हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 5 ☆ काव्य – बुंदेली गीता ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की पुस्तक चर्चा  “काव्य – बुंदेली गीता ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 4☆ 

 

 ☆ काव्य – बुंदेली गीता  ☆

 

पुस्तक चर्चा

काव्य – बुंदेली गीता 

लेखक –  विनोद कुमार खरे

मूल्य –  251 रु

 

☆ काव्य  – बुंदेली गीता– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

☆ बुंदेली गीता ☆

भगवत गीता के संस्कृत श्लोक, हिंदी भाषा अनुवाद सहित बुंदेली काव्य 

 

भगवत गीता विश्व ग्रंथ है ।अनेक भाषाओं में अनेक लोगों ने इसका अनुवाद किया है।  प्रोफेसर चित्र भूषण श्रीवास्तव ने हिंदी काव्य अनुवाद, अंग्रेजी अर्थ सहित किया है जो संस्कृत न समझने वाले युवाओं में बहुत लोकप्रिय हो रहा है । इसी क्रम में क्षेत्रीय भाषाओं को भी समय के साथ महत्व मिलता दिखता है।

बुंदेली भाषा में विनोद कुमार खरे जी का यह अनुवाद प्राप्त हुआ । सरल सुंदर प्रस्तुति के साथ हर श्लोक का बुंदेली अनुवाद और हिंदी भावार्थ प्रस्तुत करने हेतु खरे साहब को बहुत-बहुत बधाई। निश्चित ही बुंदेली में गीता का इस तरह प्रस्तुतीकरण बुंदेलखंड के दूरदराज भीतरी क्षेत्रों में भगवत गीता के शाश्वत संदेश को पहुंचाने में महत्वपूर्ण कार्य है । बुंदेलखंड की लोक भाषा में भगवत गीता का यह प्रस्तुतीकरण प्रशंसनीय है एवं यह बुंदेली साहित्य को और समृद्धि करेगा । सोलहवें अध्याय के पहले ही श्लोक में 26 वे गन धर्म बिंदुवार बताये गए हैं जो जीवन सूत्र हैं । जैसे भगवान में समर्पित आस्था, दान, दया, सत्य, अक्रोध, क्षमा, त्याग आदि शाश्वत भाव ही भगवान की कृपा पाने के मूल तत्व हैं ।

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 16 – घड़ी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “घड़ी”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से स्वाभिमान एवं  संयम का सन्देश देने का प्रयास किया है।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 16 ☆

 

☆ घड़ी ☆

 

सरोज बहुत ही होनहार और तीव्र बुद्धि वाली लड़की थी। पिताजी किराने की दुकान पर काम करते थे। माँ सिलाई-बुनाई का काम कर घर का खर्च चलाती थी। घर में बूढ़े दादा-दादी भी थे। सरोज का एक भाई भी जो बिल्कुल इन बातों से अनजान छोटा था। खेल-कूद और पढ़ाई में सरोज बहुत ही होशियार थी।

किसी तरह पिताजी अपनी गृहस्थी चला रहे थे। पास पड़ोस में सरोज आती जाती थी। और किसी के घर का सामान लाकर दे देना, बदले में थोड़े से पैसे मिल जाते थे, जिससे स्कूल का कॉपी किताब खरीद लेती थी।

एक बार स्कूल के किसी कार्यक्रम के तहत उसे दूसरे गाँव जाना था उसमें सरोज को प्रोग्राम में हाथ की घड़ी पहननी थी। जो उसके लिए खरीद कर पहनना असंभव था क्योंकि पिताजी की कमाई से सिर्फ घर का खर्च चलता था।

सरोज मोहल्ले में एक आंटी के यहां जाती थी। उसका बहुत काम करती थी। शाम को रोटी भी बना आती थी।  उसे लगा कि शायद आंटी जी उसकी मदद कर देंगी क्योंकि उनके पास हाथ की घड़ी कई प्रकार की थी, बदल बदल कर पहनती थी।

यह सोच एक दिन पहले उनके पास गई और घड़ी मांगते हुए बोली आंटी-  “जी क्या मुझे एक दिन के लिए अपने हाथ की घड़ी देंगी? मेरे स्कूल का प्रोग्राम है।“ वह सोची मैं इनका काम करते रहती हूं तो शायद दे देंगी और मन ही मन कह रही थी मैं उनकी घड़ी को बहुत संभाल कर रखूंगी प्रोग्राम के तुरंत बाद आकर लौटा दूंगी। परंतु आंटी ने सीधे कड़क शब्दों में कहा “मैं यह घड़ी नहीं दूंगी क्योंकि रात में समय देखती हूँ।“सरोज तीव्र बुद्धि वाली थी उसको समझते देर न लगी की आंटी अपनी घड़ी नहीं देंगी। वह तुरंत ही बोली – “आंटी जी समय तो आप किसी भी घड़ी से देख सकती है। टाइम तो वह भी बताएगी।“ तुरंत ही जवाब सुनकर आंटी जी बौखला गई सोची नहीं थी कि सरोज कुछ इस प्रकार बोलेगी, और उन्हें आज समय और घड़ी की कीमत का पता चल गया।

सरोज उल्टे पाँव अपने घर लौट आई। और प्रोग्राम में नहीं गई। समय आने पर घड़ी ले लेंगे सोच कर मन में संतोष कर लिया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #16 – केशराचे गाल ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक सामयिक एवं सार्थक कविता “केशराचे गाल”।)

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 16☆

 

?  केशराचे गाल  ?

