ई-अभिव्यक्ति: संवाद-6 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 6 

होली पर्व पर आप सबको e-abhivyakti की ओर से हार्दिक शुभकामनायें। होली पर्व के अवसर पर इतनी रचनाएँ पाकर अभिभूत हूँ। आपके स्नेह से मैं कह सकता हूँ कि आज का अंक होली विशेषांक ही है।

उत्तराखंड के एक युवा लेखक हैं श्री आशीष कुमार। “Indian Authors” व्हाट्सएप्प ग्रुप पर साझा की गई उनकी निम्न पंक्तियों ने जैसे थोड़ी देर के लिए बचपन लौटा दिया हो।  जरा आप भी पढ़ कर लुत्फ लीजिये।

“अगर आप कहीं रास्ते में हैं….और अचानक से कोई सनसनाता हुआ पानी या रंग का गुब्बारा आप पर आकर छपता है…..तो गुस्सा न हों, न उन बच्चों को डांटे…
उनको कोसने के बजाए खुद को भाग्यशाली समझें… कि आपको उन नादान हाथों ने चुना है जो हमारी परम्परा को, संस्कृति को जिन्दा रखे हुए हैं… जो उत्सवधर्मी हिन्दोस्तान को और हिंदुस्तान में उत्सव को जिन्दा रखे हुए हैं… ऐसे कम ही नासमझ मिलेंगे.. वैसे भी बाकी सारे समझदार वीडियोगेम , डोरेमोन, और एंड्रॉइड या आईओएस के अंदर घुसे होंगे ।
तो कृपया इन्हें हतोत्साहित न करें…बल्कि यदि आप उन्हें छुपा देख लें तो जानबूझ कर वहीं से निकलें..आपकी Rs.400 की शर्ट जरूर खराब हो सकती पर जब उनकी इस शरारत का जबाब आप मुस्कुराहट से देंगे न.. तो उनकी ख़ुशी,आपको Rs.4000 की ख़ुशी रिटर्न करेगी…
और होली जिन्दा रहेगी, रंग जिन्दा रहेंगे, हिंदुस्तान में उत्सव जिन्दा रहेगा और हिंदुस्तान जिन्दा रहेगा।”  *?होली है?* “
– साभार श्री आशीष कुमार

यह तो पर्व का एक पक्ष हुआ। यदि इस पर्व के दूसरे पक्ष के लिए अपना पक्ष नहीं रखूँगा तो यह मेरी भावनाओं के साथ अन्याय होगा। मुझे अक्सर लगता है कि हमारा जीवन टी वी के समाचार चैनलों के ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह हो गया है। ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह हमारा जीवन भी उतार चढ़ाव से भरा हुआ है। क्या आपको नहीं लगता कि ये ब्रेकिंग न्यूज़ के विषय हमारी संवेदनाओं को कभी भी जागृत या सुप्तावस्था में ले जाते हैं? ब्रेकिंग न्यूज़ ही बाध्य करते हैं कि किस पर्व की क्या दिशा हो? और न्यूज़ चैनलों की बहसों के ऊपर बहस  करने का जिम्मा आप पर छोड़ता हूँ।

इस संदर्भ में मुझे मेरी कविता “तिरंगा अटल है, अमर है” की निम्न पंक्तियाँ याद आती हैं:

समय अच्छे-अच्छे घाव भर देता है

जीवन वैसे ही चल देता है

ब्रेकिंग न्यूज़ बदल जाती है

सोशल मीडिया के विषय बदल जाते हैं

शांति मार्च दूर गलियों में गुम जाते हैं

कविताओं के विषय बदल जाते हैं

तिरंगा अटल रहता है

रणनीति और राजनीति

सफ़ेद वस्त्र बदलते रहते हैं

गंगा-जमुनी तहजीब कहीं खो जाती है

रोटी, कपड़ा और मकान का प्रश्न बना रहता है

जिजीविषा का प्रश्न बना रहता है….

