ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 46 ☆ (1) मानवता का अदृश्य शत्रु कोरोना (2) सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकारों के नाम ☆ हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–46

☆ (1) मानवता का अदृश्य शत्रु कोरोना (2) सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकारों के नाम 

 प्रिय मित्रों,

आज के संवाद के माध्यम से मुझे पुनः आपसे विमर्श का अवसर प्राप्त हुआ है।

मानवता का अदृश्य शत्रु कोरोना 

आज विश्व में मानवता अत्यंत कठिन दौर से गुजर रही है।  विश्व के समस्त मानव जिनमें साहित्यकार / कलाकार / रंगकर्मी भी संवेदनशील मानवता के अभिन्न अंग हैं और  अत्यंत विचलित हैं ‘ कोरोना’ जैसी विश्वमारी य महामारी जैसे प्रकोप /त्रासदी से । इतनी सुन्दर सुरम्य प्रकृति, हरे भरे वन-उपवन, नदी झरने,  घाटियां, पर्वत श्रृंखलाएं और कहीं कहीं तो  शांत बर्फ की सफ़ेद चादर और भी न जाने क्या क्या हमें  प्रकृति ने उपहारस्वरूप दिया है ।

आज हम मानवता के अदृश्य शत्रु  “कोरोना” को बढ़ती विकराल श्रंखला को तोड़ने के लिए अपने-अपने घरों में कैद हैं ।

आज हम स्वयं को एक भयावह वैज्ञानिक उपन्यास के पात्र की तरह पाते है और दुःस्वन जैसी निर्मित परिस्थितियों का एक अत्यंत सुखांत अंत होगा ऐसी हम ईश्वर से कामना करते हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हम सब मिलकर मानवता के विरुद्ध इस युद्ध से  वैज्ञानिक रूप से ढृढ़ता पूर्वक सतत लड़ते हुए निश्चित ही विजयी होंगे। हम सब  इस वैश्विक आपदा से उबर कर पाएंगे एक नवजीवन एवं दे सकेंगे आने वाली पीढ़ियों को हमारे वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांतों पर आधारित एक नवीन वैश्विक ग्राम । साथ ही आकलन करेंगे कि हमने क्या खोया और क्या पाया ?

ई-अभिव्यक्ति की पहल –  एक साप्ताहिक स्तम्भ सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकारों के नाम 

 ☆ Anonymous litterateur of social media / सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / योर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का अंग्रेजी भावानुवाद  किया है।  इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है। वे इस अनुष्ठान का श्रेय अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना कप्तान प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। जो स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

इस सद्कार्य  के लिए कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी साधुवाद के पात्र हैं ।  हम आज से  ही इस साप्ताहिक स्तम्भ को प्रारम्भ कर रहे हैं । 

प्रतिदिन की भांति आज की रचनाएँ भी घर की चारदीवारी में आपको एवं आपके हृदय को निश्चित ही सकारात्मकता के साध बाँध कर रख सकेंगी ।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ई-अभिव्यक्ति वेबसाइट को कितने विजिटर्स (सम्माननीय एवं प्रबुद्ध लेखकगण/पाठकगण) का प्रतिसाद’ मिला, उसे अंकों में गणना  करने से हमारा उत्साह अवश्य बढ़ता है ।  किन्तु, इस अकल्पनीय प्रतिसाद एवं इन क्षणों के आप ही भागीदार हैं। यदि आप सब का सहयोग नहीं मिलता तो मैं इस मंच पर इतनी उत्कृष्ट रचनाएँ देने में  स्वयं को असमर्थ पाता। मैं नतमस्तक हूँ ,आपके अपार स्नेह के लिए। 

आइये हम सब मिलकर मानवता के अदृश्य शत्रु  कोरोना से लड़ें एवं विजयी बनें।   

आप सबका हृदयतल से आभार।

 ?  ?  ?

