आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (26) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

 

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।

शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ।।26।।

 

कोई श्रोत्रादि इंद्रियों को संयमाग्नि में करते यज्ञ

काई शब्दादि विषय हविष्य से इंद्रियाग्नि में करते यज्ञ।।26।।

 

भावार्थ :  अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयम रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं।।26।।

 

Some again offer hearing and other senses as sacrifice in the fire of restraint; others offer sound and various objects of the senses as sacrifice in the fire of the senses. ।।26।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #6 – पड़ाव के बाद का मौन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  चौथी  कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 6 ☆

 

☆ पड़ाव के बाद का मौन ☆

 

एक परिचित के घर बैठा हूँ। उनकी नन्हीं पोती रो रही है। उसे भूख लगी है, पेटदर्द है, घर से बाहर जाना चाहती है या कुछ और कहना चाह रही है, इसे समझने के प्रयास चल रहे हैं।

अद्भुत है मनुष्य का जीवन। गर्भ से निकलते ही रोना सीख जाता है। बोलना, डेढ़ से दो वर्ष में आरंभ होता है। शब्द से परिचित होने और तुतलाने से आरंभ कर सही उच्चारण तक पहुँचने में कई बार जीवन ही कम पड़ जाता है।

महत्वपूर्ण है अवस्था का चक्र, महत्वपूर्ण है अवस्था का मौन..। मौन से संकेत, संकेतों से कुछ शब्द, भाषा से परिचित होते जाना और आगे की यात्रा।

मौन से आरंभ जीवन, मौन की पूर्णाहुति तक पहुँचता है। नवजात की भाँति ही बुजुर्ग भी मौन रहना अधिक पसंद करता है। दिखने में दोनों समान पर दर्शन में जमीन-आसमान।

शिशु अवस्था के मौन को समझने के लिए माता-पिता, दादी-दादा, नानी,-नाना, चाचा-चाची, मौसी, बुआ, मामा-मामी, तमाम रिश्तेदार, परिचित और अपरिचित भी प्रयास करते हैं। वृद्धावस्था के मौन को कोई समझना नहीं चाहता। कुछ थोड़ा-बहुत समझते भी हैं तो सुनी-अनसुनी कर देते हैं।

एक तार्किक पक्ष यह भी है कि जो मौन, एक निश्चित पड़ाव के बाद जीवन के अनुभव से उपजा है, उसे सुनने के लिए लगभग उतने ही पड़ाव तय करने पड़ते हैं। क्या अच्छा हो कि अपने-अपने सामर्थ्य में उस मौन को सुनने का प्रयास समाज का हर घटक करने लगे। यदि ऐसा हो सका तो ख़ासतौर पर बुजुर्गों के जीवन में आनंद का उजियारा फैल सकेगा।

इस संभावित उजियारे की एक किरण आपके हाथ में है। इस रश्मि के प्रकाश में क्या आप सुनेंगे और पढ़ेंगे बुजुर्गों का मौन..?

 

(माँ सरस्वती की अनुकम्पा से 19.7.19 को प्रातः 9.45 पर प्रस्फुटित।)

आज सुनें और पढ़ें किसी बुजुर्ग का मौन।

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©  संजय भारद्वाज , पुणे

[email protected]

विशेष: श्री संजय भारद्वाज जी के व्हाट्सएप पर भेजी गई 19 जुलाई 2019 की  पोस्ट को स्वयं तक सीमित न रख कर अक्षरशः आपसे साझा कर रहा हूँ।  संभवतः आप भी पढ़ सकें किसी बुजुर्ग का मौन? आपके आसपास अथवा अपने घर के ही सही!

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 9 – व्यंग्य – सनकी बाबूलाल: प्रसंग एक ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  व्यंग्य रचना “सनकी बाबूलाल : प्रसंग एक ”।  यह व्यंग्य अनायास  ही हमें सरकारी दफ्तरों की कार्यप्रणाली एवं उस प्रणाली से पीड़ितों की दशा-दुर्दशा बयान करती है। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 9 ☆

 

☆ व्यंग्य – सनकी बाबूलाल: प्रसंग एक ☆

बाबूलाल का उस दफ्तर में करीब पांच सौ का बिल पड़ा है। तीन-चार महीने गुज़र गये हैं लेकिन बिल का अता-पता नहीं है। जब भी बाबूलाल दफ्तर जाता है, बिल पास करनेवाला बाबू उसकी नाक के सामने अपना रजिस्टर रख देता है। कहता है, ‘यह देखो,हमने तो पास करके भेज दिया है। कैशियर के पास होना चाहिए। हमने अपना काम चौकस कर दिया।’

बाबूलाल गर्दन लम्बी करके रजिस्टर में झाँकता है,पूछता है, ‘किसने रिसीव किया है?’

बाबू कहता है, ‘अरे ये गुचुर पुचुर कर दिया है। पता ही नहीं चलता किसके दस्कत हैं।’

बाबूलाल कहता है, ‘थोड़ा रजिस्टर देते तो मैं कैश में दिखाऊँ।’

बाबू बित्ता भर की जीभ निकालता है, कहता है, ‘अरे बाप रे! आफिशियल डाकुमेंट दफ्तर से बाहर कैसे जाएगा? अनर्थ हो जाएगा।’

कैश वाला बाबू सुंघनी चढ़ाता हुआ अपना रजिस्टर दिखाता है, कहता है, ‘हमारे रजिस्टर में कहीं एंट्री नहीं है। बिल होता तो कहीं एंट्री होती।’ फिर बगल में बैठी महिला से कहता है, ‘देखो, इनका कोई चेक बना है क्या।’

महिला, उबासी लेती, फाइल में रखे चेकों को खंगालती है,फिर सिर हिलाकर घोषणा करती है कि नहीं है।

बाबूलाल पन्द्रह बीस दिन में पाँव घसीटता  पहुँच जाता है। हर बार उसे दोनों रजिस्टर सुंघाये जाते हैं, और हर बार चेक वाली महिला सिर हिला देती है।

एक दिन बाबूलाल भिन्ना जाता है। बिल पास करनेवाले से कहता है, ‘तुम्हारे रजिस्टर को देख के क्या करें? हर बार नाक पर रजिस्टर टिका देते हो।’ गुस्से में अफसर के पास जाकर शिकायत करता है तो वे कहते हैं, ‘डुप्लीकेट बिल बनाकर ले आओ।’

बाबूलाल दुबारा बिल बना देता है। पास करनेवाले बाबू के पास जाता है तो वह बिल पर चिड़िया बनाकर कहता है, ‘कैश से लिखवाना पड़ेगा कि भुगतान नहीं हुआ।’

बाबूलाल सुंघनी वाले बाबू के पास पहुँचता है। बाबू बिल देखकर महिला की तरफ बढ़ा देता है। महिला देखकर सोच में डूब जाती है, बुदबुदाती है, ‘कैशबुक देखनी पड़ेगी।’

फिर भारी दुख से बाबूलाल की तरफ देखकर कहती है, ‘सोमवार को आ जाओ। हम देख लेंगे।’

सोमवार को बाबूलाल पहुँचता है तो कैश वाला बाबू चुटकी से नसवार का सड़ाका लगाता है, फिर कहता है, ‘तुम्हारा पुराना बिल मिल गया।’

बाबूलाल चौंकता है, पूछता है, ‘बिल मिल गया?’

बाबू नाक के निचले गन्दे हिस्से को गन्दे तौलिया से पोंछते हुए कहता है, ‘हाँ,कागजों में दब गया था। ढूँढ़ा तो मिल गया। कल आकर चेक ले लो।’

बाबूलाल के जाने के बाद बाबू तौलिया झाड़ता हुआ महिला से शिकायती लहज़े में कहता है, ‘पाँच सौ रुपल्ली के बिल के पीछे दिमाग खा गया। कुछ लोग बड़े सनकी होते हैं।’

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य – भाग 2 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रस्तुत है प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा पर एक सार्थक आलेख  वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्यकल आपने इस आलेख का प्रथम भाग पढ़ा। आज के अंक में प्रस्तुत कर रहे हैं एवं इसकी अंतिम कड़ी । )

 

☆ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य – भाग 2  (अंतिम भाग) ☆

 

कल के अंक से आगे ….

