हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #43 ☆ जो बाँचेगा, वही रचेगा, जो रचेगा, वही बचेगा ☆ अमृत -2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 43 –  जो बाँचेगा, वही रचेगा, जो रचेगा, वही बचेगा ☆ अमृत -2 ☆

एक सुखद संयोग:
जो बाँचेगा, वही रचेगा,
जो रचेगा, वही बचेगा।..
ये मेरी पंक्तियाँ हैं जिनका उल्लेख प्रधानमंत्री जी से काशी की एक लेखिका ने किया। हमारी संस्था हिंदी आंदोलन परिवार का यह सूत्र भी है। हमारी पत्रिका ‘हम लोग’ के मुखपृष्ठ पर इसे सदा छापा भी गया है।

– संजय भरद्वाज
☆ अमृत -2 ☆

मुझे अमृत

कभी मत देना,

मिल भी जाए

तो हर लेना,

चक्रपाणि,

ये चाह मुझे

जिलाये रखती है

मंथन को

टिकाये रखती है,

मैं जीना चाहता हूँ

मैं लिखना चाहता हूँ!

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 43 ☆ व्यंग्य – बुद्ध और केशवदास ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का व्यंग्य  ‘बुद्ध और केशवदास’  निश्चित ही  युवावस्था की अगली अवस्था में  पदार्पण कर रहे या पदार्पण कर चुके /चुकी पीढ़ी  को बार बार आइना देखने को मजबूर कर देगा। मैं सदा से कहते आ रहा हूँ कि डॉ परिहार जी  की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि से किसी का बचना मुमकिन  है ही नहीं। डॉ परिहार जी ने  कई लोगों की दुखती राग पर हाथ धर दिया है।  ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के  लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 43 ☆

☆ व्यंग्य – बुद्ध और केशवदास ☆

यह ‘जुबावस्था’ जो होती है, महाठगिनी होती है। भगवान बुद्ध ने इसी बात को समझ लिया था, इसलिए उन्होंने घर छोड़कर सन्यास ले लिया। लेकिन जो लोग बुद्ध की तरह कुछ सीखते नहीं, वे युवावस्था को ही पकड़ रखने की कोशिश में लगे रहते हैं। जवानी बरजोर घोड़ी की तरह उन्हें छोड़कर भागी जाती है और वे उसे पकड़ रखने के चक्कर में उसके साथ घसिटते जाते हैं। बाल सफेद हो जाते हैं, दाँत झड़ जाते हैं, खाल ढीली हो जाती है, लेकिन सींग कटाकर बछड़ों में नाम लिखाने की ललक कम नहीं होती।

कुछ लोग जवानी को सलामत रखने के लिए बाल रंग लेते हैं। कल तक मामला खिचड़ी था, आज कृष्ण-क्रांति हो गयी। लेकिन राज़ छिपता नहीं। रंगे बाल अपना राज़ खुद ही खोल देते हैं। कभी कोई खूँटी सफेद रह जाती है, कभी मेंहदी का सा लाल लाल रंग दिखने लगता है। और फिर बाल एकदम काले हो भी गये तो बाकी चेहरे मोहरे का क्या करोगे? चेहरे पर ये जो झुर्रियां हैं, या आँखों के नीचे की झाईं, या गड्ढों में घुसती अँखियाँ। किसे किसे सँभालोगे? कहाँ कहाँ हाथ लगाओगे?

और फिर इस सब छद्म में कितनी मेहनत लगती है, कितना छिपाव-दुराव करना पड़ता है? कोई कुँवारी कन्या या कुँवारे सुपुत्र यह सब करें तो समझ में आता है, लेकिन यहाँ तो वे भी रंगे-चंगे नज़र आते हैं जिनके बेटों के बाल खिचड़ी हो गए।

‘आहत’ जी लेखक हैं और मेरे परिचित हैं। उनके लेख अखबारों, पत्रिकाओं में छपते हैं, लेकिन जब लेख के साथ उनका चित्र छपता है तो पहचानना मुश्किल हो जाता है। ‘आहत’ जी के केश सफेद हैं, घनत्व कम हो चुका है। यहाँ वहाँ से चाँद झाँकती है। चेहरा भी उसी के हिसाब से है, लेकिन जो तस्वीर छपी है वह किसी जवान पट्ठे की है, जिसका चेहरा जवान और बाल काले हैं। पहचानने में देर लगती है, लेकिन चेहरे के कुछ सुपरिचित निशानों से पहचान लेता हूँ। आँखें वही हैं, नाक का घुमाव भी वही है। ज़ाहिर है तस्वीर कम से कम दस साल पुरानी है। बुढ़ापे की तस्वीर छपाने में शर्म आती है।

एक और परिचित की तस्वीर अखबार में देखता हूँ। उन्हें विश्वविद्यालय से डॉक्टर की उपाधि मिली है। उपाधि के लिए काम करते करते नौकरी के पन्द्रह-बीस साल गुज़र गये। बुढ़ापा दस्तक देने लगा। लेकिन उपलब्धि हुई तो फोटो तो छपाना ही है। इसलिए फोटो उस वक्त की छपा ली जब एम.ए. पास किया था। मित्र-परिचित हँसें तो हँसें, जो लोग नहीं जानते वे तो कम से कम उन्हें पट्ठा समझें।

एक परिचित का बालों से विछोह हो चुका है।खोपड़ी का आकार-प्रकार दिन की तरह साफ हो गया है। लेकिन जब भी फोटो छपता है, सिर पर काले घुंघराले बाल होते हैं। ज़ाहिर है, यह भी पुराने एलबम का योगदान है।

बुढ़ापे में यह सब करने की ललक क्यों होती है? क्या जवानी का भ्रम पैदा करके किसी कन्या को रिझाना है? यदि भ्रमवश कोई कन्या अनुरक्त होकर आपके दरवाज़े पर आ ही गयी तो आपका असली रूप देखकर उसके दिल पर क्या गुज़रेगी? इसके अलावा, जवानी का भ्रम फैलाते वक्त उस महिला का खयाल कर लेना भी उचित होगा जो आपकी संतानों की अम्माँ कहलाती है। आपकी फोटो को ही आपका असली रूप मान लिया जाए तो उस सयानी महिला का परिचय आप किस रूप में देंगे?