 

आज बस इतना ही।

पुनः होली की शुभकामनाओं के साथ।

 

हेमन्त बावनकर

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – “होली पर्व” – डॉ उमेश चंद्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

होली पर्व

(होली  पर्व पर  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी का  विशेष  आलेख  उनके व्हाट्सएप्प  से साभार। )

इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है।
यथा–
(अ) तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक: (शब्द कल्पद्रुम कोष) अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह। (भाव प्रकाश) अर्थात्―तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमो-धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं। यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है।
(ब) होलिका―किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं-जैसे-चने का पट पर (पर्त) मटर का पट पर (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते है कि वह चनादि का निर्माण करती *(माता निर्माता भवति)* यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पट पर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि होलिका माता की जय अर्थात् होलिका रुपी पट पर (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना-मटर) को बचा लिया।
(स) अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम *होलिकोत्सव* है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (येष्ट) करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम *वासन्ती नव सस्येष्टि* है। यथा―वासन्तो=वसन्त ऋतु। नव=नये। येष्टि=यज्ञ। इसका दूसरा नाम *नव सम्वतसर* है। मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे। हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है―(1) वैशाखी, (2) कार्तिकी। इसी को क्रमश: वासन्ती और शारदीय एवं रबी और खरीफ की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। अब तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि अनेक नवान्न पक चुके होते हैं। अत: परम्परानुसार पितरों देवों को समर्पित करें, कैसे सम्भव है।
तो कहा गया है– *अग्निवै देवानाम मुखं* अर्थात् अग्नि देवों–पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा।
हमारे यहाँ आर्यों में चातुर्य्यमास यज्ञ की परम्परा है। वेदज्ञों ने चातुर्य्यमास यज्ञ को वर्ष में तीन समय निश्चित किये हैं―(1) आषाढ़ मास, (2) कार्तिक मास (दीपावली) (3) फाल्गुन मास (होली) यथा *फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत् सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी* अर्थात् फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्यमास कहे जाते हैं आग्रहाण या नव संस्येष्टि।
समीक्षा―आप प्रतिवर्ष होली जलाते हो। उसमें आखत डालते हो जो आखत हैं–वे अक्षत का अपभ्रंश रुप हैं, अक्षत चावलों को कहते हैं और अवधि भाषा में आखत को आहुति कहते हैं। कुछ भी हो चाहे आहुति हो, चाहे चावल हों, यह सब यज्ञ की प्रक्रिया है। आप जो परिक्रमा देते हैं यह भी यज्ञ की प्रक्रिया है। क्योंकि आहुति या परिक्रमा सब यज्ञ की प्रक्रिया है, सब यज्ञ में ही होती है। आपकी इस प्रक्रिया से सिद्ध हुआ कि यहाँ पर प्रतिवर्ष सामूहिक यज्ञ की परम्परा रही होगी इस प्रकार चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली रुपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थे। आप जो गुलरियाँ बनाकर अपने-अपने घरों में होली से अग्नि लेकर उन्हें जलाते हो। यह प्रक्रिया छोटे-छोटे हवनों की है। सामूहिक बड़े यज्ञ से अग्नि ले जाकर अपने-अपने घरों में हवन करते थे। बाहरी वायु शुद्धि के लिए विशाल सामूहिक यज्ञ होते थे और घर की वायु शुद्धि के लिए छोटे-छोटे हवन करते थे दूसरा कारण यह भी था।
ऋतु सन्धिषु रोगा जायन्ते―अर्थात् ऋतुओं के मिलने पर रोग उत्पन्न होते हैं, उनके निवारण के लिए यह यज्ञ किये जाते थे। यह होली हेमन्त और बसन्त ऋतु का योग है। रोग निवारण के लिए यज्ञ ही सर्वोत्तम साधन है। अब होली प्राचीनतम वैदिक परम्परा के आधार पर समझ गये होंगे कि होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है।
पौराणिक मत में कथा इस प्रकार है―होलिका हिरण्यकश्यपु नाम के राक्षस की बहिन थी। उसे यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु का प्रह्लाद नाम का आस्तिक पुत्र विष्णु की पूजा करता था। वह उसको कहता था कि तू विष्णु को न पूजकर मेरी पूजा किया कर। जब वह नहीं माना तो हिरण्यकश्यपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को आग में लेकर बैठे। वह प्रह्लाद को आग में गोद में लेकर बैठ गई, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गया। होलिका की स्मृति में होली का त्यौहार मनाया जाता है l जो नितांत मिथ्या हैं।।
होली उत्सव यज्ञ का प्रतीक है। स्वयं से पहले जड़ और चेतन देवों को आहुति देने का पर्व हैं।  आईये इसके वास्तविक स्वरुप को समझ कर इस सांस्कृतिक त्योहार को बनाये। होलिका दहन रूपी यज्ञ में यज्ञ परम्परा का पालन करते हुए शुद्ध सामग्री, तिल, मुंग, जड़ी बूटी आदि का प्रयोग कीजिये।
*आप सभी को होली उत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ ।*
© डॉ.उमेश चन्द्र शुक्ल
अध्यक्ष हिन्दी-विभाग परेल, मुंबई-12

