डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन । वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी का लम्बा किन्तु , विचारणीय एवं पठनीय आलेख ” मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा“। वास्तव में यह संस्मरणात्मक आलेख मानवता के अदृश्य शत्रु के कारण सारे विश्व में व्याप्त भय के वातावरण में अनुशासन ही नहीं अपितु, इस भय से भी लाभ कमाने वालों को नसीहत देता दस्तावेज है। मानवता के इस सफरनामे के माध्यम से डॉ गंगाप्रसाद जी ने अपने संवेदनशील हृदय की मनोभावनाओं को रेखांकित किया है। डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी के इस सार्थक एवं समसामयिक आलेख के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन। )
☆ संस्मरणात्मक आलेख – – मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा ☆
दिनांक –26-03- 2020
दिन-गुरुवार, समय 2:42
सुबह-सुबह मेरे ड्राइवर ने आकर दस्तक दी। आते ही जुमला उछाला, ‘जो डरा सो मरा’। मैंने यह जानते हुए भी कि जुमला मुझ पर ही उछाला गया है सिर नीचे कर बाउंसर जाने दिया। वह गेट के बाहर ज़मीन पर ही बैठ गया और उसके ठीक पीछे लिफ्ट के बगल वाली सीढ़ियों पर उसकी बीबी जिसे कोरोना के डर से हमने बर्तन मांजने से चार दिन पहले ही मना किया है। मेरा अनुमान यही है कि मेरी ही तरह के और भी सामान्य काल के वीरों और संकट काल के भीरुओं ने उसे मना कर दिया होगा। अन्य दिनों की तरह ना तो उसे अंदर आने को कहा और ना ही कुर्सी ही ऑफ़र की। पहले भी वह भीतर भले आ जाता था पर कुर्सी पर कभी नहीं बैठा। हमेशा यही कहता था ‘साहब हमें ज़मीन पर ही बैठना अच्छा लगता है।’ उसका इस तरह बैठना मुझे पहले अच्छा लगता रहा है। कल उसका जमीन पर बैठना मुझे उतना बेतकल्लुफ नहीं लगा सो अच्छा भी नहीं लगा लेकिन इसे बुरा लगना भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह अखरने वाली बात मुझे उसके जाने के बाद पता चली।
25 फ्लैट वाले हमारे अपार्टमेंट का वह केयर टेकर भी है। इन दिनों उसकी पत्नी, दो बेटे और उसे मिलाकर परिवार के कुल 4 सदस्य बस एक कमरे में गुजर-बसर करते हैं। कोई तीन-चार महीने पहले उसका बड़ा बेटा, बहू और पोती भी इसी के साथ रहते थे। यानी इसका कुल मिलाकर 7 जनों का कुनबा है। लेकिन जिन दिनों इसके बहू बेटा साथ रहते थे, केवल वही कमरे में सोते थे और शेष जन 12:00 बजे रात के बाद बाहर की पार्किंग में अपनी अपनी खाट बिछाकर सो जाते थे। लेकिन ये सभी तभी सो पाते थे जब अपार्टमेंट के मुख्य द्वार पर ताला लग जाए और ताला लगने का समय 12:00 रात निर्धारित है। इसके बावज़ूद ‘निबल की बहू सबकी सरहज। ‘आने जाने वालों की आज़ादी के कारण ताला कभी-कभी एक-दो बजे भी खोलना पड़ता है। संभव है कि इन दिनों इन लोगों को कुछ राहत हो क्योंकि अभी लॉकडाउन का काल है। यह सब केवल मैं अनुमान से कह रहा हूँ । वह इसलिए कि दो दिनों से नीचे उतरना क्या दरवाज़े से बाहर भी कदम नहीं रखा है। लेकिन केवल नींद ही तो सब कुछ नहीं है भूख भी तो कुछ है। नींद भी तभी लगती है जब पेट में कुछ पड़े। जब मुझ पेट भरे हुए को नींद नहीं आ रही है तो उन्हें कैसे आती होगी। रोज कुआं खोदकर पानी पीने वालों का दर्द भला वे क्या जानेंगे जिनके घर बिसलेरी की बोतलें आती हैं।
