हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ वेदों में अंकगणितीय परम्परा… ☆ श्री राजेन्द्र शर्मा ‘राही’ ☆

श्री राजेन्द्र शर्मा ‘राही’

(श्री राजेंद्र शर्मा ‘राही’ (अभियंता), लेखक ,कवि एवं ज्योतिष विद का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। )

☆ आलेख ✍ वेदों में अंकगणितीय परम्परा… ☆ श्री राजेन्द्र शर्मा ‘राही’ 

गणित की मुख्यतः तीन शाखाएं हैं – अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित। 

अंकगणित को पाटी गणित भी कहा जाता है जब लकड़ी की पट्टी पर लिखकर हिसाब लगाया जाता था तब इसे पाटी गणित के नाम से जाना जाता था उस समय पाटी के उपर बालू या मिट्टी डालकर गड़ना करने की प्रथा भी थी जिसे धूलि कर्म कहा जाता था अंकों के उपयोग के कारण पाटी गणित को व्यक्त एवम अंक के साथ अक्षर के कारण बीजगणित को अव्यक्त गणित कहा जाता है। 

वेद सबसे मुख्य प्राचीन एवम प्रमाणिक ग्रंथ है जिनकी कुल संख्या चार हैं, जिन्हें हम ऋग्वेद,यजुर्वेद,अथर्ववेद, सामवेद के नाम से जानते हैं वेदों की रचना ईसा से काफी वर्ष पहले हुई थी जिसमें हमें अंकगणित के प्रारम्भिक रूप के दर्शन होते हैं ।

इसी प्रकार संस्कृत साहित्य मुख्यतः दो भागों में विभक्त है वैदिक साहित्य एवं लौकिक साहित्य। वैदिक साहित्य के अंतर्गत वेद ब्राह्मण ग्रंथ,आरण्यक,उपनिषद, वेदांग आदि ग्रंथ आते हैं जबकि लौकिक साहित्य के अंतर्गत रामायण, महाभारत,काव्य,नाटक, पुराणादि ग्रंथ आते हैं। अंकगणित के बीज वैदिक साहित्य के साथ साथ लौकिक साहित्य में भी प्राप्त होते हैं। 

आज हम आधुनिक गणित का जो परिष्कृत एवम उन्नत रूप देख रहे हैं इसके मूल में हमारे वेद ही हैं वेदों के अंतर्गत अंकगणित का अनेक जगह उल्लेख मिलता है ऋग्वेद के 10 वे मंडल के अक्ष सूक्त (10.34.02) मंत्र में द्युत विद्या अंतर्गत अक्षों के ऊपर एक दो तीन चार इत्यादि अंकों को लिपिबद्ध करने का वर्णन मिलता है इसी प्रकार इस मंडल के एक अन्य दूसरे मंत्र (10.34.08) में 53 संख्या का उल्लेख भी मिलता है इसी वेद अंतर्गत ऋषि एक अन्य मंत्र में कहते हैं कि एक स्थान पर मुझे ऐसी हजारों गायें देखने को मिली जिनके कान पर 8 का अंक लिखा हुआ था। 

इंद्रेण युजा निः सृजन्त वाघतो व्रजम गोमन्त मशविनम सहस्त्रम मे ददतो अष्टकर्णय: श्रवो देवेश्वक्रतः

ऋग्वेद १०.६२.०७

अन्कानाम वामतो गति: प्राचीन काल से ही संख्या पद्धति के लेखन एवं उच्चारण में शब्दांक और संख्यांक में विपरीत गति है

ऋग्वेद के मंत्र (3.9.9) एवम (10.52.6)मंत्रों में अंकों को शब्दों में लिखने का वर्णन प्राप्त होता है

त्रिणी शतानी त्रिसहस्त्राणी त्रिंशत च नव च

इसी तरह ऋग्वेद के (1.20.7), (10.27.15) (1.32.14) (10.72.8) मंत्रों में अन्य संख्याओं के लेखन का वर्णन भी मिलता है ऋग्वेद के ही एक अन्य मंत्र में अलंकारिक रूप से तीन सौ साठ दिनों को एक चक्र में लगी हुई तीन सौ साठ कीलें बताया गया है। 

वहीं यजुर्वेद में गणितीय तथ्य कर्मकांडों के साथ मिलते हैं मंत्र संख्या (17.2) में 10 की घात शून्य एवम दस की घात 12 तक की संख्याओं का वर्णन प्राप्त होता है जिनको निम्न तरीके से उल्लेखित किया गया है ।

एक, दश,शत(सौ),सहस्त्र (एक हजार), अयुत (दस हजार), नियुत (एक लाख),प्रयुत,(दस लाख),अरबुद,(एक करोड़), न्युरबुद (दसकरोड़), समुद्र(एक अरब),मध्य(दस अरब),अन्त(एक खरब),परार्ध(दस खरब) इस प्रकार परार्ध सबसे बड़ी संख्या के रूप में देखी गई है ।

यजुर्वेदीय याग पद्धति में संख्याओं की लेखन पद्धति को मंत्र संख्या (18.24,18.25) में स्पष्ट किया गया है ।

एका चमे त्रिस्तस्च चमे पञ्च चमे, सप्तस्चमे नवस्चमे एक्दश्चमे, द्वादश्चमे…. यज्ञेन कल्पन्ताम

इसका अर्थ है कि – 1, 3, 5, 7, 9, 11, 13, 15, 17, 19, 21, 23, 25, 27, 29, 31, 33 आदि प्रभृति अयुग्म साम मुझे यज्ञ में सिद्ध होवें।इसी प्रकार इन्हीं मंत्रों में 4, 8, 12, 16, 20, 24, 28, 32, 36, 40, 44, 48 प्रभृति स्वर्ग प्रामक युग्म स्तोम मुझे यज्ञ के द्वारा सिद्ध होवें।  इस प्रकार

सख्याओं का वर्णन मिलता है जिन्हे रुद्राभिषेक के सप्तम अध्याय में भी उल्लेखित किया गया है। 

