हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ प्रो राजेन्द्र ऋषि के 75 वर्ष पूर्ण होने पर विशेष ☆ – पंडित मनीष तिवारी

पंडित मनीष तिवारी

 

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर के राष्ट्रीय  सुविख्यात साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी  का मूर्धन्य साहित्यकार एवं सुप्रसिद्ध शिक्षाविद प्रो राजेंद्र ऋषि जी  के ७५वें जन्म दिवस पर यह विशेष आलेख.

ई-अभिव्यक्ति की और से प्रो राजेंद्र ऋषि जी को उनके समर्पित साहित्यिक एवं स्वस्थ जीवन के लिए  हार्दिक शुभकामनाएं. )

 

☆ प्रो राजेन्द्र ऋषि के 75 वर्ष पूर्ण होने पर विशेष ☆

 

सरहद पर सैनिक चीन की फौज से जूझ रहे थे, विकट परिस्थियां सामने थीं देश के नागरिकों में भयंकर आक्रोश था, कैसे भी हो चीन को सबक सिखाना है अपने अपने ढंग से लोग सैनिकों का हौसला बढ़ा रहे थे ऐसी विकट परिस्थिति में संस्कारधानी से राष्ट्रवादी स्वर फूटा जिसकी कविताएं सैनिकों में जोश भर रही थीं वह नित नए प्रतीकों से सैनिकों में साहस भरता और मातृभूमि के लिए सर्वस्व निछावर करने की प्रेरणा देता वही स्वर आगे चलकर कवि सम्मेलन और कवि गोष्ठियों का सिरमौर हुआ। सामाजिक और राजनैतिक विचारधारा का स्वर बनकर मंचों से रात रात भर कविताओं को उलीचता, राष्ट्रभक्ति के साथ रसिकों की प्यास बुझाता। 1962 से जिन युवा गीतकारों ने मंचों पर धूम मचाई उनमें मेरे पूज्य पिता गीतकार स्व ओंकार तिवारी चाचा जनकवि स्व सुरेंद्र तिवारी के साथ प्रो राजेन्द्र ऋषि का नाम तात्कालिक  कवि सम्मेलनों की अनिवार्यता बन गए थे। अपने फक्कड़पन और औदार्य के कारण कवि राजेन्द्र तिवारी, अब राजेंद्र ऋषि हो गए। उन दिनों हिंदी कवि सम्मेलन  के सशक्त हस्ताक्षर संस्कारधानी के ख्यातिलब्ध कवि व्यंग्य शिल्पी स्व श्रीबाल पांडेय जी का तीनों पर वरद हस्त था 1961 में कमानिया गेट पर आयोजित कवि सम्मेलन में श्रीबाल जी ने इन तीनों युवा कवियों का प्रथम बार बड़े मंच से काव्यपाठ करवाया ये कवि उनकी कसौटी पर खरे उतरे और वर्षों बरस मंचों पर प्रतिष्ठित रहे।

सरकारी नीतियां हों समाज सेवा हो शिक्षा का दान हो या मित्रों की आवश्यकता ऋषि जी सदैव तत्पर रहे और संकट के क्षणों में कंधे से कंधा मिलाकर अपना मित्र धर्म निभाया। उन दिनों के कवि सम्मेलन आज की तरह ग्लैमरस नहीं थे मंच पर शुद्ध कविताएं होती थीं उस्ताद कवि बराबर काव्यपाठ पर अपनी प्रतिक्रियाएं देते थे। कवि सम्मेलन रोजगार नहीं था साहित्य सेवा ही उसके मूल में थी अतः ऋषि जी ने जीवकोपार्जन हेतु हितकारिणी बीएड कालेज को कर्मभूमि बनाया। कविता का धर्म और शिक्षा का कर्म जीवन पर्यन्त चलता रहा शैक्षणिक जगत में ऐसी धाक बनी की जबलपुर विश्व विद्यालय ने उन्हें ससम्मान डीन की कुर्सी लगातार 3 बार सौंपी उल्लेखनीय है कि यह पहला अवसर था जब अशासकीय शिक्षा महाविद्यालयों से कोई प्रोफेसर विश्व विद्यालय का डीन हुआ। ऋषि जी ने डीन की आसन्दी पर बैठकर शिक्षा को नए आयाम दिए इसका जीत जागता प्रमाण विश्व विद्यालय में बीएड विभाग की स्थापना है। इस स्थापना पीछे उनका उद्देश्य यह भी था कि महाकौशल क्षेत्र और शहर की प्रतिभाएं विश्व विद्यालय में अपनी सेवा दे सकें किन्तु उनका यह सपना आज भी अधूरा है। तथापि उनका  कार्यकाल विश्व विद्यालय के लिए बहुत प्रेरक और मार्गदर्शक रहा। शनैः शनैः सेवानिवृत्ति के समय आया मित्रों ने बड़ा जलसा कर उन्हें कार्यमुक्त किया।

नौकरी के दौरान ही उनका प्रथम काव्य संग्रह आपा सहित्याकाश में बहुत तेज़ी से चर्चित हुआ संग्रह की अनेक रचनाओं में रुपयों का झाड़, अंधेरे की आज़ादी और सब कुछ बदल गया है मगर कुछ नहीं बदला ने लोकप्रियता के कीर्तिमान गढ़े। द्वतीय काव्य संग्रह “इक्कीसवी सदी को चलें” का विमोचन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने किया था। तेजी से बदलते राजनैतिक परिदृश्य में आम आदमी की व्यथा कथा और देश की किस्मत में लिखे राजनैतिक छलावे को उन्होंने अपनी रचनाओं में खूब लताड़ा। यथा-