बीते रविवार को ये लोग अपने भांजे की मंगनी में गए थे। ज़ाहिर सी बात है सारी जमा पूंजी वही खरच आए होंगे। ड्राइवर के उस जुमले पर जो जीवन का असली फलसफा था मैंने सौ रुपए निछावर किए तो उसने ऐसे लपक लिए जैसे कोई बंदर हाथ से थैली लपक लेता है। ऐसा एक वाकया उज्जैन में वास्तव में मेरे साथ उस समय घटा था जब भैरवनाथ के दर पर गया था। चढ़ाने जा रहे प्रसाद को एक लंगूर मेरे हाथ से बिजली की गति से लपक ले गया था। यह तो गनीमत है कि प्रसाद वाले के द्वारा लाख कहने के बावजूद मैंने शराब की बोतल नहीं ली थी। नहीं तो हो सकता है कि वह उसे भी लपक ले जाता और मेरे ही सामने बैठकर गटकता। इंसान के भीतर की पीड़ा के लिए इतनी भोंड़ी उपमा मैं उसके अपमान के लिए नहीं अपितु उसकी ज़रूरत की तीव्रता को दर्शाने के लिए दे रहा हूँ। यद्यपि मेरे बिस्तर पर डेढ़ सौ रुपए और पड़े थे लेकिन एटीएम के कुंजीपटल को दबाने के डर से मेरे मन ने पुनः अपने बढ़े हुए हाथ सायास रोक लिए थे। उसकी पत्नी को कुछ दिनों के लिए काम से विरमित के कारण और कुछ अपने जीवनानुभव से भी उस अपढ़ ने मेरे डर को पढ़ लिया था। इसमें झूठ भी क्या है। आज की रात मिलाकर दो रातें हो रही हैं बिना सोए हुए। यह डर नहीं तो और क्या है!
मेरी पत्नी शुगर की मरीज़ है। टीवी पर बार-बार शुगर वालों को हाई रिस्क कहा जा रहा है। इटली में रह रहे एक भारतीय शेफ और देशभक्त गायिका श्वेता पण्डित के डरावने अनुभव वाले वीडियो। इसी तरह से अन्य देशों के डरावने दृश्यों से भरे संदेश पर संदेश के बावज़ूद अपने कुछ देश वासियों की नादानियां और भी डराती हैं। इस वज़ह से कई दफ़े टी वी बंद करके कुछ ही मिनटों में पुन: उसे खोल के बैठ जाता हूँ।
बच्चे और नातिनें पोतियाँ,नाते रिश्तेदार और मित्र हमसे दूर हैं। उनके ठहाके और दूर से दिखने वाले चेहरों की आभासी खुशी जब तक देखता हूँ खुश रहता हूँ। उसके बाद फिर वही मायूसी। कंपनी के काम से गया बीमार भांजा इन्दौर में फँस गया है और भतीजा बंगलौर में। गाँव में माँ और भाई, उनकी पत्नियाँ, बहुएँ और पोते-पोतियाँ। लब्बोलुआब यह कि बहिनें और उनके परिवार समेत पूरा कुनबा अलग-अलग गाँवों और शहरों में। इन सबसे कम से कम बारह सौ से डेढ़ हज़ार किलोमीटर दूर बैठा मैं। डर को इतने भयावह रूप में वह भी इतने करीब से बल्कि अपने ही भीतर ज़हर बुझे बरछे की मानिंद धंसे पहले कभी नहीं देखा। शायद अपने-अपने जीवन में पहली दफ़ा इतने बड़े और अदृश्य शत्रु से हर कोई अकेले लड़ रहा है। यह भी इस धरती के इतिहास का पहला युद्ध है जिसे एक जुटता के साथ किंतु अकेले-अकेले लड़ते हुए घर बैठे जीता जा सकता है।