इसी मंत्रांतर्गत अयुग्म संख्या(विषम संख्या )तथा युग्म संख्या (सम संख्या) का भी वर्णन देखने को मिलता है अयुग्म संख्या (१,३), (३,५), (५,७), (७,९), (९,११), (११,१३), (१३,१५), (१५,१७), (१७,१९), (१९,२१), (२१,२३), (२३,२५), (२५,२७),), (३७,२९), (३९,३१),और युग्म संख्या चार के पहाड़े के रुप में समानांतर श्रेणी एवम गुनोत्तर श्रेणी में वर्णित है। 

(४,८), (८,१२), (१२,१६), (१६,२०), (२०,२४), (२४,२८), (२८,३२), (३२,४०), (४०,४४), (४४,४८),

यजुर्वेद के ही तेत्तरिय संहिता में मंत्र  संख्या (७,२.११-२०) में विषम संख्याओं का विस्तृत विवेचन निम्न रूपों में प्राप्त होता है

१, ३. ५, ७, ९, ११, १३, १५, १७, १९, २९, ३९, ४९, ५९, ६९, ७९, ८९, ९९

इसके अलावा मंत्र संख्या (१४.२३) में जोड़ घटाव गुणन का भी वर्णन दिया हुआ है और मंत्र संख्या (8.30) में एक पदी, द्विपदी, त्रिपदी, चतुष्पदी क्रम आदि की संख्याओं का अभीष्ट गणितीय संयोजन मिलता है। 

 मंत्र संख्या( २३.२४) में सचछंदा, विचछंदा पदों का अर्थ है विभाज्य एवम अविभाज्य संख्याएं सम संख्याएं विभाजित होती है और विषम संख्याएं अविभाजित होती हैं यद्यपि कुछ विषम संख्याएं भी विभाजित होती हैं ।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यजुर्वेद में गणितीय संख्याओं का उल्लेख विभिन्न रूपों में अधिक मिलता है ।

सामवेद के आरण्यक पर्व में भी ऋषि अग्निदेव की आराधना करते हुए विराट पुरुष के स्वरूप का संख्याओ के साथ वर्णन करते हैं विराट पुरुष हजारों सिर वाला, हजार नेत्रों वाला एवम हजार चरणों वाला होता है।

इसी प्रकार अथर्ववेद में भी गणितीय तथ्यों से संबंधित संख्यांक संख्याएं मूलगणितीय संक्रियाएं जोड़ ,घटाव गुणन प्राप्त होती है शून्य के सिद्धांत का उल्लेख सूक्त (५.१५) में किया है ।

इसी में मन्या विनाशन सूक्त के मंत्र (६.२५,१.३)में शुनः शेप ने गले के रोगों के निदान के लिए गणितीय अंकों का प्रयोग किया है गंडमाला रोग की गर्दन में ५५,ग्रीवा में ७७, कंधे में ९९ धमनियां उसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं जैसे पतिव्रता स्त्री के सामने दोषपूर्ण वचन अथर्ववेद के श्लोक (८.८.७,१०.८.२९) में भी अंकगणित के दर्शन मिलते हैं मंत्र संख्या (१३.५.१५ ,१५,१८) में एक से दस संख्याओं का वर्णन मिलता है अन्य सूक्त (५.१६) में ११ तक की संख्यायों का वर्णन मिलता है अथर्ववेद के मंत्र (१९.२३ )में बीस तक के अंकों की संख्या हवन विधि अंतर्गत निम्न रूप में दी गई है ।

पंच चरभेभ्य स्वाहा, सष्टाचेभ्य स्वाहा, सप्तचरभेभ्य स्वाहा …… विशति स्वाहा

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि हमारे ऋषि मुनियों को गणित का प्रारम्भिक ज्ञान था जो समय के साथ उन्नत एवम परिष्कृत होकर आज हमारे सामने है इस प्रकार गणित का मुख्यत: श्रेय हमारे ऋषि मुनियों को ही जाता है।जिन्हें वैदिक सभ्यता ही अंकगणित का ज्ञान था

 

© श्री राजेन्द्र शर्मा राही 

भोपाल 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 650 ⇒ नीचे गिरने की कला ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नीचे गिरने की कला ।)

?अभी अभी # 650 ⇒ नीचे गिरने की कला ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आप इसे आकर्षण कहें या गुरुत्वाकर्षण, गिरना पदार्थ का स्वभाव है। जंगलों में बहता पानी पत्थरों और पहाड़ों के बीच रास्ता बनाता हुआ, झरना बन नीचे ही गिरता है, पहाड़ पर नहीं चढ़ता। गंगोत्री हो या अमरकंटक, भागीरथी गंगा हो या माँ नर्मदे, पहाड़ों, पठारों के बीच होती हुई, नीचे की ओर कलकल बहती हुई सागर में ही जाकर मिलती है।

इंसान भी जब गिरता है, तो धुआंधार गिरता है और जब उठता है, तो सनी देओल की भाषा में उठ ही जाता है। वैसे गिरना उठना किस्मत का खेल है ! अब आप सेंसेक्स को ही लीजिए, कितनों को ऊपर उठाया, और कितनों को नीचे गिराया। जो काम पहले सट्टा बाज़ार करता था, वह काम आजकल सत्ता का बाज़ार कर रहा है। किसी को उठा रहा है, किसी को गिरा रहा है। पहलवानों की भाषा में, इसे ही उठापटक कहते हैं।।

साहित्यिक भाषा में इसे उत्थान और पतन कहते हैं। इतिहास भी क्या है। सिकंदर भी आए, कलन्दर भी आये, न कोई रहा है, न कोई रहेगा। प्रसिद्धि के बारे में भी कहा गया है। कितना भी ऊँचा उठ जाओ, उसकी सीमा है। गिरने की कोई सीमा नहीं। वे फिर भी भाग्यशाली होते हैं, जो आसमान से गिरते हैं और खजूर में अटकते हैं। अगर ज़मीन पर गिरते तो क्या हश्र होता।

आप इसे क्या कहेंगे, अतिशयोक्ति अलंकार ही न ! तुम इतना नीचे गिरोगे, मैंने सोचा भी न था। क्या कोई ऊपर भी गिरता है। गिरने का मतलब नीचे गिरना ही होता है। किसी के ऊपर तो कोई कभी नहीं गिरता। वे कितने समझदार हैं, जिनका सरनेम गिरपडे़ है। वे कभी नहीं कहते, नीचे गिर पड़े। बस गिर पड़े, तो गिरपड़े।।

