हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ नेताजी लौट कर घर आए ☆ – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

☆ नेताजी लौट कर घर आए ☆

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का  व्यंग्य – “नेताजी लौट कर घर आए”।)

नेताजी वापिस घर आ गए, उनको वापिस आना ही था। यह पहले से तय था, नहीं वे तय कर के गये थे कि वे वापिस आएंगे। नेताजी जाते ही हैं वापिस आने के लिए। उनसे अपना खूंटा छोड़कर जाया नहीं जाता, वे जाते हैं, लाभ के लिए और वापिस आते हैं लाभ के लिए। लाभ उनके जीवन का मर्म है और यह मर्म उन्होंने जल्दी समझ लिया था। अतः नेताजी इस कार्य में कभी गलती नहीं करते हैं। वे जाते हैं, अर्थात् भागते हैं, बाहरी दीन-दुनिया की खबर लेते हैं, अनेक प्रकार के व्यंजनों का रसास्वाद लेते हैं, थोड़ा बहुत ठोकर खाते हैं, भागते-भागते भी अनेक ठौर बदल लेते हैं। वे कभी ध्यानस्थ भी हो जाते हैं। जब वे ध्यान की स्थिति में होते हैं, तब नेताजी के चेला-चपाटी कहते हैं – जीवन के मर्म का संधान करने हेतु भजन कर रहे हैं और भजन के लिए ध्यान जरूरी है। नेताजी ध्यानस्थ मुद्रा में जरूर होते हैं मगर अपनी आँखें खुली रखते हैं। सी.सी.टी.वी. कैमरे की तरह दुनिया पर नज़्ार रखते हैं। जब भी मौसम उनके अनुकूल दिखा वे पल्टी मारकर वापिस आ जाते हैं। पल्टी मारना उनका विषेष गुण है। यह गुण उन्होंने सांप से सीखा है। वे सीखने से परहेज नहीं करते हैं। जो चीज उनके काम की होती है उससे वे सीख लेते हैं। गिरगिटान से रंग बदलना। पहले उनके सिर पर गाढ़े चटक लाल रंग की टोपी होती थी, पर अब भगवा मिक्स पहनते हैं। उन्हें किसी रंग से परहेज नहीं। परहेज प्रतिबंध लगाता है। वे सब चीजें खुली रखते हैं। इससे रंग बदलने में आसानी होती है। वे सिर्फ ऊपरी चोला बदल लेते हैं, पर अंदर सत्ता प्रेम बरकार रहता है और वे प्रेम में कभी धोखा नहीं देते। इससे उनकी सत्ता प्रेम की विश्वसनीयता बनी रहती है। इस प्रेम की खातिर वे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। प्रेम बरकार रहे अतः उसमें कोई दखलंदाजी नहीं होती। मच्छर की तरह वे काटते हैं जिससे आदमी मरता नहीं है, वरन् बुखार जन्य हो जाता है। उनका कहना है – भागदौड़ करते रहो। शांत बैठ गये तो लोग भूल जाएंगे। इस कारण वे भागते रहते हैं।

वे अभी ताज़ातरीन मात्र चैबीस घंटे के लिए भागे थे। इसके पहले वे अनेक बार भागे और लम्बे समय के लिए भागे। इस बार सदल भागे थे। उनका कहना है – सबका साथ सबका विकास। उन्हें अपनी चिन्ता के साथ सबकी चिन्ता सताती है और जो बूढ़े हो गए उनसे कहते हैं – तुम धीरे-धीरे चलो मैं वापिस यही मिलूंगा। उन्हें पता है, उन्हें वापिस आना है। इस बार जल्दी वे नये अवतार में वापिस आ गए। उनका रंग बदला हुआ था। उनके रंग बदलने से कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगे, मगर वे इसकी परवाह नहीं करते हैं। वे संस्कृति और साहित्य में भी विष्वास करते हैं, अतः वे भागने को कला कहते हैं और इस कला में वे पारंगत हो गए हैं। लोग अब उन्हें कलाबाज कहने लगे हैं। अतः वे समय-समय पर कलाबाजी दिखाते रहते हैं।