मेरे खयाल में ये सब कवि केशवदास के चेले-चाँटे हैं। उम्र निकल गयी, लेकिन उसे मानने को तैयार नहीं। रंगाई-पुताई में लगे हैं, जैसे कि पोतने से खस्ताहाल इमारत नयी हो जाएगी। अरे भई, शालीनता से बुढ़ापे को स्वीकार कर लो। हर उम्र की कुछ अच्छाइयाँ होती हैं। लेकिन जवानी के लिए ही हाहाकार करते रहोगे तो न इधर के रहोगे, न उधर के। बुड्ढों से तुम बिदकोगे और जवान तुमसे बिदकेंगे। अंगरेज़ कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग समझदार था। उसने कहा था, ‘आओ, मेरे साथ बूढ़े हो। ज़िन्दगी का सबसे अच्छा वक्त अभी आने को है।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 1 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी रचना  ” दोहा सलिला”। )

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 1 ☆ 

☆  दोहा सलिला ☆ 

 

घर में रह परिवार सँग, मिल पाएँ आनंद

गीत गाइए हँसी के, मुस्कानों के छंद

 

दोहा दुनिया में नहीं, कोरोना का रोग

दोहा लेखन साधना, गीत जानिए योग

 

नमन चिकित्सक को करें, नर्स देवियाँ मान

कंपाउंडर कर्मठ बहुत, हैं समाज की जान

 

सामाजिक दूरी रखें, खुद को दें उपहार

मिलना-जुलना छोड़ दे, जो वह सच्चा यार

 

फिक्र काम की छोड़िए, कुछ दिन रह निष्काम

काम करें गृहवास कर, भला करेंगे राम

 

मनपसंद पुस्तक उठा, जी भर करिए पाठ

जो जी चाहे बना-खा, करें शाह सम ठाठ

 

घर से बाहर जो गया, खड़ी हो गई खाट

कोरोना दे पटकनी, मारे धोबीपाट

 

घरवाली को निहारें, बाहरवाली भूल

घरवाले के बाग में, खिलिए बनकर फूल

 

बच्चों के सँग खेलिए, मारें गप्पे खूब

जो जी चाहे खा-बना, हँसें खुशी में डूब

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२१-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]




मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 4 ☆ स्वप्न ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण  कविता “स्वप्न“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 4 ☆

☆ कविता – स्वप्न ☆ 

 

स्वप्नात एक आली छाया तुझ्या रुपाची

निःशब्द शांतता अन् ती रात्र चांदण्याची।।

 

परिधान करुनी आली वस्त्रे अशी धुक्यांची

डोकाऊनी पहाती अंगांग यौवनाची

आशा मनात फुलली मिळो साथ एकदाची

निःशब्द शांतता अन् ती रात्र चांदण्याची।।

 

एकेक पावलांचा झंकार उठे गगनी

आलीस जवळी माझ्या तू लहरीस्वरांमधुनी

लाऊ नको विलंबा ही वेळ मीलनाची

निःशब्द शांतता अन् ती रात्र चांदण्याची।।

 

हृदयात हृदय गुंतुनीया एकजीव होता

एका विशिष्ट घटिके रती मदन तृप्त होता

झाली पहाट वेळा अन् स्वप्न मोडण्याची

निःशब्द शांतता अन् ती रात्र चांदण्याची।।

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981




संस्थाएं / Organisations ☆  मुश्किल हालात में भी हम हैं न…. हैल्पिंग हेण्ड्स – फॉरएवर वेल्फेयर सोसायटी  ☆  

  ☆  संस्थाएं / Organisations  ☆ 

  ☆  मुश्किल हालात में भी हम हैं न…. हैल्पिंग हेण्ड्स – फॉरएवर वेल्फेयर सोसायटी    ☆  

 

आज के संवेदनहीन एवं संवादविहीन होते समाज में भी कुछ संवेदनशील व्यक्ति हैं, जिन पर समाज का वह हिस्सा निर्भर है जो स्वयं को असहाय महसूस करता है। ऐसे ही संवेदनशील व्यक्तियों की संवेदनशील अभिव्यक्ति का परिणाम है “हैल्पिंग हेण्ड्स – फॉरएवर वेल्फेयर सोसायटी” जैसी संस्थाओं का गठन। इस संस्था की नींव रखने वाले समाज-सेवा को समर्पित आदरणीय श्री देवेंद्र सिंह अरोरा  (अरोरा फुटवेयर, जबलपुर के संचालक) एक अत्यंत संवेदनशील व्यक्तित्व के धनी हैं, जो यह स्वीकार करने से स्पष्ट इंकार करते हैं कि- वे इस संस्था की नींव के पत्थर हैं। उनका मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति जो इस संस्था से जुड़ा है वह इस संस्था की नींव का पत्थर है। उनकी यही भावना संस्था के सदस्यों को मजबूती प्रदान करती है।

 

आज जब सारा विश्व अदृश्य शत्रु ‘कोरोना’ से संघर्ष कर रहा है। हमारे देश में भी लॉकडाउन  लोग अपने अपने घरों में कैद हो गए हैं। आज हमारे पास घर हैं, राशन है और आपातकालीन व्यवस्था है।

उनका क्या जिनके पास छत ही नहीं है, अनाज तो दूर की बात है? उनका क्या जिनके पास छत है किन्तु, खाने को नहीं है? उनका क्या जो रोज कमाते और रोज खाते हैं? ऐसे और भी जरूरतमन्द लोग हैं जो रोज़मर्रा की आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं कर सकते? फिर भूख … भूख होती है….हर इंसान को लगभग 6-8 घंटे में लगती ही है….फिर क्या अमीर क्या गरीब?   लेकिन भूख क्या होती है उससे पूछिये जिसके पास कुछ भी नही है।

किन्तु, आज भी मानवता जीवित है। मानवीय संवेदनाएं जीवित हैं। ऐसे कुछ लोग और ऐसे लोगों से बनी हुई संस्थाएं हैं, जो निःस्वार्थ भाव से अपनी जान जोखिम में डाल कर ऐसे लोगों के लिए दिन रात उनकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में जुटे हैं। ऐसे भी कुछ लोग हैं जो ऐसी संस्थाओं को तन-मन-धन से सहयोग कर रहे हैं। साथ ही हमारे पुलिस मित्र जो 24×7 अपनी सेवाएँ दे रहे हैं उन्हें भी समय समय पर अपना पूर्ण सहयोग प्रदान कर रहे हैं।

ऐसी कई सेवभावी संस्थाएं सारे राष्ट्र में निःस्वार्थ भाव से तन मन धन से समाजसेवा में लगी हुई हैं। मेरी जानकारी में ऐसी ही एक संस्था जबलपुर में कार्यरत है जिसकी जानकारी ई-अभिव्यक्ति नें 1 नवंबर को 2018 प्रकाशित की थी जिसे आप निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं:-

संस्थाएं – “हैल्पिंग हेण्ड्स – फॉरएवर वेल्फेयर सोसायटी”

संस्था के अनुसार – “हमारी कोशिश होती है कि हम हर हाल और हर परिस्थिति में भी लोगों के काम आ सकें। हमारे सदस्यों का यही जज़्बा हमें बनाता है……हेल्पिंग हैंड्स”

वर्तमान परिस्थितियों में संस्था के श्री विनोद शर्मा जी के अनुसार – जब 21 दिन के कर्फ्यू की तरह के लाक डाउन की घोषणा कर दी गई है। ऐसे हालात में हमे उनकी भी चिंता करनी है जो गरीब और बेबस है। उनके पास खाने को कुछ भी नही है। हेल्पिंग हैंड्स की कार्यसमिति ने  ऐसे लोगो की मदद का निर्णय लिया है। ऐसे हालात में गरीबों बेबसों के लिए भोजन की व्यवस्था/खाने के पैकेट बांटने के लिए हमने प्रशासन से बात की। चूंकि मेडिकल प्रोटोकाल और कर्फ्यू दोनों है अतः प्रशासन ने कहा कि खाने के पैकेट आप हमारे पास तक पहुचाइए हम उन जरूरतमंद लोगों तक पहुँचा देंगे।

