हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 11 – घरौंदा ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “घरौंदा ”। यह लघुकथा हमें परिवार ही नहीं पर्यावरण को भी सहेजने का सहज संदेश देती है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  समाज  को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 11 ☆

 

☆ घरौंदा  ☆

 

गाँव कहते ही मन में बहुत ही अच्छी बातों का चित्रण हो आता है। बैलों की घंटी, मंदिर में पंडित जी का भजन-श्‍लोक, पनघट से पानी भरकर लाने वाली महिलाओं की टोली, नुक्कड़ पर चाय पकोड़े का छोटा सा टपरा और कई बातें । चारो तरफ हरियाली । ये बात अब और है कि अब गाँव भी ईट सीमेंट का हो गया । हरियाली और चौपाल जैसे खतम सी हो गई ।

बहरहाल गांव का चित्रण – सुन्दर छोटा सा एक गाँव। गाँव में मुखिया अपने परिवार सहित रहते थे । छोटे छोटे दो पुत्र और उनकी धर्मपत्नी । सभी उनका आदर सत्कार करते थे । मुखयानी तो पुरे गाँव को अपना सा प्रेम करती थी । हमेशा सेवा सत्कार में जुडी़ रहती थी । साफ सुथरा उनका घर और आँगन के बीच एक आम का वॄक्ष। जैसे-जैसे बच्‍चे बड़े हो रहे थे,  आम का पेड़ भी उनकी खुशियों पर दिन रात शमिल था। और हो भी क्यों न मुखिया जी थक हार कर आते और आम के पेड़ के नीचे ही खाट बिछा आराम करते और सब उसकी छांव में बैठे रहते । पेड़ पर बच्चों का झूला भी बंधा हुआ था। शाम को सभी आम के पेड़ के नीचे बातचीत करते और बच्चे खेलते नजर आते।

 

समय बीतता गया, मुखिया जी ने बड़े बेटे का विवाह तय किया। घर में रौनक बड गई। बड़ी बहु के आने से मुखियानी को समय मिलने में राहत हुई। चौपाल ज्यादा समय तक लगने लगी थीं। समय आनंद से बीत रहा था। तीन साल बाद दूसरे बेटे की शादी भी बड़ी धूमधाम से हुआ। बड़े बेटे को प्रथम पुत्र प्राप्ति हुई। सभी बहुत खुश थे। परिवार पूर्ण रूप से भरा-भरा हो गया था। सभी अपने-अपने कामों पर लगे रहते थे। दिनभर के काम के बाद सभी आम के पेड़ के नीचे बैठ जाते जहाँ और भी महिलाएँ बच्चों सहित आकर बैठ जाते थे। समय बीत रहा था।  कहते हैं जहां चार बरतन होती हैं वहाँ खटकने की आवाज आने लगती है। घर में दिन रात किट-किट होने लगी बहुओं में जरा भी ताल मेल नहीं जम रहा था। सास बिचारी परेशान दिन भर अपना समय आम के पेड़ के नीचे ही बिताने लगी। उसका अपना घरौंदा बन गया। अब मुखिया जी भी बाहर से आते और घर के अंदर जाने के बजाय वही दोनों आम के पेड़ के नीचे खाट डाल कर बैठ जाते। परन्तु खिट-पिट  बन्द नहीं हुई। दोनों भाइयों ने घर का बटवारा कर डाला। आँगन की बारी आई तो बीच में आम का पेड़ आ रहा था। गाँव के पंचो ने सलाह दिया कि दोनों दिवाल बना ले पेड़ नहीं काटने देगें। दोनों ने वैसा ही किया पर बात बनी नहीं। आम के सीजन में जब फल लगने लगे बड़ा भाई छोटे भाई के तरफ के फल ही गिरा देता रात के अंधेरे में छोटा भाई भी फल क्या टहनियाँ भी काट कर गिरा देता था। कभी पूरा पेड़ आम से लदा रहता आज बस ठूंठ की तरह दिखाई दे रहा है। बहाना मिल गया दोनों को पेड़ काटने का। पेड़ काट कर उसका बंटवारा कर लिया गया।

मुखिया की पत्नी ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकी। उसका देहांत हो गया। घर से मुखिया जी भी निकल कर कहीं चले गये। पूरा घर वीरान हो चुका। न चिड़ियों की चहचहाहट न बच्चों की नटखट टोली और न महिलाओं का समूह।

दोनों भाइयों को अपने घरौंदे देख बहुत दुख और पश्चाताप हुआ। पर समय निकल चुका था। परन्तु दोनों ने अपनी गलती मान पेड़ और पर्यावरण को बचाने का संकल्प ले अपनी गलती सुधारने का मौका लिया। और आज उसी क्षेत्र में आगे बढ रहे हैं। दोनों बहुओं को भी समझ में आ गया था कि परिवार और घरौंदा दोनों सुख शांति के लिए आवश्यक है। एक बार फ़िर से मुखिया का घर हरा भरा हो गया।

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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #11 – उच्छ्वास मोगऱ्याचा ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण  एवं सार्थक कविता  “उच्छ्वास मोगऱ्याचा”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 11 ☆

? उच्छ्वास मोगऱ्याचा ?

