हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ होशोहवास ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  ‘होशोहवास ’।)

☆ होशोहवास
मेरे शहर में हज़ारों लोग हैं जो
दूसरों के गिरहबान में झाँक रहे हैं
अपने गिरहबान में झाँकने का
उन्हें होशोहवास नहीं है।
मेरे शहर में अनगिनत लोग हैं जो
दूसरों की गलतियों पर ताना देते हैं
अपनी गलतियों पर पछताने का
उन्हें होशोहवास नहीं है।
मेरे शहर में हजारों लोग हैं जो
दूसरों के दुखों पर खुश होते हैं
अपने सुख से परे देखने का
उन्हें होशोहवास नहीं है।
मेरे शहर में लाखों लोग हैं जो
दूसरों के हार पर खुश होते हैं
अपनी जीत के आगे देखने का
उन्हें होशोहवास नहीं है।

© सुजाता काले ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ याद रखना ☆ – श्री दिवयांशु शेखर

श्री दिवयांशु शेखर 

 

(युवा साहित्यकार श्री दिवयांशु शेखर जी  के अनुसार – “मैं हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कविताएँ, कहानियाँ, नाटक और स्क्रिप्ट लिखता हूँ। एक लेखक के रूप में स्वयं को संतुष्ट करना अत्यंत कठिन है किन्तु, मैं पाठकों को संतुष्ट करने के लिए अपने स्तर पर पूरा प्रयत्न करता हूँ। मुझे लगता है कि एक लेखक कुछ भी नहीं लिखता है, वह / वह सिर्फ एक दिलचस्प तरीके से शब्दों को व्यवस्थित करता है, वास्तव में पाठक अपनी समझ के अनुसार अपने मस्तिष्क में वास्तविक आकार देते हैं। “कला” हमें अनुभव एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देती है और मैं जीवन भर कला की सेवा करने का प्रयत्न करूंगा।”)

 

☆ क्षितिज ☆

याद रखना

बदलते वक़्त में क्या न बदला,

लाख कोशिशों से कौन न पिघला,

याद रखना।

 

तुम्हारे मौजूदगी में कौन था खिन्न,

तुम्हारे जिक्र से ही कौन था प्रसन्न,

याद रखना।

 

तुम्हारे कहानियों में कौन था साथ,

बद से बदतर होते हालत में किसने छोड़ा हाथ,

याद रखना।

 

तुम्हारे आंसुओ पे किसने जताया अपना हक़,

तुम्हारे अच्छे इरादों पे भी किसने किया शक,

याद रखना।

 

एक चेहरे के पीछे कई चेहरों की परतें,

सामने गुणगान पीछे घमासान जो करते,

याद रखना।

 

तुम्हारे प्रयासों का किसने रखा मान,

भरोसे पर किसने छोड़े तीखे बाण,

याद रखना।

 

हर वक़्त किसे थी तुम्हारी तलब,

पीठ दिखाया किसने साधकर अपना मतलब,

याद रखना।

 

तेरे अरमानों को किसने जगाया,

कुछ प्राप्ति के बिना किसने रिश्तों को निभाया,

याद रखना।

 

तुम्हारे लबों की हसीं पे किसने किया काम,

तुम्हारे प्रेम का किसने लगाया दाम,

याद रखना।

 

ज़िन्दगी वृत्त की परिक्रमा काटती,

जाती वापस वहीं लौट के आती,

भले समय लगे लेकिन अच्छे और बुरे का फर्क समझाती,

याद रखना।

 

रास्तों के सफर में न किसी से गिले न कोई शिकवे रखना,

जो मिले उन अनुभवों से सीखना,

बढ़ते रहना,

पर याद रखना।

 

© दिवयांशु  शेखर, कोलकाता 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (32) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

 

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।

कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ।।32।।

 

इस प्रकार कई यज्ञों का वर्णन मिलता है वेदों में

तू यह समझ कि तर जायेगा,सब होते इन कर्मो से।।32।।

 