संस्था को इस काम के लिए प्रशासन द्वारा दो कर्फ्यू पास भी जारी किये गए। संस्था की ओर से उपाध्यक्ष श्री प्रवीण भाटिया एवं सचिव श्री देवेंद्र सिंह अरोरा पैकेट्स पुलिस ठाणे तक पहुंचा देते हैं । प्रशासन और पुलिस की पेट्रोलिंग टीम को मालूम है कि इस हालात में कहां-कहां जरूरतमंद लोग हैं? क्योंकि सारी सूचना वही पहुँच रही है। अब प्रशासन और पुलिस की टीम इन पैकेट्स को बांटने की व्यवस्था कर रही है। यह पूरी एक चेन है। व्यक्ति अकेले कुछ भी नही होता। जब सब मिल कर कोई काम करते हैं तब कुछ भी असंभव नही होता।

संस्था के ही एक सदस्य डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी कहते हैं – “इस कोरोना महामारी के आपद काल में मन निश्छल रखते हुए सबका कर्त्तव्य व दायित्व है कि हम मानवीय धर्म का पालन करें। धीरज रखें और समाज में मित्र भाव से परपीड़ाओं के यथोचित समाधान में सहयोगी बनें।“

धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी

आपद काल परखिअहिं चारी

एवं

परहित सरिस धर्म नहीं भाई,

परपीड़ा सम नहीं अधमाई.

जैसी सूक्तियों को चरितार्थ करें। हमारी हेल्पिंग हैंड्स सोसायटी ने  “फ़ॉर एवर वेलफेयर” वाक्य को सत्य साबित किया है।

हम सब देख ही रहे हैं कि जिस उदारता से हमारे सदस्यगण आगे बढ़कर सहयोग की घोषणा किये जा रहे हैं, इसकी कृतज्ञता हेतु कोई शब्द नहीं है।

हम तो बस इतना जानते हैं कि जबलपुर में हमारी संस्था “हेल्पिंग हैंड्स” और सदस्यों का जज़्बा यूँ ही बरकरार रहे। संस्था एक मिसाल कायम करे।

हेल्पिंग हैंड्स में न कोई छोटा न बड़ा सब सिर्फ भावना से जुड़े हैं। हमारे सदस्यों की नेक कामों के लिए भावना गंगा की तरह निर्मल और हिमालय की ऊंची है और वे दुनिया के सबसे नेक इंसान हैं।

(अधिक जानकारी  एवं हैल्पिंग  से जुडने के लिए आप श्री देवेंद्र सिंह अरोरा जी से मोबाइल 9827007231 पर अथवा फेसबुक पेज   https://www.facebook.com/Helping-Hands-FWS-Jabalpur-216595285348516/?ref=br_tf पर विजिट कर सकते हैं।)

 ☆  यह काम संस्था लगातार तब तक करेगी जब तक स्थिति सामान्य नही हो जाती ☆  

(हम ऐसी अन्य सामाजिक एवं हितार्थ संस्थाओं की जानकारी अभिव्यक्त करने हेतु कटिबद्ध हूँ।  यदि आपके पास ऐसी किसी संस्था की जानकारी हो तो उसे शेयर करने में हमें अत्यंत प्रसन्नता होगी।)

 ☆  ई- अभिव्यक्ति  की और से मानवता की सेवा में निःस्वार्थ और नेक इंसानों की टीम “हेल्पिंग  हैंड्स” के जज्बे को सलाम!  ☆




हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 18 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 18 – महाप्रयाण ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- कब पगली ससुराल आई, सुहाग रात को उस पर  क्या बीती? कैसे निगोड़ी नशे की तलब ने दुर्भाग्य बन  घर में दरिद्रता का तांडव रचा? इतना ही नहीं नशे ने उसके पति को मौत के मुख में ढ़केल दिया।  दुर्भाग्य ने उससे जीवन का आखिरी सहारा पुत्र भी छीन लिया।  पगली वह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाई। मां बाप का प्यार में दिया नाम सार्थकता में बदल गया था। वह सच में ही पगला गई थी। उसका व्यक्तित्व कांच के टुकड़ों की तरह बिखर गया था। लेकिन उन परिस्थितियों में भी उसका हृदय मातृत्व से रिक्त नहीं था।  आकस्मिक घटी घटना ने उसके हृदय में ऐसी भावनात्मक चोट पहुचाई कि उसका हृदय कराह उठा।  ऐसे में उसके जीवन में एक नये कथा पात्र का अभ्युदय हुआ, जिसने उसे अपनेपन का एहसास तो दिलाया ही बहुत हद तक  गौतम की कमी भी पूरी कर दी। लेकिन उसका  दिल अपने ही देश के नौजवानों का बहता खून नहीं देख सका था और अपने कर्मों से मां भारती का प्रतिबिंब बन उभरी थी। अब आगे पढ़ें इस कथा की अगली कड़ी——)

दंगे में घायल हुए पगली को काफी अर्सा गुजर गया था।  पगली अपने चोट से उबर चुकी थी  शरीर से काफी रक्त बहनें से वह बहुत कमजोर हो गई थी।  उसकी बुढ़ापे युक्त जर्जर काया अब उसे अधिक मेहनत करने की इजाजत नहीं दे रही थी।

इन परिस्थितियों में पगली बरगद की घनी छांव में पड़ी पडी़ हांथो में तुलसी की माला जपते किसी सिद्ध योगिनी सी दिखती।  एक दिन सवेरे की भोर में पेड़ की छांव तले आत्मचिंतन में डूबी हुई थी कि सहसा किसी अलमस्त फकीर द्वारा प्रभात फेरी के समय गाया जाने वाला गीत उसके कानों से टकराया था।  वह अपनी ही मस्ती की धुन मे गाये जा रहा था।

“रामनाम रस भीनी चदरिया, झीनी रे झीनी।
ध्रुव प्रह्लाद सुदामा ने ओढ़ी,
जस की तस धरि दीनी चदरिया।
झीनी रे झीनी।।

उस अलमस्तता के आलम मे फकीर द्वारा गाये भजन ने पगली को कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया।  आज उसे बचपन में भैरव बाबा के कहे शब्द याद आ रहे थे, और वह आत्मचिंतन में डूबी उन शब्दो के निहितार्थ तलाश रही थी। जीवन के निस्सारता का ज्ञान उसे हो गया था।  भैरव बाबा की आवाज में गीता के सूत्र वाक्य उसके मानसपटल पर तैर उठे थे।

तुम क्यों चिंता करते हो, तुम्हारा क्या खो गया?
जो लिया यही से लिया, जो दिया यहीं पर दिया।

तुम्हारा अपना क्या था? जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा है, जो होगा वह भी अच्छा ही होगा।  फिर जीवन में चिंता कैसी?

