आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (25) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

 

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।

ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ।।25।।

 

कर्म योगी कई देवताओं के नाम यज्ञ कई करते हैं

ब्रम्ह अग्नि में कई यज्ञ का यजन निरंतर करते हैं।।25।।

 

भावार्थ :  दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में अभेद दर्शनरूप यज्ञ द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं। (परब्रह्म परमात्मा में ज्ञान द्वारा एकीभाव से स्थित होना ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ को हवन करना है।)।।25।।

 

Some Yogis perform sacrifice to the gods alone, while others (who have realised the Self) offer the Self as sacrifice by the Self in the fire of Brahman alone. ।।25।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry – ☆ Anguish of the River… ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi ji  for sharing his literary and art works with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. We present an excellent poetry depicting pain and sorrow of every river in the country.  Every one is aware of the reasons and worried about the level of pollution. But, who will take the first step for the mankind.  This poetry is actually anguish of the river sensed by Capt. Raghuvanshi ji.  

In his own words

Visiting my place in Varanasi, situated at the confluence of Ganga and Gomati…

Wrote few lines on state of rivers in our country…     Capt. Raghuvanshi:

Today, we present the poetry of Capt. Pravin Raghuvanshi ji “Anguish of the River…” .)

 

☆ Anguish of the River… ☆

 

River is not like *Neelkanth*, the Lord Shiva!

 

She was once a playful translucent river

And me, a carefree

ambitious damsel

Used to do *Aachman*,

sipping her sacred water while offering her my resolute obeisance…

 

I always stood by her

as a solid rock

Kept attending to all

–her evergrowing frustrations,

–her excruciating vexations,

–her boisterous predicaments

I was happy to be

the rock to her…

 

But, one day you came,

While clutching me

crossed all the limits

I didn’t like your

that filthy touch,

In a moment, I got disintegrated

into millions of sand particles…

 

Just fell devastated into

forlorn lap of the river

That’s when I realised that

river is not mere flowing water…

 

She, being a dextrous historian,

Kept scripting historical manuscripts,

Creating cultures, nurturing customs as a responsible ancestor…

 

She was also a

modern trendsetter

Always altering courses

on her freewill…

She was the seeker, a questor!

 

She was a loving-mother incarnate

That’s how I could live the sufferings of the river…

 

Now, you’ve removed even

the womb, intestine, heart,

flesh and marrow from her body…

 

So many times, I could

–Hear her sobbing from

the palatial garrets

–Witness the river

repeatedly shedding her

tears in the inner

layers of the roads

 

She too wanted to get dispersed as particles

in the thin air

Exactly like me!

 

But where could she go?

Where could she get accommodated? Where!!

As she did not have the river,

just like herself only…

 

I fell on her bosom, tiredly

Kept watching her helplessly,

While you choked her face

with a dirty cloth

Had to watch her painful sufferings,

Her writhing in agony,

even for a breath!

Her misery of breathlessness

was far worse than my dispersing into particles…

 

River, that joyfully

spilled around

its banks for ages

Now, in this epoch, has only last few breaths of life

Stinking, panting,

Counting her remaining breaths…!

 

How many times

did I beg of you

If you desire, take my remaining particles too; but,

Fill her with few breaths

in her lungs

By mouth-to-mouth resuscitation,

Just return her past glory

Which you forcibly

snatched her of,

Plant *Singi* tools

to pull all the poison

out of her body…

 

Listen,

River cannot survive

By drinking the poison

Because, river is not the *Neelkanth*, the Lord Shiva…!

 

Note:

*Neelkanth* (Blue throat), is the other name of Lord Shiva who drank the poison, without having effect on Him; as He held it in His throat which turned blue because of its severity; thus, called as *Neelkanth*

*Singi* is a tool which is used for sucking poison from the body…

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य – भाग 1 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रस्तुत है प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा पर एक सार्थक आलेख  वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य।  आलेख का प्रथम भाग आज के अंक में प्रस्तुत कर रहे हैं एवं इसकी अंतिम कड़ी कल के अंक में आप पढ़ सकेंगे। )

 

☆ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य – भाग 1 ☆

ज्यादा पुरानी बात नही है, जब साहित्य जगत में व्यंग्य की स्वतंत्र विधा के रूप में स्वीकारोक्ति ही नही थी.  पर आज लगभग प्रत्येक अखबार का संपादकीय पृष्ठ कम से कम एक व्यंग्य लेख अवश्य समाहित किये दिखता है. लोग रुचि से समसामयिक घटनाओ पर व्यंग्यकार की चुटकी का आनंद लेते हैं. वैसे व्यंग्य अभिव्यक्ति की बहुत पुरानी शैली है. हमारे संस्कृत साहित्य में भी व्यंग्य के दर्शन होते हैं. हास्य, व्यंग्य एक सहज मानवीय प्रवृति है. दैनिक व्यवहार में भी हम जाने अनजाने कटाक्ष, परिहास, व्यंग्योक्तियो का उपयोग करते हैं. व्यंग्य  आत्मनिरीक्षण और आत्मपरिष्कार के साथ ही मीठे ढंग से समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त करता है, व्यक्ति और समाज की थकान दूर कर उनमें ताजगी भरता  है. मनोविज्ञान के विशेषज्ञों ने भी हास्य को मूल प्रवृत्ति के रूप में समुचित स्थान दिया है. आनंद के साथ हास्य का सीधा संबंध है.हास्य तन मन के तनाव दूर करता है, स्वभाव की कर्कशता मिटाता है.

वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य कई प्रश्न खड़े करता दिखता है जैसे क्या अखबार में लिखे जाने वाला कॉलम से व्यंग्य का स्तर गिर रहा है..?   इतने सारे लोग व्यंग्य लिख रहे हैं, फिर भी समाज सुधार की दिशा में वह इंपैक्ट क्यों पैदा नहीं हो रहा है, जो अकेले कबीर ने कर दिखाया है?

व्यंग्य लेखन के लिए क्या-क्या विशेषतायें  जरूरी हैं..?  वर्तमान में किन विषयों पर व्यंग्य लेखन जरूरी है..?  महिला व्यंग्यकारो की सहभागिता कितनी और कैसी है ?   क्या स्टैंडअप कॉमेडियन व्यंग्यकार के लिए खतरा है..?  पंच लाईनर क्या होते हैं, एक-दो लाइनों से कैसे व्यंग्य पैदा किया जाता है ? हिंदी व्यंग्य के लिए वर्तमान समय कैसा  है ? व्यंग्य की  समीक्षा या आलोचना साहित्य की क्या आवश्यकता और उपयोगिता  है ? एक ही विषय पर  अनेक रचनाकार लिखते हैं किन्तु सब की अभिव्यक्ति भिन्न होती है, ऐसा क्यो ?  क्या वर्तमान व्यंग्य लेखन में कथ्य का संकट  है ?  हास्य और व्यंग्य में सूक्ष्म अंतर  होता है, इसे लेकर, पाठक और लेखक क्या समझते हैं ? क्या व्यंग्यकार घटनाओं के मूल तक पहुंच पाता है?  क्या व्यंग्य लेखन सचमुच सामाजिक दायित्व का निर्वाह कर पा रहा है ?