टीवी चैनलों पर बैठे डरे-डरे चेहरे और भी डरा रहे हैं। उनसे भी ज़्यादा विकसित देशों से आने वाली खबरें डरा रही हैं। फिर हम क्यों ना डरें। आखिर हम भी तो हांड़-माँस के ही हैं ना। जिसके परिणाम का पता ना हो डर लगता ही है। बड़े से बड़ा प्रतिभाशाली विद्यार्थी भी परीक्षा परिणाम के पूर्व डरा डरा-डरा रहता है। यह दीगर बात है कि बाद में वह कहे कि मैं अपने परिणाम से आश्वस्त था। मैं भी अपनी ही तरह के डरे हुए दूसरे बुद्धिजीवियों की तरह बाद में झूठ बोलूं इसके पूर्व ही अपने डर को लिपिबद्ध कर लेना चाहता हूँ। हो सकता है कुछ दिन बीतने के बाद मैं इसे लिख देने के बावज़ूद अपनी ईमानदारी कह कर कॉलर ऊँचा करूँ। अपने को खुद ही हरिश्चंद्र या गाँधी पुकारूँ। इसे अपना अप्रतिम साहस बताऊँ। यह और बात है। पर, अभी तो अपने भीतर का डर यथार्थ है। वास्तविक है।
ऊपर मैं जिस ड्राईवर की बात कर रहा था ऐसे न जाने कितने हर गली, हर मोहल्ले, हर गांव और हर शहर में पड़े होंगे। बहुतेरे नालों के किनारे की झुग्गियों में भी होंगे। कूड़ेदानों और भिनभिनाती मक्खियों (इससे अनजान कि मक्खियाँ भी कोरोना की संवाहिका हैं) से भरे कूड़े के ढेरों में जीविका खोजने वालों पर ढेर के ढेर मुंह बना रहे होंगे। उन सबके चूल्हे ठंडे पड़े होंगे। शराबियों की बीबियाँ अपने शौहरों को अब न कोस रही होंगी। जब कोई काम पर ही न गया होगा तो पिएगा क्या? अब वह भी अपनी करनी पर पछता रहा होगा। सुनारों की दुकानें भी नहीं खुली होंगी जहां अपने इकलौते जेवर पायल या बिछियों को बेचकर कोई मजबूर मज़दूरन अपने बच्चों के लिए आटा ला सके। माना कि इनकी नींद तो इस मज़बूरी से भी उड़ी होगी। परंतु मेरी नींद क्यों उड़ी हुई है?
कल के पहले मेरा यही ड्राइवर जिसका नाम ए बी चौहाण है, स्वाभिमानी लगता रहा है। ज़बरन देने पर ही इसने कभी कुछ पैसे अपनी हथेली पर रखने दिए हैं। लेकिन कल उसमें यह स्वाभिमान गायब-सा दिखा। अपने स्वाभिमान की भरपाई एक और नए जुमले से की कि, ‘मौत से वह डरे जिसके पास कुछ हो। मेरे पास न तो कोई दुकान है न मकान फिर मैं क्यों डरूं।’ शायद यही जीवन दर्शन अन्य निर्धनों का भी हो। हमें उन्हें डराने से अधिक समझाना है। मुझे लगता है हम बुद्धिजीवियों ने यही नहीं किया।
मुंबई और पुणे से अपने-अपने वतनों को गठरी लादे भाग रही भीड़ों का भी ध्येय वाक्य मेरे ड्राइवर वाला ही ध्येय वाक्य रहा होगा। हो यह भी सकता है कि सामने खड़ी मौत के डर और भूख के भय की वज़ह से इंसान से भीड़ में तब्दील यह जन सैलाब ‘मरता क्या न करता’ की रहन पर हज़ार-हज़ार किलोमीटर तक के सफ़र पर पैदल, रिक्शे, साइकिल, ट्रेन या बस में ठूंसे-ठूंसे जाने को खुशी-खुशी तैयार हो। इन सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां हैं। पर वे सड़क की ओर पागलों की तरह