श्री राजेन्द्र शर्मा ‘राही’
(श्री राजेंद्र शर्मा ‘राही’ (अभियंता), लेखक ,कवि एवं ज्योतिष विद का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। )
☆ आलेख वेदों में अंकगणितीय परम्परा… ☆ श्री राजेन्द्र शर्मा ‘राही’ ☆
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गणित की मुख्यतः तीन शाखाएं हैं – अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित।
अंकगणित को पाटी गणित भी कहा जाता है जब लकड़ी की पट्टी पर लिखकर हिसाब लगाया जाता था तब इसे पाटी गणित के नाम से जाना जाता था उस समय पाटी के उपर बालू या मिट्टी डालकर गड़ना करने की प्रथा भी थी जिसे धूलि कर्म कहा जाता था अंकों के उपयोग के कारण पाटी गणित को व्यक्त एवम अंक के साथ अक्षर के कारण बीजगणित को अव्यक्त गणित कहा जाता है।
वेद सबसे मुख्य प्राचीन एवम प्रमाणिक ग्रंथ है जिनकी कुल संख्या चार हैं, जिन्हें हम ऋग्वेद,यजुर्वेद,अथर्ववेद, सामवेद के नाम से जानते हैं वेदों की रचना ईसा से काफी वर्ष पहले हुई थी जिसमें हमें अंकगणित के प्रारम्भिक रूप के दर्शन होते हैं ।
इसी प्रकार संस्कृत साहित्य मुख्यतः दो भागों में विभक्त है वैदिक साहित्य एवं लौकिक साहित्य। वैदिक साहित्य के अंतर्गत वेद ब्राह्मण ग्रंथ,आरण्यक,उपनिषद, वेदांग आदि ग्रंथ आते हैं जबकि लौकिक साहित्य के अंतर्गत रामायण, महाभारत,काव्य,नाटक, पुराणादि ग्रंथ आते हैं। अंकगणित के बीज वैदिक साहित्य के साथ साथ लौकिक साहित्य में भी प्राप्त होते हैं।
आज हम आधुनिक गणित का जो परिष्कृत एवम उन्नत रूप देख रहे हैं इसके मूल में हमारे वेद ही हैं वेदों के अंतर्गत अंकगणित का अनेक जगह उल्लेख मिलता है ऋग्वेद के 10 वे मंडल के अक्ष सूक्त (10.34.02) मंत्र में द्युत विद्या अंतर्गत अक्षों के ऊपर एक दो तीन चार इत्यादि अंकों को लिपिबद्ध करने का वर्णन मिलता है इसी प्रकार इस मंडल के एक अन्य दूसरे मंत्र (10.34.08) में 53 संख्या का उल्लेख भी मिलता है इसी वेद अंतर्गत ऋषि एक अन्य मंत्र में कहते हैं कि एक स्थान पर मुझे ऐसी हजारों गायें देखने को मिली जिनके कान पर 8 का अंक लिखा हुआ था।
इंद्रेण युजा निः सृजन्त वाघतो व्रजम गोमन्त मशविनम सहस्त्रम मे ददतो अष्टकर्णय: श्रवो देवेश्वक्रतः
ऋग्वेद १०.६२.०७
अन्कानाम वामतो गति: प्राचीन काल से ही संख्या पद्धति के लेखन एवं उच्चारण में शब्दांक और संख्यांक में विपरीत गति है
ऋग्वेद के मंत्र (3.9.9) एवम (10.52.6)मंत्रों में अंकों को शब्दों में लिखने का वर्णन प्राप्त होता है
त्रिणी शतानी त्रिसहस्त्राणी त्रिंशत च नव च
इसी तरह ऋग्वेद के (1.20.7), (10.27.15) (1.32.14) (10.72.8) मंत्रों में अन्य संख्याओं के लेखन का वर्णन भी मिलता है ऋग्वेद के ही एक अन्य मंत्र में अलंकारिक रूप से तीन सौ साठ दिनों को एक चक्र में लगी हुई तीन सौ साठ कीलें बताया गया है।
वहीं यजुर्वेद में गणितीय तथ्य कर्मकांडों के साथ मिलते हैं मंत्र संख्या (17.2) में 10 की घात शून्य एवम दस की घात 12 तक की संख्याओं का वर्णन प्राप्त होता है जिनको निम्न तरीके से उल्लेखित किया गया है ।
एक, दश,शत(सौ),सहस्त्र (एक हजार), अयुत (दस हजार), नियुत (एक लाख),प्रयुत,(दस लाख),अरबुद,(एक करोड़), न्युरबुद (दसकरोड़), समुद्र(एक अरब),मध्य(दस अरब),अन्त(एक खरब),परार्ध(दस खरब) इस प्रकार परार्ध सबसे बड़ी संख्या के रूप में देखी गई है ।
यजुर्वेदीय याग पद्धति में संख्याओं की लेखन पद्धति को मंत्र संख्या (18.24,18.25) में स्पष्ट किया गया है ।
एका चमे त्रिस्तस्च चमे पञ्च चमे, सप्तस्चमे नवस्चमे एक्दश्चमे, द्वादश्चमे…. यज्ञेन कल्पन्ताम
