आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (13) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय )

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌।।13।।

मैनें चार वर्ण गुण-कर्मो के अनुसार बनाये हैं

कर्ता हो भी पार्थ,अकर्ता के से गुण अपनाये हैं।।13।।

भावार्थ :  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।।13।।

 

The fourfold caste has been created by Me according to the differentiation of Guna and Karma; though I am the author thereof, know Me as the non-doer and immutable.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ याददाश्त उधारी पर ☆ श्रीमति समीक्षा तैलंग

श्रीमति समीक्षा तैलंग 

(आदरणीय श्रीमति समीक्षा तैलंग जी का e-abhivyakti में स्वागत है। हम पूर्व में आपके व्यंग्य संग्रह “जीभ अनशन पर है” की समीक्षा प्रकाशित कर चुके हैं। आप व्यंग्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम भविष्य में आपके उत्कृष्ट साहित्य से अपने पाठकों को रूबरू कराते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य याददाश्त उधारी पर।)

 

व्यंग्य – याददाश्त उधारी पर 

 

स्लो पॉयजन मतलब आज के जीने की खुराक। शर्तिया…। रामबाण…। न मिले तो सांसें उखडऩे लगे। फ़क्र करना होगा कि जमाना बदल चुका है। खुली सांस और शुद्ध जल नाकाफी है। है भी नहीं…। हाशिये पर जीने वाले भी इसकी गिरफ्त से दूर नहीं…। नौजवान और उनकी तोंद भी इसी की शिकार हैं। मानो तोंदियापन फ़ैशन सा हो गया हो। फिर भी चस्का ऐसा कि भले बेरियाट्रिक सर्जरी करानी पड़ जाए लेकिन इसकी लत न छोडेंगे भाई…।

चलो, एक परसेंट छोड़ भी देते हैं तो दुनिया आगे और हम पीछे रह जाएंगे। दुनिया से कदमताल करना है तो आमरण इस जहर के साथ जीना होगा। किसी भीष्म प्रतिज्ञा की तरह। ऐसी प्रतिज्ञाएं अक्सर चीर और हरण जैसे वाकये को होते रहने में सहायक होती हैं। अमरकथाओं में कभी पढ़ते कि फलानी रानी अपने लला की खातिर अपने ही राजा पर स्लो पॉयजन का इस्तेमाल करतीं। गद्दी हथियाने…।

भारत सबसे आगे है विश्व में। कर लो गर्व। लेकिन किस पर करोगे॰॰॰। सेल्फ़ी मोड से मरने वालों की संख्या पर॰॰॰। या उन पर जिनका कैमरा घटना के आगे चलता है। और वे ख़ुद उसके पीछे।

ये हमारी गूगल आंटी नुमा रानी हैं न…। सर्वेसर्वा…। हमारे जीने का तरीका सेट करने वाली…। ओहदे में किसी राजमाता से कम नहीं…। भटकने से बचाती चलती है। सही रास्ता दिखाने वाली…। चुन चुनकर…। कोशिश करती रहती हैं कि भीड़ भाड़ से दूर रहें हम सब…। कहीं फंस न जाएं, पूरा दारोमदार उसके बोलने पर…। मतलब उसकी ज़रा सी चूक पर हम चूके। क्या पता आगे खाई हो। एक खाई से निकलकर दूसरी खाई में गिरे। फिर भी भारत की गलियों का रास्ता न है इसके पास। सिर ऊँचा कर सकते हैं कि हमारे पास पानवाला है।

न बड़े बुजुर्गों की जरूरत। न उनके अनुभवों की…। ऐसा कोई माई का पुत्तर नहीं जो इस रानी का राजा ना हो। भाई, हर किसी को हक है राजसी ठाठबाट का…। मनुष्य की खासियत ही है जो न मिला उसी के पीछे भागना। गूगल रानी मिलने के बाद कहां जरूरत अपनी रानी की। उसमें इतना हुनर की आत्मीय रिश्तों पर क़ब्ज़ा कर रखा है। प्रेम कहानियाँ ख़रीद लीं हैं भाई…। और क्या चाहिए? घर में न राजा बचा, न रानी। एक समय पांडवों को अज्ञातवास के लिए दर दर भटकना पड़ा। पर हम खुशनसीब हैं…। भाग्यशाली हैं…। हम अपने ही घर में अज्ञातवास की तरह रहते।