 

उच्छ्वास मोगऱ्याचा तू हा लुटून घ्यावा

प्रीतीत गंध माझ्या त्याचाच हा पुरावा

 

मेंदी, हळद, सुपारी जातील सोडुनी मज

हातात फक्त माझ्या चेहरा तुझा दिसावा

 

आकाश चांदण्यांचे मागीतले कुठे मी

तारा बनून माझ्या तू सोबती असावा

 

मज ओढ सागराची भिजवून टाकते ही

होडीत मासळीवर बरसून मेघ जावा

 

ही लाट उसळते का मेध उसळतो हा

कोण्या मिठीत कोणी लागेच ना सुगावा

 

डोळ्यांमधील वादळ बोलून सर्व जाते

ओठांत शब्द नाही हा वाजतोय पावा

 

मत्सर कशास माझा करतात चांदण्या या

बहुतेक सोबतीला त्यांचा सखा नसावा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (42) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

 

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।

छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।।42।।

 

अतःपार्थ!अपने संशय को ज्ञान शस्त्र से छिन्न करो

कर्म योग का करो आचरण उठकर आगे युद्ध करो।।42।।

 

भावार्थ :  इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा।।42।।

 

Therefore, with the sword of knowledge (of the Self) cut asunder the doubt of the self born of ignorance, residing in thy heart, and take refuge in Yoga; arise, O Arjuna! ।।42।।

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥4॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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हिन्दी साहित्य- आलेख – ☆ मित्र और मित्रता ☆ – श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

मैत्री दिवस विशेष 

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है । आप  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।आज प्रस्तुत है मैत्री दिवस पर आपका विशेष आलेख “मित्र और मित्रता”। 

हम भले ही  मित्रता दिवस वर्ष में एक ही दिन मनाते और मित्रों का स्मरण करते हैं।  किन्तु, मित्रता सारे वर्ष निभाते हैं। अतः  मित्रता दिवस पर प्राप्त आलेखों एवं कविताओं का प्रकाशन सतत जारी है। कृपया पढ़ें, अपनी प्रतिक्रियाएँ दें तथा उन्हें आत्मसात करें।) 

संक्षिप्त परिचय 

शिक्षा : हिंदी साहित्य में एम ए प्रथम, (मेरिट) बी एड और पीएचडी

सम्मान एवं सेवाएँ :

  • महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशन सम्मान से सम्मानित
  • महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्व विद्यालय में त्रिदिवसीय संगोष्ठी में आमंत्रित और शोध पत्र वाचन
  • ”हीर कणी” पुरस्कार से सम्मानित
  • इंडियन एयर फोर्स में एजुकेशन इंस्ट्रक्टर के तौर पर सेवाएँ प्रदत्त
  • गृह पत्रिका” किरण ” की 25 वर्ष संपादक रहीं। इस दौरान पत्रिका को और संस्थापक संपादक के रूप में स्वयं को रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय के अनेक पुरस्कार से सम्मानित।
  • अति उत्कृष्टता एवं निष्ठा हेतु एयर ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ के एओसी-इन-सी कमान- कमेंडेशन से सम्मानित।
  • विदर्भ हिंदी साहित्य सम्मेलन की तीन दशकों से माननीय प्रतिनिधि  एवं सामाजिक साहित्यिक संस्थाओं की सम्मानित पदाधिकारी
  • शिक्षा संस्थानों तथा प्रतिष्ठित सरकारी गैर सरकारी संगठनों में अतिथि वक्ता, अध्यक्ष निर्णायक के रूप में सतत आमंत्रित।
  • पांच दिवसीय बहुभाषी विदर्भ नाट्य समारोह में सम्मानित निर्णायक
  • मेडिकल विषयों से संबंधित तीन डाक्टरों की पुस्तकों का अनुवाद,
  • नागपुर के प्रतिष्ठित डाक्टरों की एन जी ओ एडोल्सेंट चैप्टर की सम्मानित कार्यकर्ता और पुरस्कारों से सम्मानित।
  • इंडियाज हूज हू हेतु नामित रह चुकी।
  • आरंभ से सेवानिवृत्त तक लगभग 30 वर्षों तक महिला आयोग की अध्यक्ष रही।
  • एयरफोर्स वाईव्ज वेलफेयर एसोसिएशन के कार्यक्रमों में २५ वर्ष तक अनवरत सहयोगी
  • अखिल भारतीय अग्नि शिखा मंच की नागपुर ईकाई की अध्यक्ष
  • ”रचना ” की उपाध्यक्ष

☆ मित्र और मित्रता ☆

 

मित्र और मित्रता देखने दिखाने की नहीं, महसूस करने की चीज है।जब तक ब्रम्हांड में हर शै एक दूसरे की मित्र हैं तभी तक यह पृथ्वी और इसके निवासी सुरक्षित हैं। क्षिति जल पावक गगन समीरा – – – इनका संतुलन ही पर्यावरणीय मित्रता  की द्योतक है। “जियो और जीने दो “इस मित्रता की प्रथम शर्त है तो दूसरी ओर survival of the fittest भी अत्यावश्यक है। यह विरोधाभास ही ब्रम्हांड का क्षितिजीय सत्य है। तो चलिए मित्रता-दिवस के व्यापक अर्थों में घुसपैठ करें और ब्रम्हांड की समस्त विधाओं में पर्यावरणीय मित्रता की हिमायत करते हुए इस मित्रता दिवस को वैश्विक मित्रता से जोड़ें।