गीता के ज्ञान की समझ पगली के हृदय में उतरती चली गई और उसका सांसारिक जीवन से मोह भंग हो गया था और बैराग्य के भाव प्रबल हो उठे थे।

उन क्षणों में उसने जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्धारित कर लिया था, अब उसे पास आती अपनी मौत की पदचाप सुनाई देने लगी थी।

उसने मृत्यु के पश्चात अपना शरीर मानवता की सेवा में शोध कार्य हेतु दान करने का संकल्प ले लिया था। इस प्रकार एक रात वह सोइ तो फिर कभी नहीं उठी।

यद्यपि पगली काल के करालगाल से बच तो नहीं सकी, लेकिन मरते मरते भी अपने सत्कर्मों के बलबूते महाकाल के कठोर कपाल पर एक सशक्त हस्ताक्षर तो कर ही गई, जो काल के भी मृत्यु पर्यंत तक अमिट बन शिलालेख की भांति चमकता रहेगा, तथा लोगों को सत्कर्म के लिए प्रेरित करता रहेगा।

मृत्यु के पश्चात पगलीमाई के चेहरे पर असीम शांति के भाव थे कहीं कोई विकृति तनाव भय  आदि नहीं था।
ऐसा लगा जैसे कोई शान्ति का मसीहा चिर निद्रा में विलीन हो गया हो।

उस चबूतरे से जब अर्थी उठी और एनाटॉमी विभाग की तरफ चली तो पीछे चलने वाले जनसमुदाय की संख्या लाखों में थी, लेकिन हर शख्स की आंखों में आँसू थे, हर आंख नम थी, और वहीं बगल के मंदिर प्रांगण में गूंजने वाली कबीर वाणी लोगों को जीवन  जीने का अर्थ समझा रही थी।

कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।

ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये।।

इस प्रकार अपार जनसैलाब बढता ही जा रहा था लेकिन आज जनमानस में घृणा नफरत के लिए कोई जगह नहीं बची थी बल्कि उसकी जगह करूणा प्रेम का सागर ठाटें मार रहा था।

क्रमशः  –—  अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – (अंतिम  भाग ) भाग – 19  – श्रद्धांजलि  

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266




हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #32 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 32 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

तीन बात बंधन बंधें, राग द्वेष अभिमान । 

तीन बात बंधन खुलें, शील समाधि ज्ञान ।। 

 आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

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Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.  We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer




आध्यत्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (24) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना )

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णंव्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्‌ ।

दृष्टवा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ।। 24 ।।

हे नभ को छूते हुये प्रभु ! व्यापक ज्यों काल

जलते फैले मुख सहित दीपित नेत्र विशाल

विविध रंग औ” रूप  लख मन भारी भयभीत

धैर्य – शांति सब खो गई जीवन के विपरीत ।। 24 ।।

 

भावार्थ :  क्योंकि हे विष्णो! आकाश को स्पर्श करने वाले, दैदीप्यमान, अनेक वर्णों से युक्त तथा फैलाए हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अन्तःकरण वाला मैं धीरज और शान्ति नहीं पाता हूँ।। 24 ।।

 

On seeing thee (the Cosmic Form) touching the sky, shining in many colours, with mouths wide open, with large, fiery eyes, I am terrified at heart and find neither courage nor peace, O Vishnu!।। 24 ।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]




हिन्दी साहित्य ☆ आलेख ☆ मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी का लम्बा किन्तु , विचारणीय एवं पठनीय आलेख  ” मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा“।  वास्तव में  यह संस्मरणात्मक आलेख मानवता के अदृश्य शत्रु के कारण सारे विश्व में व्याप्त भय के वातावरण में अनुशासन ही नहीं अपितु, इस भय से भी लाभ कमाने वालों को नसीहत देता दस्तावेज है।  मानवता के इस सफरनामे  के माध्यम से डॉ गंगाप्रसाद जी ने अपने संवेदनशील हृदय की मनोभावनाओं को रेखांकित किया है। डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के इस सार्थक एवं समसामयिक आलेख के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ संस्मरणात्मक आलेख – – मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा ☆

दिनांक –26-03- 2020
दिन-गुरुवार, समय 2:42

सुबह-सुबह मेरे ड्राइवर ने आकर दस्तक दी। आते ही जुमला उछाला, ‘जो डरा सो मरा’। मैंने यह जानते हुए भी कि जुमला मुझ पर ही उछाला  गया है सिर नीचे कर बाउंसर जाने दिया। वह गेट के बाहर ज़मीन पर ही बैठ गया और उसके ठीक पीछे लिफ्ट के बगल वाली सीढ़ियों पर उसकी बीबी जिसे कोरोना के डर से हमने बर्तन मांजने से चार दिन पहले ही मना किया है। मेरा अनुमान यही है कि मेरी ही तरह के और भी सामान्य काल के वीरों और संकट काल के भीरुओं ने उसे मना कर दिया होगा। अन्य दिनों की तरह ना तो उसे अंदर आने को कहा और ना ही कुर्सी ही ऑफ़र की। पहले भी वह भीतर भले आ जाता था पर कुर्सी पर कभी नहीं बैठा। हमेशा यही कहता था ‘साहब हमें ज़मीन पर ही बैठना अच्छा लगता है।’ उसका इस तरह बैठना मुझे पहले अच्छा लगता रहा है। कल उसका जमीन पर बैठना मुझे उतना बेतकल्लुफ नहीं लगा सो अच्छा भी नहीं लगा लेकिन इसे बुरा लगना भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह अखरने वाली बात मुझे उसके जाने के बाद पता चली।

25 फ्लैट वाले हमारे अपार्टमेंट का वह केयर टेकर भी है। इन दिनों उसकी पत्नी, दो बेटे और उसे मिलाकर परिवार के कुल 4 सदस्य बस एक कमरे में गुजर-बसर करते हैं। कोई तीन-चार महीने पहले उसका बड़ा  बेटा, बहू और पोती भी इसी के साथ रहते थे। यानी इसका कुल मिलाकर 7 जनों का कुनबा  है। लेकिन जिन दिनों इसके बहू बेटा साथ रहते थे, केवल वही कमरे में सोते थे और शेष जन 12:00 बजे रात के बाद बाहर की पार्किंग में अपनी अपनी खाट बिछाकर सो जाते थे। लेकिन ये सभी तभी सो पाते थे जब अपार्टमेंट के मुख्य द्वार पर ताला लग जाए और ताला लगने का समय 12:00 रात निर्धारित है। इसके बावज़ूद ‘निबल की बहू सबकी सरहज। ‘आने जाने वालों की आज़ादी के कारण ताला कभी-कभी एक-दो बजे भी खोलना पड़ता  है। संभव है कि इन दिनों इन लोगों को कुछ राहत हो क्योंकि अभी लॉकडाउन का काल है। यह सब केवल मैं अनुमान से कह रहा हूँ । वह इसलिए कि दो दिनों से नीचे उतरना क्या दरवाज़े से बाहर भी कदम नहीं रखा है। लेकिन केवल नींद ही तो सब कुछ नहीं है भूख भी तो कुछ है। नींद भी तभी लगती है जब पेट में कुछ पड़े। जब मुझ पेट भरे हुए को नींद  नहीं आ रही है तो उन्हें कैसे आती होगी।  रोज कुआं खोदकर पानी पीने वालों का दर्द  भला वे क्या जानेंगे जिनके घर बिसलेरी की बोतलें आती हैं।

