हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * अमर होने की तमन्ना * – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

अमर होने की तमन्ना

(कल के अंक में आपने   डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  के व्यंग्य संकलन “एक रोमांटिक की त्रासदी” की श्री अभिमन्यु जैन जी द्वारा लिखित समीक्षा पढ़ी।  आज हम आपके लिए इसी व्यंग्य संकलन से एक चुनिन्दा व्यंग्य “अमर होने की तमन्ना” लेकर आए हैं।
इस सार्थक व्यंग्य से आप व्यंग्य संकलन की अन्य व्यंग्य रचनाओं की कल्पना कर सकते हैं। साथ ही यह भी स्वाकलन कर सकते हैं कि – अमर होने की तमन्ना में आप अपने आप को कहाँ पाते हैं? यह तो तय है कि इस व्यंग्य को पढ़ कर कई लोगों के ज्ञान चक्षु जरूर खुल जाएंगे।)
प्रकृति ने तो किसी को अमर बनाया नहीं। सब का एक दिन मुअय्यन है। समझदार लोग इसे प्रकृति का नियम मानकर स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन फिर भी कुछ लोग अमरत्व पाने के लिए हाथ-पाँव मारते रहते हैं। प्रकृति पर वश नहीं चलता तो अपने नाम से स्कूल, अस्पताल, धर्मशाला, मंदिर बनवा देते हैं, क्योंकि इमारत का जीवन आदमी के जीवन से लंबा होता है।  बहुत से लोग मंदिर की सीढ़ियों पर अपने नाम का पत्थर लगवा देते हैं। इसमें विनम्रता के साथ अमरत्व की लालसा भी होती है।
शाहजहां ने अपनी बेगम को अमर बनाने के लिए करोड़ों की लागत का ताजमहल बनवाया। मुमताज की ज़िंदगी में तो कुछ याद रखने लायक था नहीं, अलबत्ता ताजमहल उसकी याद को ज़िंदा रखे है। लेकिन यह अमरता का बड़ा मंहगा नुस्खा है,खास तौर से तब जब ग़रीब जनता का पैसा शासक को अमर बनाने के लिए लगाया जाए। ऐसी अमरता से भी क्या फायदा जहाँ आदमी अपने काम के बूते नहीं, कब्र की भव्यता के बूते अमर रहे?
समय भी बड़ा ज़ालिम होता है। वह बहुत से लोगों की अमरत्व की लालसा की हत्या कर देता है। धन्नामल जी बड़ी हसरत से अपने नाम से अस्पताल खुलवाते हैं, और लोग कुछ दिन बाद उसे डी.एम.अस्पताल कहना शुरू कर देते हैं। धन्नामल जी डी.एम.के पीछे ग़ायब हो जाते हैं।और अगर धन्नामल जी का पूरा नाम सलामत भी रहा,तो कुछ दिनों बाद लोगों को पता नहीं रहता कि ये कौन से धन्नामल थे—– नौबतपुर वाले, या ढोलगंज वाले?
जो लोग सिर्फ परोपकार और परसेवा के लिए स्कूल, अस्पताल या धर्मशाला बनवाते हैं, वे प्रशंसा के पात्र हैं। उनके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका नाम रहे या भुला दिया जाए। लेकिन जो लोग खालिस अमरत्व और वाहवाही के लिए इमारतें खड़ी करते हैं वे अक्सर गच्चा खा जाते हैं। ऐसे लोग ईंट-पत्थर की इमारत में तो लाखों खर्च कर देते हैं, लेकिन आदमी की सीधी मदद करने के मामले में खुद पत्थर साबित होते हैं। बहुत से लोग चींटियों को तो शकर खिलाते हैं, लेकिन आदमी को गन्ने की तरह पेरते हैं।
