आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (15) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।

शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ।।15।।

 

जो मन को निर्बाध रख,करता मेरा ध्यान

पाना सुख औ” शांति का उसे बहुत आसान।।15।।

 

भावार्थ :  वश में किए हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है।।15।।

 

Thus, always keeping the mind balanced, the Yogi, with the mind controlled, attains to the peace abiding in Me, which culminates in liberation. ।।15।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 9 ☆ इश्क ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “इश्क”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 9

☆ इश्क 

 

जाते हुए मुसाफ़िर के

सीने से लगकर

लाख गुज़ारिश की जाए,

हज़ारों मन्नतें माँगी जाएँ,

इश्क़ की दुहाई दी जाए,

पर उसे अगर जाना होता है

तो वो ठहरता नहीं है…

 

बाद अजब है यह इश्क़ भी,

जब बोलना चाहिए

वो लबों पर ऊँगली लगाकर

ख़ामोश हो जाता है,

और जाने वाले को

रोकता भी नहीं!

 

शायद वो भी जाने के बाद

जान ही जाएगा

इकरार का एहसास,

पर तब तक

बहुत देर हो चुकी होगी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।




हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – यह पल ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – यह पल ☆

 

सामान्य निरीक्षण है कि हम में से अधिकांश की मोबाइल गैलरी एक बड़ा भंडारघर है। पोस्ट पर पोस्ट, ढेर सारी पोस्ट मनुष्य इकट्ठा करता रहता है, डिलीट नहीं करता। फिर एक दिन सिस्टम एकाएक सब कुछ डिलीट कर देता है।

गड्डियाँ बाँधे निरर्थक संचित धन हो या थप्पियाँ लगाकर संजोये रखे सपने, चलायमान न हों तो सब व्यर्थ है। जीवन न बीता कल है, जीवन न आता कल है। जीवन बस इस पल है।

पल, पल रहा है, इसके साथ पलो।  पल चल रहा है, इसके साथ चलो। पल तो रुकने से रहा, नहीं चले तो तुम रुके रह जाओगे।

जो रुका रह गया, वह जड़ हो गया। चलायमान का ठहर जाना, चेतन का जड़ हो जाना, जीवन की इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 6 ☆ आसमान से आया फरिश्ता ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की पुस्तक चर्चा  आसमान से आया फरिश्ता। 

हाराष्ट्र राज्य का हिन्दी साहित्य अकादमी पुरस्कार  से पुरस्कृत इस पुस्तक की चर्चा , मात्र पुस्तक चर्चा ही नहीं अपितु हमारे समाज को एक सकारात्मक शिक्षा भी देती है और हमें धर्म , जाति और सम्प्रदाय से ऊपर उठ कर विचार करने हेतु विवश करती है. कालजयी गीतों के महान गायक मोहम्मद रफ़ी जी , संगीतकार नौशाद जी  एवं  गीतकार शकील बदायूंनी जी  को नमन और सार्थक पुस्तक चर्चा के लिए श्री विवेक रंजन जी को हार्दिक बधाई.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 6 ☆ 

 

पुस्तक – आसमान से आया फरिश्ता

 

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – आसमान से आया फरिश्ता

लेखक –  धीरेंद्र जैन

प्रकाशक – ई ७ पब्लिकेशन मुम्बई

मूल्य –  299 रु

 

☆ पुस्तक  – आसमान से आया फरिश्ता – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

☆ आसमान से आया फरिश्ता ☆

 

धीरेंद्र जैन सिने पत्रकारिता  के रूप में जाना पहचाना नाम है. उन्हें “मोहम्मद रफी.. एक फरिश्ता था वो ” किताब के लिये महाराष्ट्र राज्य का हिन्दी साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है. रफी साहब के प्रति उनकी दीवानगी ही है कि वे उन पर ४ किताबें लिख चुके हैं. आसमान से आया फरिश्ता एक सचित्र संस्मरणात्मक पुस्तक है जो रफी साहब के कई अनछुये पहलू उजागर करती है.