आसपास का वातावरण शुभ होगा तो दिलों में शुभता अपने आप उद्भासित होगी और मानवीय मित्रता में भी शुभता का आविर्भाव होगा। अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से ही जंगल राज का प्रादुर्भाव होता है। मित्रता अनाम शै बन जाती है।

ना कृष्ण सुदामा की मैत्री आदर्श है ना दुर्योधन कर्ण की–मैत्री के मानदंड परिवर्तनशील होते हैं और होने भी चाहिए। घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या? ब्रम्ह सत्य है– मगर यहां मित्रता अपेक्षित ही कब है! मित्रता की परिभाषा में आपका किसी के प्रति अतिरिक्त स्नेह भाव शामिल है जो दिल से होता है। सामान्य मानवीय प्रवृत्ति है कि कभी-कभी कोई व्यक्ति अनायास आपके दिल के द्वार पर दस्तक देता है एकाएक आपको अच्छा लगने लगता है और कोई बरसों तक निकटता के बावज़ूद भी दिल के करीब नहीं हो पाता—- इसका अर्थ यह नहीं कि वह आपका शुभेच्छु नहीं है शायद वह आपका सबसे बड़ा शुभचिंतक होगा लेकिन दिल बड़ा निर्णायक होता है मित्रता के चयन के मामले में।

मैया को अपना काला कलूटा बदसूरत बेटा भी कनुआ कन्हैया लगता है – – कुछ ऐसा ही अदृश्य अपनापन अनिवार्य होता है  सच्ची मित्रता के संगोपन के लिए। कहावतें पुरानी हुई  – – “The friend in need is a friend indeed”। आजकल ” in need और indeed” की परिभाषाएं बदल गई हैं। आपके अर्थतंत्र के हिसाब से अर्थों के अर्थ निर्धारित किए जाते हैं। कहा जाता था धीरज धर्म मित्र अरु नारी आपतकाल परखिए चारी ” लेकिन ये मानदंड भी बदल गये हैं। छलछंदी आपतकाल भी वे ही मित्र ले आते हैं जो आपके साथ खडे़ होने का दावा करते हैं।

खैर जिंदगी चल रही थी चल रही है चलती रहेगी हमेशा। बात से बात चल कर बात बनती ही रहेगी फिर हम क्यों  कुछ सोचने पर मजबूर करें अपने आप पर कि काजीजी दुबले क्यों, तो शहर के अंदेशे से चलिए निकल लेते हैं एक हाईकु की पतली गली से – – अर्ज किया है

 

मित्र दिवस

स्वप्न जीवी सच

धूप पावस।।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” ✍

नागपुर, महाराष्ट्र

4 अगस्त 2019

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ मित्रता दिवस पर एक पत्र कविता ☆ – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’’

मैत्री दिवस पर विशेष 

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  की   मित्रता पितृ पर दिवस पर विशेष  एक पत्र कविता

 

हम भले ही  मित्रता दिवस वर्ष में एक ही दिन मनाते और मित्रों का स्मरण करते हैं।  किन्तु, मित्रता सारे वर्ष निभाते हैं। अतः  मित्रता दिवस पर प्राप्त आलेखों एवं कविताओं का प्रकाशन सतत जारी है। कृपया पढ़ें, अपनी प्रतिक्रियाएँ दें तथा उन्हें आत्मसात करें।) 

 

☆ मित्रता दिवस पर एक पत्र कविता ☆

 

नमस्कार, प्रिय मित्र!

तुम्हारा पत्र मिला

पढ़कर जाने

सब हालचाल

और कुशल क्षेम

के समाचार,

मैं भी यहाँ मजे में

स्वस्थ, प्रसन्नचित्त हूँ

सह परिवार।।

 

मित्र! तुम्हारा पत्र

सुखद आश्चर्य लिए

कुछ चिंताओं का

मंगलमय हल

अपने संग लेकर

आया है,

संबंधों के घटाटोप

रिश्तों के रूखेपन

भौतिक आकर्षण में

यह बारिश की

पहली फुहार

माटी की सौंधी गंध

प्रेम का शीतल सा

झोंका लाया है।।

 

यूँ तो मोबाइल पर

अक्सर अपनी भी

होती है बातें

पर उन बातों में

तकनीकी मिश्रण

के चलते

अपनेपन वाली

मीठी प्रेम चासनी का

हम स्वाद कहाँ ले पाते।

 

अधुनातन मोबाईल

द्रुतगामी यंत्रो की

भीड़भाड़ में

भटक गए हैं,

कुछ पर्वों, त्योहारों पर

हम रटे रटाये,

बने बनाये शब्द

शायरी, संदेसों के

बटन दबा कर

बस इतने पर

अटक गए हैं।।

 

ऐसे में यह पत्र

तुम्हारा, पाकर

मैं, अपने में

हर्ष विभोर हुआ

संबंधों की पुष्पलता

के रस सिंचन को

लिए लेखनी हाथों में

अंतर्मन का

आकाश छुआ।।

 

लिख – लिख

मिटा रहा हूँ, अब

हर बार शब्द बंजारों को

व्यक्त नहीं कर पाता हूँ

अपने मन के

उद्गारों को

शब्द व्यर्थ हो गए

भाव अंतर में जागे,

मित्र! समझ लेना,

तुम ही, जो लिखना है

अब इसके आगे।।

 

