हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #9 – बहू की नौकरी ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  नौवीं कड़ी में प्रस्तुत है “बहू की नौकरी ”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 9 ☆

 

☆ बहू की नौकरी ☆

 

विवाह के बाद बहू को नौकरी करना चाहिये या नही यह वर्तमान युवा पीढ़ी की एक बड़ी समस्या है. बहू नौकरी करेगी या नहीं, निश्चित ही यह बहू को स्वयं ही तय करना चाहिये. प्रश्न है,विचारणीय मुद्दे क्या हों ? इन दिनो समाज में लड़कियों की शिक्षा का एक पूरी तरह गलत उद्देश्य धनोपार्जन ही लगाया जाने लगा है, विवाह के बाद यदि घर की सुढ़ृड़ आर्थिक स्थिति के चलते ससुराल के लोग बहू को नौकरी न करने की सलाह देते हैं तो स्वयं बहू और उसके परिवार के लोग इसे दकियानूसी मानते है व बहू की आत्मनिर्भरता पर कुठाराघात समझते हैं, यह सोच पूरी तरह सही नही है.

शिक्षा का उद्देश्य केवल अर्थोपार्जन नही होता. शिक्षा संस्कार देती है. विशेष रूप से लड़कियो की शिक्षा से समूची आगामी पीढ़ी संस्कारवान बनती है. बहू की शिक्षा उसे आत्मनिर्भरता की क्षमता देती है, पर इसका उपयोग उसे तभी करना चाहिये जब परिवार को उसकी जरूरत हो. अन्यथा बहुओ की नौकरी से स्वयं वे ही प्रकृति प्रदत्त अपने प्रेम, वात्सल्य, नारी सुलभ गुणो से समझौते कर व्यर्थ ही थोड़ा सा अर्थोपार्जन करती हैं. साथ ही इस तरह अनजाने में ही वे किसी एक पुरुष की नौकरी पर कब्जा कर उसे नौकरी से वंचित कर देती हैं. इसके समाज में दीर्घगामी दुष्परिणाम हो रहे हैं, रोजगार की समस्या उनमें से एक है दम्पतियो की नौकरी से परिवारो का बिखराव, पति पत्नी में ईगो क्लैश, विवाहेतर संबंध जैसी कठिनाईयां पनप रही हैं. नौकरी के साथ साथ पत्नी पर घर की ज्यादातर जिम्मेवारी, जो एक गृहणी की होती है, वह भी महिला को उठानी ही पड़ती है इससे परिवार में तनाव, बच्चो पर पूरा ध्यान न दे पाने की समस्या, दोहरी मेहनत से स्त्री की सेहत पर बुरा असर आदि मुश्किलो से नई पीढ़ी गुजर रही है. अतः बहुओ की नौकरी के मामले में मायके व ससुराल दोनो पक्षों के बड़े बुजुर्गो को व पति को सही सलाह देना चाहिये व किसी तरह की जोर जबरदस्ती नही की जानी चाहिये पर निर्णय स्वयं बहू को बहुत सोच समझ कर लेना चाहिये.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-8 – निसर्ग चक्र आहार आणि आपली संस्कृती ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनके द्वारा  विज्ञान पर आधारित सांस्कृतिक आलेख   निसर्ग चक्र आहार आणि आपली संस्कृती ।)

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #-8  ? 

 

?  निसर्ग चक्र आहार आणि आपली संस्कृती ?

 

उन्हाळ्यात जठराग्नी उत्तम कार्य करतो त्यामुळे जास्त उपवास नसतात परंतु आषाढी नंतर  मात्र पावसाळा म्हटलं की भूक मंदावते पोटाचे विकार टाळण्यासाठी काहीजण चातुर्मास तर काही लोक श्रावण महिना उपवास करतात .या काळात एक वेळेस जेवण घेतले जाते  ज्यांना शक्य नसेल ते दूध फल आहार किंवा पचायला हलके पदार्थ सेवन करतात .या महिन्यात बहुतेक सणाला नैवेद्य म्हणून उकडीचे पदार्थ जसे कडबू ,फळं, दिवे, मोदक, कढी ,खिचडी, दुधातली दशमी, मुगाची डाळ घालून भाजी असे जे पचायला सहज सुलभ असतात . *या काळात मौसाहार वर्ज्य  मानला जातो*  कारण मुळात माणूस हा शाकाहारी प्राणी आहे . मुळात हे समजून घेणे गरजेचे आहे की हे कुणी धर्म पंडीतांनी सांगितलेले नसून नैसर्गिक आहे गाईला, घोड्याला, शेळी, बकरी यांना कोणत्याही पंडीताने गवत खायला सांगितले नाही तर ते निसर्ग नियम पाळतात . जे प्राणी ओठ लावून पाणी पितात ते सर्व शाकाहारी व जे जिभेने पाणी पितात ते मौसाहारी त्यांच्या दातांंची रचना वेगळी असते माणसाला वाघ कुत्रा यांच्यासारखे सुळे नसतात . शिवाय निदान पावसाळ्यात आपण ज्यांना खातो त्यांना होणारे आजार माशा जंतू संसर्ग इत्यादी बाबींचा विचार करून वैज्ञानिक दृष्टीने ठरवलेला हा  नियम आहे. त्यामुळे विरोधासाठी विरोध हे तत्त्व सोडून कुठलीही टोकाची भूमिका नसावी, कालसापेक्ष यात  काही बदल नक्कीच ग्राह्य असतात.  महालक्ष्मी नवरात्री पासून हळूहळू तळीव पदार्थांचे आहारातील प्रमाण वाढवणारे सण येतात जसे महालक्ष्मी, दसरा, दिवाळी, नागदिवे मकर संक्रांत कारण शरीराला स्निग्धते सोबत उष्मांक मिळणे सुद्धा गरजेचे असते. म्हणून जवळजवळ सर्वच सणांना भरपूर तळलेले गोड पदार्थ (फक्त एक सुचवावेसे वाटते पूर्वी हे सर्व पदार्थ गूळ वापरून केले जात असत तसे ) असावेत .