एक नीचे उतरना भी होता है।

यह बड़ा सभ्य और शालीन तरीका होता है। लोग कार से नीचे उतरते हैं, हवाई जहाज से नीचे उतरते हैं, मंत्री हेलीकॉप्टर से नीचे उतरते हैं। लेकिन साउथ अफ्रीका में मोहनदास को काला समझ गोरों ने ट्रेन से क्या उतारा, वो महात्मा बन गया। पहाड़ पर अगर चढ़ा जाता है, तो नीचे भी उतरा जाता है। बस केवल एक ऊँट ही है जो बड़ी मुश्किल से पहाड़ के नीचे आता है।

चरित्र का गिरना बुरा और किसी राजनीतिक पार्टी का गिरना अच्छा माना जाता है, ऐसा क्यों ? एक गिरा हुआ आदमी, कितना गिरा हुआ है, इसकी कोई पहचान नहीं, कोई मापदंड नहीं। कितने गिरे हुओं को समाज और कानून दंड देता है, इसका कोई हिसाब किताब नहीं। झूठ बोलने की कोई सज़ा नहीं, चोरी करके पकड़े जाने की सज़ा है। कितने भी मच्छर मारिए, कोई सज़ा नहीं, किसी पुलिस वाले को हाथ लगाकर तो देख लें।।

जो आदमी जितना नीचे गिरता है, वह उतना ही ऊँचा उठता है, इसे राजनीति कहते हैं। यहाँ विज्ञान का कोई सिद्धांत लागू नहीं होता। क्योंकि यह राजनीति विज्ञान है। समय आने पर लोग भूल जाते हैं, वह कितना गिरा हुआ था, उसे सर आँखों पर बिठाया जाता है। बस वह अपनी सत्ता की कुर्सी सम्भालकर रखे। क्योंकि कुर्सी पर बैठा इंसान कभी गिरा हुआ नहीं कहलाता।

गिरना एक कला है, यह सबके बस की बात नहीं। आप अगर गिरें और ठोकर खाएँ, तो समझदारी इसी में है, उठ खड़े हों और आगे से संभलकर चलें।

जिन्हें वक्त ने लात मारकर नीचे गिराया है, उन्हें भी उठाएं, गले से लगाएँ। गलत तरीकों से ऊपर उठना, नीचे गिरना ही कहलाता है। यह पतन का मार्ग है, आत्मा के उत्थान का नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 66 – दहलीज… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – दहलीज।)

☆ लघुकथा # 66 – दहलीज श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“उषा, उषा अरे उषा तुम कहां हो?” अचानक आई आवाज से उषा  सहम गई।

सोचने लगी आज भैया मुझे क्यों इतनी जोर-जोर से आवाज देकर बुला रहे हैं ? आज तक तो ऐसे कभी घबराए हुए देखा नहीं?

“क्या मुझसे कोई गलती हुई है भैया जो आप मुझे बुला रहे हैं ?”

तभी अचानक भैया ने आकर झकझोरा- “तू ठीक है न।”

उसके बड़े भाई अनुराग ने स्वयं को संभालते हुए कहा – “नहीं नहीं कुछ नहीं?”

“सुनो तुम अपना ख्याल रखना और घर से बाहर कोई भी काम हो तो मुझे बताना। मैं तुम्हारे सारे काम कर दूंगा?”

“क्यों भैया? मैं भी तो कर सकती हूं? आज से पहले तो भैया आपने ऐसी बात नहीं की। अचानक आपको  क्या हुआ?”

“तुम तो बड़ी क्लास में आ गई हो और अपनी जिम्मेदारियां को समझ जितना बोल रहा हूं उतना ही सुन कल से तुझे स्कूल भी मैं ही छोडूंगा।”

“भैया क्या मैंने दसवीं पास करके कोई गुनाह कर लिया क्या? कक्षा में सारे लोग मेरे ऊपर हसेंगे।”

“ज्यादा सवाल मत कर तू हम दोनों भाइयों के बीच में एक लाडली बहन है।”

“हां लेकिन भैयाजी छोटे को तो कुछ नहीं बोलते हो मेरे ऊपर क्यों शासन लगा रहे हो?”

“चाचा जी और उनके पड़ोस के लड़कों किसी से भी बात मत करना। उषा तुम छोटी बहन हो लेकिन मेरी बेटी जैसी हो। बाहर की दुनिया तुम नहीं समझोगी।”

अभी अभी बाहर से वह सभी देख कर आ रहा था जो वह  बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।

“आजकल तो ऐसा जमाना आ गया है की तेरी सहेली कविता के साथ क्या हुआ तुझे पता नहीं है आजकल तो घर में भी लोग सुरक्षित नहीं है।”

बाहर जो भी हुआ वह डरावने सपने जैसा उसकी आंखों के सामने बार-बार आ रहा था। दिनदहाड़े बीच बाजार में एक लड़की को सरेआम लूटा गया। वही देखकर उसका मन डर गया था।

“तू अपने घर की दहलीज कभी मत पर करना वह उसे लड़के को चाहती थी । किसी के ऊपर भी विश्वास और भरोसा नहीं करना चाहिए एक बात ध्यान रखना कि घर के बड़ों की बात मानना क्योंकि हम दोनों भाई हैं और हमारे घर में कोई नहीं है तुम्हारे सिवाय और तुम्हें समझाने के लिए । कभी भी अपने घर की दहलीज को मत पार करना।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 267 ☆ अनिकेत… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 267 ?

☆ अनिकेत ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(अल्पाक्षरी)

‘धरणीमाते पोटात घे’

म्हणणाऱ्या साऱ्याच लेकींसाठी

धरणी नाही दुभंगत!