दरअसल अच्छे से अच्छे गीतकार के शब्द तब तक बेमानी होते हैं जब तक उन्हें कोई संगीतकार मर्म स्पर्शी संगीत नही दे देता और जब तक कोई गायक उन्हें अपने गायन से श्रोता के कानो से होते हुये उसके हृदय में नही उतार देता. फिल्म बैजू बावरा का एक भजन है मन तड़पत हरि दर्शन को आज,  इस अमर गीत के संगीतकार नौशाद और गीतकार शकील बदायूंनी हैं.  इस गीत के गायक मो रफी हैं. रफी साहब की बोलचाल की भाषा पंजाबी और उर्दू थी, अतः इस भजन के तत्सम शब्दो का सही उच्चारण वे सही सही नही कर पा रहे थे. नौशाद साहब ने बनारस से संस्कृत के एक विद्वान को बुलाया, ताकि उच्चारण शुद्ध हो. रफी साहब ने समर्पित होकर पूरी तन्मयता से हर शब्द को अपने जेहन में उतर जाने तक रियाज किया और अंततोगत्वा यह भजन ऐसा तैयार हुआ कि आज भी मंदिरों में उसके सुर गूंजते हैं, और सीधे लोगो के हृदय को स्पंदित कर देते हैं.

भजन  “मन तड़पत हरि दर्शन को आज” भारत की गंगाजमुनी तहजीब का जीवंत उदाहरण बन गया है जहां गीत संगीत आवाज सब कुछ उन महान कलाकारो की देन है जो स्वयं हिन्दू नही हैं. सच तो यह है कि कलाकार धर्म की संकीर्ण सीमाओ से बहुत  ऊपर होता है, पर जाने क्यों देश फिर उन्ही संकीर्ण, कुंठाओ के पीछे चल पड़ता है, ऐसी पुस्तके इस कट्टरता पर शायद कुछ काबू कर सकें. 

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८




हिन्दी साहित्य – राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जन्मदिवस विशेष ☆ राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर ☆ – श्री कुमार जितेंद्र

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जन्मदिवस विशेष 

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(स्वर्गीय रामधारी सिंह दिनकर जी के जन्मदिवस 23 सितम्बर पर श्री कुमार जितेंद्र जी की  विशेष कविता राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर.

☆ राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर ☆

 

आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस कवि ।

राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर कहलाए ।।

सिमरिया घाट में जन्मे दिनकर ।

राष्ट्रकवि से विभूषित दिनकर ।।

संस्कृत, बांग्ला, उर्दू ज्ञाता दिनकर ।

ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता दिनकर ।।

राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत कविताएं ।

क्रांतिपूर्ण संघर्ष की प्रेरणात्मक कविताएं ।।

राष्ट्रभाषा की समस्या से चिंतित थे दिनकर ।

राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता लिखी पुस्तके ।।

दिनकर साहित्य अनुपम मोती उभरा ।

आधुनिक हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में ।।

आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस कवि ।

राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर कहलाए ।।

 

जयंती पर शत शत नमन 

 

©  कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 1 – ☆ तरिही वसंत फुलतो – स्व सुधीर मोघे ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जी  का  ई-अभिव्यक्ति  में पुनः स्वागत है. सुश्री ज्योति जी ने ई-अभिव्यक्ति में  मराठी साहित्य की नींव डाली है, एवं  एक नई ऊंचाइयों  पर पहुँचाया है . उनके योगदान को कभी भी नहीं भुलाया जा सकता. हम उनके ह्रदय से आभारी हैं , जो उन्होंने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के हमारे आग्रह को स्वीकार  किया है. इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “तरिही वसंत फुलतो  – स्व सुधीर मोघे ” । इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

 

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # १ ☆

 

☆ तरिही वसंत फुलतो  – स्व सुधीर मोघे ☆ 

 

आज आपल्यात सामिल होतायत अष्टपैलू व्यक्तिमत्व लाभलेले सुधीर मोघे आपल्या *तरिही वसंत फुलतो*ह्या अर्थपूर्ण क वितेला घेऊन. किर्लोस्करवाडीत जन्मलेला, पुण्यात स्थिरावलेला आणि आपल्या कवितासखीला सोबत घेऊन कवी, लेखक, गीतकार, संगीतकार, निवेदक, चित्रकार,लघुपट निर्माता, दिग्दर्शक अशा सगळ्याच वाटांवर स्वच्छंद मुशाफिरी करणारा हा कलाकार, आपल्या अनवट सुरावटीचे अनोखे अमिट ठसे रसिकांच्या मनावर उमटवणारा, साहित्याच्या गगनी स्वैर विहार करणारा हा मुक्तछंद पक्षी ! ह्या मनस्वी व्यक्तिमत्वाला आरपार वेढलेल्या त्यांच्या कवितेचं इतकं विलोभनीय दर्शन रसिकांना घडतं की शेवटी ऋतूगंधच्या टीमला देखील त्यांना विचारावंसंच वाटलं की ‘ तुमच्या मनात एखादी कल्पना येते ती कोणत्या रूपांत येते ? शब्दांच्या..सुरांच्या..की रेषा अन् रंगांच्या ?