ओम व्यास सफल मंचीय कवि थे. ओम व्यास की रचना

“मज़ा ही कुछ और है”…….
दांतों से नाखून काटने का
छोटों को जबरदस्ती डांटने का
पैसे वालों को गाली बकने का
मूंगफली के ठेले से मूंगफली चखने का
कुर्सी पे बैठ कर कान में पैन डालने का
और डीटीसी की बस की सीट में से स्पंज निकालने का
मज़ा ही कुछ और है
एक ही खूंटी पर ढेर सारे कपड़े टांगने का
नये साल पर दुकानदार से कलैंडर मांगने का
चलती ट्रेन पर चढ़ने का
दूसरे की चिट्ठी पढ़ने का
मांगे हुए स्कूटर को तेज भगाने का
और नींद न आने पर पत्नी को जगाने का
मज़ा ही कुछ और है
चोरी से फल फूल तोड़ने का
खराब ट्यूब लाइट और मटके फोड़ने का
पड़ोसिन को घूर घूर कर देखने का
अपना कचरा दूसरों के घर के सामने फेंकने का
बथरूम में बेसुरा गाने का
और थूक से टिकट चिपकाने का
मज़ा ही कुछ और है
आफिस से देर से आने का
फाइल को जबरदस्ती दबाने का
चाट वाले से फोकट में चटनी डलवाने का
बारात में प्रैस किये हुए कपड़ों को फिर से प्रैस करवाने का
ससुराल में साले से पान मंगवाने का
और साली की पीठ पर धौल जमाने का
मज़ा ही कुछ और है

बलबीर सिंग कुरुक्षेत्र से हैं उनकी एक हास्य रचना…

परीक्षा-हाल में अक्सर मेरा, अंतर्रात्मा से मिलन होता है ।
पेपर तो छात्र देते हैं, परन्तु मूल्यांकन हमारा भी होता है ।
एक दिन गणित के पेपर में, डयूटी मेरी आन लगी थी
समय जैसे ही शुरु हुआ, घण्टी मोबाईल की बोलने लगी थी
मोबाईल को देख सिर मेरा चकराया, क्योंकि फोन था अर्धांगिनी ने लगाया
दहाड़ती हुई शेरनी सी बोली, दूध खत्म हो गया है
जल्दी से घर आ जाओ, मुन्ना भूखा ही सो गया है

काका हाथरसी छंद बद्ध हास्य रचनाओ के सुस्थापित नाम हैं उनकी किताबें काका की फुलझड़ियाँ, काका के प्रहसन, लूटनीति मंथन करि,  खिलखिलाहट,  काका तरंग,जय बोलो बेईमान की, यार सप्तक, काका के व्यंग्य बाण आदि सभी किताबें मूलतः हास्य से भरपूर रचनायें हैं. प्रायः काका हाथरसी की कुण्डलियां बहुत चर्चित रही हैं.

कभी मस्तिष्क में उठते प्रश्न विचित्र।
पानदान में पान है, इत्रदान में इत्र।।
इत्रदान में इत्र सुनें भाषा विज्ञानी।
चूहों के पिंजड़े को, कहते चूहेदानी।
कह ‘काका’ इनसान रात-भर सोते रहते।
उस परदे को मच्छरदानी क्योकर कहते।।
‍‍‍‍…….
कुत्ता बैठा कार में, मानव मांगे भीख।
मिस्टर दुर्जन दे रहे, सज्जनमल को सीख।।
सज्जनमल को सीख, दिल्लगी अच्छी खासी।
बगुला के बंगले पर, हंसराज चपरासी।।
हिंदी को प्रोत्साहन दे, किसका बलबुत्ता।
भौंक रहा इंगलिश में, मन्त्री जी का कुत्ता।।

हुल्लड़ मुरादाबादी देश के विभाजन पर पाकिस्तान से विस्थापित होकर मुरादाबाद आये. उनका मूल नाम  सुशील कुमार चड्ढा है. उनके लिए हास्य व्यंग्य की यह  कला बड़ी सहज है. भाषा ऐसी है कि हिन्दी उर्दू में भेदभाव नहीं,  भाव ऐसा है कि हृदय को छू जाए.  समय के साथ हुये तकनीकी परिवर्तनो को हास्य रचनाकारो द्वारा बड़ी सहजता से अपनाया गया. हुल्लड़ जी ने किताबें या मंचीय प्रस्तुतियां ही नही एच एम वी के माध्यम से ई पी, एल पी, कैसेट के माध्यम से भी उनकी हास्य रचनायें प्रस्तुत की और देश के सुदूर ग्रामीण अंचलो तक सुने व सराहे गये.  हुल्लड़ जी  पहले हास्य कवि हैं जिनका (L.P) रेकार्ड एच.एम.वी.कम्पनी ने तैयार किया.

एच.एम.वी.द्वारा रिलीज किए गए हुल्लड़ जी के रिकार्ड हँसी का खजाना,  हुल्लड़ का हंगामा,  कहकहे आदि फेमस हैं.

स्वयं काका हाथरसी के कैसेट के साथ सुरेन्द्र शर्मा के चार लाइणा कैसेट में भी प्रथम स्वर हुल्लड़ जी का ही है।

श्रोताओं को हँसाते खुद रहते गंभीर
कैसेट इनका बज रहा, वहाँ लग रही भीड़
वहाँ लग रही भीड़, खींचते ऐसे खाके
सम्मेलन हिल जाए, इस कदर लगे ठहाके

हुल्लड़ की एक रचना है

चार बच्चों को बुलाते तो दुआएँ मिलतीं,
साँप को दूध पिलाने की जरूरत क्या थी ?

कविता का मूल उद्देश्य केवल हँसी या मनोरंजन ही नहीं होना चाहिए। यदि श्रोता या पाठक को हँसी के अतिरिक्त कुछ संदेश नहीं मिलता तो वह कविता बेमानी है.

अल्‍हड़ बीकानेरी भी उनके समकालीन हास्य व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं. छंद, गीत, गजल और ढ़ेरों पैरोडियों के रचयिता अल्‍हड़ जी ऐसे अनूठे कवि थे, जिन्‍होंने हास्‍य को गेय बनाने की परंपरा की भी शुरुआत की. अल्हड़ जी एक ऐसे छंद शिल्पी थे, जिन्हें छंद शास्त्र का व्यापक ज्ञान था। अपनी पुस्‍तक ‘घाट-घाट घूमे’ में अल्‍हड़ जी लिखते हैं, ”नई कविता के इस युग में भी छंद का मोह मैं नहीं छोड़ पाया हूं, छंद के बिना कविता की गति, मेरे विचार से ऐसी ही है, जैसे घुंघरुओं के बिना किसी नृत्‍यांगना का नृत्‍य….. ” वे अपनी हर कविता को छंद में लिखते थे और कवि सम्‍मेलनों के मंचों पर उसे गाकर प्रस्‍तुत करते थे. यही नहीं गज़ल लिखने वाले कवियों और शायरों के लिए उन्‍होंने गज़ल का पिंगल शास्‍त्र भी लिखा, जो उनकी पुस्‍तक ‘ठाठ गज़ल के’ में प्रकाशित हुआ।