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

28 मार्च 2020




English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media#1 ☆ बस रहो सिर्फ अपने घर में.. ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)

 ☆ Anonymous litterateur of social media / सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / योर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का अंग्रेजी भावानुवाद  किया है।  इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है। वे इस अनुष्ठान का श्रेय अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना कप्तान प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। जो स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

इस सद्कार्य  के लिए कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी साधुवाद के पात्र हैं । 

इस कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके द्वारा एक अनाम साहित्यकार की एक समसामयिक रचना  बस रहो सिर्फ अपने घर में..का अंग्रेजी भावानुवाद

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी रचना  – बस रहो सिर्फ अपने घर में..☆

 

तूफ़ां के से  हालात  हैं

 ना किसी सफर में रहो.

  पंछियों से है गुज़ारिश

   रहो सिर्फ अपने शज़र में

 

ईद का चाँद बन, बस रहो

 अपने ही घरवालों के संग,

  ये उनकी खुशकिस्मती है

   कि बस हो उनकी नज़र में…

 

माना बंजारों की तरह

 घूमते ही रहे डगर-डगर…

  वक़्त का तक़ाज़ा है अब

   रहो सिर्फ अपने ही शहर में …

 

तुमने कितनी खाक़ छानी

 हर  गली  हर  चौबारे  की,

  थोड़े  दिन की  तो बात है

   बस रहो सिर्फ अपने घर में..

 

☆  English Version  of  Classical Poem of  Anonymous litterateur of social media☆ 

☆  Keep staying in your house… by Captain Pravin  Raghuwanshi 

 

There’re stormy conditions

  Don’t set sail for any voyage

   Pleading with the avian-world

    To keep nestled in their trees

 

Even in once in blue moon,

  Don’t step out, be with family

   It’s a blissful fortune only

    That you’re before their eyes

 

Agreed, like gypsies you’ve

  Been wandering endlessly

   It’s the need of hour that

    You stay in your own town…

 

Much did you wander around

  Every nook and every corner,

   It’s a matter of few days only

    Keep staying in your house…

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अमृत ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अमृत ☆

इस ओर असुर

उस ओर भी

असुर ही,

न मंदराचल

न वासुकि

तब भी-

रोज़ मथता हूँ

मन का सागर,

जाने कितने

हलाहल निकले

एक बूँद

अमृत की चाह में!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रातः 7:11 बजे, 26.3.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 36 – प्राण गीता ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  “प्राण गीता। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 36 ☆

☆ प्राण गीता

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “मेरे प्यारे मित्र, हमारा मस्तिष्क चार मुख्य भावनाओं से बंधा हैं, और ये काम या वासना, क्रोध, लोभ और मोह या मैं और मेरे का अनुलग्नक हैं । हर मानव मन इन चार भावनाओं में ही घूमता रहता है । कुछ में अन्य भावनाओं की तुलना में एक अधिक और अन्य कम अनुपात में होती है, अन्य मनुष्यों के पास दूसरी अधिक और अन्य कम और इसी तरह । उदाहरण के लिए एक व्यक्ति में एक समय अधिक क्रोध और लोभ हो सकता है तो उस समय उसमे मोह और काम स्वभाविक रूप से कम हो जायेंगे ऐसे ही अन्य के लिए भी सत्य हैं । इन भावनाओं की मात्रा हमारे अंदर तेजी से बदलती रहती हैं । आप ध्यान दे सकते हैं कि कभी-कभी आप अधिक काम, कम मोह, या अधिक क्रोध, और अधिक मोह और कम लोभ अनुभव करते हैं । ऐसे ही कई संयोजन संभव हैं”

तब मैंने भगवान हनुमान से पूछा, “ओह! मेरे भगवान, तो गृहस्थ द्वारा एक बिंदु पर मन को स्थिर बनाये रखने का क्या उपाय है ?”