शुद्ध वाऱ्याच्या सोबती

खेळते हे रानफूल

शहराच्या  धुराड्यात

जाते कोमेजून मूल

 

लता कोवळ्या कानांची

रोज हरवते डूल

सांभाळते परंपरा

गंध देणारे हे कुल

 

अंगा-खांद्यावर पक्षी

करतात किलबिल

झाड रागावत नाही

नाही नाराजीचे बोल

 

गाव छोटसं हे माझं

घरामध्ये जुनी चूल

निखाऱ्यातली भाकर

मला वाटते हो ढाल

 

राजा सर्जाची ही जोडी

त्याची डौलदार चाल

फक्त पोळ्यालाच होते

त्यांच्या कष्टाचे हे मोल

 

किती अंब्याचा झाडाला

सूर्य लगडले गोल

काय सांगू मी महती

त्यांचे केशराचे गाल

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (7) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( आत्म-उद्धार के लिए प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण )

 

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।

शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ।।7।।

 

जीता तो खुद शांति पा,बनता स्वतः महान

सुख दुख गर्मी शीत सम उसे मान अपमान।।7।।

      

भावार्थ :  सरदी-गरमी और सुख-दुःखादि में तथा मान और अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ भलीभाँति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक्‌प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं।।7।।

 

The Supreme Self of him who is self-controlled and peaceful is balanced in cold and heat, pleasure and pain, as also in honour and dishonour. ।।7।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 13 – ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से साक्षात्कार☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  तेरहवीं कड़ी में   उनके द्वारा  ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से साक्षात्कार ।  आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 13 ☆

 

☆ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से साक्षात्कार ☆ 

☆ रचनाशील व्यक्ति भावुक ही होता है -आलोक पुराणिक

 

जय प्रकाश पाण्डेय  – 

किसी भ्रष्टाचारी के भ्रष्ट तरीकों को उजागर करने व्यंग्य लिखा गया, आहत करने वाले पंंच के साथ। भ्रष्टाचारी और भ्रष्टाचारियों ने पढ़ा पर व्यंग्य पढ़कर वे सुधरे नहीं, हां थोड़े शरमाए, सकुचाए और फिर चालू हो गए तब व्यंग्य भी पढ़ना छोड़ दिया, ऐसे में मेहनत से लिखा व्यंग्य बेकार हो गया क्या ?

आलोक पुराणिक  –

साहित्य, लेखन, कविता, व्यंग्य, शेर ये पढ़कर कोई भ्रष्टाचारी सदाचारी नहीं हो जाता। हां भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनाने में व्यंग्य मदद करता है। अगर कार्टून-व्यंग्य से भ्रष्टाचार खत्म हो रहा होता श्रेष्ठ कार्टूनिस्ट स्वर्गीय आर के लक्ष्मण के दशकों के रचनाकर्म का परिणाम भ्रष्टाचार की कमी के तौर पर देखने में आना चाहिए था। परसाईजी की व्यंग्य-कथा इंसपेक्टर मातादीन चांद पर के बाद पुलिस विभाग में भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ है। रचनाकार की अपनी भूमिका है, वह उसे निभानी चाहिए। रचनाकर्म से नकारात्मक के खिलाफ माहौल बनाने में मदद मिलती है। उसी परिप्रेक्ष्य में व्यंग्य को भी देखा जाना चाहिए।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

देखने में आया है कि नाई जब दाढ़ी बनाता है तो बातचीत में पंच और महापंच फेंकता चलता है पर नाई का उस्तरा बिना फिसले दाढ़ी को सफरचट्ट कर सौंदर्य ला देता है पर आज व्यंग्यकार नाई के चरित्र से सीख लेने में परहेज कर रहे हैं बनावटी पंच और नकली मसालों की खिचड़ी परस रहे हैं ऐसा क्यों हो रहा है  ?

