हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 16 – व्यंग्य – भला आदमी / बुरा आदमी ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं जो कथानकों को सजीव बना देता है. यूँ कहिये की कि कोई घटना आँखों के सामने चलचित्र की तरह चल रही हो. यह व्यंग्य केवल व्यंग्य ही नहीं हमें जीवन का व्यावहारिक ज्ञान भी देता है. आज प्रस्तुत है  उनका  व्यंग्य  “भला आदमी / बुरा आदमी ” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 16 ☆

 

☆ व्यंग्य – भला आदमी/ बुरा आदमी ☆

 

बिल्लू की शादी के वक्त मैंने बनवारी टेलर को कोट दिया था बनाने के लिए। शादी निकल गयी और बिल्लू की जोड़ी बासी भी हो गयी, लेकिन मेरा कोट नहीं मिला। हर बार बनवारी का एक ही  जवाब होता, ‘क्या बताएं भइया, बीच में अर्जेंट काम आ जाता है, इसलिए पुराना काम जहाँ का तहाँ पड़ा रह जाता है।’

मैं चक्कर पर चक्कर लगाता हूँ लेकिन मेरा कपड़ा कोट का रूप धारण नहीं करता। अब बनवारी ने दूसरा रोना शुरू कर दिया था, ‘भइया, इस मुहल्ले के आदमी इतने गन्दे हैं कि क्या बतायें। उनका काम करके न दो तो सिर पर चढ़ जाते हैं। आप ठहरे भले आदमी, आपसे हम दो चार दिन रुकने को कह सकते हैं लेकिन इन लोगों से कुछ भी कहना बेकार है।’

‘भला आदमी’ की पदवी पाकर मैं खुश हो जाता और चुपचाप लौट आता। लेकिन तीन चार दिन बाद फिर मेरा दिमाग खराब होता और मैं फिर बनवारी के सामने हाज़िर हो जाता।

बनवारी फिर वही रिकॉर्ड शुरू कर देता, ‘भइया, आपसे क्या कहें। इस मुहल्ले में नंगे ही नंगे भरे हैं। अब नंगों से कौन लड़े? उनका काम करके न दो तो महाभारत मचा देते हैं। आप समझदार आदमी हैं। हमारी बात समझ सकते हैं। वे नहीं समझ सकते। मैं तो इस मुहल्ले के लोगों से तंग आ गया।’

जब भी मैं उसकी दूकान पर जाता, बनवारी बड़े प्रेम से मेरा स्वागत करता। अपनी दूकान में उपस्थित लोगों को मेरा परिचय देता। साथ ही यह वाक्य ज़रूर जोड़ता, ‘खास बात यह है कि बड़े भले आदमी हैं। यह नहीं है कि एकाध दिन की देर हो जाए तो आफत मचा दें।’

अंततः मेरे दिमाग में गर्मी बढ़ने लगी। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक आदमी मेरे सामने कोट का नाप देकर गया और अगली बार मेरे ही सामने कोट ले भी गया। मैंने जब यह बात बनवारी से कही तो वह बोला, ‘अरे भइया, इस आदमी से आपका क्या मुकाबला? इसका काम टाइम से न करता तो ससुरा जीना मुश्किल कर देता। बड़ा गन्दा आदमी है। ऐसे आदमियों से तो जितनी जल्दी छुट्टी मिले उतना अच्छा। आप ठहरे भले मानस। आपकी बात और है।’

लेकिन मेरा दिमाग गरम हो गया था। मैंने कहा, ‘बनवारी, तुम मेरा कपड़ा वापस कर दो। अब मुझे कोट नहीं बनवाना।’

बनवारी बोला, ‘अरे क्या बात करते हो भइया! बिना बनाये कपड़ा वापस कर दूँ? अब आप भी उन नंगों जैसी बातें करने लगे। दो तीन दिन की तो बात है।’

चार दिन बाद फिर बनवारी की दूकान पर पहुँचा तो वह मुझे देखकर आँखें चुराने लगा। मुझे शहर के समाचार सुनाने लगा। मैंने कहा, ‘बनवारी, मैं कोट लेने आया हूँ।’

वह बोला, ‘क्या बतायें भइया, वे उपाध्याय जी हैं न, वे बहुत अर्जेंट काम धर गये थे। उल्टे-सीधे आदमी हैं इसलिए उनसे पीछा छुड़ाना जरूरी था। बस,अब आपका काम भी हो जाता है।’

मैं कुछ क्षण खड़ा रहा, फिर मैंने कहा, ‘बनवारी!’