अल्‍हड़ जी की प्रतिभा और लगन का ही करिश्‍मा था कि सन् 1970 आते-आते वे देश में एक लोकप्रिय हास्‍य कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। काव्‍य गुरू श्री गोपाल प्रसाद व्‍यास जी के मार्गदर्शन में अल्‍हड़ जी ने अनूठी हास्‍य कवितायें लिख कर उनकी अपेक्षाओं पर अपने को खरा साबित किया। अल्‍हड़ जी ने हिन्‍दी हास्‍य कविता के क्षेत्र में जो विशिष्‍ट उपलब्धियां प्राप्‍त कीं, उनमें ‘साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान’ के सम्‍पादक श्री मनोहर श्‍याम जोशी, ‘धर्मयुग’ के सम्‍पादक श्री धर्मवीर भारती और ‘कादम्बिनी’ के संपादक श्री राजेन्‍द्र अवस्‍थी की विशेष भूमिका रही। अल्‍हड़ जी अपनी हास्‍य कविताओं में सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों पर तीखा प्रहार किया। अपनी बात को कविता के माध्‍यम से वे बहुत ही सहज रूप से अभिव्‍यक्‍त करते थे।  अल्‍हड़ बीकानेरी ने हास्‍य- व्‍यंग्‍य कवितायें न सिर्फ हिन्‍दी बल्कि ऊर्दू, हरियाणवी संस्कृत भाषाओं में भी लिखीं और ये रचनायें कवि-सम्‍मेलनों में अत्‍यंत लोकप्रिय हुईं। उनके पास कमाल का बिंब विधान था। राजनीतिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्‍य में उनकी यह टिप्‍पणी देखिए :

”उल्‍लू ने बढ़ के हंस की थामी नकेल है
कुदरत का है कमाल मुकद़्दर का खेल है”

इसी तरह महंगाई पर पौराणिक संदर्भों का सहारा लेकर वे खूबसूरती से अपनी बात कहते हैं:

”बूढ़े विश्‍वामित्रों की हो सफल तपस्‍या कैसे
चपल मेनका-सी महंगाई फिरे फुदकती ऐसे

माणिक वर्मा का जन्म मध्यप्रदेश के खंडवा में हुआ था। वे हास्य व्यंग्य की गद्य कविता के लिए जाने जाते हैं।

सब्जी वाला हमें मास्टर समझता है
चाहे जब ताने कसता है

‘आप और खरीदोगे सब्जियां!
अपनी औकात देखी है मियां!

ओम प्रकाश आदित्य की गजल है….

छंद को बिगाड़ो मत, गंध को उजाड़ो मत
कविता-लता के ये सुमन झर जाएंगे।
शब्द को उघाड़ो मत, अर्थ को पछाड़ो मत,
भाषण-सा झाड़ो मत गीत मर जाएंगे।

शैल चतुर्वेदी की अनेक किताबें छपीं. वे अपने डील डौल से ही मंचो पर हास्य का माहौल बना देते हैं.  उनकी एक रचना

जिन दिनों हम पढ़ते थे
एक लड़की हमारे कॉलेज में थी
खूबसूरत थी, इसलिए
सबकी नॉलेज में थी
मराठी में मुस्कुराती थी
उर्दू में शर्माती थी
हिन्दी में गाती थी
और दोस्ती के नाम पर
अंग्रेज़ी में अँगूठा दिखाती थी

इसी तरह प्रदीप चौबे की एक रचना

हर तरफ गोलमाल है साहब
आपका क्या खयाल है साहब
लोग मरते रहें तो अच्छा है
अपनी लकड़ी की टाल है साहब
आपसे भी अधिक फले फूले
देश की क्या मजाल है साहब
मुल्क मरता नहीं तो क्या करता
आपकी देखभाल है साहब
रिश्वतें खाके जी रहे हैं लोग
रोटियों का अकाल है साहब

प्रदीप चौबे की यह रचना हिन्दी  गजल या हजल के सांचे में है.

हास्य कविता की धार को व्यंग्य से  पैना करने वाले, शब्दों के खिलाड़ी  अशोक चक्रधर की  एक कविता

नदी में डूबते आदमी ने
पुल पर चलते आदमी को
आवाज लगाई- ‘बचाओ!’
पुल पर चलते आदमी ने
रस्सी नीचे गिराई
और कहा- ‘आओ!’
नीचे वाला आदमी
रस्सी पकड़ नहीं पा रहा था
और रह-रह कर चिल्ला रहा था-
‘मैं मरना नहीं चाहता
बड़ी महंगी ये जिंदगी है
कल ही तो एबीसी कंपनी में
मेरी नौकरी लगी है।’
इतना सुनते ही
पुल वाले आदमी ने
रस्सी ऊपर खींच ली
और उसे मरता देख
अपनी आंखें मींच ली
दौड़ता-दौड़ता
एबीसी कंपनी पहुंचा
और हांफते-हांफते बोला-
‘अभी-अभी आपका एक आदमी
डूब के मर गया है
इस तरह वो
आपकी कंपनी में
एक जगह खाली कर गया है
ये मेरी डिग्रियां संभालें
बेरोजगार हूं
उसकी जगह मुझे लगा लें।’
ऑफिसर ने हंसते हुए कहा-
‘भाई, तुमने आने में
तनिक देर कर दी
ये जगह तो हमने
अभी दस मिनिट पहले ही
भर दी
और इस जगह पर हमने
उस आदमी को लगाया है
जो उसे धक्का देकर
तुमसे दस मिनिट पहले
यहां आया है।’

बेरोजगारी पर यह तंज जहाँ हंसाता है वहीं झकझोरता भी है. अशोक चक्रधर की हास्य कवितायें कई फ्रेम में कसी गई हैं, पर अधिकांश मुक्त छंद ही हैं.

पद्मश्री  सुरेंद्र शर्मा हिंदी की मंचीय कविता में स्वनाम धन्य हैं, वे हरियाणवी बोली में चार लाईणा सुनाकर और अधिकांशतः अपनी पत्नी को व्यंग्य का माध्यम बनाकर कविता करते हैं.

हमने अपनी पत्नी से कहा-
‘तुलसीदास जी ने कहा है-
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी
-इसका अर्थ समझती हो
या समझाएं?’
पत्नी बोली-
‘इसका अर्थ तो बिल्कुल ही साफ है
इसमें एक जगह मैं हूं
चार जगह आप हैं।’

मण्डला के प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध जी की पहचान मूलतः संस्कृत ग्रंथो के हिन्दी काव्यअनुवाद तथा समसामयिक विषयो पर देश प्रेम की भावना वाली कविताओ को लेकर है, उनकी एक संदेश पूर्ण व्यंग्य कविता है…

हो रहा आचरण का निरंतर पतन,राम जाने कि क्यो राम आते नहीं
हैं जहां भी कहीं हैं दुखी साधुजन देके उनको शरण क्यों बचाते नहीं

मेरे हास्य व्यंग्य सारे देश के अखबारो में संपादकीय पृष्ठ पर छप रहे हैं. व्यंग्य लेखो व व्यंग्य नाटको की मेरी कई  किताबें छप चुकी हैं. मेरी व्यंग्य कविता की ये पंक्तियां उद्धृत हैं…

फील गुड
सड़क हो न हो मंजिलें तो हैं फील गुड
अपराधी को सजा मिले न मिले
अदालत है, पोलिस भी है सो फील गुड
उद्घाटन हो पाये न हो पाये
शिलान्यास तो हो रहे हैं लो फील गुड

किसी भी कवि लेखक या व्यंग्यकार की रचनाओ में उसके अनुभवो की अभिव्यक्ति होती ही है.  रचनाकार का अनुभव संसार जितना विशद होता है, उसकी रचनाओ में उतनी अधिक विविधता और परिपक्वता देखने को मिलती है. जितने ज्यादा संघर्ष रचनाकार ने जीवन में किये होते हैं उतनी व्यापक करुणा उसकी कविता में परिलक्षित होती है , कहानी और आलेखो में दृश्य वर्णन की वास्तविकता भी रचनाकार की स्वयं या अपने परिवेश के जीवन से तादात्म्य की क्षमता पर निर्भर होते हैं. रोजमर्रा  की दिल को  चोटिल कर देने वाली घटनायें व्यंग्यकार के तंज को जन्म देती हैं.