गदिमा प्रतिष्ठानचा चैत्रबन पुरस्कार, महाराष्ट्र साहित्य परिषदेचा ना.घ.देशपांडे पुरस्कार,राज्य सरकारचा सर्वोत्कृष्ट गीतकार पुरस्कार, मटा सन्मान, अशा अनेकविध पुरस्कारांचे तुरे आपल्या शिरपेचात मिरवणारा,पण त्याचवेळी मातीत भक्कम पाय रोवलेला हा गुणी पण तितकाच मनस्वी कलाकार ! ‘चौकटचा राजा ‘, ‘कळत नकळत’ ह्या चित्रपटांतून, ‘एकाच ह्या जन्मी जणू ‘, ‘फिटे अंधाराचे जाळे ‘, ‘दयाघना ‘ सारख्या अवीट गोडीच्या गीतांतून आणि ‘शब्दधून ‘’, लय ‘, ‘आत्मरंग ‘सारख्या काव्यसंग्रहातून ह्या कलाकाराच्या कवितेवर रसिकांनी भरभरून प्रेम केलं व लोकप्रियतेच्या शिखरावर ह्या कविराजाला पोहोचवलं !

तर अशा ह्या कवीराजाची कविता मी घेऊन येतेय….!

*तरिही वसंत फुलतो*

 

प्रत्येक जन्मणारा क्षण शेवटास ढळतो

तरिही वसंत फुलतो….!

उमले फुले इथे जे, ते ते अखेर वठते

लावण्य,रंग,रूप सारे झडून जाते

तो गंध तो फुलोरा अंती धुळीस मिळतो

तरिही वसंत फुलतो….!

जे वाटती अतूट जाती तुटून नाते

आधार जो धरावा, त्यालाच कीड लागे

ऋतू कोवळा अखेरी तळत्या उन्हात जळतो

तरीही वसंत फुलतो….!

तरिही फिरून बीज, रूजते पुन्हा नव्याने

तरिही फिरून श्वास, रचती सुरेल गाणे

तरिही फिरून अंत उगमाकडेच वळतो

उगमाकडेच वळतो….!

प्रत्येक जन्मणारा क्षण शेवटास ढळतो

तरिही वसंत फुलतो….!

 

‘जातस्य ध्रुवो मृत्यु:’ हे शाश्वत सत्य ! जन्माला आलेल्याचा शेवट हा नक्कीच ठरलेला ! चराचरातील कुठलीही गोष्ट ह्याला अपवाद नाही. अगदी सुखदु:खाच्या क्षणांनाही शेवट हा असतोच ! आयुष्याला वेढून असलेल्या क्षणैक सुखदु:खाची क्षणभंगूरताच तर कवीला इथे स्पष्ट करायची नाहीय ना ?

उत्पत्ती स्थिती आणि लय ही  त्रिसूत्री युगानुयुगे समर्थपणे राबवणारा  तो सृष्टिकर्ता आणि त्या शाश्वत चिरंतनाचा मुकाट स्वीकार करणारं चराचर ! उन्हाळा, हिवाळा, आणि पावसाळा ह्या अव्याहत फिरणाऱ्या ऋतूचक्राचा ह्या सृष्टीवरील अखंड वावर आणि त्या ऋतूरंगात रंगलेले, दंगलेले, भंगलेले अवघे चराचर !

‘रंग माझा वेगळा’ म्हणणाऱ्या सहा ऋतूंच्या अनुपम सोहळ्यात चराचराने साजरा केलेला वसंतोत्सव, सोसलेल्या ग्रीष्माच्या झळा, झेललेल्या वर्षेच्या धारा, प्यायलेलं शरदाचं चांदणं, अनुभवलेली हेमंतातली शिरशिरी, पचवलेली शिशिरातली पानगळ ही सारी त्या नियंत्याचीच करामत ! त्या करामतीत जे जे फुलतं उमलतं ते अखेरीस वठतं ह्या चिरंतन सत्याचा अपरिहार्य स्वीकार हा गृहीतच धरलाय ! उमलणं, फुलणं, गंधवती, सौंदर्यवती होणं, व शेवटी पाकळ्या गळून कळाहीन होणं ह्या फुलाच्या अवस्था, तद्वतच, शैशव, तारुण्य आणि, वार्धक्य हे मानवी जीवनातले टप्पे ! पण आपलाच बहर वेचता वेचता कळाहीन अवस्थेला सामोरं जाणं  हे फुलाप्रमाणेच मानवालाही चुकलेलं नाही !