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य-आलेख *होली पर विशेष – सामाजिक समरसता* डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

होली पर विशेष – सामाजिक समरसता 
प्राचीन काल में आदमी का जीवन पूरी तरह प्रकृति से जुड़ा था ।यही वह समय था , जब उसने  ऋतुओं का धूमधाम से स्वागत करने की परम्परा कायम की ओर इसकी एक पुरातन कड़ी है होली । यह संधि  ऋतु यानी सर्दी के जाने और गर्मी के आने का पर्व है । नये धान्य की आगवानी का उल्लास पर्व है होली । इसकी आहट तो वसंत के आगमन से होने लगती है । आज के युग में मनुष्य दिनों दिन प्रकृति से दूर होता जा रहा है तथा पर्यावरण के रक्षक जंगलों को मनुष्य अपने स्वार्थ की खातिर काटकर जगह जगह कांक्रीट के जंगल बढ़ाता जा रहा है जिससे पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ा है ।
प्रकृति से दूर होने पर होली के मायने भी बदल गये हैं । कभी होली कृष्ण के समान ललित मानी जाती थी , परन्तु बदलते हालात के साथ अश्लीलता , अशिष्टता और घिनोनापन जुड़ गया है । पारम्परिक रंग गुलाल , अबीर से होली खेलने के स्थान पर ग्रीस , तारकोल , आइल ,सिल्वरपेन्ट के साथ ही नाली के कीचड़ से होली खेलने वाले बढ़ते जा रहे हैं ।युवतियों के दुपट्टे खींचने और बुजुर्गों की टोपियां उछालकर मजा लेने वाले भी कम नहीं हैं ।
होली जो सामाजिक समरसता का प्रतीक हुआ करती थी, अब बदला लेने के पर्व में तब्दील होती जा रही है । एक दूसरे से दुश्मनी के फलस्वरूप होली की आड़ में  इस दिन किसी पर तेजाब फेंकना या छुरा चाकू के वार से खून की होली खेलने का पर्व होता जा रहा है होली ।सच कहा जाये तो ये तत्व होलिहार हैं ही नहीं, ये हुड़दंगिए हैं, जिनमें वसंत का रस लेने की क्षमता नहीं है । होलिहार तो अपनी शालीन ठिठोली, मस्ती और उल्लास से प्रकृति की मादक अंगड़ाई की मिठास बांटते हैं । प्रेम और सामाजिक मिलन के इस पर्व की महत्वता को बचाने और आगे आने वाली पीढ़ी को इसके वास्तविक स्वरूप को पहचानने के लिए  हमारा कर्तव्य है कि हम वैमनस्यता को त्यागकर भाईचारे के साथ होली मनायें ।
© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – * अबकी होली …. बेरंग होली  * – श्रीमति सखी सिंह 

श्रीमति सखी सिंह 

 

अबकी होली …. बेरंग होली 

(श्रीमति सखी सिंह जी का e-abhivyakti में स्वागत है। 

प्रस्तुत कर रहा हूँ  प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमति सखी सिंह जी की कविता बिना किसी भूमिका के  उन्हीं के शब्दों के साथ – एक ख्याल आया रात कि जो शहीद हुए हैं पिछले कुछ दिनों में उनके घर का आलम क्या होगा इस वक़्त। मन उदासी से भर गया। आंखें नम हो गयी। )

उन सभी लोगों को समर्पित जो कहीं न कहीं इस दर्द से जुड़े हैं।
अबकी होली बेरंग होली
सैयां न अब घर आएंगे,
नयन हमारे अश्क़ बहाते
चौखट पे जा टिक जाएंगे।
राह हो गयी सूनी कबसे
पिया गए किस देश हमारे
भारत माँ की चुनर रंग दी
सुर्ख लहूँ के बहा के धारे
माटी को मस्तक धारूँगी
माटी में पिया दिख जाएंगे।
अबकी होली बेरंग होली….
गहनों की झंकार तुम्ही थे
मेरा सब श्रृंगार तुम्हीं थे
मात पिता के तुम थे सहारा
सपनों का आधार तुम्ही थे
सपने बिखरे साथ तुम्हारे
बिन सपनों के कित जाएंगे।
अबकी होली….