आज के एक स्थापित व्यंग्यकार स्व सुशील सिद्धार्थ  एक प्राध्यापक के पुत्र थे. अध्ययन में अव्वल. हिन्दी में उन्होने पी एच डी की उपाधि गोल्ड मेडल के साथ अर्जित की. स्वाभाविक था कि विश्वविद्यालय में ही वे शिक्षण कार्य से जुड़ जाते. पर  नियति को उन्हें  अनुभव के विविध संसार से गुजारना था. सुप्रतिष्ठित नामो के आवरण के अंदर के यथार्थ चेहरो से सुपरिचित करवाकर उनके व्यंग्यकार को मुखर करना था. आज तो अंतरजातीय विवाह बहुत आम हो चुके हैं किन्तु पिछली सदी के अतिम दशक में जब सिद्धार्थ जी युवा थे यह बहुत आसान नही होता था. सुशील जी को विविध अनुभवो से सराबोर लेखक संपादक समीक्षक बनाने में उनके  अंतरजातीय प्रेम विवाह का बहुत बड़ा हाथ रहा. इसके चलते उन्होने विवाह के एक ऐसे प्रस्ताव को मना कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें विश्वविद्यालयीन शिक्षण कार्य की नौकरी नही मिल सकी, और वे फ्रीलांसर लेखक बन गये. स्थायित्व के अभाव में वे लखनऊ, मुम्बई, वर्धा, दिल्ली में कई संस्थाओ और कई व्यक्तियो के लिये अखबार, पत्रिकाओ, शिक्षण संस्थाओ, प्रकाशन संस्थानो के लिये लेखन कर्म से जुड़े तरह तरह के कार्य करते रहे. उन्होने व्यंग्यकारो के बचपन के संस्मरण किताब के रूप में सहेजे.

आज पत्रिकाओ की आम पाठक तक पहुंच कम हो गई है, अखबार ही पाठक की साहित्यिक भूख शांत करने की जबाबदारी उठा रहे हैं, दूसरा पक्ष यह भी है कि पत्रिका में व्यंग्य छपने में समय लगता है, तब तक समसामयिक रचना पुरानी हो जाती है, इसके विपरीत अखबार फटाफट रचना प्रकाशित कर देते हैं. प्रकाशन की सुविधायें बढ़ी हैं, परिणामतः शाश्वत रचनाओ के अभाव में भी व्यंग्य लेखो की पुस्तकें लगातार बड़ी संख्या में छप रही हैं. सोशल मीडीया पर व्यंग्यकार फेसबुक, व्हाट्सअप ग्रुप बनाकर जुड़े हुये हैं, जुगलबंदी के जरिये  व्यंग्य लेखन को प्रोत्साहन मिल रहा है.  अपनी तमाम साहित्यिक, समाज की व्यापारिक सीमाओ के बाद भी व्यंग्य विधा और जागरूक व्यंग्यकार अपने साहित्यिक सामाजिक दायित्व निभाने में जुटे हुये हैं.   वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में यह व्यंग्य का सकारात्मक पहलू है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९

 

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ ज़िम्मेदारी ☆ – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की जीवन में मानवीय अपेक्षाओं / स्वार्थ और बच्चों के प्रति कर्तव्य के निर्वहन पर आधारित एक संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा।)

 

☆ ज़िम्मेदारी ☆

 

उमा अपने पति के देहान्त के बाद अपने घर में अकेले रह रही थी, दोनों बच्चों की शादी हो चुकी थी। बेटी के घर में रहना नहीं चाहती थी, बेटा-बहु ले जाने को तैयार नहीं थे बेचारी किसी ने किसी तरह अपना वक्त गुजार रही थी। पति की मौत ने उसे तोड़ डाला था बेटे के दो बच्चे हो चुके थे।

बेटा-बहु दोनों ही नवोदय स्कूल में सेवारत थे। अब बच्चों की परवरिश की दिक्कत आने लगी थी। काम वाली के सहारे बच्चों को छोड़ना सुरक्षा के लिहाज से तो सही था ही नहीं, खर्चा भी मोटा होता।

बहु ने बेटे से कहा,,” क्यों ऩ हम माँ जी को अपने पास ले आये ,उनका मन भी लग जाएगा व अपनी समस्या भी हल हो जायेगी”। बेटा तो कुछ दिन से यह चाह ही  रहा था। क्योंकि समाज की थोड़ी परवाह थी उसे। उस माँ के संस्कार भी बाकी थे उसमें; लेकिन पत्नी के  डर की वजह से चुप था।

दोनों माँ को लेने गाँव पहुँच गये। उनको इतने दिनों बाद देख कर वह कुछ अचंभित हई; लेकिन माँ तो माँ ही होती है। अपने आँसू छुपाते हुए कहने लगी , “बेटा सब ठीक तो है ना, कैसे हो तुम सब लोग? बच्चे क्यों नहीं आये”? बिना उत्तर सुने सवाल पर सवाल करती रही। उनको मुँह-हाथ धोने की बोल उनके लिए चाय बनाने चली गई। बेटा पीछे-पीछे रसोई में गया और बताया सब ठीक हैं बच्चे स्कूल का काम ज्यादा था इसलिए घर पर ही रह गये। बातों ही बातों में जाहिर कर दिया कि वे उसे अपने साथ ले जाने के लिए आये हैं। फटाफट जाने की तैयारी कर ले।

चाय देकर वह अपने कमरे में आ गई वह सोचने लगी व साथ जाने के लिए मना कर दे; लेकिन बच्चों का दिल तोड़ने की हिम्मत उसमें नहीं थी। वह चुपचाप कपड़े व जरूरत की चीजें पैक करने लगी। मन ही मन बुडबुडा रही थी कि यहाँ तो सब की यादें बसी हैं। उसके जानने वाले बहुत हैं कुछ दिन की बात तो अलग थी मगर हमेशा के लिए वहाँ जाना ……..।

बच्चे चाहें कितने ही बड़े क्यों न हो जाये माँ-बाप के फर्ज कभी पूरे नहीं होते। यह जिम्मेदारी भी उसे निभानी ही पड़ेगी।

यही विचार कर घर पर ताला लगा बच्चों के साथ घर से निकल गई। जब तक घर आँखों से ओझल न हो गया वह गाड़ी से बाहर झाँक कर देखती रही।

 

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #13 – Topper… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  तेरहवीं कड़ी Topper… ।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। जीवन के सूर्यास्त के पूर्व जब हम आकलन करते हैं कि वास्तव में Topper कौन रहा?  आप भी कल्पना कर के देखिये और आलेख के अंत में कमेंट बॉक्स में अवश्य लिख भेजिये। आरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। ) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #13?

 

☆ Topper… ☆

 

दुसरी तिसरीपर्यंत ती वर्गात topper होती… त्यानंतर ती त्यांच्या गावी निघून गेली… मग आमचा संपर्क तुटला… आज जवळ जवळ तीस वर्षांनी भेट झाली, ह्या फेसबुकमुले… भेटल्यावर एवढ्या गप्पा होतील असं वाटलं नव्हतं… ३० वर्षांचा काळ खूप मोठा आहे… कसं, काय कधी अशी चौकशी करत गाडी स्वप्नांवर येऊन थांबली… ह्या स्टेशनवर आम्ही जरा जास्तच मोठा hault घेतला…

साहजिकच होतं ते म्हणा… सुरुवातीला उघडपणे बोलणं थोडं कठीण गेलं… पण मग आतली सगळी जळमटे काढून टाकता आली…

काही नाही गं, एकदा संसारात पडलं की सगळं मागे पडतं, नवरा, मुलं, घर, नातेवाईक, सासू सासरे ह्यांना खुश ठेवण्यात दिवस जातात, आपलं असं काही करता येत नाही… कारण इथेही topper राहायचं असतं… तो मान मिळवायचा असतो… त्यात अयोग्य काहीच नाही… आपणच निवडलेली नाती आहेत ना, मग त्यात काय एवढं…