कुछ दिन पहले प्रेमी वापिसी संघ, बिहारी वापिसी संघ, आधुनिक विदेष सेवा वापिसी संघ आदि ने उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर दी कि उन्होंने वापिसी की मूल आस्था का अपमान किया है। इससे उन सबके मन में ठेस पहुँची है इसलिए उन्होंने उन पर मानहानि का दावा ठोक दिया है। प्रेमी वापिसी संघ का कहना है – हमारा मूल मंत्र है, ‘प्रेम करो भागो’ और पलटो। प्रेम में कभी-कभी जरूरत के हिसाब से पलटना पड़ता है। एक प्रेमिका ने बताया कि प्रेमी मालदार था। उसने नया मोबाइल दिया, उसे रिचार्ज कराता था। होटल, तफरीह आदि कराता था। नये-नये कपड़े आदि का खर्च वहन करता था। प्रेमिका ने बदले में उसे सिर्फ आष्वासन पर स्थिर रखा। कहीं किसी के साथ भाग न जाए और भागे तो सिर्फ मेरे साथ। उसके नेक विचार देख मैंने सोचा कि इसके साथ भागा जा सकता है। हम भाग गए मुम्बई। भागने के लिए इससे आइडियल शहर इंडिया में कोई नहीं। यह शहर भागने वालों के लिए स्वर्ग है। हम लोग स्वर्ग ही भागे थे – वापिस न आने के लिए। भला स्वर्ग से कौन वापिस आता है। दूसरे दिन प्रेमी बाथरूम में था और उसके मोबाइल पर फोन आया। मैंने उठा लिया – अगला पूछने लगा – अबे इतने दिन से तू कहाँ है? तू हमसे बचकर नहीं भाग सकता। हम तुझे पाताल से स्वर्ग तक खोज लेंगे। तू गायब हो गया या किसी को ले भागा। बता मेरा पैसा कब वापिस करेगा? वरना करूं पुलिस में रिपोर्ट। तेरा भण्डाफोड़ कर दूंगा। इस तरह दिन भर तीन चार लोगों के फोन आए। अब उसका भाण्डा फूट चुका था। मैंने सोचा यह तो फोकट, कड़का आदमी है। इसके साथ क्या जीवन बिताना। मेरी कुण्डली जाग्रत हुई और मैं वापिस आ गयी। थोड़ा हल्ला-गुल्ला हुआ और फिर शांत हो गया। हम वापिस आने का रास्ता खुला रखते हैं, अतः वापिस आने का अधिकार हमारा है, पर यह नेताजी को यह शोभ नहीं देता है।

हमारे मुहल्ले का सुन्दर, गौरवर्ण, बलिष्ठ लड़का मुम्बई भाग गया। पता लगा वह हीरो बनने गया है। उसकी माँ चिन्ता से बेहाल हो रही है। तब लड़के के बाप ने कहा – तू चिंता मत कर। थोड़े दिन बाद वापिस आ जाएगा। कुछ दिन किसी ढाबे में बरतन मांजेगा, आखिर वह हमारा बेटा है। उसकी रगों में हमारा ही खून दौड़ रहा है। हम भागे थे, हीरो बनने, फिर वापिस आ गये। यह हमारी खानदानी परम्परा है। तू बिल्कुल चिन्ता मत कर, भागते हैं वापिसी के लिए ही। वापिस आने पर हम उसे खंूटे से बांध देंगे। जैसा हमारे बाप ने किया था। खूंटा आदमी को स्थिर रखता है। सीमा बता देता है कि तू इसके आगे नहीं जा सकता है। खूंटा से बंधा आदमी भाग नहीं सकता, बस उछलकूद कर सकता है। बंदर के समान कुलाटी मार सकता है। कुलाटी मारना भी एक कला है। यह कला भागकर वापिस आने पर आती है।

तकलीफ तब होती है, जब बेटा या बेटी भाग जाती है, वापिस न आने के लिए। माँ दरवाजे पर बाट जोहती है, कि अब आ रहा/रही है। उसकी आँखें पथरा जाती हैं, पर बेटा या बेटी वापिस नहीं आते। वह अपनी पत्नी के साथ चला जाता है दूर, बहुत दूर विदेष। वापिस न आने के लिए और माँ को विष्वास दिला जाता है, वह वापिस आएगा, जरूर आएगा, पर वहाँ से वापिस आना सरल नहीं है। जैसे बचपन में मैदान में भाग जाता था और अंधेरा होने पर वापिस आ जाता था। भागो, खूब भागो, पर समय से वापिस आ जाओ। वापिस आना, साथ निभाना, या अटूट वादा है और वापिस आओ अपना वादा निभाओ।

 