प्रायः सास पर आरोप लगता है कि वह बहुओ पर ताने कसती हैं,शायद घर परिवार में बहू को घुल मिल जाने के लिये स्वयं सारे लांछन सहकर भी सासें यह करती रही हैं.  या नये छात्रो को कालेज के वातावरण में घुलने मिलने के लिये परिचय करने के लिये जो सकारात्मक बातचीत का वातावरण  सीनियर्स बनाते है वह भी किंचित व्यंग्य का व्यवहारिक पक्ष ही हैं. नकारात्मक  विकृत स्वरूप में यह रेगिंग बन गया है, जो गलत है.

साहित्य की दृष्टि से  मानवीय वृत्तियों को आधार मानकर व्याकारणाचार्यों ने ९ मूल मानवीय भावों हेतु  ९ रसों का वर्णन किया है. श्रंगार रस अर्थात रति भाव, हास्य रस अर्थात हास्य की वृत्ति , करुण रस अर्थात शोक का भाव, रौद्र रस अर्थात क्रोध, वीर रस अर्थात उत्साह, भयानक रस अर्थात भय, वीभत्स रस अर्थात घृणा या जुगुप्सा, अद्भुत रस अर्थात आश्चर्य का भाव तथा शांत रस अर्थात निर्वेद भाव में सारे साहित्य को विवेचित किया जा सकता है. वात्सल्य रस को १० वें रस के रूप में कतिपय विद्वानो ने अलग से विश्लेषित किया है, किन्तु मूलतः वह श्रंगार का ही एक सूक्ष्म उप विभाजन है. रसो की  यह मान्यता विवादास्पद भी रही है, परंतु हास्य की रसरूपता को सभी ने निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है.

हमारा प्राचीन संस्कृत साहित्य भी हास्य व्यंग्य से भरपूर है. कालिदास के रचना कौशल का यह एक उदाहरण दृष्टव्य है.

राजा भोज ने घोषणा की थी कि जो नया श्लोक रचकर लाएगा उसे एक लाख मुद्राएँ पुरस्कार में मिलेंगी परंतु पुरस्कार किसी को मिल ही नहीं पाता था क्योंकि  मेधावी दरबारी पंडित नया श्लोक सुनते ही उसे दुहरा देते और इस प्रकार उसे पुराना घोषित कर देते थे। किंवदंती के अनुसार कालिदास ने एक श्लोक सुनाकर दरबारियो की  बोलती बंद कर दी थी। श्लोक में कवि ने दावा किया कि राजा निन्नानबे करोड़ रत्न देकर पिता को ऋणमुक्त करें और इस पर पंडितों का साक्ष्य ले लें। यदि पंडितगण कहें कि यह दावा उन्हें विदित नहीं है तो फिर इस नए श्लोक की रचना के लिए एक लाख दिए ही जाएँ। इसमें दोनो ही स्थितियो में राजा को व्यय करना ही होता इस तरह “कैसा छकाया” का भाव बड़ी सुंदरता से सन्निहित है:

हास्य का प्रादुर्भाव असामान्य आकार, असामान्य वेष, असामान्य आचार,  असामान्य अलंकार, असामान्य वाणी, असामान्य चेष्टा आदि भाव भंगिमा द्वारा होता है.  इन वैचित्र्य के परिणाम स्वरूप जो असामान्य स्थितियां बनती हैं वे  चाहे अभिनेता की हो, वक्ता की हो, या अन्य किसी की उनसे हास्य का उद्रेक होता है. कवि कौशल द्वारा हमें  रचना में इस तरह के अनुप्रयोग से  आल्हाद होता है, यह विचित्रता हमारे मन को पीड़ा न पहुंचाकर,  हमें गुदगुदाती है, यह अनुभूति ही हास्य कहलाता है. हास्य के भाव का उद्रेक देश-काल-पात्र-सापेक्ष होता है. घर पर कोई खुली देह बैठा हो तो दर्शक को हँसी न आवेगी किंतु किसी उत्सव में भी वह इसी तरह पहुँच जाए तो उसका आचरण प्रत्याशित से विपरीत या विकृत माना जाने के कारण उसे हँसी का पात्र बना  देगा.

युवा महिला श्रंगार करे तो उचित ही है किंतु किसी  बुढ़िया का अति श्रंगार परिहास का कारण होगा  कुर्सी से गिरनेवाले को देखकर  हम हँसने लगेंगे परंतु छत से गिरने वाले बच्चे पर हमारी करुणापूर्ण सहानुभूति ही उमड़ेगी. अर्थात  हास्य का भाव परिस्थिति के अनुकूल होता है.

ह्यूमर (शुद्ध हास्य), विट (वाग्वैदग्ध्य), सैटायर (व्यंग्य), आइरनी (वक्रोक्ति) और फार्स (प्रसहन)। ह्यूमर और फार्स हास्य के विषय से संबंधित हैं जबकि विट, सैटायर और आइरनी का संबंध उक्ति के कौशल से है.  पैरोडी (रचना परिहास अथवा विरचनानुकरण) भी हास्य की एक विधा है जिसका संबंध रचना कौशल से है. आइरनी का अर्थ कटाक्ष या परिहास है. विट अथवा वाग्वैदाध्य को एक विशिष्ट अलंकार कहा जा सकता है. अपनी रचना द्वारा पाठक में हास्य के ये अनुभाव उत्पन्न करा देना हास्यरस की  रचना की सफलता  है.

व्यंग्य के पुराने प्रतिष्ठित सशक्त हस्ताक्षरो में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल जी का नाम लिया जाता है. बाबा नागार्जुन को व्यंग्यकार के रूप में नही पहचाना जाता पर मैं जब जब नागार्जुन को पढ़ता हूं मुझे उनमें छिपा व्यंग्यकार बहुत प्रभावित करता है.. वे हमेशा जन कवि बने रहे और व्यंग्यकार हमेशा जन के साथ ही खड़ा होता हैं.