अशी सुरुवात झाली, आणि आज कालची मुलं किती हुशार आहेत, त्यांना किती साऱ्या गोष्टी माहीत असतात ह्या विषयावर भरभरून बोललो… बोलताना दोघींच्या लक्षात आलं की, कुठे तरी चुकतंय… काही तरी राहून जातंय ह्याची जाणीव तीव्र झाली… आणि मग, जे व्हायला नको होतं तेच नेमकं झालं…

थोडं दुःख वाटू लागलं, आपण करिअर केलं नाही ह्याचं…

मी तिला एक किस्सा सांगितला…

काही वर्षांपूर्वी बंगलोरला असताना मराठी अभिनेत्रीशी गप्पा मारायचा योग आला, तेव्हा त्या जे बोलल्या त्याचा मी माझ्या आयुष्याशी संबंध लावू शकते…

त्या म्हणाल्या… लग्नाआधी सिने सुष्टी असेल, नाटक असेल सगळीकडे खूप काम केलं, पण लग्न झाल्यावर माझ्या जीवनातील priorities बदलल्या, आणि त्या स्वीकारून मी पुढे चालत राहिले, जवळ जवळ 15 वर्ष मी ह्या इंडस्ट्री पासून दूर होते, नवऱ्याची बदली जिथे होईल तिथे त्याच्याबरोबर गेले, घर संसार मुलगा ह्यातच रमले, अभिनयाला विसरले नाही, पण आता त्याच्याकडे बघायची वेळ नव्हती… हे मनाशी पक्क होतं… एवढंच सांगते, माझ्या नवऱ्याला आणि मुलाला जेव्हा माझी साथ हवी होती तेव्हा ती मी दिली… आज मी हक्काने मला जे करायचं आहे ते करते, कारण मी माझी जबाबदारी योग्य वेळी पूर्ण केली आहे, आता मला माझी space हवी आहे… आणि ती मी घरातल्या सगळ्यांकडे मागू शकते… पण त्यासाठी मला 15 वर्ष द्यावी लागली .. आधी द्यावं लागतं निःसंकोचपणे आणि मग जे हवंय ते मिळवणं सोपं जातं… प्रत्येक वेळी माझी space माझी space करून चालत नाही, नाही तर नात्यातील space वाढेल हे लक्षात ठेवायला हवं… धीर सोडून चालत नाही ! अहो, साधं उदाहरण घ्या, एक महिना नोकरी केल्यावरच तुम्हाला पगार मिळतो… अगदी एवढं व्यवहारी राहून पण चालत नाही… तेव्हा येतंय ना लक्षात काय करायचं आहे ते ?

काय, तुम्हालापण पटतंय ना !

आम्ही दोघी ह्या विचारला मनात घोळवत पुढच्या कामाला लागलो…

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Buddha: Quotes ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Buddha: Quotes ☆

Video Link : Buddha: Quotes

 

THE MIND, WHEN DEVELOPED AND CULTIVATED, BRINGS HAPPINESS.

“If with an impure mind you speak or act, then suffering flows you as the cartwheel follows the foot of the draft animal.”

“Burning now, burning hereafter, the wrongdoer suffers doubly… Happy now, happy hereafter, the virtuous person doubly rejoices.”

“You have to do your own work, those who have reached the goal will only show the way.”

“Abstain from all unwholesome deeds, perform wholesome ones, purify your mind. This is the teaching of enlightened persons.”

“If one man conquer in battle a thousand times thousand man, and if another conquer himself, he is the greatest of conquerors.”

“As rain breaks through an ill-thatched house, passion will break through an unreflecting mind.”

“To support mother and father, to cherish wife and children and to be engaged in peaceful occupation – this is the greatest blessing.”

“One by one, little by little, moment by moment, a wise man should remove his own impurities, as a smith removes his dross from silver.”

“Monks, I know not of any other single thing that brings such bliss as the mind that is tamed, controlled, guarded and restrained. Such a mind indeed brings great bliss.”

“The mind, when developed and cultivated, brings happiness.”

– Buddha

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (25) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

 

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।

ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ।।25।।

 

कर्म योगी कई देवताओं के नाम यज्ञ कई करते हैं

ब्रम्ह अग्नि में कई यज्ञ का यजन निरंतर करते हैं।।25।।

 

भावार्थ :  दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में अभेद दर्शनरूप यज्ञ द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं। (परब्रह्म परमात्मा में ज्ञान द्वारा एकीभाव से स्थित होना ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ को हवन करना है।)।।25।।

 

Some Yogis perform sacrifice to the gods alone, while others (who have realised the Self) offer the Self as sacrifice by the Self in the fire of Brahman alone. ।।25।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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English Literature – Poetry – ☆ Anguish of the River… ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi ji  for sharing his literary and art works with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. We present an excellent poetry depicting pain and sorrow of every river in the country.  Every one is aware of the reasons and worried about the level of pollution. But, who will take the first step for the mankind.  This poetry is actually anguish of the river sensed by Capt. Raghuvanshi ji.  

In his own words

Visiting my place in Varanasi, situated at the confluence of Ganga and Gomati…

Wrote few lines on state of rivers in our country…     Capt. Raghuvanshi:

Today, we present the poetry of Capt. Pravin Raghuvanshi ji “Anguish of the River…” .)

 

☆ Anguish of the River… ☆

 

River is not like *Neelkanth*, the Lord Shiva!

 

She was once a playful translucent river

And me, a carefree

ambitious damsel

Used to do *Aachman*,

sipping her sacred water while offering her my resolute obeisance…

 

I always stood by her

as a solid rock

Kept attending to all

–her evergrowing frustrations,

–her excruciating vexations,

–her boisterous predicaments

I was happy to be

the rock to her…

 

But, one day you came,

While clutching me

crossed all the limits

I didn’t like your

that filthy touch,

In a moment, I got disintegrated

into millions of sand particles…

 

Just fell devastated into

forlorn lap of the river

That’s when I realised that

river is not mere flowing water…

 

She, being a dextrous historian,

Kept scripting historical manuscripts,

Creating cultures, nurturing customs as a responsible ancestor…

 

She was also a

modern trendsetter

Always altering courses

on her freewill…

She was the seeker, a questor!

 

She was a loving-mother incarnate

That’s how I could live the sufferings of the river…

 

Now, you’ve removed even

the womb, intestine, heart,

flesh and marrow from her body…

 

So many times, I could

–Hear her sobbing from

the palatial garrets

–Witness the river

repeatedly shedding her

tears in the inner

layers of the roads

 

She too wanted to get dispersed as particles

in the thin air

Exactly like me!

 

But where could she go?

Where could she get accommodated? Where!!

As she did not have the river,

just like herself only…

 

I fell on her bosom, tiredly

Kept watching her helplessly,

While you choked her face

with a dirty cloth

Had to watch her painful sufferings,

Her writhing in agony,

even for a breath!

Her misery of breathlessness

was far worse than my dispersing into particles…

 

River, that joyfully

spilled around

its banks for ages

Now, in this epoch, has only last few breaths of life

Stinking, panting,

Counting her remaining breaths…!

 

How many times

did I beg of you

If you desire, take my remaining particles too; but,

Fill her with few breaths

in her lungs

By mouth-to-mouth resuscitation,

Just return her past glory

Which you forcibly

snatched her of,

Plant *Singi* tools

to pull all the poison

out of her body…

 

Listen,

River cannot survive

By drinking the poison

Because, river is not the *Neelkanth*, the Lord Shiva…!