© रमेश सैनी , जबलपुर 

मोबा . 8319856044

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ? दवाचा मोती ? – –श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 ☆ दवाचा मोती ☆
(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक बेहतरीन गजल। एक वरिष्ठ मराठी साहित्यकार की कलम से लिखी गई गमगीन गजल से निःशब्द हूँ।)
दीप लावू मी कशाला
सूर्य माझ्या सोबतीला
मी वडाचे झाड झालो
थांब माझ्या सावलीला
या रुपेरी तारकांचे
गुच्छ येती अंबराला
चांदण्यांची बाग माझी
मी भुलावे पौर्णिमेला
तू रुपेरी वस्त्र ल्याली
वर्ख जैसा लावलेला
बोलते भू या तरूला
जन्म द्यावा अंकुराला
या दवाचा मोती व्हावा
वाटते हे शिंपल्याला
© अशोक भांबुरे, धनकवडी
धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.
मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (54) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा )

 

अर्जुन उवाच

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌॥

अर्जुन ने पूँछा

केशव समझायें मुझे स्थिर प्रज्ञ का रूप

कैसी उसकी रीति गति भाषा रहन अनूप।।54।।

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?।।54।।

 

What, O Krishna, is the description of him who has steady wisdom and is merged in the Superconscious State? How does one of steady wisdom speak? How does he sit? How does he walk? ।।54।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-28 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–28            

यह जीवन चक्र है जिसमें हम जीते हैं।  कभी मैंने लिखा था :

The Life after death

is definite

and

the journey

between life and death

is

definition of Life

हम जन्म से मृत्यु तक पाते हैं कि हर समय हमारे सिर पर किसी न किसी का हाथ होता है। वह हाथ माता पिता, गुरु, वरिष्ठ …… या वह वरिष्ठ पीढ़ी जिसने सदैव हमें मार्गदर्शन दिया है।

अभी 17 अप्रैल 2019 के अखबार में भारत सरकार का एक विज्ञापन देखा। मैं नहीं जनता कि कितने लोगों नें उस पर ध्यान दिया है और कितने व्योश्रेष्ठ इस सम्मान के लिए अपना आवेदन देंगे। इस व्योश्रेष्ठ सम्मान का विज्ञापन निम्नानुसार है।

विस्तृत जानकारी के लिए देखें www.socialjustice.nic.in 

अब  यह हमारा दायित्व बनता है कि हम ढूंढ ढूंढ कर ऐसी पीढ़ी के मनीषियों के लिए उनकी ओर से आवेदन भरने में मदद करें।

आज के लिए बस इतना ही।

हेमन्त बवानकर 

24 अप्रैल 2019

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 6 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (6)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  छठवाँ उत्तर  दुर्ग, (छत्तीसगढ़) के प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री  विनोद साव जी की ओर से   –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

दुर्ग (छत्तीसगढ़) से व्यंग्यकार श्री विनोद साव 
धारदार शब्दों और विचारों की चाबुक की फटकार हो :
लेखक को घोड़े की आंख जैसा बताते हुए जो मुहावरा यहां गढ़ा गया है यह अपने मूल रूप में लेखक की दृष्टि को बहुत व्यापक बनाता है क्योंकि घोड़े की आंखों पर चमड़े का पट्टा  (horse blinders) या जिसे घोड़ा ऐनक भी कहा जाता है – इसको लगाने से पहले घोड़े की दृष्टि बहुत व्यापक थी. घोडा अपने आगे पीछे बहुत दूर तक देख लेता था. पर अपनी इस विशेषता के कारण घोडा बिदकता भी था और उसकी रफ़्तार में कमी आ जाती थी. इसलिए उसकी व्यापक दृष्टि को नियंत्रित करने और उसके गंतव्य व लक्ष्य को निर्धारित करने के लिए उसकी आंखों पर चमड़े का पट्टा लगाया गया और उसके मुंह पर रस्सी बांधकर घोड़े पर लगाम भी कसा गया.
आज के संदर्भ में लेखक खुद ही अपनी आँखों पर चमड़े का चपड़ा लगाकर बैठ गया है और अपनी दूरदृष्टि को सीमित कर गया है. यह सरकार, प्रशासन और उसकी व्यवस्था से डरा सहमा हुआ लेखक है जो कोई पंगा लेने से भागता है. यह सुविधाभोगी लेखक दिनोंदिन दुनियांदार होता जा रहा है और साहित्य से इतर अपना कैरियर बनाने में जुटा हुआ है और लिखने पढने में कम और विमोचन, सम्मान, अभिनन्दन कराने और पुरस्कार झपटने में अधिक लगा हुआ है. उसकी किसी भी रचना से उसका बायोडाटा कई गुना बड़ा हो गया है. घोडा तो शक्ति व गति का द्योतक है उससे हर क्षमतावान मशीन का ‘हॉर्सपावर’ तय होता है पर यह लेखक तो अपनी निरर्थक रचनाओं की पाण्डुलिपि और बायोडाटा को अपने ऊपर लादकर किसी गदहे की भांति हांफते हुए पुरस्कारों के पहाड़ खोज रहा है. इस गदहे को लगाम लगाकर उसे साहित्य का घोडा बनाने की ज़रुरत है. विशेषकर व्यंग्यकारों को तो अपने समय की राजनीति और सामाजिक, धार्मिक दुर्दशा पर हस्तक्षेप करने का साहस करना चाहिए जैसा उनके पुरोधा लेखक परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल व अन्यान्य करते आए हैं. उसको अपने लेखन को लगाम की तरह इस्तेमाल करने आना चाहिए ताकि उसके सामने व्यवस्था का जो घोडा बेलगाम हो रहा है उसकी पीठ पर अपने धारदार शब्दों और विचारों की आक्रामकता की चाबुक वह फटकार सके.
– विनोद साव, मो. 9009884014
(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ? थरार ? – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

