(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poem Shattered, Yet Unbreakable…We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा -ब्रेन ड्रेन।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 44 – लघुकथा – ब्रेन ड्रेन
“क्या बात है शुक्ला जी, आजकल सैर करते हुए नज़र नहीं आते? सब ठीक तो है न?”
“जी बोस दादा, सब ठीक ही है। बेटे इंजीनियरिंग करके अब विदेश जाने की तैयारी कर रहे हैं और मैं ओवरटाइम करके धन जुटाने में लगा हूँ। “
“हमारी हालत देख रहे हैं न शुक्ला जी, पच्चीस वर्ष पहले हमें भी शौक चढ़ा था विदेश में भेजकर बच्चों को बेहतर जिंदगी देने की। पर देख लीजिए, अब तो हमने भी जाना बंद कर दिया उनके पास क्योंकि इस 80 साल की उम्र में ना तो हमसे यह यात्रा सहन होती है और न आपकी भाभी जी को। नाती – पोते सब बड़े हो गए। अब बस वीडियो कॉल का सहारा है। “
बोसदादा एक साँस में बोल गए।
फिर कुछ रुककर बोले – “वैसे तो बाकी सब ठीक है पर तकलीफ़ तब होती है साहब जब इस बुढ़ापे में सहारे के नाम पर अपनी औलादें पास नहीं होतीं। वैसे सब तो ठीक चल रहा है पर जब बीमार पड़ते हैं और अस्पतालों के चक्कर लगाने पड़ते हैं तब पड़ोसियों पर निर्भर करना पड़ता है। “
“फिर आजकल देश में नौकरियों की कमी कहाँ है? सुना है आजकल आई.टी कंपनियाँ लाखों की सैलरी देती हैं। ” बोस दादा एक ही साँस में बोल गए।
“बेटों से कहिए इसी शहर में रहकर अगर कहीं बेहतर काम मिलता हो तो विदेश में जाकर सेकंड सिटीजन बंनकर, कलर डिस्क्रिमिनेशन सहकर, लोकल को मिलनेवाली सैलरी से कम तनख्वाह लेकर काम क्यों करें !” ये बातें ऐसे कही गई मानो अनुभवों की सच्ची पिटारी ही खोल दी गई हो।
“समझा सकते हैं तो समझाइए, वरना आगे उनकी मर्ज़ी। यह गलती हमने तो कर दी है वह गलती अब आप लोग ना करें तो बेहतर। वरना हमारे देश में भी वृद्धा आश्रमों की संख्या बढ़ती ही जाएगी। अच्छा चलता हूँ। “
कुछ दिन बाद शुक्ला जी जॉगिंग करते दिखे।
“वाह! क्या बात है शुक्ला जी! अब सुबह -सुबह दौड़ते हुए ऩज़र आ रहे हैं ? तबीयत भी अच्छी लग रही है ! खुश भी लग रहे हैं! कोई खुश खुशखबरी है क्या ?”
जॉगिंग करते हुए शुक्ला जी रुक गए बोले-
“जी बोस दादा, आप से बात होने के बाद उस दिन घर जाने पर हमने अपने बच्चों से बातें की। कई उदाहरण दिए और सबसे बड़ा आपका उदाहरण दिया, क्योंकि बच्चे आपको बहुत समय से देख रहे हैं फिर अकेलेपन, बीमारी आदि की अवस्था में अगर बच्चे अपने पास ना हों तो फिर नि:संतान होना ही बेहतर है ना!”