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “आप इसे इस तरह से सोच सकते हैं कि प्रत्येक मनुष्य में सभी चार भावनाओं का कुल प्रतिशत 100% होता है जिसमें चार भावनाओं का अलग अलग प्रतिशत शामिल है। अब भावनाओं को नियंत्रित करने के दो उपाय हैं एक सन्यासियों का मार्ग है और इस मार्ग में सभी चार भावनाओं काम, क्रोध, लोभ और मोह के प्रतिशत को परिवर्तित करके अनासक्ति से जुड़ना है । जब कुल 100 प्रतिशत अलगाव में परिवर्तित हो जाएंगे, तो सन्यासी को आत्म ज्ञान प्राप्त हो जाएगाऔर मोक्ष मिल जायेगा ।

दूसरा मार्ग गृहस्थ आश्रम वालों के लिए है जिसमे सभी भावनाओं को बराबर प्रतिशत में लाना है। अर्थात इसे आप 25 प्रतिशत काम, 25 प्रतिशत क्रोध, 25 प्रतिशत लोभ, 25 प्रतिशत मोह की स्थिति कह सकते हैं ।

ऐसा करने से उसके मनुष्य जीवन के तीन मुख्य स्तम्भों, धर्म (वर्ण, समाज, पृष्ठभूमि के अनुसार उसके लिए निर्धारित कार्यो का निर्वाह करना), अर्थ (परिवार और समाज में उस मनुष्य की स्थिति के अनुसार जीवित रहने के लिए मूलभूत बुनियादी आवश्यकताएँ) और काम (विलासिता, सेक्स आदि की गहरी इच्छा) के लिए उसका मस्तिष्क संतुलित बनेगा । और वो अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामजिक जिम्मेदारियां अच्छी तरह से निभा पायेगा । फिर उसके जीवन की गति स्वतः ही मनुष्य जीवन के चौथे स्तम्भ मोक्ष की ओर बढ़ने लगेगी । इसलिए मध्यस्थता और व्यक्ति के लिए परिभाषित धर्म का अभ्यास करके, वह अपनी चार मुख्य भावनाओं को संतुलित कर सकता है  (अन्य भावनाएं इन चारों की ही उप-श्रेणियां होती हैं)

तब मैंने पूछा, “हे भगवान, हम अपने आस-पास इतनी उच्च नीच, छोटा बड़ा क्यों देखते हैं? एक ही तरह की परिस्थिति किसी एक के लिए बहुत अच्छी हो सकती है और वह ही परिस्थिति किसी दूसरों के लिए बुरी क्यों है?”

भगवान हनुमान ने कहा, “हर व्यक्ति केवल अपने ही ब्रह्मांड को देख सकता है, जो कि उसके अपने पक चुके कर्मों का परिणाम होता है उसका ब्रह्मांड उसके कर्मों से निर्मित होता है और उसकी मुक्ति के साथ चला जाता है । यद्यपि यह बाक़ी उन लोगों के लिए वैसा ही बना रहता है जो अभी भी बंधन में हैं, क्योंकि उसके सारे कर्मों के फल उस समय भी बाक़ी होते हैं । इसके अतरिक्त अच्छे और बुरे सापेक्ष शब्द हैं। जो वस्तु मेरे लिए अच्छी है वह ही वस्तु आपके लिए बुरी हो सकती है । एक ही बात या वस्तु हमारे जीवन के एक भाग में हमारे लिए हितकारी हो सकती है और किसी अन्य भाग में वो ही समान बात या वस्तु हमारे लिए बुरी हो सकती है । बचपन में हर बच्चे को मिठाई खाना पसंद होता है । बच्चों के लिए यह अच्छा है, लेकिन जब वह ही बच्चा बूढ़ा हो जाता है और उसके शरीर के अंदर कई विकार या बीमारियाँ प्रवेश कर लेती हैं, तो वो ही मिठाई उसके स्वास्थ की लिए खराब हो जाती है । मेरे प्यारे मित्र, वह एक ही चेतना है जो हमें एक समय खुशी का अनुभव करवाती है और दूसरे समय उदासी का। आप और क्या जानना चाहते हैं?”

तब मैंने पूछा, “मेरे भगवान आप वायु देव के पुत्र हैं, और हर प्रकार की वायु पर आपका पूर्ण नियंत्रण है। आप हमारे शरीर के अंदर प्राण के रूप में प्रवाह होने वाली वायु हैं। तो तीनों लोकों में प्राण वायु के विषय में सिखाने के लिए आप से अच्छा शिक्षक और कौन होगा?