पुढे उन्हाळ्याची चाहूल लागली की, पन्हे मठ्ठा ताक लस्सी सरबत आंब्याचा रस कुरवडी पापड लोणची या पदार्थांची रेलचेल सुरू होते . एकूणच काय तर आपली संस्कृती म्हणजे जे देहाला ते देवाला अशी आहे . स्थल काल परत्वे यात  भेद नक्कीच आहेत जसे देशावरच्या देवाला बिन मिठाचा भात तर कोकणातील देवाला भात मासे , तरीसुद्धा नारळी पौर्णिमेला नारळी भातच असतो भात मासळी नाही हे विसरू नये.

बिन मिठाचा भातच का? सुरुवातीला साधं वरण भातच का? खावा शेवटी दहीभातच का? खावा या सर्वांनाच धार्मिक सोबतच वैज्ञानिक सुद्धा कारणे आहेत ती जाणून घेण्याचा प्रयत्न करावा .केवळ धर्माला विरोध म्हणून सगळ्याला विरोध ही बाब नक्कीच मानवासाठी घातक ठरेल .जगातला कुठलाही धर्म वाईट कर्माचे समर्थन करत नाही तर आपण स्वार्थासाठी त्याचे हवे तसे अर्थ लावत असतो. हे सर्वांसाठीच घातक आहे याचा विचार होणे गरजेचे आहे अर्थातच हे सर्व माझे मत आहे परंतु  विज्ञानाची जोड नक्कीच आहे.

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ HAPPINESS ACTIVITY: LAUGHTER YOGA: ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ HAPPINESS ACTIVITY: LAUGHTER YOGA ☆

Video Link : HAPPINESS ACTIVITY: LAUGHTER YOGA

 

HAPPINESS ACTIVITY: LAUGHTER YOGA:
ACTING LIKE A HAPPY PERSON:
TAKING CARE OF YOUR BODY

One of the happiness activities described by the positive psychologists for taking care of your body is acting like a happy person.
Laughter Yoga suits best in this category. It is voluntary laughter, for no reason, to create instant joy. It’s scientifically proven, easy to learn and a lot of fun.

It’s based on the principle: motion creates emotion. You act happy and you start feeling happy.
We demonstrate three laughter exercises – milk shake laughter, mobile laughter and hearty laughter – in this video. You can practice these any time and feel happier.

“Pretending that you are happy – smiling, engaged, mimicking energy and enthusiasm – not only can you earn some of the benefits of happiness (returned smiles, strengthened friendships, successes at work and school) but can actually make you happier.

“So go for it. Smile, laugh, stand tall, act lively and give hugs. Act as if you were confident, optimistic, and outgoing. You’ll manage adversity, rise to the occasion, create instant connections, make friends, influence people, and become a happier person.”

SONJA LYUBOMIRSKY/ THE HOW OF HAPPINESS

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (26) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

 

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।

शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ।।26।।

 

कोई श्रोत्रादि इंद्रियों को संयमाग्नि में करते यज्ञ

काई शब्दादि विषय हविष्य से इंद्रियाग्नि में करते यज्ञ।।26।।

 

भावार्थ :  अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयम रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं।।26।।

 

Some again offer hearing and other senses as sacrifice in the fire of restraint; others offer sound and various objects of the senses as sacrifice in the fire of the senses. ।।26।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #6 – पड़ाव के बाद का मौन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  चौथी  कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 6 ☆

 

☆ पड़ाव के बाद का मौन ☆

 

एक परिचित के घर बैठा हूँ। उनकी नन्हीं पोती रो रही है। उसे भूख लगी है, पेटदर्द है, घर से बाहर जाना चाहती है या कुछ और कहना चाह रही है, इसे समझने के प्रयास चल रहे हैं।

अद्भुत है मनुष्य का जीवन। गर्भ से निकलते ही रोना सीख जाता है। बोलना, डेढ़ से दो वर्ष में आरंभ होता है। शब्द से परिचित होने और तुतलाने से आरंभ कर सही उच्चारण तक पहुँचने में कई बार जीवन ही कम पड़ जाता है।

महत्वपूर्ण है अवस्था का चक्र, महत्वपूर्ण है अवस्था का मौन..। मौन से संकेत, संकेतों से कुछ शब्द, भाषा से परिचित होते जाना और आगे की यात्रा।

मौन से आरंभ जीवन, मौन की पूर्णाहुति तक पहुँचता है। नवजात की भाँति ही बुजुर्ग भी मौन रहना अधिक पसंद करता है। दिखने में दोनों समान पर दर्शन में जमीन-आसमान।

शिशु अवस्था के मौन को समझने के लिए माता-पिता, दादी-दादा, नानी,-नाना, चाचा-चाची, मौसी, बुआ, मामा-मामी, तमाम रिश्तेदार, परिचित और अपरिचित भी प्रयास करते हैं। वृद्धावस्था के मौन को कोई समझना नहीं चाहता। कुछ थोड़ा-बहुत समझते भी हैं तो सुनी-अनसुनी कर देते हैं।

एक तार्किक पक्ष यह भी है कि जो मौन, एक निश्चित पड़ाव के बाद जीवन के अनुभव से उपजा है, उसे सुनने के लिए लगभग उतने ही पड़ाव तय करने पड़ते हैं। क्या अच्छा हो कि अपने-अपने सामर्थ्य में उस मौन को सुनने का प्रयास समाज का हर घटक करने लगे। यदि ऐसा हो सका तो ख़ासतौर पर बुजुर्गों के जीवन में आनंद का उजियारा फैल सकेगा।

इस संभावित उजियारे की एक किरण आपके हाथ में है। इस रश्मि के प्रकाश में क्या आप सुनेंगे और पढ़ेंगे बुजुर्गों का मौन..?

