मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 6 ☆ माझे स्वप्न ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी  परिकल्पित कविता  माझे स्वप्न.  श्रीमती उर्मिला जी  की  वृक्ष होने की कल्पना अद्भुत है  और सांकेतिक पर्यावरण का सन्देश भी देती है.  श्रीमती उर्मिला जी  को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 6 ☆

 

☆ माझे स्वप्न ☆

 

मला वाटते एक सुंदर झाड मी व्हावे !

कुणीतरी मातीत मला रुजवावें !

त्यावर झारीने पाणी फवारावे !

मग मी मस्त तरारावें !

मी एक सुंदर झाड मी व्हावे !!१!!

 

फुटावित कोवळी पाने !

कसा हिरवागार जोमाने !

दिसामाजी मी वाढतच जावें !

मी एक सुंदर झाड व्हावें !!२!!

 

यावीत सुंदर सुगंधी फुले !

तोडाया येतील मुलीमुलें !

होतील आनंदी मुलें !

मुली आवडीने केसात माळतील फुले !

होई आनंदी माझे जगणें  !!३!

 

येतील मधुर देखणी फळे !

पक्षी होती गोळा सारे !

आनंदाने खातील फळे !

चिवचिवाट करतील सारे !!४!!

 

गाईगुरे येतील सावलीत !

बसतील रवंथ करीत !

झुळुझुळू वारे वाहतील !

चहूकडे आनंद बहरेल !!५!!

 

मला भेटण्या येतील वृक्षमित्र !

काढतील सुंदर छायाचित्र !

छापून देईल वर्तमानपत्र !

मग प्रसिद्धी पावेल सर्वत्र !

बहु कृतकृत्य मी व्हावे !

मी एक सुंदर झाड व्हावें !!६!!

 

माझ्या फळातील बीज सारे !

नेतील गावोगावी सारे !

वृक्ष लावा जगवा देतील नारे !

माझे बीज सर्वत्र अंकुरें !

माझ्या वंशाला फुटतील धुमारे !

रानी वनी आनंदाचे झरे

मी एक सुंदर वृक्ष झालो रे !

मी एक सुंदर वृक्ष झालो रे !!७!!

 

©® उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक:-#२०-९-१९

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 7 ☆ फिरूनी जन्म घ्यावा…. ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण मराठी कविता  ‘फिरूनी जन्म घ्यावा….’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 7

☆ फिरूनी जन्म घ्यावा….

 

फिरूनी जन्म घ्यावा,
की जन्मभर फिरावे
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

भरावे मनाचे गगन चांदण्याने,
की व्देषाच्या आगीत स्वतः जळावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

रहावे थांबून डोळ्यांच्या किनारी,
की वहावे पूरात स्वतः बुडवावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

जगावा प्रत्येक श्वास हृदयाचा,
की मोजक्याच श्वासात स्वतः संपवावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

छेडूनी अंतरी तार संगीताची,
की बेसुरी संगतीत स्वतः भिजवावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

कवटळून घ्यावे अथांग क्षितिजास,
की कोंडी करावी स्वतःच्या मनाची,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

जगाच्या पसा-सात, पसरूनी हरवावे,
की स्वतःच्या मनी जग निर्माण करावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..

 

© सौ. सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ सत्तायदान (विडंबन) ☆ – श्री विक्रम मालन आप्पासो शिंदे

श्री विक्रम मालन आप्पासो शिंदे

 

(आज प्रस्तुत है श्री विक्रम मालन आप्पासो शिंदे जी की  एक भावप्रवण कविता “सत्तायदान (विडंबन)”।)

 

☆ सत्तायदान (विडंबन) ☆ 

 

आता निवडणुका व्हावें  !

तिकीट मला आज्ञावें  !

निवडूनी मज द्यावें  !

मतदान हें   !!

 

उदंड पैशाची रास पडो  !

तया भ्रष्ट कर्मी गती वाढो  !

काळे भांडे उघड ना पडो  !

मैत्र लबाडांचे   !!

 

विरोधकांचे तिमिर जावो  !

एकटा स्वधर्म सत्ता पाहो  !

जो नडेल तो तो उखडावों  !

जीवजात  !!

 

बरसत सकळ चंगळी  !

पक्ष अनीष्ठांची मांदियाळी  !

न डरता नेता मंडळी  !

भेटती सदा  !!

 

चला जाती धर्मांचे आरव  !

चेतवा बंड फुकाचे गावं  !

बोलते जे उलट  !