फुलाचा बहर, त्याचं लावण्य, त्याचा गंध जसा तात्कालिक, त्याचा शेवट हा ठरलेलाच तसंच माणूस देखील ह्या निसर्गनियमाला अपवाद कसा ठरणार ? अंती भुईच्या कुशीतच दोघांची  चिरविश्रांती !

माणसाचं भावविश्व म्हणजे  त्याचा जिवाभावाचा गोतावळाच  ! जणू काही त्याचंच एक अविभाज्य अंग  ! अनोख्या रेशीम बंधाने विणलेलं वस्त्रच जणू ! त्याचा पोत तलम, त्याची झळाळी अपूर्व !  संशय, गैरसमजाची कसर लागली की बघता बघता ते गर्भरेशमी वस्त्र विरायला वेळ देखील लागत नाही ! अतूट वाटणारी नाती बघता बघता दगा देतात, भावविश्वाला क्षणार्धात उध्वस्त करतात. आणि मग मनाच्या खास कप्प्यात जपलेली नात्याची कोवळीक करपायला वेळ लागत नाही !

बदल हा तर सृष्टीचा नियम.. आणि तो साऱ्या चराचराच्या अंगवळणी पडलेला ! त्यालाच अनुसरून पुन: होत्यांचं नव्हतं झालेलं चित्र पालटतं, अंताकडून उदयाकडे वाटचाल सुरू होते.   पुन: सृजनोत्सव, पुन: रूजणं, फुलणं, आणि सुरेल सुरावटीचं  आनंदगान गाणं !

अशा प्रकारे जीवनप्रवासातल्या साऱ्या स्थितीबदलांना सामोरं जातांना देखील दुर्दम्य आशावादाचा वसंत मनी जपण्याचा मंत्र देणारी ही कविता ! ऋतू बदलतात, दिवस पालटतात तसेच भोवतालच्या परिसरात, आयुष्यात कितीही आणि कशीही उलथापालथ झाली तरी सृष्टीचं ऋतूचक्र, जीवनाचं रहाटगाडगं  हे अव्याहत आणि नियमित सुरूच असतं, ते तुमच्यासाठी थांबणारं नसतं, ही जीवनातली अपरिहार्यता समजून घे असं सूचित करणारी आणि दुसऱ्या बाजूने हेही दिवस पालटतील हा दुर्दम्य आशावाद मनी बाळगण्याचा कानमंत्र  देणारी

ही मला अत्यंत भावलेली सुधीर मोघेंची रचना ! ‘तरिही वसंत फुलतो ‘ ही प्रत्येक कडव्याच्या शेवटी येणारी ओळ मनाला येणारी काजळी पुसून टाकण्याचं काम अतिशय सफाईने करते. आणि मन नकळत एका ठेक्यावर डोलत राहतं….* तरिही वसंत फुलतो*….!

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #17 – सूर्य वेगळा☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक सामयिक एवं सार्थक कविता “सूर्य वेगळा”।)

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 17☆

 

 ☆ सूर्य वेगळा ☆

 

गुलाल रविचा अंगाला या बाधत नाही

हा देहाला फक्त सुखवतो माखत नाही

 

तहानलेला भास्कर करतो समुद्र प्राशन

सागरातले क्षार तरीही चाखत नाही

 

नऊ ग्रहांचे चक्र जरी हे तुझ्या भोवती

तसा कुणाच्या हाताला तू लागत नाही

 

तू जागेवर रथ किरणांचे धावतात हे

वेगवान हे अश्व कुठेही थांबत नाही

 

रोज पहाटे ऊन कोवळे घेतो आम्ही

उर्जा मिळते किरण कोवळे भाजत नाही

 

जेव्हा जेव्हा तुला पाहतो प्रसन्न तू तर

कधी उदासी तुझ्या मुखावर भासत नाही

 