 

Note:

*Neelkanth* (Blue throat), is the other name of Lord Shiva who drank the poison, without having effect on Him; as He held it in His throat which turned blue because of its severity; thus, called as *Neelkanth*

*Singi* is a tool which is used for sucking poison from the body…

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य – भाग 1 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रस्तुत है प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा पर एक सार्थक आलेख  वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य।  आलेख का प्रथम भाग आज के अंक में प्रस्तुत कर रहे हैं एवं इसकी अंतिम कड़ी कल के अंक में आप पढ़ सकेंगे। )

 

☆ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य – भाग 1 ☆

ज्यादा पुरानी बात नही है, जब साहित्य जगत में व्यंग्य की स्वतंत्र विधा के रूप में स्वीकारोक्ति ही नही थी.  पर आज लगभग प्रत्येक अखबार का संपादकीय पृष्ठ कम से कम एक व्यंग्य लेख अवश्य समाहित किये दिखता है. लोग रुचि से समसामयिक घटनाओ पर व्यंग्यकार की चुटकी का आनंद लेते हैं. वैसे व्यंग्य अभिव्यक्ति की बहुत पुरानी शैली है. हमारे संस्कृत साहित्य में भी व्यंग्य के दर्शन होते हैं. हास्य, व्यंग्य एक सहज मानवीय प्रवृति है. दैनिक व्यवहार में भी हम जाने अनजाने कटाक्ष, परिहास, व्यंग्योक्तियो का उपयोग करते हैं. व्यंग्य  आत्मनिरीक्षण और आत्मपरिष्कार के साथ ही मीठे ढंग से समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त करता है, व्यक्ति और समाज की थकान दूर कर उनमें ताजगी भरता  है. मनोविज्ञान के विशेषज्ञों ने भी हास्य को मूल प्रवृत्ति के रूप में समुचित स्थान दिया है. आनंद के साथ हास्य का सीधा संबंध है.हास्य तन मन के तनाव दूर करता है, स्वभाव की कर्कशता मिटाता है.

वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य कई प्रश्न खड़े करता दिखता है जैसे क्या अखबार में लिखे जाने वाला कॉलम से व्यंग्य का स्तर गिर रहा है..?   इतने सारे लोग व्यंग्य लिख रहे हैं, फिर भी समाज सुधार की दिशा में वह इंपैक्ट क्यों पैदा नहीं हो रहा है, जो अकेले कबीर ने कर दिखाया है?

व्यंग्य लेखन के लिए क्या-क्या विशेषतायें  जरूरी हैं..?  वर्तमान में किन विषयों पर व्यंग्य लेखन जरूरी है..?  महिला व्यंग्यकारो की सहभागिता कितनी और कैसी है ?   क्या स्टैंडअप कॉमेडियन व्यंग्यकार के लिए खतरा है..?  पंच लाईनर क्या होते हैं, एक-दो लाइनों से कैसे व्यंग्य पैदा किया जाता है ? हिंदी व्यंग्य के लिए वर्तमान समय कैसा  है ? व्यंग्य की  समीक्षा या आलोचना साहित्य की क्या आवश्यकता और उपयोगिता  है ? एक ही विषय पर  अनेक रचनाकार लिखते हैं किन्तु सब की अभिव्यक्ति भिन्न होती है, ऐसा क्यो ?  क्या वर्तमान व्यंग्य लेखन में कथ्य का संकट  है ?  हास्य और व्यंग्य में सूक्ष्म अंतर  होता है, इसे लेकर, पाठक और लेखक क्या समझते हैं ? क्या व्यंग्यकार घटनाओं के मूल तक पहुंच पाता है?  क्या व्यंग्य लेखन सचमुच सामाजिक दायित्व का निर्वाह कर पा रहा है ?

प्रायः सास पर आरोप लगता है कि वह बहुओ पर ताने कसती हैं,शायद घर परिवार में बहू को घुल मिल जाने के लिये स्वयं सारे लांछन सहकर भी सासें यह करती रही हैं.  या नये छात्रो को कालेज के वातावरण में घुलने मिलने के लिये परिचय करने के लिये जो सकारात्मक बातचीत का वातावरण  सीनियर्स बनाते है वह भी किंचित व्यंग्य का व्यवहारिक पक्ष ही हैं. नकारात्मक  विकृत स्वरूप में यह रेगिंग बन गया है, जो गलत है.

साहित्य की दृष्टि से  मानवीय वृत्तियों को आधार मानकर व्याकारणाचार्यों ने ९ मूल मानवीय भावों हेतु  ९ रसों का वर्णन किया है. श्रंगार रस अर्थात रति भाव, हास्य रस अर्थात हास्य की वृत्ति , करुण रस अर्थात शोक का भाव, रौद्र रस अर्थात क्रोध, वीर रस अर्थात उत्साह, भयानक रस अर्थात भय, वीभत्स रस अर्थात घृणा या जुगुप्सा, अद्भुत रस अर्थात आश्चर्य का भाव तथा शांत रस अर्थात निर्वेद भाव में सारे साहित्य को विवेचित किया जा सकता है. वात्सल्य रस को १० वें रस के रूप में कतिपय विद्वानो ने अलग से विश्लेषित किया है, किन्तु मूलतः वह श्रंगार का ही एक सूक्ष्म उप विभाजन है. रसो की  यह मान्यता विवादास्पद भी रही है, परंतु हास्य की रसरूपता को सभी ने निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है.

हमारा प्राचीन संस्कृत साहित्य भी हास्य व्यंग्य से भरपूर है. कालिदास के रचना कौशल का यह एक उदाहरण दृष्टव्य है.

राजा भोज ने घोषणा की थी कि जो नया श्लोक रचकर लाएगा उसे एक लाख मुद्राएँ पुरस्कार में मिलेंगी परंतु पुरस्कार किसी को मिल ही नहीं पाता था क्योंकि  मेधावी दरबारी पंडित नया श्लोक सुनते ही उसे दुहरा देते और इस प्रकार उसे पुराना घोषित कर देते थे। किंवदंती के अनुसार कालिदास ने एक श्लोक सुनाकर दरबारियो की  बोलती बंद कर दी थी। श्लोक में कवि ने दावा किया कि राजा निन्नानबे करोड़ रत्न देकर पिता को ऋणमुक्त करें और इस पर पंडितों का साक्ष्य ले लें। यदि पंडितगण कहें कि यह दावा उन्हें विदित नहीं है तो फिर इस नए श्लोक की रचना के लिए एक लाख दिए ही जाएँ। इसमें दोनो ही स्थितियो में राजा को व्यय करना ही होता इस तरह “कैसा छकाया” का भाव बड़ी सुंदरता से सन्निहित है:

हास्य का प्रादुर्भाव असामान्य आकार, असामान्य वेष, असामान्य आचार,  असामान्य अलंकार, असामान्य वाणी, असामान्य चेष्टा आदि भाव भंगिमा द्वारा होता है.  इन वैचित्र्य के परिणाम स्वरूप जो असामान्य स्थितियां बनती हैं वे  चाहे अभिनेता की हो, वक्ता की हो, या अन्य किसी की उनसे हास्य का उद्रेक होता है. कवि कौशल द्वारा हमें  रचना में इस तरह के अनुप्रयोग से  आल्हाद होता है, यह विचित्रता हमारे मन को पीड़ा न पहुंचाकर,  हमें गुदगुदाती है, यह अनुभूति ही हास्य कहलाता है. हास्य के भाव का उद्रेक देश-काल-पात्र-सापेक्ष होता है. घर पर कोई खुली देह बैठा हो तो दर्शक को हँसी न आवेगी किंतु किसी उत्सव में भी वह इसी तरह पहुँच जाए तो उसका आचरण प्रत्याशित से विपरीत या विकृत माना जाने के कारण उसे हँसी का पात्र बना  देगा.

युवा महिला श्रंगार करे तो उचित ही है किंतु किसी  बुढ़िया का अति श्रंगार परिहास का कारण होगा  कुर्सी से गिरनेवाले को देखकर  हम हँसने लगेंगे परंतु छत से गिरने वाले बच्चे पर हमारी करुणापूर्ण सहानुभूति ही उमड़ेगी. अर्थात  हास्य का भाव परिस्थिति के अनुकूल होता है.