पेटवायाचे  !!

 

हिंसाचाराचे जे लांछन  !

अखंड जे घडवून  !

ते सर्वाही सदा दुर्जन  !

आतंक होतू  !!

 

किंबहूना सर्व पापी  !

पूर्ण करोनी मानव लोकीं  !

दानव वृत्ती ठेवूनी भूकी  !

अखंडित   !!

 

आणि प्रतिष्ठापजीवियें  !

सर्व विशेष लोकी इयें  !

भ्रष्टा – भ्रष्ट विजयें  !

होवावे जी   !!

 

येथ म्हणे श्री – नेता अपराधो  !

हा होईल भय पसावो  !

येणे वरे दुःख देवो  !

दुःखिया झाला  !!

 

( ज्ञानेश्वर माऊली  (महाराष्ट्र में  संत ज्ञानेश्वर महाराज जी के ग्रंथ ज्ञानेश्वरी को ‘माउली’ या माता भी कहा जाता है।) कृपया मला माफ करा…तुमच्या पसायदानाचं आता समाजात नेहमीचंच सत्तायदान झालंय… सर्व काही विरोधाभास आहे इथे…वैश्विक विचार नाही इथ ..उरला सत्तेचा खेळ आहे…!!! ) 

 

©  कवी विक्रम मालन आप्पासो शिंदे

मु/पो-वेळू (पाणी फाउंडेशन), तालुका-कोरेगाव, जिल्हा-सातारा 415511

मोबाइल-7743884307  ईमेल – [email protected]

 

विडंबन “सत्तायदान” क्रमशः  “अस्वस्थ”  या काव्यसंग्रहातून…!

आवडल्यास प्रतिक्रिया जरूर द्या..सदैव आपल्या सेवेसी 7743884307

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (11) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।

नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌।।11।।

 

उचित उच्च आसन लगा, देख शुद्ध स्थान

विध्न दर्भ मृगचर्म से वेदी कर निर्माण।।11।।

 

भावार्थ :  शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके।।11।।

 

In a clean spot, having established a firm seat of his own, neither too high nor too low,  made of cloth, a skin and kusha grass, one over the इतर ।।11।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – चिंतन तो बनता है ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – चिंतन तो बनता है ☆

 

सोमवार 16 सितम्बर 2019 को हिंदी पखवाड़ा के संदर्भ में केंद्रीय जल और विद्युत अनुसंधान संस्थान, खडकवासला, पुणे में आमंत्रित था। कार्यक्रम के बाद सैकड़ों एकड़ में फैले इस संस्थान के कुछ मॉडेल देखे। केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के लिए अनेक बाँधों की देखरेख और छोटे-छोटे चेकडैम बनवाने में  संस्थान महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह संस्थान चूँकि जल अनुसंधान पर काम करता है, भारत की नदियों पर बने पुल और पुल बनने के बाद जल के प्रवाह में आनेवाले परिवर्तन से उत्पन्न होनेवाले प्रभाव का यहाँ अध्ययन होता है। इसी संदर्भ में यमुना प्रोजेक्ट का मॉडेल देखा। दिल्ली में इस नदी पर कितने पुल हैं, हर पुल के बाद पानी की धारा और अविरलता में किस प्रकार का अंतर आया है, तटों के कटाव से बचने के लिए कौनसी तकनीक लागू की जाए,  यदि राज्य सरकार कोई नया पुल बनाने का निर्णय करती है तो उसकी संभावनाओं और आशंकाओं का अध्ययन कर समुचित सलाह दी जाती है। आंध्र और तेलंगाना के लिए बन रहे नए बाँध पर भी सलाहकार और मार्गदर्शक की भूमिका में यही संस्थान है। इस प्रकल्प में पानी से 900 मेगावॉट बिजली बनाने की योजना भी शामिल है। देश भर में फैले ऐसे अनेक बाँधों और नदियों के जल और विद्युत अनुसंधान का दायित्व संस्थान उठा रहा है।

मन में प्रश्न उठा कि पुणे के नागरिक, विशेषकर विद्यार्थी, शहर और निकटवर्ती स्थानों पर स्थित ऐसे संस्थानों के बारे में कितना जानते हैं? शिक्षा जबसे व्यापार हुई और विद्यार्थी को विवश ग्राहक में बदल दिया गया, सारे मूल्य और भविष्य ही धुँधला गया है। अधिकांश निजी विद्यालय छोटी कक्षाओं के बच्चों को पिकनिक के नाम पर रिसॉर्ट ले जाते हैं। बड़ी कक्षाओं के छात्र-छात्राओं के लिए दूरदराज़ के ‘टूरिस्ट डेस्टिनेशन’ व्यापार का ज़रिया बनते हैं तो इंटरनेशनल स्कूलों की तो घुमक्कड़ी की हद और ज़द भी देश के बाहर से ही शुरू होती है।