क्यों भागे जा रहे हैं जिनके घर कम से कम महीने भर का राशन है। मौज़-मस्ती के चक्कर में उठ-बैठ रहे हैं या फिर पुलिस से धींगामुश्ती कर रहे हैं। कोई जन प्रतिनिधि वह भी विधायक सपर्पित चिकित्सकों के लिए गालियों का उपहार दे रहा है। हाथ उठा रहा है। इनमें कुछेक सही भी हो सकते हैं। पर पुलिस भी इतनी पागल या महाबली नहीं कि दिन भर भागती हुई लाठियाँ ही भाँजती रहे। पुरी की सब्जी मंडी से भी हम कुछ सीख ले सकते हैं।
मेरा डर कुछ इसलिए भी बढ़ा है क्योंकि कल रात को 9:00 बजे से ही कुत्ते भौंकने लगे थे। अभी जब सुबह के 4:00 बज रहे हैं कहीं से भी कुत्तों के भौंकने की आवाज़ नहीं आ रही है और न ही सड़क पर किसी भी प्रकार के वाहन का स्वर। फर फर फर फर पत्तियां फड़काने वाली सामने की नीम भी मौन है और कभी हर हर हर हर हरहराने वाले कोने वाले पीपल बाबा भी।
नींद अभी तक नहीं आई है और सात बजते-बजते टीवी पर देखता हूँ कि मुश्किल से पाँच साल का बच्चा अपने पिता को ड्यूटी पर नहीं जाने दे रहा है। रो-रो कर उसका बुरा हाल है। वह अपने पिता से गुहार कर रहा है कि, “पापा प्लीज़ बाहर मत जाओ कोरोना है।” बिलखते बच्चे और पिता को कर्तव्य और वात्सल्य के बीच झूलते कारुणिक दृश्य किसे नहीं द्रवित कर देंगे। पिता आखिर चला गया और बाहर जाकर रोया होगा। यही सोच-सोच कर मेरी आँखें अभी तक नम हैं। भीतर-बाहर कहीं से भी कुछ भी सामान्य नहीं लग रहा है। कभी-कभी लगता है कि कहीं यह सब कुछ अपने ही भीतर का रचा हुआ तो नहीं है जो उमड़ घुमड़ कर बादलों-सा फट पड़ने को आतुर है। लेकिन हाथ-पाँव पटक-पटक बेहाल हुए जा रहे बच्चे के विलाप को कैसे झुठलाऊँ।
बच्चे से बूढ़े तक में व्यापे डर के इतने सारे रूप और कारणों के होते हुए भी हमारे पास ऐसा बहुत कुछ है जो जीवन के प्रति साहस बढ़ाने और आशा बँधाने के लिए पर्याप्त है बल्कि पर्याप्त ही नहीं पर्याप्त से भी कुछ अधिक है। अपवाद स्वरूप एकाध जनप्रतिनिधियों की नापाक हरक़तों के विपरीत विधायकों, सांसदों, सरकारों की राहत वाली घोषणाएँ। करोड़ों गरीबों के लिए हाथ बढ़ाते भामा शाह। भूखों को खाना खिलाते, सैनेटाइज़र और मास्क लिए राहों में खड़े उत्साही नागरिक। अपनी आँखों के तारे को झिटक कर ड्यूटी जाते पुलिस कर्मी। अपनी गीली आँखों से अपने परिवार को भूले हुए उनसे महीनों से दूर राष्ट्रीय गौरव को बढ़ाते समर्पित चिकित्सक। इनमें से बहुतों की हफ्तों और महीनों से उड़ी नीँदें भी मेरी नींद उड़ने का कारण है। हमें क्या पता कि हमारे प्रधानमंत्री, उनके मंत्रिमंडल के सदस्य और अधिकारी कब से नहीं सोए हैं। कर्मचारी कब नहाते-धोते हैं। इसका पता तो उनके घर वालों को भी नहीं होगा। सब कुछ सबसे नहीं कहा जा सकता। कुछ बातें महसूसने की भी होती हैं। शायद मेरी बेचैनी का एक कारण यह भी है।