मानो शुक्ला जी अब बोस दादा की सच्चाई से अवगत हो बोल रहे थे।
“इतना ही नहीं हमने दोनों लड़कों को काउंसलेर से भी मिलवाया और उन्होंने कई बातें बच्चों के सामने रखीं। “
“आज देश उन्नति के शिखर पर है। देश को अच्छे उच्च शिक्षित और कर्मठ लोगों की आवश्यकता है। इस ब्रेन ड्रेन से देश का बड़ा नुकसान होता है। बोसदादा ने अपने मत प्रकट किए।
सच कहा आपने दादा और फिर पता नहीं क्या सोच कर दोनों बच्चों ने जी आर ई की पढ़ाई छोड़ दी। आपको तो पता है जुड़वा बच्चे हमेशा एक जैसा ही निर्णय लेते हैं। हमारे बच्चों ने भी यही निर्णय लिया। “
“दोनों को कॉलेज में रहते हुए ही कंपनी सिलेक्शन से जो नौकरी मिली थी उसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। हाँ इस वक्त सैलरी कम है क्योंकि पहले उन्होंने मना कर दिया था। पर साल 2 साल में सब कुछ ठीक हो जाने का आसरा भी उन्होंने दिया है। “
“बच्चे पास में होंगे तो कम ज्यादा में गुज़ारा भी हो जाएगा। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया बोस दादा, उस दिन आपका मार्गदर्शन ना होता तो रिटायरमेंट के बाद भी मैं बच्चों को बाहर पढ़ाने के चक्कर में कहीं ना कहीं फिर नौकरी करता रहता। “
“अब मुझे उसकी चिंता नहीं। बच्चे समझ गए। पहले थोड़े से उदास हुए और उसके बाद प्रैक्टिकली सोचकर उन्होंने यही निर्णय लिया। आएँगे बच्चे आपसे मिलने। आपके मार्गदर्शन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। “
बोस दादा ने लाठी समेत अपना दाहिना हाथ ऊपर कर दिया फिर बायाँ हाथ ऊपर किया दोनों हाथ जोड़े ऊपर आकाश की ओर देखे और बोले – “लाख-लाख शुक्र है भगवान तेरा एक घर टूटने से तो बच गया। “
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा – “मन चंगा तो कठौती में गंगा…” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 333 ☆
लघुकथा – मन चंगा तो कठौती में गंगा… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
उसका पुश्तैनी मकान प्रयाग में है संगम के बिल्कुल पास ही। पिछले साल दो साल से जब से कुंभ के आयोजन की तैयारियां शुरू हुई , उसकी सामान्य दिनचर्या बदलने पर वह मजबूर है। मेले की शुरुआत में परिचितों, दूर पास के रिश्तेदारों, मेहमानों के कुंभ स्नान के लिए आगमन से पहले तो बच्चे, पत्नी बहुत खुश हुए पर धीरे धीरे जब शहर में आए दिन वी आई पी मूवमेंट से जाम लगने लगा, कभी भगदड़ तो कभी किसी दुर्घटना से उसकी सरल सीधी जिंदगी असामान्य होने लगी । दूधवाला, काम वाली का आना बाधित होने लगा तो सब परेशान हो गए । इतना कि, आखिर उसने स्वयं ऑफिस से छुट्टी ली और घर बंद कर कुंभ मेले के पूरा होने तक के लिए सपरिवार पर्यटन पर निकलने को मजबूर होना पड़ा ।
प्रयाग की ओर उमड़ती किलोमीटरों लंबी गाड़ियों के भारी काफिले देख कर उसे कहावतें याद आ रही थी, देखा देखी की भेड़ चाल, मन चंगा तो कठौती में गंगा ।