भावार्थ :  इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं। उन सबको तू मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर उनके अनुष्ठान द्वारा तू कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएगा।।32।।

 

Thus, various kinds of sacrifices are spread out before Brahman (literally at the mouth or face of Brahman). Know them all as born of action, and knowing thus, thou shalt be liberated. ।।32।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ मैं लौट आऊंगा ☆ – डा. मुक्ता

कारगिल विजय दिवस पर विशेष 

डा. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है  एक सामयिक एवं मार्मिक रचना जिसकी पंक्तियां निश्चित ही आपके नेत्र नम कर देंगी और आपके नेत्रों के समक्ष सजीव चलचित्र का आभास देंगे। यह कविता e-abhivyakti में  24 मार्च 2019 को प्रकाशित हो चुकी है। किन्तु, हम इसे पुनः प्रकाशित कर गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं एवं सभी वीर जवानों को श्रद्धांजलि अर्पित करात हैं , साथ ही उनके परिवारों के प्रति हार्दिक संवेदनाएं  प्रकट करते हैं। डॉ मुक्ता जी का आभार।)

☆  मैं लौट आऊंगा ☆
वह ग़बरू जवान
जिसे बुला लिया गया था
मोर्चे पर आपात काल में
जो चार दिन पहले ही
बंधा था विवाह-बंधन में
जिसकी पत्नी ने उसे
आंख-भर देखा भी नहीं था
और ना ही छूटा था
उसकी मेहंदी का रंग
उसके जज़्बात
मन में हिलोरे ले रहे थे
बरसों से संजोए स्वप्न
साकार होने से पहले
वह अपनी पत्नी से
शीघ्रता से लौटने का वादा कर
भारी मन से
लौट गया था सरहद पर
परंतु,सोचो!क्या गुज़री होगी
उस नवयौवना पर
जब उसका प्रिययम
तिरंगे में लिपटा पहुंचा होगा घर
मच गया होगा चीत्कार
रो उठी होंगी दसों दिशाएं
पल-भर में राख हो गए होंगे
उस अभागिन के अनगिनत स्वप्न
उसके सीने से लिपट
सुधबुध खो बैठी होगी वह
और बह निकला होगा
उसके नेत्रों से
अजस्र आंसुओं का सैलाब
क्या गुज़री होगी उस मां पर
जिस का इकलौता बेटा
उसे आश्वस्त कर
शीघ्र लौटने का वादा कर
रुख्सत हुआ होगा
और उसकी छोटी बहन
बाट जोह रही होगी
भाई की सूनी कलाई पर
राखी बांधने को आतुर
प्यारा-सा उपहार पाने की
आस लगाए बैठी होगी
उसका बूढ़ा पिता
प्रतीक्षा-रत होगा
आंखों के ऑपरेशन के लिये
सोचता होगा अब
लौट आएगी
उसके नेत्रों की रोशनी
परंतु उसकी रज़ा के सामने
सब नत-मस्तक
मां, निढाल, निष्प्राण-सी
गठरी बनी पड़ी होगी—
नि:स्पंद,चेतनहीन
कैसे जी पाएगी वह
उस विषम परिस्थिति में
जब उसके आत्मज ने
प्राणोत्सर्ग कर दिए हों
देश-रक्षा के हित
सैनिक कई-कई दिन तक
भूख-प्यास से जूझते
साहस की डोर थामे
नहीं छोड़ते आशा का दामन
ताकि देश के लोग अमनो-चैन से
जीवन-यापन कर सकें
और सुक़ून से जी सकें

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 9 ☆ कैसे कायदे-कानून ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  उनकी  विचारणीय  कविता  “कैसे कायदे-कानून”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 9 ☆

 

☆ कैसे कायदे-कानून ☆

 

औरत!