समय समय पर

कुशलक्षेम के पत्र

सदा तुम लिखते रहना,

घर में

सभी बड़े, छोटों को

यथायोग्य

अभिवादन कहना।।

 

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #8 – शुद्ध चमड़े का जूता  ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की आठवीं  कड़ी में उनकी  एक  व्यंग्य रचना   “शुद्ध चमड़े का जूता ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 8 ☆

 

☆ शुद्ध चमड़े का जूता ☆ 

 

भैया जी चिलम प्रेमी हैं, संगत में गंगू चिलम भरने एवं चिलम खींचने में ट्रेंड होता जा रहा है। भैया जी चिलम खींचकर अंट-संट बकने लगते हैं और पेन कागज हाथ लग जाए तो कालजयी व्यंग्य भी लिख देते हैं। ‘संगत गुनन अनेक फल’… सुट्टा खींचने के बाद गंगू भी साहित्यकार बनने की जुगत में रहता, पड़ोसियों के किस्से कहानी बता बताकर हँसता-हँसाता।

भैया जी की घर में नहीं बनती और गंगू की भी घरवाली से नहीं पटती। दोनों साथ-साथ सुट्टा खींचते और हमेशा घर से भागने केे चक्कर में रहते। भैया जी हर बार पुस्तक मेला जाते हैं पर इस बार जाने का जुगाड़ नहीं बन रहा इसलिए दुखी हैं चिलम खींचकर भावुक होकर गाने लगे…….

“चलो चलिए

यमुना जी के पार

जहां पे मेला लगो”

गंगू सुनके नाचने लगा। गंगू को क्या मालुम कि यमुना किनारे बसी दिल्ली में मेला भी लगता है…….. हामी भर दी, कहन लगे चलो….. अभी ही चलो…… नहीं तो कल चलो। झूला भी झूल लेंगे और बरेली के बाजार वाली का नाच भी देख लेंगे। बरेली के बाजार वाली का झुमका गिरा तो ढूंढ के ला भी देंगे। भैया जी नशे में और गंगू भी नशे में….. हर बात पर हामी भरते।

भैया जी बड़े नामी-गिरामी लेखक हैं बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में फोटो सहित छपते रहे हैं, घर में इज्ज़त नहीं है क्योंकि घर का कोई काम-धाम नहीं करते। बात-बात में पत्नी से झगड़ते जरूर हैं। सुबह सुबह चाय नहीं मिलने पर पत्नी से उलझ गए। जब हार गए तो चड्डी बनियान और कुर्ता पेजामा थैले में धर के घर से निकल गये और गंगू के साथ दिल्ली की रेलगाड़ी में बैठ गए।

दिल्ली पहुंचे तो पेट कुलबुला के कूं-कूं करने लगा….. गर्मागर्म छोले भटूरे देखे तो लार टपक गई, तुरन्त दोनों ने पेट भर छोले भटूरे पेल कर खाये। नहा-धोकर मेट्रो में बैठ गए, मेट्रो से उतरे तो मेले के गेट के तरफ बढ़ने लगे तो रास्ते में तन्दुरस्त सुंदर गोरी महिला ने रोक लिया और दोनों की शर्ट में तिरंगा झंडा चिपका दिया बोली – इससे आपके अंदर देशभक्ति पैदा होगी। आगे बढ़ने लगे तो रंगदारी से रास्ता रोककर वसूली पर उतर आईं कहने लगी – पैसा नहीं दोगे तो अभी मीटू में फँसा दूंगी नहीं तो झंडा चोरी के इल्जाम में अंदर करा दूंगी। बेचारे भैया जी और गंगू डर के मारे कांपने लगे। थोड़ा दे-ले के आगे बढ़े तो टिकिट की लाइन में फटे जीन्स वाली लड़की ने ठग लिया कहने लगी – अंकल आप लाइन में काहे को लगते हो पैसे दे दो और उधर चैन से बैठो हम टिकिट लाकर वहीं दे देंगे। पैसा भी ले गई और लौटी भी नहीं…….

क्या करते फिर लाइन में लगे, टिकिट ली, जब तक गंगू बोर हो चुका था बार बार चिलम चढ़ाने की मांग करता रहा फिर झुंझलाते हुए बोला – भैया जी आप हमें झटका मार के मेला घुमाने के चक्कर में घसीट लाए, इधर झूला – ऊला कुछ दिख नहीं रहा है।

धक्का-मुक्की के साथ आगे बढ़े तो गंगू को लघुशंका लग गई। पेजामे की जेब में हाथ डालकर गंगू कूंदा-फांदी करने लगा। एक प्रकाशक से पूछा – लघुशंका कहाँ करें तो झट उसने इशारे से सामने तरफ ऊंगली दिखा दी। वहां व्ही आई पी लिखा था घुसने लगे तो गार्ड ने रोक लिया कहने लगा – यहाँ सिर्फ व्ही आई पी ही लघुशंका कर सकते हैं। भैया जी को डर लग रहा था कि कहीं गंगू पैजामा न गीला कर दे। गंगू बोला – जे व्ही आई पी क्या होता है, व्ही आई पी क्या अलग तरह से व्ही आई पी लघुशंका करता है और क्या उसकी लघुशंका से सोना बनाया जाता है। गार्ड को धक्का मारकर गंगू अंदर घुस गया। गार्ड ने पुलिस बुला ली। पुलिस गंगू को पकड़ कर ले गई, भैया जी देखते रह गए।

उसी समय एक लेखक भैया जी का हाथ पकड़ कर घसीटने लगा कहने लगा – आप जरूर बड़े लेखक होंगे फलां पत्रिका में आपकी छपी थी इसलिए हमारी पुस्तक का फिरी में विमोचन करिये। पुस्तक का विमोचन नहीं करोगे तो हाथ पैर तुड़वा दिये जाएंगे लठैत भी साथ आये हैं, और सरेआम बेइज्जत कर देंगे सबके सामने बोल देंगे कि विमोचन करने के नाम पर दो हजार पहले से ले लिए और अब विमोचन में आनाकानी कर रहे हैं।

परेशानी बता के नहीं आती और जब आती है तो एक साथ बारात लेकर आती है। भीड़ की धक्का मुक्की, चारों तरफ चल रहे विमोचन की बाढ़ तथा लगातार मिल रहीं धमकियों से गला सूख रहा था प्यास बढ़ गई थी पानी का कहीं जुगाड़ नहीं दिख रहा था और गंगू की चिंता खाये जा रही थी।

अचानक मोबाइल बजा….. उधर से पत्नी चिल्ला रही थी “किचिन से पैसा चुरा कर कहां घूम रहे हो ?”

भैया जी बोले – “दिल्ली के मेले में विमोचन महोत्सव में बुलाया गया तो आ गये।“ दिल्ली का नाम सुनकर लाड़ भरी आवाज में पत्नी बोली – “मेरे लिए दिल्ली से क्या ला रहे हो?”

भैया जी बोले – “पुस्तक मेले में सिर्फ पुस्तकें मिलतीं हैं और पुस्तकों से तुम्हें चिढ़ है। इसलिए कनाटप्लेस से शुद्ध चमड़े का जूता ला रहा हूँ, पहनने के काम आयेगा और वक्त जरूरत में ओवरटाइम भी कर सकता है। तुम्हारा मुंह भी तो खूब चलता है।”

पत्नी बौखला गई बोली – “तुम नहीं सुधरोगे, फोन पर भी बदतमीजी करते हो, अपने आप को बड़ा लेखक कहते हो नारी सशक्तीकरण पर लेख लिखते हो। हाँ, तो सुनो आज रद्दी पेपर वाला आया था कह रहा था कि कई दिनों से कहीं से रद्दी नहीं मिली घर में खाने को एक दाना नहीं है दो दिन से भूखा हूँ तो मुझे उस पर दया आ गई, इसलिए तुम्हारी सभी अलमारियों की साहित्य की पूरी किताबें सस्ते में रद्दी वाले को तौलकर बेच दीं हैं और उन पैसों से ठंड में कुकरते टाॅमी के लिए कपड़े ले लिए हैं। ”

भैया जी का मोबाइल नीचे गिर गया, काटो तो खून नहीं….. फफक फफक कर रोने लगे और चक्कर खाकर गिर गए, लोग इकठ्ठे हो गए, किसी ने पानी का छींटा मारा, कोई ने जूते सुघांये…….. होश नहीं आया तो कई ने शराबी समझकर लातें मारी। पुलिस आयी और स्ट्रेचर में उठा कर ले गई।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – ईडन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – ईडन

 

…..उस रास्ते मत जाना, आदम को निर्देश मिला। आदम उस रास्ते गया। एक नया रास्ता खुला।

 

….पानी में खुद को कभी मत निहारना। हव्वा ने निहारा। खुद के होने का अहसास जगा।

 

….खूँख़ार जानवरों का इलाका है। वहाँ कभी मत घुसना।….आदम इलाके में घुसा, जानवरों से उलझा। उसे अपना बाहुबल समझ में आया।

 

…..आग से हमेशा दूर रहना, हव्वा को बताया गया। हव्वा ने आग को छूकर देखा। तपिश का अहसास हाथ और मन पर उभर आया।

 

….उस पेड़ का फल मत खाना। आदम और हव्वा ने फल खाया। ईडन धरती पर उतर आया।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ दोस्ती लाइलाज मर्ज की दवा ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर 

मैत्री दिवस विशेष

श्री प्रह्लाद नारायण माथुर 

(मित्रता दिवस पर मित्रों को समर्पित कविता  दोस्ती लाइलाज मर्ज की दवा”

 

हम भले ही  मित्रता दिवस वर्ष में एक ही दिन मनाते और मित्रों का स्मरण करते हैं।  किन्तु, मित्रता सारे वर्ष निभाते हैं। अतः  मित्रता दिवस पर प्राप्त आलेखों एवं कविताओं का प्रकाशन सतत जारी है। कृपया पढ़ें, अपनी प्रतिक्रियाएँ दें तथा उन्हें आत्मसात करें।))

 

दोस्ती लाइलाज मर्ज की दवा

 

दोस्त दुनिया के सारे लाइलाज मर्ज़ की अनमोल दवा है,

इनमें वो हुनर होता है जो बुढ़ापे में भी जवानी का अहसास करा देते हैं ||

 