भगवान हनुमान मुस्कुराये और कहा, “ठीक है, मैं आपको प्राण वायु के रहस्य बताने जा रहा हूँ जिसका ज्ञान देवताओं के लिए भी दुर्लभ है”

तब भगवान हनुमान ने मुझसे कहा, “प्राण के कारण ही यह ब्रह्मांड सक्रिय है और यह प्राण हर अभिव्यक्ति जीवन में उपस्थितहै । दुनिया के विभिन्न तत्व अलग-अलग आवृत्तियों पर प्राण के कंपन के अतरिक्त और कुछ भी नहीं हैं । आपको मनुष्य शरीर में विभिन्न प्रकार के प्राणों का ज्ञान अवश्य होगा”

मैंने कहा, “हाँ भगवान मैं हमारे शरीर के अंदर के दस प्राणों के विषय में थोड़ी बहुत जानकारी रखता हूँ, जिसमें से पाँच सबसे महत्वपूर्ण हैं- प्राण, उदान, व्यान, समान और अपान है”

भगवान हनुमान जी ने कहा, “हाँ जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो मन में उपस्थित विचार प्राण वायु में प्रवेश कर जाते हैं । प्राण और उदान आत्मा के साथ जुड़ जाते हैं और उसे इच्छित दुनिया में ले जाते हैं । उदान रीढ़ की हड्डी के केंद्र से गुजरने वाली नाड़ी में स्थिर रहता है । मृत्यु के समय यदि उदान रीढ़ की हड्डी के ऊपरी हिस्से में है तो व्यक्ति स्वर्ग या ऊपरी लोकों में जाता है, यदि रीढ़ की हड्डी के निचले हिस्से में है वो निचले लोकों में जाता है और यदि बीच में, तो उसे लगभग वर्तमान के स्वरूप ही मानव जीवन मिलता है । विभीषण मैंने आपको चार मुख्य भावनाओं के विषय में बताया था, लेकिन नौ रस या भावनाएं मुख्य हैं जो आसानी से मनुष्यों में पहचानी जा सकती हैं । अब मैं आपको बता दूँ कि मस्तिष्क में भावनाएं कैसे उत्पन्न होती हैं । जब प्राण वायु शरीर में आयुर्वेदिक दोषों (वात, कफ और पित्त) के साथ मिलता हैं, तो हमारे मस्तिष्क  में रस का अनुभव होता हैं । यह प्राण द्वारा कुछ निष्क्रिय प्रतिमानों को सक्रिय करने की तरह है । उस समय पर ‘मैं’ या अहंकार को यह तय करना होता है कि क्या यह अनुभवी रस (भावना) स्वीकार करके उसका परिणाम शरीर में प्रत्यक्ष निरूपित करना है । यदि अहंकार, बुद्धि से परामर्श करने के बाद, रस का समर्थन नहीं करता है, तो यह इच्छा शक्ति के कार्य से बदल जाता है । यदि अहंकार रस का समर्थन करता है, तो बुद्धि भी कुछ नहीं कर सकती है और बुद्धि को भी उस रस को स्वीकार करना पड़ता है और वो हमारे शरीर और मस्तिष्क में प्रत्यक्ष उपज जाता है । जब अहंकार रस का समर्थन करता है, तो यह हमारे अहंकार की मूल प्रकृति, जिसका निर्माण मनुष्यों की चार दैनिक आवश्यकताओं, यौन-इच्छा,नींद, भोजन और आत्म-संरक्षण से होता है, पर निर्भर करता है कि वो नौ में से किस रस का समर्थन करता है । इन चारों के विभिन्न संयोजन विभिन्न प्रकार की अहंकार श्रेणियां बनाते हैं जिन्हें नौ प्रकार की भावनाओं में विभाजित किया जा सकता है ।

सभी योगों का उद्देश्य हमारी बुद्धि को इतना मजबूत बनाना है कि अहंकार द्वारा किसी भी भावना को मस्तिष्क में उपजने से पहले ही बुद्धि उसे अस्वीकार कर सके, ताकि मन किसी एक बिंदु पर ध्यान केंद्रित कर सके ।

मैंने पूछा, “भगवान, इसका अर्थ है कि हमारी सभी भावनाएं शरीर के विभिन्न विभिन्न भागों में उपस्थित आयर्वेद के तीनों दोषों के संयोजन के परिणाम और प्राण वायु के मिलने से उत्पन्न होती हैं?”