किती धर्म अन् कितीतरी या जाती येथे

कुणाच सोबत सूर्य वेगळा वागत नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (14) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।

मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ।।14।।

 

शांतचित्त,भ्रम छोड़ सब,ब्रम्हचर्य व्रत पाल

मुझ में स्थिर चित्त रख सारे द्वंद निकाल।।14।।

 

भावार्थ :  ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित तथा भलीभाँति शांत अन्तःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होए।।14।।

 

Serene-minded, fearless, firm in the vow of a Brahmachari, having controlled the mind,  thinking of Me and balanced in mind, let him sit, having Me as his supreme goal. ।।14।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – ☆ कथा कहानी – लघुकथा ☆ पौध संवेदनहीनता की ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है. यह एक गौरव का विषय हैं कि उन्होंने परदादा – दादा से विरासत में मिली साहित्यिक अभिव्यक्ति को न सिर्फ संजोकर रखा है बल्कि वे निरंतर प्रयास कर उस दिव्य ज्योति को प्रज्वलित कर चहुँ ओर उसका प्रकाश बिखेर रही हैं.  उनके ही शब्दों में –

“अपने मन की बात  कहने के लिए कविता और लघुकथा मेरे माध्यम हैं. ‘मन के हारे हार है , मन के जीते जीत’ पर मेरा पूरा विश्वास है. इसी मन को साहित्य – सृजन द्वारा चैतन्य और सकारात्मक बनाए रखती हूं.”

उनकी लघुकथाएं  हमारे आस पास की घटनाओं और सामाजिक पात्रों को लेकर लिखी गईं हैं. साथ ही वे सहज ही हमें कोई  न  कोई सकारात्मक समाजिक एवं शिक्षाप्रद सन्देश दे जाती हैं.  आज प्रस्तुत हैं उनकी लघुकथा “पौध संवेदनहीनता की”.  हम भविष्य में उनके साहित्य को आपसे साझा कर सकेंगे ऐसे अपेक्षा के साथ.)

 

☆  पौध संवेदनहीनता की ☆ 

 

हर तरफ वृक्षारोपण किया जा रहा था | भारत सरकार के आदेश का पालन जो करना था | बड़ी तादाद में गड्ढ़े खोदे गए,  पौधे लगाए गए और बड़े अधिकारियों ने मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाई | अखबारों में ज़ोर- शोर से इसका खूब प्रचार हुआ,  इसके बाद उन पौधों का क्या होगा भगवान जाने ? सरकारी आदेश का पालन हो चुका था .

लेकिन उसे इन बातों से कोई मतलब ही नहीं था | उसके आदर्श तो उसके पिता थे | उसने देखा था कि वे जब भी कोई फल खाते उसका बीज सुखाकर रख लेते थे | तरह – तरह के फलों के ढेरों बीज उनके पास इक्ठ्ठे हो जाते | जब वे बस से एक जगह से दूसरी जगह जाते तब सड़क के किनारे की खाली जमीन और घाटों में बीज फेंकते जाते | उनका विश्वास था कि ये बीज जमीन पाकर फूलें – फलेंगे और पर्यावरण सुरक्षित रहेगा | बचपन में पिता के साथ बस में सफर करते समय उसने भी कई बार खिड़की से बीज उछालकर फेंके थे |

आज वह भी यही करता है | उसके बच्चे भी देखते हैं कि सफर में जाते समय पिता के पास तरह – तरह के बीजों की एक थैली जरूर होती है | यात्रा में रास्ते भर वह खिड़की से बीज फेंकता जाता है, अपने पिता की तरह मन में इस भाव को लिए कि ये बीज बेकार नहीं जाएंगे सब नहीं पर कुछ बीज तो वृक्षों में बदल ही जाएंगे |