गूगल रानी धर्मराज युधिष्ठिर के रूप में प्रकट हो जाती। सही गलत के सारे भेद होते इसके पास। कभी वृहन्नला तो कभी नकुल सहदेव। और भीम के रूप में तो अक्सर गदा सिर पर मारती। जरा डांट के, इतना सा उत्तर नहीं आता मूरख। ये रहा तुम्हारे प्रश्न का सही उत्तर।

मतलब मेमोरी कन्ज्यूम करने की जरूरत ही कहाँ  बचती है। हरेक को सांइटिस्ट थोड़े बनना है। हमारा दिमाग किसी लैंडफिल साइट से कम न बचा, भाई। दाएं बाएं की साइटें देख देख के डंपिंग गारबेज बन चुका है। याददाश्त फीकी पड़ जाए तो अब दादी नानी के नुस्खों की भी जरूरत नहीं। कौन खाए बादाम और कौन करे बादाम के तेल से चंपी। इतनी चकल्लस का टेम नयि है सहाब…। बहुत बिजी हैं सब। बिजी विदाउट बिजनेस। लेकिन ऐसा नहीं कह सकते…। रानी ने अपने चारों ओर पूरे विश्व का नेटवर्क जो बनाके रखा है। सर्फिंग करनी पड़ती है। बताओ आखिर, जानकारी हासिल करनी चैइये कि नयी करनी चैइये…?? लेकिन अगले दो मिनट के बाद उस जानकारी की मृत्यु होना भी सुनिश्चित है। क्या करें, याददाश्त भाड़ में भुंज रही हो तो ऐसा होना संभव है।

गूगल रानी का आलम किसी युनीसेक्स सलून की तरह है। कोई लिंगभेद नहीं…। सबके लिए बराबर। वो ऑर्डर देती है और हम सब मानते हैं। जैसे किसी कद्दावर देश का राष्ट्रपति। मतलब पूरी दुनिया मुट्ठी में कर रखी है इस रानी ने…। फिर किस बिनाह पर अमेरिका, चीन या अरब वर्ल्ड शेखी बघार रहे॰॰॰। न शोख, न कमसिन…। फिर भी बस लोग कायल हुए जा रहे इसके। सही को सही के साथ साथ सही को गलत और गलत को सही ठहराने की अभूतपूर्व क्षमता है…। इस पावर के आगे सभी नतमस्तक हैं। तिल का ताड़ और ताड़ से तेल निकलवाने की क्षमता रखती हैं बहनजी….। सारा कंट्रोल उसके हाथ में। और अब हम भिखारी बने फिर रहे हैं। याददाश्त के नाम पर थोड़ी दे दे रे बाबा….।

© श्रीमति समीक्षा तैलंग 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #4 – मैराथन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  चौथी  कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 4  ☆

 

☆ मैराथन ☆

 

मैं यह काम करना चाहता था पर उसने अड़ंगा लगा दिया।…मैं वह काम करना चाहती थी पर इसने टांग अड़ा दी।…उसमें है ही क्या, उससे बेहतर तो इसे मैं करता पर मेरी स्थितियों के चलते..!!  ….अलां ने मेरे खिलाफ ये किया, फलां ने मेरे विरोध में यह किया…।

स्वयं को अधिक सक्षम, अधिक स्पर्द्धात्मक बनानेे का कोई प्रयास न करना, आत्मावलोकन न कर व्यक्तियों या स्थितियों को दोष देना, हताशाग्रस्त जीवन जीनेवालों से भरी पड़ी है दुनिया।

वस्तुतः जीवन मैराथन है। अपनी दौड़ खुद लगानी होती है। रास्ते, आयोजक, प्रतिभागी, मौसम किसी को भी दोष देकर पूरी नहीं होती मैराथन।

कवि निदा फाज़ली ने लिखा है,‘रास्ते को भी दोष दे, आँखें भी कर लाल/ चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल।’ 

