English Literature – Poetry ☆ Emotions in Flux… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present Capt. Pravin Raghuvanshi ji’s amazing poem “~ Emotions in Flux ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.) 

? ~ Emotions in Flux… ??

When the cat kills, our emotions sway,

With different views, for different prey

*

When it kills pet parrot, a prized friend,

Its death brings a rage that will not end

*

But when it kills a deadly menacing rat,

We feel pleasurable relief, a different fact

*

Our attachments shape our deep insight,

Biases guide our changed emotions’ might

*

Desires are born out of preposterous plight,

Perceived waves lead us to pseudo delight

*

We react with ecstatic joy or utter disdain,

Governed by our fancied prejudiced pain

*

Still we do strive to indulge in love to dare,

With good Karma sown, and faith we share

*

Yet results may vary with unexpected delay,

But perseverance blooms, come what may

~Pravin Raghuvanshi

 © Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune
23 March 2025

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #44 – गीत –  प्रेम रंग डालें कान्हा… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतप्रेम रंग डालें कान्हा

? रचना संसार # 44 – गीत – प्रेम रंग डालें कान्हा…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

नटखट कान्हा बीच डगर,

करता बरजोरी।

डूब रही है श्याम रंग,

ब्रज की भी छोरी।।

 

 शोर मचाती निकली है,

 मस्तों की टोली।

 कान्हा मारे पिचकारी,

 भीग गयी चोली।

 रंग की फुहारें चलतीं,

 जैसे हो गोली।।

 तन मन भी भीगा राधे,

 कैसी ये होरी।

 

 प्रेम रंग डालें कान्हा,

 छाईं है लाली।

 राधे मदहोश रंग में,

 मीरा मतवाली।।

 चुपके से आती ललिता,

 है भोली भाली।

 हँसी ठिठोली करतीं सब

 ब्रज की तो गोरी।।

 

मनहर मूरत मोहन की,

जादू है डाला।

चंचल चितवन कान्हा के

गले मणिक माला।।

छैल छबीला रसिया है,

गोकुल का ग्वाला।

मोहित ब्रज की हैं बाला,

पकड़ गई चोरी।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 652 ⇒ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य का एपिसेंटर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी पुस्तक चर्चा – “व्यंग्य का एपिसेंटर।)

?अभी अभी # 652 ⇒ पुस्तक चर्चा –  व्यंग्य का एपिसेंटर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यह शीर्षक मेरा नहीं !

छप्पन भोग की तरह जहां छप्पन व्यंग्य एक जगह एकत्रित हो जाएं, वह वैसे भी व्यंग्य का एपिसेंटर बन जाता है। मेरे शहर में कई बाज़ार हैं, कई चौराहे हैं और कई सेंटर ! कपड़ों की दुनिया में जहां कटपीस सेंटर से लगाकर महालक्ष्मी वस्त्र भंडार तक मौजूद है। औषधि हेतु अगर भरा पूरा दवा बाजार है तो हर शॉपिंग मॉल में एक अदद बिग बाजार और ट्रेड सेंटर का तो मानो यत्र तत्र सर्वत्र साम्राज्य ही है।

पुस्तक और पाठक के बीच, लेखक ही वह मध्यस्थ है, जो दोनों को आपस में मिलाता है। बहुत कम ऐसा होता है कि पुस्तक तो पढ़ ली जाए और लेखक को भुला दिया जाए। कुछ कुछ पुस्तकें तो इतनी प्रभावशाली होती हैं कि जोर जबरदस्ती के बावजूद ( तीन चार वाक्य अगर अतिशयोक्ति न हो तो) और मन मारकर भी तीन चार पृष्ठों से आगे नहीं पढ़ी जाती। और हां, ऐसे लेखक हमेशा याद रहते हैं। ऐसे श्री कर्नल रंजीत को दूर से ही प्रणाम है। ।

रोटी, कपड़ा और मकान की ही तरह होता है, लेखक, प्रकाशक और पाठक। अगर लेखन प्रकाशित नहीं हुआ, तो पाठक तक कैसे पहुंचेगा। अतः जो छपता है, वही लेखक है। पहले समर्थ लेखक अखबार और पत्र पत्रिकाओं में छपता है, पाठक उसे पसंद करते हैं, जब उसकी पहचान बन जाती है तो एक पुस्तक का जन्म होता है। महाकाव्य, उपन्यास और गंभीर किस्म का लेखन वर्षों की मेहनत, लगन, और साधना के बाद ही एक पुस्तक का रूप धारण कर पाता है।