तेरी अजब कहानी

जन्म से मृत्यु-पर्यन्त

दूसरों की दया पर आश्रित

पिता के घर-आंगन की कली

हंसती-खेलती,कूदती-फलांगती

स्वतंत्र भाव से,मान-मनुहार करती

बात-बात पर उलझती

अपने कथन पर दृढ़ रहती

 

परंतु, कुछ वर्ष

गुज़र जाने के पश्चात्

लगा दिए जाते हैं

उस पर अंकुश

‘मत करो ऐसा…

ऊंचा मत बोलो

सलीके से अपनी हद में रहो

देर शाम बाहर मत जाओ

किसी से बात मत करो

ज़माना बहुत खराब है’

और उसकी आबो-हवा

व लोगों की नकारात्मक सोच…

उसे तन्हाई के आलम में छोड़ जाती

वह स्वयं को

चक्रव्यूह में फंसा पाती

इतने सारे बंधनों में

वह खुद को गुलाम महसूसती

अनगिनत बवंडर उसके मन में उठते

यह सब अंकुश

उस पर ही क्यों?

‘भाई के लिए

नहीं कोई मंत्रणा

ना ही ऐसे फरमॉन’

उत्तर सामान्य है…

‘तुम्हें दूसरे घर जाना है

अपनी इच्छाओं,अरमानों

आकांक्षाओं का गला घोंट

स्वयं को होम करना है

उनकी इच्छानुसार

हर कार्य को अंजाम देना है

अपने स्वर्णिम सपनों की

समिधा अर्पित कर

पति के घर को स्वर्ग बनाना है

जानती हो

‘जिस घर से डोली उठती

उस घर की दहलीज़

पार करने के पश्चात्

तुम्हें अकेले लौट कर

वहां कभी नहीं आना है’