अधिकांश लोग जीवन भर ये कील नहीं निकाल पाते। कील की चुभन पीड़ा देती है। दौड़ना तो दूर, चलना भी दूभर हो जाता है।

जिस किसीने यह कील निकाल ली, वह दौड़ने लगा। हार-जीत का निर्णय तो रेफरी करेगा पर दौड़ने से ऊर्जा का प्रवाह तो शुरू हुआ।

प्रवाह का आनंद लेने के लिए इसे पढ़ने या सुनने भर से कुछ नहीं होगा। इसे अपनाना होगा।

उम्मीद करता हूँ अपनी-अपनी चप्पल सबके हाथ में है और कील के निष्कासन की कार्यवाही शुरू हो चुकी है।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 7 – व्यंग्य – बिना पूँछ का जानवर ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनका व्यंग्य – “बिना पूँछ का जानवर ” जो निश्चित ही …….. ! अरे जनाब यदि मैं ही विवेचना कर दूँ  तो आपको पढ़ने में क्या मज़ा आएगा? इसलिए बिना समय गँवाए कृपा कर के पढ़ें, आनंद लें और कमेंट्स करना न भूलें । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 7 ☆

 

☆ व्यंग्य – बिना पूँछ का जानवर ☆

ज्ञानी जी के साथ मैं होटल की बेंच पर बैठा चाय पी रहा था।ज्ञानी जी हमेशा ज्ञान बघारते थे और मैं भक्तिभाव से उनकी बात सुनता था। इस समय उनकी नज़र सामने दीवार पर लगे पोस्टर पर थी। उसमें सुकंठी देवी के गायन की सूचना छपी थी। कार्यक्रम की तिथि आज ही की थी।

ज्ञानी जी ने पोस्टर पढ़कर मुझसे पूछा, ‘शास्त्रीय संगीत समझते हो?’

मैंने हीन भाव से उत्तर दिया, ‘न के बराबर, ज्ञानी जी!’

ज्ञानी जी विद्रूप में ओंठ टेढ़े करके बोले, ‘जानते हो? संगीत और कला के बिना आदमी बिना पूँछ का जानवर होता है!’

मैंने लज्जित होकर दाँत निकाल दिये।

वे बोले, ‘चलो, आज हम तुम्हें संगीत का ज्ञान देंगे। आज तुम इस कार्यक्रम की दो टिकट खरीदो।’

मैं राज़ी हो गया। कार्यक्रम शाम के सात बजे से था। मैं टिकट खरीदकर साढ़े छह बजे ज्ञानी जी के घर पहुँच गया। पता चला वे शौचालय में हैं। पन्द्रह मिनट बाद वे तौलिये से हाथ पोंछते हुए प्रकट हुए। उन्होंने दस मिनट और तैयार होने में लगाये । फिर हम निकल पड़े। रास्ते में भगत के पान के डिब्बे पर ज्ञानी जी रुके। एक पान मुँह में दबाया और चार बँधवा लिये । फिर मेरी तरफ मुड़ कर बोले, ‘पैसे चुका दो।’ मैंने चुपचाप पैसे चुका दिये क्योंकि यह सब मेरा संगीत-बोध जागृत करने के लिए किया जा रहा था।

ज्ञानी जी की ढीलढाल का नतीजा यह हुआ कि जब हम लोग हॉल में घुसे तब सुकंठी देवी का गायन शुरू हो चुका था। लोगों के घुटनों से टकराते हुए हम लोग अपनी सीटों पर पहुँच गये।

बैठते ही ज्ञानी जी बोले, ‘वाह,  भीम पलासी राग चल रहा है।’

उनकी बगल में बैठा चश्मेवाला आदमी तेज़ी से घूमकर बोला, ‘जी नहीं, केदार है।’

ज्ञानी जी का मुँह उतर गया। वे मेरी तरफ झुककर धीरे से बोले, ‘भीमपलासी को केदार भी कहते हैं।’

मैंने सिर हिला दिया।

जब सुकंठी देवी ने दूसरा आलाप लिया तब ज्ञानी जी बगल वाले आदमी को बचाकर मुझसे धीरे से बोले, ‘मालकोश राग का आलाप है।’