नागार्जुन की विख्यात कविता “प्रतिबद्ध” कि पंक्तियां. हैं……
प्रतिबद्ध हूं/
संबद्ध हूं/
आबद्ध हूं…जी हां,शतधा प्रतिबद्ध हूं
तुमसे क्या झगड़ा है/हमने तो रगड़ा है/इनको भी, उनको भी, उनको भी, और उनको भी!

उनकी प्रतिबद्धता केवल आम आदमी के प्रति रही है. उनकी कई प्रसिद्ध कविताएँ जैसे कि

‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको‘,‘अब तो बंद  करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन‘ और ‘तीन दिन, तीन रात आदि में व्यंगात्मक शैली में तात्कालिक घटनाओ पर उन्होंने गहरे कटाक्ष के माध्यम से अपनी बात कही है.

‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी‘
की ये पंक्तियाँ देखिए………….
यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!,

व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं.  हिन्दी कविता में नागार्जुन जनकवि और व्यंग्यकार के रूप में खड़े मिलते हैं. नागार्जुन का काव्य व्यंग्यशब्द चित्रों का विशाल अलबम है.  कभी किसी जीर्ण-शीर्ण स्कूल भवन को देखकर बाबा ने व्यंग्य किया था,

“फटी भीत है छत चूती है…” उनका यह व्यंग्य क्या आज भी देश भर के ढ़ेरों गांवो के शाला भवनो का सच नहीं है?

आकृति का बेतुकापन मोटापा, कुरूपता, भद्दापन, अंगभंग, अतिरिक्त नजाकत, तोंद, कूबड़, नारियों का शारीरिक रंग, आदि विषयों पर हास्यरस की रचनाएँ हो चुकी हैं. उल्लेखनीय है कि एक समय का हास्यास्पद विषय शाश्वत हास्यास्पद विषय हो, ऐसा नहीं होता. सामाजिक स्थितियो के अनुरूप मान्यतायें बदल जाती हैं.  आज अंग भंग, विकलांगता आदि हास्य के विषय नहीं माने जा सकते अतएव अब इन पर हास्य रचनाएँ करना हास्य की सुरुचि का परिचायक नही माना जाएगा, संवेदनशीलता ने इन प्राकृतिक शारीरिक  व्याधियों को हास्य की अपेक्षा करुणा का विषय बना दिया है.

नारी के प्रति सम्मान के भाव के चलते उन पर किये जाने वाले व्यंग्य भी अब साहित्यिक दृष्टि से प्रश्नचिन्ह के घेरे में आ चुके हैं.

जातिगत व्यवहारो पर पहले व्यंग्य किये गये हैं किन्तु अब ऐसा करना सामाजिक दृष्टि से विवादास्पद होता है.

प्रकृति या स्वभाव का बेतुकापन  उजड्डपन, बेवकूफी, पाखंड, झेंप, चमचागिरी, अमर्यादित फैशनपरस्ती, कंजूसी, दिखावा पांडित्य का बेवजह प्रदर्शन, अनधिकार अहं, आदि बेतुके स्वभाव पर भी रचनाकारों ने अच्छे व्यंग किए हैं.

परिस्थिति का वैचित्र्य,  समय की चूक,समाज की असमंजसता में व्यक्ति की विवशता आदि विषय भी हास्य के विषय बनते हैं. वेश का बेतुकापन, हास्य पात्रों नटों और विदूषकों का प्रिय विषय  रहा है और प्रहसनों, रामलीलाओं, रासलीलाओं, “गम्मत”, तमाशों आदि में इस तरह के हास्य प्रयोग बहुधा प्रस्तुत किये जाते हैं.

नाटकीय साधु वेश, अंधानुकरण करनेवाले फैशनपरस्तों का वेश,बेतरतीब पहनावे,  “मर्दानी औरत” का वेश आदि ऐसे बेतुके वेश हैं जो रचना के विषय बनते हैं। वेश के बेतुकेपन की रचना भी आकृति के बेतुकेपन की रचना के समान प्राय: हल्केपन की ही प्रतीक होती है. कपिल शर्मा के प्रसिद्ध हास्य टी वी शो में वे दो पुरुष पात्रो को नारी वेश में निरंतर प्रस्तुत कर फूहड़ हास्य ही उत्पन्न करते हैं  ।

हकलाना वाणी का वैचित्र्य है,  इसी तरह बात बात पर तकिया कलाम लगा कर बोलना जैसे “जो है सो”, शब्द स्खलन करना अर्थात स्लिप आफ टंग, अमानवीय ध्वनियाँ निकालना जैसे मिमियाना, रेंकना, अथवा फटे बांस की सी आवाज, बैठे गले की फुसफुसाहट आदि, शेखी के प्रलाप, गप्पबाजी, पंडिताऊ भाषा, गँवारू भाषा, अनेक भाषा के शब्दों की खिचड़ी, आदि को भी हास्य का विषय बनाया जाता है.

फूहड़ हरकतें, अतिरंजना, चारित्रिक विकृति, सामाजिक उच्छ्रंखलताएँ, कुछ का कुछ समझ बैठना, कह बैठना या कर बैठना, कठपुतलीपन  या रोबोट की तरह यंत्रवत् व्यवहार जिसमें विचार या विवेक का प्रभाव शून्य हो,  इत्यादि व्यवहारो को भी हास्य का विषय बनाये जाते हैं.

हास्य के लिए, चाहे वह परिहास की दृष्टि से हो या उपहास अर्थात संशुद्धि की दृष्टि से, किसी भी तरह की असामान्यता  बहुत महत्वपूर्ण है.

कटाक्ष तथा व्यंग्य की मूल विषय वस्तु ही पात्र का व्यवहार होता है. प्रभाव की दृष्टि से  हास्य या तो  परिहास की कोटि का होता है या उपहास की कोटि का.  अनेक रचनाओं में हास परिहास, संतुष्टि और संशुद्धि दोनों भावो का मिश्रण भी होता है। परिहास और उपहास दोनों के लिए लक्ष्य पाठक को ध्यान में  रखना आवश्यक है.   धार्मिक मान्यताओ या विद्रूपताओ पर व्यंग्य समान धर्मावलंबियों को तो हँसा सकता है पर दूसरे धर्म के अनुयायियो पर व्यंग्य उनकी भावनाओ को आहत कर सकता है.

व्यंग्य की सफलता इसमें  है कि उपहास का पात्र  व्यक्ति हो या समाज वह  अपनी त्रुटियाँ समझ ले परंतु संकेत करने वाले रचनाकार का अनुगृहीत भी हो  और उसे “पर उपदेश कुशल बहुतेरे” की तरह  न देखे.  बिना व्यंग्य के हास्य को परिहास समझा जा सकता है.