आलोक पुराणिक –

सबके पास हजामत के अपने अंदाज हैं। आप परसाईजी को पढ़ें, तो पायेंगे कि परसाईजी को लेकर कनफ्यूजन था कि इन्हे क्या मानें, कुछ अलग ही नया रच रहे थे। पुराने जब कहते हैं कि नये व्यंग्यकार बनावटी पंचों और नकली मसालों की खिचड़ी परोस रहे हैं, तो हमेशा इस बयान के पीछे सदाशयता और ईमानदारी नहीं होती। मैं ऐसे कई वरिष्ठों को जानता हूं जो अपने झोला-उठावकों की सपाटबयानी को सहजता बताते हैं और गैर-झोला-उठावकों पर सपाटबयानी का आऱोप ठेल देते हैं। क्षमा करें, बुजुर्गों के सारे काम सही नहीं हैं। इसलिए बड़ा सवाल है कि कौन सी बात कह कौन रहा है।  अगर कोई नकली पंच दे रहा है और फिर भी उसे लगातार छपने का मौका मिल रहा है, तो फिर मानिये कि पाठक ही बेवकूफ है। पाठक का स्तर उन्नत कीजिये। बनावटी पंच, नकली मसाले बहुत सब्जेक्टिव सी बातें है। बेहतर यह होना चाहिए कि जिस व्यंग्य को मैं खराब बताऊं, उस विषय़ पर मैं अपना काम पेश करुं और फिर ये दावा ना  ठेलूं कि अगर आपको समझ नहीं आ रहा है, तो आपको सरोकार समझ नहीं आते। लेखन की असमर्थता को सरोकार के आवरण में ना छिपाया जाये, जैसे नपुंसक दावा करे कि उसने तो परिवार नियोजन को अपना लिया है। ठीक है परिवार नियोजन बहुत अच्छी बात है, पर असमर्थताओं को लफ्फाजी के कवच दिये जाते हैं, तो पाठक उसे पहचान लेते हैं। फिर पाठकों को गरियाइए कि वो तो बहुत ही घटिया हो गया। यह सिलसिला  अंतहीन है। पाठक अपना लक्ष्य तलाश लेता है और वह ज्ञान चतुर्वेदी और दूसरों में फर्क कर लेता है। वह सैकड़ों उपन्यासों की भीड़ में राग दरबारी को वह स्थान दे देता है, जिसका हकदार राग दरबारी होता है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

लोग कहने लगे हैं कि आज के माहौल में पुरस्कार और सम्मान “सब धान बाईस पसेरी” बन से गए हैं, संकलन की संख्या हवा हवाई हो रही है ऐसे में किसी व्यंग्य के सशक्त पात्र को कभी-कभी पुरस्कार दिया जाना चाहिये, ऐसा आप मानते हैं हैं क्या ?

आलोक पुराणिक –

रचनात्मकता में बहुत कुछ सब्जेक्टिव होता है। व्यंग्य कोई गणित नहीं है कोई फार्मूला नहीं है। कि इतने संकलन पर इतनी सीनियरटी मान ली जायेगी। आपको यहां ऐसे मिलेंगे जो अपने लगातार खारिज होते जाने को, अपनी अपठनीयता को अपनी निधि मानते हैं। उनकी बातों का आशय़ होता कि ज्यादा पढ़ा जाना कोई क्राइटेरिया नहीं है। इस हिसाब से तो अग्रवाल स्वीट्स का हलवाई सबसे बड़ा व्यंग्यकार है जिसके व्यंग्य का कोई  भी पाठक नहीं है। कई लेखक कुछ इस तरह की बात करते हैं , इसी तरह से लिखा गया व्यंग्य, उनके हिसाब से ही लिखा गया व्यंग्य व्यंग्य है, बाकी सब कूड़ा है। ऐसा मानने का हक भी है सबको बस किसी और से ऐसा मनवाने के लिए तुल जाना सिर्फ बेवकूफी ही है। पुरस्कार किसे दिया जाये किसे नहीं, यह पुरस्कार देनेवाले तय करेंगे। किसी पुरस्कार से विरोध हो, तो खुद खड़ा कर लें कोई पुरस्कार और अपने हिसाब के व्यंग्यकार को दे दें। यह सारी बहस बहुत ही सब्जेक्टिव और अर्थहीन है एक हद।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

आप खुशमिजाज हैं, इस कारण व्यंग्य लिखते हैं या भावुक होने के कारण ?

आलोक पुराणिक –

व्यंग्यकार या कोई भी रचनाशील व्यक्ति भावुक ही होता है। बिना भावुक हुए रचनात्मकता नहीं आती। खुशमिजाजी व्यंग्य से नहीं आती, वह दूसरी वजहों से आती है। खुशमिजाजी से पैदा हुआ हास्य व्यंग्य में इस्तेमाल हो जाये, वह अलग बात है। व्यंग्य विसंगतियों की रचनात्मक पड़ताल है, इसमें हास्य हो भी सकता है नहीं भी। हास्य मिश्रित व्यंग्य को ज्यादा स्पेस मिल जाता है।

जय प्रकाश पाण्डेय –

वाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर में आ रहे शब्दों की जादूगरी से ऐसा लगता है कि शब्दों पर संकट उत्पन्न हो गया है ऐसा कुछ आप भी महसूस करते हैं क्या ?