“दिल्ली बनी हैं झांसी झांसे नहीं बदले।

नटवर बदल गए हैं तमाशे नहीं बदले”।

अमीरी और गरीबी, फ़र्ज़ी जनसेवा के छलावे को भी उन्होंने आड़े हाथों लेकर लिखा

प्रगति पंथ के निर्माता हैं कड़ी धूप में,

रथ पर चलने वालों को रिमझिम बरसातें,

देश देखनेवाली आंखें धूल भरी हैं

स्वार्थ भारी आंखों को सपनों की सौगातें।

जब जब भी देश  जाती धर्म की आग में झुलसा तब तब ऋषि जी ने जनता के बीच सकारात्मक  पैगाम पहुंचाया-

इंसानी रिश्तों से बढ़कर मज़हब नहीं बड़े रहते हैं।

बढ़ जाता इंसान राह पर मज़हब वहीं खड़े रहते हैं।

ऋषि जी जब कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करते तो अपनी सशक्त प्रस्तुति और सम्प्रेषणीयता के कारण पूरे वातावरण को अपने पक्ष में कर लेते हैं लोग उनकी सम्मोहनी के कायल हो जाते हैं। उनकी कविताएं सहज सरल भाषा में बड़ा पैगाम देते हुए समाधान की यात्रा करती हैं।

चूंकि ऋषि जी जीवन भर अक्खड़ फक्कड़ निरदुंद रहे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समय के साक्षी रहकर काव्य लेखन में लगे रहे चुनौतियों को सदा स्वीकार किया सच को सच लिखा गलत को आड़े हाथों लिया इसलिए सरकारी सम्मानों से सदैव वंचित रहे, सरकार की जन विरोधी नीतियों पर हमेशा कटाक्ष करते रहे इसलिए सरकारी कार्यक्रम, वजनदार लिफाफा और सुविधाएं उनसे कोसो दूर रहीं। वे राज दरबारी न होकर जनपीड़ा के गायक हैं उनकी कविता आम आदमी और गांव चौपालों में जिंदा है और हमेशा रहेगी।

ऋषि जी अलमस्त फकीर और ठठ्ठा मारकर हंसने वाले जिंदादिल इंसान हैं उनके पास समय का पाबंद होकर नहीं बैठा जा सकता किसी भी विषय की तह तक जाने  की उनमें विलक्षण प्रतिभा है। किसी कार्य के दूरगामी परिणाम क्या होंगे वे पहले ही घोषणा कर देते हैं। साहित्य के गिरते स्तर और कवि सम्मेलन के दूषित माहौल से वे बहुत क्षुब्ध हैं और समय समय अपने शिष्यों को आगाह करते रहते हैं।

एक समय आया जब पारम्परिक कविता को साहित्य न मानकर उल जुलूल बेतुकी कविता और कवियों की विरुदावली गायी जाने लगी तब उन्होनें सजग रचनाकार की भूमिका का निर्वहन करते हुए आंचलिक साहित्यकार परिषद का गठन कर पूरे मध्यप्रदेश में कविता की प्रतिष्ठा हेतु वृहद  अभियान चलाकर अनेक रचनाकार खड़े करते हुए बहुत मजबूत सारगर्भित सारस्वत अभियान का श्रीगणेश किया।मुझे गर्व है में भी आंचलिक  साहित्यकार परिषद का सिपाही रहकर अभियान में शामिल हुआ।

यहां यह जिक्र करना बहुत आवश्यक है कि 90 के दशक में सरकारी मंच पूर्णतः वामपंथियो की गिरफ्त में आ चुके थे दूरदर्शन और आकाशवाणी से वही रचनाएँ प्रसारित होती जिनके सिर पैर, ओर छोर नहीं होता ऐसी विकट स्थिति में सरकार से लड़ाई लड़कर पारम्परिक यथार्थ कविताओं का आकशवाणी से प्रसारण करवाने का श्रेय सिर्फ राजेन्द्र ऋषि को जाता है। इस दौर में आंचलिक  साहित्यकार परिषद के नीचे प्रदेश के समर्थ और सच्चे रचनाकार स्वाभिमान से काव्यपाठ कर सके। यह लिखते हुए मुझे गर्व हो रहा है कि इस दौर में गुमनामी के अंधेरे में खोए रचनाकारों की सुषुप्त चेतना जागृत हुई और आंचलिक साहित्यकार परिषद के अधिवेशनों से उन्हें देश व्यापी पहिचान मिली।

ऋषि जी का व्यक्तित्व सर्वग्राही और सर्व स्वीकार है जिस तरह उनकी लेखनी को सार्वभौम सर्वस्वीकृति है उसी तरह उनका निश्छल व्यवहार मौलिक रचनाकारों के प्रति सदैव प्रेरक रहा। अध्यक्षीय और मुख्यातिथ्य की मंचीय लिप्सा से दूर कविता के प्रति प्रतिबध्दता प्रणम्य है। अनेको बार मैंने ऋषि जी को श्रोता समुदाय में बैठकर मौलिक रचनाकारों की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते देखा है।