वह बोला, ‘हाँ भइया।’

मैंने कहा, ‘तुम इसी वक्त मेरा नाम अपनी भलेमानसों की लिस्ट में से काट दो। बोलो, कोट लेने कब आऊँ?’

वह मेरे मुँह की तरफ देखकर धीरे से बोला, ‘कल ले लीजिए।’

दूसरे दिन पहुँचने पर उसने मुझे कोट पहना दिया। तभी एक और आदमी उससे अपने कपड़ों के लिए झगड़ने लगा। मैंने सुना बनवारी उससे कह रहा था, ‘भइया, तुम ठहरे भले आदमी। नंगे-लुच्चों को पहले निपटाना पड़ता है।’

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #13 – चौरासी कोसी परिक्रमा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 13 ☆

 

☆ चौरासी कोसी परिक्रमा ☆

 

लगभग एक घंटे पहले छिटपुट बारिश हुई है। भोजन के पश्चात घर की बालकनी में आया तो वहाँ का दृश्य देखकर मन प्रफुल्लित हो उठा। सुरक्षा जाली की सलाखों पर पानी की मोटी बूँदें झूल रही थीं। बालकनी के पार खड़े विशाल पेड़ अपनी फुनगियों पर गुलाबी फूलों से लकदक यों झूम रहे थे मानों सुबह-सवेरे कोई मुनिया अपनी चोटियों पर दो गुलाबी रिबन कसे इठलाती हुई स्कूल जा रही हो। इस दृश्य को कैमरे में उतारने का मोह संवरण न कर सका।

मोबाइल के कैमरे ने चित्र उतारा तो मन का कैमरा चित्र को मस्तिष्क की तरंगों तक ले गया और मन-मस्तिष्क क गठजोड़ विचार करने लगा। क्या हमारा क्षणभंगुर जीवन साँसों का आलंबन लिए इन बूँदों जैसा नहीं है? हर बूँद को लगता है  जैसे वह कभी न ढलेगी, न ढलकेगी। सत्य तो यह है कि अपने ही भार से बूँद प्रतिपल माटी में मिलने की ओर बढ़ रही है। कालातीत सत्य का अनुपम सौंदर्य देखिए कि बूँद माटी में मिलेगी तो माटी उम्मीद से होगी। माटी उम्मीद से होगी तो अंकुर फूटेंगे। अंकुर फूटेंगे तो पौधे पनपेंगे। पौधे पनपेंगे तो वृक्ष खड़े होंगे। वृक्ष खड़े होंगे तो बादल घिरेंगे। बादल घिरेंगे तो बारिश होगी। बारिश होगी तो बूँदें टपकेंगी। बूँदें टपकेंगी तो सलाखें भीगेंगी। सलाखें भीगेंगी तो उन पर पानी की मोटी बूँदें झूलेंगी…!

वस्तुत: सलाखें, बूँदें, पेड़, सब प्रतीक भर हैं। जीवात्मा असीम आनंद के अनंत चक्र की चौरासी कोसी परिक्रमा कर रहा है। बरसाती बादल की तरह छिपते-दिखते इस चक्र को अद्वैत भाव से देख सको तो जीवन के ललाट पर सतरंगा इंद्रधनुष उमगेगा।…इंद्रधनुष उमगने के पहले चरण में चलो निहारते हैं सलाखें, बूँदें और पेड़…!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – विशाखा की नज़र से ☆ पूर्व/पश्चिम☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना  पूर्व/पश्चिम.  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – विशाखा की नज़र से

 

☆ पूर्व/पश्चिम ☆

 

कितना अंतर है हम दोनों के मध्य

मैं पूर्व तू पश्चिम ,जब मै उदित तू अस्त

पर कभी मेरे द्वारा अर्पित सूर्य को अर्ध्य

अब तेरे सागर में हिलोरे लेता है

तेरे मनचंद्र को प्रभावित करता है

 

जिस ओंकार स्मरण से

मेरी धरती का मन भर गया

तू उसका अनुसरण करने लगा

ध्यान, योग, वेदों में भ्रमण करने लगा ।

 

जिस पौरुष को तूने 200 वर्ष तक दमित किया ,

उसकी कई पीढ़ियों को संक्रमित किया ।

अब उसके मानसरोवर में संशय के बत्तखों को स्वतंत्र कर,

तू कैलाश आरोहण करने लगा, परमसत्य खोजने चला ।

 