आलोक पुराणिक –

शब्दों पर संकट हमेशा से है और कभी नहीं है। तीस सालों से मैं यह बहस देख रहा हूं कि संकट है, शब्दों पर संकट है। कोई संकट नहीं है, अभिव्यक्ति के ज्यादा माध्यम हैं। ज्यादा तरीकों से अपनी बात कही जा सकती है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

हजारों व्यंग्य लिखने से भ्रष्ट नौकरशाही, नेता, दलाल, मंत्री पर कोई असर नहीं पड़ता। फेसबुक में इन दिनों “व्यंग्य की जुगलबंदी” ने तहलका मचा रखा है इस में आ रही रचनाओं से पाठकों की संख्या में ईजाफा हो रहा है ऐसा आप भी महसूस करते हैं क्या?

अनूप शुक्ल ने व्यंग्य की जुगलबंदी के जरिये बढ़िया प्रयोग किये हैं। एक ही विषय पर तरह-तरह की वैरायटी वाले लेख मिल रहे हैं। एक तरह से सीखने के मौके मिल रहे हैं। एक ही विषय पर सीनियर कैसे लिखते हैं, जूनियर कैसे लिखते हैं, सब सामने रख दिया जाता है। बहुत शानदार और सार्थक प्रयोग है जुगलबंदी। इसका असर खास तौर पर उन लेखों की शक्ल में देखा जा सकता है, जो एकदम नये लेखकों-लेखिकाओं ने लिखे हैं और चौंकानेवाली रचनात्मकता का प्रदर्शन किया है उन लेखों में। यह नवाचार  इंटरनेट के युग में आसान हो गया।

हम प्राचीन काल की अपेक्षा आज नारदजी से अधिक चतुर, ज्ञानवान, विवेकवान और साधनसम्पन्न हो गए हैं फिर भी अधिकांश व्यंग्यकार अपने व्यंग्य में नारदजी को ले आते हैं इसके पीछे क्या राजनीति है ?

आलोक पुराणिक –

नारदजी उतना नहीं आ रहे इन दिनों। नारदजी का खास स्थान भारतीय मानस में, तो उनसे जोड़कर कुछ पेश करना और पाठक तक पहुंचना आसान हो जाता है। पर अब नये पाठकों को नारद के संदर्भो का अता-पता भी नहीं है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

व्यंग्य विधा के संवर्धन एवं सृजन में फेसबुकिया व्यंगकारों की भविष्य में सार्थक भूमिका हो सकती है क्या ?

आलोक पुराणिक –

फेसबुक या असली  की बुक, काम में दम होगा, तो पहुंचेगा आगे। फेसबुक से कई रचनाकार मुख्य धारा में गये हैं। मंच है यह सबको सहज उपलब्ध। मठाधीशों के झोले उठाये बगैर आप काम पेश करें और फिर उस काम को मुख्यधारा के मीडिया में जगह मिलती है। फेसबुक का रचनाकर्म की प्रस्तुति में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765



हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – भाषा और अभिव्यक्ति ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि – भाषा और अभिव्यक्ति  ☆

 

नवजात का रुदन

जगत की पहली भाषा,

अबोध की खिलखिलाहट

जगत का पहला महाकाव्य,

शिशु का अंगुली पकड़ना

जगत का पहला अनहद नाद,

संतान का माँ को पुकारना

जगत का पहला मधुर निनाद,

प्रसूत होती स्त्री केवल

एक शिशु को नहीं जनती,

अभिव्यक्ति की संभावनाओं के

महाकोश को जन्म देती है,

संभवतः यही कारण है

भाषा स्त्रीलिंग होती है।

 

अपनी भाषा में अभिव्यक्त होना अपने अस्तित्व को चैतन्य रखना है।….आपका दिन चैतन्य रहे।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




हिंदी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष ☆ कविता – पुरानी तस्वीरें ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(राजभाषा मास  में हम ख्यातिलब्ध मराठी साहित्यकार सुश्री प्रभा सोनवणे जी की हिंदी कविता को प्रकाशित कर अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं.  ई-अभिव्यक्ति में आपका मराठी में प्रकाशित साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात”  को पाठकों का ह्रदय से प्रतिसाद मिल रहा है.  आपकी कवितायेँ अत्यंत संवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी होती हैं.  अक्सर मैं उनकी ह्रदय स्पर्शी  कवितायेँ पढ़ कर  प्रत्युत्तर में निःशब्द अनुभव  करता हूँ .  आज प्रस्तुत हैं उनकी एक और हृदयस्पर्शी  हिंदी कविता पुरानी तस्वीरें यह सच है क़ि हम अक्सर पुरानी तस्वीरें देख कर उस गुजरे वक्त में पहुँच जाते हैं, जहाँ इस जीवन में पुनः जा पाना असंभव है. उन तस्वीरों  के कुछ पात्र तो समय के साथ खो गए होते हैं.  हमारे पास रह जाती हैं मात्र स्मृतियाँ.  समय के साथ जीना हमारी नियति है और शेष ईश्वर के हाथों में है. इस अतिसुन्दर रचना के लिए उनकी लेखनी को नमन. )

 

☆ पुरानी तस्वीरें ☆

 

आज  पुरानी तस्वीरें भेजी,

WhatsApp Group पर भाँजे ने….