किसीको स्वयं की संभावनाओं से अपरिचित रखना अक्षम्य अपराध है। हमारे नौनिहालों को अपने शहर के महत्वपूर्ण संस्थानों की जानकारी न देना क्या इसी श्रेणी में नहीं आता? हर शहर में उस स्थान की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक धरोहर से कटे लोग बड़ी संख्या में हैं। पुणे का ही संदर्भ लूँ तो अच्छी तादाद में ऐसे लोग मिलेंगे जिन्होंने शनिवारवाडा नहीं देखा है। रायगढ़, प्रतापगढ़ से अनभिज्ञ लोगों की कमी नहीं। सिंहगढ़ घूमने जानेवाले तो मिलेंगे पर इस गढ़ को प्राप्त करने के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज के जिस ‘सिंह’ तानाजी मालसुरे ने प्राणोत्सर्ग किया था, उसका नाम आपके मुख से पहली बार सुननेवाले अभागे भी मिल जाएँगे।

लगभग एक वर्ष पूर्व मैंने महाराष्ट्र के तत्कालीन शालेय शिक्षामंत्री को एक पत्र लिखकर सभी विद्यालयों की रिसॉर्ट पिकनिक प्रतिबंधित करने का सुझाव दिया था। इसके स्थान पर ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व के स्थानीय स्मारकों, इमारतों, महत्वपूर्ण सरकारी संस्थानों  की सैर आयोजित करने के निर्देश देने का अनुरोध भी किया था।

धरती से कटे तो घास हो या वृक्ष, हरे कैसे रहेंगे? इस पर गंभीर मनन, चिंतन और समुचित क्रियान्वयन की आवश्यकता है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 16 ☆ हैरान हूँ ! ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का  कविता हैरान हूँ !  डॉ . मुक्ता जी ने इस कविता के माध्यम से आज के हालात  पर अपनी बेबाक राय रखी है.  जयंती, विशेष दिवस हों या कोई त्यौहार या फिर कोई सम्मान – पुरस्कार ,  कवि सम्मलेन या समारोह एक उत्सव हो गए हैं और  ये सब हो गए हैं मौकापरस्ती के अवसर.  अब आप स्वयं पढ़ कर  आत्म मंथन करें इससे बेहतर क्या हो सकता है? आदरणीया डॉ मुक्त जी का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 16 ☆

 

☆ हैरान हूं! ☆

 

हैरान हूं!

आजकल कवि-सम्मेलनों की

बाढ़ देख कर

डर है कहीं सैलाब आ न जाये

 

जयंती हो या हो पुण्यतिथि

होली मिलन हो या दीवाली की शाम

ईद हो या हो बक़रीद

हिंदी दिवस हो या शिक्षक दिवस

या हो नववर्ष के आगमन की वेला

सिलसिला यह अनवरत चलता रहता

कभी थमने का नाम नहीं लेता

 

वैसे तो हम आधुनिकता का दम भरते हैं

लिव-इन व मी टू में खुशी तलाशते हैं

तू नहीं और सही को आज़माते हैं

परन्तु ग़मों से निज़ात कहां पाते हैं

 

आजकल कुछ इस क़दर

बदल गया है, ज़माने का चलन

मीडिया की सुर्खियों में बने रहने को

हर दांवपेच अपनाते हैं

पुरस्कार प्राप्त करने को बिछ-से जाते हैं

पुरस्कृत होने के पश्चात् फूले नहीं समाते हैं

और न मिलने पर अवसाद से घिर जाते हैं

जैसे यह सबसे बड़ी पराजय है

जिससे उबर पाना नहीं मुमक़िन

 

आओ! अपनी सोच बदल

सहज रूप से जीएं

इस चक्रव्यूह को भेद

मन की ऊहापोह को शांत करें

अनहद नाद की मस्ती में खो जाएं

स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ

अलौकिक आनंद में डूब जाएं

जीवन का उत्सव समझ

जीते जी मुक्ति पाएं

जीवन को सफल मनाएं

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – ☆ व्यंग्य – हिन्साप ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(श्री हेमन्त बावनकर जी  द्वारा अस्सी नब्बे के दशक में  लिखा गया  राजभाषा  पखवाड़े पर  एक विशेष  व्यंग्य .)