तभी आलाप खत्म करके सुकंठी देवी बोलीं, ‘अभी मैं आपको राग जैजैवन्ती सुना रही थी।’

ज्ञानी जी मेरी तरफ झुककर बोले, ‘दोनों में कोई खास फर्क नहीं है।’

गायन शुरू हो गया और ज्ञानी जी सिर हिला हिलाकर अपनी कुर्सी के हत्थे पर ताल देने लगे। तभी बगल वाला आदमी गुस्से में बोला, ‘गलत ताल मत दीजिए।’

ज्ञानी जी सिकुड़ गये। फिर मेरी तरफ झुककर बोले, ‘यह भी बिना पूँछ का जानवर है। कुछ जानता नहीं इसलिए मुझसे लड़ता है।’

मैंने फिर सिर हिलाया।

अब ज्ञानी जी शान्त होकर बैठे थे। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, उनकी आँखें बन्द हो गयीं थीं और सिर छाती की तरफ झुक गया था। दो मिनट बाद उन्होंने आँखें खोलीं और मुझे अपनी ओर ताकता पाकर बोले, ‘यह मत समझना कि मैं सो रहा था। जब आदमी संगीत में पूरा डूब जाता है तो उसे अपनी खबर नहीं रहती।’

मैंने सिर हिलाया।

थोड़ी देर बाद पुनः उनकी आँखें बन्द हो गयीं और सिर छाती से टिक गया। इस बार उनकी नाक से बाकायदा शास्त्रीय संगीत के स्वर निकलने लगे। चश्मे वाला आदमी आग्नेय नेत्रों से उनकी तरफ देखने लगा। मैंने धीरे से उन्हें हिलाया। उन्होंने बड़ी मुश्किल से एक नेत्र खोला। मैंने कहा, ‘आप तो खर्राटे भर रहे हैं।’

वे हँसकर बोले, ‘यही तो तुम्हारी नासमझी है। जब मन संगीत से भर जाता है तो संगीत के समान स्वर शरीर से निकलने लगते हैं। जो तुम सुन रहे थे वह खर्राटे नहीं, सुकंठी देवी के संगीत की प्रतिध्वनि थी।’

मैं चुप हो गया।

थोड़ी देर बाद मैंने देखा, वे सो रहे थे और उनके ओठों के किनारे से लार बहकर उनके कुर्ते की सिंचाई कर रही थी। मैंने उन्हें फिर जगाया, कहा, ‘ज्ञानी जी! आपके मुँह से लार बह रही है।’

ज्ञानी जी के माथे पर बल पड़ गये । वे बोले, ‘नादान! जिसे तू लार समझता है वह वास्तव में संगीत-रस है। जब मन संगीत-रस से सराबोर हो जाता है तो थोड़ा-बहुत रस इसी तरह उबल कर बाहर निकल जाता है।’

मैं फिर चुप्पी साध गया।

और थोड़ी देर में कार्यक्रम समाप्त हो गया। सब लोग उठ-उठ कर बाहर जाने लगे। मैंने धीरे से उन्हें एक-दो बार उठाया लेकिन वे गहरी नींद में ग़र्क थे। आख़िरकार जब उन्हें ज़ोर से हिलाया तब उन्होंने नेत्र खोले।

अपने आसपास देखकर वे उठ खड़े हुए। अंगड़ाई लेकर बोले, ‘तो देखा श्रीमान, यही शास्त्रीय संगीत का रस,यानी उसका आनन्द होता है। इसी तरह मेरे साथ दो-चार बार सुनोगे तो बिना पूँछ के जानवर से इंसान बन जाओगे।’

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )
(लेखक के व्यंग्य-संग्रह ‘अन्तरात्मा का उपद्रव’ से)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ पौराणिक कथाओं पर आधारित कथा – सालिगराम☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। आज प्रस्तुत है उनकी पौराणिक कथाओं पर आधारित  कथा – शालिग्राम । )

 

☆ पौराणिक कथाओं पर आधारित कथा – शालिग्राम ☆

 