बीते रविवार को ये लोग अपने भांजे की मंगनी में गए थे। ज़ाहिर सी बात है सारी जमा पूंजी वही खरच आए होंगे। ड्राइवर के उस जुमले पर जो जीवन का असली फलसफा था मैंने सौ रुपए निछावर किए तो उसने ऐसे लपक लिए जैसे कोई बंदर हाथ से थैली लपक लेता है। ऐसा एक  वाकया उज्जैन में वास्तव में मेरे साथ उस समय घटा था जब भैरवनाथ के दर पर गया था। चढ़ाने जा रहे प्रसाद को एक लंगूर मेरे हाथ से बिजली की गति से लपक ले गया था। यह तो गनीमत है कि प्रसाद वाले के द्वारा लाख कहने के बावजूद मैंने शराब की बोतल नहीं ली थी। नहीं तो हो सकता है कि वह उसे भी लपक ले जाता और मेरे ही सामने बैठकर गटकता।  इंसान के भीतर की पीड़ा के लिए इतनी भोंड़ी उपमा मैं उसके अपमान के लिए नहीं अपितु उसकी ज़रूरत की तीव्रता को दर्शाने के लिए दे रहा हूँ। यद्यपि मेरे बिस्तर पर डेढ़ सौ रुपए और पड़े थे लेकिन एटीएम के कुंजीपटल को दबाने के डर से मेरे मन ने पुनः अपने बढ़े  हुए हाथ सायास रोक लिए थे। उसकी पत्नी को कुछ दिनों के लिए काम से विरमित के कारण और कुछ अपने जीवनानुभव से भी उस अपढ़ ने मेरे डर को पढ़ लिया था। इसमें झूठ भी क्या है। आज की रात मिलाकर दो रातें हो रही हैं बिना सोए हुए। यह डर नहीं तो और क्या है!

मेरी पत्नी शुगर की मरीज़ है। टीवी पर बार-बार शुगर वालों को हाई रिस्क कहा जा रहा है। इटली में रह रहे एक भारतीय शेफ और देशभक्त गायिका श्वेता पण्डित के डरावने अनुभव वाले वीडियो। इसी तरह से अन्य देशों के डरावने दृश्यों से भरे संदेश पर संदेश के बावज़ूद अपने कुछ देश वासियों की नादानियां और भी डराती हैं। इस वज़ह से कई दफ़े टी वी बंद करके कुछ ही मिनटों में पुन: उसे खोल के बैठ जाता हूँ।

बच्चे और नातिनें पोतियाँ,नाते रिश्तेदार और मित्र हमसे दूर हैं। उनके ठहाके और  दूर से दिखने वाले चेहरों की आभासी खुशी  जब तक देखता हूँ खुश रहता हूँ। उसके बाद फिर वही मायूसी। कंपनी के काम से गया बीमार भांजा इन्दौर में फँस गया है और भतीजा बंगलौर में। गाँव में माँ और भाई, उनकी पत्नियाँ, बहुएँ और पोते-पोतियाँ। लब्बोलुआब यह कि बहिनें और उनके  परिवार समेत पूरा कुनबा अलग-अलग गाँवों और शहरों में। इन सबसे कम से कम बारह सौ से डेढ़ हज़ार किलोमीटर दूर बैठा मैं। डर को इतने भयावह रूप में वह भी इतने करीब से बल्कि अपने ही भीतर ज़हर बुझे बरछे  की मानिंद धंसे पहले कभी नहीं देखा। शायद अपने-अपने जीवन में पहली दफ़ा इतने बड़े और अदृश्य शत्रु से हर कोई अकेले लड़ रहा है। यह भी इस धरती के इतिहास का पहला युद्ध है जिसे एक जुटता के साथ किंतु अकेले-अकेले लड़ते हुए घर बैठे जीता जा सकता है।

टीवी चैनलों पर बैठे डरे-डरे चेहरे और भी डरा रहे हैं। उनसे भी ज़्यादा विकसित देशों से आने वाली खबरें डरा रही हैं। फिर हम क्यों ना डरें। आखिर हम भी तो हांड़-माँस के ही हैं ना। जिसके परिणाम का पता ना हो डर लगता ही है। बड़े से बड़ा प्रतिभाशाली विद्यार्थी भी परीक्षा परिणाम के पूर्व डरा डरा-डरा रहता है। यह दीगर बात है कि बाद में  वह कहे कि मैं अपने परिणाम से आश्वस्त था। मैं भी अपनी ही तरह के डरे हुए दूसरे बुद्धिजीवियों की तरह बाद में झूठ बोलूं इसके पूर्व ही अपने डर को लिपिबद्ध कर लेना चाहता हूँ। हो सकता है कुछ दिन बीतने के बाद मैं इसे लिख देने के बावज़ूद अपनी ईमानदारी कह कर कॉलर ऊँचा करूँ। अपने को खुद ही हरिश्चंद्र या गाँधी  पुकारूँ। इसे अपना अप्रतिम साहस बताऊँ। यह और बात है। पर, अभी तो अपने भीतर का डर यथार्थ है। वास्तविक है।

ऊपर मैं जिस ड्राईवर की बात कर रहा था ऐसे न जाने कितने हर गली, हर मोहल्ले, हर गांव और हर शहर में पड़े होंगे। बहुतेरे नालों के किनारे की झुग्गियों में भी होंगे। कूड़ेदानों और भिनभिनाती मक्खियों (इससे अनजान कि मक्खियाँ भी कोरोना की संवाहिका हैं) से भरे कूड़े  के ढेरों  में जीविका खोजने वालों पर ढेर के ढेर मुंह बना रहे होंगे। उन सबके चूल्हे ठंडे पड़े होंगे। शराबियों की बीबियाँ अपने शौहरों को अब न कोस रही होंगी। जब कोई काम पर ही न गया होगा तो पिएगा क्या? अब वह भी अपनी करनी पर पछता रहा होगा। सुनारों की दुकानें भी नहीं खुली होंगी जहां अपने इकलौते जेवर पायल या  बिछियों को बेचकर कोई मजबूर मज़दूरन  अपने बच्चों के लिए आटा ला सके। माना कि इनकी नींद तो इस मज़बूरी से भी उड़ी होगी। परंतु मेरी नींद क्यों उड़ी हुई है?