 

☆ हिन्साप

 

“हिन्साप”! कैसा विचित्र शब्द है; है न? मेरा दावा है की आपको यह शब्द हिन्दी के किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलेगा। आखिर मिले भी कैसे? ऐसा कोई शब्द हो तब न। खैर छोड़िए, अब आपको अधिक सस्पेंस में नहीं रखना चाहिये। वैसे भी अपने-आपको परत-दर-परत उघाड़ना जितना अद्भुत होता है उतना ही शर्मनाक भी होता है। आप पूछेंगे कि- “हिन्साप की चर्चा के बीच में अपने-आपको उघाड़ने का क्या तुक है? मैं कहता हूँ तुक है भाई साहब, “हिन्साप” जैसे शब्द के साथ तुक होना सर्वथा अनिवार्य है। आखिर हो भी क्यों न; हिन्साप”  की नींव जो हमने रखी है? आप सोचेंगे कि “हिन्साप” की नींव हमने क्यों रखी? चलिये आपको सविस्तार बता ही दें।

हमारे विभाग में राजभाषा के प्रचार-प्रसार के लिये विभागीय स्तर पर प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। साहित्य में रुचि के कारण मैंने भी प्रतियोगिता में भाग लिया। पुरस्कार भी प्राप्त किया। किन्तु, साथ ही ग्लानि भी। ग्लानि होना स्वाभाविक था क्योंकि प्रतियोगिता, प्रतियोगिता के तौर पर आयोजित ही नहीं हुई थी। क्योंकि प्रतियोगिता विभागीय स्तर की थी तो निर्णायक का किसी विभाग का अधिकारी होना भी स्वाभाविक था, बेशक निर्णायक को साहित्य का ज्ञान हो या न हो। फिर, जब निर्णायक अधिकारी हो तो स्वाभाविक है कि पुरस्कार भी किसी परिचित या अधिकारी को ही मिले, चाहे वह हिन्दी शब्द का उच्चारण इंदी या “इंडी” ही क्यों न करे। अब आप सोच रहे होंगे कि मुझे पुरस्कार इसलिए मिला होगा क्योंकि मैं अधिकारी हूँ? आप क्या कोई भी यही सोचेगा। किन्तु, मैं आपको स्पष्ट कर दूँ कि मैं कोई अधिकारी नहीं हूँ। अब मुझे यह भी स्पष्ट करना पड़ेगा कि- जब मैं अधिकारी नहीं हूँ तो फिर मुझे पुरस्कार क्यों मिला? इसका एक संक्षिप्त उत्तर है स्वार्थ। वैसे तो यह उत्तर है किन्तु आप इसका उपयोग प्रश्न के रूप में भी कर सकते हैं। फिर मेरा नैतिक कर्तव्य हो जाता है कि मैं इस प्रश्न का उत्तर दूँ।

चलिये आप को पूरा किस्सा ही सुना दूँ। हुआ यूँ कि- प्रतियोगिता के आयोजन के लगभग छह-सात माह पूर्व वर्तमान निर्णायक महोदय जो किसी विभाग के विभागीय अधिकारी थे उनके सन्देशवाहक ने बुलावा भेजा कि- साहब आपको याद कर रहे हैं। मेरे मस्तिष्क में विचार आया कि भला अधिकारी जी को मुझसे क्या कार्य हो सकता है? क्योंकि न तो वे मेरे अनुभागीय अधिकारी थे और न ही मेरा उनसे दूर-दूर तक कोई व्यक्तिगत या विभागीय सम्बंध था। खैर, जब याद किया तो मिलना अनिवार्य लगा।

अधिकारी जी बड़ी ही प्रसन्न मुद्रा में थे। अपनी सामने रखी फाइल को आउट ट्रे में रख मेरी ओर मुखातिब हुए “सुना है, आप कुछ लिखते-विखते हैं? मैंने झेंपते हुए कहा- “जी सर, बस ऐसे ही कभी-कभार कुछ पंक्तियाँ लिख लेता हूँ।“

शायद वार्तालाप अधिक न खिंचे इस आशय से वे मुख्य मुद्दे पर आते हुए बोले- “बात यह है कि इस वर्ष रामनवमी के उपलक्ष में हम लोग एक सोवनियर (स्मारिका) पब्लिश कर रहे हैं। मेरी इच्छा है कि आप भी कोई आर्टिकल कंट्रिब्यूट करें।“

