मराठी साहित्य – कविता ☆ मैत्री तुझी माझी . . !☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(आज प्रस्तुत है कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की एक मैत्री  दिवस  पर विशेष कविता  मैत्री तुझी माझी . . !

हम भले ही  मित्रता दिवस वर्ष में एक ही दिन मनाते और मित्रों का स्मरण करते हैं।  किन्तु, मित्रता सारे वर्ष निभाते हैं। अतः  मित्रता दिवस पर प्राप्त आलेखों एवं कविताओं का प्रकाशन सतत जारी है। कृपया पढ़ें, अपनी प्रतिक्रियाएँ दें तथा उन्हें आत्मसात करें।) )

 

☆ मैत्री तुझी माझी . . !☆

 

मैत्री फुलावी काळजातून

जीवनकाठी बहरावी

जशी पालवी शब्दातून.

मनामनातून लहरावी . . . . !

 

मैत्री अपुली अवीट गाणे

सदा रहावे ओठावरती

आठवणींचे हळवे कडवे

धून मैत्रीची रसरसती .. . !

 

तुझी नी भाझी भावस्पंदने

या मैत्रीने टिपून घ्यावी

संकटकाळी हाकेसरशी

अंतरातूनी  धावत यावी.. . !

 

संकटातल्या पाणवठ्यावर

शब्द घनांचे  अविरत देणे

हात मैत्रीचे गुंफत जाणे

मैत्री म्हणजे कोरीव लेणे . . . . !

 

स्नेहमैत्रीचा अमोल ठेवा

जपणारा तो ‘जयवंत ‘.

एक दिलासा  ‘यशवंत ‘

मित्र असावा गुणवंत.. . . !

 

काळजाचे काळजावर

अभिजात भाष्य

मैत्री  नसावे दास्य

मैत्री अवखळ हास्य .. . . . !

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (41) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

 

योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।।41।।

 

योग लाभ से,कर्मों से संयास यहां हो पाता है

ज्ञान और बल से शंसय तज,बंधु मुक्त हो जाता है।।41।।

 

भावार्थ :  हे धनंजय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किए हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते।।41।।

 

He who has renounced actions by Yoga, whose doubts are rent asunder by knowledge, and who is self-possessed,-actions do not bind him, O Arjuna! ।।41।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 11 – व्यंग्य – तलाश अच्छे पड़ोसी की ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  व्यंग्य रचना “तलाश अच्छे पड़ोसी की ”।  एक अच्छे पड़ोसी के सद्गुण तो डॉ परिहार जी ने बता दिये। अब आप तलाशते रहिए आपके पड़ोसी किस श्रेणी में आते हैं। हम आप तक ऐसा ही  उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 11 ☆

 

☆ व्यंग्य – तलाश अच्छे पड़ोसी की  ☆

हर आदमी की ख्वाहिश होती है कि जहाँ वह रहे वहाँ पड़ोस अच्छा मिले। इसीलिए आदमी मकान का इन्तज़ाम करते वक्त पड़ोस पर भी नज़र डालता है। पड़ोस गड़बड़ मिला तो अच्छा मकान मिलने पर भी कुछ काँटे जैसा कसकता रहता है।

इसलिए भाई जी, अच्छा पड़ोस कैसा हो इस पर मैंने काफी चिन्तन किया है, और मेरे चिन्तन का जो निचोड़ पैदा हुआ है वह आपके चिन्तन के लिए पेशेख़िदमत है।
पहली बात यह है कि पड़ोसी हर बात में हमसे उन्नीस हो,चाहे मामला शक्ल-सूरत का हो या तन्दुरुस्ती का,या फिर आमदनी का। अगर हम उन्नीस हों तो वह अठारह हो,और अगर हम अठारह हों तो वह सत्रह।

स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने वाला, मुँह-अँधेरे उठने वाला, नियम से स्नान करने वाला, सवेरे-शाम घूमने वाला, कसरत करने वाला पड़ोसी नहीं चाहिए। ऐसे पड़ोसी हमारी पत्नी के लिए उदाहरण बन जाते हैं जिनकी प्रशंसा करते उनकी जु़बान सूखती है। ऐसे पड़ोसी के मुकाबले हमारी सारी कमियाँ, कमज़ोरियाँ वैसे ही स्पष्ट हो जाती हैं जैसे पानी को हिलोर देने से नीचे बैठी गन्दगी ऊपर आ जाती है।