ह्यूमर (शुद्ध हास्य), विट (वाग्वैदग्ध्य), सैटायर (व्यंग्य), आइरनी (वक्रोक्ति) और फार्स (प्रसहन)। ह्यूमर और फार्स हास्य के विषय से संबंधित हैं जबकि विट, सैटायर और आइरनी का संबंध उक्ति के कौशल से है.  पैरोडी (रचना परिहास अथवा विरचनानुकरण) भी हास्य की एक विधा है जिसका संबंध रचना कौशल से है. आइरनी का अर्थ कटाक्ष या परिहास है. विट अथवा वाग्वैदाध्य को एक विशिष्ट अलंकार कहा जा सकता है. अपनी रचना द्वारा पाठक में हास्य के ये अनुभाव उत्पन्न करा देना हास्यरस की  रचना की सफलता  है.

व्यंग्य के पुराने प्रतिष्ठित सशक्त हस्ताक्षरो में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल जी का नाम लिया जाता है. बाबा नागार्जुन को व्यंग्यकार के रूप में नही पहचाना जाता पर मैं जब जब नागार्जुन को पढ़ता हूं मुझे उनमें छिपा व्यंग्यकार बहुत प्रभावित करता है.. वे हमेशा जन कवि बने रहे और व्यंग्यकार हमेशा जन के साथ ही खड़ा होता हैं.

नागार्जुन की विख्यात कविता “प्रतिबद्ध” कि पंक्तियां. हैं……
प्रतिबद्ध हूं/
संबद्ध हूं/
आबद्ध हूं…जी हां,शतधा प्रतिबद्ध हूं
तुमसे क्या झगड़ा है/हमने तो रगड़ा है/इनको भी, उनको भी, उनको भी, और उनको भी!

उनकी प्रतिबद्धता केवल आम आदमी के प्रति रही है. उनकी कई प्रसिद्ध कविताएँ जैसे कि

‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको‘,‘अब तो बंद  करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन‘ और ‘तीन दिन, तीन रात आदि में व्यंगात्मक शैली में तात्कालिक घटनाओ पर उन्होंने गहरे कटाक्ष के माध्यम से अपनी बात कही है.

‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी‘
की ये पंक्तियाँ देखिए………….
यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!,

व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं.  हिन्दी कविता में नागार्जुन जनकवि और व्यंग्यकार के रूप में खड़े मिलते हैं. नागार्जुन का काव्य व्यंग्यशब्द चित्रों का विशाल अलबम है.  कभी किसी जीर्ण-शीर्ण स्कूल भवन को देखकर बाबा ने व्यंग्य किया था,

“फटी भीत है छत चूती है…” उनका यह व्यंग्य क्या आज भी देश भर के ढ़ेरों गांवो के शाला भवनो का सच नहीं है?

आकृति का बेतुकापन मोटापा, कुरूपता, भद्दापन, अंगभंग, अतिरिक्त नजाकत, तोंद, कूबड़, नारियों का शारीरिक रंग, आदि विषयों पर हास्यरस की रचनाएँ हो चुकी हैं. उल्लेखनीय है कि एक समय का हास्यास्पद विषय शाश्वत हास्यास्पद विषय हो, ऐसा नहीं होता. सामाजिक स्थितियो के अनुरूप मान्यतायें बदल जाती हैं.  आज अंग भंग, विकलांगता आदि हास्य के विषय नहीं माने जा सकते अतएव अब इन पर हास्य रचनाएँ करना हास्य की सुरुचि का परिचायक नही माना जाएगा, संवेदनशीलता ने इन प्राकृतिक शारीरिक  व्याधियों को हास्य की अपेक्षा करुणा का विषय बना दिया है.

नारी के प्रति सम्मान के भाव के चलते उन पर किये जाने वाले व्यंग्य भी अब साहित्यिक दृष्टि से प्रश्नचिन्ह के घेरे में आ चुके हैं.

जातिगत व्यवहारो पर पहले व्यंग्य किये गये हैं किन्तु अब ऐसा करना सामाजिक दृष्टि से विवादास्पद होता है.

प्रकृति या स्वभाव का बेतुकापन  उजड्डपन, बेवकूफी, पाखंड, झेंप, चमचागिरी, अमर्यादित फैशनपरस्ती, कंजूसी, दिखावा पांडित्य का बेवजह प्रदर्शन, अनधिकार अहं, आदि बेतुके स्वभाव पर भी रचनाकारों ने अच्छे व्यंग किए हैं.

परिस्थिति का वैचित्र्य,  समय की चूक,समाज की असमंजसता में व्यक्ति की विवशता आदि विषय भी हास्य के विषय बनते हैं. वेश का बेतुकापन, हास्य पात्रों नटों और विदूषकों का प्रिय विषय  रहा है और प्रहसनों, रामलीलाओं, रासलीलाओं, “गम्मत”, तमाशों आदि में इस तरह के हास्य प्रयोग बहुधा प्रस्तुत किये जाते हैं.

नाटकीय साधु वेश, अंधानुकरण करनेवाले फैशनपरस्तों का वेश,बेतरतीब पहनावे,  “मर्दानी औरत” का वेश आदि ऐसे बेतुके वेश हैं जो रचना के विषय बनते हैं। वेश के बेतुकेपन की रचना भी आकृति के बेतुकेपन की रचना के समान प्राय: हल्केपन की ही प्रतीक होती है. कपिल शर्मा के प्रसिद्ध हास्य टी वी शो में वे दो पुरुष पात्रो को नारी वेश में निरंतर प्रस्तुत कर फूहड़ हास्य ही उत्पन्न करते हैं  ।

हकलाना वाणी का वैचित्र्य है,  इसी तरह बात बात पर तकिया कलाम लगा कर बोलना जैसे “जो है सो”, शब्द स्खलन करना अर्थात स्लिप आफ टंग, अमानवीय ध्वनियाँ निकालना जैसे मिमियाना, रेंकना, अथवा फटे बांस की सी आवाज, बैठे गले की फुसफुसाहट आदि, शेखी के प्रलाप, गप्पबाजी, पंडिताऊ भाषा, गँवारू भाषा, अनेक भाषा के शब्दों की खिचड़ी, आदि को भी हास्य का विषय बनाया जाता है.

फूहड़ हरकतें, अतिरंजना, चारित्रिक विकृति, सामाजिक उच्छ्रंखलताएँ, कुछ का कुछ समझ बैठना, कह बैठना या कर बैठना, कठपुतलीपन  या रोबोट की तरह यंत्रवत् व्यवहार जिसमें विचार या विवेक का प्रभाव शून्य हो,  इत्यादि व्यवहारो को भी हास्य का विषय बनाये जाते हैं.

हास्य के लिए, चाहे वह परिहास की दृष्टि से हो या उपहास अर्थात संशुद्धि की दृष्टि से, किसी भी तरह की असामान्यता  बहुत महत्वपूर्ण है.

कटाक्ष तथा व्यंग्य की मूल विषय वस्तु ही पात्र का व्यवहार होता है. प्रभाव की दृष्टि से  हास्य या तो  परिहास की कोटि का होता है या उपहास की कोटि का.  अनेक रचनाओं में हास परिहास, संतुष्टि और संशुद्धि दोनों भावो का मिश्रण भी होता है। परिहास और उपहास दोनों के लिए लक्ष्य पाठक को ध्यान में  रखना आवश्यक है.   धार्मिक मान्यताओ या विद्रूपताओ पर व्यंग्य समान धर्मावलंबियों को तो हँसा सकता है पर दूसरे धर्म के अनुयायियो पर व्यंग्य उनकी भावनाओ को आहत कर सकता है.

व्यंग्य की सफलता इसमें  है कि उपहास का पात्र  व्यक्ति हो या समाज वह  अपनी त्रुटियाँ समझ ले परंतु संकेत करने वाले रचनाकार का अनुगृहीत भी हो  और उसे “पर उपदेश कुशल बहुतेरे” की तरह  न देखे.  बिना व्यंग्य के हास्य को परिहास समझा जा सकता है.