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे – संदर्भ कुम्भ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 162 – मनोज के दोहे – संदर्भ कुम्भ ☆
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “छिलके वाली दाल …“।)
अभी अभी # 603 ⇒ छिलके वाली दाल श्री प्रदीप शर्मा
यह कथा द्वापर के कृष्ण सुदामा की नहीं, कलयुग के ऐसे दो दोस्तों की है, जहां मुट्ठी भर चावल नहीं, कटोरी भर मूंग की छिलके वाली काली दाल अपना कमाल बताती है।
यहां सांदीपनी आश्रम की जगह इंदौर का तब का शासकीय माध्यमिक क्रमांक १ है, जब मैं और मेरा दोस्त उसमें पढ़ते थे।
हम में से कोई कृष्ण नहीं, कोई सुदामा नहीं, लेकिन मित्रता उतनी ही गहरी।।
गुरुकुल के ज्ञानार्जन के पश्चात् हम कहां और हमारा मित्र कहां। कई बरसों बाद वापस महात्मा गांधी मार्ग पर दोनों का पुनर्मिलन हुआ, और दोस्ती रंग लाई। तब तक वह मुंबई से आय आय टी भी कर चुका था, और अच्छी भली नौकरी को लात मार, यहीं इंदौर में अपने परिवार के व्यवसाय में हाथ बंटाने लगा था। फिर भी उसकी हैसियत कृष्ण जितनी नहीं थी और ना ही मेरी परिस्थिति सुदामा के समान, जो सदा कृष्ण भक्ति में ही डूबा रहता था।
कलयुग की मित्रता कृष्ण सुदामा जैसी हो ही नहीं सकती। कहां वह दोनों का भव्य स्वरूप और दिव्य भक्ति भाव और कहां आज की औपचारिक और व्यवहार कुशल मित्रता।।
हमें गर्व है कि इस कलयुग में भी हमारी मित्रता पिछले ६० वर्षों से यथावत चली आ रही है। इसी तारतम्य में एक बार हमारे मित्र ने हमें भोजन पर आमंत्रित किया। यह पहली बार नहीं था। हम चूंकि सुदामा नहीं और वह कृष्ण नहीं, इसलिए वह भी कई बार हमारी कुटिया पर पधार चुका था। (आजकल अच्छे भले घर को भी कुटिया कहने का प्रचलन जो है)।
नियत दिन, शाम के समय में हम उनके घर पर दावत के लिए उपस्थित हो चुके थे। हम दोनों स्वास्थ्य के प्रति पूरी तरह जागरूक हैं और आहार में वह भी सात्विक है और मैं भी।
थाली में छप्पन व्यंजन तो थे नहीं, एक सूखी सब्जी और गर्म रोटी के अलावा एक कटोरी में स्वास्थ्य वर्धक काले मूंग की छिलके वाली जीरा फ्राई दाल, और पापड़, सलाद, चटनी भी थी।।
दाल तो मैने बहुत खाई थी, लेकिन इस दाल में कुछ विशेषता ऐसी थी, जिसके कारण इसकी तुलना सुदामा के चावल से की जा सकती है। इसकी सबसे बड़ी खूबी थी, कि यह दाल सिर्फ छिलके वाली थी, यानी उसमें दाल मौजूद ही नहीं थी।
ऐसी पतली दाल हमने बहुत खाई होगी, जहां डुबकी मारने पर भी दाल ढूंढने को नहीं मिले, पर हमारी दाल में तो सिर्फ छिलके ही छिलके थे, दाल थी ही नहीं। वैसे भी देखा जाए तो सब कुछ छिलके में ही तो है। यह होती है भाव की पराकाष्ठा।।
शबरी के झूठे बेर हमें याद है, खुद केला खाकर अपने आराध्य को छिलका खिलाना भी दिव्य भक्ति का ही द्योतक है, लेकिन दाल की जगह सिर्फ छिलके की मिसाल ही हमारी मित्रता की असली पहचान है।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 118 ☆ देश-परदेश – मत चूको चौहान ☆ श्री राकेश कुमार ☆