? थरार ?

 

उजाडती किलबिलती रम्य सकाळ,

बागेतला हिरवा चैतन्य खळाळ

 

लाल साज ल्यालेली गोजिरी लीली

कृष्णकमळ लेवून वेल बहरलेली

 

नाजुकशी साद अचानक कानी पडली

भिरभिरती नजर त्या दिशेने रोखली

 

पानांआड दिसत होता झुपकेदार शेपटा

क्षणांत दृष्टीस पडला खारूताईचा मुखडा

 

वाकून खाली बघत तिचा चालू होता सतत ओरडा

वाळक्या काटकीला घट्ट बिलगला होता तिचा काळजाचा तुकडा

 

पाळीवर त्या माऊलीची सैरावैरा धावपळ सुरू झाली ,

पिल्लाला वाचविण्याची अखंड धडपड तिची सुरू झाली

 

करावी का मदत आपण विचार आला मनी

पण विपरित काही घडलं तर… याची भीती होती मनी

 

लोंबकळून, कसरत करून पिल्लाचा धीर खचला

तोल सावरता सावरता काटकी भवतालचा विळखाच सुटला

 

असे काही घडेल ह्याची कल्पना  होतीच

पण माऊलीच्या धडपडीला यश येईल ह्याचीही खात्री होतीच

 

काळजात धस्स झाले हो पाहता पडतांना छोटूलीला

पण कोण आनंद झाला म्हणून सांगू , बघून तिला कुमुदिनीवर अलगद विसावतांना

 

सुर्रकन् उतरून आली खाली खारूताई

कुंडापाशी डोकावून शोधू लागली पिल्लांस आई

 

बघून पिल्लांस सुखरूप माऊलीचा जीव तो निवला

अलगद पकडून लहानग्यास भर्रकन् झाडाच्या दिशेने पळाला

 

आईची माया अजोड आहे मनोमन साक्ष पटली

वात्सल्याला तोड नाही खुणगाठ पक्की बांधली

 

देव तारी त्याला कोण मारी प्रचिती याची आली

सकाळच्या त्या थरार नाट्याने सुरूवात रोमांचक झाली

 

©  सौ. ज्योति हसबनीस

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (53) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(कर्मयोग का विषय)

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।53।।

सुने प्रवादों को भूला जब होगा मन शांत

पा पायेगी बुद्धि तब सहज योग का प्रांत।।53।।

 

भावार्थ :   भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा ।।53।।

 

When thy  intellect,  perplexed  by  what  thou  hast  heard,  shall  stand  immovable  and steady in the Self, then thou shalt attain Self-realisation. ।।53।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Meditation Asanas ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Meditation Asanas

Demonstrated in this video are twelve asanas (poses) in which you may sit and meditate. Which one would you prefer and why?
Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ अविश्वासं फलम् दायकम् ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

☆ अविश्वासं फलम् दायकम् ☆

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  सटीक एवं सार्थक व्यंग्य। )

 

विश्वास बनाये रखने को कहते हैं.  “विश्वासं फलम् दायकम्”  ढ़ाढ़स बंधाने के काम आता है. भक्त बाबा जी के वचनो पर मगन झूमता रहता है.  सदियो से “विश्वासं फलम् दायकम्” का मंत्र फलीभूत भी होता रहा है . अपना सब कुछ , घरबार छोड़कर नवविवाहिता नितांत नये परिवार में इसी विश्वास की ताकत से ही चली आती है और सफलता पूर्वक नई गृहस्थी बसा कर उसकी स्वामिनी बन जाती है. भरोसे से ही सारा व्यापार चलता है.