इसका अर्थ है कि – 1, 3, 5, 7, 9, 11, 13, 15, 17, 19, 21, 23, 25, 27, 29, 31, 33 आदि प्रभृति अयुग्म साम मुझे यज्ञ में सिद्ध होवें।इसी प्रकार इन्हीं मंत्रों में 4, 8, 12, 16, 20, 24, 28, 32, 36, 40, 44, 48 प्रभृति स्वर्ग प्रामक युग्म स्तोम मुझे यज्ञ के द्वारा सिद्ध होवें। इस प्रकार
सख्याओं का वर्णन मिलता है जिन्हे रुद्राभिषेक के सप्तम अध्याय में भी उल्लेखित किया गया है।
इसी मंत्रांतर्गत अयुग्म संख्या(विषम संख्या )तथा युग्म संख्या (सम संख्या) का भी वर्णन देखने को मिलता है अयुग्म संख्या (१,३), (३,५), (५,७), (७,९), (९,११), (११,१३), (१३,१५), (१५,१७), (१७,१९), (१९,२१), (२१,२३), (२३,२५), (२५,२७),), (३७,२९), (३९,३१),और युग्म संख्या चार के पहाड़े के रुप में समानांतर श्रेणी एवम गुनोत्तर श्रेणी में वर्णित है।
(४,८), (८,१२), (१२,१६), (१६,२०), (२०,२४), (२४,२८), (२८,३२), (३२,४०), (४०,४४), (४४,४८),
यजुर्वेद के ही तेत्तरिय संहिता में मंत्र संख्या (७,२.११-२०) में विषम संख्याओं का विस्तृत विवेचन निम्न रूपों में प्राप्त होता है
१, ३. ५, ७, ९, ११, १३, १५, १७, १९, २९, ३९, ४९, ५९, ६९, ७९, ८९, ९९
इसके अलावा मंत्र संख्या (१४.२३) में जोड़ घटाव गुणन का भी वर्णन दिया हुआ है और मंत्र संख्या (8.30) में एक पदी, द्विपदी, त्रिपदी, चतुष्पदी क्रम आदि की संख्याओं का अभीष्ट गणितीय संयोजन मिलता है।
मंत्र संख्या( २३.२४) में सचछंदा, विचछंदा पदों का अर्थ है विभाज्य एवम अविभाज्य संख्याएं सम संख्याएं विभाजित होती है और विषम संख्याएं अविभाजित होती हैं यद्यपि कुछ विषम संख्याएं भी विभाजित होती हैं ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यजुर्वेद में गणितीय संख्याओं का उल्लेख विभिन्न रूपों में अधिक मिलता है ।
सामवेद के आरण्यक पर्व में भी ऋषि अग्निदेव की आराधना करते हुए विराट पुरुष के स्वरूप का संख्याओ के साथ वर्णन करते हैं विराट पुरुष हजारों सिर वाला, हजार नेत्रों वाला एवम हजार चरणों वाला होता है।
इसी प्रकार अथर्ववेद में भी गणितीय तथ्यों से संबंधित संख्यांक संख्याएं मूलगणितीय संक्रियाएं जोड़ ,घटाव गुणन प्राप्त होती है शून्य के सिद्धांत का उल्लेख सूक्त (५.१५) में किया है ।
इसी में मन्या विनाशन सूक्त के मंत्र (६.२५,१.३)में शुनः शेप ने गले के रोगों के निदान के लिए गणितीय अंकों का प्रयोग किया है गंडमाला रोग की गर्दन में ५५,ग्रीवा में ७७, कंधे में ९९ धमनियां उसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं जैसे पतिव्रता स्त्री के सामने दोषपूर्ण वचन अथर्ववेद के श्लोक (८.८.७,१०.८.२९) में भी अंकगणित के दर्शन मिलते हैं मंत्र संख्या (१३.५.१५ ,१५,१८) में एक से दस संख्याओं का वर्णन मिलता है अन्य सूक्त (५.१६) में ११ तक की संख्यायों का वर्णन मिलता है अथर्ववेद के मंत्र (१९.२३ )में बीस तक के अंकों की संख्या हवन विधि अंतर्गत निम्न रूप में दी गई है ।
पंच चरभेभ्य स्वाहा, सष्टाचेभ्य स्वाहा, सप्तचरभेभ्य स्वाहा …… विशति स्वाहा
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि हमारे ऋषि मुनियों को गणित का प्रारम्भिक ज्ञान था जो समय के साथ उन्नत एवम परिष्कृत होकर आज हमारे सामने है इस प्रकार गणित का मुख्यत: श्रेय हमारे ऋषि मुनियों को ही जाता है।जिन्हें वैदिक सभ्यता ही अंकगणित का ज्ञान था
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© श्री राजेन्द्र शर्मा राही
भोपाल
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