मौके पर चौका लगाना चाहिए। ये सब दशकों से सुनते आ रहे हैं। विगत वर्ष ” राष्ट्रीय आडंबर विवाह ” सम्पन्न हुआ था। हमने उक्त परिवार के एक खास से पूछा, हमें बुलाना भूल गए थे। उसने तत्परता से बताया यदि हम उसको अपनी दिल की बात पहले बता देते तो इटली से लेकर जामनगर सभी कार्यक्रम में शिरकत कर चुके होते। दिल की बात बताने में हम हमेशा लेट लतीफ़ ही रहते हैं। युवा अवस्था में अपने पहले प्यार का इज़हार करने में भी चूक गए थे। खैर छोड़िए “अब पछताए होत क्या जब चिड़िया ही दूसरे के साथ उड़ गई”
उक्त विवाह में भाग ना ले सकने का दुःख के लिए बस इतना ही कह सकते हैं, कि ” जिस तन लागे, वो तन जाने”
इस बार हमने मत चूको चौहान को अपना अड़ियल मानते हुए, दूसरे घराने के परिवार के विवाह के निमंत्रण प्राप्त करने के लिए ” सारे घोड़े खोल दिए” थे। अपने मुम्बई की पोस्टिंग्स के कॉन्टैक्ट्स हो या, दिल्ली की सत्ता के गलियारे वाले संबंध हो। यहां ये स्पष्ट कर देवे, इसी मौके के लिए विगत वर्ष हमने दस दिन का गुजरात दौरा भी किया था।
लाखों जतन कर लो पर होता वही है, जो लिखा होता है। दूसरे परिवार ने तो इतनी सादगी से विवाह किया, कि पड़ोसियों को भी नहीं बुलाया हैं, फिर हम किस खेत की मूली हैं।
इस सादगी पूर्ण विवाह के लिए दूसरे परिवार का साधुवाद।
☆ नेत्रदान–एक राष्ट्रीय गरज :👁️👁️ – लेखक : श्री. वि. आगाशे ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆
जगातील एकूण नेत्रहीन व्यक्तिंपैकी २० टक्के म्हणजे सव्वा कोटी नेत्रहीन भारतात असून त्यातील ३० लाख नेत्रहीन व्यक्तिंना नेत्ररोपणाने दृष्टी प्राप्त होऊ शकते. सगळ्याच नेत्रहीनांना नेत्ररोपणाने दृष्टी मिळू शकत नाही. ज्यांची पारपटले निकामी झाली आहेत, परंतु बाकीचा डोळा चांगल्या स्थितीत आहे, त्यांनाच दृष्टी प्राप्त होऊ शकते कारण नेत्ररोपण म्हणजे संपूर्ण डोळ्याचे रोपण नव्हे तर फक्त ह्या पटलाचेच रोपण होय. ह्यालाच सर्वसाधारणपणे आपण नेत्ररोपण म्हणतो. मृत व्यक्तींच्या नेत्रदानामुळेच हे नेत्ररोपण करणे शक्य होते. नेत्रदान हे रक्तदानाप्रमाणे जिवंतपणी नव्हे तर ते मरणोत्तरच करावयाचे असते. कुठल्याही जिवंत व्यक्तीस नेत्रदान करता येत नाही.
तीस लाखांना दृष्टी देणे आपल्याला सोपे वाटेल, पण तसे नाही, कारण आपली भयानक, तिडीक आणणारी निंद्य अनास्था आणि मला काय त्याचे ही वृत्ती!😪
दरवर्षी भारतात सुमारे ८० लाख मृत्यु होतात. परंतु ह्यातील फक्त सुमारे ३० हजार व्यक्तींचेच नेत्रदान होते. भारतात जी नेत्ररोपणे होतात त्यासाठी मोठ्या प्रमाणात दान केलेले नेत्र हे श्रीलंकेसारख्या आपल्या छोट्याशा शेजारी राष्ट्राकडून आलेले असतात. भुवया उंचावल्या ना? ही भयानक वस्तुस्थिती आपल्यासारख्या १४० कोटी लोकसंख्येच्या मोठ्या राष्ट्राला आत्यंतिक लाजिरवाणीच नव्हे काय?