वर्तमान काल में हास्य के विषयों और उनकी अभिव्यक्ति करने की शैलियों का  विस्तार हुआ है।आज पद्य के साथ ही गद्य की भी अनेक विधाओं का विकास हुआ है। नाटक तथा एकांकी, उपन्यास तथा कहानियाँ, एवं निबंध, स्वतंत्र सामयिक कटाक्ष के व्यंग्य लेख आदि  विधाओं में हास्यरस के अनुकूल साहित्य लिखा जा रहा है। वर्तमान युग के प्रारंभ के सर्वाधिक यशस्वी साहित्यकार भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के नाटकों में विशुद्ध हास्यरस कम, वाग्वैदग्ध्य कुछ अधिक और उपहास पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है।

व्यंग्य हमेशा से कमजोर के पक्ष में लिखा जाता रहा है, मैं इसी लिये कहा करता हूं कि व्यंग्यकारो का यदि कोई इष्ट देवता हो तो वे खाटू श्याम होंगे, क्योकि महाभारत के कथानक के अनुसार भीम के पुत्र घटोत्कच्छ का पुत्र बर्बरीक, भगवान कृष्ण के वरदान स्वरूप आज हर हारते हुये के साथ होते हैं, उन्हें खाटू श्याम नाम से पूजा जाता है.

व्यंग्य सदा से सत्ता के विरोधी पक्ष में शोषित के साथ खड़ा रहा है. जब देश में अंग्रेजी साम्राज्य था उनकी प्रत्यक्ष आलोचना का सीधा अतएव साहित्य का सा अर्थ कारागार होता था तब रचनाकारों ने, विशेषत: व्यंग्य और उपहास का मार्ग ही पकड़ था और स्यापा, हजो, वक्रोक्ति, व्यंगोक्ति आदि के माध्यम से सुधारवादी सामाजिक चेतना जगाने का प्रयत्न किया था. व्यंग्य में प्रतीक के माध्यम से आलोचना तथा ब्याज स्तुति की जाती थी. सिनेमा से पहले  विभिन्न नाटक मंडलियां तम्बू लगाकर शहर शहर घूम कर हास्य नाटक करती थीं, जिनके लिये प्रचुर हास्य साहित्य परिवेश, समय के अनुरूप लिखा गया. इनमें बीच बीच में गीतो की प्रस्तुति भी होती थी जिसमें जन सामान्य  के मनोरंजन के लिये हल्का हास्य होता था.

भारतेंदुकाल के बाद महावीरप्रसाद व्दिवेदी काल आया जिसमें हास्य के विषयों और उनकी अभिव्यंजना प्रणालियों का  परिष्कार एवं विस्तार हुआ.  नाटकों में केवल हास्य का उद्देश्य लेकर मुख्य कथा के साथ जो एक अंतर्कथा या उपकथा विशेषत: पारसी थिएट्रिकल कंपनियों के प्रभाव से चला करती थी वह व्दिवेदीकाल में प्राय: समाप्त हो गई और हास्य के उद्रेक के लिए विषय अनिवार्य न रह गया।

सूर्य कांत त्रिपाठी निराला जी ने सुंदर व्यंगात्मक रचनाएँ लिखी हैं और उनके कुल्ली भाठ, चतुरी चमार, सुकुल की बीबी, बिल्लेसुर बकरिहा, कुकूरमुत्ता आदि प्रसिद्ध है।

वर्तमान काल में उपेंद्रनाथ अश्क ने “पर्दा उठाओ, परदा गिराओ” आदि कई नई सूझवाले एकांकी लिखे हैं। डॉ॰ रामकुमार वर्मा का एकांकी संग्रह “रिमझिम” इस क्षेत्र में मील का पत्थर माना गया है। उन्होंने स्मित हास्य के अच्छे नमूने दिए हैं। देवराज दिनेश, उदयशंकर भट्ट, भगवतीचरण वर्मा, प्रभाकर माचवे, जयनाथ नलिन, बेढब बनारसी, कांतानाथ चोंच,” भैया जी बनारसी, गोपालप्रसाद व्यास, काका हाथरसी, आदि  रचनाकारों ने अनेक विधाओं में रचनाएँ की हैं और हास्य साहित्य को समृद्ध किया है। भगवतीचरण वर्मा का “अपने खिलौने” हास्य उपन्यासों में विशिष्ट स्थान रखता है। यशपाल का “चक्कर क्लब” व्यंग के लिए प्रसिद्ध है।
कृष्णचंद्र ने “एक गधे की आत्मकथा” आदि लिखकर व्यंग्य लेखकों में यश प्राप्त किया. गंगाधर शुक्ल का “सुबह होती है शाम होती है” की विधा नई है।

राहुल सांकृत्यायन, सेठ गोविंद दास, श्रीनारायण चतुर्वेदी, अमृतलाल नागर, डॉ॰ बरसानेलाल जी, वासुदेव गोस्वामी, बेधड़क जी, विप्र जी, भारतभूषण अग्रवाल आदि के नाम भी गिनाए जा सकते हैं जिन्होंने किसी न किसी रूप में साहित्य में हास्य व्यंग्य लेखन भी किया है।

अन्य भाषाओं की कई विशिष्ट कृतियों के अनुवाद भी हिंदी में हो चुके हैं। केलकर के “सुभाषित आणि विनोद” नामक गवेषणापूर्ण मराठी ग्रंथ के अनुवाद के अतिरिक्त मोलिये के नाटकों का, “गुलिवर्स ट्रैवेल्स” का, “डान क्विकज़ोट” का, सरशार के “फिसानए आज़ाद” का, रवींद्रनाथ टैगोर के नाट्यकौतुक का, परशुराम, अज़ीमबेग चग़ताई आदि की कहानियों का, अनुवाद हिंदी में उपलब्ध है।

आधुनिक युग में जहां हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्र नाथ त्यागी जैसे व्यंग्यकारो ने व्यंग्य आलेखो को स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित किया वहीं हास्य कवितायें मंच पर बहुत लोकप्रिय हुईं. इनमें अनेक कवियो ने तो छंद बद्ध रचनायें की जो प्रकाशित भी हुईं पर इधर ज्यादातर ने चुटकुलों को ही थोड़ी सी तुकबंदी करके मुक्त छंद में अपने हाव भाव तथा मंच पर प्रस्तुति  की नाटकीयता व अभिनय से लोकप्रियता हासिल की.