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “मैं आपको एक सरल उदाहरण से समझाता हूँ कि हमारे शरीर और मस्तिष्क में श्रृंगार रस या प्रेम की भावना कैसे उत्पन्न होती है । प्राण वायु का प्रवाह जब हृदय क्षेत्र से नीचे नाभि तक आता है तो पित्त दोष के साथ मिलता है । इसे याद रखें, पित्त दोष जल और अग्नि तत्वों का संयोजन है, इसलिए तीन संभावनाएं हैं- एक, जब जल तत्व की मात्रा अग्नि से अधिक होती है, जैसे की हमारी इस स्थिति में, तो ये प्रेम की भावना या श्रृंगार रस उत्पन्न करने के लिए जिम्मेदार होता है। दूसरी सम्भावना, जब अग्नि तत्व की मात्रा जल तत्व से अधिक हो तो इस परिस्थिति में क्रोध रस उत्पन्न होता है और तीसरी सम्भावना जब दोनों तत्वों अग्नि और जल की मात्रा बराबर हो, तो शाँत रस उत्पन्न होता हैं । जब यह प्राण पानी की अधिकता वाले पित्त दोष के साथ मिश्रित होता है तो यह प्रवाह मनोमय कोश की ओर बढ़ता है और अहंकार में गतिशील उत्तेजना उत्पन्न करता है, और फिर ऊपर की दिशा (हृदय के पास) की ओर बढ़ता है, यह उत्तेजना हमारे मस्तिष्क के कणों की संरचना को बहुत ही सरल स्वरूप में व्यवस्थित करती है और ज्ञात प्रतिमान पुरे शरीर में सनसनी उत्पन्न करता है । इस सनसनी को ही प्रेम कहा जाता है । अब आप समझे?”

मैं भगवान हनुमान के चरणों में गिर गया और उनसे आत्मा के विषय में बताने के लिए अनुरोध किया ।

 

© आशीष कुमार  




हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी ☆  लघुकथा – प्रश्नोत्तर ☆  डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(डॉ कुंवर प्रेमिल जी  जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम नागरिकों ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक कई महामारियों से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है। स्वयं से प्रश्नोत्तर स्वरुप आपकी  समसामयिक विषय पर आधारित एक मौलिक लघुकथा  “प्रश्नोत्तर”। )

☆ प्रश्नोत्तर ☆  

प्रश्न- आज का दुखद सपना और अकाट्य सत्य क्या है?

उत्तर- आज का दुखद सपना और  अकाट्य सत्य कौरोना वायरस  है! इसे कोई सपने में भी नहीं देखना चाहते हैं ओर सत्या सत्य यह है कि इसे रोका नहीं गया तो एक भीषण तबाही पीढ़ियों को नेस्त नाबूत करने एक दम सामने खडी़ है, इससे बचने की कोई गुंजाईश सतर्कता के अतिरिक्त  दूर दूर तक नजर नहीं आ रही हैं।

लाल बुखार, पीला बुखार, प्लेग, हैजा से बचते बचाते यहां तक तो आ गए अब इस महामारी से कैसे बचेंगे रे भैया? जीवन पर मृत्यु भारी पड़ रही है, आज की यह विकट लाचारी है।  खुदा ही मालिक है, उसके रहमोकरम पर दुनिया सारी है।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782




मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 28 ☆ बुकीची सून ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके स्वानुभव  एवं  संबंधों  पर आधारित  संस्मरणात्मक कथा  “बुकीची सून ”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 28 ☆

☆ बुकीची सून ☆ 

(विषय   :- व्यक्तिरेखा )

दिवाळीची सुट्टी सुरू झाली होती त्यामुळे मोठी मुलगी व तिच्या मुली आल्या होत्या.सकाळच्या वेळी मी अंगण झाडत होते माझ्या दोन्ही नाती अश्विनी अक्षया माझ्या मागेपुढे करत होत्या.त्या शहरात रहात असल्याने त्यांना मोठ्ठ अंगण म्हणजे अगदी अप्रूप वाटायचं.