आपला देश विविध आघाड्यांवर स्वयंपूर्ण होत आहे. तो ह्या आघाडीवरही स्वयंपूर्ण व्हावा असे आपल्यासही नक्कीच वाटेल. म्हणूनच ही एक राष्ट्रीय गरज ठरते.
नेत्रदान कोण करू शकते?
* जन्मजात बालकापासून अगदी १०० वर्षांच्या स्त्री-पुरुषांपर्यंत कोणाचेही नेत्रदान होऊ शकते.
* कोठल्याही प्रकारचा चष्मा लावणारे, मोतीबिंदूची शस्त्रक्रिया झालेले, मधुमेही आणि रक्तदाब पिडीतही नेत्रदान करू शकतात.
* मृत व्यक्तिस एड्स, अलार्क (रेबीज), कावीळ, कर्करोग, सिफीलीस, धनुर्वात किंवा विषाणूंपासून होणारे रोग, तसेच नेत्रपटलाचे रोग असल्यास अशा व्यक्तिंचे नेत्र रोपणासाठी निरुपयोगी ठरतात. परंतु ही नेत्रपटले सराव आणि संशोधनासाठी वापरतात. तेव्हा अशा व्यक्तिंचे नेत्रदान व्हावे की नाही हे कृपया नेत्रपेढीच्या डॉक्टरांनाच ठरवू द्यावे. आपणच काहीतरी ठरवू नये.
* अपघातात मृत झालेल्या व्यक्तिंचे डोळे, म्हणजेच नेत्रपटल चांगल्या स्थितीत असल्यास स्थानिक पोलीस अधिकाऱ्यांच्या परवानगीने नेत्रदान होऊ शकते.
* ज्यांचे पारपटल चांगले आहे, परंतु इतर काही दोषांमुळे अंधत्व आलेले आहे अशा अंधांचेही नेत्रदान होऊ शकते. म्हणजेच अशा अंध व्यक्तीही नेत्रदान करू शकतात.
* *मृत्युनंतर लवकरात लवकर, ३ ते ४ तासांपर्यंत (अपवादात्मक स्थितीत ६ तासांपर्यंत) नेत्रदान होणे आवश्यक असते. म्हणूनच नेत्रदानाची इच्छा मृत्युपत्रांत व्यक्त करु नये. ते निरर्थक असते. कारण मृत्युपत्र काही दिवसांनंतरही उघडले जाते.
* नेत्रदानासाठी जवळच्या नेत्रपेढीचे प्रतिज्ञापत्र मात्र जरुर भरावे. त्यातून आपली इच्छा लेखी स्वरुपात व्यक्त होऊन ती साक्षीदार म्हणून सही करणाऱ्या जवळच्या नातलगांना वारसांना माहीत होते. आपली इच्छा जवळचे नातलग, शेजारी, मित्र-मैत्रिणी ह्यांनाही आवर्जून सांगावी, किंबहुना प्रतिज्ञापत्र भरताना ते सामूहिकपणे, एकत्र बसून चर्चा करून भरणे सर्वोत्तम होय! त्यातून आपली इच्छा आणि ह्या कार्यासही एक सामूहिक बळ प्राप्त होते. तसेच आपली इच्छा फलद्रुप होण्याची शक्यता वाढते.
* नेत्रपेढीकडून आपल्यास डोनर कार्ड मिळते. आपण नेत्रदान केलेले असल्याचे दर्शविणारे हे कार्ड कायम आपल्यासोबत बाळगावे.
* आपल्या डायरीत आसपासच्या सर्व नेत्रपेढ्यांचे दूरध्वनी क्रमांक ठळकपणे नोंदवून ठेवावेत तसेच भिंतीवरही लावावेत.