अब तू ही कल आकर,

वही ज्ञान पूर्व को बताएगा,

संस्कृत का महत्व जतायेगा ।

फिर हम,

उसी पश्चिम सागर के जल से सूर्य अर्ध्य का दर्प करेंगे,

सप्तऋषियों को चकित करेंगे ।

 

© विशाखा मुलमुले  ✍

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ फरारी. ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(आज प्रस्तुत है  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  एक भावप्रवण कविता  फरारी. )

 

☆ फरारी ☆

(*वृत्त :- भुजंग प्रयात*)

(*लगागा, लगागा, लगागा, लगागा*)

मनाची कितीदा करू मी तयारी

तुझे नाटकी बोलणे घाव भारी.

तुझ्या  आठवांनी मना चैन नाही

नको पावसाळा घडो भेट न्यारी.

तुझी रंगभूषा अजूनी कळेना

तुझी भावबोली , पुन्हा स्वप्न वारी.

दिले तू मला जे, तया तोड नाही

तुझ्या आठवांची, पुरेना शिदोरी.

कवीराज आता, नको आस लावू

तुझ्या पावलांचे, ठसे ही फरारी.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #20 – ☆ प्रवास ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी प्रवास सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  यह सत्य है कि अक्सर हम जीवन में कई प्रवास करते हैं.  कभी कभी हम थक जाते हैं . हम अर्थात हमारा शरीर या मन.  उस थकान का अहसास कभी शरीर तो कभी मन दे देता है.  किन्तु, हमारा जीवन भी तो आखिर एक प्रवास ही है न ? इस प्रवास पर सुश्री आरुशी जी का विमर्श अत्यंत सहज किन्तु गंभीर है.  सुश्रीआरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #20 ?

 

☆ प्रवास ☆

 

प्रवास करून करून थकले बाई, बास आता, कुठ्ठे कुठ्ठे जाणं नको आता…

असं बऱ्याच वेळा होतं, आणि थकलेलं मन किंवा शरीर हा डायलॉग बोलून जातं. कधी कधी हे मनातल्या मनात असतं तर कधी बोलून दाखवलं जातं… मन किंवा शरीर थकत आहे म्हणजे नक्कीच त्यांचा उपयोग केला जात आहे…

जन्म आणि मृत्यू ह्यातील प्रत्येक क्षणाचा प्रवास हा आपल्याला समृद्ध करणारा असतो… फक्त आपण समृद्ध होत आहोत ही जाणीव खूप महत्त्वाची असते… कुठलाही प्रवास काही तरी देऊन जातो आणि जेव्हा काही तरी घेऊन जातो तेव्हा आपलं आयुष्य नक्कीच बदलून जातो… प्रवासात येणारे अनुभव, घालवलेला वेळ, पैसा, बुद्धी, कष्ट ह्याला नक्कीच काही ना काही तरी अर्थ आहे, विनाकारण कोण कशाला ह्या गोष्टी खर्च करेल, हो ना ? ह्या प्रवासातून काही तरी साध्य होणार आहे म्हणून हा सगळा खटाटोप केला जातो… निरर्थक काहीच नाही…

खरंच हा प्रवास करताना किती ऍडजस्टमेंट करायला लागतात नाही, कधी ह्या अडजस्टमेंट्स मान्य असतात, तर कधी नाही. पर्याय नसतो कधी कधी. काही वेळा त्यामुळे चीड चीड होते, पण सकारात्मकता असेल तर हे ही दिवस जातील ह्या प्रमाणे हा प्रवासही सुखाचा होईल ह्यात शंका नाही. त्यात प्रवासातील साथीदार कोण आहेत, त्यांची गरज किंवा आवश्यकता काय आहे, त्यांचे त्या प्रवासातील महत्व काय आहे ह्या गोष्टी खूप घडवून आणतात…

किती ही काही झालं तरी, प्रवासाची दिशा जर ठरलेली नसेल तर सगळंच अवघड होऊन बसेल, हो ना? म्हणजे भरकटलेला प्रवास कदाचित निरर्थक ठरेल, त्याचे परिणामही चांगले नसतील, त्यामुळे सर्व जाणिवा जिवंत ठेवून प्रवासाचा आनंद घेणे कधी ही योग्यच ठरेल… असा प्रवास प्रगल्भतेकडे नेणारा असेल…