परमप्रभु परमात्मा श्रीकृष्ण जी और राधा रानी ने ऋषि जी पर अनुपम कृपा बरसायी उनकी कलम से प्रस्फुटित कृष्ण काव्य के छंदों को श्रखला बढ़ते बढ़ते 1000 हो गई अब वे कृष्ण काव्य के ऋषि हैं वे कृष्ण भक्ति में इस कदरलीन हैं कि उन्होंने कृष्ण के साथ खुद को एकाकार कर लिया है। प्रत्येक छंद में नए प्रतीक नए सम्बोधन नया भाव नया द्रष्टिकोण दृष्टिगोचर होता है। हिंदी साहित्य के लिए कृष्ण काव्य वरदान है। ऋषि जी जब डूबकर सुनाते हैं तो लगता है एक छंद और सुन लेते अद्भुत अद्वतीय कृति का शब्द शब्द अनमोल है। छंदों का लालित्य सहज भाषा मन में भक्ति का बीजारोपण करती है बानगी के 2 छंदों का आप आनन्द लीजिये-

प्रेम के मीठे दो बोल कहो, बढ़ के सत्कार करो न करो,

दधि गागर को कम भार करो, दूजो उपकार करो न करो,

ये जन्म में प्रीति प्रगाढ़ रखो ओ जन्म में प्यार करो ने करो

अब पार कराओ हमें जमुना भव सागर पार करो न करो।

और

नज़रों पे चढ़ी ज्यों नटखट की खटकी खटकी फिरती ललिता,

कछु जादूगरी श्यामल लट की लटकी लटकी फिरती ललिता,

भई कुंजन में झुमा झटकी ,झटकी झटकी फिरती ललिता,

सिर पे धर के दधि की मटकी मटकी मटकी फिरती ललिता।

आज ऋषि जी ने अपने यशस्वी जीवन के 75 वर्ष पूर्ण किये गत वर्ष राष्ट्रीय कवि सङ्गम, मप्र आंचलिक साहित्यकार परिषद, जानकीरमण महाविद्यालय ने ऋषिजी का अमृत महोत्सव बहुत धूमधाम से द्विपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपनन्द जी सरस्वती महाराज के निज सचिव ब्रह्मचारी सुबुध्दानन्द जी के पावन सानिध्य में मनाया था जिसमें नगर के कवि पत्रकार, लेखक, नेता, समाजसेवी, शिक्षाविद, किसानों ने बड़ी संख्या में उपस्थित होकर ऋषि जी को अपना शुभाशीष दिया । रसखान, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध , जगन्नाथ दास रतनाकर की परंपरा के संवाहक ऋषि जी अपने ढंग से अपनी शैली अपनी भावाभिव्यक्ति से जनमानस तक पहुंचने का महनीय कार्य कर रहे हैं । ऋषि जी के सृजन में जिन तीन भाषाओं का समन्वय मिलता है उनमें बुंदेली भाषा, ब्रजभाषा और खड़ी बोली प्रमुख हैं।एक महाकवि, भक्त कवि और पथ प्रदर्शक के 75 वर्ष पूर्ण होने पर उनके स्वस्थ, दीर्घायु जीवन की कामना के साथ बहुत बहुत बधाई।

साहित्य के ऋषिराज को नमन।

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर ,मध्य प्रदेश 

प्रान्तीय महामंत्री, राष्ट्रीय कवि संगम – मध्य प्रदेश

मो न ९४२४६०८०४० / 9826188236

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 3 ☆ काव्य संग्रह – कंटीले कैक्टस में फूल ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की पुस्तक चर्चा  “काव्य संग्रह – कंटीले कैक्टस में फूल।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 3☆ 

 

 ☆ काव्य संग्रह – कंटीले कैक्टस में फूल ☆

 

पुस्तक चर्चा

काव्य संग्रह .. कंटीले कैक्टस में फूल 

लेखक.. आनन्द बाला शर्मा

पृष्ठ ६०, मूल्य २५० रु

संस्करण.. हार्ड बाउन्ड मूल्य

आई एस बी एन..९७८ ८१ ९३४८२६ ९ ८

प्रकाशक.. विनीता पब्लिशिंग हाउस, ग्रेटर नोयडा

 

☆ काव्य संग्रह – कंटीले कैक्टस में फूल  – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

आनंद बाला शर्मा, कविता, गीत, संस्मरण, लेखो में अपने मनोभाव व्यक्त करती हैं. आकाशवाणी से उनके प्रसारण होते रहे हैं. इन दिनो वे जमशेदपुर में रहकर अपने रचना कर्म द्वारा समाज को दिशा प्रदान करने में निरत हैं. प्रस्तुत पुस्तक में उनकी समय समय पर लिखी गई ४८ छोटी बड़ी अतुकांत कवितायें संग्रहित हैं. स्वाभाविक रूप से कविताओ के विषयो में वैभिन्य है. वे लिखती हैं

 

सपने पूरे होते हैं

बस उन्हें चाहिये थोड़ी जगह हवा पानी धूप

और खुला आसमान

ओढ़ने के लिये समय की चादर और

एक चाहत उनको बिखरने से बचाने के लिये.