वैसे ज़िन्दगी में कई बार मज़ाक हो जाता है।मेरे एक मित्र के पिताजी सवेरे जब घूमने निकलते तो उन्हें अपने पुत्र के एक मित्र घूमकर लौटते हुए मिलते। मेरे मित्र आराम से उठने वाले जीव थे। उनके पिताजी लौटकर उनसे प्रातः-भ्रमण की उनके मित्र की आदत की प्रशंसा करते और उनकी लानत-मलामत करते। पुत्र ने जब पता लगाया तो पता चला कि उनके मित्र एक क्लब में रात भर जुआ खेलकर बड़े सवेरे वहाँ से लौटते थे और उनके पिताजी से टकराते थे। मित्र ने अपने उन मित्र की खूब ख़बर ली, लेकिन वे अपने पिताजी से असली बात नहीं बता सके।
इसलिए भाई जी, हमें स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने वाला पड़ोसी नहीं चाहिए। ऐसे आदमी सारे मुहल्ले का वातावरण खराब करते हैं और सबकी पत्नियों के सामने ख़तरनाक उदाहरण पेश करते हैं।

एक बात और है। हमें एकदम आदर्श व्यक्ति, पूरा सद्गृहस्थ पड़ोसी भी नहीं चाहिए। सद्गृहस्थ के घर में हमें न कुछ झाँकने-सूँघने को मिल सकता है, न कोई ‘स्कैंडल’ मिल सकते हैं। सद्गृहस्थ तो ‘बोर’ होता है, उसके घर में कोई रोमांचक घटना घटने की संभावना नहीं होती। ऐसे घर में पत्नी तीज और करवा-चौथ को सर पर पल्ला डाल कर पति के चरण छुएगी और पतिदेव गदगद भाव से चरण स्पर्श कराते रहेंगे। पड़ोस दिलचस्प  तभी हो सकता है जब कुछ खटरपटर होती रहे, कभी- कभार बर्तन और दूसरी चीज़ें अस्त्रों के रूप में फेंकी जाती रहें। ऐसा एक भी परिवार रहे तो सारे मुहल्ले में चेतना रहती है,लोगों की जीवन में रुचि बनी रहती है। मुहल्ले के सभी लोग ऐसे परिवार से जुड़े रहते हैं—-कुछ समझाने वालों के रूप में, कुछ उकसाने वालों के रूप में, और बाकी तमाशा देखने वालों के रूप में।

पड़ोसी उदार हृदय होना चाहिए कि जब भी हमें किसी चीज़ की दरकार हो वह तुरन्त दे दे। पड़ोसी तंगदिल हो तो ज़िन्दगी का मज़ा किरकिरा हो जाता है। हमें तो ऐसा पड़ोसी पसन्द है जो एक चीज़ मांगने पर दो पेश कर दे। इसके साथ ही पड़ोसी हिसाबी-किताबी भी नहीं होना चाहिए। यह नहीं होना चाहिए कि अगर हम कोई चीज़ लौटाना भूल जाएं तो वह तकाज़ा करने के लिए आकर खड़ा हो जाए। हम भूल भी जाएं तो उसे सब्र से काम लेना चाहिए। संबंध पहली चीज़ है। रुपया- पैसा,चीज़-वस्तु उसके सामने कुछ नहीं। मतलब यह कि पड़ोसी का दिल समुद्र जैसा विशाल होना चाहिए।

पड़ोसी को आत्मनिर्भर होना चाहिए। ऐसा पड़ोसी जो हमसे पैसे या चीज़ें माँगता रहे, हमें बिलकुल पसन्द नहीं। मतलब यह कि पड़ोसी आत्मसम्मान और आत्मसंतोष वाला भी होना चाहिए।

पड़ोसी ऐसा हो कि हमारे कहीं आने-जाने पर हमारे घर को,हमारे सारे बच्चों को संभाल ले। हमारी डाक को संभाल कर रखे,हमारी अनुपस्थिति में हमारा कोई मेहमान आ जाए तो उसका सत्कार कर दे। दूधवाले से दूध लेकर उसे गरम भी कर दे। मुख्तसर यह कि हम घर से बाहर रहकर भी बिलकुल निश्चिंत रह सकें।