कल के पहले मेरा यही ड्राइवर जिसका नाम ए बी चौहाण है, स्वाभिमानी लगता रहा है। ज़बरन देने पर ही इसने कभी कुछ पैसे  अपनी हथेली पर  रखने दिए हैं। लेकिन कल उसमें यह स्वाभिमान गायब-सा दिखा। अपने स्वाभिमान की भरपाई एक और नए जुमले से की कि, ‘मौत से वह डरे जिसके पास कुछ हो। मेरे पास न तो कोई दुकान है न मकान फिर मैं क्यों डरूं।’ शायद यही जीवन दर्शन अन्य निर्धनों का भी हो। हमें उन्हें डराने से अधिक समझाना है। मुझे लगता है हम बुद्धिजीवियों ने यही नहीं किया।

मुंबई और पुणे से अपने-अपने वतनों को गठरी लादे भाग रही  भीड़ों का भी  ध्येय वाक्य मेरे ड्राइवर वाला ही ध्येय वाक्य रहा होगा। हो यह भी सकता है कि सामने खड़ी मौत के डर और भूख के भय की वज़ह से इंसान से भीड़ में तब्दील यह जन सैलाब ‘मरता क्या न करता’ की रहन पर  हज़ार-हज़ार किलोमीटर तक के सफ़र पर पैदल, रिक्शे, साइकिल, ट्रेन या बस में ठूंसे-ठूंसे जाने को खुशी-खुशी तैयार हो। इन सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां हैं। पर वे सड़क की ओर पागलों की तरह क्यों भागे जा रहे हैं जिनके घर कम से कम महीने भर का राशन है। मौज़-मस्ती के चक्कर में उठ-बैठ रहे हैं या फिर पुलिस से धींगामुश्ती कर रहे हैं। कोई जन प्रतिनिधि वह भी विधायक सपर्पित चिकित्सकों के लिए गालियों का उपहार दे रहा है। हाथ उठा रहा है। इनमें कुछेक सही भी हो सकते हैं। पर पुलिस भी इतनी पागल या महाबली  नहीं कि दिन भर भागती हुई लाठियाँ ही भाँजती रहे। पुरी की सब्जी मंडी से भी हम कुछ सीख ले सकते हैं।

मेरा डर कुछ इसलिए भी बढ़ा है क्योंकि कल रात को 9:00 बजे से ही कुत्ते भौंकने लगे थे। अभी  जब सुबह के 4:00 बज रहे हैं कहीं से भी कुत्तों के भौंकने की आवाज़ नहीं आ रही है और न ही सड़क पर किसी भी प्रकार के वाहन का स्वर। फर फर फर फर पत्तियां फड़काने वाली सामने की नीम भी मौन है और कभी हर हर हर हर हरहराने वाले कोने वाले पीपल बाबा भी।

नींद अभी तक नहीं आई है और सात बजते-बजते टीवी पर देखता हूँ कि मुश्किल से पाँच साल का बच्चा अपने पिता को ड्यूटी पर नहीं जाने दे रहा है। रो-रो कर उसका बुरा हाल है। वह अपने पिता से गुहार कर रहा है कि, “पापा प्लीज़ बाहर मत जाओ कोरोना है।” बिलखते बच्चे और पिता को कर्तव्य और वात्सल्य के बीच झूलते कारुणिक दृश्य किसे नहीं द्रवित कर देंगे। पिता आखिर चला गया और बाहर जाकर रोया होगा। यही सोच-सोच कर मेरी आँखें अभी तक नम हैं। भीतर-बाहर कहीं से भी कुछ भी सामान्य नहीं लग रहा है। कभी-कभी लगता है कि  कहीं यह सब कुछ अपने ही भीतर का रचा हुआ तो नहीं है जो उमड़ घुमड़ कर बादलों-सा फट पड़ने को आतुर है। लेकिन हाथ-पाँव पटक-पटक बेहाल हुए जा रहे बच्चे के विलाप को कैसे झुठलाऊँ।

बच्चे से बूढ़े  तक में व्यापे डर के इतने सारे रूप और कारणों के होते हुए भी हमारे पास ऐसा बहुत कुछ है जो जीवन के प्रति साहस बढ़ाने और आशा बँधाने के लिए पर्याप्त है बल्कि पर्याप्त ही नहीं पर्याप्त से भी कुछ अधिक है। अपवाद स्वरूप एकाध जनप्रतिनिधियों की नापाक हरक़तों के विपरीत विधायकों, सांसदों, सरकारों की राहत वाली घोषणाएँ। करोड़ों  गरीबों के लिए हाथ बढ़ाते भामा शाह। भूखों को खाना खिलाते, सैनेटाइज़र और मास्क लिए राहों में खड़े उत्साही नागरिक। अपनी आँखों के तारे को झिटक कर ड्यूटी जाते पुलिस कर्मी। अपनी गीली आँखों से अपने परिवार को भूले हुए उनसे महीनों से दूर राष्ट्रीय गौरव को बढ़ाते समर्पित चिकित्सक। इनमें से बहुतों की हफ्तों और महीनों से उड़ी नीँदें भी मेरी नींद उड़ने का कारण है। हमें क्या पता कि  हमारे प्रधानमंत्री, उनके मंत्रिमंडल के सदस्य और अधिकारी कब से नहीं सोए हैं। कर्मचारी कब नहाते-धोते हैं। इसका पता तो उनके घर वालों को भी नहीं होगा। सब कुछ सबसे नहीं कहा जा सकता। कुछ बातें महसूसने की भी होती हैं। शायद मेरी बेचैनी का एक कारण यह भी है।

अपनी महासागरीय संस्कृति महाप्रलय के बाद भी सँभली है। संस्कृति-शूरों के शौर्य और धैर्य से धरती लहलहाई है। इस संकट काल में कल्पना करें कि मनु का अकेलापन हमारे इस अकेलेपन या घर में अपनों के बीच  बैठकर समाज से कटाव (वह भी करुणार्द्र  अपील के साथ कही जा रही ‘दूरी पर रहने’ का) से कितना बड़ा रहा होगा। निश्चय ही अपने आयतन में भी और गुरुत्त्व में भी हमारे इस एकांतवास से यहाँ तक कि कैदियों के एकांतवास से भी इतना बड़ा रहा होगा जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। उसकी तुलना में हमारा यह अकेलापन कितना लघु, हल्का और सीमित है। लक्ष्मण को शक्ति लगने के बाद वाले राम, यदुवंश के सर्वनाश के बाद वाले कृष्ण, पुत्र के दाह संस्कार के लिए अपनी ही पत्नी से कर मांगते हरिश्चंद्र, अपने बेटों को दीवार में चुने जाते देखने वाले गुरु गोविंद सिंह हों या दूसरे सिक्ख गुरु थाल में अपने ही बेटे का कटा सिर इस उपहास के साथ हृदय विदारक दृश्य को देखते-सहते हुए कि, ‘यह तरबूज है।’  मानव जाति और राष्ट्र के लिए अपने को इन विषम स्थितियों में संभालने वाले परम साहसी और सन्तोखी  गुरु हों या फिर शीश महल गुरुद्वारा पर मत्था टेकते ही आज भी रोंगटे खड़े कर देने जैसे असर रखने वाले  क्रूरता के शिकार हुए गुरु तेग बहादुर जैसे वीर बहादुर हों। क्या ये वीर बहादुर हमें कुछ भी साहस नहीं देते? हमारा मनोबल नहीं बढ़ाते? बढ़ाते हैं। बहुत बढ़ाते हैं तभी तो हम अब तक अजेय माने जाने वाले शत्रु के सामने पहाड़-सा सीना ताने खड़े हैं।