 

इसी तरह के बिम्ब और प्रतीको के माध्यम से नई कविता की उन्मुक्त शब्द विन्यास शैली में प्रौढ़ कवियत्री ने स्त्री विमर्श पर कन्यादान, रिस्ते, माँ तो बस मां होती है, आंख के दो आंसू बेटियां औरत जैसी रचनायें की हैं. कारगिल युद्ध के दौरान जब एक बच्ची अपना जन्मदिन मनाने से मना कर देती है तो इस अनुभव की साक्षी रचनाका को संवेदनाओ के जिंदा होने का प्रमाण मिल जाता है और वे आस्वस्ति के साथ कविता लिख डालती हैं. कवितायें जो लिखी ही नही गईं, उनकी संग्रह की अंतिम रचना है. आशा करनी चाहिये कि भविश्य में उनसे हिन्दी जगत को ओर परिपक्व, और भी प्रयोगात्मक, और भी नये बिम्ब के साथ उपजी प्रौढ़ कवितायें मिल सकेंगी.

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 15 – सच्ची मोहब्बत ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “सच्ची मोहब्बत”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  युवाओं को वैवाहिक निर्णय लेने के समय भावनाओं का सम्मान रखने का अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 15 ☆

 

☆ सच्ची मोहब्बत ☆

 

मोहब्बत कहते ही लगता है कि एक दूसरे के प्रति अटूट प्यार विश्वास और समर्पण की भावना। मोहब्बत किसी से कहीं भी हो सकती है, बस दिल पर गहरा असर हो। गांव के मोहल्ले में एक छोटा सा परिवार सभी के साथ रहता था। माँ-बाप मजदूरी करते और बिटिया नंदिनी  और हाथ पैर से अपंग भाई। नंदिनी  बहुत सुंदर पढ़ाई लिखाई में तेज और समझदार थी। कहते हैं मजबूरी सब सिखा देती है, ऐसे ही नंदिनी  समय से पहले समझदार और अपने कर्तव्य समझने लगी थी। भाई की कमजोरी और माँ-बाप की लाचारी से नंदिनी को सब सीखना पड़ा। स्कूल के साथ-साथ थोड़ा बहुत सबका काम करती थी। पैसे और खाने का सामान मिलने पर उनका खर्च चलने लगा था। शिक्षा पूरा होते ही नंदिनी  एक स्कूल की टीचर बन गई। अब थोड़ी राहत हुई। मां बाप भी खुश भाई के इलाज के लिए थोड़े पैसे भी बचा लेती थी। पर मन ही मन नंदिनी  भाई को लेकर बहुत परेशान रहती थी। पास पड़ोस में सभी नंदिनी  से कहते शादी कर लो नंदिनी  पर वह तो घर से बंधी हुई थी। कहती मेरी जिम्मेदारी को देखते हुए कौन मुझसे शादी करेगा। परंतु कहीं ना कहीं सब बातों से आहत होती थी। एक दिन अचानक पिताजी को लकवा यानि कि पैरालिसिस लग गया और बिस्तर पर आ लगे। माँ बेचारी बेटी को लेकर रो-रोकर दिन काटने लगी। एक दिन स्कूल से नंदिनी आई घर में कुछ मेहमान बैठे थे। पता चला नंदिनी की शादी की बात चल रही है। बिल्कुल सादे लिबास में भी नंदिनी का रूप चमक रहा था। मेहमानों के जाने के बाद पिताजी इशारे से बेटी को कहने लगे लड़का अच्छा है, शादी कर ले। नंदिनी ने गुस्से से कहा आप सब के कारण में शादी नहीं कर पाऊंगी। रात में सोचते सोचते नंदिनी के पिता जी सदा-सदा के लिए शांत हो गए। अब तो जैसे घर में बेचैनी का माहौल बनने लगा। भाई भी बहन की परिस्थिति को समझ सकता था। पर हाथ पैर से लाचार कुछ नहीं कर पा रहा था। बस रो लेता था। एक दिन नंदिनी स्कूल से लौटी। माँ  ने चाय के साथ उसको एक रजिस्टर्ड लिफाफा पकड़ा दिया। खोलकर नंदिनी ने पढ़ी। आँखों से आँसू गिरने लगे। स्टांप पेपर पर लिखा था –

“मैं अपने होशो हवास से लिख रहा हूं। मैं नंदिनी के माँ और भाई को आजीवन अपने साथ रखूंगा। और किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होने दूंगा। बस नंदिनी मेरी जीवन साथी बन जाओ।”

*तुम्हारा सुधांशु*

नंदिनी बार-बार पढ़ रही थी *तुम्हारा सुधांशु* जैसे उसकी सच्ची मोहब्बत हो। खुशी से आँसू गिर रहे थे। चेहरे पर बहुत प्यारी हँसी। माँ और भाई समझ नहीं पा रहे थे। नंदिनी ने आँसू पोंछ कर माँ से कहा शादी की तैयारी करो। माँ और भाई ने कोई सवाल नहीं किया। बस खुशी के मारे मोहल्ले में बताने दौड़ चली। भाई अपनी खुशी गाना गाकर कर रहा था। सुधांशु को *सच्ची मोहब्बत* मिल गई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #15 – अमृताचा गोडवा * ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक सामयिक एवं सार्थक कविता “अमृताचा गोडवा”।)

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 15☆

 

? अमृताचा गोडवा ?