तुम्हें जिन्दगी के उजाले मुबारक, विसंगतियां मुझे रास आ गई हैं। करें, जिनको संतन की संगत करना हो, यहां तो संगत, विसंगति की कर ले।।

सुश्री समीक्षा तेलंग

एक अच्छे लेखक को उसकी कृति ही महान बनाती है। एक वक्त था, जब पाठक केवल एक पाठक था, गंभीर अथवा साधारण ! लेखक से उसका आत्मिक और भावनात्मक संबंध तो होता था, लेकिन संवाद और साक्षात्कार संयोग और विशेष प्रयास से ही संभव हो पाता था। सोशल मीडिया और विशेषकर फेसबुक से वह सृजन संसार के और अधिक निकट आ पाया है, जहां अपने प्रिय लेखक से न केवल संवाद संभव हो सका है, अपितु दोनों परस्पर परिचय और मित्रता की राह पर ही चल पड़े हैं। मैं एक अच्छे लेखक को कभी दूर के ढोल सुहाने समझता था, अब तो मन करता है, जुगलबंदी हो जाए।

मेरे जैसे एक नाचीज़ औसत पाठक को जब फेसबुक ने कोरा कागज दिया, एक सजा सजाया की बोर्ड के रूप में मनमाफिक फॉन्ट उपलब्ध कराया और एक शुभचिंतक की तरह अनुग्रह किया, यहां कुछ लिखें, Write something here, तो एक अच्छे आज्ञाकारी बच्चे की तरह मैं भी कुछ लिखने लगा। मेरी भी कलम चलने लगी। फेसबुक पर कलम चलेगी तो दूर तलक जाएगी और मेरे हाथों अभी अभी का जन्म हो गया।।

फेसबुक एक बहती ज्ञान गंगा है। मैने इस बहती गंगा में ना केवल हाथ धोया है, बल्कि कई बार डुबकी भी लगाई है। गंभीर चिंतन मनन, अध्यात्म, कला, संगीत और साहित्य के साथ साथ सहज हास्य विनोद और व्यंग्य के एपिसेंटर तक पहुंचने का सुयोग मुझे समीक्षा तेलंग के सौजन्य से प्राप्त हुआ है।

एक समर्थ व्यंग्यकार की जीभ भले ही अनशन पर हो, लेकिन उसकी लेखनी कभी कबूतर का कैटवॉक करती नज़र आती है तो कभी समाज के सम सामयिक विषयों पर वक्र दृष्टि डालने से भी नहीं चूकती। साहित्यिक गुटबाजी और महिला विमर्श जैसे लिजलिजे प्रलोभनों और प्रपंचों से कोसों दूर, केवल सृजन धर्म को ही अपना एकमात्र लक्ष्य मान, प्रचार और प्रसिद्धि से दूर, अनासक्त और असम्पृक्त रहना इतना आसान भी नहीं होता। ।

समीक्षा जी को पढ़ने के बाद कुछ भी समीक्षा लायक नहीं रह जाता। बस मन करता है, पढ़ते ही जाएं, एक एक व्यंग्य को एक बार नहीं, कई कई बार ! साहित्य में कई नामवर आलोचक हुए, राजनीति में जो आलोचना का हथियार विपक्ष के पास था, भले ही आज उसे सत्ता पक्ष ने हथिया लिया हो, लेकिन

व्यंग्य की आज भी आलोचना नहीं हो सकती, सिर्फ समीक्षा हो सकती है। और जब समीक्षा जी खुद जहां मौजूद हों, वहां समीक्षा भी नहीं, सिर्फ तारीफ, बधाई और साधुवाद..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #271 ☆ भावना के मुक्तक – नारी ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के मुक्तक – नारी )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 271 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक – नारी ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