बात सिर्फ इतनी-सी ही नहीं है कि हम इन साहसी त्यागियों और बलिदानियों से कुछ भी साहस नहीं ले पा रहे हैं। बात कुछ और  है जिसके कारण हमारी साहसी और बलिदानी  संस्कृति के संवाहक प्रबुद्ध जन तक के भीतर भी डर  समाया हुआ है और मेरी ही तरह और भी बहुतों की नींद उड़ी हुई है। हमारे इन बलिदानियों के शत्रु दृश्य थे और हमारा शत्रु अदृश्य।

इन कारणों के बीच से अपना सिर उठाता एक और बड़ा कारण भी है मेरे भीतर समाए डर और उसके फलस्वरूप नींद उड़ने का। यह है नक्सलियों द्वारा 17 जवानों की निर्मम हत्या। इसी के साथ एक और घटना भी है जो भीतर तक दहला देती है। वह घटना किसी और स्थल की नहीं बल्कि उस स्थल की है जिसके दरवाज़े  हमेशा-हमेशा के लिए  जितना किसी भक्त के लिए खुले रहते हैं उतना ही भूखे के लिए भी और जिसका एक धर्म लंगर खिलाना भी है। यह घटना अफगानिस्तान के उस गुरुद्वारे की है जिसमें हमने 20 लाशें बिछी हुई देखीं। इतना ही नहीं कइयों के तो चिथड़े भी उड़े हुए थे। नक्सली और आतंकी गतिविधियों में बिछी हुई है लाशें भय को भी भयभीत कर देने की क्षमता रखती हैं। मेरी पीड़ा के यह और पिछले सारे कारण या तो ममता के कारण हैं या फिर करुणा के। मेरी चिंता का एक विषय और है कि मेरी वृत्ति के विपरीत एक वृत्ति घृणा भी इनके साथ-साथ मेरे भीतर किसी के लिए  हिलोरें मारे जा रही है।

कोरोना जैसी विश्वव्यापी महामारी के कारण बने आपातकाल में एक ओर जहाँ सारा विश्व एकजुट होकर अपने अदृश्य शत्रु से लोहा ले रहा है वहीं दूसरी ओर आतंकी और नक्सली गतिविधियाँ  जारी हैं। इन्हीं के सहधर्मी  साइबर जालसाज, मुनाफ़ाखोर और नकली मास्क बनाने वाले भी अवसर का लाभ उठाकर सक्रिय हैं। ऐसी मुश्किल घड़ी में जब पता नहीं कब कहां से और किसके द्वार पर मौत अपने लावलश्कर के साथ आ खड़ी हो और जो इन  दुष्टों के द्वार भी आ सकती है वह भी बिना दस्तक दिए, इनकी हरकतें घृणा ही पैदा कर सकती  हैं।

निष्प्राण ट्रेन तक का एक टर्मिनल पॉइंट होता है।वह वहीं ठहर भी जाती है। उसके आगे वह एक इंच भर भी नहीं जाती। लेकिन लगता है कि क्रूरता और लोभ का कोई टर्मिनल पॉइंट है ही  नहीं। माना इन नक्सलियों और आतंकियों का कोई भी दीन-ईमान नहीं होता। लेकिन मानवता की सेवा का ढोंग रचने वाले  व्यापारियों तक में भी तो कुछ न कुछ होना ही चाहिए। अगर  नकली मास्क पकड़ में ना आए होते तो न जाने कितने धरती के भगवान (हमारे जीवन रक्षक चिकित्सक) इनके लोभ की भेंट चढ़ गए होते। उन्हें पहनने वाले मरीज़ और चिकित्सक केवल एक विश्वास के नाते मारे जाते। ऐसे धन लोलुप भी हमारे हत्यारे ही हैं। हाँ, एक बात ज़रूर है कि इनके द्वारा की गई हत्याओं से न तो खून फैलता है और न खौलता है फिर भी न जाने क्यों मेरा खून खौल रहा है।

हमारा समकाल भीषण संकट का काल है,जिसमें हमारे देश के प्रधानमंत्री से लेकर हर जिम्मेदार पत्रकार, नागरिक, नेता, अभिनेता, रचनाकार और गायक अपने-अपने तरीके से और पूरी ईमानदारी से बहुत संवेदनशील तरीके से अपील कर रहे हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि इनसे पत्थर भी पसीज  गए होंगे। पर, मनुष्य जाति के कलंक  नक्सली आतंकी और धन लोलुप व्यापारी बिंदास भाव से अपने कुत्सित, क्रूर और बर्बर कृत्य में लिप्त हैं। मेरे भीतर कुंडली मारकर बैठ गया डर और उससे उड़ी नींद को असली समाधान तभी मिलेगा जब ये हत्यारे भी निर्भया के हत्यारों की तरह तख्ते पर झूल रहे होंगे। आखिर इनका भी तो कोई न कोई टर्मिनस होना ही चाहिए।

अपने ही घर में रहना न किसी से मिलना-जुलना  न किसी को बुलाना। इसके बावजूद बीस-बीस बार हाथ धोना यह आज का यथार्थ है डर नहीं । लेकिन यह डर में तब्दील हो रहा है? कोई और अवसर होता तो इतनी बार और इतनी  देर तक हाथ धोने के कारण किसी न किसी मनोचिकित्सक के पास जाना ही पड़ता। लेकिन आज समय की माँग है। युग सत्य है। हर युग का अपना धर्म होता है। चारित्र होता है। युग सत्य होता है। इस सत्य को कोई नकार नहीं सकता। इसलिए बड़े से बड़ा चिकित्सक भी इसे ही सही ठहराएगा। हो भी क्यों न! एक-एक करके अपने भाइयों को खोता हुआ रावण या बेटों को  खोता हुआ धृतराष्ट्र भी कभी इतना न डरा होगा। यदि वे इतना डरे होते तो न तो ये युद्ध होते और न ही रावण और धृतराष्ट्र का सर्व(वंश)नाश होता है।

मेरी समझ में सर्वसहा भारत भूमि भी इतना और पहले कभी न डरी होगी। न तो भीतरी आक्रमणकारियों के आतंक से और न ही बाहरी आक्रांताओं के आक्रमणों से। शायद उनके द्वारा अनेकश: किए गए  नरसंहारों से भी नहीं। जलियांवाला बाग हत्याकांड से भी हमारा देश इतना भयभीत न हुआ होगा। दोनों विश्व युद्धों से भी दुनिया इतनी तो नहीं ही डरी  होगी वरना ये दोनों युद्ध 5-5 सालों तक न खिंचे होते। लेकिन हम दुस्साहसी रावण नहीं हैं और मोहांध धृतराष्ट्र भी नहीं। हमारी आँखें खुली हैं और दृष्टि भी साफ़ है। इससे एक बात साफ़ हो जाती है कि यह डर सकारात्मक है। लेकिन इसे इतना भी पैनिक नहीं बनने देना है कि सीधे अटैक ही पड़  जाए।