 

(माँ सरस्वती की अनुकम्पा से 19.7.19 को प्रातः 9.45 पर प्रस्फुटित।)

आज सुनें और पढ़ें किसी बुजुर्ग का मौन।

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©  संजय भारद्वाज , पुणे

[email protected]

विशेष: श्री संजय भारद्वाज जी के व्हाट्सएप पर भेजी गई 19 जुलाई 2019 की  पोस्ट को स्वयं तक सीमित न रख कर अक्षरशः आपसे साझा कर रहा हूँ।  संभवतः आप भी पढ़ सकें किसी बुजुर्ग का मौन? आपके आसपास अथवा अपने घर के ही सही!

 




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 9 – व्यंग्य – सनकी बाबूलाल: प्रसंग एक ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  व्यंग्य रचना “सनकी बाबूलाल : प्रसंग एक ”।  यह व्यंग्य अनायास  ही हमें सरकारी दफ्तरों की कार्यप्रणाली एवं उस प्रणाली से पीड़ितों की दशा-दुर्दशा बयान करती है। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 9 ☆

 

☆ व्यंग्य – सनकी बाबूलाल: प्रसंग एक ☆

बाबूलाल का उस दफ्तर में करीब पांच सौ का बिल पड़ा है। तीन-चार महीने गुज़र गये हैं लेकिन बिल का अता-पता नहीं है। जब भी बाबूलाल दफ्तर जाता है, बिल पास करनेवाला बाबू उसकी नाक के सामने अपना रजिस्टर रख देता है। कहता है, ‘यह देखो,हमने तो पास करके भेज दिया है। कैशियर के पास होना चाहिए। हमने अपना काम चौकस कर दिया।’

बाबूलाल गर्दन लम्बी करके रजिस्टर में झाँकता है,पूछता है, ‘किसने रिसीव किया है?’

बाबू कहता है, ‘अरे ये गुचुर पुचुर कर दिया है। पता ही नहीं चलता किसके दस्कत हैं।’

बाबूलाल कहता है, ‘थोड़ा रजिस्टर देते तो मैं कैश में दिखाऊँ।’

बाबू बित्ता भर की जीभ निकालता है, कहता है, ‘अरे बाप रे! आफिशियल डाकुमेंट दफ्तर से बाहर कैसे जाएगा? अनर्थ हो जाएगा।’

कैश वाला बाबू सुंघनी चढ़ाता हुआ अपना रजिस्टर दिखाता है, कहता है, ‘हमारे रजिस्टर में कहीं एंट्री नहीं है। बिल होता तो कहीं एंट्री होती।’ फिर बगल में बैठी महिला से कहता है, ‘देखो, इनका कोई चेक बना है क्या।’

महिला, उबासी लेती, फाइल में रखे चेकों को खंगालती है,फिर सिर हिलाकर घोषणा करती है कि नहीं है।

बाबूलाल पन्द्रह बीस दिन में पाँव घसीटता  पहुँच जाता है। हर बार उसे दोनों रजिस्टर सुंघाये जाते हैं, और हर बार चेक वाली महिला सिर हिला देती है।

एक दिन बाबूलाल भिन्ना जाता है। बिल पास करनेवाले से कहता है, ‘तुम्हारे रजिस्टर को देख के क्या करें? हर बार नाक पर रजिस्टर टिका देते हो।’ गुस्से में अफसर के पास जाकर शिकायत करता है तो वे कहते हैं, ‘डुप्लीकेट बिल बनाकर ले आओ।’

बाबूलाल दुबारा बिल बना देता है। पास करनेवाले बाबू के पास जाता है तो वह बिल पर चिड़िया बनाकर कहता है, ‘कैश से लिखवाना पड़ेगा कि भुगतान नहीं हुआ।’

बाबूलाल सुंघनी वाले बाबू के पास पहुँचता है। बाबू बिल देखकर महिला की तरफ बढ़ा देता है। महिला देखकर सोच में डूब जाती है, बुदबुदाती है, ‘कैशबुक देखनी पड़ेगी।’

फिर भारी दुख से बाबूलाल की तरफ देखकर कहती है, ‘सोमवार को आ जाओ। हम देख लेंगे।’

सोमवार को बाबूलाल पहुँचता है तो कैश वाला बाबू चुटकी से नसवार का सड़ाका लगाता है, फिर कहता है, ‘तुम्हारा पुराना बिल मिल गया।’

बाबूलाल चौंकता है, पूछता है, ‘बिल मिल गया?’

बाबू नाक के निचले गन्दे हिस्से को गन्दे तौलिया से पोंछते हुए कहता है, ‘हाँ,कागजों में दब गया था। ढूँढ़ा तो मिल गया। कल आकर चेक ले लो।’

बाबूलाल के जाने के बाद बाबू तौलिया झाड़ता हुआ महिला से शिकायती लहज़े में कहता है, ‘पाँच सौ रुपल्ली के बिल के पीछे दिमाग खा गया। कुछ लोग बड़े सनकी होते हैं।’

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )



हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य – भाग 2 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रस्तुत है प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा पर एक सार्थक आलेख  वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्यकल आपने इस आलेख का प्रथम भाग पढ़ा। आज के अंक में प्रस्तुत कर रहे हैं एवं इसकी अंतिम कड़ी । )

 

☆ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य – भाग 2  (अंतिम भाग) ☆

 

कल के अंक से आगे ….