वर्तमान काल में हास्य के विषयों और उनकी अभिव्यक्ति करने की शैलियों का  विस्तार हुआ है।आज पद्य के साथ ही गद्य की भी अनेक विधाओं का विकास हुआ है। नाटक तथा एकांकी, उपन्यास तथा कहानियाँ, एवं निबंध, स्वतंत्र सामयिक कटाक्ष के व्यंग्य लेख आदि  विधाओं में हास्यरस के अनुकूल साहित्य लिखा जा रहा है। वर्तमान युग के प्रारंभ के सर्वाधिक यशस्वी साहित्यकार भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के नाटकों में विशुद्ध हास्यरस कम, वाग्वैदग्ध्य कुछ अधिक और उपहास पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है।

व्यंग्य हमेशा से कमजोर के पक्ष में लिखा जाता रहा है, मैं इसी लिये कहा करता हूं कि व्यंग्यकारो का यदि कोई इष्ट देवता हो तो वे खाटू श्याम होंगे, क्योकि महाभारत के कथानक के अनुसार भीम के पुत्र घटोत्कच्छ का पुत्र बर्बरीक, भगवान कृष्ण के वरदान स्वरूप आज हर हारते हुये के साथ होते हैं, उन्हें खाटू श्याम नाम से पूजा जाता है.

व्यंग्य सदा से सत्ता के विरोधी पक्ष में शोषित के साथ खड़ा रहा है. जब देश में अंग्रेजी साम्राज्य था उनकी प्रत्यक्ष आलोचना का सीधा अतएव साहित्य का सा अर्थ कारागार होता था तब रचनाकारों ने, विशेषत: व्यंग्य और उपहास का मार्ग ही पकड़ था और स्यापा, हजो, वक्रोक्ति, व्यंगोक्ति आदि के माध्यम से सुधारवादी सामाजिक चेतना जगाने का प्रयत्न किया था. व्यंग्य में प्रतीक के माध्यम से आलोचना तथा ब्याज स्तुति की जाती थी. सिनेमा से पहले  विभिन्न नाटक मंडलियां तम्बू लगाकर शहर शहर घूम कर हास्य नाटक करती थीं, जिनके लिये प्रचुर हास्य साहित्य परिवेश, समय के अनुरूप लिखा गया. इनमें बीच बीच में गीतो की प्रस्तुति भी होती थी जिसमें जन सामान्य  के मनोरंजन के लिये हल्का हास्य होता था.

भारतेंदुकाल के बाद महावीरप्रसाद व्दिवेदी काल आया जिसमें हास्य के विषयों और उनकी अभिव्यंजना प्रणालियों का  परिष्कार एवं विस्तार हुआ.  नाटकों में केवल हास्य का उद्देश्य लेकर मुख्य कथा के साथ जो एक अंतर्कथा या उपकथा विशेषत: पारसी थिएट्रिकल कंपनियों के प्रभाव से चला करती थी वह व्दिवेदीकाल में प्राय: समाप्त हो गई और हास्य के उद्रेक के लिए विषय अनिवार्य न रह गया।

सूर्य कांत त्रिपाठी निराला जी ने सुंदर व्यंगात्मक रचनाएँ लिखी हैं और उनके कुल्ली भाठ, चतुरी चमार, सुकुल की बीबी, बिल्लेसुर बकरिहा, कुकूरमुत्ता आदि प्रसिद्ध है।

वर्तमान काल में उपेंद्रनाथ अश्क ने “पर्दा उठाओ, परदा गिराओ” आदि कई नई सूझवाले एकांकी लिखे हैं। डॉ॰ रामकुमार वर्मा का एकांकी संग्रह “रिमझिम” इस क्षेत्र में मील का पत्थर माना गया है। उन्होंने स्मित हास्य के अच्छे नमूने दिए हैं। देवराज दिनेश, उदयशंकर भट्ट, भगवतीचरण वर्मा, प्रभाकर माचवे, जयनाथ नलिन, बेढब बनारसी, कांतानाथ चोंच,” भैया जी बनारसी, गोपालप्रसाद व्यास, काका हाथरसी, आदि  रचनाकारों ने अनेक विधाओं में रचनाएँ की हैं और हास्य साहित्य को समृद्ध किया है। भगवतीचरण वर्मा का “अपने खिलौने” हास्य उपन्यासों में विशिष्ट स्थान रखता है। यशपाल का “चक्कर क्लब” व्यंग के लिए प्रसिद्ध है।
कृष्णचंद्र ने “एक गधे की आत्मकथा” आदि लिखकर व्यंग्य लेखकों में यश प्राप्त किया. गंगाधर शुक्ल का “सुबह होती है शाम होती है” की विधा नई है।

राहुल सांकृत्यायन, सेठ गोविंद दास, श्रीनारायण चतुर्वेदी, अमृतलाल नागर, डॉ॰ बरसानेलाल जी, वासुदेव गोस्वामी, बेधड़क जी, विप्र जी, भारतभूषण अग्रवाल आदि के नाम भी गिनाए जा सकते हैं जिन्होंने किसी न किसी रूप में साहित्य में हास्य व्यंग्य लेखन भी किया है।

अन्य भाषाओं की कई विशिष्ट कृतियों के अनुवाद भी हिंदी में हो चुके हैं। केलकर के “सुभाषित आणि विनोद” नामक गवेषणापूर्ण मराठी ग्रंथ के अनुवाद के अतिरिक्त मोलिये के नाटकों का, “गुलिवर्स ट्रैवेल्स” का, “डान क्विकज़ोट” का, सरशार के “फिसानए आज़ाद” का, रवींद्रनाथ टैगोर के नाट्यकौतुक का, परशुराम, अज़ीमबेग चग़ताई आदि की कहानियों का, अनुवाद हिंदी में उपलब्ध है।

आधुनिक युग में जहां हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्र नाथ त्यागी जैसे व्यंग्यकारो ने व्यंग्य आलेखो को स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित किया वहीं हास्य कवितायें मंच पर बहुत लोकप्रिय हुईं. इनमें अनेक कवियो ने तो छंद बद्ध रचनायें की जो प्रकाशित भी हुईं पर इधर ज्यादातर ने चुटकुलों को ही थोड़ी सी तुकबंदी करके मुक्त छंद में अपने हाव भाव तथा मंच पर प्रस्तुति  की नाटकीयता व अभिनय से लोकप्रियता हासिल की.

हास्य, मंचीय कविता में अधिक लोकप्रिय हुआ.गद्य के रूप में  हास्य व्यंग्य ज्यादातर अखबारो के संपादकीय पृष्ठो पर नियमित स्तंभो के रूप में प्रकाशित हो रहा है. विशुद्ध व्यंग्य की पत्रिकायें भी छप रही हैं जिनमें प्रेम जनमेजय की व्यंग्य यात्रा, अनूप श्रीवास्तव की अट्टहास, जबलपुर से  व्यंग्यम,  सुरेश कांत ने हाल ही हैलो इण्डिया शुरू की है. कार्टून पत्रिकायें तथा बाल पत्रिकायें जैसे लोटपोट, नियमित पत्रिकाओ के हास्य व्यंग्य विशेषांक, हास्य के टी वी शो, इंटरनेट पर ब्लाग्स में हास्य व्यंग्य लेखन, फेस बुक पर इन दिनो जारी अनूप शुक्ल, उडनतश्तरी की व्यंग्य की जुगलबंदी सामूहिक तथा व्यक्तिगत व्यंग्य संकलन आदि आदि तरीको से हास्य व्यंग्य साहित्य समृद्ध हो रहा है.   ज्यादातर मंचीय कवि इनी गिनी रचनाओ के लिये ही प्रसिद्ध हुये हैं. जिस कवि ने जो छंद पकड़ा उसकी ज्यादातर रचनायें उसी छंद में हैं. महिला रचनाकारों ने सस्वर पाठ व प्रस्तुति के तरीको से मंचो पर पकड़ बनाई है.

क्रमशः …..2

शेष कल के अंक में …..

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९

 

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