तो गुजरा हुआ जमाना याद आया ।

कितने सीधे सादे दिन थे,

सीधे सादे लोग,

वह बहुत बडा बुलंद सा घर आँगन !

 

शहर में रह कर भी,

अपने छोटे से गाँव से बहुत लगाव  था…..

हर छुट्टियों में वहाँ आना जाना था ।

अच्छा लगता था

दादी की कहानी सुनना

और

दादाजी के साथ घुड़सवारी करना…..

 

वह लहराते खेत,

फलों से  लदे पेड….

गाय बैल…भैंसें….

कुत्ते, बिल्लीयाँ…

मुर्गे मुर्गियाँ ……

 

आँगन में आयी हुई चिडियों को

दाना डालना….

वो बुआ की शानदार शादी…

चाचा के लिए लड़की देखने जाना…..

कितनी चहल-पहल थी…

बचपन की यादें तो बहुत मीठी हैं ।

पर कहाँ जान पाए….

चूल्हा चौका करनेवाली,

माँ और चाचियों का दुखदर्द….

लगता था उनके आँसू है,

चूल्हे की गीली लकड़ियों से आते हुए धुएँ की वजह से …..

 

जब औरत बनी तो अपनी ही समस्याएँ सताने लगीं…..

कहाँ जान पायी उन औरतों की कहानी….

 

आज बहुत दिनों के बाद

पुरानी तस्वीरें देखी तो उनमें से…

बिना वजह…

महसूस किये कुछ आँसू…..और सिसकियाँ भी……

आज पुरानी तस्वीरें देखी

जिन्दगी के आखिरी दौर में …..

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]




रंगमंच – ☆ विवेचना का 26 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह (25 से 29 सितंबर) ☆ – श्री वसंत काशीकर

श्री वसंत काशीकर

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं।

इस मंच से हम रंगमंच के कार्यक्रमों को जीवंतता प्रदान करने का प्रयास करते हैं.  यदि रंगमंच से सम्बंधित कुछ प्रयोग, मंचन, उपलब्धियां आपके पास हों तो आप अवश्य साझा करें. हमें रंगमंच सम्बन्धी प्रत्येक उपलब्धि साझा करने में प्रसन्नता होगी.  आज प्रस्तुत है विवेचना के २६वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह की विशिष्ट जानकारी श्री वसंत काशीकर जी  के सौजन्य से.)

 

☆ रंगमंच  – विवेचना का 26 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह (25 से 29 सितंबर) ☆

☆ पांच चुनिंदा नाटकों का मंचन ☆

 

विवेचना थियेटर ग्रुप ( विवेचना, जबलपुर ) का 26 वां  राष्ट्रीय नाट्य समारोह इस वर्ष 25 सितंबर से 29 सितंबर 2019 तक आयोजित होगा।

इसका उद्घाटन 25 सितंबर को संध्या 7 बजे होगा। यह समारोह  5 दिवसीय होगा।

इस समारोह में विवेचना ने विशेष नाटकों का चुनाव किया है। इस समारोह के सभी नाटक कहानी उपन्यास पर आधारित हैं। हर नाटक की अपनी अपनी खासियत है।

 

 

  • पहले दिन 25 सितंबर को विवेचना का वसंत काशीकर निर्देशित नाटक ’’हमदम’ अपनी कहानी और अभिनय की श्रेष्ठता के लिये लाजवाब है। इसे स्व दिनेश ठाकुर ने लिखा है। यह नाटक बुजुर्गों के अकेलेपन और प्रेम को नई दृष्टि से देखता है।
  • दूसरे दिन 26 सितंबर को होने वाला नाटक ’नागिन तेरा वंश बढ़े’ प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता व नाट्य निर्देशक अवतार साहनी के निर्देशन में विजयदान देथा की कहानी पर आधारित है। इसे एक्टर्स रिपर्टरी थियेटर, दिल्ली के कलाकार प्रस्तुत करेंगे।
  • तीसरे दिन 27 सितंबर को नाटक ’सीमापार’ हिन्दी के प्रथम नाटककार भारतेन्दु के जीवन पर आधारित है जिसे राइजिंग सोसायटी भोपाल के कलाकार प्रीति झा तिवारी के निर्देशन मंचित करेंगे। उल्लेखनीय है कि अभी अभी प्रीति झा तिवारी को संगीत नाटक अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
  • चौथे दिन 28 सितंबर को महान भारतीय लेखक फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पर आधारित नाटक ’पंचलेट’ मंचित होगा। पिंक बर्ड सोसायटी भोपाल की इस रोचक प्रस्तुति का निर्देशन कमलेश दुबे,भोपाल ने किया है।
  • पांचवें और अंतिम दिन 29 सितंबर को अदाकार थियेटर सोसायटी, दिल्ली के कलाकार रोचक नाटक ’शादी के मंडप में’ का मंचन करेंगे। इसका निर्देशन गुनीत सिंह ने किया है।
  • यह समारोह तरंग प्रेक्षागृह में एम पी पावर मैनेजमेंट कं लि, केन्द्रीय क्रीड़ा व कला परिषद के सहयोग से आयोजित होगा। नाटकों का मंचन प्रतिदिन संध्या 30 बजे होगा।
  • विवेचना थियेटर ग्रुप की ओर हिमांशु राय, बांकेबिहारी ब्यौहार, वसंत काशीकर ने सभी नाट्य प्रेमी दर्शकों से समारोह के सभी नाटकों को देखने का अनुरोध किया है।