ओम व्यास सफल मंचीय कवि थे. ओम व्यास की रचना

“मज़ा ही कुछ और है”…….
दांतों से नाखून काटने का
छोटों को जबरदस्ती डांटने का
पैसे वालों को गाली बकने का
मूंगफली के ठेले से मूंगफली चखने का
कुर्सी पे बैठ कर कान में पैन डालने का
और डीटीसी की बस की सीट में से स्पंज निकालने का
मज़ा ही कुछ और है
एक ही खूंटी पर ढेर सारे कपड़े टांगने का
नये साल पर दुकानदार से कलैंडर मांगने का
चलती ट्रेन पर चढ़ने का
दूसरे की चिट्ठी पढ़ने का
मांगे हुए स्कूटर को तेज भगाने का
और नींद न आने पर पत्नी को जगाने का
मज़ा ही कुछ और है
चोरी से फल फूल तोड़ने का
खराब ट्यूब लाइट और मटके फोड़ने का
पड़ोसिन को घूर घूर कर देखने का
अपना कचरा दूसरों के घर के सामने फेंकने का
बथरूम में बेसुरा गाने का
और थूक से टिकट चिपकाने का
मज़ा ही कुछ और है
आफिस से देर से आने का
फाइल को जबरदस्ती दबाने का
चाट वाले से फोकट में चटनी डलवाने का
बारात में प्रैस किये हुए कपड़ों को फिर से प्रैस करवाने का
ससुराल में साले से पान मंगवाने का
और साली की पीठ पर धौल जमाने का
मज़ा ही कुछ और है

बलबीर सिंग कुरुक्षेत्र से हैं उनकी एक हास्य रचना…

परीक्षा-हाल में अक्सर मेरा, अंतर्रात्मा से मिलन होता है ।
पेपर तो छात्र देते हैं, परन्तु मूल्यांकन हमारा भी होता है ।
एक दिन गणित के पेपर में, डयूटी मेरी आन लगी थी
समय जैसे ही शुरु हुआ, घण्टी मोबाईल की बोलने लगी थी
मोबाईल को देख सिर मेरा चकराया, क्योंकि फोन था अर्धांगिनी ने लगाया
दहाड़ती हुई शेरनी सी बोली, दूध खत्म हो गया है
जल्दी से घर आ जाओ, मुन्ना भूखा ही सो गया है

काका हाथरसी छंद बद्ध हास्य रचनाओ के सुस्थापित नाम हैं उनकी किताबें काका की फुलझड़ियाँ, काका के प्रहसन, लूटनीति मंथन करि,  खिलखिलाहट,  काका तरंग,जय बोलो बेईमान की, यार सप्तक, काका के व्यंग्य बाण आदि सभी किताबें मूलतः हास्य से भरपूर रचनायें हैं. प्रायः काका हाथरसी की कुण्डलियां बहुत चर्चित रही हैं.

कभी मस्तिष्क में उठते प्रश्न विचित्र।
पानदान में पान है, इत्रदान में इत्र।।
इत्रदान में इत्र सुनें भाषा विज्ञानी।
चूहों के पिंजड़े को, कहते चूहेदानी।
कह ‘काका’ इनसान रात-भर सोते रहते।
उस परदे को मच्छरदानी क्योकर कहते।।
‍‍‍‍…….
कुत्ता बैठा कार में, मानव मांगे भीख।
मिस्टर दुर्जन दे रहे, सज्जनमल को सीख।।
सज्जनमल को सीख, दिल्लगी अच्छी खासी।
बगुला के बंगले पर, हंसराज चपरासी।।
हिंदी को प्रोत्साहन दे, किसका बलबुत्ता।
भौंक रहा इंगलिश में, मन्त्री जी का कुत्ता।।

हुल्लड़ मुरादाबादी देश के विभाजन पर पाकिस्तान से विस्थापित होकर मुरादाबाद आये. उनका मूल नाम  सुशील कुमार चड्ढा है. उनके लिए हास्य व्यंग्य की यह  कला बड़ी सहज है. भाषा ऐसी है कि हिन्दी उर्दू में भेदभाव नहीं,  भाव ऐसा है कि हृदय को छू जाए.  समय के साथ हुये तकनीकी परिवर्तनो को हास्य रचनाकारो द्वारा बड़ी सहजता से अपनाया गया. हुल्लड़ जी ने किताबें या मंचीय प्रस्तुतियां ही नही एच एम वी के माध्यम से ई पी, एल पी, कैसेट के माध्यम से भी उनकी हास्य रचनायें प्रस्तुत की और देश के सुदूर ग्रामीण अंचलो तक सुने व सराहे गये.  हुल्लड़ जी  पहले हास्य कवि हैं जिनका (L.P) रेकार्ड एच.एम.वी.कम्पनी ने तैयार किया.

एच.एम.वी.द्वारा रिलीज किए गए हुल्लड़ जी के रिकार्ड हँसी का खजाना,  हुल्लड़ का हंगामा,  कहकहे आदि फेमस हैं.