बरसात का मौसम, मौसमी फलों की बहार। बाजार निकलने पर ठेलों पर काले काले जामुन। सभी का दिल खाने को होता है। जामुन देख हम भी आपको एक पुरानी कथा बता रहे हैं। आप सभी जानते होंगे फिर भी मुझे आप सब के साथ साझा करना अच्छा लग रहा है ।

एक ऋषि का आश्रम जहाँ बहुत सारे शिष्य शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। गांव का एक अनपढ उसे भी गुरूकुल जाने का मन हुआ और साधु संत बनने की इच्छा जागी। माँ से बात कर वह एक दिन पहुंच गया आश्रम  बहुत ही भोला भाला जैसा कोई कह दे मान जाता था। गुरुजी ने उसे रखने से इंकार किया परंतु उसकी सच्ची श्रद्धा देखकर उसे अपने आश्रम में रख लिया।

उन्होंने पूछा “क्या जानते हो?”

बहुत ही सीधे शब्दों में उसने सब बात बता कर गुरु जी से कहा “आप जो काम देंगे वह मैं अवश्य पूरा करूंगा। बदले में मुझे खाना दे दिया कीजिए।”

गुरुजी शालिग्राम प्रभु के बहुत भक्त थे और बड़े छोटे भिन्न-भिन्न प्रकार के  शालिग्राम की स्थापना कर रखे थे। आश्रम में पूरा दिन उनको नहलाना, पूजा करना, टीका चंदन लगाना, फिर जो भी मिले प्रसाद स्वरूप सब को बाँट कर खाना बस बाकी समय भगवान का आराधना कर बैठे रहना वह सब से देखता था। उसको बड़ा सहज लगता था कि बस बैठे-बैठे खाना मिलता है।

एक दिन गुरुजी पास के गांव में शास्त्रार्थ करने गए। जाते समय बाकी शिष्यों को साथ ले गए परंतु इस शिष्य को समझा गए कि “हमारे आते तक सब शालिग्राम भगवान की सेवा करना, नहलाना, चंदन तिलक लगाना और जो भी मिले सब तुम्हारा होगा खा लेना।” शिष्य बड़ा खुश हो गया दो दिनों तक बहुत जमकर खाया भूल गया कि भगवान का भी कुछ काम करना है। तीसरे दिन एकादशी व्रत था। किसी ने कुछ खाने का सामान नहीं लाया पूजा-पाठ तो दूर भूख सताने लगी।

आश्रम के बाहर निकल कर देखा जामुन के पेड़ पर खूब सारे जामुन लगे हैं।  किन्तु, पहुँच से सब बाहर हैं। पत्थर बड़े बड़े थे । उसे निशाना नहीं बन रहा था उसने सोचा इतने सारे शालिग्राम है तो पत्थर ही है बस एक एक उठा जामुन पर दे मारा और भगवान की इच्छा जामुन भी खूब गिरते गए। सब शालिग्राम ऊपर मारने से पास में नदी बह रही थी पानी में जा गिरे। जब पेट भर गया तो उसे ध्यान आया कि गुरु जी आने वाले हैं अब शालिग्राम ढूँढेंगे तो कहाँ से दूँगा। उसने सोचा क्यों ना जामुन में टीका चंदन लगाकर उसी जगह रख दिया जाए। उसने वैसा ही किया। बड़े छोटे जामुन को जगह के अनुसार चंदन लगा कर रख दिया फूल पत्ती चढ़ाकर स्वयं पूजन में बैठ गया। गुरुजी आने पर देखते हैं कि फूल तो ज्यादा मात्रा में चढ़े हैं और पूजन भी विधिवत हो गया है। बहुत खुश हुए दूसरे दिन गुरुजी स्नान कर अपने सभी शालिग्राम को स्नान कराने के लिए उठाया तो देखा कि उठाए देखा कि माखियाँ भिनक रही हैं और शालिग्राम पिचके सूखे गीले पड़े हैं। उन्हें समझते देर न लगी।  फिर भी बुला कर शिष्य को पूछा उसने जवाब दिया “पुनि पुनि चंदन पुनि पुनि पानी ठाकुर गवागे हम का जानी।” उसने कहा आप ही ने उन्हें रोज नहलाने और चंदन टीका के लिए कह गए थे। बार-बार नहलाने से शायद ऐसे हो गए हैं। आपके शालिग्राम और कहीं गए। हमें कुछ नहीं मालूम शिष्य के भोलेपन से गुरुजी को समझते देर न लगी कि जामुन तोड़कर खुद खाया और जामुन को ही रख दिया है पूजा पाठ करके। पर क्या करें ऊपर से कड़क होते गुरु जी ने कहा जाओ  नदी में सब शालिग्राम नहा रहे हैं। सबको निकाल कर ले आओ।