दसरा नवरात्रीची धामधूम संपली की आमच्या दारावर रांगोळी विकणाऱ्या बायका येतात.तशीच एक जाडजूड काळी बाई डोक्यावर रांगोळीचं भांड घेऊन “रांगोळी

..ए ..असं जोरजोरात म्हणत

आली अन्  माझ्या जवळच थांबली न् मला म्हणाली ” आवो ,ऽऽ घ्यावो ..ऽऽ. ताई… एकदम पांढरी लयी छान हाय बगा.”

दसऱ्याला घेतलेली बरीच रांगोळी शिल्लक असल्यानं मी तिच्या बोलण्याकडं लक्ष दिलं नाही मी माझं हातातलं काम करत राहिले तशी घ्याहो.. म्हणून माझ्या मागेच लागली. मी म्हटल मागचीच शिल्लक आहे आणि आता घरादारात फरशा बसवल्यात त्यामुळे रांगोळी फार संपत नाही गं…मग मात्र माझं लक्ष वेधून घेण्यासाठी ती जोरात म्हणाली आवो ताई  तुमच्या ” बुकीची सून हाय ओ….मी….!” .

तिचं बोलणं ऐकून माझ्या दोन्ही नातींना काही उलगडा होईना .

या भिकारणीसारख्या दिसणाऱ्या  बाईची सासू …आजीची ” बुकी “… म्हणजे काय..?..

पण मला झाला..

कारण….

सुमारे पस्तीस चाळीस वर्षांपूर्वी भिक्षा मागण्यास बंदी नव्हती. त्यावेळी आमच्या पेठेत एक भिकारीण रोज यायची. तेव्हा आजच्या सारख्या घंटागाड्याही नव्हत्या. कोपऱ्या कोपऱ्यावर नगर परिषदेच्या कचरा कुंड्या असायच्या.

तर ही भिकारीण आमच्या सगळ्यांच्या घरच्या केरकचऱ्याच्या बादल्या त्या कुंडीत रित्या करायची. आणि त्याबदल्यात तिला सर्व घरातील उरलेलं शिळं अन्न दिलं जायचं.

ती मुकी असल्यानं तिचं नाव कुणाला माहीत नव्हतं ऐकूही येत नसल्यानं तिच्याशी कोणाचा संवाद नसायचा, पण मी मात्र तिच्याशी खाणाखुणांनी बोलायचे. कधीमधी तिला छान  ताज ताक, थंडगार कलिंगडाची फोड द्यायचे. तिला ते खूप  बरं वाटायचं खाऊन पिऊन झाल्यावर ती मला  स्वत:च्या छातीवर हात ठेवून जीभ टाळ्याला लावून टक्क् असा मोठ्ठा आवाज करायची म्हणजे खूप छान होतं, आवडलं .! असं सुचवायची.

मलाही खूप बरं वाटायचं.तशी ती नाकी डोळी नीटस होती.

तिला मुकी भिकारीण असं ल़ोक म्हणत आणि ते माझ्या मुलांना आवडायचं नाही. म्हणून त्यांनी तिचं नाव शाॅर्टमधे करायचं ठरवलं. मुकी भिकारीण म्हणून आधी ” भुकी ” म्हणायचं असं  सर्वांनी ठरवलं पण त्यातून ती भुकेली आहे असा निष्कर्ष निघतो इति माझा मोठा मुलगा ! मग तो म्हणाला आपण तिला “बुकी” म्हणूया…मग सर्वांनी एकमताने अनुमोदन देऊन तिचे नामकरण “बुकी” असे झाले.तेव्हापासून ती आमच्या पेठेची बुकी झाली.

तिचं येणं नित्यनियमाचं असायचं.एकदा बरेच दिवस ती आलीच नाही बरं.. चौकशी तरी कुठं करायची.दोन अडीच महिन्यांनी एकेदिवशी ती दिसली.सगळ्यांनी विचारुन तिला बेजार केलं. मग मीच तिला एक दिवस खुणेनं विचारलं तेव्हा लाजत लाजत कपाळावरच्या कुंकवाकडे हात दाखवून नवऱ्याकडे गावी गेले‌होते असं. म्हणाली.

