डॉ कुन्दन सिंह परिहार
(आपसे यह साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं e-abhivyakti के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं । अब हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी व्यंग्य रचना “तलाश अच्छे पड़ोसी की ”। एक अच्छे पड़ोसी के सद्गुण तो डॉ परिहार जी ने बता दिये। अब आप तलाशते रहिए आपके पड़ोसी किस श्रेणी में आते हैं। हम आप तक ऐसा ही उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 11 ☆
☆ व्यंग्य – तलाश अच्छे पड़ोसी की ☆
हर आदमी की ख्वाहिश होती है कि जहाँ वह रहे वहाँ पड़ोस अच्छा मिले। इसीलिए आदमी मकान का इन्तज़ाम करते वक्त पड़ोस पर भी नज़र डालता है। पड़ोस गड़बड़ मिला तो अच्छा मकान मिलने पर भी कुछ काँटे जैसा कसकता रहता है।
इसलिए भाई जी, अच्छा पड़ोस कैसा हो इस पर मैंने काफी चिन्तन किया है, और मेरे चिन्तन का जो निचोड़ पैदा हुआ है वह आपके चिन्तन के लिए पेशेख़िदमत है।
पहली बात यह है कि पड़ोसी हर बात में हमसे उन्नीस हो,चाहे मामला शक्ल-सूरत का हो या तन्दुरुस्ती का,या फिर आमदनी का। अगर हम उन्नीस हों तो वह अठारह हो,और अगर हम अठारह हों तो वह सत्रह।
स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने वाला, मुँह-अँधेरे उठने वाला, नियम से स्नान करने वाला, सवेरे-शाम घूमने वाला, कसरत करने वाला पड़ोसी नहीं चाहिए। ऐसे पड़ोसी हमारी पत्नी के लिए उदाहरण बन जाते हैं जिनकी प्रशंसा करते उनकी जु़बान सूखती है। ऐसे पड़ोसी के मुकाबले हमारी सारी कमियाँ, कमज़ोरियाँ वैसे ही स्पष्ट हो जाती हैं जैसे पानी को हिलोर देने से नीचे बैठी गन्दगी ऊपर आ जाती है।
वैसे ज़िन्दगी में कई बार मज़ाक हो जाता है।मेरे एक मित्र के पिताजी सवेरे जब घूमने निकलते तो उन्हें अपने पुत्र के एक मित्र घूमकर लौटते हुए मिलते। मेरे मित्र आराम से उठने वाले जीव थे। उनके पिताजी लौटकर उनसे प्रातः-भ्रमण की उनके मित्र की आदत की प्रशंसा करते और उनकी लानत-मलामत करते। पुत्र ने जब पता लगाया तो पता चला कि उनके मित्र एक क्लब में रात भर जुआ खेलकर बड़े सवेरे वहाँ से लौटते थे और उनके पिताजी से टकराते थे। मित्र ने अपने उन मित्र की खूब ख़बर ली, लेकिन वे अपने पिताजी से असली बात नहीं बता सके।
इसलिए भाई जी, हमें स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने वाला पड़ोसी नहीं चाहिए। ऐसे आदमी सारे मुहल्ले का वातावरण खराब करते हैं और सबकी पत्नियों के सामने ख़तरनाक उदाहरण पेश करते हैं।
एक बात और है। हमें एकदम आदर्श व्यक्ति, पूरा सद्गृहस्थ पड़ोसी भी नहीं चाहिए। सद्गृहस्थ के घर में हमें न कुछ झाँकने-सूँघने को मिल सकता है, न कोई ‘स्कैंडल’ मिल सकते हैं। सद्गृहस्थ तो ‘बोर’ होता है, उसके घर में कोई रोमांचक घटना घटने की संभावना नहीं होती। ऐसे घर में पत्नी तीज और करवा-चौथ को सर पर पल्ला डाल कर पति के चरण छुएगी और पतिदेव गदगद भाव से चरण स्पर्श कराते रहेंगे। पड़ोस दिलचस्प तभी हो सकता है जब कुछ खटरपटर होती रहे, कभी- कभार बर्तन और दूसरी चीज़ें अस्त्रों के रूप में फेंकी जाती रहें। ऐसा एक भी परिवार रहे तो सारे मुहल्ले में चेतना रहती है,लोगों की जीवन में रुचि बनी रहती है। मुहल्ले के सभी लोग ऐसे परिवार से जुड़े रहते हैं—-कुछ समझाने वालों के रूप में, कुछ उकसाने वालों के रूप में, और बाकी तमाशा देखने वालों के रूप में।
पड़ोसी उदार हृदय होना चाहिए कि जब भी हमें किसी चीज़ की दरकार हो वह तुरन्त दे दे। पड़ोसी तंगदिल हो तो ज़िन्दगी का मज़ा किरकिरा हो जाता है। हमें तो ऐसा पड़ोसी पसन्द है जो एक चीज़ मांगने पर दो पेश कर दे। इसके साथ ही पड़ोसी हिसाबी-किताबी भी नहीं होना चाहिए। यह नहीं होना चाहिए कि अगर हम कोई चीज़ लौटाना भूल जाएं तो वह तकाज़ा करने के लिए आकर खड़ा हो जाए। हम भूल भी जाएं तो उसे सब्र से काम लेना चाहिए। संबंध पहली चीज़ है। रुपया- पैसा,चीज़-वस्तु उसके सामने कुछ नहीं। मतलब यह कि पड़ोसी का दिल समुद्र जैसा विशाल होना चाहिए।
पड़ोसी को आत्मनिर्भर होना चाहिए। ऐसा पड़ोसी जो हमसे पैसे या चीज़ें माँगता रहे, हमें बिलकुल पसन्द नहीं। मतलब यह कि पड़ोसी आत्मसम्मान और आत्मसंतोष वाला भी होना चाहिए।
पड़ोसी ऐसा हो कि हमारे कहीं आने-जाने पर हमारे घर को,हमारे सारे बच्चों को संभाल ले। हमारी डाक को संभाल कर रखे,हमारी अनुपस्थिति में हमारा कोई मेहमान आ जाए तो उसका सत्कार कर दे। दूधवाले से दूध लेकर उसे गरम भी कर दे। मुख्तसर यह कि हम घर से बाहर रहकर भी बिलकुल निश्चिंत रह सकें।
एक निवेदन और। ऊपरी आमदनी वाला पड़ोसी नहीं चाहिए। जब मुहल्ले में कोई फ्रिज, अलमारी या नया सोफा लादे कोई ठेला आता दिखायी देता है तो मुहल्ले वाले जान जाते हैं कि इस ठेले की मंज़िल कहाँ होगी। भाई जी, हम ज़्यादा तनख्वाह पाकर भी उन नेमतों को तरसते हैं जो कम तनख्वाह वाले के पास अपने-आप दौड़ी चली आती हैं। वह सीना तानकर चलता है और हमारी रीढ़ वक्त की ठोकरें खा-खाकर झुकी जा रही है। इसलिए मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि ऊपरी कमाई वाले को उसके जैसे लोगों के पड़ोस में ही भेजा जाए।
तो भाई जी, मैंने एक आदर्श पड़ोसी का खाका खींचकर रख दिया है। अगर इन गुणों से विभूषित कोई आदमी आपकी नज़र में हो तो अविलम्ब सूचित कीजिएगा। मैं उसे अपने पड़ोस में स्थापित करना या फिर उसके पड़ोस में होना चाहूँगा।
© डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )