मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 12 – कौतुक आणि टीका ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनका आलेख कौतुक आणि टीका ।  प्रत्येक साहित्यकार को जीवन में कई क्षणों से गुजरना होता है। कुछ कौतूहल के तो कुछ आलोचनाओं के; कभी प्रशंसा तो कभी हिदायतें। सुश्री प्रभा जी ने इन सभी को बड़े सहज तरीके से अपने जीवन में ही नहीं साहित्य में भी जिया है। मुझे आलेख के अंत में उनकी कविता के अंश को पढ़ कर डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी के एक पत्र की कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं जो उन्होने आज से लगभग 37 वर्ष पूर्व मुझे लिखा था। उन्हें मैं आपसे साझा करना चाहूँगा। “एक बात और – आलोचना प्रत्यालोचना के लिए न तो ठहरो, न उसकी परवाह करो। जो करना है करो, मूल्य है, मूल्यांकन होगा। हमें परमहंस भी नहीं होना चाहिए कि हमें यश से क्या सरोकार।  हाँ उसके पीछे भागना नहीं है, बस।” 

सुश्री प्रभा जी का  पुनः आभार अपने संस्मरण साझा करने के लिए। आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 12 ☆

 

☆ कौतुक आणि टीका ☆

१९७४/७५  सालापासून मला छापील प्रसिद्धी मिळते आहे. रेडिओ सिलोन च्या श्रोतासंघांच्या रेडिओ पत्रिकेत हिंदी कविता प्रकाशित झाल्या, राजबिराज- नेपाळ हून एका वाचकाचं पत्र आलं, “आपकी रचना सबसे सुंदर है !” छान वाटलं पण फार हुरळून गेले नाही!

१९७५ मध्ये मनोरा मासिकातून पत्र आलं, “कविता स्विकारली आहे, भेटायला या ” त्यांनी काही सूचना केल्या, शुद्धलेखनाच्या चुका होता कामा नयेत वगैरे….

माझ्या बहुतेक कवितांचे वाचकांनी कौतुकच केले आहे, “लोकप्रभा” मध्ये प्रकाशित झालेल्या कवितेला सुमारे चाळीस प्रशंसा पत्रे आली!

अजूनही लोक काही वाचलं की फोन करून, व्हाटस् अप वर आवडल्याचे सांगतात, एकदा माझी एक विनोदी कथा वाचून निनावी पत्र आलं, “तुम्ही कथा लिहू नका फक्त कविताच करा” पण ह.मो.मराठे यांनी ती कथा वाचल्याचे आणि आवडल्याचे एकदा कार्यक्रमात भेटले तेव्हा सांगितलं!

आपण कसं लिहितो,याची आपल्याला साधारण कल्पना असते, मी खुप प्रयत्नपूर्वक काही लिहित नाही…सहज सुचलं म्हणून लिहिते, फार नोंद घेतली जावी असं ही काही नाही….पण रवींद्र पिंगे,लीला दीक्षित, निर्मलकुमार फडकुले,  रवींद्र शोभणे आणि मधु मंगेश कर्णिक यांनी  लेखनाचं कौतुक केलेलं खुप आनंददायी वाटलं होतं!

माझे मामा नेहमीच माझ्या कवितेची टिंगल करतात, ते “दावणी ची गाय” वगैरे ऐकवत जाऊ नकोस वगैरे, एकदा त्यांचा मला फोन आला, टीव्ही वर अमुक तमुक च्या गझल चा कार्यक्रम लागला आहे पहा तुला काही शिकता आलं तर तिच्याकडून!!!

त्यानंतर दोन वर्षांनी ती गझलकार आणि मी एका मुशाय-यात एकत्र होतो…तिच्या पेक्षा माझ्या गझल निश्चितच चांगल्या गेल्या…ही आत्मस्तुती नाही…तुलना मी मुळीच करत नाही पण…तिच्या कडून मी काही शिकावं असं काही नव्हतं, टीका करणारे करतात,आपला आवाका आपल्याला माहित असतोच टीकेचा किंवा कौतुकाचा माझ्यावर फारसा परिणाम झालेला नाही!