 

गोडकंठी सूर अन् शब्दातही शालीनता

मधुरताही शरण येते रसिकतेची मान्यता

 

पाहडी आवाज होता रागही तो पाहडी

सप्तसूरांचे कबीले अन् पहाटे सांगता

 

संतही रंगून जाती कीर्तनाच्या संगती

आळवीताना प्रभूला त्यात वाटे धन्यता

 

सात सूरांचे हजारो राग झाले या इथे

वर्ज होतो सूर कोणी ना तरीही खिन्नता

 

कान माझे पीत होते अमृताचा गोडवा

मैफिलीचे काय वर्णू केवढा हा राबता

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (29) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

( भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन )

 

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।।29।।

 

हितकारी संसार का,तप यज्ञों का प्राण

जो मुझको भजते सदा,सच उनका कल्याण।।29।।

 

भावार्थ:  मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियों का सुहृद् अर्थात स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्व से जानकर शान्ति को प्राप्त होता है।।29।।

 

He who knows Me as the enjoyer of sacrifices and austerities, the great Lord of all the worlds and the friend of all beings, attains to peace. ।।29।।

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्यायः ॥5॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – कालचक्र ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ कालचक्र ☆

 

उम्र की दहलीज पर
सिकुड़ी बैठी वह देह
निरंतर बुदबुदाती रहती है,
दहलीज की परिधि के भीतर
बसे लोग अनपढ़ हैं,
बड़बड़ाहट और बुदबुदाहट में
फर्क नहीं समझते!
मोतियाबिंद और ग्लूकोमा के
चश्मे लगाये बुदबुदाती आँखें
पढ़ नहीं पातीं वर्तमान
फलत: दोहराती रहती हैं अतीत!
मानस में बसे पुराने चित्र
रोक देते हैं आँखों को
वहीं का वहीं,
परिधि के भीतर के लोग
सिकुड़ी देह को धकिया कर
खुद को घोषित
कर देते हैं वर्तमान,
अनुभवी अतीत
खिसियानी हँसी हँसता है,
भविष्य, बिल्ली-सा पंजों को साधे
धीरे-2 वर्तमान को निगलता है,
मेरी आँखें ‘संजय’ हो जाती हैं…..,
देखती हैं चित्र दहलीज किनारे
बैठे हुओं को परिधि पार कर
बाहर जाते और
स्वयंभू वर्तमान को शनै:-शनै:
दहलीज के करीब आते,
मेरी आँखें ‘संजय’ हो जाती हैं…..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 12 – व्यंग्य – बरसात की रात ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  बारहवीं कड़ी में  उनका व्यंग्य   “बरसात की रात ”।  आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 12 ☆

 

☆ बरसात की रात ☆ 

 

रिमझिम रिमझिम बरसात हो रही है, गर्मागर्म पकोड़े खाये जा रहे हैं, और श्रीमती मोबाइल से फोन लगाकर ये गाना सुना रही है..

“रिमझिम बरसे बादरवा,

मस्त हवाएं आयीं,

पिया घर आजा.. आजा.. “

बार बार फोन आने से गंगू नाराज होकर बोला – देखो  अभी डिस्टर्ब नहीं करो बड़ी मुश्किल से गोटी बैठ पायी है। अभी गेटवे आफ इण्डिया में समंदर के किनारे की मस्त हवाओं का मजा लूट रहे हैं, तुम बार बार मोबाइल पर ये गाना सुनवा कर डिस्टर्ब नहीं करो, यहां तो और अच्छी सुहावनी रिमझिम बरसात चल रही है और मस्त हवाएं आ रहीं हैं और जा रहीं हैं। फेसबुक फ्रेंड मनमोहनी के साथ रिमझिम फुहारों का मजा आ रहा है। चुपचाप सो जाओ.. इसी में भलाई है, नहीं तो लिव इन रिलेशनशिप के लिए ताजमहल होटल सामने खड़ी है… बोलो क्या करना है। जीवन भर से लोन ले लेकर सब सुख सुविधाएं दे रहे हैं, एक दिन के लिए ऐश भी नहीं करने दे रही हो, जलन लग रही होगी, ये तुमसे ज्यादा सुंदर है समझे…….. ।

बरसात हो रही है और ताजमहल होटल के सामने गंगू और फेसबुक फ्रेंड भीगते हुए नाच रहे हैं गाना चल रहा है…….

“बरसात में हमसे मिले तुम,

तुम से मिले हम बरसात में, ”

जब नाचते नाचते थक गए तो गंगू बोला – गजब हो गया 70 साल से बरसात के साथ विकास नहीं बरसा और इन चार साल में बरसात के साथ विकास इतना बरसा कि सब जगह नुकसान ही नुकसान दिख रहा है। झूठ बोलो राज करो। सच कहने में अभी पाबंदी है। जोशी पड़ोसी कुछ भी बोले हम कुछ नहीं बोलेगा, मीडिया में लिखेगा तो जुल्म हो जाएगा।