दोस्त तो चमन का वह फूल है जो मुरझाते शरीर में जान डाल देता है,

ये जिगर के वो टुकड़े है जो पुरानी यादों को चंद लम्हों में तरोताजा कर देते हैं ||

 

अगर कोई दिल के सबसे नजदीक होते हैं तो वे दोस्त ही होते हैं,

दिल के सारे राज के राजदार और जिंदगी के हमराज ये दोस्त ही तो होते हैं ||

 

जब दोस्त मिलते हैं तो सब एक दूसरे की पुरानी बातें चटकारे लेकर सुनाते हैं,

हसी मजाक करते हुए दोस्त यह भी भूल जाते हैं की सब अब बूढ़े हो चले हैं ||

 

अब सब के परिवार हो गए, समय के बदलाव के कारण दूर होते चले गए,

भूले बिसरे गीतों की तरह जब भी मिलते हैं तो एक झटके में सारी दूरियां खत्म कर देते हैं ||

 

जिंदगी के हर बीते लम्हों को रंगीन बनाकर सुनाने में माहिर होते हैं ये दोस्त,

बचपन की नादानियाँ और जवानी के किस्से ये दोस्त चटकारे ले लेकर सुनाते हैं ||

 

अब सब दोस्त बूढ़े हो चले, हर कोई किसी ना किसी परेशानी से गुजर रहा है,

मगर आज जब भी दोस्त मिलते हैं तो कुछ देर के लिए सब को जवान बना देते हैं ||

 

दोस्तों के साथ बिताये दिनों को याद करके कभी हंसी तो कभी रोना आता है,

सच है, ये दोस्त दुनिया की सारी लाइलाज बीमारियों की अनमोल दवा होते हैं ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #11 – वैश्विक पहुंच का साधन ब्लाग ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  ग्यारहवीं कड़ी में प्रस्तुत है “वैश्विक पहुंच का साधन ब्लाग”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 11 ☆

 

☆ वैश्विक पहुंच का साधन ब्लाग ☆

किसी भी सामाजिक बदलाव के लिये सर्वाधिक महत्व विचारों का ही होता है, और आज ब्लाग वैश्विक पहुंच के साथ वैचारिक अभिव्यक्ति का सहज, सस्ते, सर्वसुलभ साधन बन चुके हैं. विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के तीन संवैधानिक स्तंभो के बाद पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता दी गई है. आम आदमी की ब्लाग तक पहुंच और उसकी त्वरित स्व-संपादित प्रसारण क्षमता के चलते ब्लाग जगत को लोकतंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में देखा जा रहा है.

हाल ही अन्ना हजारे के द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक सफल जन आंदोलन बिना बंद, तोड़फोड़ या आगजनी के चलाया गया, और उसे मिले जन समर्थन के कारण सरकार को विवश होकर उनके सम्मुख झुकना पड़ा. उल्लेखनीय है कि इस आंदोलन में विशेष रुप से नई पीढ़ी ने इंटरनेट, मोबाइल एस एम एस, यहां तक कि मिस्डकाल के द्वारा भी तथा ब्लाग लेखन के द्वारा ही अपना महत्वपूर्ण समर्थन दिया.

युवाओ में बढ़ी कम्प्यूटर साक्षरता से उनके द्वारा देखे जा रहे ब्लाग के विषय युवा केंद्रित अधिक हैं.विज्ञापन, क्रय विक्रय, शैक्षिक विषयो के ब्लाग के साथ साथ  स्वाभाविक रूप से जो मुक्ताकाश ब्लाग ने सुलभ करवाया है, उससे सैक्स की वर्जना, सीमा मुक्त हो चली है. पिछले दिनो वैलेंटाइन डे के पक्ष विपक्ष में लिखे गये ब्लाग अखबारो की चर्चा में रहे.प्रिंट मीडिया में चर्चित ब्लाग के विजिटर तेजी से बढ़ते हैं, और अखबार के पन्नो में ब्लाग तभी चर्चा में आता है जब उसमें कुछ विवादास्पद, कुछ चटपटी, बातें होती हैं, इस कारण अनेक ब्लाग हिट्स बटोरने के लिये गंभीर चिंतन से परे दिशाहीन होते भी दिखते हैं. भारतीय समाज में स्थाई परिवर्तन में हिंदी भाषा के ब्लाग बड़ी भूमिका निभाने की स्थिति में हैं,क्योकि ज्यादातर हिंदी ब्लाग कवियों, लेखको, विचारको के सामूहिक या व्यक्तिगत ब्लाग हैं जो धारावाहिक किताब की तरह नित नयी वैचारिक सामग्री पाठको तक पहुंचा रहे हैं. पाडकास्टिंग तकनीक के जरिये आवाज एवं वीडियो के ब्लाग, मोबाइल के जरिये ब्लाग पर चित्र व वीडियो क्लिप अपलोड करने की नवीनतम तकनीको के प्रयोग तथा मोबाइल पर ही इंटरनेट के माध्यम से ब्लाग तक पहुंच पाने की क्षमता उपलब्ध हो जाने से ब्लाग और भी लोकप्रिय हो रहे हैं.