उनकी बातचीत में अचानक आए अङ्ग्रेज़ी के पुट से कुछ अटपटा सा लगा। मैंने कहा- “मुझे खुशी होगी। वैसे स्मारिका अङ्ग्रेज़ी में प्रकाशित करवा रहे हैं या हिन्दी में?” वे कुछ समझते हुए संक्षिप्त में बोले – “हिन्दी में।“

कुछ देर हम दोनों के बीच चुप्पी छाई रही। फिर मैं जैसे ही जाने को उद्यत हुआ, उन्होने आगे कहा- “आर्टिकल हिन्दी में हो तो अच्छा होगा। वैसे उर्मिला से रिलेटेड बहुत कम आर्टिकल्स अवेलेबल है।  मैंने उठते हुए कहा- “ठीक है सर, मैं कोशिश करूंगा।“

फिर मैंने कई ग्रन्थ एकत्रित कर एक सारगर्भित लेख तैयार किया “उर्मिला – एक उपेक्षित नारी”।

कुछ दिनों के पश्चात मुझे स्मारिका के अवलोकन का सुअवसर मिला। लेख काफी अच्छे गेटअप के प्रकाशित किया गया था। आप पूछेंगे कि फिर मुझे अधिकारी जी से क्या शिकायत है? है भाई, मेरे जैसे कई लेखकों को शिकायत है कि अधिकारी जी जैसे लोग दूसरों की रचनाएँ अपने नाम से कैसे प्रकाशित करवा लेते हैं? अब आप इस प्रक्रिया को क्या कहेंगे? बुद्धिजीवी होने का स्वाँग रचकर वाह-वाही लूटने की भूख या शोषण की प्रारम्भिक प्रक्रिया!  थोड़ी देर के लिए मुझे लगा कि उर्मिला ही नहीं मेरे जैसे कई लेखक उपेक्षित हैं। यह अलग बात है कि हमारी उपेक्षाओं का अपना अलग दायरा है। अब यदि आप चाहेंगे कि स्वार्थ और उपेक्षित को और अधिक विश्लेषित करूँ तो क्षमा कीजिये, मैं असमर्थ हूँ।

शायद अब आपको “हिन्साप” के बारे में कुछ-कुछ समझ में आ रहा होगा। यदि न आ रहा हो तो तनिक और धैर्य रखें। हाँ, तो मैं आपको बता रहा था कि- मैंने और शर्मा जी ने “हिन्साप” की नींव रखी। वैसे मैं शर्मा जी से पूर्व परिचित नहीं था। मेरा उनसे परिचय उस प्रतियोगिता में हुआ था जो वास्तव में प्रतियोगिता ही नहीं थी। मैंने अनुभव किया कि उनके पास प्रतिभा भी है और अनुभव भी। यह भी अनुभव किया कि हमारे विचारों में काफी हद तक सामंजस्य भी है। हम दोनों मिलकर एक ऐसे मंच की नींव रख सकते हैं जो “हिन्साप” के उद्देश्यों को पूर्ण कर सके। अब आप मुझ पर वाकई झुँझला रहे होंगे कि- आखिर “हिन्साप” है क्या बला? जब “हिन्साप” के बारे में ही कुछ नहीं मालूम तो उद्देश्य क्या खाक समझ में आएंगे? आपका झुँझला जाना स्वाभाविक है। मैं समझ रहा हूँ कि अब आपको और अधिक सस्पेंस में रखना उचित नहीं। चलिये, अब मैं आपको बता दूँ कि “हिन्साप” एक संस्था है। अब तनिक धैर्य रखिए ताकि मैं आपको “हिन्साप” का विश्लेषित स्वरूप बता सकूँ। फिलहाल आप कल्पना कीजिये कि- हमने “हिन्साप” संस्था की नींव रखी। उद्देश्य था नवोदित प्रतिभाओं को उनके अनुरूप एक मंच पर अवसर प्रदान करना और स्वस्थ वातावरण में प्रतियोगिताओं का आयोजन करना जिसमें किसी पक्षपात का अस्तित्व ही न हो।