पर जब मैं नौकरी के संदर्भ में देखता हूं, योजनाओ की जानकारियो के ढ़ेर सारे फार्मेट देखता हूं और टारगेट्स की प्रोग्रेस रिपोर्ट का एनालिसिस करते अधिकारियो की मीटिंगो में हिस्सेदारी करता हूं तो मुझे लगता है कि इनका आधारभूत सिद्धांत ही  अविश्वासं फलम् दायकम् होता है. किसी को किसी के कहे पर कोई भरोसा ही नही होता , स्मार्टफोन के इस जमाने में हर कोई फोटो प्रूफ चाहता है .  “इफ और बट” वादो के दो बड़े दुश्मन होते हैं . अधिकारी लिखित सर्टिफिकेट से कम पर कोई भरोसा नहीं करता . अविश्वासं फलम् दायकम् के बल पर  वकीलो की चल निकलती है, एफीडेविट, और पंजीकरण के बिना न्यायालयो के काम ही नही चलते. अविश्वास के बूते ही रजिस्ट्रार का आफिस सरकार का कमाऊ पूत होता है.

भरी गर्मी में पसीना बहाते चुनावी रैलियां और भाषण करते नेताओ को देखकर विश्वास करना पड़ता है कि इन सब को वोटर पर और तो और खुद की की गई कथित जनसेवा पर तक तन्निक भी भरोसा नही है . वरना भला जिस नेता ने पांच सालो तक वोटर की हर तरह से खिदमत की हो उसे अपने लिये मुंए वोटर से महज एक वोट मांगने के लिये इस तरह साम दाम दण्ड भेद , मार पीट , लूट पाट , खून खराबा न करवाना पड़ता . बेवफा वोटर को लुभाने के लिये जारी सारे घोषणा पत्र , वचन पत्र और संकल्प पत्र यही प्रमाणित करते हैं कि राजनेता वोटर संबंध अविश्वासं फलम् दायकम् के मंत्र पर ही काम करते हैं . चुनाव जीतने से पहले नेता वोटर पर अविश्वास करता है और चुनाव जीत जाने के बाद खुद पर वोटर के अविश्वास को प्रमाणित करने में जुटा रहता है . अविश्वास का ही फल होता है कि शर्मा हुजूरी कुछ जन कल्याण के काम हो ही जाते हैं , क्योकि बजट खतम करने की एक लास्ट डेट होती है , अविश्वासं फलम् दायकम् के चलते ही काम के लिये पर्सु॓एशन किया जाता है, कुछ काम समय पर हो जाते हैं.आाकड़ो में सजा हुआ विकास दरअसल अविश्वासं फलम् दायकम् का ही सुफल होता है.   इसलिये कुछ भरोसे लायक पाना हो तो भरोसा ना करिये.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

विवेक रंजन  श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ग़ज़ल गाएं तो गाएं कैसे ? ☆ –श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 ☆ ग़ज़ल गाएं तो गाएं कैसे ? ☆
(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक बेहतरीन गजल। एक वरिष्ठ मराठी साहित्यकार की कलम से लिखी गई गमगीन गजल से निःशब्द हूँ।)

 

खुशनुमा माहौल में ग़म को उठाए कैसे
ऐसे हालात ग़ज़ल गाएं तो गाएं कैसे

तेरी शहनाई बजी डोली उठी आँगन से
अश्क नादाँ जो बहे उस को छुपाएं कैसे

मोम का दिल हैं मेरा ओ तो पिघल जायेगा
मोम पत्थर सा बनाए तो बनाएं कैसे

गिर गये प्यार के अंबार से तो दर्द हुआ
दर्द सीने में तो हमदर्दी जताए कैसे

मान हम जायेंगे दे के तसल्ली झूठी
मानता दिल ए नही उस को मनाए कैसे

जल गए याद सें लिपटे ही रहे हम तेरे
जल गया हैं जो उसे फिर से जलाए कैसे

वह उठाकर जो चले हैं ये जनाजा मेरा
हाथ उठते ही नहीं दे तो दुआए कैसे

© अशोक भांबुरे, धनकवडी, पुणे.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

 

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