयं आदि योगी गुरु श्रेष्ठ शिव की स्वयं की नगरी है l इस पावन ज्ञान नगरी में अपने गुरु की तलाश करती हुई मेवाड की रानी कृष्ण के प्रेम की दीवानी मीरा का आगमन होता है l
फिर क्या कृष्ण भक्त मीरा को गुरु रूप में संत रविदास का आशीर्वाद प्राप्त होता है l जीवन भर कृष्ण की उपासना करने वाली मीरा को गुरु मंत्र के रूप में वही रा – म युगल अक्षर की सन्धि निकला हुआ नाम राम अपने गुरु से प्राप्त होता है l
फिर मीरा के मुख से एक पद गुरु के मुख से निकली हुई ब्रह्म वाणी कुछ इस रूप में स्फूटित होती है –
“पायोजीमैंनेरामरतनधनपायो l
वस्तुअमोलिकदीमेरेसतगुरु
किरपाकरिअपनायो।|
पायोजीमैंने…
भारतीय संत परंपरा के ऐसे महान संत गुरु रविदास जी की जन्म जयंती के पावन अवसर पर आप सभी को हार्दिक बधाई देता हूँ l
बाबा भोले की काशी को नमन करता हूँ l गंगा मैया का वंदन करता हूँ l
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “रात दुख की अगर मुझे दी है…“)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 95 ☆
रात दुख की अगर मुझे दी है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अस्मिता…“।)
अभी अभी # 604 ⇒ अस्मिता श्री प्रदीप शर्मा
अहंकार, आसक्ति और अस्मिता तीनों एक ही परिवार के सदस्य हैं। वे हमेशा आपस में मिल जुलकर रहते हैं। अस्मिता सबसे बड़ी है, और अहंकार और आसक्ति जुड़वा भाई बहन हैं। वैसे तो जुड़वा में कोई बड़ा छोटा नहीं होता, फिर भी अहंकार अपने आपको आसक्ति से बड़ा ही मानता है। अहंकार को अपने भाई होने का घमंड है, जब कि आसक्ति अहंकार से बहुत प्रेम करती है, और उसके बिना रह नहीं सकती।
अहंकार आसक्ति को अकेले कहीं नहीं जाने देता। अहंकार जहां जाता है, हमेशा आसक्ति को अपने साथ ही रखता है।
अहंकार की बिना इजाजत के आसक्ति कहीं आ जा भी नहीं सकती।
अस्मिता को याद नहीं उसका जन्म कब हुआ।
कहते हैं अस्मिता की मां उसे जन्म देते समय ही गुजर गई थी। अस्मिता के पिता यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सके और तीनों बच्चों यानी अस्मिता, अहंकार और आसक्ति को अकेला छोड़ कहीं चले गए। बड़ी बहन होने के नाते, अस्मिता ने ही अहंकार और आसक्ति का पालन पोषण किया।।
अब अस्मिता ही दोनों जुड़वा भाई बहनों की माता भी है और पिता भी। अहंकार स्वभाव का बहुत घमंडी भी है और क्रोधी भी। जब भी लोग उसे अनाथ कहते हैं उसकी अस्मिता और स्वाभिमान को चोट पहुंचती है और वह और अधिक उग्र और क्रोधित हो जाता है, जब कि आसक्ति स्वभाव से बहुत ही विनम्र और मिलनसार है। वह सबसे प्रेम करती है और अस्मिता और अहंकार के बिना नहीं रह सकती।
कभी कभी अहंकार छोटा होते हुए भी अस्मिता पर हावी हो जाता है। उसे अपने पुरुष होने पर भी गर्व होता है। रोज सुबह होते ही वह अस्मिता और आसक्ति को घर में अकेला छोड़ काम पर निकल जाता है। एक तरह से देखा जाए तो अहंकार ही अस्मिता और आसक्ति का पालन पोषण कर रहा है।।
अहंकार को अपनी बड़ी बहन अस्मिता और जुड़वा बहन आसक्ति की बहुत चिंता है। बड़ी बहन होने के नाते अस्मिता चाहती है अहंकार शादी कर ले और अपनी गृहस्थी बना ले, लेकिन अस्मिता और आसक्ति दोनों अहंकार की जिम्मेदारी है, वह इतना स्वार्थी और खुदगर्ज भी नहीं। वह चाहता है अस्मिता और आसक्ति के एक बार हाथ पीले कर दे, तो बाद में वह अपने बारे में भी कुछ सोचे।
लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर होता है। अचानक अस्मिता के जीवन में विवेक नामक व्यक्ति का प्रवेश होता है, और वह बिना किसी को बताए, चुपचाप, अहंकार और आसक्ति को छोड़कर विवेक का हाथ थाम लेती है। एक रात अस्मिता विवेक के साथ ऐसी गायब हुई, कि उसका आज तक पता नहीं चला।।
बस तब से ही आज तक अहंकार और आसक्ति अपनी अस्मिता को तलाश रहे हैं, लेकिन ना तो अस्मिता ही का पता चला है और ना ही विवेक का।
अस्मिता का बहुत मन है कि विवेक के साथ वापस अहंकार और आसक्ति के पास चलकर रहा जाए। लेकिन विवेक अस्मिता को अहंकार और आसक्ति से दूर ही रखना चाहता है। बेचारी अस्मिता भी मजबूर है।
उधर अस्मिता के वियोग में अहंकार बुरी तरह टूट गया और बेचारी आसक्ति ने तो रो रोकर मानो वैराग्य ही धारण कर लिया है।
अगर किसी को अस्मिता और विवेक का पता चले, तो कृपया सूचित करें।
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – “चौथी सीट… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆
लघुकथा – परामर्श… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
समस्याएँ तो सबके जीवन में हैं बेटे, पर समस्या का समाधान भी उसीमें रहता है और इसको जो समझ लेता है वह कभी निराश नहीं होता, शिवशंकर जी अपने पुत्र को समझाते हुए कह रहे थे। पुत्र राम शंकर बड़े ध्यान से उनकी बात सुन रहे थे। तभी शिव शंकर जी के मोबाइल की घंटी बजने लगी। उन्होंने मोबाइल की ओर देखा, गांव से उनके एक मित्र का फोन था। हेलो कहते हुए उन्होंने उठाया। हाँ मैं रामधन बोल रहा हूँ। हालचाल पूछने के बाद बोले, “अरे यार क्या बताऊँ, वह जो छोटी बहू है, बहुत धमकी दे रही है कि वह कुछ ऐसा करेगी कि पूरा घर जेल में होगा। कभी छत पर चढ जाती है कभी दरवाजे पर खड़ी हो कर चिल्लाती है। समझ में नहीं आ रहा है, क्या करूँ? उसके पिता से कहा तो वह भी चुप लगा गए। “
शिव शंकर जी ने पूछा, “वह चाहती क्या है, यह पता किया?”