चलो अच्छा पिक्चर में बैठते हैं वहां अंधेरा भी रहता है। सुनो मनमोहनी अंधेरे में चैन खींचने वाले और जेबकट बहुत रहते हैं तो ये चैन और पर्स अपने बड़े पर्स में सुरक्षित रख लो, पर्स में 20-30 हजार पड़े हैं सम्भाल कर रखना। गंगू सीधा और दयालु किस्म का है, बड़े पर्दे पर फिल्म चालू हो गई है गाना चल रहा है………

‘मुझे प्यास, मुझे प्यास लगी है

मेरी प्यास मेरी प्यास को बुझा देना…… आ….के.. बुझा…. ‘

पूरा गाना देखने के बाद गंगू बड़बड़ाते हुए बोला – बड़ी मुश्किल है मुंबई में, समुद्र में हाईटाइड का माहौल है, जमके बरसात मची है सब तरफ पानी पानी है और इसकी प्यास कोई बुझा नहीं पा रहा है सिर्फ़ चुल्लू भर पानी से प्यास बुझ जाएगी, बड़ा निर्मम शहर है, हमको तो दया आ रही है और मनमोहनी तुमको…….?  जबाब नहीं मिलने पर उसने अंधेरे में टटोला, बाजू की कुर्सी से मनमोहनी गायब थी चैन भी ले गई और पर्स भी……….

गंगू को काटो तो खून नहीं, रो पड़ा, क्या जमाना आ गया प्यार के नाम पर लुटाई….. वाह री बरसात तू गजब करती है जब प्यास लगती है तो फेसबुक फ्रेंड पर्स लेकर भगती है………. ।

पिक्चर भी गई हाथ से। पर्स चैन जाने से गंगू दुखी है बाहर चाय पीते हुए भावुकता में गाने लगा……….

“मेरे नैना सावन भादों,

फिर भी मेरा मन प्यासा, “

चाय वाला बोला गजब हो गया साब, चाय भी पी रहे हो और मन को प्यासा बता रहे हो, आपकी आंखों में सावन भादों के बादल छाये हैं और बरसात भी हो रही है तो मन प्यासा का बहाना काहे फेंक रहे हो… मन तो भीगा भीगा लग रहा है और नेताओं जैसे गधे की राग में चिल्ला रहे हो ‘मेरा मन प्यासा’……..

चाय वाले आप नहीं समझोगे…. बहुत धोखाधड़ी है इस दुनिया में….. खुद के नैयनों में बरसात मची है पर हर कोई दूसरे के नैयनों का पानी पीकर मन की प्यास बुझाना चाह रहा है। घरवाली के नयनों का पानी नहीं पी रहे हैं, बाहर वाली के नयनों के पानी से प्यास बुझाना चाहते हैं।

अरे ये फेसबुक और वाटस्अप की चैटिंग बहुत खतरनाक है यार, फेसबुक फ्रेंड से चैटिंग इस बार बहुत मंहगी पड़ गई…. रोते हुए गंगू फिर गाने लगा…………

“जिंदगी भर नहीं भूलेगी,

ये बरसात की रात,

एक अनजान हसीना से,

मुलाकात की रात, “

चाय वाला बोला – चुप जा भाई चुप जा ‘ये है बाम्बे मेरी जान…..’

दुखी गंगू रात को ही घर की तरफ चल पड़ा, रास्ते में फिल्म की शूटिंग चल रही थी, शूटिंग देखते देखते भावुकता में गाने के साथ गंगू भी नाचने लगा……..

” मेघा रे मेघा रे…….. “गाने में हीरोइन लगातार झीने – झीने कपड़ों में भीगती नाच रही है और देखने वालों का दिल लेकर अचानक अदृश्य हो जाती है म्यूजिक चलता रहता है और गंगू के साथ और लोग भी भीगते हुए नाच रहे हैं, सुबह का चार बज गया है शूटिंग बंद हो गई है, गंगू और कई लोग कंपकपाते हुए गिर गए हैं ऐम्बुलेंस आयी, सब अस्पताल में भर्ती हुए । नर्स गर्म हवा फेंकती है गंगू बेहोश है। सुबह आठ बजे सीवियर निमोनिया और इन्फेक्शन से गंगू को डाक्टर मृत घोषित कर देते हैं……….

दो घंटे बाद गंगू की शव यात्रा पान की दुकान के सामने रुकती है, पान की दुकान में गाना बज रहा है….

“टिप टिप बरसा पानी,

पानी ने आग लगाई, “

गाना सुनकर मुर्दे में हरकत हुई……. सब भूत – भूत चिल्लाते हुए बरसते पानी में भाग गए ……… ।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #15 – धार्मिक पर्यटन की विरासत ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “धार्मिक पर्यटन की विरासत”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 15 ☆

 

☆ धार्मिक पर्यटन की विरासत ☆

 

भारतीय संस्कृति वैज्ञानिक दृष्टि तथा एक विचार के साथ विकसित हुई है. भगवान शंकर के उपासक शैव भक्तो के देशाटन का एक प्रयोजन  देश भर में यत्र तत्र स्थापित द्वादश ज्योतिर्लिंग  हैं. प्रत्येक  हिंदू जीवन में कम से कम एक बार इन ज्योतिर्लिंगो के दर्शन को  लालायित रहता है. और इस तरह वह शुद्ध धार्मिक मनो भाव से जीवन काल में कभी न कभी इन तीर्थ स्थलो का पर्यटन करता है.द्वादश ज्योतिर्लिंगो के अतिरिक्त भी मानसरोवर यात्रा, नेपाल में पशुपतिनाथ, व अन्य स्वप्रस्फुटित शिवलिंगो की श्रंखला देश व्यापी है.