© सखी सिंह, पुणे 

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता **रोजच होळी** श्रीअशोक श्रीपाद भांबुरे

श्रीअशोक श्रीपाद भांबुरे
*रोजच होळी*
(प्रसिद्ध मराठी कवि श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का e-abhivyakti में स्वागत है। प्रस्तुत है श्री अशोक जी की होली पर्व पर एक भावप्रवण कविता।)
रणांगणावर खेळत असतो जवान होळी
नकाच भाजू विरोधकांनो त्यावर पोळी
रंग नव्हे ते धमन्या मधले रक्त सांडती
युद्धाचे हे श्रेय लाटण्या कुणी भांडती
भांडण घरचे शेजाऱ्याला नका दाखवू
घरात घुसण्या नका कुणाला संधी देवू
वैऱ्याचे या उगा गोडवे नकाच गाऊ
वैरी शेवट वैरी असतो नसतो भाऊ
रोजच होळी खेळत असतो सीमेवरती
नाव शत्रूचे लिहून ठेवतो गोळीवरती
ईद दिवाळी आणिक होळी असते जेव्हा
तुझी आठवण जीव जाळते तेव्हा तेव्हा
शहीद झाले नमन तयांना कोटी कोटी
विसरत नाही ते तर असती कायम ओठी
© अशोक श्रीपाद भांबुरे
धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.
मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (16) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

 

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ।।16।।

 

असत कभी रहता नहीं,सत का कभी अभाव

तत्व ज्ञानियों का यही निश्चित अंतिम भाव।।16।।

      

भावार्थ :  असत्‌वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।।16।।

 

The unreal hath no being; there is no non-being of the Real; the truth about both has been seen by those who  know of the Truth (or the seers of the Essence). ।।16।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता * ” चिमुकल्या चिऊला वाचवुया ” * सुश्री स्वप्ना अमृतकर

सुश्री स्वप्ना अमृतकर

“चिमुकल्या चिऊला वाचवुया ” 
(काव्यप्रकार – हायकू)
(सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी की World Sparrow Day  – 20th March पर हायकू काव्यप्रकार में रचित विशेष रचना। यह रचना गत वर्ष “Rasika” एवं “Eco” पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है।गौरैया (Sparrow) चिड़िया के संरक्षण के लिए रचित इस रचना के लिए सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी का विशेष आभार। )
हिरव्या रानी
     शहर किंवा गाव
           निसर्गहानी . .    १
त्या चिमुकल्या
      शोधाया दाणापाणी
           कुठे हरवल्या?..  २
चिऊ ची टोळी
      होतसे दिसेनाशी
            वेळी अवेळी . .   ३
नदी कोरडी
       चिमण पाखरांची
           तहान वेडी  . .     ४
लेकी प्रमाणे
       चिऊलाही वाचवु
          हो संघर्षाने .. ५

© स्वप्ना अमृतकर (पुणे)

 

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति: संवाद-5 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 5 

कल देर रात डॉ सुरेश कान्त के नवीनतम व्यंग्य उपन्यास “जॉब बची सो ……” की श्री एम एम चन्द्र जी द्वारा की गई पुस्तक समीक्षा को e-abhivyakti  में प्रकाशित करने के पूर्व पढ़ते-पढ़ते उसमें इतना खो गया कि समय का पता ही नहीं चला और आपसे संवाद करने से भी चूक गया। इस संदर्भ में संस्कारधानी जबलपुर के साहित्यकार श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का आभारी हूँ, जिन्होने बैंक के पुराने दिनों की याद ताजा कर दी।

डॉ सुरेश कान्त एवं श्री एम एम चंद्रा दोनों ही हस्तियाँ व्यंग्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। अभी हाल ही में मैंने श्री चंद्रा जी के उपन्यास “यह गाँव बिकाऊ है” की समीक्षा इसी वेबसाइट पर प्रकाशित की थी। श्री चंद्रा जी प्रसिद्ध सम्पादक, आलोचक, व्यंग्यकार एवं उपन्यासकार हैं।  डॉ  सुरेश कान्त जी के बारे में अमेज़न की साइट पर उपलब्ध निम्नलिखित जानकारी  आपको उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से रूबरू कराने के लिए काफी है।