शायद! तुम नहीं जानती

अर्थी उसी चौखट से उठती

जहां डोली प्रवेश पाती

हां! मरने के पश्चात्

मायके से तुम्हें प्राप्त होगा कफ़न

और उनके द्वारा ही किया जाएगा

मृत्यु-भोज का आयोजन

वाह! क्या अजब दस्तूर है

इस ज़माने का

जहां वह जन्मी, पली-बढ़ी

वह घर उसके लिये पराया

माता-पिता, भाई-बहनों का

प्यार-दुलार मात्र दिखावा

असत्य, मिथ्या या ढकोसला

पति का घर

जिसे अपना समझ

उसने सहेजा, संवारा, सजाया

तिनका-तिनका संजोकर

मकान से घर बनाया

उस घर के लिये भी

वह सदैव रहती अजनबी

सब की खुशी के लिए

उसने खुद को मिटा डाला

सपनों को कर डाला दफ़न

कैसी नियति औरत की

क्या पति-पुत्र नहीं समर्थ

जुटा पाने को दो गज़ कफ़न

मृत्यु-भोज की व्यवस्था

कर पाने में पूर्णत: अक्षम, असमर्थ

हां! वे रसूखदार लोग

चौथे दिन करते

शोक सभा का आयोजन

आमंत्रित होते हैं

जिसमें सगे-संबंधी

और रूठे हुए परिजन

शिरक़त करते

बरसों पुराने

ग़िले-शिक़वे मिटाने का

शायद यह सर्वोत्तम अवसर

वहां सब ज़ायकेदार

स्वादिष्ट भोजन ग्रहण कर

अपने दिलों का हाल कहते

और उनकी नज़रें एक-दूसरे की

वेशभूषा पर टिकी रहतीं

जैसे वे मातमपुर्सी में नहीं

फैशन-परेड में आये हों

रसम-पगड़ी से पहले

औपचारिकतावश

उसका गुणगान होता

अच्छी थी बेचारी

कर्त्तव्यनिष्ठ, त्याग की मूर्ति

मरती-खपती, तप करती रही

सपनों को रौंद, तिल-तिल कर

स्वयं को गलाती रही

पुत्र के कंधों पर

पूरे परिवार का दायित्व डाल

सब चल देते हैं

अपने-अपने आशियां की ओर

परन्तु, एक प्रश्न

कुलबुलाता है मन में

वे करोड़ों की

सम्पत्ति के मालिक

पिता-पुत्र, क्यों नहीं कर सकते

भोज की व्यवस्था

और उस औरत को क्यों नहीं

दो गज़ कफ़न पाने का अधिकार

उस घर से

जिसे सहेजने-संजोने में उसने

होम कर दिया अपना जीवन

क्या यह भीख नहीं…

जो विवाह में दहेज

और निधन के पश्चात्

भोज के रूप में वसूली जाती

काश! समाज के

हर बाशिंदे की सोच

दशरथ जैसी होती

जिसने अपने बेटों के

विवाह के अवसर पर

जनक के पांव छुए

और उसे विश्वास दिलाया

कि वह दाता है

क्योंकि उसने अपनी बेटियों को

दान रूप में सौंपा है

जिसके लिये वे आजीवन

रहेंगे उसके कर्ज़दार

काश! हमारी सोच बदल पाती

और हम सामाजिक कुप्रथाओं के

उन्मूलन में सहयोग दे पाते

बेटी के माता-पिता से

उसके मरने के पश्चात्

टैक्स वसूली न करते

और मृत्यु कर का

शब्दकोश में स्थान न रहता

हमें ऐसी प्रतिस्पर्धा

पर अंकुश लगाना होगा

ताकि गरीब माता-पिता को

रस्मो-रिवाज़ के नाम पर

दुनियादारी के निमित्त

विवशता से न पड़े हाथ पसारना

और वे सुक़ून से

अपना जीवन बसर कर सकें

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सीढ़ियाँ ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )

 

☆ संजय दृष्टि  – सीढ़ियाँ

“ये सीढ़ियाँ जादुई हैं पर खड़ी, सपाट, ऊँची, अनेक जगह ख़तरनाक ढंग से टूटी-फूटी। इन पर चढ़ना आसान नहीं है। कुल जमा सौ के लगभग हैं। सारी सीढ़ियों का तो पता नहीं पर प्राचीन ग्रंथों, साधना और अब तक के अनुसंधानों से पता चला है कि 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच एक दरवाज़ा है। यह दरवाज़ा एक गलियारे में खुलता है जो धन-संपदा से भरा है। इसे ठेलकर भीतर जानेवाले की कई पीढ़ियाँ अकूत संपदा की स्वामी बनी रहती हैं।

20वीं से  35वीं सीढ़ी के बीच कोई दरवाज़ा है जो सत्ता के गलियारे में खुलता है। इसे खोलनेवाला सत्ता काबिज़ करता है और टिकाये रखता है।

साधना के परिणाम बताते हैं कि 35वीं से 50वीं सीढ़ी के बीच भी एक दरवाज़ा है जो मान- सम्मान के गलियारे में पहुँचाता है। यहाँ आने के लिए त्याग, कर्मनिष्ठा और कठोर परिश्रम अनिवार्य हैं। यदा-कदा कोई बिरला ही पहुँचा है यहाँ तक”…, नियति ने मनुष्यों से अपना संवाद समाप्त किया और सीढ़ियों की ओर बढ़ चली। मनुष्यों में सीढियाँ चढ़ने की होड़ लग गई।

आँकड़े बताते हैं कि 91प्रतिशत मनुष्य 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच भटक रहे हैं। ज़्यादातर दम तोड़ चुके। अलबत्ता कुछ को दरवाज़ा मिल चुका, कुछ का भटकाव जारी है। कुबेर का दरवाज़ा उत्सव मना रहा है।