अपनी महासागरीय संस्कृति महाप्रलय के बाद भी सँभली है। संस्कृति-शूरों के शौर्य और धैर्य से धरती लहलहाई है। इस संकट काल में कल्पना करें कि मनु का अकेलापन हमारे इस अकेलेपन या घर में अपनों के बीच बैठकर समाज से कटाव (वह भी करुणार्द्र अपील के साथ कही जा रही ‘दूरी पर रहने’ का) से कितना बड़ा रहा होगा। निश्चय ही अपने आयतन में भी और गुरुत्त्व में भी हमारे इस एकांतवास से यहाँ तक कि कैदियों के एकांतवास से भी इतना बड़ा रहा होगा जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। उसकी तुलना में हमारा यह अकेलापन कितना लघु, हल्का और सीमित है। लक्ष्मण को शक्ति लगने के बाद वाले राम, यदुवंश के सर्वनाश के बाद वाले कृष्ण, पुत्र के दाह संस्कार के लिए अपनी ही पत्नी से कर मांगते हरिश्चंद्र, अपने बेटों को दीवार में चुने जाते देखने वाले गुरु गोविंद सिंह हों या दूसरे सिक्ख गुरु थाल में अपने ही बेटे का कटा सिर इस उपहास के साथ हृदय विदारक दृश्य को देखते-सहते हुए कि, ‘यह तरबूज है।’ मानव जाति और राष्ट्र के लिए अपने को इन विषम स्थितियों में संभालने वाले परम साहसी और सन्तोखी गुरु हों या फिर शीश महल गुरुद्वारा पर मत्था टेकते ही आज भी रोंगटे खड़े कर देने जैसे असर रखने वाले क्रूरता के शिकार हुए गुरु तेग बहादुर जैसे वीर बहादुर हों। क्या ये वीर बहादुर हमें कुछ भी साहस नहीं देते? हमारा मनोबल नहीं बढ़ाते? बढ़ाते हैं। बहुत बढ़ाते हैं तभी तो हम अब तक अजेय माने जाने वाले शत्रु के सामने पहाड़-सा सीना ताने खड़े हैं।
बात सिर्फ इतनी-सी ही नहीं है कि हम इन साहसी त्यागियों और बलिदानियों से कुछ भी साहस नहीं ले पा रहे हैं। बात कुछ और है जिसके कारण हमारी साहसी और बलिदानी संस्कृति के संवाहक प्रबुद्ध जन तक के भीतर भी डर समाया हुआ है और मेरी ही तरह और भी बहुतों की नींद उड़ी हुई है। हमारे इन बलिदानियों के शत्रु दृश्य थे और हमारा शत्रु अदृश्य।
इन कारणों के बीच से अपना सिर उठाता एक और बड़ा कारण भी है मेरे भीतर समाए डर और उसके फलस्वरूप नींद उड़ने का। यह है नक्सलियों द्वारा 17 जवानों की निर्मम हत्या। इसी के साथ एक और घटना भी है जो भीतर तक दहला देती है। वह घटना किसी और स्थल की नहीं बल्कि उस स्थल की है जिसके दरवाज़े हमेशा-हमेशा के लिए जितना किसी भक्त के लिए खुले रहते हैं उतना ही भूखे के लिए भी और जिसका एक धर्म लंगर खिलाना भी है। यह घटना अफगानिस्तान के उस गुरुद्वारे की है जिसमें हमने 20 लाशें बिछी हुई देखीं। इतना ही नहीं कइयों के तो चिथड़े भी उड़े हुए थे। नक्सली और आतंकी गतिविधियों में बिछी हुई है लाशें भय को भी भयभीत कर देने की क्षमता रखती हैं। मेरी पीड़ा के यह और पिछले सारे कारण या तो ममता के कारण हैं या फिर करुणा के। मेरी चिंता का एक विषय और है कि मेरी वृत्ति के विपरीत एक वृत्ति घृणा भी इनके साथ-साथ मेरे भीतर किसी के लिए हिलोरें मारे जा रही है।