आम्ही ना अरत्र ना परत्र,

आम्हा ना पाताळ,ना साकेत,

आमचं अवघं अस्तित्वच–

अनिकेत!!!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कविता माझी ओळख… ☆ डॉ. शैलजा करोडे ☆

डॉ. शैलजा करोडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “कविता माझी ओळख…” ☆  डॉ. शैलजा करोडे

सखी जीवाभावाची ती

अभिव्यक्ती कवितेची

शब्द मळा फुलविते

गोडी मज व्यासंगाची

*

बळ देई झुंजण्याचे

संकटाशी तो सामना

मिळे स्फूर्ती नी चैतन्य

पूर्ण करीते कामना

*

अश्रू पुसे दुःखितांचे

घाली मायेची फुंकर

बळ देई जगण्याचे

वाट उजळी धूसर

*

शृृंगारते नवी नवी

न्हाते ती नवरसात

बाज लावणी ठसका

वीरगाथा पोवाड्यात

*

दिला मान व सन्मान

विशेषण कवयित्री

माझी ओळख कविता

तिचा ध्यास दिन रात्री

© डॉ. शैलजा करोडे (काव्यशलाका)

नेरुळ नवी मुंबई मो. 9764808391

ईमेल – [email protected] 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अनुभूती… ☆ सौ. अर्चना गादीकर निकारंगे ☆

सौ. अर्चना गादीकर निकारंगे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अनुभूती… ☆ सौ. अर्चना गादीकर निकारंगे 

 जीवनात विषय, प्रसंग खूप असतात

 निवडक मात्र मनाला स्पर्शतात

न स्पर्शलेले काही गौण नाही

त्यावर व्यक्त व्हायला मनाची तयारी होत नाही.

*

खूप काळ लोटूनसुदधा त्यातली एखादी

गोष्ट वा प्रसंग मनात रुंजीधरून राहतात.

तिच्या किंवा त्यांच्या नकळत मग त्यांच्या

सुंदर अशा काव्यपंक्ती घडतात.

*

बनलेल्या काव्यपंक्ती कवीच्या

अनुभवाची सत्यता असतात.

म्हणूनच वाचणार्‍याला त्या एक

निखळ आनंद देऊन जातात.

*

स्वानुभवाने डवरलेली कविता

कवीसाठी सत्यानुभव असतो,

तिला वाचणार्‍यासाठी ती मात्र

निर्मळ, शुदध असा उपहार ठरतो

© सुश्री अर्चना गादीकर निकारंगे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ गोठा… ☆ श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर ☆

श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

? विविधा ?

 ☆ गोठा…  ☆ श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर ☆

गाईगुर, वासरं, म्हशीरेडक, शेळ्या यांनी भरलेला गोठा हे श्रीमंतीचं लक्षण समजले जातं. ती एक संपत्तीच होय. शेतकरी माणसाच्या घरी स्वतःचे बैल असणे हे ही एक श्रीमंतीचे लक्षण होय. आता जरी ट्रँक्टर आले असले तरीही किरकोळ कामाला बैलच उपयोगी पडतात. त्यांच्यावरच शेतकऱ्यांचा संसार, घरं उभी राहीलेली असतात. काही वेळा या शेतकऱ्यांच्या घरापेक्षा गोठाच मोठा असतो. मग त्यात पोटमाळाही असतो. खाली जनावरे आणि पोटमाळ्यावर गवत, पेंडीची पोती, तसेच धांन्याच्या कणग्या, एका बाजूला उन्हाळ्यात वाळवून ठेवलेल्या शेणी अस बरच काही ठेवता येते. मग त्यात गाईच्या शेणाच्या वेगळ्या व इतर जनावरांच्या शेणाच्या वेगळ्या करून ठेवल्या जातात. गाईच्या शेणाच्या शेणी देवक्रुत्यासाठी केल्या जाणाऱ्या होम, यज्ञ, याग यासाठी वापरल्या जातात. त्याचप्रमाणे गाईच्या शेणापासून तयार केलेल्या शेणींचा उपयोग करून त्यात कापूर, हळद, डिंक घालून दात घासायला वापरायची राखुंडीही तयार करण्यात येते. या शेणी सोवळ्याचा स्वयंपाक करतांना चुलीत जाळायला, बाळंतीण, बाळाला शेकशेगडीसाठी ही वापरतात.

आपल्या हिंदू धर्मात तर गाईला खूप महत्त्व आहे. तीला गोमाता म्हणतात. गाईगुरांच्या संगतीने वाढलेला आपला देव श्री क्रुष्ण तर सर्वांनाचाच आवडता देव आहे. त्याच्या मुरलीचे स्वर तर या गाईंना नेहमीच भान हरपायला लावत होते. आणि आपलेही भान या मुरलीच्या स्वरांनी हरपतेच.

लहानपणी लपाछपी खेळताना गोठा हेही एक लपण्याचे ठिकाण असे. गोठ्यात लपलेला खेळगडी लवकर सापडत नसे. तसेच बालपणी एखादा हट्ट मोठ्या माणसांनी पुरवला गेला नाही म्हणून गोठ्यात रुसून बसलेल्याच्याही अनेक गोष्टी सांगितल्या जातात. तसेच एखादी माहेरवाशीण आपला सासरी झालेला छळ आठवून आईवडिलांच्या नकळत आपल्या अश्रूंना वाट मोकळी करून दिल्याच्याही अनेक कथा आपण ऐकत असतो. कधीतरी एखादा महत्त्वाचा निर्णयही या गोठ्यातच ठरवला जातो. तर काही वेळा तिथंच प्रेमाच हितगूज किंवा महत्त्वाची गोष्ट गुपचुप एखाद्याला सांगायला ही ह्याच गोठ्यात बोलावले जाते.

खूप ठिकाणी विशेषतः कोकणात एखादा माणूस मरण पावला की त्याच्या आकऱ्याव्या, बाराव्या, तेराव्या दिवसाचा स्वयंपाकही निशिद्ध मानला जात असल्याने व खूप ठिकाणी ह्यावेळी जेवणारे ब्राह्मण मिळत नाहीत. त्यामुळे तो स्वयंपाक या गोठ्यात करून तिथेच अशी पाने वाढून नंतर ती पाने वाढल्याचे शास्र करून मग ती पाने नदीत सोडून देण्याचीही प्रथा आहे.