ब्लाग के महत्व को समझते हुये ही बी बी सी, वेबदुनिया, स्क्रेचमाईसोल, रेडियो जर्मनी, या देश के विभिन्न अखबारो तथा न्यूज चैनल्स ने भी अपनी वेबसाइट्स पर पाठको के ब्लाग के पन्ने बना रखे हैं. ब्लागर्स पार्क दुनिया की पहली ब्लागजीन के रूप में नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है जो ब्लाग पर प्रकाशित सामग्री को पत्रिका के रूप में संजोकर प्रस्तुत करने का अनोखा कार्य कर रही है.यह सही है कि अभी ब्लाग आंदोलन नया है, पर जैसे जैसे नई कम्प्यूटर साक्षर पीढ़ी बड़ी होगी, इंटरनेट और सस्ता होगा तथा आम लोगो तक इसकी पहुंच बढ़ेगी ब्लाग मीडिया और भी ज्यादा सशक्त होता जायेगा, एवं ब्लाग भविष्य में सामाजिक क्रांति का सूत्रधार बनेगा.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-10 – अन्न परब्रह्म चे संस्कार नेमके लुप्त झाले कुठे???  ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनके  जीवन के संस्मरण पर आधारित  शिक्षाप्रद आलेख अन्न परब्रह्म चे संस्कार नेमके लुप्त झाले कुठे???

आदरणीया माँ जी के माध्यम से जो सीख मिली है , उसे आज उनकी तीसरी पीढ़ी भी निभा रही है। आज भी उनके परिवार में  खाने की थाली में नींबू का छिलका, आचार की गुठली वाला हिस्सा और यदि मिर्च  तेज हो तो उसके टुकड़ों के अलावा कुछ भी नहीं  छोड़ा जाता ।  अन्न  परंब्रह्म है। आज मनुष्य स्वयं को अन्न से भी श्रेष्ठ समझने लगा है। हम आदरणीया श्रीमति रंजना जी के आभारी हैं  जिन्होने अपना यह संस्मरण हमारे पाठकों के साथ साझा किया। )

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #- 10 ? 

 

? अन्न परब्रह्म चे संस्कार नेमके लुप्त झाले कुठे???  ?

त्या दिवशी सकाळी सकाळीच यांनी पूजा केली आणि  तांदळाची वाटी माझ्याकडे दिली…. आम्ही  देवीची मूर्ती धान्यात ठेवत  असू,…  शक्यतो,ती तांदळात ठेवावी …. असा सल्ला आमच्याकडे आलेल्या गुरूजींनी आम्हाला दिला आणि आम्ही तो आचरणात आणण्याचे ठरवले…. परंतु त्या वापरलेल्या तांदळाचे काय करायचं हेच विचारारायचं विसरलो. मग हेच म्हणाले चिमण्यांना पाणी ठेवतो त्याच्या बाजूला तांदूळ ठेऊ  म्हणजे चिमण्या खातील मलाही ती कल्पना आवडली. रोज ते स्वतःच तांदूळ चिमण्यांना टाकायचे,

नित्यक्रम गेली चारपाच वर्षा पासून व्यवस्थित चालू होता. परंतु त्या दिवशी त्यांनी तांदूळ माझ्या हातात दिले मी चिमण्यांना टाकायला निघालेही पण….  मधेच भुश्यातील कणी शोधणारी आई आठवली.  रक्त बंबाळ हात….. म्हणण्या पेक्षा… दोन बोटे हाडापर्यंत खरचटली जाऊन रक्ताची धार लागलेली… थरथरत बसलेली….. मानेला साडीचा जर ओरखडा उमटून रक्त निघालेले. आईला  पाहून, आवाक झालो आम्ही ….. काय घडलं असाव?  कळतच नव्हतं. खरंतर तिला दळण घेऊन यायला उशीर का होतं आहे हे पाहायला आम्हाला ताईने पाठवलेले. पण तिथलं चित्र  भयंकरच होतं. तिला दुसरी साडी घालून दूध पाजवून गिरणीवाल्या काकू दवाखान्यात घेऊन गेल्या. मलमपट्टी केली इंजेक्शन दिले,… तोपर्यंत….. तिचा पदर साळी काढण्याच्या मशीनला, असलेल्या पट्ट्यात अडकला…. आणि त्या सोबत तिही ओढली गेली….. आणि  गिरणीवाले महम्मद मामा…  म्हणत असू आम्ही त्यांना, त्यांनी  कसरत करून साडी फाडून तिला कसं वाचवलं?  हे सर्वजण सांगत होते. परंतु तिचा पदर तिथे गेलाच कसा हा प्रश्नच होता. तिला काही विचारायची हिंमतच होत नव्हती. गिरणीवाल्या काकूंनी तिला  घरी आणून सोडलं “काळजी घ्या रे बाबांनो,” असे सांगून निघून गेल्या. वडील नोकरीच्या गावी गेलेले, आम्ही तिघे भावंडे काय डोंबलं काळजी घेणार. गावातच मामाचं घर होतं. ताईचा इशारा मिळताच, धूम ठोकली… घडला प्रकार मामींना सांगितला. माहेर कसं असावं याचं अप्रतिम उदाहरण म्हणजे माझं आजोळ…..  दहा मिनिटांत मामी दारात हजर … आम्हाला सोबत घेऊन  मामी घरी गेल्या. “माय अक्का कसं केलात हो ? जरासं जपून काम करत जा बरं”, पण! अक्का नुसत्या गप्प बसून मुसमुसत, होत्या. दुसरे दिवशी दोन्ही मामा, दादा, म्हणजे माझे वडील आले. तिची अवस्था पाहून सगळे गप्पच परंतु छोटे मामा मात्र या कामात तरबेज म्हणाले “काय अक्का साहेब मग कसा कसा पराक्रम केलो” ??  मगं… एकदाची मौन सोडून हसली. तशी छोट्या मामांची आणि तिची जाम गट्टी जमायची….. मग हसून हसून सगळा घडला प्रकार तिनेच सांगितला.  साळीचा भुस्सा गिरणी वाल्याला दिला तर तो फुकट साळी भरडून देई…. अर्थातच ते भूसा गवळ्यांना विकत असत. यापूर्वी ती कधीच तांदूळ गिरणीतून काढून आणत नसायची घरीच करायची परंतु आमचा आग्रह म्हणून त्या दिवशी गिरणीत साळी भरडायला  गेलेली. मग भूसा देऊन तांदूळ परवडतील की, पैसे देवून काढून घ्यावेत हा संभ्रम तिच्यापुढे होता. जर भूश्या सोबत कणी जात असेल तर भुसा घरी आणून पाखडता येईल या उद्देशाने ती वाकून पाठीमागच्या बाजूला पडणारा भुसा पाहण्याच्या नादात हा सगळा प्रकार घडला होता. आणि,  “मगं किती पैसे वाचवलो आक्कासाहेब ? तेवढा भुसा घेऊन यायचा की मग तेवढा,” मामाच्या  या धीर गंभीर पण फिरकी घेणाऱ्या विधानावर  … “गप्प बसं पाणचटा.” म्हणत आईने हात उगारला आणि मामा पळाले. तसे सगळे हसले. यांचा हा लाडीक खेळ वयाच्या साठाव्या वर्षी सुद्धा आम्ही अगदी असाच अनुभवला आहे . त्यांचा हा खेळकर स्वभाव नात्याला एक वेगळी रंगत देऊन जाई…