एक निवेदन और। ऊपरी आमदनी वाला पड़ोसी नहीं चाहिए। जब मुहल्ले में कोई फ्रिज, अलमारी या नया सोफा लादे कोई ठेला आता दिखायी देता है तो मुहल्ले वाले जान जाते हैं कि इस ठेले की मंज़िल कहाँ होगी। भाई जी, हम ज़्यादा तनख्वाह पाकर भी उन नेमतों को तरसते हैं जो कम तनख्वाह वाले के पास अपने-आप दौड़ी चली आती हैं। वह सीना तानकर चलता है और हमारी रीढ़ वक्त की ठोकरें खा-खाकर झुकी जा रही है। इसलिए मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि ऊपरी कमाई वाले को उसके जैसे लोगों के पड़ोस में ही भेजा जाए।

तो भाई जी, मैंने एक आदर्श पड़ोसी का खाका खींचकर रख दिया है। अगर इन गुणों से विभूषित कोई आदमी आपकी नज़र में हो तो अविलम्ब सूचित कीजिएगा। मैं उसे अपने पड़ोस में स्थापित करना या फिर उसके पड़ोस में होना चाहूँगा।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #8 – ब्लेक होल ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  सातवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 8 ☆

 

☆ ब्लेक होल ☆

 

कैसे ज़ब्त कर लेते हो

इतने दुख, इतने विषाद

अपने भीतर..?

विज्ञान कहता है

पदार्थ का विस्थापन

अधिक से कम

सघन से विरल

की ओर होता है,

ज़माने का दुख

आता है, समा जाता है,

मेरा भीतर इसका

अभ्यस्त हो चला है

सारा रिक्त शनैः-शनैः

‘ब्लैक होल’ हो चला है!

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

[email protected]




English Literature – Poetry – ☆ Black Hole…. ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi ji  for sharing his literary and art works with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national level projects. We present a translation of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem ” ब्लेक होल ” published in today’s  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #8 – ब्लेक होल ☆ . We extend our heartiest thanks for this beautiful translation. )

 

☆ Black Hole…. ☆

 

How do you manage

to absorb

so many hardships

so much of sadness

within yourself,

Science says:

Decay of substance

Happens from more to less

Dense to sparse…

Misery of world

Comes and gets

consumed in me,

My inside is getting

used to of it

Entire emptiness of mine

is gradually turning

into the ‘Black hole!’

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM




मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ मैत्री दिवस विशेष – मैत्री ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

मैत्री दिवस विशेष 

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है  मैत्री दिवस पर एक विशेष आलेख  मैत्री ।  

 

☆ मैत्री ☆

 

आज सकाळपासून मला माझ्या मैत्रीणी ची आठवण येत होती.खरंच मैत्रीचे धागे एकदा विणले की ते विलग होत नाहीत,उलट दिवसेंदिवस अधिक दृढ होत जातात.

मैत्री ही अशी आहे असं सांगून भागत नाही ती प्रतिसाद देत टिकवायची असते.मैत्रीत ना असतं तुझं नाव माझं,ना खरं ना खोटं ! तिला कुठल्याही पारड्यात तोला. तिचं पारडं नेहमी जडंच !

मैत्री केव्हाही,कुठंही होऊ शकते.तिला वेळ काळ कशाचही बंधन नसतं.

मैत्रीच्या नात्यात प्राण असतो म्हणून रक्ताची नाती तुटू शकतात पण मैत्रीची नाही.

मैत्री असावी “द्वारकाधीश श्रीकृष्णाची व दरिद्री सुदाम्याची “!श्रीकृष्णाने सुदाम्याने आणलेल्या मूठभर पोह्यासाठी हट्ट धरला,पोहे कसले ते फाटक्या धोतराच्या पुरचुंडीत घरातल्या मडक्यातला उरलासुरला पोह्यांचा चुरा पण तो श्रीकृष्णाने अत्यंत प्रेमानं खाल्ला, आणि त्याला अमृताची गोडी आली कारण त्या पोह्यात सुदाम्याच्या मैत्रीची श्रीमंती होती.

मागच्या वर्षीच्या मैत्रीदिनानिमित्त एका चिनी मित्रांची कथा माझ्या वाचनात आली.त्यात एकजण दोन्ही डोळ्यांनी जन्मांध तर दुसरा लहानपणी अपघातात दोन्ही हात गमावलेला.दोघांनाही काम नव्हतं.एके दिवशी बेकारांच्या रांगेत दोघांची ओळख झाली.त्या दोघांनीही कुणाकडं भिकाऱ्यासारखं मागत बसण्यापेक्षा वेगळं काहीतरी कां करु नये असा विचार केला व त्यातूनच त्या दोघांची मैत्री झाली अन् त्याक्षणी “ये दोस्ती हम नहीं छोडेंगे ” म्हणत त्यांनी एका उदात्त ध्यासाची शपथ घेतली.दोघांनी स्थानिक प्रशासनाकडे पाठपुरावा करुन नदीकाठची पण पडीक जमीन भाड्यानं मागितली.आम्हाला अपंगत्वान भविष्य ठेवलेलं नाही पण भावी पिढ्यांच्या कल्याणासाठी आम्हाला पर्यावरणपूरक वनीकरण करायचं आहे असं सांगून त्यांनी त्या पडीक माळरानाच्यातब्बल तीन हेक्टरवर वृक्षारोपण केल. खड्डे खणण्यापासून पाणी घालण्यापर्यंत सारं या दोघांनीच केवळ एकमेकांच्या साथीनं “तू माझे हात व मी तुझे डोळे ” असं म्हणत असाध्य ते साध्य केलं.

आज पंधरा वर्षांनी हे सगळं माळरान सुंदर हिरवाईने फुललंय !माणसांचा आधार, चिमण्या पाखरांचा पशुपक्ष्यांच्या अनेक जातींचा “विसावा “झालंय !

कधीकाळी उपाशीपोटी पण समाधानी मनानं केलेल्या कामाला उदात्त व गोड फळं आलीत.

देह अपंग असले तरी अभंग मनातल्या आपल्या क्षमतांवरचा विश्र्वास व मैत्रीची भरभक्कम साथ यामुळे या दोघांनी अनेकांसाठी एक आदर्श निर्माण केला.

धन्य ती आयुष्याच्या सफलतेला कारणीभूत ठरणारी सुंदर मैत्री.!!

मैत्री ही नेहमी असते गोड तिला ना कशाची तोड!”

” मैत्रीदिनाच्या मनापासून शुभेच्छा !”

 

©®उर्मिला इंगळे

दिनांक :- ४-८-१९




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #15 – क्षणच तो, क्षणात हरवला की गवसला ? ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की पंद्रहवीं  कड़ी  क्षणच तो, क्षणात हरवला की गवसला ?।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। यह सत्य है कि जीवन के प्रत्येक क्षण महत्वपूर्ण हैं।  जो क्षण हम खो देते हैं वे क्षण भविष्य में पुनः नहीं आएंगे। कुछ क्षण ऐसे भी होते हैं जिनके लिए हमारा सारा जीवन व्यतीत हो जाता है और हम उन्हें नहीं पा पाते। कुछ क्षण ऐसे भी आते हैं जो हमारे सामने से मुट्ठी में से रेत की तरह फिसल जाते हैं और हम उन्हें रोक नहीं पाते। कभी कल्पना कर देखिये।  आरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #15 ?

 

☆ क्षणच तो, क्षणात हरवला की गवसला ? ☆

 

क्षणच तो, क्षणात हरवला की गवसला ?

नक्की काय झालं ते कळलंच नाही…
क्षणोक्षणीचे विचार क्षणभंगूर की तो क्षणच…

मनात जे येतं, ते क्षणभर पकडायचा प्रयत्न ?असंच वाटतं, हो ना?
ह्या पकडा पकडीमध्ये किती तरी क्षण निसटून जातात नाही !

ओंजळीत उरतात ते फक्त आठवणीतले क्षण… क्षणभर विसावा !
पण हा विसवाही क्षणभरच असतो… इथेही क्षणभरच रमता येतं…

प्रत्येक क्षणाशी लढावं लागतं, कधी आनंदाने तर कधी इच्छा नसताना…
अनेक आशा आकांक्षांना सोबत घेऊन… तुझं माझं करत …

मग एक असा क्षण येतो की त्यात बाकी उरते ती असते, मी…
ह्या क्षणावर फक्त माझा हक्क असतो कारण तो मला माझ्यासाठी जगायचा असतो… ह्या क्षणाची वाट पहात असताना आयुष्य खूप काही शिकवून जातं, खूप काही घेऊन जातं, देऊन जातं, हातात उरतात ते क्षण सोनेरी करून जातं, क्षणभर !

एका लाटेतून जन्मणारी दुसरी लाट क्षणाक्षणांचा प्रवास करून येते अगदी तस्संच… नक्की कुठली लाट आपली आहे हे कळेपर्यंत दुसरी लाट मनाचा ताबा घेते, पायाला स्पर्शून जाते, पण थांबत नाही… तिची किनाऱ्याची ओढ अद्वैतात जाण्याची, पण तिथूनही परतावं लागतं, कारण जगलेले क्षण क्षणभंगूर आहेत ना ! सतत वाहत असतात, क्षणा क्षणाने !

 

© आरुशी दाते, पुणे 




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (40) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ।।40।।

ज्ञान रहित,श्रद्धाविहीन,संशयी नष्ट हो जाता है

इस जग में,न अन्य लोक में शांति और सुख पाता है।।40।।

 

भावार्थ :  विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है ।।40।।

 

The ignorant, the faithless, the doubting self proceeds to destruction; there is neither this world nor the other nor happiness for the doubting. ।।40।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – वह-4 ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)

 

☆ संजय दृष्टि  – वह – 4

 

माँ सरस्वती की अनुकम्पा से  *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज 

 

बीस  

 

वह धोती है कपड़े

फटकारती है कपड़े

निचोड़ती है कपड़े,

ज्ञान के आदिसूत्र

उसकी ही देन हैं।

 

इक्कीस 

 

वह मथती है दही

नवनीत निकालती है,

समुद्र मंथन का विचार

समाहित था

उसकी मथानी में।

 

बाईस 

 

वह जानती है

उससे कुछ ही

बेहतर जियेगी

उसकी बेटी,

फिर भी बेटी

जनती है वह ,

सृष्टि को टिकाये रखने की

ज़िम्मेदारी नहीं भूलती वह!

 

तेईस 

 

वह जाना चाहती है

उसके कांधे

पर उससे आँच

नहीं लेती वह,

सदा अखंड ज्योति

बनी रहती है वह!

 

चौबीस 

 

वह माँ, वह बेटी,

वह प्रेयसी, वह पत्नी,

वह दादी-नानी,

वह बुआ-मौसी,

चाची-मामी वह..,

शिक्षिका, श्रमिक,

अधिकारी, राजनेता,

पायलट, ड्राइवर,

डॉक्टर, इंजीनियर,

सैनिक, शांतिदूत,

क्या नहीं है वह..,

योगेश्वर के

विराट रूप की

जननी है वह!

 

आज का दिन चिंतन को दिशा दे।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 1 ☆ बह गई तोड़ के बंधन ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी के हम आभारी हैं जिन्होने हमारे आग्रह को स्वीकार कर  “साप्ताहिक स्तम्भ – कोहरे के आँचल से ” शीर्षक प्रारम्भ करना  स्वीकार किया। सौ. सुजाता जी मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक प्राकृतिक आपदा पर आधारित भावप्रवण कविता  ‘बह गई तोड़ के बंधन ’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 1 ☆

☆ बह गई तोड़ के बंधन

सालों जो बँधी हुई थी
दो पाटल के धारों में
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों में गलियारों में।

 

हाहाकार मचाया उसने
राहों में चौराहों में,
उद्दंड़ बनकर बह गई माता
गोद लिए खलियानों में।

 

हुआ अनर्थ, अनर्थ यह भारी

देख दृश्य यह आँखों ने।
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों  में गलियारों में।

 

धूम मचाई घर नगर में उसने
संसार सभी के ध्वस्त किए।
कहीं गिरि को भेदती निकली
कहीं  सागर से गले मिले।

 

जो जो मिला राह में उसको
सब आँचल में छुपा लिया।
चल अचल को ध्वंस करती
हिलोरें लेकर बहा दिया।

 

स्नेहाशीष का आँचल क्यों
फिर सरकाया है माँ ने,
आज बह गई तोड़ के बंधन
गाँवों में गलियारों में।

 

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684