इसी तरह शक्ति के उपासक देवी भक्तो सहित सभी हिन्दुओ के लिये ५१ शक्तिपीठ भारत भूमि पर यत्र तत्र फैले हुये हैं.मान्यता है कि जब भगवान शंकर को यज्ञ में निमंत्रित न करने के कारण सती देवी माँ ने यज्ञ अग्नि में स्वयं की आहुति दे दी थी तो क्रुद्ध भगवान शंकर उनके शरीर को लेकर घूमने लगे और सती माँ के शरीर के विभिन्न हिस्से भारतीय उपमहाद्वीप पर जिन  विभिन्न स्थानो पर गिरे वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई. प्रत्येक स्थान पर भगवान शंकर के भैरव स्वरूप की भी स्थापना है.शक्ति का अर्थ माता का वह रूप है जिसकी पूजा की जाती है तथा भैरव का मतलब है शिवजी का वह अवतार जो माता के इस रूप के स्वांगी है.

भारत की चारों दिशाओ के चार महत्वपूर्ण मंदिर, पूर्व में सागर तट पर  भगवान जगन्नाथ का मंदिर पुरी, दक्षिण में रामेश्‍वरम, पश्चिम में भगवान कृष्ण की द्वारिका और उत्तर में बद्रीनाथ की चारधाम यात्रा भी धार्मिक पर्यटन का अनोखा उदाहरण है.जो देश को  सांस्कृतिक धरातल पर एक सूत्र में पिरोती है.  इन मंदिरों को 8 वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने चारधाम यात्रा के रूप में महिमामण्डित किया था। इसके अतिरिक्त हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम  में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ शिव मंदिर, यमुनोत्री एवं गंगोत्री देवी मंदिर शामिल हैं। ये चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखते हैं। राम कथा व कृष्ण कथा के आधार पर सारे भारत भूभाग में जगह जगह भगवान राम की वन गमन यात्रा व पाण्डवों के अज्ञात वास की यात्रा पर आधारित अनेक धार्मिक स्थल आम जन को पर्यटन के लिये आमंत्रित करते हैं.

इन देव स्थलो के अतिरिक्त हमारी संस्कृति में नदियो के संगम स्थलो पर मकर संक्रांति पर, चंद्र ग्रहण व सूर्यग्रहण के अवसरो पर व कार्तिक मास में नदियो में पवित्र स्नान की भी परम्परायें हैं.चित्रकूट व गिरिराज पर्वतों की परिक्रमा, नर्मदा नदी की परिक्रमा, जैसे अद्भुत उदाहरण हमारी धार्मिक आस्था की विविधता के साथ पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रामाणिक द्योतक हैं. हरिद्वार, प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन में १२ वर्षो के अंतराल पर आयोजित होते कुंभ के मेले तो मूलतः स्नान से मिलने वाली शारीरिक तथा मानसिक  शुचिता को ही केंद्र में रखकर निर्धारित किये गये हैं,एवं पर्यटन को धार्मिकता से जोड़े जाने के विलक्षण उदाहरण हैं. आज देश में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन चलाया जा रहा है, स्वयं प्रधानमंत्री जी बार बार नागरिको में स्वच्छता के संस्कार, जीवन शैली में जोड़ने का कार्य, विशाल स्तर पर करते दिख रहे हैं. ऐसे समय  में स्नान को केंद्र में रखकर ही  सिंहस्थ कुंभ जैसा महा पर्व मनाया जा रहा है, जो हजारो वर्षो से हमारी संस्कृति का हिस्सा है. पीढ़ीयों से जनमानस की धार्मिक भावनायें और आस्था कुंभ स्नान से जुड़ी हुई हैं. सिंहस्थ उज्जैन में संपन्न होता है.  उज्जैन का खगोलीय महत्व, महाकाल शिवलिंग, हरसिद्धि की देवी पीठ तथा कालभैरव के मंदिर के कारण उज्जैन कुंभ सदैव विशिष्ट ही रहा है.

प्रश्न है कि क्या कुंभ स्नान को मेले का स्वरूप देने के पीछे केवल नदी में डुबकी लगाना ही हमारे मनीषियो का उद्देश्य रहा होगा ? इस तरह के आयोजनो को नियमित अंतराल पर निर्ंतर स्वस्फूर्त आयोजन करने की व्यवस्था बनाने का निहितार्थ समझने की आवश्यकता है. आज तो लोकतांत्रिक शासन है हमारी ही चुनी हुई सरकारें हैं जो जनहितकारी व्यवस्था सिंहस्थ हेतु कर रही है पर कुंभ के मेलो ने तो पराधीनता के युग भी देखे हैं, आक्रांता बादशाहों के समय में भी कुंभ संपन्न हुये हैं और इतिहास गवाह है कि तब भी तत्कालीन प्रशासनिक तंत्र को इन भव्य आयोजनो का व्यवस्था पक्ष देखना ही पड़ा.समाज और शासन को जोड़ने का यह उदाहरण शोधार्थियो की रुचि का विषय हो सकता है. वास्तव में कुंभ स्नान शुचिता का प्रतीक है, शारीरिक और मानसिक शुचिता का. जो साधु संतो के अखाड़े इन मेलो में एकत्रित होते हैं वहां सत्संग होता है, गुरु दीक्षायें दी जाती हैं. इन मेलों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जनमानस तरह तरह के व्रत, संकल्प और प्रयास करता है. धार्मिक यात्रायें होती हैं. लोगों का मिलना जुलना, वैचारिक आदान प्रदान हो पाता है. धार्मिक पर्यटन हमारी संस्कृति की विशिष्टता है. पर्यटन  नये अनुभव देता है साहित्य तथा नव विचारो को जन्म देता है,  हजारो वर्षो से अनेक आक्रांताओ के हस्तक्षेप के बाद भी भारतीय संस्कृति अपने मूल्यो के साथ इन्ही मेलों समागमो से उत्पन्न अमृत उर्जा से ही अक्षुण्य बनी हुई है.