कोरोना जैसी विश्वव्यापी महामारी के कारण बने आपातकाल में एक ओर जहाँ सारा विश्व एकजुट होकर अपने अदृश्य शत्रु से लोहा ले रहा है वहीं दूसरी ओर आतंकी और नक्सली गतिविधियाँ जारी हैं। इन्हीं के सहधर्मी साइबर जालसाज, मुनाफ़ाखोर और नकली मास्क बनाने वाले भी अवसर का लाभ उठाकर सक्रिय हैं। ऐसी मुश्किल घड़ी में जब पता नहीं कब कहां से और किसके द्वार पर मौत अपने लावलश्कर के साथ आ खड़ी हो और जो इन दुष्टों के द्वार भी आ सकती है वह भी बिना दस्तक दिए, इनकी हरकतें घृणा ही पैदा कर सकती हैं।
निष्प्राण ट्रेन तक का एक टर्मिनल पॉइंट होता है।वह वहीं ठहर भी जाती है। उसके आगे वह एक इंच भर भी नहीं जाती। लेकिन लगता है कि क्रूरता और लोभ का कोई टर्मिनल पॉइंट है ही नहीं। माना इन नक्सलियों और आतंकियों का कोई भी दीन-ईमान नहीं होता। लेकिन मानवता की सेवा का ढोंग रचने वाले व्यापारियों तक में भी तो कुछ न कुछ होना ही चाहिए। अगर नकली मास्क पकड़ में ना आए होते तो न जाने कितने धरती के भगवान (हमारे जीवन रक्षक चिकित्सक) इनके लोभ की भेंट चढ़ गए होते। उन्हें पहनने वाले मरीज़ और चिकित्सक केवल एक विश्वास के नाते मारे जाते। ऐसे धन लोलुप भी हमारे हत्यारे ही हैं। हाँ, एक बात ज़रूर है कि इनके द्वारा की गई हत्याओं से न तो खून फैलता है और न खौलता है फिर भी न जाने क्यों मेरा खून खौल रहा है।
हमारा समकाल भीषण संकट का काल है,जिसमें हमारे देश के प्रधानमंत्री से लेकर हर जिम्मेदार पत्रकार, नागरिक, नेता, अभिनेता, रचनाकार और गायक अपने-अपने तरीके से और पूरी ईमानदारी से बहुत संवेदनशील तरीके से अपील कर रहे हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि इनसे पत्थर भी पसीज गए होंगे। पर, मनुष्य जाति के कलंक नक्सली आतंकी और धन लोलुप व्यापारी बिंदास भाव से अपने कुत्सित, क्रूर और बर्बर कृत्य में लिप्त हैं। मेरे भीतर कुंडली मारकर बैठ गया डर और उससे उड़ी नींद को असली समाधान तभी मिलेगा जब ये हत्यारे भी निर्भया के हत्यारों की तरह तख्ते पर झूल रहे होंगे। आखिर इनका भी तो कोई न कोई टर्मिनस होना ही चाहिए।
अपने ही घर में रहना न किसी से मिलना-जुलना न किसी को बुलाना। इसके बावजूद बीस-बीस बार हाथ धोना यह आज का यथार्थ है डर नहीं । लेकिन यह डर में तब्दील हो रहा है? कोई और अवसर होता तो इतनी बार और इतनी देर तक हाथ धोने के कारण किसी न किसी मनोचिकित्सक के पास जाना ही पड़ता। लेकिन आज समय की माँग है। युग सत्य है। हर युग का अपना धर्म होता है। चारित्र होता है। युग सत्य होता है। इस सत्य को कोई नकार नहीं सकता। इसलिए बड़े से बड़ा चिकित्सक भी इसे ही सही ठहराएगा। हो भी क्यों न! एक-एक करके अपने भाइयों को खोता हुआ रावण या बेटों को खोता हुआ धृतराष्ट्र भी कभी इतना न डरा होगा। यदि वे इतना डरे होते तो न तो ये युद्ध होते और न ही रावण और धृतराष्ट्र का सर्व(वंश)नाश होता है।