 

© वसंत काशीकर 

जबलपुर, मध्यप्रदेश




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #16 – कचरे के खतरे ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “कचरे के खतरे” ।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 16 ☆

 

☆ कचरे के खतरे ☆

 

घर-आँगन सब आग लग रही, सुलग रहे वन-उपवन
दर-दीवारें चटख रही हैं, जलते छप्पर-छाजन

तन जलता है, मन जलता है जलता जन-धन जीवन
एक नहीं जलते सदियों से जकड़े गर्हित बन्धन।

दूर बैठकर ताप रहा है, आग लगाने वाला
मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझाने वाला।

….. डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन

विकास का सूचक और अर्थव्यवस्था का आधार  बढ़ता मशीनीकरण आज आधुनिक जीवन के हर क्षेत्र को संचालित कर रहा है । आधुनिक जीवन मशीनों पर इस कदर निर्भर है कि इसके बिना कई काम रूक जाते हैं । इंटरनेट और मोबाइल  दूरी व समय की सीमाओं को लांघ कर सारी दुनिया को अपने में समेटने का दावा करते हैं । इस यंत्र युग में सारी दुनिया में हिंसा, शोषण, विषमता और बेरोजगारी भी बढ़ रही है । स्वास्थ्य समस्याएँ और पर्यावरण विनाश भी अपने चरम पर हैं । दौड़ती-भागती जिंदगी में समय का अभाव प्राय: आम शिकायत रहती है । रिश्तों में कृत्रिमता और दूरियाँ बढ़ रही हैं।  लोग स्वयं को बेहद अकेला महसूस करने लगे हैं । बढ़ती मशीनों ने मनुष्य की शारीरिक श्रम की आदत को कम करके स्वास्थ्य समस्याओ का आधार तैयार किया है । दूरदर्शी गांधीजी ने चेताया था – ”अगर मशीनीकरण की यह सनक जारी रही, तो काफी संभावना है कि एक समय ऐसा आएगा जब हम इतने असमर्थ और लाचार हो जाएगे कि अपने को ही यह कोसने लगेंगे कि हम भगवान द्वारा दी गई शरीर रूपी मशीन का इस्तेमाल करना क्यों भूल गए” । बढ़ता मशीनीकरण उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर समाज में विषमता की नींव को पुख्ता करता आया है । एक औद्योगिककृत अर्थव्यवस्था में अंधाधुंध बढ़ता मशीनीकरण वस्तुत: स्थानीय जरूरतों व सीमाओ को लांघकर व्यापक स्तर पर वस्तुओ के उत्पादन, बिक्री या खपत को बढ़ाने की महत्वाकांक्षाओ से प्रेरित होता है । औद्योगिक कचरे को व्यापाकता से बढ़ाता है ! ग्लोबल वार्मिंग को जन्म देता है । पर्यावरण प्रदूषण की  ऐसी आग को जन्म देता है जिसे बुझाने वाला सचमुच  कोई नहीं है ।

भोपाल गैस त्रासदी को २३ वर्ष हो गए हैं । वहां पर पड़ा जहरीला अपशिष्ट प्रत्येक मानसून में जमीन में रिस कर प्रति वर्ष  क्षेत्र को और अधिक जहरीला बना रहा है । कंपनी को इस बात के लिए मजबूर किया जाना चाहिये कि वह इसे अमेरिका ले जाकर इसका निपटान वहां के अत्याधुनिक संयंत्रों में करे । परन्तु इसके बजाय सरकारें अब भोपाल ही नहीं गुजरात में अंकलेश्वर व म.प्र. के पीथमपुर के भस्मकों में इसे जला कर इस औद्योगिक कचरे को नष्ट करना चाहती है ।

इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के अनुपयोगी हो जाने से इकट्ठा हो रहे कचरे का निपटान सही ढंग से नहीं हो पाने के कारण पर्यावरण के खतरे बढ़ रहे है । एक अध्ययन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष डेढ़ लाख टन ई-वेस्ट या इलेक्ट्रॉनिक कचरा बढ़ रहा है । इसमें देश में बाहर से आने वाले कबाड़ को जोड़ दिया जाए तो न केवल कबाड़ की मात्रा दुगुनी हो जाएगी, वरन् पर्यावरण के खतरों और संभावित दुष्परिणामों का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकेगा । प्रतिवर्ष भारत में बीस लाख कम्प्यूटर अनुपयोगी हो जाते हैं । इनके अलावा हजारों की तादाद में प्रिंटर, फोन, मोबाईल, मॉनीटर, टीवी, रेडियो, ओवन, रेफ्रिजरेटर, टोस्टर, वेक्यूम क्लीनर, वाशिंग मशीन, एयर कंडीशनर, पंखे, कूलर, सीडी व डीवीडी प्येयर, वीडियो गेम, सीडी, कैसेट, खिलौने, फ्लोरेसेंट ट्यूब, बल्ब, ड्रिलिंग मशीन, मेडिकल इंस्टूमेंट, थर्मामीटर और मशीनें आदि भी बेकार हो जाती हैं । जब उनका उपयोग नहीं हो सकता तो ऐसा औद्योगिक कचरा खाली भूमि पर इकट्ठा होता रहता है, इसका अधिकांश हिस्सा जहरीला और प्राणीमात्र के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है । कुछ दिनों पहले इस तरह के कचरे में खतरनाक हथियार व विस्फोटक सामगी भी पाई गई थी । इनमें धातुओ व रासायनिक सामग्री की भी काफी मात्रा होती है जो संपर्क में आने वाले लोगों की सेहत के लिए खतरनाक होती है । लेड, केडमियम, मरक्यूरी, एक्बेस्टस, क्रोमियम, बेरियम, बेटीलियम, बैटरी आदि यकृत, फेफड़े, दिल व त्वचा की अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं । अनुमान है कि यह कचरा एक करोड़ से अधिक लोगों को बीमार करता है । इनमें से ज्यादातर गरीब, महिलाएँ व बच्चे होते हैं । इस दिशा में गंभीरता से कार्रवाई होना जरूरी है । मगर देश के लोगों की मानसिकता अभी कबाड़ संभालने व कचरे से आजीविका कमाने की बनी हुई है ।

उर्जा उत्पादन हेतु ताप विद्युत संयंत्र , बड़े बाँध , प्रत्यक्ष, परोक्ष बहुत अधिक मात्रा में औद्योगिक कचरा फैला रहे हैं।  सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा, ऊर्जा के बेहतरीन विकल्प माने गए हैं । राजस्थान में इन दोनों विकल्पों के अच्छे मानक स्थापित हुए हैं । सोलर लैम्प, सोलर कुकर जैसे कुछ उपकरण प्राय: लोकप्रिय रहे हैं।   एशियन डेवलपमेंट बैंक के साथ मिलकर टाटा पॉवर कंपनी लिमिटेड देश में (विशेषकर महाराष्ट्र में) कई करोड़ों रूपये के बड़े पवन ऊर्जा प्लांट लगाने की योजना बना रही है । इसी तरह से दिल्ली सरकार भी ऐसी कुछ निजी कंपनियों की ओर ताक रही हैं जो राजस्थान में पैदा होती पवन ऊर्जा दिल्ली पहुंचा सकें । परमाणु ऊर्जा के निर्माण से पैदा होते परमाणु कचरे में प्लूटोनियम जैसे ऐसे रेडियोएक्टिव तत्वों का यह प्रदूषण पर्यावरण में भी फैल सकता है और भूमिगत जल में भी ।

एशियन डेवलपमेट बैक ने हाल ही गंगा के प्रदूषण रोकने के लिए एक योजना तैयार की है । गंगा के किनारे के  नगरों की पानी, सवरेज, सॉलिड वेस्ट मेनेजमेंट, सड़क, ट्रेफिक व नदियों के प्रदूषण को दूर किया जायेगा।संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट में कहा है कि व्यापक औद्योगिक कचरे ,भूमि का जरूरत से ज्यादा दोहन और सिंचाई के गलत तरीकों से  जलवायु परिवर्तन हो रहा है .मरूस्थलों के बढ़ते क्षैत्रफल के कारण लाखों लोग अपने घर छोड़ने को मजबूर हो सकते हैं।  रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि का मरूस्थल में बदलना पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है और विश्व की एक तिहाई जनसंख्या इसका शिकार बन सकती है । रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक संतुलन, कृषि के कुछ सरल तरीके अपनाने आदि से वातावरण में कार्बन की मात्रा कम हो सकती है । इसमें सूखे क्षैत्रों में पेड़ उगाने जैसे कदम शामिल हैं।औद्योगिक अपशिष्ट से दिल्ली की जीवन धारा यमुना, इस कदर मैली हो चुकी है कि राज्य सरकार १९९३ से ही ‘यमुना एक्शन प्लान’ जैसी कई योजनाओ द्वारा सफाई अभियान चला रही है, जिस पर करोड़ों-अरबों रूपए लगाए जा चुके हैं। किसी भी नदी को जिंदा रखने के लिए ‘इको सिस्टम’ की सुरक्षा उतनी ही जरूरी है जितनी उसमें बहते पानी की गुणवत्ता।