स्वयं काका हाथरसी के कैसेट के साथ सुरेन्द्र शर्मा के चार लाइणा कैसेट में भी प्रथम स्वर हुल्लड़ जी का ही है।

श्रोताओं को हँसाते खुद रहते गंभीर
कैसेट इनका बज रहा, वहाँ लग रही भीड़
वहाँ लग रही भीड़, खींचते ऐसे खाके
सम्मेलन हिल जाए, इस कदर लगे ठहाके

हुल्लड़ की एक रचना है

चार बच्चों को बुलाते तो दुआएँ मिलतीं,
साँप को दूध पिलाने की जरूरत क्या थी ?

कविता का मूल उद्देश्य केवल हँसी या मनोरंजन ही नहीं होना चाहिए। यदि श्रोता या पाठक को हँसी के अतिरिक्त कुछ संदेश नहीं मिलता तो वह कविता बेमानी है.

अल्‍हड़ बीकानेरी भी उनके समकालीन हास्य व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं. छंद, गीत, गजल और ढ़ेरों पैरोडियों के रचयिता अल्‍हड़ जी ऐसे अनूठे कवि थे, जिन्‍होंने हास्‍य को गेय बनाने की परंपरा की भी शुरुआत की. अल्हड़ जी एक ऐसे छंद शिल्पी थे, जिन्हें छंद शास्त्र का व्यापक ज्ञान था। अपनी पुस्‍तक ‘घाट-घाट घूमे’ में अल्‍हड़ जी लिखते हैं, ”नई कविता के इस युग में भी छंद का मोह मैं नहीं छोड़ पाया हूं, छंद के बिना कविता की गति, मेरे विचार से ऐसी ही है, जैसे घुंघरुओं के बिना किसी नृत्‍यांगना का नृत्‍य….. ” वे अपनी हर कविता को छंद में लिखते थे और कवि सम्‍मेलनों के मंचों पर उसे गाकर प्रस्‍तुत करते थे. यही नहीं गज़ल लिखने वाले कवियों और शायरों के लिए उन्‍होंने गज़ल का पिंगल शास्‍त्र भी लिखा, जो उनकी पुस्‍तक ‘ठाठ गज़ल के’ में प्रकाशित हुआ।

अल्‍हड़ जी की प्रतिभा और लगन का ही करिश्‍मा था कि सन् 1970 आते-आते वे देश में एक लोकप्रिय हास्‍य कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। काव्‍य गुरू श्री गोपाल प्रसाद व्‍यास जी के मार्गदर्शन में अल्‍हड़ जी ने अनूठी हास्‍य कवितायें लिख कर उनकी अपेक्षाओं पर अपने को खरा साबित किया। अल्‍हड़ जी ने हिन्‍दी हास्‍य कविता के क्षेत्र में जो विशिष्‍ट उपलब्धियां प्राप्‍त कीं, उनमें ‘साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान’ के सम्‍पादक श्री मनोहर श्‍याम जोशी, ‘धर्मयुग’ के सम्‍पादक श्री धर्मवीर भारती और ‘कादम्बिनी’ के संपादक श्री राजेन्‍द्र अवस्‍थी की विशेष भूमिका रही। अल्‍हड़ जी अपनी हास्‍य कविताओं में सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों पर तीखा प्रहार किया। अपनी बात को कविता के माध्‍यम से वे बहुत ही सहज रूप से अभिव्‍यक्‍त करते थे।  अल्‍हड़ बीकानेरी ने हास्‍य- व्‍यंग्‍य कवितायें न सिर्फ हिन्‍दी बल्कि ऊर्दू, हरियाणवी संस्कृत भाषाओं में भी लिखीं और ये रचनायें कवि-सम्‍मेलनों में अत्‍यंत लोकप्रिय हुईं। उनके पास कमाल का बिंब विधान था। राजनीतिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्‍य में उनकी यह टिप्‍पणी देखिए :

”उल्‍लू ने बढ़ के हंस की थामी नकेल है
कुदरत का है कमाल मुकद़्दर का खेल है”

इसी तरह महंगाई पर पौराणिक संदर्भों का सहारा लेकर वे खूबसूरती से अपनी बात कहते हैं:

”बूढ़े विश्‍वामित्रों की हो सफल तपस्‍या कैसे
चपल मेनका-सी महंगाई फिरे फुदकती ऐसे

माणिक वर्मा का जन्म मध्यप्रदेश के खंडवा में हुआ था। वे हास्य व्यंग्य की गद्य कविता के लिए जाने जाते हैं।

सब्जी वाला हमें मास्टर समझता है
चाहे जब ताने कसता है

‘आप और खरीदोगे सब्जियां!
अपनी औकात देखी है मियां!

ओम प्रकाश आदित्य की गजल है….

छंद को बिगाड़ो मत, गंध को उजाड़ो मत
कविता-लता के ये सुमन झर जाएंगे।
शब्द को उघाड़ो मत, अर्थ को पछाड़ो मत,
भाषण-सा झाड़ो मत गीत मर जाएंगे।

शैल चतुर्वेदी की अनेक किताबें छपीं. वे अपने डील डौल से ही मंचो पर हास्य का माहौल बना देते हैं.  उनकी एक रचना

जिन दिनों हम पढ़ते थे
एक लड़की हमारे कॉलेज में थी
खूबसूरत थी, इसलिए
सबकी नॉलेज में थी
मराठी में मुस्कुराती थी
उर्दू में शर्माती थी
हिन्दी में गाती थी
और दोस्ती के नाम पर
अंग्रेज़ी में अँगूठा दिखाती थी

इसी तरह प्रदीप चौबे की एक रचना

हर तरफ गोलमाल है साहब
आपका क्या खयाल है साहब
लोग मरते रहें तो अच्छा है
अपनी लकड़ी की टाल है साहब
आपसे भी अधिक फले फूले
देश की क्या मजाल है साहब
मुल्क मरता नहीं तो क्या करता
आपकी देखभाल है साहब
रिश्वतें खाके जी रहे हैं लोग
रोटियों का अकाल है साहब

प्रदीप चौबे की यह रचना हिन्दी  गजल या हजल के सांचे में है.