मंदिर मस्जिद बनवाने के पीछे शायद अमरता प्राप्त करने के साथ साथ ख़ुदा को धोखा देने की भावना भी रहती हो। सोचते हों कि मंदिर बनवाने से सब गुनाह माफ हो जाएंगे और स्वर्ग में पनाह मिल जाएगी। इसीलिए बहुत सा दो नंबर का पैसा मंदिरों अस्पतालों में लगता है। लेकिन ख़ुदा इतना भोला होगा, इस पर यकीन नहीं होता।
हमारे देश में अमर होने का एक और नुस्खा चलता है—–कुलदीपक पैदा करने का। लोग समझते हैं कि पुत्र पैदा करने से उनका वंश चलेगा।इसमें पहला सवाल तो यह उठता है कि श्री खसोटनलाल का वंश चले ही क्यों? वे कोई तात्या टोपे हैं जो उनका वंश चलना ज़रूरी है? जो सचमुच बड़े होते हैं वे अपना वंश चलाने की फिक्र नहीं करते। गांधी के वंश का आज कितने लोगों को पता है? अलबत्ता जिन्होंने ज़िंदगी भर सोने, खाने और धन बटोरने के सिवा कुछ नहीं किया, वे अपना यशस्वी वंश चलाने के बड़े इच्छुक होते हैं।
दूसरी बात यह है कि कुलदीपक अक्सर वंश चलाने के बजाय उसे डुबा देते हैं। बाप के जतन से जोड़े धन को वे दोनों हाथों से बराबर करते हैं और पिताश्री के सामने ही उनके वंश का श्राद्ध कर देते हैं। लोग पूछते हैं, ‘ये किस कुल के चिराग हैं जो पूरे मुहल्ले को फूँक रहे हैं?’ और पिताजी अपनी वंशावली बताने के बजाय कोई अँधेरा कोना ढूँढ़ने लगते हैं।
कुछ लोग वंश को पीछे से पकड़ते हैं। संयोग से किसी महापुरुष के वंशज हो गये।अपने पास उस पूर्वज की याद दिलाने वाले कोई गुण बचे नहीं, लेकिन ‘विशिष्ट’ बने रहने की इच्छा पीछा नहीं छोड़ती। दिन भर दस साहबों को सलाम करते हैं, दस जगह रीढ़ को ख़म देते हैं, लेकिन यह बखान करते नहीं थकते कि वे अमुक वीर की वंशबेल के फूलपत्र हैं।
समझदार लोग अमरता के प्रलोभन में नहीं पड़ते।वक्त के इस प्रवाह में बहुत आये और बहुत गये। जो अपनी समझ में अपने अमर होने का पुख्ता इंतज़ाम कर गये थे उनका नाम हवा में गुम हो गया। बहुत से लोगों को उनकी पुण्यतिथि पर काँख-कूँख कर याद कर लिया जाता है, और फिर उसके बाद उनकी फोटो को एक साल के लिए टांड पर फेंंक दिया जाता है। अगली पुण्यतिथि पर फिर फोटो की धूल झाड़कर श्रद्धांजलि की रस्म भुगती जाती है।ऐसी अमरता से तो विस्मृत हो जाना ही अच्छा।
इसलिए बंडू भाई, अमर होने की इच्छा छोड़ो। मामूली आदमी बने रहो,जितना बने दूसरों का कल्याण करो, और जब मरो तो इस इच्छा के साथ मरो कि दुनिया हमारे बाद और बेहतर हो। बहुत से लोग हैं जो बिना शोरगुल किये दुनिया का भला करते हैं और चुपचाप ही दुनिया से अलग हो जाते हैं।ऐसे लोग ही दुनिया के लिए ज़रूरी हैं।
© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

(लेखक के व्यंग्य-संग्रह ‘एक रोमांटिक की त्रासदी’ से)




हिन्दी साहित्य – कविता – * मैं लौट आऊंगा * – डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

मैं लौट आऊंगा

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है  एक सामयिक एवं मार्मिक रचना जिसकी पंक्तियां निश्चित ही आपके नेत्र नम कर देंगी और आपके नेत्रों के समक्ष सजीव चलचित्र का आभास देंगे।)

वह ग़बरू जवान
जिसे बुला लिया गया था
मोर्चे पर आपात काल में
जो चार दिन पहले ही
बंधा था विवाह-बंधन में
जिसकी पत्नी ने उसे
आंख-भर देखा भी नहीं था
और ना ही छूटा था
उसकी मेहंदी का रंग
उसके जज़्बात
मन में हिलोरे ले रहे थे
बरसों से संजोए स्वप्न
साकार होने से पहले
वह अपनी पत्नी से
शीघ्रता से लौटने का वादा कर
भारी मन से
लौट गया था सरहद पर
परंतु,सोचो!क्या गुज़री होगी
उस नवयौवना पर
जब उसका प्रिययम
तिरंगे में लिपटा पहुंचा होगा घर
मच गया होगा चीत्कार
रो उठी होंगी दसों दिशाएं
पल-भर में राख हो गए होंगे
उस अभागिन के अनगिनत स्वप्न
उसके सीने से लिपट
सुधबुध खो बैठी होगी वह
और बह निकला होगा
उसके नेत्रों से
अजस्र आंसुओं का सैलाब
क्या गुज़री होगी उस मां पर
जिस का इकलौता बेटा
उसे आश्वस्त कर
शीघ्र लौटने का वादा कर
रुख्सत हुआ होगा
और उसकी छोटी बहन
बाट जोह रही होगी
भाई की सूनी कलाई पर
राखी बांधने को आतुर
प्यारा-सा उपहार पाने की
आस लगाए बैठी होगी
उसका बूढ़ा पिता
प्रतीक्षा-रत होगा
आंखों के ऑपरेशन के लिये
सोचता होगा अब
लौट आएगी
उसके नेत्रों की रोशनी
परंतु उसकी रज़ा के सामने
सब नत-मस्तक
मां,निढाल,निष्प्राण-सी
गठरी बनी पड़ी होगी—
नि:स्पंद,चेतनहीन
कैसे जी पाएगी वह
उस विषम परिस्थिति में
जब उसके आत्मज ने
प्राणोत्सर्ग कर दिए हों
देश-रक्षा के हित
सैनिक कई-कई दिन तक
भूख-प्यास से जूझते
साहस की डोर थामे
नहीं छोड़ते आशा का दामन
ताकि देश के लोग अमनो-चैन से
जीवन-यापन कर सकें
और सुक़ून से जी सकें

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com




मराठी साहित्य – कविता **पान** श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे
*पान*
(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की  एक भावप्रवण कविता।)

 

भाव होते प्रेम होते टाळले का मी तरी ?

गाव माझ्या अंतरीचे जाळले का मी तरी ?

 

वाट माझ्या भावनांची मीच होती रोखली

आसवांचे चारमोती गाळले का मी तरी ?

 

माय-बापाची प्रतिष्ठा थोर तेव्हा वाटली

त्याच खोट्या इभ्रतीला भाळले का मी तरी

 

प्रेम का नाकारले मी ते कळेना आजही

शब्द साधे एवढे ते पाळले का मी तरी ?

 

प्रीतिच्या ग्रंथात माझे नाव नव्हते नेमके

पान माझ्या जिंदगीचे चाळले का मी तरी ?

 

अशोक भांबुरे, धनकवडी, पुणे.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

 




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (20) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

न जायते म्रियते वा कदा चिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।20।।

आत्मा शाश्वत ,अज अमर,इसका नहिं अवसान

मरता मात्र शरीर है, हो इतना अवधान।।20।।

      

भावार्थ :   यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।।20।।

 

He is not born nor does He ever die; after having been, he again ceases not to be unborn, eternal, changeless and ancient. He is not killed when the body is killed. ।।20।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – The Wheel of Happiness and Well-being – Shri Jagat Singh Bisht

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा – * एक रोमांटिक की त्रासदी * डॉ. कुन्दन सिंह परिहार – (समीक्षक – श्री अभिमन्यु जैन)

व्यंग्य संकलन – एक रोमांटिक की त्रासदी  – डॉ.कुन्दन सिंह परिहार 

पुस्तक समीक्षा

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(वरिष्ठ एवं प्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का यह 50 व्यंग्यों  रचनाओं का दूसरा व्यंग्य  संकलन है। कल हम  आपके लिए इस व्यंग्य संकलन की एक विशिष्ट रचना प्रकाशित करेंगे)
डॉ. कुन्दन सिंह परिहार जी  को e-abhivyakti की ओर से इस नवीनतम  व्यंग्य  संकलन के लिए हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई।        
पुस्तक समीक्षा
एक रोमांटिक की त्रासदी (व्यंग्य संकलन)
लेखक- कुन्दन सिंह परिहार
प्रकाशक- उदय पब्लिशिंग हाउस, विशाखापटनम।
मूल्य – 650 रु.
‘एक रोमांटिक की त्रासदी’ श्री कुन्दन सिंह परिहार की 50 व्यंग्य रचनाओं का संकलन है।लेखक का यह दूसरा व्यंग्य-संकलन है, यद्यपि इस बीच उनके पाँच कथा-संकलन प्रकाशित हो चुके हैं।संकलन हिन्दी के मूर्धन्य व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई को इन शब्दों के साथ समर्पित है—-‘परसाई जी की स्मृति को, जिन्होंने पढ़ाया तो बहुतों को, लेकिन अँगूठा किसी से नहीं माँगा। ‘ये मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ बार बार आकर्षित करती हैं।
पुस्तक का शीर्षक पहले व्यंग्य ‘एक रोमांटिक की त्रासदी’से अभिप्रेरित है।दिन में जो प्रकृति लुभाती है, आकर्षक लगती है, रात्रि में, यदि हम अभ्यस्त नहीं हैं तो, डरावनी लगती है।एक रात भी शहरी व्यक्ति को गाँव के खेत-खलिहान में काटना पड़े तो उसे नींद नहीं आती।मन भयग्रस्त हो जाता है, जबकि एक ग्रामीण उसी वातावरण में गहरी नींद सोता है।रचना में ग्रामीण और शहरी परिवेश का फर्क दर्शाया गया है।
दूसरी रचना ‘सुदामा के तंदुल’ उन नेताओं पर कटाक्ष है जिनके लिए चुनाव आते ही गरीब की झोपड़ी मंदिर बन जाती है।आज दलित, आदिवासी के घर भोजन राजनीति का ज़रूरी हिस्सा बन गया है।
इसी तरह के 50 पठनीय और प्रासंगिक व्यंग्य संग्रह में हैं।रचनाओं का फलक व्यापक है और इनमें समाज और मानव-मन के दबे-छिपे कोनों तक पहुँचने का प्रयास स्पष्ट है।
संग्रह की रचनाओं में बड़ी विविधता है।विचारों, भावों और कथन में कहीं भी पुनरावृत्ति नहीं है।हर विषय को विस्तार से सिलसिलेवार प्रस्तुत किया गया है।सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर पर्याप्त फोकस है।रचनाओं में किसी विचारधारा या दल की ओर झुकाव दृष्टिगोचर नहीं होता।भाषा की समृद्धता प्रभावित करती है।स्थानीय भाषा और बोली का भी सटीक उपयोग है।
संग्रह में छोटे छोटे प्रसंगों को लेकर व्यंग्य का ताना-बाना बुना गया है।सामान्य जन-जीवन में व्याप्त वैषम्य, विरूपताओं और विसंगतियों को उजागर करने के लिए व्यंग्य सशक्त माध्यम है और इस माध्यम का उपयोग लेखक ने बखूबी किया है।परसाई जी के शब्दों में कहें तो व्यंग्य अन्याय के विरुद्ध लेखक का हथियार बन जाता है।व्यंग्य के विषय में मदन कात्स्यायन का कथन है कि जिस देश में दारिद्र्य की दवा पंचवर्षीय योजना हो वहां के साहित्य का व्यंग्यात्मक होना अनिवार्य विवशता है।

इस संग्रह से पूर्व प्रकाशित परिहार जी के कथा-संग्रहों और व्यंग्य-संग्रह सुधी पाठकों के बीच चर्चित हुए हैं। विश्वास है कि प्रस्तुत संग्रह भी पाठकों के बीच समादृत होगा।

समीक्षक – अभिमन्यु जैन (व्यंग्यकार ), जबलपुर 



ई-अभिव्यक्ति: संवाद-9 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 9 

यह एक शाश्वत सत्य  है कि जीवन एक पहेली है।  आम तौर पर एक व्यक्ति जीवन में कम से कम तीन पीढ़ियाँ अवश्य देखता है। यदि सौभाग्यशाली रहा और ईश्वर ने चाहा तो चार या पाँच पीढ़ी भी ब्याज स्वरूप देख सकता है।

आज मैं आपसे संवाद स्वरूप यह कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ । पढ़ कर प्रतिकृया देंगे तो मुझे बेहद अच्छा लगेगा।

 

जिंदगी का गणित 

वैसे भी
मेरे लिए
गणित हमेशा से
पहेली रही है।

बड़ा ही कमजोर था
बचपन से
जिंदगी के गणित में।
शायद,
जिंदगी गणित की
सहेली रही है ।

फिर,
ब्याज के कई प्रश्न तो
आज तक अनसुलझे हैं।

मस्तिष्क के किसी कोने में
बड़ा ही कठिन प्रश्न-वाक्य है
“मूलधन से ब्याज बड़ा प्यारा होता है!”
इस
‘मूलधन’ और ‘ब्याज’ के सवाल में
‘दर’ कहीं नजर नहीं आता है।
शायद,
इन सबका ‘समय’ ही सहारा होता है।

दिखाई देने लगता है
खेत की मेढ़ पर
खेलता – एक छोटा बच्चा
कहीं काम करते – कुछ पुरुष
पृष्ठभूमि में
काम करती – कुछ स्त्रियाँ
और
एक झुर्रीदार चेहरा
सिर पर फेंटा बांधे
तीखी सर्दी, गर्मी और बारिश में
चलाते हुये हल।

शायद,
उसने भी की होगी कोशिश
फिर भी नहीं सुलझा पाया होगा
इस प्रश्न का हल।

आज तक
समझ नहीं पाया
कि
कब मूलधन से ब्याज हो गया हूँ ?
कब मूलधन से ब्याज हो गया है ?

यह प्रश्न
साधारण ब्याज का है?
या
चक्रवृद्धि ब्याज का है?

मूलधन किस पीढ़ी का है ?
और
उसे ब्याज समेत चुकाएगा कौन?
और
यदि चुकाएगा भी
तो किस दर पर
और
किसके दर पर ?

 

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

23  मार्च 2019



हिन्दी साहित्य – कविता – * साज़ का चमन * – श्रीमति सुजाता काले

श्रीमति सुजाता काले

साज़ का चमन
(श्रीमति सुजाता काले जी का e-abhivyakti में स्वागत है। प्रस्तुत है पर्यावरण एवं मानवीय संवेदनाओं का बेहद सुंदर शब्द चित्रण।)
शहर शहर उजड़ गए,
बाग में बसर नहीं ।
चारों ओर आग है,
कहीं बची झील नहीं ।उजड़ गए हैं घोंसले,
उजड़े हुए हैं दिन कहीं ।
सफ़र तो खैर शुरू हुआ,
पर कहीं शज़र नहीं ।

मासूम से परिंदों का
अब न वासता कहीं,
कौन जिया कौन मरा,
अब कोई खबर नहीं ।

दुबक गए पहाड़ भी,
लुटी सी है नदी कहीं,
ये कौन चित्रकार है,
जिसने भरे न रंग अभी।

शाम हैं रूकी- रूकी,
दिन है बुझा कहीं,
सहर तो रोज होती है,
रात का पता नहीं ।

मंज़िलों की लाश ये,
कर रही तलाश है,
बेखबर सा हुस्न है,
इश्क से जुदा कहीं ।

जहां बनाया या ख़ुदा,
और तूने जुदा किया,
साँस तो रूकी सी है,
आह है जमीन हुई।

लुट चुका जहां मेरा,
अब कोई खुशी नहीं,
राह तो कफ़न की है,
ये साज़ का चमन नहीं ।

© सुजाता काले ✍…

पंचगनी, महाराष्ट्र



मराठी साहित्य – मराठी कविता – * ओळख  * – सुश्री मीनाक्षी भालेराव

सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

ओळख 

(सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी की भारतीय परिवेश में स्त्री की पहचान उजागर करती हृदयस्पर्शी कविता।)

 

लाहान असतानी
जेव्हा  कुणी
घरी आल्यावर
आई बाबा मला
हाक मारून सांगायचे
बाला जा पटकन
चाह नाश्ता बनवून आण
अणी मी
अभ्यास वगैरा
सोड़ून
पदार्थ करून आणायचे
तेव्हा माझी ओळख होते
कित्ती  हुशार हो
लेक तुमची
सुरेख नाष्टा बनविले
मुलगा बघायला आला  तेव्हा ही
माझी ओळख
जेवण बनविल्यानी झाली
काय छाण जेवण
बनवल हो तुमची
लेक नी
आम्हाला आवडली
बर का
रिश्ता पक्का
तेव्हाही
मला कोणी विचारले नाही
तु अभ्यासात् कित्ती
हुशार आहे
इतर गोष्ठी तुला
अजून काय काय आवडते
सासरी पहिल्यांदा
रसोई बनविले
तेव्हाही माझी खुप
स्तुति झाली
अस वाटले मला
आज पण
समाजात काही
बदल झाला नाही
मुलगी कित्ती ही
शिकलेली असावी
कित्ती ही कमवून देणारी असावी
कित्ती ही गुणी असु दया
दिसायला सुरेख असू दया
पण तिची ओळख मात्र
छान स्वयंपाक बनवून देणारी
खाऊ घालणारी हिच राहते
स्त्री म्हणजे
स्वयंपाक घरातली
बन्धवा मजदूर ।
© मीनाक्षी भालेराव, पुणे 



आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (19) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

 

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।।19।।

जो इसको हन्ता या कि, मृत करते अनुमान

न मरती, न मारती, उनका है अज्ञान।।19।।

भावार्थ :   जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है।।19।।

 

He who takes the Self to be the slayer and he who thinks He is slain, neither of them knows; He slays not nor is He slain. ।।19।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)