पर्यटन जनित डिस्पोजेबल प्लास्टिक कचरे से बढ़ता प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुँच रहा है ,जिस पर त्वरित नियंत्रण जरूरी है .सरकार ने  रिसायकल्ड पॉलिथिन के उपयोग पर पाबंदी लगा रखी है । केवल नए प्लास्टिक दानों से बनी बीस माइक्रोन से अधिक की थैलियों का ही उपयोग किया जा सकता है । 25 माइक्रोन से कम की रिसायकल्ड प्लास्टिक की थैलियां और २० माइक्रोन से कम की नई प्लास्टिक की थैलियों के उपयोग पर प्रतिबंध रहेगा। किसी भी नदी-नाले, पाइप लाइन और पार्क आदि सार्वजनिक स्थलों पर इन थैलियों का कचरा डालने पर रोक रहेगी । नगरीय निकाय इन थैलियों के लिए अलग-अलग कचरा पेटी रखेंगे।  पॉलीथिन के कारण सीवर लाइन बंद हो जाती है । इस वजह से दूषित पानी बहकर पाइप लाइन तक पहुंचकर पेयजल को दूषित करता है जिससे बीमारियां फैलती है । इसे उपजाऊ जमीन में फेंकने से भूमि बंजर होती जाती है । कचरे के साथ जलाने से जहरीली गैसे निकलती है जो वायु प्रदूषण फैलाती  है और ओजोन परत को क्षति पहुंचाती है ।गाय बैल आदि जानवर पालिथिन में चिपके खाद्य पदार्थ खाने के प्रलोभन में पतली पालीथिन की पन्नियां गुटक जाते हैं जो उनके पेट में फँस कर रह जाती हैं एवं उनकी मृत्यु हो जाती है . अतः पालीथिन पर प्रभावी नियंत्रण जरूरी है ।

प्रधानमंत्री जी ने बेहद महत्वपूर्ण देशव्यापी स्वच्छता अभियान चलाया हुआ है । रोजमर्रा शहरो से निकलने वाले घरेलू कचरे का सुरक्षित निष्पादन बहुत जरूरी है । ज्वलनशील कचरे को जलाकर बिजली उत्पादन की परियोजनायें बनाई जा रही हैं . जबलपुर में एक ऐसी ही परियोजना से प्रतिदि ८ मेगावाट बिजली इन दिनो बन रही है । जो प्लास्टिक, कागज, पुट्ठे का कचरा रिसाइकिल हो सकता है उसे निरंतर पुनरूपयोग किया जाना आवश्यक है । इसके लिये भी उद्योग स्थापित किये जाने को प्रोत्साहन की आवश्यकता है । जो बायो डिग्रेडबल कचरा कम्पोस्ट जैसी खाद बना सकता है उससे खाद बनाने की इकाईयां लगानी जरूरी हैं ।  समग्र रूप से कहा जा सकता है कि  कचरा प्रगति का दूसरा पहलू है जिससे बचना मुश्किल है, पर उसके समुचित तरीके से डिस्पोजल से ही हम मानव जीवन और प्रगति के बीच तादात्म्य बना कर विज्ञान के वरदान को अभिशाप बनने से रोक सकते हैं ।

 

© अनुभा श्रीवास्तव




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #-15 – कधी प्रेम माझे समजशील सूर्या ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।  आज  प्रस्तुत है  पृथ्वी , सूर्य एवं प्रकृति के काल्पनिक प्रेम पर आधारित कविता  – “कधी प्रेम माझे समजशील सूर्या। )

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #- 15? 

 

? कधी प्रेम माझे समजशील सूर्या  ?

(वृत्त- लगावली- लगागा लगागा लगागा लगागा )

युगे लोटली रे फिरावे किती मी।

कधी प्रेम  माझे समजशील सूर्या।

 

कितीदा नव्याने स्मरावे तुला मी

कधी साद हृदयात गुंजेल सूर्या?

 

असे रोज वेळेत येणे नि जाणे।

कधी तू जिवाला रमवशील सूर्या।

 

तुला सावलीचे असे वावडे का?

कधी खेळ खेळात हरशील सूर्या?

 

उगा अट्टहासे किती तापसी रे

तलम प्रेम धागे उसवशील सूर्या ?

 

नको तापवू रे जरा शांत होई।

किती या धरेला ठकवशील सूर्या ?

 

जरी पारदर्शी तुझी कार्य  कीर्ती।

परी डाग दुनियेस  दिसतील सूर्या

 

किती गूज चाले नभी तारकांचे।

खुळे भास त्यांचे पुसशील सूर्या ।

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105