शिष्य गुरु जी की बात मानकर नदी चला गया और खुशी-खुशी लौट आया। यह थी शालिग्राम और जामुन की कहानी।

रामायण में शालिग्राम का वर्णन करते तुलसीदास बताते हैं कि एक समय था नल और नील दोनों भाई ऋषि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। बहुत ही चंचल चपल चतुर सभी ऋषियों को हमेशा तंग करना उनका काम था। आश्रम में सभी ऋषि मुनि उनकी दुष्टता से परेशान थे। कहीं भी मौका मिलता सभी के शिवलिंग और शालिग्राम भगवान को नदी में फेंक दिया करते थे। पूजन के समय पर जब अपनी जगह पर शिवलिंग ना पाकर सभी दुखित हो जाते थे। एक दिन ब्रह्म ऋषि आश्रम में तपस्या कर रहे थे। दोनों भाई नल और नील आकर उनका शिवलिंग उठाकर नदी पर फेंक आए। उन्होंने दोनों को श्राप दे दिया ‘जाओ आज के बाद तुम जिस पत्थर को भी या चीज को भी नदी में बहाओगे नदी के ऊपर तैरने लगेगा। ‘ नल नील की शैतानियां बंद हो गई क्योंकि कुछ भी डाल देते तो वह नदी पर और किनारे आ जाता। उन्होंने नादानी में न जाने कितने बानर और ऋषि-मुनियों को उठाकर नदी में फेंका था। फिर क्या था जब भगवान को नदी में डाल देते थे उनका सामान एक किनारे लग जाता था। इसकी वजह से दोनों बहुत व्याकुल थे परंतु प्रभु की इच्छा जब रामावतार में प्रभु राम सीता माता की खोज करने वानर भालू के साथ विराट और अथाह समुद्र को पार करने का और लंका जाने के लिए बहुत ही आशंकित थे कि इतना बड़ा समुद्र कैसे पार किया जाएगा। परंतु तभी उनको विभीषण जी ने बताया कि “प्रभु आपके वानर सेना में नल और नील दो ऐसे वानर हैं जिनके द्वारा फेंके गए पत्थर और चट्टानें पानी पर तैरने लगते हैं इस प्रकार हम इस पर बांध बनाकर जा सकते हैं।”

इसका वर्णन रामायण की निम्न चौपाई में इस प्रकार है:-

 

“नाथ नील नल कपि दो भाई लरिकाई ऋषि आशीष पाई।

तिन्ह के परस किए गिरी भारे तरिहहीं जलधि प्रताप तुम्हारे।”

 

बस फिर क्या था नल नील प्रभु का नाम लिख लिख कर समुद्र पर पत्थर फेंकते गए और रामेश्वरम के ऊपर जो पुल का निर्माण हुआ है वह बन गया। नल नील के द्वारा बनाया गया पुल आज भारतीय संस्कृति को देखने को मिल रहा है। उनका श्राप वरदान बना और आज भारत अखंड में एक रामेश्वरम पुल है।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

Please share your Post !

Shares

कला/Arts ☆ Rajasthani Folk Singer ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

 

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi ji  for sharing his literary and art works.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. We present his oil painting  “Rajasthani Folk Singer”.)

 

☆ Rajasthani Folk Singer ☆

 

An attempt to write a poetry with brush …….. Rajasthani Folk Singer …..Oil on canvas! 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #11 – स्पर्शगंध… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  ग्यारहवीं कड़ी स्पर्शगंध…  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  आज पढ़िये स्पर्शगंध… एक वार्तालाप, संभवतः स्वयं से? इस शृंखला की  कड़ियाँ आप आगामी  प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। ) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी  – #11  ? 