कई गोष्ठियाँ आयोजित कर प्रतिभाओं को उत्प्रेरित किया। उन्हें “हिन्साप” के उद्देश्यों से अवगत कराया। सबने समर्पित भाव से सहयोग की आकांक्षा प्रकट की। हमने विश्वास दिलाया कि हम एक स्वतंत्र विचारधारा की विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका भी प्रकाशित करना चाहते हैं, जो निष्पक्ष और बेबाक हो तथा जिसमें नवोदितों को भी उचित स्थान मिले। सब अत्यन्त प्रसन्न हुए। सबने वचन दिया कि वे तन-मन से सहयोग देंगे। किन्तु, धन के नाम पर सब चुप्पी साध गए। भला बिना अर्थ-व्यवस्था के कोई संस्था चल सकती है? खैर, “हिन्साप” की नींव तो हमने रख ही दी थी और आगे कदम बढ़ाकर पीछे खींचना हमें नागवार लग रहा था।

“हिन्साप” के अर्थ व्यवस्था के लिए शासकीय सहायता की आवश्यकता अनुभव की गई। संस्थागत हितों का हनन न हो अतः यह निश्चय किया गया कि विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को संरक्षक पद स्वीकारने हेतु अनुरोध किया जाए। इस सन्दर्भ में प्रशासनिक अधिकारियों के माध्यम से विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को अपने विचारों से अवगत कराया गया। विज्ञापन व्यवस्था के तहत आर्थिक स्वीकृति तो मिल गई किन्तु, “हिन्साप” को इस आर्थिक स्वीकृति की भारी कीमत चुकानी पड़ी। एक पवित्र उद्देश्यों पर आधारित संस्था में शासकीय तंत्र की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई और विशुद्ध साहित्यक पत्रिका की कल्पना मात्र कल्पना रह गई जिसका स्वरूप एक विभागीय गृह पत्रिका तक सीमित रह गया। फिर किसी भी गृह पत्रिका के स्वरूप से तो आप भी परिचित हैं। इस गृह पत्रिका में अधिकारी जी जैसे लेखकों की रचनाएँ अच्छे गेट अप में सचित्र और स्वचित्र अब भी प्रकाशित होती रहती हैं।

इस प्रकार धीरे धीरे अधिकारी जी ने “हिन्साप” की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेकर अन्य परिचितों, परिचित संस्थाओं के सदस्यों, चमचों के प्रवेश के लिए द्वार खोल दिये। फिर उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर बैठा कर “हिन्साप” की गतिविधियों में हस्तक्षेप करने का सर्वाधिकार सुरक्षित करा लिया। हम इसलिए चुप रहे क्योंकि वे विज्ञापन-व्यवस्था के प्रमुख स्त्रोत थे।

जब अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो गई तो कई मौकापरस्त लोगों की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई। पहले जो लोग तन-मन के साथ धन सहयोग पर चुप्पी साध लेते थे आज वे ही सक्रिय कार्यकर्ताओं का स्वाँग रचा कर आर्थिक सहयोग की ऊँची-ऊँची बातें करने लगे। अध्यक्ष और अन्य विशेष पदों पर अधिकारियों ने शिकंजा कस लिया। और शेष पदों के लिए कार्यकर्ताओं को मोहरा बना दिया गया। फिर, वास्तव में शुरू हुआ शतरंज का खेल।

हमें बड़ा आश्चर्य हुआ कि- शासकीय तंत्र के घुसपैठ के साथ ही “हिन्साप” अतिसक्रिय कैसे हो गई? लोगों में इतना उत्साह कहाँ से आ गया कि वे “हिन्साप” में अपना भविष्य देखने लगे। कर्मचारियों को उनकी परिभाषा तक सीमित रखा गया और अधिकारियों को उनके अधिकारों से परे अधिकार मिल गए या दे दिये गए। इस तरह “हिन्साप” प्रतिभा-युद्ध का एक जीता-जागता अखाड़ा बन गया।

सच मानिए, हमने “हिन्साप” की नींव इसलिए नहीं रखी थी कि- संस्थागत अधिकारों का हनन हो; प्रतिभाओं का हनन हो? उनकी परिश्रम से तैयार रचनाओं का कोई स्वार्थी अपने नाम से दुरुपायोग करे? विश्वास करिए, हमने “हिन्साप” का नामकरण काफी सोच विचार कर किया था। अब आप ही देखिये न “हिन्साप” का उच्चारण “इन्साफ” से कितना मिलता जुलता है? अब जिन प्रतिभाओं के लिए “हिन्साप” की नींव रखी थी उन्हें “इन्साफ” नहीं मिला, इसके लिए क्या वास्तव में हम ही दोषी हैं? खैर, अब समय आ गया है कि मैं “हिन्साप” को विश्लेषित कर ही दूँ।