हास्य कविता की धार को व्यंग्य से  पैना करने वाले, शब्दों के खिलाड़ी  अशोक चक्रधर की  एक कविता

नदी में डूबते आदमी ने
पुल पर चलते आदमी को
आवाज लगाई- ‘बचाओ!’
पुल पर चलते आदमी ने
रस्सी नीचे गिराई
और कहा- ‘आओ!’
नीचे वाला आदमी
रस्सी पकड़ नहीं पा रहा था
और रह-रह कर चिल्ला रहा था-
‘मैं मरना नहीं चाहता
बड़ी महंगी ये जिंदगी है
कल ही तो एबीसी कंपनी में
मेरी नौकरी लगी है।’
इतना सुनते ही
पुल वाले आदमी ने
रस्सी ऊपर खींच ली
और उसे मरता देख
अपनी आंखें मींच ली
दौड़ता-दौड़ता
एबीसी कंपनी पहुंचा
और हांफते-हांफते बोला-
‘अभी-अभी आपका एक आदमी
डूब के मर गया है
इस तरह वो
आपकी कंपनी में
एक जगह खाली कर गया है
ये मेरी डिग्रियां संभालें
बेरोजगार हूं
उसकी जगह मुझे लगा लें।’
ऑफिसर ने हंसते हुए कहा-
‘भाई, तुमने आने में
तनिक देर कर दी
ये जगह तो हमने
अभी दस मिनिट पहले ही
भर दी
और इस जगह पर हमने
उस आदमी को लगाया है
जो उसे धक्का देकर
तुमसे दस मिनिट पहले
यहां आया है।’

बेरोजगारी पर यह तंज जहाँ हंसाता है वहीं झकझोरता भी है. अशोक चक्रधर की हास्य कवितायें कई फ्रेम में कसी गई हैं, पर अधिकांश मुक्त छंद ही हैं.

पद्मश्री  सुरेंद्र शर्मा हिंदी की मंचीय कविता में स्वनाम धन्य हैं, वे हरियाणवी बोली में चार लाईणा सुनाकर और अधिकांशतः अपनी पत्नी को व्यंग्य का माध्यम बनाकर कविता करते हैं.

हमने अपनी पत्नी से कहा-
‘तुलसीदास जी ने कहा है-
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी
-इसका अर्थ समझती हो
या समझाएं?’
पत्नी बोली-
‘इसका अर्थ तो बिल्कुल ही साफ है
इसमें एक जगह मैं हूं
चार जगह आप हैं।’

मण्डला के प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध जी की पहचान मूलतः संस्कृत ग्रंथो के हिन्दी काव्यअनुवाद तथा समसामयिक विषयो पर देश प्रेम की भावना वाली कविताओ को लेकर है, उनकी एक संदेश पूर्ण व्यंग्य कविता है…

हो रहा आचरण का निरंतर पतन,राम जाने कि क्यो राम आते नहीं
हैं जहां भी कहीं हैं दुखी साधुजन देके उनको शरण क्यों बचाते नहीं

मेरे हास्य व्यंग्य सारे देश के अखबारो में संपादकीय पृष्ठ पर छप रहे हैं. व्यंग्य लेखो व व्यंग्य नाटको की मेरी कई  किताबें छप चुकी हैं. मेरी व्यंग्य कविता की ये पंक्तियां उद्धृत हैं…

फील गुड
सड़क हो न हो मंजिलें तो हैं फील गुड
अपराधी को सजा मिले न मिले
अदालत है, पोलिस भी है सो फील गुड
उद्घाटन हो पाये न हो पाये
शिलान्यास तो हो रहे हैं लो फील गुड

किसी भी कवि लेखक या व्यंग्यकार की रचनाओ में उसके अनुभवो की अभिव्यक्ति होती ही है.  रचनाकार का अनुभव संसार जितना विशद होता है, उसकी रचनाओ में उतनी अधिक विविधता और परिपक्वता देखने को मिलती है. जितने ज्यादा संघर्ष रचनाकार ने जीवन में किये होते हैं उतनी व्यापक करुणा उसकी कविता में परिलक्षित होती है , कहानी और आलेखो में दृश्य वर्णन की वास्तविकता भी रचनाकार की स्वयं या अपने परिवेश के जीवन से तादात्म्य की क्षमता पर निर्भर होते हैं. रोजमर्रा  की दिल को  चोटिल कर देने वाली घटनायें व्यंग्यकार के तंज को जन्म देती हैं.