कणीचे अनेक नामी उपयोग करणारी ती सुगृहिणी होतीच, यात शंकाच नव्हती ….

पण ! यात तिच्या जिवाला काही झालं असतं तर!!!

काय करणार होतो आम्ही…..

नुसती कल्पना करणं आजही अशक्य आहे . एवढयाशा कणीसाठी जीवावर उदार झाली होती  ती…..

एक प्रश्न तेव्हा पासून  सतत सतावत होता की, खरंच एवढी गरिबी होती का आपली? त्या वेळी, … नक्कीच नव्हती. वडील शिक्षक  होते परंतु वृत्तीने अगदी  तुकाराम महाराज!!

अगदी तुकोबा आवडीची जोडी शोभायची प्रत्येक बाबतीत  त्यांची. आवडीसारखी तिही अनेकदा दादांवर चिडायची  परंतु तीही दानधर्म भरपूर करायची, परंतु  खाऊन माजावं टाकून नाही हा तिचा रोजचा मंत्र आज तिला भोवला होता. एवढा वेळ शून्यात असलेली मी  नकळत भानावर आले हातातले तांदूळ घरात परत आणले आणि सांगितलं आज पासून प्रसाद म्हणून याचा भात करून खायचा…. माझा अचानकचा पवित्रा पाहून सगळे गप्प बसले… .परंतु पुन्हा वेळ पाहून प्रश्न विचारलाच अन् माझं उत्तर ऐकून ते म्हणाले अगं प्रत्येकांनी असा विचार केला तर चिमणी पाखरं दाणा पाणी शोधायला कुठे जाणार, अर्थात ते मला कळत नव्हतं अशातला प्रकार नव्हता. परंतु आजकाल सर्रास अन्नाची चाललेली नासाडी उधळण पाहून अन्न हे पूर्ण ब्रह्म म्हणत मीठाचा कण सुद्धा खाली सांडला तर देव पापणीने वेचायला लावतो, असं सांगून अन्नाचं मोलं जाणणाऱ्या /जपणाऱ्या जुन्या पिढीचे संस्कार कुठे लुप्त झाले असतील???

हा केविलवाना प्रश्न सतत काट्या पेक्षाही जास्तच बोचरा वाटल्या शिवाय राहत नाही ….

पोटभर खा…. .हवे ते खा….. परंतु हवे तेवढेच घ्या!! हे यांना कोण सांगणार? आणि यांना ते कधी कळणार ? जेवणाच्या पंगतीला ताट पूर्ण वाढून  भरे पर्यंत गप्प राहतील…..  आणि नंतर जात नाही मला…. म्हणून भरल्या ताटात हात धुवून मोकळे होतील…..

हे पाहिलं की अन्न हे पूर्णब्रह्म म्हणत, अन्नाचा अपव्यय टाळणारी आणि  माणसाचं अन्न माणसाच्या मुखात घालावं म्हणून जीवावरचं धाडस करणारी ही पिढी पाहिली की वाटतं कुठं लुप्त झाले या पिढीचे संस्कार …

आणि ज्या अन्नावर तो जगतो . त्याचेच महत्व त्याला कळू नये…..

का एवढा उद्दाम झाला आहे आज माणूस ……की त्याने स्वतःला अन्ना पेक्षा श्रेष्ठ समजावे .

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

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