हल्लीच्या दिवसात तर गाईगुरं नसलेल्या रिकाम्या गोठ्यात कोरांटिईन केलेल्या माणसांची सोय केली गेल्याच्या बातम्याही ऐकू येतात. तर असा हा गोठा खूप महत्त्वाचे ठिकाण आहे.

© श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

सह्याद्री अपार्टमेंट, खाडीलकर गल्ली, बालगंधर्व नाट्यमंदिर समोर, ब्राह्मणपुरी, मिरज,जि. सांगली

मो 9689896341

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘दैव‌ देतं आणि कर्म नेतं…’ – भाग- २ –  (अनुवादित) मूळ इंग्रजी लेखक– अनामिक ☆ अनुवाद – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆

श्री मेघःशाम सोनवणे

?जीवनरंग ?

☆ ‘दैव‌ देतं आणि कर्म नेतं…’ – भाग- २ –  (अनुवादित) मूळ इंग्रजी लेखक– अनामिक ☆ अनुवाद – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆

(गुंतवणूकदार कर्जाच्या परतफेडीसाठी तगादा लावू लागले, पण या घटनेला जबाबदार लोक तोंड लपवून बसले. शेवटी वैतागून मनीषने सर्व काही विकले आणि कर्जदारांचे पैसे फेडले. तरी अजूनही काही देणे बाकी होतेच.) – इथून पुढे

मनीष सर्वकाही हाताळण्याचा प्रयत्न करत होता. त्याला सर्वकाही परत सुरळीत करायचे होते. पण त्याला कल्पना नव्हती की त्याची पत्नी या परिस्थितीत त्याला सोडून निघून जाण्याच्या विचारात आहे.

या भाड्याच्या घरात राहायला आल्यापासून परिस्थिती आणखी बिकट झाली होती. मीनलला नोकरांची सवय झाली होती, त्यामुळे घरातील कामे ती करत नव्हती. आई तिला सर्व काही मदत करण्याचा प्रयत्न करत असे, पण ती छोट्या छोट्या गोष्टींवर चिडचिड करायची. लव्हलीला सांभाळतही नव्हती. आता तर असे दिवस आले की ती मनीषशीही भांडायला लागली. ती म्हणायची की “अशा भिकार परिस्थितीत मला अजून किती काळ जगावे लागेल. मी घरातील कामे करू शकत नाही. किमान एक तरी नोकर लव्हली ला सांभाळण्यासाठी ठेवा. मी हे सर्व कसे हाताळू? मी यापूर्वी मुलं सांभाळलेली नाहीत.”

“अगं तू असं कसं बोलतेस? मीनल, आई लव्हली वर तुझ्यापेक्षा जास्त प्रेम करते, आणि लव्हली तुझी मुलगी आहे. तू तीला सांभाळू शकत नाहीस म्हणजे काय?”

“आता हेच माझे आयुष्य असणार आहे का? तू मला पैशांची सवय लावली व तुझ्यावर अवलंबीत बनवले आहेस. तुमची श्रीमंती पाहूनच माझ्या माहेरच्यांनी माझे येथे लग्न लावले ना?”

तिचे बोलणे ऐकून मनीष स्तब्ध झाला. “तू ज्या घरातून या घरात आलीस, त्या घरात काहीच सोयीसुविधा नव्हत्या. आता जर आपले चांगले दिवस नसतील तर वाईट दिवसही जास्त दिवस रहाणार नाहीत. कृपया मला थोडा वेळ दे. मी ऑफिसमधून त्रासून घरी येतो. आणि तू पुन्हा कटकट सुरू करतेस. “

मीनल तिच्या खोलीत जाऊन बसायची. जेवण सुद्धा वाढत नव्हती, ना इतर काही काम करायची. फक्त आईच लव्हलीला प्रेमाने खायला घालायची आणि झोपवायची.

पण आज मीनल एवढं मोठं पाऊल उचलेल, हे त्याला अपेक्षित नव्हतं. आज ती मनीषच्या घराचा उंबरठा ओलांडून कायमची निघून गेली होती.

मनीषने धाडस करून तिच्या आईला फोन केला तेव्हा त्याला कळलं की ती तिथेही गेलेली नव्हती. तिच्या काही मित्रांना विचारलं, तेव्हा त्याला कळालं की तरुण नावाचा एक मुलगा आहे, त्याच्यासोबत ती गेली आहे. हे ऐकलं तर मनीषच्या पायाखालची जमीनच सरकली.

मुलीच्या अशा कृतीने तिच्या आईलाही धक्का बसला. मीनलच्या अशा वागण्याची त्यांना अपेक्षा नव्हती. तिच्या मुलीच्या डोळ्यांवर पैशांचा असा काय पडदा पडला होता की ती कुटुंबाला कुटुंब मानत नव्हती. अगदी एक वर्षाच्या मुलीलाही सोडून निघून गेली.

पण आयुष्य कुणासाठीही थांबून रहात नाही. इकडे आईने लव्हली आणि घराची संपूर्ण जबाबदारी सांभाळली. मनीषने सर्वकाही परत मिळवण्याचा जोमाने प्रयत्न करायला सुरुवात केली. आता त्याचा फक्त एकच उद्देश होता की त्याला भरपूर पैसे कमवायचे आहेत. शेवटी त्याच्या कष्टांना फळ मिळाले. दोन महिन्यांनंतर मनीषने कारखान्याच्या विम्याची केस जिंकली आणि विम्याचे पैसे मंजूर झाले.

क्लेममधून आलेल्या पैशातून सर्वात आधी कर्ज फेडले. उरलेल्या पैशातून एक घर खरेदी केले आणि तिथे रहायला गेले. उरलेल्या पैशातून नवीन व्यवसाय सुरू केला. व्यवसायाचे चांगले ज्ञान आणि बाजारपेठेतील त्याची पत यामुळे मनीषचा हा व्यवसाय ही चांगला चालला. आपल्या व्यवसायात हळूहळू तो प्रगती करत होता आणि एके दिवशी अचानक मीनल परत आली.

तिला अचानक आलेलं पाहून मनीषला आश्चर्य वाटले. आता सहा महिन्यांनी परत येण्याला काय अर्थ होता? मीनलला आता त्याच्या आयुष्यात पुन्हा तिचे स्थान हवे होते आणि ती त्याची माफी मागत होती. पण मनीषने तिचा स्विकार करण्यास ठामपणे नकार दिला.