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (12) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।

उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।12।।

 

उस आसन पर बैठकर मन को कर एकाग्र

आत्म शुद्धि के भाव से ध्यान करे अनिवार्य।।12।।

 

भावार्थ :  उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे ।।12।।

 

There, having made the mind one-pointed, with the actions of the mind and the senses controlled, let him, seated on the seat, practice Yoga for the purification of the self. ।।12।।

 

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – स्वप्न ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

We present an English Version of this poem with the title ✍ Dreams ✍  published today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

 

✍ संजय दृष्टि  – स्वप्न  ✍

 

कभी डराया, कभी धमकाया,

 कभी कुचला,  कभी दबाया,

  कभी तोड़ा, कभी फोड़ा,

   कभी  रेता, कभी मरोड़ा…

 

सब कुछ करके हार गईं,

 हाँफने लगीं परिस्थितियाँ।….

  जाने क्या है जो मेरे

   सपने कभी मरते ही नहीं..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ संस्कृति का अवसान ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का  कविता संस्कृति का अवसान.   डॉ . मुक्ता जी ने इस कविता के माध्यम से आज संस्कृति का अवसान किस तरह हो रहा है ,उस  पर अपनी बेबाक राय रखी है. आप स्वयं पढ़ कर  आत्म मंथन करें , इससे बेहतर क्या हो सकता है? आदरणीया डॉ मुक्त जी का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।) 

 

☆ संस्कृति का अवसान ☆

 

जब से हमने पाश्चात्य संस्कृति

की जूठन को हलक़ से उतारा

हमारी संस्कृति का हनन हो गया

 

हम जींस कल्चर को अपना

हैलो हाय कहने लगे

मां को मम्मी, पिता को डैड पुकारने लगे

उनके प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव

जाने कहां लुप्त हो गया

 

हम जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर

आपस में लड़ने-झगड़ने लगे

लूट-खसोट, भ्रष्टाचार को

जीवन में अपनाने लगे

स्नेह, सौहार्द, करुणा, त्याग भाव

खु़द से मुंह छिपाने लगे

 

नारी की अस्मत चौराहे पर लगी लुटने

पिता, पुत्र, भाई बने रक्षक से भक्षक

बेटी नहीं अपने घर-आंगन में सुरक्षित

अपने ही, अपने बन, अपनों को छलने लगे

पैसा, धन जायदाद गले की फांस बना

अपहरण, डकैती, हत्या उनके शौक हुए

कसमे, वादे, प्यार

वफ़ा के किस्से पुराने हुए

 

राजनीति पटरानी बन हुक्म चलाने लगी

भाई भाई को आपस में लड़वाने लगी

रिश्तों के व्याकरण से अनजान

इंसान खु़द से बेखबर हो गए

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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English Literature – Poetry – ☆ Dreams ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem ” स्वप्न ” published in today’s ✍ संजय दृष्टि  – स्वप्न ✍.  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

 

✍ Dreams ✍

 

Sometimes frightened me,

Sometimes tried threatening

 

Sometimes crushed me,

Sometimes tried pressing…

 

Sometimes battered me,

Sometimes tried breaking

 

Sometimes abrased me,

Sometimes tried twisting

 

Circumstances tried everything possible

But in vain…

 

Grouchingly exhausted

They started panting…

 

Knoweth not what my dreams are made of

They never seem to die..!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 9 – सीता की गीता ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अद्भुत पराक्रम।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 9 ☆

 

☆ सीता की गीता

 

देवी सीता ने कहा, “मेरी प्यारी बेटी, पत्नी को केवल अपने पति की नियति का पालन करना चाहिए । एक स्त्री  के लिए उसके पिता, उसका बेटा, उसकी माँ, उसकी सखियों, बहन, भाई, एवं स्वयं से बढ़कर भी उसका पति ही है, जो इस संसार में और उसकी आने वाली आगामी जिंदगियों में मोक्ष का उसका एकमात्र साधन है । एक स्त्री के लिए सबसे बड़ी सजावट बाह्य आभूषण नहीं बल्कि उसके पति की खुशी है ।

अपनी बेटी को अपने पति और अपने सास- ससुर को प्यार, सम्मान और स्नेह देने के लिए प्रशिक्षित करना एक माता का परम कर्तव्य है ।