आज का उसका सफर पूरा हुआ और वह पहुँचता है महानगर के एक फलैट में जहाँ उसकी माँ बरसों से अकेले रह रही है | पैसों की कमी नहीं है इसलिए सर्टिफाईड कंपनी की कामवाली बाई माँ की देखभाल के लिए रख दी है | जरूरत पड़ने पर नर्स को भी बुलवा लिया जाता है | बिस्तर पर पड़े – पड़े माँ को बेड सोर  हो गए  हैं |अकेलेपन ने उसकी आवाज छीन ली है | बीमारी और अकेलेपन के कारण वह ज़िद्दी और चिडचिडी भी होती जा रही है | बूढ़ी माँ की आंखें अपने आस पास कोई पहचाना चेहरा ढूंढती है | लेकिन कोई नहीं है | वैसे तो सब दूर हैं पर मोबाईल युग में सब कुछ मुठ्ठी में है | दूर से ही सब मैनेज हो जाता है | कामवाली बाई भी आज के जमाने की है स्काइप से माँ को बेटे–बहू के दर्शन भी करा देती है | माँ समझ ही नहीं पाती कि क्या हुआ ? अचानक कैसे बेटा दिखने लगा और फिर फोन में कहाँ गायब हो गया,  उसकी समझ से परे है ये मायाजाल.  वह बात खत्म होने के बाद भी बड़ी देर फोन हाथ में लिए उलट पुलटकर देखती रहती है, बेटा कैसा आया इसमें और कहाँ गया ? माँ चाहती है दो बेटे – बहुओं में से कोई तो रहे उसके पास, कोई तो आए, लेकिन कोई नहीं आता . कामवाली बाई और नर्स की व्यवस्था कर उन्होंने माँ के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली |

पिता को देख – देखकर नए पौधों को लगाने की बात तो वह सीख गया था लेकिन लगे लगाए पुराने पेड़ों को भी खाद पानी की जरूरत होती है इसे सिखाने में वे चूक गए थे | पर्यावरण संरक्षण की भावना तो पिता उसमें पैदा कर गए थे लेकिन परिवार में स्नेह और लगाव की बेल वे नहीं रोप सके थे |

अनजाने में ही सही पर वह भी अपने  बच्चों को संवेदनहीनता की यही पौध थमाता जा रहा था |

 

डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर, महाराष्ट्र – 414001

मोबाईल – 9370288414

e-mail – [email protected]




हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – कृतिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – कृतिका ☆

 

(“जीवन में अद्भुत होते हैं वे क्षण जब आगे चलनेवाला पिता अपनी संतान के पीछे चलने लगे।”  कल्पना मात्र से ह्रदय गौरवान्वित हो जाता है, जब हम किसी पिता की लेखनी से ऐसे वाक्यों को पढ़ते हैं.  यह अपने आप में एक आत्मसंतुष्टि की भावना को जन्म देती है. ऐसा लगता है जीवन सार्थक हो गया.  भावनाओं को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता.  मैंने सुश्री कृतिका (श्री संजय भारद्वाज जी की बिटिया) का ब्लॉग पढ़ा.  अब सुश्री कृतिका ने अपना एक स्थान अर्जित कर लिया है. सुश्री कृतिका के ब्लॉग को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें >>  Glazedshine.

अनायास ही लगा सब कुछ विरासत में नहीं मिला उसने विरासत को आगे बढ़ाने  के लिए कठोर परिश्रम किया है. साथ ही मुझे  पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता स्व. केविन कार्टर के पुरस्कार जीतने के बाद आत्मग्लानि में आत्महत्या की घटना याद आ गई जिसे आप गूगल में सर्च कर सकते हैं. (लिंक को कॉपी राइट के कारण यहाँ नहीं दे सकता).   मैं श्री संजय भरद्वाज जी की भावनाओं को आपसे साझा करने से नहीं रोक सका.)

  – हेमन्त बावनकर

 

जीवन में अद्भुत होते हैं वे क्षण जब आगे चलनेवाला पिता अपनी संतान के पीछे चलने लगे। अनन्य विजय के क्षण होते हैं यह। बिटिया कृतिका ने यह अनन्यता जीवन में  अनेक बार दी है।
कुछ ऐसा ही आज भी हुआ। दो दिन से पशुओं के साथ मनुष्य के व्यवहार को लेकर भीतर एक मंथन चल रहा था। बस कलम उठानी शेष थी कि बिटिया ने अपने ब्लॉग का एक लिंक पढ़ने के लिए भेजा। लेख पढ़ा और रक्त सम्बंध कैसे अदृश्य काम करता है, यह भी जाना। गदगद हो गया उसकी भावनाएँ और उसकी कलम की संभावनाएँ पढ़कर।
यह कृतिका का चौथा ब्लॉग है। पढ़ियेगा और अंकुरित हो रही एक लेखिका को उसके ब्लॉग के कमेंट बॉक्स में आशीर्वाद अवश्य दीजियेगा।
कृतिका के ब्लॉग का लिंक है-  Glazedshine.

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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