 मीनलने तिच्या आई वडिलांना मनीषच्या घरी बोलावले. ती लोकं घरी आली, पण त्यांनी मनीषचीच बाजू घेतली.

“पण आता मी कुठे जाऊ? माझ्याकडे काहीही नाही. तरुणनेही मला सोबत ठेवण्यास नकार दिला आहे. आणि मी लव्हलीची आई आहे. तिच्यावर माझा अधिकार आहे”

मीनल अचानक लव्हलीवर बोलली आणि तिला उचलून घेतले. पण लव्हली मीनलपासून सुटका करण्यासाठी धडपडू लागली. दीड वर्षांची मुलगी तिला ओळख देत नव्हती व स्वतःला सोडवता न आल्याने ती जोरजोरात रडू लागली.

मनीष तिरस्काराने म्हणाला, “तू आणि लव्हलीची आई ? माफ कर, तुला मुलांना कसं सांभाळायचं तेही माहित नाही. बघ ती लहान मुलगीही तुझ्यापासून दूर होण्याचा प्रयत्न करत आहे. तु कधी तिला प्रेमाने जवळ तरी घेतले होते का? तु ज्या मार्गाने आलीस त्याच मार्गाने चालती हो. आता या घराशी तुझा काहीही संबंध नाही. आणि आमच्या आयुष्यात तुला कुठलीही जागा नाही. “

मीनलने मोठ्या आशेने तिच्या आईवडिलांकडे पाहिले. पण यावेळी तिचे बाबा म्हणाले, “आमच्याकडून काहीही अपेक्षा धरू नकोस. तु आधीच हा विचार करायला हवा होतास. तुला कुणी फसवावं एवढी काही लहान मुलगी नव्हती तू. तू एका मुलीची आई होतीस. अगं, कुटुंबाला, तुझ्या बाळाला तू कसे सोडून जाऊ शकतेस, हा साधा विचार करूनही तुझ्या हृदयाला पाझर फुटला नाही ?”

शेवटी, जेव्हा कोणीही तीची बाजू घेतली नाही, तेव्हा मीनलला तिथून गुपचूप निघून जाण्याशिवाय पर्याय राहिला नाही. काही दिवसांनी तिचा आणि मनीषचा घटस्फोट झाला. मीनल, आता एक छोटीशी नोकरी करून कशीतरी जगते, तोच मनीष आता त्याच्या आई आणि मुलीसोबत आनंदी जीवन जगत आहे.

– समाप्त –  

मूळ इंग्रजी कथालेखक : अनामिक

मराठी अनुवाद – मेघःशाम सोनवणे

मो 9325927222

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “साडी पुराण…” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी ☆

सुश्री नीता कुलकर्णी

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☆ “साडी पुराण…” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

साडी हा माझा जरा वीक पॉईंट आहे. तसा तो प्रत्येक बाईचा असतोच…पण माझा जरा वेगळा म्हणजे..इंग्रजीच्या अर्थाने weak आहे. इतकी वर्ष साड्या नेसूनही साडी या विषयावरच माझं ज्ञान अजूनही कच्चचं आहे.

साडीचा पोत बघून तिची किंमत मला कधीच सांगता येत नाही. मैत्रिणी मात्र अगदी परीक्षा घेतल्यासारखे अवघड प्रश्न विचारत असतात.

“नीता सेलमध्ये अगदी स्वस्तात ही निळी साडी घेतली..काय किंमत असेल?”

स्वस्तात म्हणजे दोनशेला घेतली असावी असं समजून मी दोनशे म्हटलं तर ती रागाने नुसती लाल झाली.

“सेल झाला तरी इतक्या कमी किमतीत मिळणार आहे का ?तू आणून दाखव बघू..तुला विचारलं हेच चुकलं..तुला साडीतलं काही म्हणजे काही कळतं नाही. तीनशेला घेतली. बाहेर हीची किंमत पाचशे आहे. ” रागाने ती बोलत होती.

आता या अनुभवावरून मी शहाणी झाले आहे. नंतर एका मैत्रिणीने साडीची किंमत विचारली.

मी लगेच विचारले,

” सातशेला घेतलीस का ग” 

विचारणारीची कळी खुलली. 

ती म्हणाली,

“अग फक्त चारशेला घेतली. तू ही सातशेला घेशील. तुला कोणीही हातोहात फसवेल. तुला साडीतलं ओ का ठो कळत नाही. “

“हो ग काय करू ग..खरचं मला अजूनही लक्षात येत नाही…” मी म्हणाले..

साडीतले लाल, पिवळा, निळा जांभळा, हिरवा हे ठळक रंग मला कळतात. त्या रंगाचे जे उपरंग असतात ते आले की माझा घोटाळा सुरू होतो….

एके दिवशी काॅटनची पिवळी साडी आवडली म्हणून मी ती दुकानातून घेऊन आले. जरा वेळाने सुधाचा फोन आला म्हणून तिला सहज.. साडी घेतली…असे सांगितले.

तिने विचारले,

“पिवळा म्हणजे कुठला पिवळा रंग?”

मला काही अर्थबोध होईना. म्हणून म्हटले,

“अग पिवळा आहे एवढं खरं”

” अग पण..म्हणजे गोल्डन येलो, हळदी का सनफ्लॉवर यलो ?”

समोर साडी असुनही मला काही सांगता येईना…

तोपर्यंत तिचा पुढचा प्रश्न तयार होता….

” मग ब्राऊनिश येलो आहे का?”

साडीकडे निरखून पाहिल्यावर लक्षात आले तो तसाही नव्हता….म्हणून तिला म्हटलं,

” तू प्रत्यक्ष येऊन पहा ग..मला काही समजत नाहीये. “

असं म्हणून मी फोन ठेवून दिला. आणि हुश्श केलं…

दोन दिवसांनी सुधा घरी आली होती. तिनी साडी पाहिली आणि म्हणाली,

“अगं एवढं कसं कळत नाही तुला हा ब्राईट यलो आहे..”