मेरी समझ में सर्वसहा भारत भूमि भी इतना और पहले कभी न डरी होगी। न तो भीतरी आक्रमणकारियों के आतंक से और न ही बाहरी आक्रांताओं के आक्रमणों से। शायद उनके द्वारा अनेकश: किए गए नरसंहारों से भी नहीं। जलियांवाला बाग हत्याकांड से भी हमारा देश इतना भयभीत न हुआ होगा। दोनों विश्व युद्धों से भी दुनिया इतनी तो नहीं ही डरी होगी वरना ये दोनों युद्ध 5-5 सालों तक न खिंचे होते। लेकिन हम दुस्साहसी रावण नहीं हैं और मोहांध धृतराष्ट्र भी नहीं। हमारी आँखें खुली हैं और दृष्टि भी साफ़ है। इससे एक बात साफ़ हो जाती है कि यह डर सकारात्मक है। लेकिन इसे इतना भी पैनिक नहीं बनने देना है कि सीधे अटैक ही पड़ जाए।
सारी बातें एक तरफ़ और यह कहावत एक तरफ़ यानी कि सौ बातों की एक बात ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत।’
हम जीतेंगे इस कोरोना से भी। जैसे जीतते आए हैं त्रेता में रावण को और द्वापर में कौरव दल को। भले ही यह कलयुग का समय है। पर,यह जीत तभी संभव है जब हम सरकारी लॉकडाउन का उसी आस्था से सम्मान करें जिनके साथ अपने पूजा स्थलों पर जाते हैं। घर में कोई सामान न हो तो अपरिग्रही होकर 14 अप्रैल तक रह सह लें। खाने का सामान भी कम पड़ जाए तो कुछ दिनों के लिए उपवास और रोज़े रख लें। इसी में बुद्धिमानी है। -“सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध्ं त्यजति पण्डित:।”
इस तरह यदि अपने संकल्पशील मन से लड़ें तो इस कलयुग में भी इस महायुद्ध को जीतने में महाभारत से तीन दिनों का ही अधिक समय लगेगा यानी इक्कीस दिनों में जीता जा सकेगा। इनमें से भी इतने दिन तो बीत ही चुके हैं कि बस महाभारत के युद्धकाल के बराबर का ही समय बचा है।
यकीन मानो ये दिन ब्रह्मा के दिन नहीं हैं। कट जाएँगे। कोई सरकार और उसके अधिकारियों-कर्मचारियों को शत्रु न समझें। सरकारी प्रयासों के उलटे अर्थ न लें। कोई भी कर्मचारी न तो किसी के झूठे सज़्दे में है और न ही किसी से दुश्मनी निभाने के मूड में। वह अपने कर्तव्य और धर्म को निभा रहा है न कि किसी दूसरे के। तुम्हें कष्ट देने की मंशा भी उसकी कत्तई नहीं है। हथेली पर जान लिए सीमा पर संगीनें ताने खड़े वीर जवानों की भाँति चिकित्सक, पुलिस और अन्य कर्मचारी जो हमारी आवश्यक सेवाओं में लगे हैं, कोरोना वारियर्स हैं। दुनिया भर से मिल रही सूचनाएं बताती हैं कि कोरोना के दूसरे चरण में प्रवेश तक ही कई चिकित्सक जान भी गवां चुके थे। अपने देश में भी एक चिकित्सक शहीद हुआ है। फिर भी चिकित्सक सेवाएँ दे रहे हैं। इसी तरह के खतरे दूसरे कर्मचारियों को भी हैं। उनके त्याग को समझें। इसे दुष्यंत के एक शेर की मदद से (उसके परिप्रेक्ष्य को सीधे ऋजु कोण पर बदलते हुए) भी समझा जा सकता है-
“अपने ही बोझ से दुहरा हुआ होगा
वह सज़दे में नहीं था तुम्हें धोखा हुआ होगा।”
अत:आइए हम सब मिलकर अपने मन को बिना हराए इसे घर में ही रहकर हराने का संकल्प लें, ‘तन्मे मन: शिव संकल्पम् अस्तु!’
डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
सूरत, गुजरात