“अपने एक नियमित कॉलम के शीर्षक की तरह अग्रणी व्यंग्यकार सुरेश कांत अन्य व्यंग्यकारों से  कुछ अलग’ हैं। व्यंग्य उनके हाथ में ऐसा अस्त्र है, जो लगातार इस्तेमाल किए जाने से भोथरा नहीं होता, बल्कि और पैना होता जाता है। तभी तो उनके व्यंग्य इतने प्रखर और बेधक होते हैं। वे पाठक के मन को भाते भी हैं और उसे यह सोचने के लिए बाध्य भी करते हैं कि अरे, हमारा जीवन इतना विसंगति भरा है? इतना दूषित और विषमतापूर्ण है? यह तो बहुत गलत है! तो फिर किस तरह हम इसे ठीक करें? और इस प्रक्रिया में वह स्वयं से भी साक्षात्कार करता है, कि कहीं मैं ही, या फिर मैं भी, तो जिम्मेदार नहीं इसके लिए? जिन विसंगतियों की तरफ व्यंग्य में इशारा किया गया है, कहीं वे मुझमें भी तो नहीं? अगर हैं, तो सबसे पहले तो मुझे अपने को ही दुरुस्त करना चाहिए। और अगर नहीं हैं, तो भले ही मैंने खुद कोई गलत काम न किया हो, पर औरों को गलत काम करते देख चुप रह जाना भी तो गलत काम ही है! इससे उसकी चेतना में हलचल होती है, उसकी चेतना जागती है, सच्चे अर्थों में चेतना बनती है। क्योंकि चेतना अगर सोई हो, तो चेतना कैसी? परिणामत: विसंगतियाँ उसे कचोटने लगती हैं, गलत आचरण उससे बरदाश्त नहीं होता, वह खुद को गलत के विरोध में खड़ा पता है और उससे लड़ने लगता है। इस तरह उनके व्यंग्य जीवन में बदलाव की नींव रखते हैं। इसीलिए तो हैं वे दूसरों से ‘कुछ अलग’। 

किसी भी लेखक के पात्र/चरित्र उसके आसपास ही होते हैं। कई बार तो वह स्वयं भी पात्र बन जाता है और किसी भी शैली में लिखने लगता है। कई बार किसी का वार्तालाप या कोई घटित घटना भी उसे लिखने के लिए प्रेरित कर देती है। बस एक बार सूत्र मिल जाए लेखक सूत्रधार बन शब्दों का ताना बाना बुन कर पात्र रच लेता है, चरित्र गढ़ लेता है।

इस संदर्भ में मुझे मेरी कविता “मैं मंच का नहीं मन का कवि हूँ” की निम्न पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

 

तब जैसे

मन से बहने लगते हैं शब्द

व्याकुल होने लगती हैं उँगलियाँ

ढूँढने लगती हैं कलम

और फिर

बहने लगती है शब्द सरिता

रचने लगती है रचना

कथा, कहानी या कविता।

शायद इसीलिए

कभी भी नहीं रच पाता हूँ

मन के विपरीत

शायरी, गजल या गीत।

नहीं बांध पाता हूँ शब्दों को

काफिये मिलाने से

मात्राओं के बंधों से

दोहे, चौपाइयों और छंदों से।

 

शायद वे प्रतिभाएं भी

जन्मजात होती होंगी।

जिसकी लिखी प्रत्येक पंक्तियाँ

आत्मसात होती होंगी।

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी आलेख – * माझ्या अंगणातील पऱ्या * – सुश्री रंजना लसणे

सुश्री रंजना लसणे 

*माझ्या अंगणातील पऱ्या*

(आदरणीया सुश्री रंजना लसणे जी के शिक्षिका/लेखिका हृदय का अभिनंदन।  इस अत्यंत शिक्षाप्रद एवं हृदयस्पर्शी आलेख के लिए सुश्री रंजना जी को सादर नमन)

कन्या अभिमान  दिना निमित्त सर्वांच्या कविता कथा लेख वाचले आणि तीस वर्षा पूर्वीचे दिवस आठवले. पहिल्या मुला नंतर एक गोजिरवाणी परी आयुष्यात यावी आपल्याला अवगत सर्व कलागुणांनांनी एक संपन्न आपली प्रतिकृती निर्माण करावयाची खूप इच्छा होती आपल्याला मुलगी या कारणामुळे ज्या गोष्टी करण्यापासून वंचीत राहावे लागले ते सर्व काही तिला भरभरून द्यायचं होते .परंतु पुन्हा नशीबानं कलाटणी दिली याही वेळी मुलगाच झाला. मन खट्टू झाले परंतु त्याच क्षणी ठरवलं आपल्या भोवती बागडणाऱ्या या सोनपऱ्या आपल्याच समजून वागायचं.