रामधन बोले, “वह चाहती है कि पूरी पैंशन के पैसे मैं घर में ही खर्च करूँ, बिजली का बिल, घर का टैक्स, किराने का सामन सब पर मैं ही खर्च करूँ और जरूरत पड़े तो अपने दोनों बड़े बेटों से पैसे लें, हमसे नहीं क्योंकि मेरे आदमी की आमदनी कम है। “
शिव शंकर जी ने सुझाव दिया, “बेटे बड़े हो गए हैं, बाल बच्चेदार हैं, उन्हें अलग अलग रहने दो। अपना अपना खर्च उठाएँ और अपनी मर्जी से जैसे चाहें वैसे खर्च करें।
रामधन चिडचिडाए, “यही तो रोना है। घर से निकल कर किराए पर कोई नहीं रहना चाहता। यहीं घर के एक एक कमरे में तीनों रहते हैं। पर मैं कहाँ जाऊँ? किसी एक के साथ रहता हूँ तो दो सोचते हैं कि मेरी पैंशन एक अकेला खा रहा है। बाजार से कोई चीज लाऊँ तो तीनों के बच्चों के लिए एक जैसी। जरा भी फेरफार हो जाए तो क्लेश। मैं जब बिजली का बिल भरने के लिए पैसे माँगूँ तो एक दूसरे से लेने के लिए कहते हैं पर देता कोई नहीं। “
शिव शंकर जी बोले,”अरे रामधन जब तक तुम बैसाखी बने रहोगे तब तक ये अपने पैरों पर खडे नहीं होंगे। आज की पीढ़ी हमारी पीढ़ी से तेज है। ऐसा करो तुम लम्बी तीर्थ यात्रा पर निकल जाओ और इन्हें अपने हाल पर छोड दो। और हाँ अपने दिल से उनकी चिंता निकाल दो। फिर देखॉ। “
रामधन तीर्थ यात्रा पर निकल जाते हैं। तीन महीने बाद लौट कर आते हैं तो तीनों बेटे बहुएँ बच्चे उनका बहुत सम्मान करते हैं और खुश होते हैं। घर का माहौल खुशनुमा देखकर रामधन मन ही मन प्रसन्न होते हैं और ईश्वर का धन्यवाद करते हैं। सबसे अधिक शिव शंकर जैसे सच्चे मित्र के प्रति आभार मानते हैं, जिनके परामर्श से उनका घर बिखरने से बच गया। रामधन ने माना कि उनके मित्र ठीक कह रहे थे कि आज की पढी पहली पीढी से अधिक समझदार है और आज के वैज्ञानिक व तकनीकी विकास के युग में अपनी जगह बना कर तल रही है, बस जरूरत इस बात की है कि उसे अवसर दिया जाए।
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)
गीता आज सुबह-सुबह कहां जा रही हो इतनी जल्दी-जल्दी तैयार होकर मां ने कहा।
आज हमें हाई कोर्ट चलना है । देखो क्या होता है भैया ने तो धोखे से सब कुछ तुमसे लिखा ही लिया और बाद में तुम्हें सड़क पर छोड़ दिया?
काश तुमने भैया पर ज्यादा विश्वास न किया होता ?
इतना बड़े मकान में पांच किराएदार थे।
किराए से भी तुम आराम से रह सकती थी लेकिन पिताजी की मृत्यु होते ही तुमने सब कुछ भाई को दे दिया।
मां के आँसू आज रुकने का नाम नही ले रहे थे ।
लाडो गुड़िया रानी कुछ मिल जाए तो तुम पर मैं बोझना न बनूंगी । इस उम्र में बेटी के घर में रह रही हूं। जीवन भर पानी नहीं पिया । काश ! यह बात मैं पहले ही समझ जाती कि मुझे अपनी बेटी को भी उसका हक देना है।
कमल जी बेटी को देखती है और उसे ढेर सारा आशीर्वाद देते हुए कहती हैं – बड़ी अदालत भगवान है। वह सब देख रहा है, अवश्य न्याय करेगा।