चांदनी जैसी प्यारी है उसकी हंसी । ।।

सांस महके गुलाबों की गुल में बसी।

छू गई जो हवा बन के पागल कहीं,

धड़कनें बजती है रागिनी सी फंसी।

*

चाहे चलती हैं जोरो से भी आंधियां ।

मुश्किलों में भी रुकती नहीं नारियां ।

उसके हिम्मत के चर्चे बहुत है मगर ,

ऊंचा इतिहास रचती है  ये नारियां।।

*

जो धरा की तरह सब सहती रही

जो जल की तरह सिर्फ बहती रही

जो समझता है कमजोर दुनिया में,

लौह बनकर मजबूत होती रही।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #253 ☆ संतोष के दोहे… मोह-माया ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  – संतोष के दोहे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 253 ☆

☆ संतोष के दोहे… मोह-माया ☆ श्री संतोष नेमा ☆

दो रोटी दो जून की,खाकर शांति होय

पर माया में लिपट के,मन का आपा खोय

*

मन का आपा खोय,लालसा पड़ती भारी

धन दौलत का मोह,अज़ब है दुनियादारी

*

कहते कवि “संतोष”,लालची होता है जो

वक्त सिखाता सीख,माया बन्धन तोड़ दो

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 246 – राम कवन स्तवन…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 246 – विजय साहित्य ?

☆ राम कवन स्तवन…!

मालिनी वृत्त.

(करुणाष्टक)

 दशरथतनय ज्याची,

जाहली वंद्य कीर्ती.

रघुकुलतिलक आजी,

भावली‌ बालमुर्ती.

उचित समय येता,

धावला मोक्ष दाता.

दशरथ सदनासी,

जन्मला राम ध्याता…!१

 *

फुलवित पालवीला,

गुंगला वात जेथे .

घडवित बाल लिला,

जन्मला राम तेथे.

चरणकमळ रामा,

देतसे सौख्य छाया.

नमन तुज‌दयाळा,

पाव रे राम राया…! २

 *

अचपळसकळ लीला,

सावळी दिव्य कांती.

नवकमलदल नेत्री,

दाटली विश्वशांती.

अवघड पण‌ साचा,

भंगला चाप आर्या.

जनक सुनयनाची,

कन्यका राम  भार्या…!३

 *

वचन चरण साक्षी,

थांबले भाग्य जेव्हा

भरतसदन गेही,

नांदले सौख्य‌ तेव्हा.

निजसुख टाळणारा,

राम बंधू  मिळावा

सकलसौख्य दायी,

राम चित्ती वसावा…! ४

 *

कवन स्तवन वंदू,

राम नामा मुखाने.

हसत हसत नेतो,

पार नौका सुखाने.

करकमल जयाचे,

वंदितो नित्य धामी.

शरण तुज दयाळा,

धाव रे चक्रपाणी…! ५

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मीच ओलांडले मला ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मीच ओलांडले मला ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

मीच ओलांडले मला

जेव्हा तुझी सय आली.

तुझ्या पाऊस स्पर्शाने

काया झाली मखमली

*

मीच ओलांडले मला

मन जेव्हा मळभले

एका प्रकाश-किरणी

मळभ विरुनिया गेले.

*

मीच ओलांडले मला

चांदण- चकव्याची भूल

पडे विसर घराचा

पाय कुठे ग नेतील?

*

मीच ओलांडले मला

आले तुझिया चरणी

देई देई रे आसरा

आता मला चक्रपाणी

© सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३  सेक्टर – ५, सी. बी. डी. –  नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र

मो. 836 925 2454, email-id – [email protected] 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जीवनगाणे… ☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

श्री अनिल वामोरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ जीवनगाणे☆ श्री अनिल वामोरकर ☆

वाटेला आलेले

जगलो जीवन

आव्हाने पेलीत

चालत राहीलो..

*

निवांत क्षणी

भूत आठवला

हळूच हसलो गाली

पण होतो कधी रडलो..

*

बसलो सुसज्ज अशा

मखमली सोफ्यावर

आठवले मज मग

लोखंडी खुर्चीत बसलेलो..

*

पुर्ण बाहीचा सदरा

सुखावह स्पर्ष तो

भयावह ते दिवस

का उगा आठवित बसलो…

*

गुणगुणतो गाणे

माझेच वाटे मजला

दुखभरे दिन बितेरे भैया

अब सुख आयो रे

रंग जीवन मे नया अब आयो रे…

© श्री अनिल वामोरकर

अमरावती

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ कवी आणि काव्य… ☆ प्रा. सुनंदा पाटील ☆

प्रा. सुनंदा पाटील

? विविधा ?