हास्य, मंचीय कविता में अधिक लोकप्रिय हुआ.गद्य के रूप में  हास्य व्यंग्य ज्यादातर अखबारो के संपादकीय पृष्ठो पर नियमित स्तंभो के रूप में प्रकाशित हो रहा है. विशुद्ध व्यंग्य की पत्रिकायें भी छप रही हैं जिनमें प्रेम जनमेजय की व्यंग्य यात्रा, अनूप श्रीवास्तव की अट्टहास, जबलपुर से  व्यंग्यम,  सुरेश कांत ने हाल ही हैलो इण्डिया शुरू की है. कार्टून पत्रिकायें तथा बाल पत्रिकायें जैसे लोटपोट, नियमित पत्रिकाओ के हास्य व्यंग्य विशेषांक, हास्य के टी वी शो, इंटरनेट पर ब्लाग्स में हास्य व्यंग्य लेखन, फेस बुक पर इन दिनो जारी अनूप शुक्ल, उडनतश्तरी की व्यंग्य की जुगलबंदी सामूहिक तथा व्यक्तिगत व्यंग्य संकलन आदि आदि तरीको से हास्य व्यंग्य साहित्य समृद्ध हो रहा है.   ज्यादातर मंचीय कवि इनी गिनी रचनाओ के लिये ही प्रसिद्ध हुये हैं. जिस कवि ने जो छंद पकड़ा उसकी ज्यादातर रचनायें उसी छंद में हैं. महिला रचनाकारों ने सस्वर पाठ व प्रस्तुति के तरीको से मंचो पर पकड़ बनाई है.

क्रमशः …..2

शेष कल के अंक में …..

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 1 – स्वयं की खोज में ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   स्वयं की खोज में।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – #1  ☆

 

☆ स्वयं की खोज में  

 

दीवाली या दीपावली शब्द में, ‘दीप’ का अर्थ है प्रकाश और ‘अवली’ का अर्थ है पंक्ति ।तो दिवाली/दीपावली का अर्थ है रोशनी की पंक्ति । दिवाली हिन्दुओं का सबसे प्रमुखएवं बड़ा, रोशनी का त्यौहार है । यह त्यौहार भारत और अन्य देशों में जहाँ भी हिंदू रहते हैं हर साल शरद ऋतु, अक्टूबर या नवंबर माह में मनाया जाता है । आध्यात्मिक रूप से दिवाली त्यौहार अंधेरे पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई, अज्ञानता पर ज्ञान, जुनून पर शांति, और निराशा पर आशा की जीत को दर्शाता है । लोग दिवाली की रात्रि सभी जगहों, बाहरी दरवाजे और खिड़कियों, मंदिरों के आसपास, इमारतों आदि में मिटटी  के दीपक जला कर जश्न मनाते  है। दिवाली की रात्रि चारो ओर चमकीले लाखों रोशनी के पुंज बहुत भव्य दिखाई देते हैं ।

इस त्यौहार की तैयारी और अनुष्ठान आम तौर पर पाँच दिनों तक होते हैं (कुछ स्थानों जैसे महाराष्ट्र में छह दिनों तक) । लेकिन दिवाली की मुख्य उत्सव रात्रि हिंदू चंद्र सौर माह ‘कार्तिक’ की सबसे अंधेरी, अमावस्या (नई चंद्रमा की रात्रि ) को होती है । दीवाली रात्रि  मध्य अक्टूबर और मध्य नवंबर के बीच होती है ।

दिवाली की रात्रि से पहले, लोग अपने घरों और कार्यालयों को कई अलग-अलग तरीकों से साफ, पुनर्निर्मित और सजाते हैं । दिवाली की रात्रि  को, लोग नए कपड़े पहनते हैं, अपने घर के अंदर और बाहर प्रकाश के लिए दीये (मिट्टी का दीपक) और मोमबत्तियां जलाते हैं, परिवार के साथ देवी लक्ष्मी जी (प्रजनन क्षमता और समृद्धि की देवी) एवं गणेश जी की पूजा (प्रार्थना) में भाग लेते हैं । पूजा के बाद, बच्चे और बड़े मिलकर आतिशबाजी चलाते हैं, फिर सब मिलकर मिठाई और कई अन्य स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों को परिवार के सदस्यों के साथ खाते हैं और करीबी दोस्तों एवं रिश्तेदारों के बीच उपहारों का आदान-प्रदान होता है । दीपावली के आसपास का समय एक प्रमुख खरीदारी अवधि को भी चिह्नित करता है । भारत के क्षेत्र के आधार पर उत्सव के दिनों के साथ-साथ दिवाली के कुछ महत्वपूर्ण अनुष्ठान हिंदुओं के बीच कुछ भिन्न भिन्न रूप से होते हैं । भारत के कई हिस्सों में, दिवाली उत्सव गोवत्स द्वादशी से शुरू होते हैं, इस दिन गायों और बछड़ों की पूजा की जाती है । अगले दिन भारत के उत्तरी और पश्चिमी भाग  में धनतेरस होती है। (अधिकतर लोग धनतेरस से दिवाली उत्सव शुरू करते हैं और दिवाली उत्सव की प्रार्थना का पहला दिन गोवत्स द्वादशी को नहीं मानते हैं बल्कि धनतेरस को ही पहला दिन मानते हैं) उससे अगला तीसरा दिन नर्क चतुर्दशी के नाम से मनाया जाता है चौथा दिन दिवाली के रूप में मनाया जाता है पाँचवा दिन गोवर्धन या गोबर्धन पूजा (गोबार अर्थात गाय का गोबर, क्योंकि पुराने समय में गांवों में लोग गाय के गोबर का प्रयोग बहुत से कार्यो में करते थे और उसमे कई औषधिय गुण भी होते हैं और उस समय में और कई जगह आज भी गाय के गोबर को भी एक प्रकार का धन ही माना जाता है) के नाम से मनाया जाता है जो की पति एवं पत्नी के रिश्ते को समर्पित है ।

छठे दिन भाई दूज, जो बहन-भाई के संबंध को समर्पित है, के साथ उत्सव समाप्त होता है । धनतेरस आमतौर पर दशहरा के अठारह दिन बाद आता है । जिस रात्रि हिन्दू दिवाली मनाते हैं उसी रात्रि, जैन भी भगवान महावीर द्वारा मोक्ष की प्राप्ति को चिन्हित करने के लिए दिवाली नामक त्यौहार मनाते हैं एवं दिवाली के दिन ही सिख लोग मुगल साम्राज्य की जेल से गुरु हरगोबिंद जी की मुक्तई को चिन्हित करने के लिए ‘बंधी छोड़ दिवस’ मनाते हैं ।