आज के एक स्थापित व्यंग्यकार स्व सुशील सिद्धार्थ  एक प्राध्यापक के पुत्र थे. अध्ययन में अव्वल. हिन्दी में उन्होने पी एच डी की उपाधि गोल्ड मेडल के साथ अर्जित की. स्वाभाविक था कि विश्वविद्यालय में ही वे शिक्षण कार्य से जुड़ जाते. पर  नियति को उन्हें  अनुभव के विविध संसार से गुजारना था. सुप्रतिष्ठित नामो के आवरण के अंदर के यथार्थ चेहरो से सुपरिचित करवाकर उनके व्यंग्यकार को मुखर करना था. आज तो अंतरजातीय विवाह बहुत आम हो चुके हैं किन्तु पिछली सदी के अतिम दशक में जब सिद्धार्थ जी युवा थे यह बहुत आसान नही होता था. सुशील जी को विविध अनुभवो से सराबोर लेखक संपादक समीक्षक बनाने में उनके  अंतरजातीय प्रेम विवाह का बहुत बड़ा हाथ रहा. इसके चलते उन्होने विवाह के एक ऐसे प्रस्ताव को मना कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें विश्वविद्यालयीन शिक्षण कार्य की नौकरी नही मिल सकी, और वे फ्रीलांसर लेखक बन गये. स्थायित्व के अभाव में वे लखनऊ, मुम्बई, वर्धा, दिल्ली में कई संस्थाओ और कई व्यक्तियो के लिये अखबार, पत्रिकाओ, शिक्षण संस्थाओ, प्रकाशन संस्थानो के लिये लेखन कर्म से जुड़े तरह तरह के कार्य करते रहे. उन्होने व्यंग्यकारो के बचपन के संस्मरण किताब के रूप में सहेजे.

आज पत्रिकाओ की आम पाठक तक पहुंच कम हो गई है, अखबार ही पाठक की साहित्यिक भूख शांत करने की जबाबदारी उठा रहे हैं, दूसरा पक्ष यह भी है कि पत्रिका में व्यंग्य छपने में समय लगता है, तब तक समसामयिक रचना पुरानी हो जाती है, इसके विपरीत अखबार फटाफट रचना प्रकाशित कर देते हैं. प्रकाशन की सुविधायें बढ़ी हैं, परिणामतः शाश्वत रचनाओ के अभाव में भी व्यंग्य लेखो की पुस्तकें लगातार बड़ी संख्या में छप रही हैं. सोशल मीडीया पर व्यंग्यकार फेसबुक, व्हाट्सअप ग्रुप बनाकर जुड़े हुये हैं, जुगलबंदी के जरिये  व्यंग्य लेखन को प्रोत्साहन मिल रहा है.  अपनी तमाम साहित्यिक, समाज की व्यापारिक सीमाओ के बाद भी व्यंग्य विधा और जागरूक व्यंग्यकार अपने साहित्यिक सामाजिक दायित्व निभाने में जुटे हुये हैं.   वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में यह व्यंग्य का सकारात्मक पहलू है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९

 




हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ ज़िम्मेदारी ☆ – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की जीवन में मानवीय अपेक्षाओं / स्वार्थ और बच्चों के प्रति कर्तव्य के निर्वहन पर आधारित एक संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा।)

 

☆ ज़िम्मेदारी ☆

 

उमा अपने पति के देहान्त के बाद अपने घर में अकेले रह रही थी, दोनों बच्चों की शादी हो चुकी थी। बेटी के घर में रहना नहीं चाहती थी, बेटा-बहु ले जाने को तैयार नहीं थे बेचारी किसी ने किसी तरह अपना वक्त गुजार रही थी। पति की मौत ने उसे तोड़ डाला था बेटे के दो बच्चे हो चुके थे।

बेटा-बहु दोनों ही नवोदय स्कूल में सेवारत थे। अब बच्चों की परवरिश की दिक्कत आने लगी थी। काम वाली के सहारे बच्चों को छोड़ना सुरक्षा के लिहाज से तो सही था ही नहीं, खर्चा भी मोटा होता।

बहु ने बेटे से कहा,,” क्यों ऩ हम माँ जी को अपने पास ले आये ,उनका मन भी लग जाएगा व अपनी समस्या भी हल हो जायेगी”। बेटा तो कुछ दिन से यह चाह ही  रहा था। क्योंकि समाज की थोड़ी परवाह थी उसे। उस माँ के संस्कार भी बाकी थे उसमें; लेकिन पत्नी के  डर की वजह से चुप था।

दोनों माँ को लेने गाँव पहुँच गये। उनको इतने दिनों बाद देख कर वह कुछ अचंभित हई; लेकिन माँ तो माँ ही होती है। अपने आँसू छुपाते हुए कहने लगी , “बेटा सब ठीक तो है ना, कैसे हो तुम सब लोग? बच्चे क्यों नहीं आये”? बिना उत्तर सुने सवाल पर सवाल करती रही। उनको मुँह-हाथ धोने की बोल उनके लिए चाय बनाने चली गई। बेटा पीछे-पीछे रसोई में गया और बताया सब ठीक हैं बच्चे स्कूल का काम ज्यादा था इसलिए घर पर ही रह गये। बातों ही बातों में जाहिर कर दिया कि वे उसे अपने साथ ले जाने के लिए आये हैं। फटाफट जाने की तैयारी कर ले।

चाय देकर वह अपने कमरे में आ गई वह सोचने लगी व साथ जाने के लिए मना कर दे; लेकिन बच्चों का दिल तोड़ने की हिम्मत उसमें नहीं थी। वह चुपचाप कपड़े व जरूरत की चीजें पैक करने लगी। मन ही मन बुडबुडा रही थी कि यहाँ तो सब की यादें बसी हैं। उसके जानने वाले बहुत हैं कुछ दिन की बात तो अलग थी मगर हमेशा के लिए वहाँ जाना ……..।

बच्चे चाहें कितने ही बड़े क्यों न हो जाये माँ-बाप के फर्ज कभी पूरे नहीं होते। यह जिम्मेदारी भी उसे निभानी ही पड़ेगी।

यही विचार कर घर पर ताला लगा बच्चों के साथ घर से निकल गई। जब तक घर आँखों से ओझल न हो गया वह गाड़ी से बाहर झाँक कर देखती रही।

 

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #13 – Topper… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  तेरहवीं कड़ी Topper… ।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। जीवन के सूर्यास्त के पूर्व जब हम आकलन करते हैं कि वास्तव में Topper कौन रहा?  आप भी कल्पना कर के देखिये और आलेख के अंत में कमेंट बॉक्स में अवश्य लिख भेजिये। आरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। ) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #13?