झालं म्हणजे तिसराच रंग होता साडीचा….

मला आवडलेली पटोला मी अठराशेला घेऊन आले. किंमत सांगितल्यावर माझी मैत्रीण किंचाळलीच…

” अगं तुला पटोला घ्यायची होती तर मला सांगायचं नाहीस का ? सेल होता तेव्हा घेतली असतीस..ईतकी घाई का केलीस? बघ आता किती महाग पडली…”

बापरे सुमारे दहा मिनिटें ती मला बोलत होती.

बर एकदा बोलून बाईनी गप्प बसावं की नाही ? 

परत एकदा एका कार्यक्रमात मी ती साडी नेसलेली दिसली की तिचं सुरू झालं….तिनी सगळ्यांना मी किती महागात साडी घेतली याच साग्रसंगीत वर्णन करून सांगितलं.

बाकीच्या बायका अगदी आश्चर्यचकित होऊन तिचं बोलणं ऐकत होत्या. तीला साथ देत होत्या…त्यातील एकीने पटोला चौदाशेला दुसरीनी बाराशेला आणि तिसरीने तर हजारलाच घेतलेली होती…

मला तर वाटतं बायका जास्ती असत्या तर पाचशेलाही पटोला घेणारी कदाचित त्या दिवशी मला भेटली असती….

हिरवी साडी घेऊन आले तेव्हा तर फारच गंमत झाली….

मैत्रिणीला कौतुकांनी ती दाखवली ती म्हणाली,

“अग नीता हा हिरवा रंग नाहीये..हा तर रामा कलर आहे. ” 

खरं सांगते तेव्हा रामा हा रंग आहे हे मला कळले. नंतर तिने मला बराच वेळ समजवून सांगितले तरी हिरवा रंग “रामा ” कधी होतो हे मला कळलेच नाही. शेवटी बिचारीने…हरे रामा…

म्हणून कपाळाला हात लावला.

नंतर घरी आलेल्या मैत्रिणीला कौतुकानी मी सांगितले,

” बघ मी नवीन रामा कलरची साडी घेतली. ” तर तिने विचारलं,

” तू यातला मजिंठा कलर का नाही घेतलास? तो खूप छान दिसतो. “

मला अजिंठ्याची लेणी माहीत होती. हे मजिंठा मी प्रथमच ऐकत होते….तरी अज्ञान ऊघडं पडू नये म्हणून मी म्हटलं,

” अगं त्यांच्याकडे मजिंठा कलरच नव्हता..”

” लाजरीकडून घेतलीस ना ?त्यांनी यातल्या मजिंठा कलरच्या साड्या शोकेस ला लावल्या आहेत “

यावर मात्र मी गप्प बसले.

असे फजितीच प्रसंग माझ्यावर वरचे वर येत असतात…

दुकानातली जी साडी आवडेल ती मी घेऊन येते. देताना दुकानदार त्या साडीचं नाव सांगतो. पण घरी येईपर्यंत मी ते विसरून जाते. मग मैत्रिणींनी विचारले, कुठली साडी आणलीस ?की उत्तर देता येत नाही. त्या दिवशी मात्र मी नांव पक्के लक्षात ठेवले होते. मैत्रिणीला उत्साहाने सांगितले,

” मणिपूर सिल्क घेतली”

तिने साडी हातात घेतली आणि म्हणाली,

“अग ही मणिपूर नाही काही….ही तर ढाका सिल्क आहे. “

” पण दुकानदारांनी ही मणिपूर म्हणून सांगितलं “

” अग त्याला काय कळतंय मी सांगते ना..ही ढाका सिल्कच….”ती ठामपणे म्हणाली.

बघा…म्हणजे दुकानदारांपेक्षा माझ्या मैत्रिणीचं ज्ञान जास्ती आहे.

साड्या बघताक्षणीच फटाफट त्यांची नांवे सांगणाऱ्या माझ्या मैत्रिणींच्या अफाट ज्ञानाचे मला फार कौतुक वाटते.

मी बेळगाव सिल्क घेतली तेव्हा फार गंमत झाली. शेजारच्या काकूंकडे त्याच वेळेस त्यांच्या कानडी वहिनी आल्या होत्या. काकूंना बेळगाव सिल्क दाखवायला गेले. त्यांच्या वहिनी जवळच बसल्या होत्या. साडी हातात घेऊन त्या म्हणाल्या,

“अहो हे बेळगाव सिल्क नव्हे हो..आमचं बेळगाव सिल्क कसं घट्ट असतंय..हे कसले हो पातळं..हे बेळगाव नाहीच बघा “

“वहिनी इथे हेच बेळगाव सिल्क म्हणून विकतात. “

यावर काकू म्हणाल्या,

” तुमच्या पुण्यातले लोक लबाडं बघा..कशालाही काहीही म्हणतात..आणि तुमच्या गळी मारतात फसवतात..”

” वहिनी पुण्यात यालाच बेळगाव सिल्क म्हणतात…” काकूंनी बोलायचं प्रयत्न केला… पण वहिनी ऐकून घेईनात…

” लोक काही म्हणत हो..हे बेळगाव सिल्क नव्हे बघा…माझं आणलं नाही..नाहीतर इथेच फरक दाखवला असता…”

काकू त्यांना परत पटवायला लागल्या पण वहिनी पण ठाम होत्या…

आता हा ” बेळगाव “प्रश्न असल्याने हा लवकर सुटायचे चिन्ह दिसेना तेव्हा मी माझी बेळगाव सिल्क घेऊन तिथून हळूच निघून आले.

साड्यांची नावे लक्षात राहावीत म्हणून मी त्या साडीच्या नावाशी खूणंगाठ बांधून ठेवते.

एका साडीचे नाव आहे वल्कलम्.

हे नांव पूर्वी ऋषी घालायचे त्या वल्कल या शब्दाशी मी जोडलेले आहे. म्हणजे ऋषी..साडी…वल्कलं असं मी मनात ठेवलेल आहे.

खरं म्हणजे साडी आणि ऋषी ही जोडी जरा विजोडच वाटते..पण मला लक्षात ठेवायला सोपे आहे.