दिवाली हिंदू कैलेंडर महीने कार्तिक में ग्रीष्मकालीन फसल कटने के बाद त्यौहार के रूप में भारत में प्राचीन काल से मनाया जाता है । दिवाली त्यौहार का उल्लेख संस्कृत ग्रंथों जैसे पद्म पुराण और स्कंद पुराण में किया गया है- दोनों ग्रन्थ सहस्राब्दी ईस्वी के दूसरे छमाही में पूरा हुए थे, लेकिन माना जाता है कि इन ग्रंथो का पहले के युग के मुख्य लेखन से विस्तार किया गया था।  स्कन्द पुराण में दीया (मिट्टी का दीपक) का उल्लेख प्रतीकात्मक रूप से सूरज के कुछ हिस्सों को दर्शाता है- जो सभी के जीवन के लिए प्रकाश और ऊर्जा का ब्रह्मांडीय दाता हैं, एवं अंधेरे के डर को दूर करने के लिए हिंदू कैलेंडर के कार्तिक माह में मौसमी रूप से संक्रमण करता है । भारत के कुछ क्षेत्रों में हिंदू कार्तिक अमावस्या (दिवाली रात्रि) पर यम और नचिकेता (ज्ञान की अग्नि) की किंवदंती के साथ दिवाली को जोड़ते हैं ।कठ उपनिषद में नचिकेता की कहानी, सही बनाम गलत, वास्तविक धन बनाम क्षणिक धन, और अज्ञान बनाम ज्ञान, के वास्तविक अंतर के रूप में दर्ज की गई है । दुनिया भर के सबसे ज्यादा हिंदू भगवान राम, उनकी पत्नी देवी सीता और उनके भाई लक्ष्मण के 14 साल वन में रहने के बाद भगवान राम के द्वारा राक्षस राजा रावण को पराजित करने के बाद भगवान राम, उनकी पत्नी देवी सीता और उनके भाई लक्ष्मण की अयोध्या वापसी के सम्मान में दिवाली मनाते हैं । लंका से भगवान राम, देवी सीता और लक्ष्मण की वापसी का सम्मान करने के लिए, और अपने मार्ग को उजागर करने के लिए, ग्रामीणों ने बुराई पर भलाई की जीत का जश्न मनाने के लिए सबसे पहले मिट्टी के दीये जलाये और तब ही से दिवाली मनाने का चलन शुरू माना जाता है । कुछ लोगों के लिए महाभारत के अनुसार, दीवाली को पांडवों के बारह वर्षों के वनवास (निर्वासन) और एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद की वापसी के जश्न के रूप में मनाते हैं ।इसके अतरिक्त, दीपावली को देवी लक्ष्मी के उत्सव से जोड़ा जाता है, जिनकी हिन्दुओं में धन और समृद्धि की देवी के रूप में पूजा की जाती है, और जो भगवान विष्णु की पत्नी है । दिवाली का 5 दिवसीय त्यौहार उस दिन शुरू होता है जब देवी लक्ष्मी का जन्म, सुर (देवता) और असुर (राक्षसों) द्वारा दूध के लौकिक महासागर के मंथन से हुआ था (धन तेरस); जबकि दिवाली की रात्रि  वह दिन है जब देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को अपने पति के रूप में चुना और उनका विवाह हुआ था ।

दिवाली के दिन देवी लक्ष्मी के साथ साथ भक्त, भगवान गणेश को प्रसाद अर्पित करते हैं, जो नैतिक शुरुआत और बाधाओं को निडरता से हटाने के प्रतीक हैं । एवं देवी सरस्वती, जो संगीत, साहित्य और शिक्षा की प्रतीक हैं और भगवान कुबेर, जो पुस्तक रखने, छुपा खजाना और धन प्रबंधन का प्रतीक है,की भी पूजा करते हैं । अन्य हिंदुओं का मानना ​​है कि दीवाली वह दिन है जब भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी वैकुंठ में उनके निवास स्थान पर आये थे । जो लोग दिवाली के दिन देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं उन्हें लक्ष्मी माँ की अच्छी मनोदशा का लाभ मिलता है, और इसलिए आगे के वर्ष के लिए मानसिक और भौतिक कल्याण का आशीर्वाद मिलता है । भारत के पूर्वी क्षेत्र, जैसे ओडिशा और पश्चिम बंगाल में हिंदू, दिवाली की रात्रि देवी लक्ष्मी के बजाय देवी काली की पूजा करते हैं, और त्यौहार को काली पूजा कहते हैं ।

गोवर्धन के दिन भारत के ब्रज और उत्तर मध्य क्षेत्रों में, भगवान कृष्ण व्यापक रूप से पूज्येहैं। इस दिन लोग गोवर्धन पर्वत की प्रार्थना करते हैं । भारत के कुछ क्षेत्रों में, गोवर्धन पूजा (या अनाकूट) के दिन, कृष्ण भगवान को 56 या 108 विभिन्न व्यंजनो का भोग लगाया जाता है और प्रसाद वितरित किया जाता है । पश्चिम और भारत के कुछ उत्तरी हिस्सों में, दिवाली का त्यौहार एक नए हिंदू वर्ष की शुरुआत को चिन्हित करता है ।

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ नासमझी ☆ – श्री नरेंद्र राणावत

श्री नरेंद्र राणावत

☆ नासमझी ☆

पिछले दिनों जालौर शहर में रात्रि आवास हुआ।

उसी मध्यरात्रि तेज बारिश हुई। जल संधारण की कोई व्यवस्था नहीं थी । छत का पानी व्यर्थ ही बह गया।

सुबह हुई। परिवार के मुखिया ने अपनी पत्नी को आवाज लगाई- “बाथरूम में बाल्टी रखना टांके से पानी भरकर नहा लूँ।”

पत्नी बोली- “टंकी तो कल ही खाली हो गई है, नल अभी तक आया ही नहीं।”

रात को बारिश से उठी सौंधी गंध और टीन पर घण्टों तक टप-टप के मधुर संगीत ने जलसंग्रहण सन्देश की जो कुंडी खटखटाई थी, उसे नासमझों ने जब अनसुना कर दिया तो सुबह होते ही सूरज ने भी अपनी आँखें तरेरी, तपिश बढ़ाई और सभी को पसीने से तरबतर कर दिया।

 

???

© नरेंद्र राणावत  ✍?

गांव-मूली, तहसील-चितलवाना, जिला-जालौर, राजस्थान

+919784881588

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ वसंत फुलला मनोमनी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  आज प्रस्तुत है उनकी वसंत ऋतु पर आधारित  भावप्रवण कविता  “वसंत फुलला मनोमनी।) 

 

☆ वसंत फुलला मनोमनी 

 

नवपल्लवीने नटली सजली सृष्टी !

सुगरण विणते पिलांसाठी घरटी !