* नेत्रदात्याच्या मृत्युनंतर नेत्रपेढीला लगेच नेत्रदानाविषयी कळविणे महत्त्वाचे असून हे काम नातलग, शेजारी, मित्र-मैत्रिणी करु शकतात. त्या वेळेच्या भावनात्मक स्थितीचे कारण काही जण सांगतात परंतु ते लटके आहे. अशा स्थितीतच जेव्हा आपण नातलग, ओळखीच्यांना वगैरे दूरध्वनीवरून कळवितो तसेच नेत्रपेढीलाही दूरध्वनीवरुन कळवायचे एवढेच!
* मृत व्यक्तिने ज्या नेत्रपेढीचे प्रतिज्ञापत्र भरले आहे त्याच नेत्रपेढीला कळविणे आवश्यक नाही. त्या ठिकाणच्या जवळच्या नेत्रपेढीला कळविणे वेळेच्या दृष्टीने महत्त्वाचे आहे.
* मृत व्यक्तिने प्रतिज्ञापत्र भरलेले नसतानाही वारसदार व्यक्ती मृत व्यक्तिचे नेत्रदान नेत्रपेढीला कळवून करु शकतात. ह्या दृष्टिने नेत्रदानाचे महत्त्व, राष्ट्रीय आवश्यकता पाहता कळकळीचे आवाहन करावेसे वाटते की आपल्या परिसरात, नात्यात कुणाचा मृत्यू झाल्यास मृत व्यक्तिच्या नातलगांना नेत्रदानाविषयी जरुर सुचवावे, त्यासाठी प्रवृत्त करण्याचे प्रयत्न करावेत. अशा प्रकारे जिवंतपणीच आपण नेत्रदानविषयक मोठे काम करु शकाल.
* नेत्रदानास धार्मिक बंधन नाही. कोठला धर्म अशा महान कार्यास विरोध करेल ?
नेत्रपेढीला कळवितानाच खालील बाबी पार पाडाव्यात –
* डॉक्टरांकडून मृत्यू प्रमाणपत्र त्वरित मिळवावे. शक्यतो त्यांनाच १० सी. सी. रक्ताचा नमुना घेऊन ठेवण्यास सांगावे.
* मृताचे डोळे व्यवस्थित बंद करुन पापण्यांवर बर्फ अथवा ओल्या कापसाच्या/कापडाच्या घड्या ठेवाव्यात. शक्य असल्यास डोळ्यात जरुर आयड्रॉप्स टाकावेत.
* पंखे बंद करावेत तसेच वातानुकुलन यंत्र असल्यास ते जरुर चालू ठेवावे. जवळ प्रखर दिवे नसावेत.
* मृत व्यक्तिस शक्यतो कॉटवर ठेवावे आणि मृत व्यक्तिचे डोके २ उशांवर ठेवावे.
* नेत्रपेढीला कळविल्यावर नेत्रपेढीचे डॉक्टर मृत व्यक्ती जेथे असेल तेथे येऊन अर्ध्या तासात नेत्र काढून नेतात, त्यासाठी जंतुविरहित खोलीची आवश्यकता नसते. नेत्र काढल्यावर कृत्रिम नेत्र किंवा कापसाचे बोळे ठेवून पापण्या व्यवस्थितपणे बंद केल्या जातात त्यामुळे मृत व्यक्तिचा चेहरा विद्रूप दिसत नाही.
* हे नेत्र खास फ्लास्कमधून नेत्रपेढीत नेले जातात. त्यावर काही प्रक्रिया करून ४८ तासांच्या आत नेत्रपेढीच्या प्रतीक्षा यादीप्रमाणे दोन ते सहा नेत्रहीन व्यक्तींना बसविले जाऊन त्यांना नवजीवनच देण्याचे महान कार्य करतात.
* आपणही हे अमूल्य दान करु शकतो. कदाचित जीवनभर समाजाच्या उपयोगी पडलो नाही तरी मरणोत्तर नेत्रदानाने दोन ते सहा दृष्टिहिनांच्या रंगहीन जीवनात अमूल्य दृष्टिचे रंग भरु शकतो, त्यांना नवजीवनच देऊ शकतो.