8 प्रतिशत अधिक महत्वाकांक्षी निकले। वे 20वीं से 35वीं सीढ़ी के बीच अपनी नियति तलाश रहे हैं। दरवाज़े की खोज में वे लोक-लाज, नीति सब तज चुके। सत्ता की दहलीज़ श्रृंगार कर रही है। शिकार के पहले सत्ता, श्रृंगार करती है।

1 प्रतिशत लोग 35 से 50 के बीच की सीढ़ियों पर आ पहुँचे हैं। वे उजले लोग हैं। उनके मन का एक हिस्सा उजला है, याने एक हिस्सा स्याह भी है। उजले के साथ इस अपूर्व ऊँचाई पर आकर स्याह गदगद है।

संख्या पूरी हो चुकी। 101वीं सीढ़ी पर सदियों से उपेक्षित पड़े मोक्षद्वार को इस बार भी निराशा ही हाथ लगी।

 

हरेक की  जीवनयात्रा सार्थक हो। 

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 7 ☆ आत्मसम्मान ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक  सार्थक लघुकथा  “आत्मसम्मान”। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 7  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ आत्मसम्मान 

 

शादी के आठ माह बाद भी दीप्ति को पति से वो सम्मान नहीं मिला जी मिला जो उसे मिलना चाहिये। कभी-कभी जेठ जिठानी से मिलने जाते थे पर पति ने कदर नहीं की तो उनकी नजरों में भी कोई स्थान नहीं था। पढ़ी लिखी दीप्ति ने कभी भी अपनी माँ के यहाँ कोई काम नहीं किया था बस नौकरी कर घर की जिम्मेदारी उठाई थी ।

अब शादी दूसरे शहर में होने से नौकरी छोड़नी पड़ी सोचा कुछ समय सेटल होकर कर लेंगे। पति के ताने से यह प्रकट होता था –“बड़ी आई पढ़ने वाली अब जॉब करेगी घर पर बैठ घर संभाल यही पत्नी की डयूटी होती है”। धीरे-धीरे समय बीतता रहा ।एक दिन पति की अपने बॉस से कहा सुनी हो गई खुद को ही बॉस समझने लगा और नौकरी से हाथ धोना पड़ा। अब फिर ताने तुम्हारा इतना पढ़ना किस काम का जो तुम घर पर बैठी हो।

दीप्ति ने बोला –“जब हम जॉब करना चाहते तो तुमने करने ही नहीं दिया।” उसका जबाव था—“तुम्हारी यही सोच तुम्हारे पढ़ने लिखने का क्या फायदा?” दीप्ति ने  नेट का फॉर्म भरा मन लगाकर पढ़ाई की और परीक्षा पास की। बड़े परिश्रम के बाद किसी की सिफारिश से वहीं पास के ही कॉलेज में एडॉक पर नौकरी मिल गई।

जिस दिन नौकरी ज्वाइन की उस दिन घर लौटते समय लगा पता नहीं पतिदेव क्या रियेक्ट करेंगे कहीं फिर ताना सुनना पड़ेगा। लेकिन अब मन बना लिया चाहे कुछ हो जाये अब नौकरी नहीं छोड़ेंगे। यहीं सोचते -सोचते घर आ गया घर का दरवाजा खुला था । अदंर प्रवेश करने के साथ ही जोर की आवाज आई – “मेरी दीप्ति तुमने मेरे जीवन को दीप्त कर दिया बहुत -बहुत बधाई”। फिर मिठाई खिलाई पतिदेव ने चाय बनाई और कहा “आज तुम खाना नहीं बनाओगी आज बाहर ही खायेंगे। तुम्हारी सफलता से हम बहुत खुश हैं।”

दीप्ति ने मन ही मन कहा –“आज तुझे नौकरी मिलने से पति की नजरों में आत्मसम्मान मिला है अर्थात ये सब पैसों के पुजारी है।”

 

© डॉ भावना शुक्ल

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प नववे # 9 ☆ शिक्षणाचे बाजारीकरण :- एक गंभीर समस्या ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये  शिक्षा के बाजारीकरण जैसी एक सामाजिक  समस्या पर विचारणीय आलेख “शिक्षणाचे बाजारीकरण :- एक गंभीर समस्या”)