असेच काही दिवस गेले आणि ती पोटुशी असल्याचं लक्षात आलं.मग आम्ही तिला जरा आंबट चिंबट पदार्थ लोणची असं देऊन आम्ही आनंद घेत होतो.व तिचं जरा कौतुक करत होतो तीलाही ते आवडत होतं.मग तिला मुलगा झाला.त्याला काखेच्या झोळीत बांधून ती यायला लागली.ते बाळही गुटगुटीत छान होतं विशेष म्हणजे ते बोलू शकतं हे खुणेनेच  सांगताना तिला झालेल्या आनंदाचं वर्णंनच नाही करता येणार.?

कालांतराने भिक्षा मागण्यास शासनाने मनाई केल्यामुळे की काय ती परत आम्हाला दिसलीच नाही. आम्हीही आमच्या रोजच्या घर ऑफिस मुलं सुना नातवंडे यात गुंतल्याने तिला विसरून गेलो.

आणि आज माझ्या “बुकीची सून” प्रत्यक्ष माझ्या समोर उभी !

आता नको असली तरी अधूनमधून मी तिच्याकडून रांगोळी घेते. तिचा आवाज मात्र भसाडा घोगरा आहे…ती ” रांगोळी ‘.. म्हणून ओरडत येते तेव्हा कानावर हात ठेवावा लागतो. आता हिचं नाव काय ठेवावं असा प्रश्न पडलाय.

सुचवाल कां एखादं नाजूक सुंदर नाव…

माझ्या बुकीच्या सूनेसाठी…!

कां आपलं हेच बरं आहे..” बुकीची सून ‘!!!

 

©®उर्मिला इंगळे

सतारा  मो –  9028815585

दिनांक:-.२१-३-२०

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 30 ☆ जीव ताटवा फुलांचा ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  मराठी कविता  “जीव ताटवा फुलांचा ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 30 ☆

☆ जीव ताटवा फुलांचा  ☆

कधी दूर

ताटवा फुलांचा,

माझ्या संगतीला येतो.

 

कधी दूर

ताटवा चांदण्यांचा,

राती संगतीला राहतो.

 

कधी रात

राहते संगतीस,

तव आठवांचा पूर येतो.

 

कधी आठवणींच्या

हिंदोळयावर सूर,

डोळ्यांतून येतो.

 

कधी सूर

आळवी- आर्जवी,

उर हळाळून येतो.

 

कधी जीव

आठवांच्या ताटव्यात,

चांदणेच होतो.

 

© सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्रा।

9975577684

[email protected]




हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #31 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 31 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

शीलवान के ध्यान से, प्रज्ञा जाग्रत होय ।

अंतर की गांठें खुलें, मानस निर्मल होय ।।

 आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer




आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (23) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना )

 

रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रंमहाबाहो बहुबाहूरूपादम्‌ ।

बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालंदृष्टवा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम्‌ ॥

 

मुख अनेक , कई नेत्रमय बाहु औ जानु विशाल

पैर औ”  उदर अनेक हैं, दाढें हैं विकराल

भयकारी यह रूप लख व्याकुल हैं सबलोग

मैं भी हूँ भयभीत प्रभु ! देख अलौकिक योग ।।23 ।।

 

भावार्थ :  हे महाबाहो! आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले, बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाले, बहुत उदरों वाले और बहुत-सी दाढ़ों के कारण अत्यन्त विकराल महान रूप को देखकर सब लोग व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ॥23॥

 

Having beheld Thy immeasurable form with many mouths and eyes, O mighty-armed, with many arms, thighs and feet, with many stomachs, and fearful with many teeth, the worlds are  terrified and so am I!