☆ कवी आणि काव्य… ☆ प्रा. सुनंदा पाटील ☆

कवितेविषयी माझंही एक छोटंसं स्फुट -***

✍ “ कवी व काव्य”

✍ गद्य विद्वत्तेची रांग

पद्य तुक्याचा अभंग

अगदी मोजक्या शब्दात काव्याची केलेली व्याख्या. सर्वांना पटेल आणि रुचेल अशीच,.

कोण असतो कवी ?

काय असतं काव्य ?

व्हिक्टर ह्युगो म्हणतात, त्याप्रमाणे कवी म्हणजे एका देह कोशात सामावलेली समग्र सृष्टी.

एखाद्याला जे काही सांगायचंय ते गद्यात चार पाने किंवा चारशे पाने होईल. आणि तेच काव्यात फक्त चार ओळीत सांगता येईल,. ही आहे ताकद कवितेची.

सुख दुःख, प्रेम विरह, श्रीमंती गरिबी, आई वडिल, परमेश्वर, पंचमहाभुते, भूत भविष्य वर्तमान, कुठलाही विषय कवीला आणि पर्यायाने काव्याला वर्ज्य नाही.

एकाच कवितेतून प्रत्येक रसिक वेगवेगळा अनुभव घेऊ शकतो.

कसं असतं काव्य?

 अक्षरे सांधुनी ओली

शब्दांचे राऊळ झाले

अर्थाच्या गाभाऱ्याशी

कवितेचे विठ्ठल आले

आणि अशा काव्याला म्हणावंच लागत नाही की,

” माझे काव्य रसाळ रंजक असे

ठावे जरी मन्मना

” द्याहो द्या अवधान द्या ” रसिकहो

का मी करू प्रार्थना ? “

रसिकहो, कवी या शब्दाच्या भोवती किती आवरणं असावीत? आणि काव्याचे तरी किती प्रकार?

ओवी, अभंग, श्लोक, भूपाळी, आरती, वेचे, कविता, गझल, अष्टाक्षरी, भावगीत, भक्तीगीत, बालगीत, बडबडगीत, बोलगाणी, पाळणे, डोहाळे, उखाणे, लावणी, पोवाडे ‘, समरगीत, स्फूर्ती गीत, देशभक्ती गीत, प्रार्थना अबबब. आणखी कितीतरी आहेत. तरीही कवीची ही काव्यकन्या दशांगुळे उरलेली असतेच.

जवळजवळ प्रत्येक कवीने काव्या विषयी खूप काही लिहून ठेवलंय

केशवसुत तर साभिमान म्हणतात

आम्हाला वगळा गतप्रभ झणी होतील तारांगणे

आणि हे खरं आहे. श्री रामप्रभू घराघरात पोहचले कारण, वाल्मिकी, तुलसीदास आणि आधुनिक वाल्मिकी गदिमा यांच्यामुळे, असं म्हटल्यास वावगं होणार नाही.

कवी हा आपल्याच एका विश्वात रमणारा प्राणी असतो. त्याच्या आनंदात आपण सर्वांनी सहभागी व्हायला हवं. कवीला येणारा अनुभव हा साधुसंतांना येणाऱ्या आध्यात्मिक आनंदाच्याच जातीचा असतो.

कवितेवर जो प्रेम करू शकतो, काव्यानंदाचा जो उपभोग घेऊ शकतो, त्याचा आत्मा कधीही मलीन होणे शक्य नाही. त्याच्या ठायी मानवी दोष, उणिवा, दुबळेपणा, असेलही कदाचित, पण त्याचा आत्मा मात्र सदैव एका तेजोमय वातावरणात भरारी घेत असतो. प्रत्येक कवी हा ” ज्ञानोबामाऊली तुकाराम ” या मध्यमपदलोपी समासा इतकाच मोठा आहे.

उंची इमला शिल्प दाखविल

शोभा म्हणजे काव्य नव्हे

काव्य कराया जित्या जिवाचे

जातीवंत जगणेच हवे

राहिला प्रश्न रासिकाचा

रसिकहो थोडेसे तरी काव्य आपल्या वृत्तीत असल्याखेरीज तुम्हाला खऱ्या काव्याचा साक्षात्कार कुठेही होणार नाही.