जब ऐसे विशाल, महीने भर से अधिक अवधि तक चलने वाले भव्य आयोजन संपन्न होते हैं तो जन सैलाब जुटता है स्वाभाविक रूप से वहां धार्मिक सांस्कृतिक नृत्य,  नाटक मण्डलियो के आयोजन भी होते हैं,कला  विकसित होती है.  प्रिंट मीडिया, व आभासी दुनिया के संचार संसाधनो में आज  इस आयोज की  व्यापक चर्चा हो रही  है. लगभग हर अखबार प्रतिदिन सिंहस्थ की खबरो तथा संबंधित साहित्य के परिशिष्ट से भरा दिखता है. अनेक पत्रिकाओ ने तो सिंहस्थ के विशेषांक ही निकाले हैं. सिंहस्थ पर केंद्रित वैचारिक संगोष्ठियां हुई हैं, जिनमें साधु संतो, मनीषियो और जन सामान्य की, साहित्यकारो, लेखको तथा कवियो की भागीदारी से विकीपीडिया और साहित्य संसार लाभांवित हुआ है. सिंहस्थ के बहाने साहित्यकारो, चिंतको को  पिछले १२ वर्षो में आंचलिक सामाजिक परिवर्तनो की समीक्षा का अवसर मिलता है. विगत के अच्छे बुरे के आकलन के साथ साथ भविष्य की योजनायें प्रस्तुत करने तथा देश व समाज के विकास की रणनीति तय करने, समय के साक्षी विद्वानो साधु संतो मठाधीशो के परस्पर शास्त्रार्थो के निचोड़ से समाज को लाभांवित करने का मौका यह आयोजन सुलभ करवाता है. क्षेत्र का विकास होता है, व्यापार के अवसर बढ़ते हैं. जैसे इस बार ही सिंहस्थ में क्षिप्रा नदी में नर्मदा के पानी को छोड़ने की तकनीकी व्यवस्था ने सिंहस्थ स्नान को नव चेतना दी है.

हिंदी के साहित्य संसार को समृद्ध करने के हमारे मनीषियो और चिंतको के उस अव्यक्त उद्देश्य की पूर्ति में अपना योगदान हमें अवश्य योगदान करना चाहिये जिसको लेकर ही कुंभ जैसे महा पर्व की संरचना की गई है, क्योकि मेरे अभिमत में कुंभ धार्मिक ही नहीं एक साहित्यिक और पर्यटन का सांस्कृतिक आयोजन रहा है, और भविष्य में तकनीक के विकास के साथ और भी बृहद बनता जायेगा.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #-14 – कविता /चारोळी – सांजवात ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।  आज  प्रस्तुत है संध्या -वंदना पर आधारित कविता/चारोळी – “सांजवात। )

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #- 14? 

 

? कविता/चारोळी -सांजवात  ?

 

सांजवातीचा प्रकाश

जिजाऊनीं सार्थ केला।

शिवबांच्या संस्कारात

महाराष्ट्र उजळला।

 

सांजवात लावूनिया

जपू थोर परंपरा ।

देऊ संस्कार शिदोरी

ज्ञान विज्ञान उद्धारा।

 

बीज संस्काराचे पेरू

सांजवातीच्या साक्षीने।

ज्योत ज्ञानाची पेटवू

विज्ञानाच्या सोबतीने।

 

घरोघरी प्रकाशावी

सद्विचारी सांजवात।

धुरा देशाची पेलण्या

संस्कारीत हवे हात।

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (27 – 28) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

( भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन )

 

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।।27।।

 

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।

विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ।।28।।

 

वाह्य विषय तज भृकुटि में लगा संयमित ध्यान

नासिका भीतर साम्य से भरते प्राण अपान।।27।।

 

मन,बुद्धि इंद्रियों से वश में कर धर ध्यान

क्रोध त्यागकर,मोक्षरत मुक्त सतत सज्ञान।।28।।

 

भावार्थ:  बाहर के विषय-भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि जीती हुई हैं, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि (परमेश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करने वाला।) इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है॥27-28॥

 

Shutting out (all) external contacts and fixing the gaze between the eyebrows, equalizing the outgoing and incoming breaths moving within the nostrils  ।।28।।

With the senses, the mind and the intellect always controlled, having liberation as his supreme goal, free from desire, fear, and anger—the sage is verily liberated forever. ।।28।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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