परत-दर-परत सब तो उघाड़ चुका हूँ। लीजिये अब आखिरी परत भी उघाड़ ही दूँ कि- “हिन्साप” का विश्लेषित स्वरूप है “हिन्दी साहित्य परिषद”। किन्तु, क्या आपको “हिन्साप” में “हिंसा” की बू नहीं आती? आखिर, किसी प्रतिभा की हत्या भी तो हिंसा ही हुई न? अब चूंकि, हमने “हिन्साप” को खून पसीने से सींचा है अतः हमारा अस्तित्व उससे कहीं न कहीं, किसी न किसी आत्मीय रूप से जुड़ा रहना स्वाभाविक है। किन्तु, विश्वास मानिए अब हमें “हिन्साप”, “हिन्दी साहित्य परिषद” नहीं अपितु, “हिंसा परिषद लगने लगी है।

अब हमें यह कहानी मात्र हिन्दी साहित्य परिषद की ही नहीं अपितु कई साहित्य और कला अकादमियों की भी लगने लगी है। आपका क्या विचार है? शायद, आपका कोई सुझाव हि. सा. प. को “हिंसा. प. के हिसाब से बचा सके?

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 14 ☆ माँ तुझे प्रणाम  ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की एक हृदयस्पर्शी कविता  “माँ तुझे प्रणाम ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 14  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ माँ तुझे प्रणाम 

 

माँ

जीवन है

तुम्हारा नाम है

ईश्वर से पहले

तुमको प्रणाम है

तेरी याद में अब जीना है

धरती और आकाश बिछौना है

मन हैं बहुत बैचेन

बिन तेरे नहीं हैं चैन

मन नहीं करता

कलम उठाने को

लगता है

शब्द

हो गये हैं निर्जीव

लेकिन

यादें हैं सजीव

क्योंकि

जिंदगी नहीं रूकती

जिंदगी चलने का नाम है

चाहता है मन

करना है बहुत से काम

लिखना है माँ के नाम

माँ तुझे प्रणाम.

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

 

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प पंधरावे # 15 ☆ नैसर्गिक आपत्ती☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज श्री विजय जी ने एक गंभीर विषय “नैसर्गिक आपत्ती ” चुना है।  श्री विजय जी ने प्राकृतिक आपदाओं  जैसे गंभीर मुद्दे पर इस आलेख में चर्चा की है।  ऐसे ही  गंभीर विषयों पर आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प पंधरावे # 15 ☆

 

☆ नैसर्गिक आपत्ती ☆

 

समाजपारावरून आज निसर्ग  आपत्ती विषयी जरा बोलावेसे वाटत आहे.  निसर्गाचे संरक्षण,  आणि संवर्धन जर  आपल्या हातून घडले तर हाच निसर्ग  आपल्याला वनौषधी, रानमेवा  आणि  आरोग्य संपदेने परीपूर्ण करू शकतो.

अतिवृष्टी, ढगफुटी, हिम वर्षाव, कोरडा दुष्काळ, उन्हाचा तडाखा, वाढते  उष्णता मान, वणवा, वन्यजीव,  पशुपक्षी यांच्या प्रजाती संख्या कमी होणे,  औषधी वनस्पतींचा -हास, चक्रीवादळ,भुकंप, (धरणीकंप),  कडाक्याची  थंडी,  हहवामानात झालेले प्रतिकूल बदल ,अशा प्रकारच्या नैसर्गिक आपत्ती आपण  अनुभवीत आहोत. …..

या  आपत्तीच्या काळात सर्व संकटग्रस्तांना  वेळेवर  मदत मिळतेच असे नाही.   वित्त हानी, जीवहानी, आणि मनस्ताप भोगत या नैसर्गिक आपत्तींना सामोरे जावे लागते. नैसर्गिक आपत्ती व्यवस्थापन यंत्रणा निश्चित करून  या समस्येवर मात करता येईल.  पण नैसर्गिक आपत्ती ही बहुधा  अचानक पणे उद्भवल्याने ही समस्या गंभीर स्वरूप धारण करते.  निसर्ग हानी देखील  अशा वेळी मोठय़ा प्रमाणावर झालेली दिसते.

पर्यावरण प्रेमी संघटना,  त्यांनी केलेले सर्वेक्षण याची नोंद कुठेतरी व्हायला हवी.   कारण  नैसर्गिक आपत्ती कोसळल्यावर  मनुष्य भांबावून गेलेला असतो.  त्याला  अन्न,  वस्त्र,  निवारा, या मुलभूत गरजा कशा लवकरात लवकर पुरवता येतील  याचा पाठपुरावा प्रसार माध्यमांनी करायला हवा.