शेवटी काय ?

कवी मनमोहन म्हणतात

शव हे कवीचे जाळू नका हो

जन्मभरी तो जळतची होता

फुले त्यावरी उधळू नका हो

जन्मभरी तो फुलतची होता.

धन्यवाद!

© प्रा.सुनंदा पाटील

गझलनंदा

८४२२०८९६६६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “राजं…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “राजं…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

आई मी आता मोठा झालोय बघ.. करून येऊ दे कि मला एकट्याने जंगलची सफर… घेऊ दे कि मला शिकारीचा अनुभव… कळू दे इतर प्राण्यांना या छोट्या युवराजची काय आहे ती ताकद… जंगल राजांच्या दरबारात मलाही जायचं राजांना मुजरा करायला… आलो आहे आता तर सामिल करुन घ्या मला तुमच्या सैनिक दलात.. मी लहान कि मोठा याचा फारसा करू नका विचार तुम्ही खोलात… बऱ्या बोलानं जे तुमचा हुकूम पाळणार नाहीत… त्यांची काही मी खैर ठेवणार नाही.. जो जो जाईल विरोधात या राजाच्या त्याचा त्याचा करीन मी फडशा फडशा… मग तो कुणी का असेना दिन दुबळा वा बलवान… त्याला राजा पुढे तुकवावी लागेलच आपली मान… राजाच्या पदरी मुलुखगिरीचा होईन मी शिपाईगडी.. स्वारीला जाऊन लोळवीन ना एकेका शत्रूची चामडी.. गाजवीन आपली मर्दुमकी मग खूष होऊन राजे देतीलच मला सरदारकी… मग दूर नाही तो दिवस चढेल माझ्या अंगावरती झुल सरसेनापतीची.. बघ आई असा असेल तुझ्या लेकराचा दरारा… भितील सारी जनाता कुणीच धजणार नाही माझ्या वाऱ्याला उभा राहायला.. मिळेल मला मग सोन्या रूप्याची माणिक मोत्यांची नि लाख होनांची जहागिरी.. जी माॅ साहेब म्हणतील तुला सदानकदा कुणबिणी वाड्यात करताना चाकरी… ते दिवस नसतील कि फार दूरवर बघ यशाचे आनंदाचे नि सुखाचे आपले दारी गज झुलती.. आई मी आता मोठा झालोय बघ करू दे कि मला राजाची चाकरी… “

“अरे तू अजून शेंबडं पोरं आहेस.. अजूनही तुझं तुला धुवायचं कळतं तरी का रे… नाही ना.. मग आपण नसत्या उचापतींच्या भानगडी मध्ये नाक खुपसू नये समजलं… आपला जन्म गुलामगिरी करण्यासाठी झालेला नाही.. ताठ मानेने नि स्वतंत्र बाण्याने जगणारं रे आपलं आहे कुळ… जीवो जीवस्य जीवनम हाच आहे आपल्या जगण्याचा मुलमंत्र… पण म्हणून काही उठसुठ विनाकारण आपण दीनदुबळ्यांची शिकार करत नाही… जगा आणि जगू द्या हाच निर्सागाचा नियम आपण पाळत असतो… आणि अत्याचार कुणी करत असेल इथे तर त्याला सोडत नसतो.. पण जे काही करतो ते स्वबळावर… कुणाच्या चाकरीच्या दावणीला बांधून गुलामगिरीचं जिणं कधीच जगत नाही… त्यांनी म्हटलं पाहिजे असा कनवाळू राजा दुसरा आम्ही कधी पाहीलाच नाही… असा ठेवलाय आपण प्रेमाचा दरारा सगळ्या जंगलाच्या वावरात… म्हणून तर आजही आपलं आदरानं नावं घेतलं जात घराघरात… तुला व्हायचं ना मोठं मग हे स्वप्न तू बाळगं आपल्या उराशी… राज्यं असलं काय नि नसलं काय काही फरकच पडत नसतो आपल्याला असल्या टुकार, लबाड, विचाराशी… आपणच आपल्याला कधी राजे म्हणवून घ्यायचंय नाही ते रयतेने विनयाने, आदराने म्हणत असतात ते पहा ते निघालेले दिसताहेत ना ते आमचे राजे आहेत… समजलं…

©  श्री नंदकुमार इंदिरा पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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