जेव्हा आपण एखाद्याला मनापासून आपलं मानतो तेव्हा त्याची सर्वस्वी जबाबदारी आपलीचं ठरते सातवी पर्यंत आणि तीही कन्या शाळा असल्यामुळे शेकडो चिमण्याची चिवचिव दिवसभर असायची, काहीजणी तर अगदी रात्री अंधार पडे पर्यंत घरीच असायच्या.

लहानपणी आई अनेक गोष्टी साठी का रागवायची हे आता समजायचं. आपल्या चिमणीवर कुणाचीही वाईट नजर पडू नये हा त्या मागचा मुख्य उद्देश तेव्हा कळायचा नाही आईचा रागही यायचा परंतु आता मात्र माझ्यातली आईचं जागी व्हायची. तसं आमचं बालपण लाडात परंतु कडक शिस्तीत गेलेले असल्यामुळे आईची तीच करडी जरब माझ्यात नकळत डोकावत असे. मुलींचा लाड ही खूप करायची परंतु शिस्त मोडली की सगळं बिघडायचं. मुलीही मला राग येणार नाही याची कटाक्षाने दक्षता घ्यायच्या. कधीकधी वाटायचं आपण हुकूमशाही पद्धतीने वागतो का?

एकदा कॉलेजमध्ये असणाऱ्या सहासात मुली कुठल्यातरी कार्यक्रमाला जाण्यासाठी अगदी नटून थटून निघाल्या होत्या. खूप सुंदर दिसत होत्या गप्पांच्या नादात त्यांनी मला जवळ येईपर्यंत पाहिलं नाही अचानक एकीचं लक्ष गेलं आणि सगळ्याजणी चक्क जवळच्या दुकानात शिरल्या लिपस्टिक पुसलं केस आवरले. आणि खाली मान घालून निघून गेल्या त्या दिवशी मला खरंच खूप वाईट वाटलं. आज पासून रागवायचं नाही पक्कं ठरलं. या घटनेने  नकळत सुखावले सुद्धा. शिक्षण पूर्ण झाल्यावर सुद्धा आपला शब्द मुलं जपतात यातचं खूप काही जिंकल्यासारखं वाटलं. यापुढे मुलींना रागवायचं नाही असं मनोमन ठरवलं परंतु व्यर्थच माझी छाप ठरली ती ठरली.

आजही लग्न झालेल्या मुली माहेरी आल्या की आवर्जून घरी येतात काही तर घरी बैग टेकली की थेट इकडेच निघतात. काही जावई स्वतःच आणून सोडतात. अगदी धन्य झाल्या सारखं वाटतं. आपल्याला मुलगी नाही ही सलं कुठल्या कुठं पळून जाते. ज्यांना मुली आहेत त्यांना मी तेव्हा का रागवायची ते प्रकर्षाने जाणवतं. त्या जेव्हा मोकळेपणानं हे कबुल करतात तेव्हा आपण हुकुमशाही पद्धतीने वागून चूक केली ही सलं सुद्धा आनंदात बदलते.

माझ्या दोन सुनबाई सोनपावलांनी येतील तेव्हा येतील परंतु आजही मी अनेक सोनपऱ्यांची  परिपूर्ण आई असल्याचे सुख नक्कीच अनुभवत आहे.

आज कन्या अभिमान दिनाच्या माझ्या सर्व कन्यकांना हार्दिक शुभेच्छा 

      कळत नकळत दुखावल्या बद्दल दिलगिरी व्यक्त करते

आपली ….

रंजना मधुकर लसणे

© रंजना लसणे
बाळापूर आखाडा,  हिंगोली मो. -9960128105

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (15) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

 

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।।15।।

जिन्हें दुखी करते नहीं ये परिवर्तन पार्थ

वही व्यक्ति जीवन अमर , जीते हैं निस्वार्थ ।।15।।

भावार्थ :  क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है ।।15।।

 

That firm man whom surely these afflict not, O chief among men, to whom pleasure and pain are the same, is fit for attaining immortality! ।।15।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

Please share your Post !

Shares
image_print