 

☆ समाज पारावरून – साप्ताहिक स्तंभ  – पुष्प  नववे  # 9 ☆

 

☆ शिक्षणाचे बाजारीकरण :- एक गंभीर समस्या ☆

 

अगदी बालवाडीत प्रवेश घेण्यापासून ते पदवीदान समारंभात  उपस्थित रहाण्यापर्यत   प्रत्येक ठिकाणी  हा बाजार पपहायला मिळतो . शालेय शिक्षण, प्राथमिक, माध्यमिक व  महाविद्या लयीन शिक्षण प्रत्येक ठिकाणी व्यवहार महत्वाचा झाला आहे. मुलांचे शिक्षण ही गोष्ट पालकांनी प्रेस्टीज इश्यू म्हणून चव्हाटय़ावर  आणली  आणि शिक्षण संस्थांनी नेमके याच गोष्टींचा फायदा घेऊन शिक्षण क्षेत्रात बाजारीकरण सुरू आहे.

ज्ञानदानाची गुणवत्ता पैशात मोजली जाते.  जितके शुल्क  अधिक तितका शिक्षण दर्जा  उच्च  असा गैरसमज पसरल्याने हे बाजारीकरण झपाट्याने वाढते आहे. राखीव मॅनेजमेंट कोट्यातून प्रवेश देताना सुरू झालेले बाजारीकरण शिक्षण क्षेत्रात प्रत्येक विभागात पसरलेले दिसते. पैसा फेको तमाशा देखो,  ही प्रवृत्ती शिक्षण क्षेत्रात देखील  अमाप पसरली आहे.

वारेमाप पैसे मोजून पदवीधर झालेल्या तरूण तरूणी नोकरी च्या शोधात फिरत आहेत. हवी तशी नोकरी न मिळाल्याने सुशिक्षित बेरोजगार मिळेल तो रोजगार करायला तयार आहे. शिक्षण आणि नोकरी  यामध्ये होणारी घुसमट पैशाच्या जोरावर कुटुंबातील मनःशांती नष्ट करीत आहे. आजचा तरुण व्यवसाय प्रशिक्षण घेऊन लवकरात लवकर पैसा कसा मिळेल याकडे लक्ष देताना दिसतो आहे. यातही प्रत्येक वेळी तो यशस्वी होईल याची खात्री नाही.  केलेली गुंतवणूक  केव्हा फायदेशीर ठरेल हे कुणाला नेमके सांगता येत नाही हे  आजचे वास्तव आहे.

शिक्षणाचे बाजारीकरण झाल्याने पढतमूर्ख किंवा  व्यवहार  ज्ञान नसलेले सुशिक्षित डिग्री सांभाळत नोकरी शोधायला बाहेर पडले आहेत.

पैसा मिळवून देणारे शिक्षण प्रत्येकाला हवे आहे.

शिक्षण ही  ज्ञानाची गंगोत्री आहे  हा  सुविचार या  बाजारात मागे पडला आहे. पारंपरिक शेती व्यवसाय कडे  तरूण पिढी चे पूर्ण दुर्लक्ष झाले आहे.  आपला देश कृषी उत्पन्न वर अवलंबून असूनही व्यवसाय निवडताना तरूण पिढी  आधुनिक तंत्रज्ञान कडे वळत आहे ही बाब चिंतेची  आहे.  या शिक्षण क्षेत्रातील बाजारीकरणामुळे अनुभव पैशात मोजला जात आहे.