 

☆ स्पर्शगंध… ☆

 

जाणिवेत पुरून उरतो तो…

कळतंय का, मी काय म्हणत्ये ते?

असाच आहेस, सगळं माझ्याकडून ऐकायचं असतं तुला, हो ना!

पण खरं सांग, हा अनुभव तुलाही आलाय ना !

म्हणजे बघ ना, फुलं हातात घेतली की त्यांचा मुलायम स्पर्श गुदगुल्या करतो, चेहऱ्यावर आपोआप हास्य खुलतं, आणि ह्याचा स्पर्शाचा सुगंध अंगभर पसरतो, दरवळतो… तो परिमळ अवतीभोवती प्रसन्नता ठेवून जातो…

एखाद्या तान्ह्याला उचलून घे, मग बघ काय होतं ते… इंग्लिशमध्ये bundle of joy म्हणतात ते उगीच नाही… ते गोंडस रूप डोळ्यात भरून घ्यावं, त्याच्या इवल्या इवल्या बोटांचा स्पर्श हृदयाचा ठाव घेतो… त्याला खाली ठेवलं तरी निरागसतेचा गंध वातावरण उत्साही करतो… एक निर्मळ आनंद देऊन जातो… नवनिर्मितीचा ध्यास पूर्ण करतो, नवीन नात्यांची वीण गुंफू लागतो…

शाळा सुरू व्हायच्या आधी नवीन पाटी, पुस्तकं, वह्या, दप्तर ह्यांच्या स्पर्शाने जीवनाची दिशा ठरवली जाते, आणि ज्ञानरुपी सुगंधाने आयुष्य समृद्ध होते… हा स्पर्शगंध आयुष्य घडवतो, माणूस घडवतो…

बरसणारी प्रत्येक सर मातीच्या कणाकणाला स्पर्शून जाते, आणि सृजनातल्या तृप्ततेचा गंध आसमंताला गवसणी घालतो…

असाच असतो हा स्पर्शगंध… हवाहवासा… जसा तुझ्या मिठीतील स्पर्शातून भावनांना मोकळं करून जबाबदारीच्या गंधातून आपलं अस्तित्व टिकवणारा…

क्षितिजाला नजरेनेच स्पर्शून स्वप्नांचा दरवळ आयुष्य जगायला शिकवतो…

सूर्योदय, सूर्यास्त ह्यांची बात काही वेगळीच आहे… जन्म ह्या जाणिवेला क्षणोक्षणी फुलवत, विधात्याच्या परीस स्पर्शाने, आपल्या पावलांचे ठसे मागे ठेवत अनुभवाचा गंध मृत्यूला सामोरं जायची शक्ती देणारा असतो…

कळतंय का तुला?

आता तू काय म्हणणार आहेस हे तुझ्या स्मित हास्यातून कळतंय बरं…

माझ्यावरील प्रेमामुळे तू हे बोलतोस, पण तुझा स्पर्शगंध अंग अंग मोहरून टाकतो, जो आर्ततेच्या स्पर्शातून पूर्णत्वाच्या गंधाकडे नेतो… तुझ्या विचारांचा स्पर्श जेव्हा शब्दांमधून गंधाळतो, तेव्हा समर्पणाची गझल बनते, जसा तुझ्या ओठांचा स्पर्श होताच मुरली संगीत सुगंधाचे वेड लावते…

मग तुझं माझं असं काही उरत नाही, कारण तो स्पर्शगंध तुझ्या माझ्यातील अंतर नष्ट करून सावळ्या रुपात विलीन होतो…

 

© आरुशी दाते, पुणे 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ नाते ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झालक  देखने को मिलती है। हम भविष्य में आपके उत्कृष्ट साहित्य की अपेक्षा रखते हैं। आज प्रस्तुत है उनका आत्मकथ्य “नाते ”।) 

 

नाते 

 

अगदी खरं आहे सायली तुझं.तूही माझी लेकच आहेस.