कोकीळेचा पंचमस्वर गुंजतो रानी !

भारद्वाजचे फ्लाईंग दर्शन सुखावते मनी !

भ्रमर गुंजती मधु प्राशती फुलातुनी !

आला वसंत आला झाला आनंद मनोमनी !!१!!

 

शेतात मोहरी सोनफुले फुले पीतमोहर !

घाटात भेटे लाल चुटुक पळसकाटेसावर !

दारोदारी फुलला लाल गुलमोहर !

बकुळ फुलांच्या गंधचांदण्या बहरे लाल कण्हेर !

देवचाफा सोनचाफा कडुलिंब ही बहरावर !

आला वसंत आला आनंद झाला खरोखर !!२!!

 

कमलपुष्पे फुलली बहरली जास्वंद सूर्यफुलं!

रंगबिरंगी गुलाब फुलले फुलली बोगनवेल !

अननसाची लिली फुलली बहरे नीलमोहर !

झिनिया पिटोनिया गॅझेनियाला आला हो बहर !

डॅफोडिल्स अन् ट्यूलिप्सने केला हो कहर !

आला वसंत आला फुलला मनोहर !!३!!

 

कोकणात सुरंगी फुले मोहक मदधुंद !

त्यांचा सुंदर गजरा माळला केसात !

मोगऱ्याचा दरवळला मंदसा सुगंध !

मोहविते रातराणी धुंद आसमंत !

मोहरले मी अन् कळले मजला आला वसंत !!४!!

 

नसता पाऊस सृष्टीला फुटे नवी पालवी !

ही अद्भुत किमया फक्त ऋतु वसंताची !

जीवनाची युवावस्था म्हणजेच वसंत !

सौंदर्य स्नेह संगीत याची निर्मिती वसंत !

या आनंदाला ना कशाची बरोबरी !

आला वसंत आला फुलला खरोखरी !!५!!

 

ऋतू वसंत अतिसुंदर म्हणती वाल्मिकी मुनी !

ऋतूंमध्ये मी वसंत म्हणे श्रीकृष्ण कुंजवनी !

ईश्वरीस्पर्शाने येई वसंतचि जीवनी !

उत्साहस्फूर्ती बुद्धीचमक चेतना हृदयी !

या सर्वांची प्रचिती येते अगदी क्षणोक्षणी !

आला वसंत आला फुलला मनोमनी !!६!!

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा 

Please share your Post !

Shares

योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ BUDDHA: The Four Noble Truths & The Noble Eightfold Path ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ BUDDHA: The Four Noble Truths & The Noble Eightfold Path 

Video Link : BUDDHA: The Four Noble Truths & The Noble Eightfold Path 

 

The essence of the Buddha’s teaching can be summed up in two principles: the Four Noble Truths and the Noble Eightfold Path.

The first covers the side of doctrine, and the primary response it elicits is understanding; the second covers the side of discipline, in the broadest sense of that word, and the primary response it calls for is practice.

Two extremes that ought not to be cultivated by one who has gone forth: devotion to pursuit of pleasure in sensual desires, which is low, coarse, vulgar, ignoble and harmful; and devotion to self-mortification, which is painful, ignoble and harmful.

The Middle Way:
Avoid the two extremes – devotion to pursuit of pleasure in sensual desires and devotion to self-mortification. Follow the Noble Eightfold Path.

The middle way – Noble Eightfold Path – discovered by the Perfect One gives vision, gives knowledge, and leads to peace, to direct knowledge, to enlightenment, to Nibbana.

Noble Eightfold Path:
Right View, Right Intention, Right Speech, Right Action, Right Livelihood, Right Effort, Right Mindfulness, and Right Concentration.

The Four Noble Truths:
Noble Truth of Suffering, Noble Truth of the Origin of Suffering, Noble Truth of the Cessation of Suffering, and Noble Truth of the Way Leading to the Cessation of Suffering.

Noble Truth of Suffering:
Birth is suffering, ageing is suffering, sickness is suffering, death is suffering, sorrow and lamentation, pain, grief and despair are suffering, association with the loathed is suffering, dissociation from the loved is suffering, not to get what one wants is suffering – in short, the five aggregates affected by clinging are suffering.

Noble Truth of the Origin of Suffering:
It is craving, which produces renewal of being, is accompanied by relish and lust, relishing this and that; in other words, craving for sensual desires, craving for being, craving for non-being.

Noble Truth of the Cessation of Suffering:
It is the remainderless fading and ceasing, the giving up, relinquishing, letting go and rejecting of craving.

Noble Truth of the Way Leading to the Cessation of Suffering:
It is the Noble Eightfold Path, that is to say, right view, right intention, right speech, right action, right livelihood, right effort, right mindfulness, and right concentration.

Right View:
It is knowledge of suffering, of the origin of suffering, of the cessation of suffering, and of the way leading to the cessation of suffering.

Right Intention:
It is the intention of renunciation, the intention of non-ill will, and the intention of non-cruelty.

Right Speech:
Abstention from lying, slander, abuse, and gossip.

Right Action:
Abstention from killing living beings, stealing, and misconduct in sexual desires.

Right Livelihood:
A noble disciple abandons wrong livelihood and gets his living by right livelihood.

Right Effort:
A bhikkhu awakens desire for the non-arising of unarisen evil unwholesome states, for the abandoning of arisen evil unwholesome states, for the arising of unarisen wholesome states, for the continuance, non-corruption, strengthening, maintenance in being, and perfecting, of arisen wholesome states; for which he makes efforts, arouses energy, exerts his mind, and endeavours.

Right Mindfulness:
A bhikkhu abides contemplating the body as a body, feelings as feelings, consciousness as consciousness, mental objects as mental objects; ardent, fully aware and mindful, having put away covetousness and grief for the world.

Right Concentration:
Quite secluded from sensual desires, secluded from unwholesome states, a bhikkhu enters upon and abides in the first meditation, which is accompanied by thinking and exploring, with happiness and pleasure born of seclusion.