समाज पारावरून  हा विषय चर्चेला घेताना  *रोजगार  आणि शिक्षण* हा मुद्दा जास्त महत्वाचा वाटतो.   पैशाला  आलेले  अवास्तव महत्व  आज शिक्षणाचे महत्त्व कमी करत आहे.  माणूस शिकलाय किती यापेक्षा तो कमवतो किती हा प्रश्न विचारला जात  असल्याने तरूण पिढी पैसा कमवण्याचा  उद्देश समोर ठेवूनच व्यवसाय प्रशिक्षण कडे लक्ष देत आहे.

शिक्षण हे  माणसाला विचारी,  संयमी, कृती शील,संस्कारी बनवते पण सध्या शिक्षण हे पैसा मिळवून देण्यासाठी कसे  उपयोगी पडेल याचा विचार प्रत्येक जण करत आहे. शिक्षण क्षेत्रात होणाऱ्या बाजारीकरणाचा फटका खूप मोठा आहे.

अनुदानित,  विनाअनुदानीत शाळा  यांचे ही प्रश्न  अत्यंत बिकट आहेत.  महाराष्ट्रात मराठी भाषा सक्तीची करावी,  मराठी भाषेला  अभिजाततेचा दर्जा द्यावा  यासाठी सुरू असलेले आंदोलन याचे मूळ  या  शिक्षण  क्षेत्रातील  बाजारामुळेच निर्माण झाले आहे. ही बाब  खरोखरीच  गंभीर आहे. वैयक्तिक पातळीवर योग्य निर्णय घेऊन ठोस पावले  उचलण्याची गरज निर्माण झाली आहे.

धन्यवाद.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ माझे स्वप्न ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है  एक मुक्तकाव्य  विधा में भावप्रवण कविता माझे स्वप्न। 

 

☆ माझे स्वप्न ☆

 

मला वाटते एक सुंदर झाड मी व्हावे !

कुणीतरी मातीत मला रुजवावें !

त्यावर झारीने पाणी फवारावे !

मग मी मस्त तरारावें !

मी एक सुंदर झाड मी व्हावे !!१!!

 

फुटावित कोवळी पाने !

कसा हिरवागार जोमाने !

दिसामाजी मी वाढतच जावें !

मी एक सुंदर झाड व्हावें !!२!!

 

यावीत सुंदर सुगंधी फुले !

तोडाया येतील मुलीमुलें !

होतील आनंदी मुलें !

मुली आवडीने केसात माळतील फुले !

होई आनंदी माझे जगणें !!३!!

 

येतील मधुर देखणी फळे !

पक्षी होती गोळा सारे !

आनंदाने खातील फळे !

चिवचिवाट करतील सारे !!४!!

 

गाईगुरे येतील सावलीत !

बसतील रवंथ करीत !

झुळुझुळू वारे वाहतील !

चहूकडे आनंद बहरेल !!५!!

 

मला भेटण्या येतील वृक्षमित्र !

काढतील सुंदर छायाचित्र !

छापून देईल वर्तमानपत्र !

मग प्रसिद्धी पावेल सर्वत्र !

बहु कृतकृत्य मी व्हावे !

मी एक सुंदर झाड व्हावें !!६!!

 

माझ्या फळातील बीज सारे !

नेतील गावोगावी सारे !

वृक्ष लावा जगवा देतील नारे !

माझे बीज सर्वत्र अंकुरें !

माझ्या वंशाला फुटतील धुमारे !

रानी वनी आनंदाचे झरे

मी एक सुंदर वृक्ष झालो रे ! मी एक सुंदर वृक्ष झालो रे !!७!!

 

©® उर्मिला इंगळे

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (31) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

 

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌।

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ।।31।।

 

यज्ञा शिष्ट अमृत भोजन पा , पाते हैं वे ईश्वर को

यज्ञ न करने वाले को जग नही स्वर्ग कहां तो नश्वर को।।31।।

 

भावार्थ :  हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिए तो यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है?।।31।।

 

Those who eat the remnants of the sacrifice, which are like nectar, go to the eternal Brahman. This world is not for the man who does not perform sacrifice; how then can he have the other, O Arjuna? ।।31।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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