 

☆ Topper… ☆

 

दुसरी तिसरीपर्यंत ती वर्गात topper होती… त्यानंतर ती त्यांच्या गावी निघून गेली… मग आमचा संपर्क तुटला… आज जवळ जवळ तीस वर्षांनी भेट झाली, ह्या फेसबुकमुले… भेटल्यावर एवढ्या गप्पा होतील असं वाटलं नव्हतं… ३० वर्षांचा काळ खूप मोठा आहे… कसं, काय कधी अशी चौकशी करत गाडी स्वप्नांवर येऊन थांबली… ह्या स्टेशनवर आम्ही जरा जास्तच मोठा hault घेतला…

साहजिकच होतं ते म्हणा… सुरुवातीला उघडपणे बोलणं थोडं कठीण गेलं… पण मग आतली सगळी जळमटे काढून टाकता आली…

काही नाही गं, एकदा संसारात पडलं की सगळं मागे पडतं, नवरा, मुलं, घर, नातेवाईक, सासू सासरे ह्यांना खुश ठेवण्यात दिवस जातात, आपलं असं काही करता येत नाही… कारण इथेही topper राहायचं असतं… तो मान मिळवायचा असतो… त्यात अयोग्य काहीच नाही… आपणच निवडलेली नाती आहेत ना, मग त्यात काय एवढं…

अशी सुरुवात झाली, आणि आज कालची मुलं किती हुशार आहेत, त्यांना किती साऱ्या गोष्टी माहीत असतात ह्या विषयावर भरभरून बोललो… बोलताना दोघींच्या लक्षात आलं की, कुठे तरी चुकतंय… काही तरी राहून जातंय ह्याची जाणीव तीव्र झाली… आणि मग, जे व्हायला नको होतं तेच नेमकं झालं…

थोडं दुःख वाटू लागलं, आपण करिअर केलं नाही ह्याचं…

मी तिला एक किस्सा सांगितला…

काही वर्षांपूर्वी बंगलोरला असताना मराठी अभिनेत्रीशी गप्पा मारायचा योग आला, तेव्हा त्या जे बोलल्या त्याचा मी माझ्या आयुष्याशी संबंध लावू शकते…

त्या म्हणाल्या… लग्नाआधी सिने सुष्टी असेल, नाटक असेल सगळीकडे खूप काम केलं, पण लग्न झाल्यावर माझ्या जीवनातील priorities बदलल्या, आणि त्या स्वीकारून मी पुढे चालत राहिले, जवळ जवळ 15 वर्ष मी ह्या इंडस्ट्री पासून दूर होते, नवऱ्याची बदली जिथे होईल तिथे त्याच्याबरोबर गेले, घर संसार मुलगा ह्यातच रमले, अभिनयाला विसरले नाही, पण आता त्याच्याकडे बघायची वेळ नव्हती… हे मनाशी पक्क होतं… एवढंच सांगते, माझ्या नवऱ्याला आणि मुलाला जेव्हा माझी साथ हवी होती तेव्हा ती मी दिली… आज मी हक्काने मला जे करायचं आहे ते करते, कारण मी माझी जबाबदारी योग्य वेळी पूर्ण केली आहे, आता मला माझी space हवी आहे… आणि ती मी घरातल्या सगळ्यांकडे मागू शकते… पण त्यासाठी मला 15 वर्ष द्यावी लागली .. आधी द्यावं लागतं निःसंकोचपणे आणि मग जे हवंय ते मिळवणं सोपं जातं… प्रत्येक वेळी माझी space माझी space करून चालत नाही, नाही तर नात्यातील space वाढेल हे लक्षात ठेवायला हवं… धीर सोडून चालत नाही ! अहो, साधं उदाहरण घ्या, एक महिना नोकरी केल्यावरच तुम्हाला पगार मिळतो… अगदी एवढं व्यवहारी राहून पण चालत नाही… तेव्हा येतंय ना लक्षात काय करायचं आहे ते ?

काय, तुम्हालापण पटतंय ना !

आम्ही दोघी ह्या विचारला मनात घोळवत पुढच्या कामाला लागलो…

 

© आरुशी दाते, पुणे 




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Buddha: Quotes ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Buddha: Quotes ☆

Video Link : Buddha: Quotes

 

THE MIND, WHEN DEVELOPED AND CULTIVATED, BRINGS HAPPINESS.

“If with an impure mind you speak or act, then suffering flows you as the cartwheel follows the foot of the draft animal.”

“Burning now, burning hereafter, the wrongdoer suffers doubly… Happy now, happy hereafter, the virtuous person doubly rejoices.”

“You have to do your own work, those who have reached the goal will only show the way.”

“Abstain from all unwholesome deeds, perform wholesome ones, purify your mind. This is the teaching of enlightened persons.”

“If one man conquer in battle a thousand times thousand man, and if another conquer himself, he is the greatest of conquerors.”

“As rain breaks through an ill-thatched house, passion will break through an unreflecting mind.”

“To support mother and father, to cherish wife and children and to be engaged in peaceful occupation – this is the greatest blessing.”

“One by one, little by little, moment by moment, a wise man should remove his own impurities, as a smith removes his dross from silver.”

“Monks, I know not of any other single thing that brings such bliss as the mind that is tamed, controlled, guarded and restrained. Such a mind indeed brings great bliss.”

“The mind, when developed and cultivated, brings happiness.”

– Buddha

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.