 

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (24) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

 

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ।।24।।

 

यज्ञार्पण विधि ब्रम्ह,ब्रम्ह है हवन अग्नि भी ईश्वर है

इसी दृष्टि सब कर्म ब्रम्ह हैं,सुलभ उसे ब्रम्ह अक्षर है।।24।।

 

भावार्थ :  जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है- उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं।।24।।

 

Brahman is  the  oblation;  Brahman  is  the  melted  butter  (ghee);  by  Brahman  is  the oblation poured into the fire of Brahman; Brahman verily shall be reached by him who always sees Brahman in action. ।।24।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 8 ☆ दोस्ती क्या? ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनका  विचारणीय आलेख  “दोस्ती क्या?”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 8 ☆

 

☆ दोस्ती क्या? ☆

 

प्यार, वफ़ा, दोस्ती के/सब किस्से पुराने हो गए/एक छत के नीचे रहते हुए/एक-दूसरे से बेग़ाने हो गए/ अजब-सा है व्याकरण ज़िन्दगी का/हमें खुद से मिले जमाने हो गए/यह फ़साना नहीं, हक़ीक़त है जिंदगी की,आधुनिक युग की….जहां इंसान एक-दूसरे से आगे बढ़ जाना चाहता है, किसी भी कीमत पर…. जीवन मूल्यों को ताक पर रख, मर्यादा को लांघ, निरंतर बढ़ता चला जाता है। यहां तक कि वह किसी के प्राण लेने में तनिक भी गुरेज़ नहीं करता। औचित्य -अनौचित्य व मानवीय सरोकारों से उसका कोसों दूर का नाता भी नहीं रहता। रिश्ते-नाते आज कल मुंह छिपाए जाने किस कोने में लुप्त हो गए हैं।

प्यार, वफ़ा, दोस्ती अस्तित्वहीन हो गये हैं, क्योंकि संसार में केवल स्वार्थ का बोलबाला है। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में चारों ओर बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अविश्वास, संत्रास आदि का भयावह वातावरण सुरसा के मुख की भांति निरंतर फैलता जा रहा है तथा स्नेह, सौहार्द, त्याग, करुणा, परोपकारादि भावनाओं को अजगर की भांति लील रहा है।

इन विषम परिस्थितियों में संशय, संदेह व आशंका के कारण, केवल दूरियां ही, नहीं बढ़ती जा रहीं, मानव भी आत्म-केंद्रित हो रहा है। एक छत के नीचे रहते हुए पति-पत्नी के मध्य पसरा मातम-सा सन्नाटा, अजनबीपन का अहसास, संवादहीनता का परिणाम है, जो मानव को संवेदन-शून्यता के कग़ार पर लाकर नितान्त अकेला छोड़ देता है और मानव एकांत की त्रासदी झेलता हुआ अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाता है। उसे कोई भी अपना नहीं लगता क्योंकि उसकी संवेदनाएं, अहसास, जज़्बात उसे मृत्तप्राय: प्रतीत होते हैं…किसी वे किसी दूसरे लोक के भासते हैं।

वह लौट जाना चाहता है, अतीत की स्मृतियों में….

जहां उसे बचपन की धमाचौकड़ी,मान-मनुहार,पल- प्रति पल बदलते मनोभावों की यादें आहत-विकल करती हैं। युवावस्था की दोस्ती एक-दूसरे पर जान लुटाने तथा मर-मिटने की कसमें, उसके अंतर्मन को कचोटती हैं। वह निश्छल प्रेम की तलाश में भटकता रहता है, जो समय के साथ नष्ट हो चुकी होती हैं। मानव उसे पा लेना चाहता है,जो कहीं नि:सीम गगन में लुप्त हो चुका होता है, जिसे पाना कल्पनातीत व असंभव हो जाता है। वे नदी के दो किनारों की भांति कभी मिल नहीं सकते, परंतु क्षितिज के उस पार मिलते हुए दिखाई पड़ते हैं। परंतु उसकी अंतहीन  तलाश सदैव जारी रहती है।

सुक़ून के चन्द पलों की तलाश में वह आजीवन भटकता रहता है, जहां उसके हाथ केवल निराशा ही लगती है। वह स्वयं से बेखबर, अजनबी सम बनकर रह जाता है। वह मृग-मरीचिका सम भौतिक सुख- सुविधाओं की तलाश में निरंतर भटकता रहता है और एक दिन इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाता है, जहां से लौट कर कोई नहीं आता।

काश! इंसान का अंतर्मन दैवीय गुणों से लबरेज़ से रहता और सहृदयता व सदाशयता को जीवन में धारण कर, अहं को शत्रु सम त्याग देता,तो विश्व में समन्वय,सामंजस्य व समरसता का सुरम्य वातावरण रहता। किसी के मन में किसी के प्रति शत्रुता-प्रतिद्वंद्विता का भाव न रहता…चारों ओर शांति का साम्राज्य प्रतिस्थापित रहता। वह मौन को सर्वश्रेष्ठ स्वीकार, नवनिधि सम संजो कर रखता व आत्मलीन रहता…. अंतरात्मा के आदेश को स्वीकारता। इस स्थिति में वह राग-द्वेष, स्व-पर से निज़ात पा लेता। उसे प्रकृति के कण-कण में परमात्म-सत्ता का आभास होता। वह संत एकनाथ की भांति कुत्ते में भी प्रभु के दर्शन पाता और रोटी पर घी लगाकर उसे रोटी खिलाने के लिए पीछे-पीछे दौड़ता। वह हर पल अनहद नाद की मस्ती में खोया अलौकिक आनंद को प्राप्त होता क्योंकि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है …जीते जी मुक्ति पाना।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 6 ☆ स्त्री क्या है? ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक भावप्रवण कविता   “स्त्री क्या है ?”। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 6  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ स्त्री क्या है ? 

 

क्या तुम बता सकते हो

एक स्त्री का एकांत

स्त्री

जो है बेचैन

नहीं है उसे चैन

स्वयं की जमीन

तलाशती एक स्त्री

क्या तुम जानते हो

स्त्री का प्रेम

स्त्री का धर्म

सदियों से

वह स्वयं के बारे में

जानना चाहती है

क्या है तुम्हारी नजर

मन बहुत व्याकुल है

सोचती है

स्त्री को किसी ने नहीं पहचाना

कभी तुमने

एक स्त्री के मन को है  जाना

पहचाना

कभी तुमने उसे रिश्तों के उधेड़बुन में

जूझते देखा है..

कभी उसके मन के अंदर झांका है

कभी पढ़ा है

उसके भीतर का अंतर्मन.

उसका दर्पण.

कभी उसके चेहरे को पढ़ा है

चेहरा कहना क्या चाहता है

क्या तुमने कभी महसूस किया है

उसके अंदर निकलते लावा को

क्या तुम जानते हो

एक स्त्री के रिश्ते का समीकरण

क्या बता सकते हो

उसकी स्त्रीत्व की आभा

उसका अस्तित्व

उसका कर्तव्य

क्या जानते हो तुम ?

नहीं जानते तुम कुछ भी..

बस

तुम्हारी दृष्टि में

स्त्री की परिभाषा यही है ..

पुरुष की सेविका ……

 

© डॉ भावना शुक्ल

Please share your Post !

Shares
image_print