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 40 ☆ कोरोना ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक अति संवेदनशील  सार्थक एवं समसामयिक कविता  “ कोरोना ”.  डॉ मुक्ता जी  ने  इस नवीन त्रासदी के दोनों पहलुओं  (दो भागों में ) से रूबरू कराने का एक सार्थक एवं सफल प्रयास किया है। अब पहल आपको करना है और इस त्रासदी से उबर कर आप सब एक नए युग में पदार्पण करें ,ईश्वर से यही कामना है। समाज को सचेत  करती कविता के लिए डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 40 ☆

☆ कोरोना 

कोरोना (भाग एक)

कोरोना…

‘कोई भी रोड पर न निकले’

जी हां यह संदेश है

माननीय नरेंद्र मोदी जी का

ताकि हम कोरोना वायरस की

चेन तोड़कर उसे अलविदा कह पाएं

वैसे बड़ा स्वाभिमानी है वह

बिन बुलाए मेहमान की तरह

दस्तक देगा नहीं

जब तक तुम द्वार पर खिंची

लक्ष्मण-रेखा पार कर

बाहर जाओगे नहीं

तुम सुरक्षित रहोगे

अपने आशियां में

उनके अंग-संग

अपनों के बीच

 

हां!सीमा-रेखा पार करते

वह दबोच लेगा तुम्हें इस क़दर

तुम व तुम्हारा परिवार ही नहीं

आस-पड़ोस को भी

शिकंजे में ले डूबेगा

सो!अपने घर की चौखट

को भूल कर भी पार करने की

ग़ुस्ताख़ी कभी मत करना

वरना अनर्थ हो जाएगा

 

और

कोरोना…

किसी को रोने न देना

के अर्थ बेमानी हो जाएंगे

और तुम सबको पड़ेगा उम्र भर रोना

सो! तीन सप्ताह अपनों के साथ बिताइए

ज़िंदगी भर के ग़िले-शिक़वे मिटाइए

उनकी सुनिए, कुछ अपनी सुनाइए

बच्चों के मान-मनुहार का लु्त्फ़ उठाइए

संवादहीनता से पसरे सन्नाटे को

मगर की भांति लील जाइए

अजनबीपन के बढ़ते अहसास को

ग़लती स्वीकार पाट जाइए

 

यदि तुम रहे आत्मनियंत्रण

करने में असफल

ओर भूले से निकाला

घर से बाहर कदम

तो संभव है टूट जाए

आपका उस घर से नाता

और हो जाएं सदा के लिए दूर

क्योंकि यदि कोई व्यक्ति

कोरोना से पॉज़िटिव पाया गया

तो उसे अस्पताल वाले

उठाकर ले जाएंगे उसी पल

और यदि आप बच निकले

तो आपकी तक़दीर

यदि हुआ इसके विपरीत

तो आपके मरने की सूचना

आपके परिवार को मिल जाएगी

और वे आपके अंतिम दर्शन भी

नहीं कर पाएंगे और न ही प्राप्त होगा

उन्हें अंत्येष्टि करने का अवसर

 

तो सोचिए! क्या मंजूर है

दोनों में से कौन-सा करोना

पसंद है आपको

अपनों का साथ या बाहर की

ज़हरीली आबो-हवा

जो छीन ले आपकी ज़िंदगी

व आपके अपनों से उम्र-भर का सूक़ून

■■■

 

कोरोना (भाग दो)

 

कोरोना एक मुहिम है

देशवासियों को भारतीय संस्कृति

की ओर प्रवृत्त करने की

‘हैलो-हाय’ के स्थान पर

झुक कर नमस्कार करने की

परिवारजनों के साथ मिल-बैठ कर

सुख-दुख सांझे करने की

परिवार में स्नेह, सौहार्द

व सामंजस्य स्थापित करने की

दिलों के फ़ासले मिटाने की

अजनबीपन का अहसास

व गहरा सन्नाटा

जो पसरा है हमारे बीच

उसे अलविदा कहने की

ताकि संवेदनाएं जीवित रहें

 

आओ! सब मिल बैठें

एक-दूसरे की भावनाओं को समझें

ताकि ग़लतफ़हमियाँ दूर हो जाएं

मन शांत रहे और ख़ुद से

ख़ुद की मुलाक़ात  हो जाए

मिट जाए मैं और तुम का भाव

‘हम सबके, सब हमारे’

का भाव जगे सृष्टि में

अंतर्मन में शांति का बसेरा हो जाए

और ज़िंदगी की इक नयी

शुरुआत हो जाए…

स्वर्णिम प्रभात हो जाए

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878