देवी सीता ने आगे कहा, “अब मैं आपको पत्नी के कुछ कर्तव्यों को बताऊँगी जिन्हें हर एक पत्नी को उसकी जाति, संस्कृति, पृष्ठभूमि, देश इत्यादि के बावजूद पालन करना चाहिए । वे निम्नलिखित हैं :

  • एक अच्छी पत्नी को अपने पति के घर में खुद को स्थायी रूप से स्थापित करना चाहिए ।
  • पत्नी को अपने पति की देख रेख में ही रहना चाहिए ।
  • पत्नी को अपने पति के प्रेमपूर्ण दृष्टिकोण की ओर आकर्षित रहना चाहिए और हमेशा अपने पति के प्रति ईमानदार रहना चाहिए ।
  • पत्नी को अपने पति के घर में इतना प्यार और स्नेह खोजना चाहिए कि उसे अपने माता-पिता के घर को याद ही ना आये ।
  • पत्नी को अपने पति के प्रति मधुर रूप से आचरण करना चाहिए ।

पत्नी के कुछ अन्य मुख्य गुण :

उसे केवल अपने पति की ओर कामुक होना चाहिए, उसे घर के कामो के प्रति मेहनती होना चाहिए, सर्वोत्तम व्यवहार करना चाहिए, घर को सर्वोत्तम तरीके से बनाए रखने, पति के धन- धान्य को संरक्षित करने और बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए, एवं ज़रूरत वाले लोगों पर पति की कमाई का भाग खर्च करना, घर को बहुत परिपक्व तरीके से बढ़ाने के लिए, पति की कमाई को सावधानी पूर्वक इस्तमाल करना चाहिए । उसे दुःख और क्रोध से प्रभावित नहीं होना चाहिए, हर किसी को अपने अच्छे व्यवहार से खुश रखना चाहिए, उसे हर रोज सूर्योदय से पहले जागना चाहिए एवं कभी भी अपने पति से अलग होने के विषय में नहीं सोचना चाहिए ।

त्रिजटा ने कहा, “माँ मुझे जो आपने अपने ज्ञान का आशीर्वाद दिया है वह अद्भुत है, अब कृपया मुझे पति के कर्तव्यों के विषय में बताएं”

देवी सीता ने कहा, “पुत्री अपने कर्तव्यों को पूर्णतय पालन करने का सबसे अच्छा उपाय यह है की हम दूसरों के कर्तव्यों से अपने कर्तव्यों की तुलना ना करे । मैं मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान की पत्नी हूँ और मैं केवल अपने पति और उनके परिवार के लिए अपने कर्तव्यों को पूरा करने के विषय में ही सोचती और जानती हूँ लेकिन पुत्री यदि तुम पूछ ही रही हो तो मैं तुमको बता दूँगी, एक बार मेरे पति ने मुझे पति के कर्तव्यों के विषय में समझाया था, वे ये हैं:

  • पति के प्यारे और प्यारे व्यवहार से पत्नी को उसके प्रति प्यार और स्नेह पैदा करना चाहिए ।
  • पति को पत्नी से कुछ छिपाना नहीं चाहिए ।
  • उसे एक अनुशासित, पवित्र जीवन जीना चाहिए ।
  • वह अपने विवाहित जीवन को बनाए रखने के लिए पैसे कमाने में सक्षम होना चाहिए।
  • पति को अपनी पत्नी का सम्मान करना चाहिए ।

मर्यादा पुरुषोत्तम मर्यादा का अर्थ है केवल वो ही कार्य करना जो एक व्यक्ति के उसकी जाति, राज्य, अवस्था आदि से निर्धारित उसके धर्म है । पुरुषोत्तम का अर्थ है पुरुषो में उत्तम या जो आदर्श पुरुष हो । पुरुषोत्तम भगवान विष्णु के नामों में से एक हैं और महाभारत के विष्णु सहस्रनाम में भगवान विष्णु के 24 वें नाम के रूप में प्रकट होता हैं । भागवत गीता के अनुसार, पुरुषोत्तम को क्षार और अक्षार के ऊपर और परे समझाया गया है या एक सर्वज्ञानी ब्रह्मांड के रूप में समझाया गया है । भगवान विष्णु के अवतार के रूप में भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है, जबकी भगवान विष्णु को भगवान कृष्णा के अवतार के रूप में लीला या पूर्ण पुरुषोत्तम के रूप में जाना जाता है ।

 

© आशीष कुमार  

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