सारी बातें एक तरफ़ और यह कहावत एक तरफ़  यानी कि सौ बातों की एक बात ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत।’

हम जीतेंगे इस कोरोना से भी। जैसे जीतते आए हैं त्रेता में रावण को और द्वापर में कौरव दल को। भले ही यह कलयुग का समय है। पर,यह जीत तभी संभव है जब हम सरकारी लॉकडाउन का उसी आस्था से सम्मान करें जिनके साथ अपने पूजा स्थलों पर जाते हैं। घर में कोई सामान न हो तो अपरिग्रही होकर 14 अप्रैल तक रह सह लें। खाने का सामान भी कम पड़ जाए तो कुछ दिनों के लिए उपवास  और रोज़े रख लें। इसी में बुद्धिमानी है। -“सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध्ं  त्यजति पण्डित:।”

इस तरह यदि अपने संकल्पशील मन से लड़ें तो इस कलयुग में भी इस महायुद्ध को जीतने में महाभारत से  तीन दिनों का ही अधिक समय लगेगा यानी इक्कीस दिनों में जीता जा सकेगा। इनमें से भी इतने दिन तो बीत ही चुके हैं कि बस महाभारत के युद्धकाल के बराबर का ही समय बचा है।

यकीन मानो ये दिन ब्रह्मा के दिन नहीं हैं। कट जाएँगे। कोई सरकार और उसके अधिकारियों-कर्मचारियों को शत्रु न समझें। सरकारी प्रयासों के उलटे अर्थ न लें। कोई भी कर्मचारी न तो किसी के झूठे सज़्दे में है और न ही किसी से दुश्मनी निभाने के मूड में। वह अपने कर्तव्य और धर्म को निभा रहा है न कि किसी दूसरे के। तुम्हें कष्ट देने की मंशा भी उसकी कत्तई नहीं है। हथेली पर जान लिए  सीमा पर  संगीनें ताने खड़े वीर जवानों की भाँति चिकित्सक, पुलिस और अन्य कर्मचारी जो हमारी आवश्यक सेवाओं में लगे हैं, कोरोना वारियर्स हैं। दुनिया भर से मिल रही सूचनाएं बताती हैं कि कोरोना के दूसरे चरण में प्रवेश तक ही कई चिकित्सक जान भी गवां चुके थे। अपने देश में भी एक चिकित्सक शहीद हुआ है।  फिर भी चिकित्सक  सेवाएँ दे रहे हैं। इसी तरह के खतरे दूसरे कर्मचारियों को भी हैं। उनके त्याग को समझें। इसे दुष्यंत के एक शेर की मदद से (उसके परिप्रेक्ष्य को सीधे ऋजु कोण पर बदलते हुए) भी समझा जा सकता है-

“अपने ही बोझ से दुहरा हुआ होगा
वह सज़दे में नहीं था तुम्हें धोखा हुआ होगा।”

अत:आइए हम सब मिलकर अपने मन को बिना हराए इसे घर में ही रहकर हराने का संकल्प लें, ‘तन्मे मन: शिव संकल्पम् अस्तु!’

 

डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात




ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 46 ☆ (1) मानवता का अदृश्य शत्रु कोरोना (2) सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकारों के नाम ☆ हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–46

☆ (1) मानवता का अदृश्य शत्रु कोरोना (2) सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकारों के नाम 

 प्रिय मित्रों,

आज के संवाद के माध्यम से मुझे पुनः आपसे विमर्श का अवसर प्राप्त हुआ है।

मानवता का अदृश्य शत्रु कोरोना 

आज विश्व में मानवता अत्यंत कठिन दौर से गुजर रही है।  विश्व के समस्त मानव जिनमें साहित्यकार / कलाकार / रंगकर्मी भी संवेदनशील मानवता के अभिन्न अंग हैं और  अत्यंत विचलित हैं ‘ कोरोना’ जैसी विश्वमारी य महामारी जैसे प्रकोप /त्रासदी से । इतनी सुन्दर सुरम्य प्रकृति, हरे भरे वन-उपवन, नदी झरने,  घाटियां, पर्वत श्रृंखलाएं और कहीं कहीं तो  शांत बर्फ की सफ़ेद चादर और भी न जाने क्या क्या हमें  प्रकृति ने उपहारस्वरूप दिया है ।

आज हम मानवता के अदृश्य शत्रु  “कोरोना” को बढ़ती विकराल श्रंखला को तोड़ने के लिए अपने-अपने घरों में कैद हैं ।

आज हम स्वयं को एक भयावह वैज्ञानिक उपन्यास के पात्र की तरह पाते है और दुःस्वन जैसी निर्मित परिस्थितियों का एक अत्यंत सुखांत अंत होगा ऐसी हम ईश्वर से कामना करते हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हम सब मिलकर मानवता के विरुद्ध इस युद्ध से  वैज्ञानिक रूप से ढृढ़ता पूर्वक सतत लड़ते हुए निश्चित ही विजयी होंगे। हम सब  इस वैश्विक आपदा से उबर कर पाएंगे एक नवजीवन एवं दे सकेंगे आने वाली पीढ़ियों को हमारे वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांतों पर आधारित एक नवीन वैश्विक ग्राम । साथ ही आकलन करेंगे कि हमने क्या खोया और क्या पाया ?

ई-अभिव्यक्ति की पहल –  एक साप्ताहिक स्तम्भ सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकारों के नाम 

 ☆ Anonymous litterateur of social media / सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / योर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का अंग्रेजी भावानुवाद  किया है।  इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है। वे इस अनुष्ठान का श्रेय अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना कप्तान प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। जो स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

इस सद्कार्य  के लिए कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी साधुवाद के पात्र हैं ।  हम आज से  ही इस साप्ताहिक स्तम्भ को प्रारम्भ कर रहे हैं । 

प्रतिदिन की भांति आज की रचनाएँ भी घर की चारदीवारी में आपको एवं आपके हृदय को निश्चित ही सकारात्मकता के साध बाँध कर रख सकेंगी ।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ई-अभिव्यक्ति वेबसाइट को कितने विजिटर्स (सम्माननीय एवं प्रबुद्ध लेखकगण/पाठकगण) का प्रतिसाद’ मिला, उसे अंकों में गणना  करने से हमारा उत्साह अवश्य बढ़ता है ।  किन्तु, इस अकल्पनीय प्रतिसाद एवं इन क्षणों के आप ही भागीदार हैं। यदि आप सब का सहयोग नहीं मिलता तो मैं इस मंच पर इतनी उत्कृष्ट रचनाएँ देने में  स्वयं को असमर्थ पाता। मैं नतमस्तक हूँ ,आपके अपार स्नेह के लिए। 

आइये हम सब मिलकर मानवता के अदृश्य शत्रु  कोरोना से लड़ें एवं विजयी बनें।   

आप सबका हृदयतल से आभार।

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आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

28 मार्च 2020