जगाच्या  कानाकोप-यात घडणा-या घटनांना विविध नैसर्गिक घडामोडींना मिडीयाच जनतेपर्यंत पोहोचवतो.  मिडियाने  प्रसारीत केलेले लघुपट,  निवूदन  पाहून  अनेक वेळा विविध उपाय योजना सरकारने राबलिल्या आहेत.

आजकाल मिडिया  हेच प्रभावी माध्यम आहे की ज्याचे मुळे आपण सावधान आणि जागरूक राहू शकतो. आदिवासी भागातील तसेच मागास वर्गीय लोकांना पुरेशा सेवा सुविधा उपलब्ध करून दिल्या. नैसर्गिक धन संपत्ती चे महत्त्व समजावून त्याचे संवर्धन करण्यासाठी प्रोत्साहन दिले तर बर्‍याच नैसर्गिक आपत्ती टाळता येतील.

वरातीमागून घोडे मिरविण्यापेक्षा मिडीया चा वापर दुर्गम भागातील नागरिकांना  उपलब्ध करून दिल्यास त्यांना काही संरक्षण दिले गेल्यास वनसंपदेचे जतन  आणि संवर्धन होऊ शकते.  नैसर्गिक आपत्ती हे संकट आले तरी त्याला तोंड देण्याची क्षमता आधुनिक तंत्रज्ञानात नक्कीचआहे. फक्त त्याचा वापर समयोचित व्हायला हवा.

प्रसारमाध्यमे ही केवळ पैसा आणि प्रसिद्धी साठी  अस्तित्वात नसून समाज कल्याण  आणि समाजप्रबोधनाचे महत्त्व पूर्ण कार्य सातत्याने करीत आहेत.  स्वतःचे संसार बाजूला ठेवून हे छायाचित्रकार,  तंत्रज्ञ पूर्ण ताकदीनिशी  अपु-या सेवा सुविधा  असताना मोठय़ा साहसाने सचित्र माहिती गोळा करून त्याचे अभ्यास पूर्ण संकलन करीत  असतात. त्याची शासकीय दरबारी कुठेतरी दखल घेतली जावी  असे मला वाटते.  प्रसार माध्यमांनी जीवावर उदार होऊन दिलेल्या माहितीवरून शासनाने झोपेतून जागे व्हायचे  आणि संकटग्रस्तांना मदत केल्याचा देखावा निर्माण करायचा हे कुठेतरी थांबायला हवे.  सरकारने  उपाययोजना करताना  अशा प्रसार माध्यमांना  आवश्यक त्या सेवा सुविधा उपलब्ध करून दिल्यास  ही निसर्गाची हानी काही प्रमाणात कमी करता येईल.  सध्याचे युग प्रगतीचे,  विकासाचे आणि माहिती व तंत्रज्ञानाचे आहे हे विसरून चालणार नाही.  नैसर्गिक आपत्ती व्यवस्थापनात याचा विचार शासकीय पातळीवर सर्वतोपरी व्हायला हवा असे मला वाटते.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 2 ☆ अवसर बार बार नहीं आए ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी रचना  “अवसर बार बार नहीं आए” . अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 2  ☆

☆  अवसर बार बार नहीं आए ☆

 

अवसर बार बार नहीं आए ।

अहो भाग्य मानव तन पाए ।।

 

फूला फूला फिरे जगत में  ।

रात दिन दौलत की जुगत में ।।

समझ सत्य हम कभी न पाये ।

अवसर बार बार नहीं आए ।।

 

धन दौलत का ओढ़ लबादा ।

ओहदों का मद भी ज्यादा ।।

कभी किसी के काम न आये ।

अवसर बार बार नहीं आए ।।

 

दुख दर्द में न बने सहभागी ।

स्वार्थ के हो गए हम रागी  ।।

मानव मूल्यों को विसराए ।

अवसर बार बार नहीं आए ।।

 

अपना कोई रूठ न पाए ।

रूठा कोई छूट न जाये ।।

नेकी अपने साथ ही जाए ।

अवसर बार बार नहीं आए ।।

 

आओ सबसे प्रीति लगायें ।

दिल में हम “संतोष”बसायें ।।

जीवन में गर यह कर पाये ।

अवसर बार बार नहीं आए ।।

 

न जाने कल क्या हो जाये ।

चलो कुछ अच्छा हम कर जाएं ।।

अवसर बार बार नहीं आए ।

अहो भाग्य मानव तन पाए ।।

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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