तुझी माझी ओळख तरी कशी झाली,तू नगरची मी सातारानिवासी.पण माझा मुलगा अनिल नगरला होता त्यामुळे मी फेब्रुवारी २००१ मध्ये तिकडं आले होते.माझ्या योगगुरुंच्या आज्ञेनुसार नगरला मी “विनामूल्य योगवर्ग “घेणार म्हणून आम्ही “केदार अपार्टमेंट , सहकारनगर येथे रहात असल्याने त्या बिल्डींगच्या तळमजल्यावरील भाजीच्या दुकानात एका चिकटलेल्या कागदावरील योगवर्गाची माहिती बघून तू वरच्या मजल्यावर चौकशीसाठी आलीस आणि पहिल्या दृष्टभेटीतच आपल्या नात्याच्या तारा जुळल्या.

हे तू वर्ग पूर्ण झाल्यानंतर त्यावेळी “तरुण भारत मुक्तमंच “ला दिलेल्या तुझ्या बातमीत नमूद केले होतेस.माझ्याकडून तुला किंवा वर्गाला मिळालेल्या योगासने, निसर्गोपचार व अन्य मोलाच्या माहितीमुळे तू खूप प्रभावित झालीस व माझं नातं तुझ्याशी घट्ट विणलं गेलं.गेल्या १८ वर्षात ते इतकं सुबक आणि सुंदर झालं की त्याचं रुपांतर मायलेकीच्या नात्यात कधी झालं ते कळलंच नाही.

नगरला मी पाहुणी असूनही तू मला तिथल्या अनेक उपक्रमात सहभागी नुसतं करुन घेतलं नाहीस तर नगरवासियांना वर्तमानपत्रातील बातम्यांद्वारे माझा परिचय करुन दिलास.हे मी कधीच विसरु शकत नाही.नगरच्या आपल्या एकूण सहा सात वर्षांच्या सहवासाने आपलं नातं खूप दाट विणलं गेलं. माझा किंवा घरातील सर्वाचे वाढदिवस लक्षात ठेऊन पहिला शुभेच्छा फोन तुझाच असतो.आता तर आपण वाटस्अॅपवर अखंड जोडलेल्या आहोतच !

यालाच तर म्हणतात खरं   नातं प्रेमाचं,आपलेपणाच,   अगदी निरपेक्ष !!

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा 

 

Please share your Post !

Shares

योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Surya Namaskara: SALUTATIONS TO THE SUN ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

 

Surya Namaskara: SALUTATIONS TO THE SUN

 

Video Link : Surya Namaskar: SALUTATION TO THE SUN

 

Surya namaskara is a well-known and vital technique within the yogic repertoire. It is a practice which has been handed down from the sages of vedic times. Surya means ‘sun’ and namaskara means ‘salutation’.

It is a technique of solar vitalization, a series of exercises which recharge us like a battery, enabling us to live more fully and joyfully with dynamism and skill in action.

Surya namaskara is a series of twelve physical postures. These alternate backward and forward bending asanas flex and stretch the spinal column and limbs through their maximum range. The series gives such a profound stretch to the whole body that few other forms of exercise can be compared with it. It is almost a complete sadhana in itself, containing asana, pranayama and meditational techniques within the main structure of the practice.

It also has the depth and completeness of a spiritual practice. Surya namaskara can be easily integrated into our daily lives as it requires only five to fifteen minutes’ practice daily to obtain beneficial results remarkably quickly.

SURYA NAMASKARA – A TECHNIQUE OF SOLAR VITALIZATION BY SWAMI SATYANANDA SARASWATI

(This is only a demonstration to facilitate practice of the asanas. It must be supplemented by a thorough study of each of the asanas. Careful attention must be paid to the contra indications in respect of each one of the asanas. It is advisable to practice under the guidance of a yoga teacher.)

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

 

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (12) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय )

 

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌।।13।।

 

मैनें चार वर्ण गुण-कर्मो के अनुसार बनाये हैं

कर्ता हो भी पार्थ,अकर्ता के से गुण अपनाये हैं।।13।।

 

भावार्थ :  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।।13।।

 

The fourfold caste has been created by Me according to the differentiation of Guna and Karma; though I am the author thereof, know Me as the non-doer and immutable. ।।13।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

Please share your Post !

Shares
image_print