मला हलकी भारी कुठलीही साडी आवडते. नवीन साडी मिळाली याचाच आनंद वाटतो. त्या दिवशी ची साडी बघून मैत्रीण म्हणाली,

” नीता साडी दिसायला छान आहे…पण टिकेल असं वाटत नाही. “

इतक्या वर्षाच्या अनुभवानंतर आता एक गोष्ट माझ्या लक्षात आलेली आहे. मग तीच तिला सांगितली म्हटलं….

” अगं संत सज्जनांनी सांगून ठेवलेले आहे हा देह नश्वर आहे…मग तिथे त्यावरच्या साडीची काय कथा? टिकेलं तेवढे दिवसं आनंदानी वापरायची..

हा देह आहे तोपर्यंत आला दिवस मजेत घालवायचा मग पुढचे पुढे बघू….”

काय खरं की नाही?..

© सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

पुणे

मो 9763631255

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ ॥ कालभैरवाष्टक॥ – मराठी भावानुवाद – रचनाकार : आद्य शंकराचार्य ☆ भावानुवादक : डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ ॥ कालभैरवाष्टक॥ – मराठी भावानुवाद – रचनाकार : आद्य शंकराचार्य ☆ भावानुवादक : डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

देवराज्य सेव्यमान पावनाघ्रिपंकजम्।

व्यालयज्ञ सूत्रमिंदू शेखरं कृपाकरम्।

*

नारदादि योगिवृंद वंदितं दिगंबरम्।

काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे ।।१।।

*

भानुकोटिभास्वरं भवाब्दितारकं परं।

नीलकण्ठमीप्सिथार्थ दायकं त्रिलोचनम।

कालकाल मम्बुजाक्ष मक्षशूलमक्षरं।

काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे।।२।।

*

शूलटंक पाशदण्ड पाणिमादिकारणं।

श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम।

भीमविक्रम प्रभुं विचित्र तांडवप्रियं।

काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे।।३।।

*

भुक्तिमुक्ति दायकं प्रशस्तचारुविग्रहं।

भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहं।

विनिकण्वन्मनोज्ञ् हेम् किंकिणीलस्तकटिं।

काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे।।४।।

*

धर्मसेतू पालकं अधर्ममार्ग् नाशकम्।

कर्मपाशमोचकम् सुशर्मदारकम् विभुम्।

स्वर्णवर्ण शेष् पाश शोभितांगमण्डलं।

काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे।।५।।

*

रत्नपादुकाप्रभाभिराम पाद युग्मकम्।

नित्यमद्वितीयमिष्ट दैवतं निरंजनम्।

मृत्युदर्प नाशनं करालदंष्ट्र मोक्षणम्।

काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे।।६।।

*

अट्टहास भिन्नपद्म जाण्ड् कोश संततिं।

दृष्टिपात नष्टपाप जालमुग्र शासनं।

अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकन्धरं।

काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे।।७।।

*

भूतसंघनायकं विशालकिर्तीदायकं।

काशिवास लोकपुण्यपापशोधकं विभुम्।

नितिमार्गकोविदम् पुरातनम् जगत्पतिं।

काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे।।८।।

*

कालभैरवाष्टकम् पठन्ति ये मनोहरं।

ज्ञानमुक्ति साधनम् विचित्रपुण्यवर्धनम्।

शोक मोह दैन्य लोभ कोपतापनाशनम्।

ते प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिम् धृवम् ।।९।।

इति श्रीमत् शंकराचार्यविरचितं कालभैरवाष्टकम् संपूर्णम्।

॥ कालभैरवाष्टक

इंद्रराज पूजितो चरणयुगुल पावना

नाग हेच जानवे शशी शिरोभूषणा

नारद नि योगीवृंद दिगंबरा तव नमना

काशिकालभैरवा तव चरणी वंदना ||१||

*

कोटिसूर्य तेजनिधी भवसागर तारितो

त्रिनेत्री नीलकंठ कामनांस पुरवितो

अक्षय तू त्रिशुलधारी कमलनेत्र त्रिनयना

काशिकालभैरवा तव चरणी वंदना ||२||

*

श्यामवर्णि शूल टंक पाश दंड धारिला

आदिदेव अविनाशी आदिकारण निर्मला

चंडप्रताप तांडवप्रिय देवता विलक्षणा

काशिकालभैरवा तव चरणी वंदना ||३|| 

*

मुक्ती-भुक्ती देतसे प्रशस्त मोहदा मूर्ती 

भक्तहृदयी वास करी व्यापित विश्वांतरी

रंजविते घंटिका सुवर्ण कटी किणकिणा

काशिकालभैरवा तव चरणी वंदना ||४||

*

धर्म रक्षितो सदा अधर्म नाश करुनिया

कर्मबंध ध्वंसितो आत्महर्ष निर्मिण्या

सुवर्ण नाग वेढिती तनुस भव्य शोभिण्या

काशिकालभैरवा तव चरणी वंदना ||५||

*

रत्नजडित तेजपुंज चरणयुगुली पादुका

अद्वितीय निष्कलंक सदैव इष्ट देवता 

दन्तपंक्ति तव कराल मुत्यूमद हारणा

काशिकालभैरवा तव चरणी वंदना ||६|| 

*

विकट तव हास्याने ब्रह्माण्डही कापते

एक दृष्टीक्षेप करित सर्वपापमुक्ती दे 

अष्टसिद्धि दान करी मुंडमाळधारिणा

काशिकालभैरवा तव चरणी वंदना ||७||

*

भूतसंघनायका भव्य कीर्तिदायका

पाप-पुण्य न्यायदा काशीपुरी वासिका 

थोर प्रभा तव ज्ञाना विश्वपति सनातना

काशिकालभैरवा तव चरणी वंदना ||८||

*

जपताती चित्तहारी कालभैरव या स्तोत्रा

ज्ञानदायी मोक्षदायी विचित्र पुण्यवर्धिता

शोक मोह त्रास दैन्य संतापा नाशना

खचित लाभ त्यास मिळे कालभैरवा चरणा ||९||

इति श्रीमत् शंकराचार्य विरचित कालभैरवाष्ट्क स्तोत्र संपूर्ण 

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४ ईमेल nishikants@gmail. com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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