 

मी माणूस आहे

संत नव्हे

माझी कविता, एक वेदना

अभंग नव्हे

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (8-9) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा )

 

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌।

पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌।।8।।

 

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌।।9।।

 

स्वयं इंद्रियां कर्मरत,करता यह अनुमान

चलते,सुनते,देखते ऐसा करता भान।।8।।

 

सोते,हँसते,बोलते,करते कुछ भी काम

भिन्न मानता इंद्रियाँ भिन्न आत्मा राम।।9।।

 

भावार्थ :  तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर निःसंदेह ऐसा मानें कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ।।8-9।।

 

“I do nothing at all”-thus will the harmonised knower of Truth think-seeing, hearing, touching, smelling, eating, going, sleeping, breathing, ।।8।।

 

Speaking, letting go, seizing, opening and closing the eyes-convinced that the senses move among the sense-objects. ।।9।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 4 ☆ चले जाने तलक ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “चले जाने तलक”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 4   

 

☆ चले जाने तलक ☆

 

तेरे चेहरे पर यह मुस्कान बनी रहेगी कब तलक?

मेरे आने तलक या फिर मेरे चले जाने तलक?

 

क्या तेरे मन को यह कोई अधूरी सी ख्वाहिश है

जो तुझे ख़ुशी देगी सिर्फ तेरी गली आने तलक?

 

या फिर यह कोई ठहरी सी दिल की तमन्ना है

जो तेरे साथ चलेगी सिर्फ मेरे वापस जाने तलक?

 

सुन, तू ज़हन को हर एहसास से आज़ाद कर दे,

मुस्कान का रिश्ता हो जहाँ भी झलके तू पलक!

 

ख़ुशी और जुस्तजू अपनी रूह में तू ऐसी भर दे,

कि जब-जब तू पंख फैलाए, नज़र आये फ़लक!

 

तेरे हर लम्हे में तब सुकून होगा जो न बदलेगा

मेरे आने तलक या फिर मेरे चले जाने तलक!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

 

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆☆ छीजते मूल्य समय में विनम्र भावबोध की मनुहारवादी कविताएँ ☆☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं।

आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नया  शोधपूर्ण आलेख  “छीजते मूल्य समय में विनम्र भावबोध की मनुहारवादी कविताएँ”। मैं श्री शांतिलाल जैन जी का आभारी हूँ  जिन्होने हिन्दी साहित्य के उस पक्ष को पाठकों के सामने रखने का प्रयास किया जिसे हिन्दी साहित्य के आलोचकों ने अपने परिवार की विवाह /आमंत्रण पत्रिकाओं  में तो किया होगा किन्तु, उसका मूल्यांकन करने से कतराते रहे हैं।  आदरणीय श्री शांतिलाल जैन जी ने  इस आलेख के माध्यम से “मनुहारवादी कविताओं “को साहित्य में यथेष्ट स्थान दिलाने का सार्थक प्रयास किया है। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ छीजते मूल्य समय में विनम्र भावबोध की मनुहारवादी कविताएँ ☆☆

 

सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह ‘हल्दी है चन्दन है रिश्तों का बंधन है’ हिन्दी के वरेण्य कवि श्री ज्वालाप्रसाद ‘आँसू’ का पाँचवाँ काव्य संग्रह है. हिन्दी कविताओं में मनुहारवादी कविताओं के युग का प्रारम्भ श्री ‘आँसू’ की कविताओं से ही माना जाता हैं. समीक्षित संग्रह की कविताएँ समय समय पर विवाह पत्रिकाओं पर प्रकाशित हुई हैं और अब वे काव्य संग्रह के रूप में संकलित की गईं हैं.  श्री ‘आँसू’ जब राजा की मंडी, आगरा के छापाखानों में कम्पोजीटर थे तभी से विवाह पत्रिकाओं पर प्रकाशन के निमित्त कविताएँ रचते रहे हैं. काव्य लोक में श्री आँसू का पदार्पण अकस्मात ही हुआ. संग्रह की भूमिका में वे लिखते हैं कि एक बार एक ग्राहक, श्री रजत श्रीवास्तव, की विवाह पत्रिका की सामग्री कम्पोज़ करते हुये उनके मन में एक पंक्ति ने जन्म लिया, फिर उन्होनें दूसरी रची और ग्राहक के ऑर्डर के बगैर ही प्रूफ में डाल दी.

करबद्ध भाव विभोर कर रहे मनुहार!

रजत यामिनी की शादी में आना सपरिवार!!

उनका यह प्रयोग सफल रहा, ग्राहक ने पंक्तियाँ बेहद पसंद कीं. बस, उसके बाद से श्री आँसू ने काव्य पथ पर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. प्रारम्भिक दौर में उनकी लिखी गई ये पंक्तियाँ सार्वकालिक रचना मानी जाती है –

भेज रहे है स्नेह निमत्रण प्रियवर तुम्हे बुलाने को!

हे मानस के राजहंस तुम भूल ना जाने आने को!!

आपकी कविताओं में,भारतीय पुरुषों के जीवन की सबसे बड़ी मनोकामना, विवाह का शुभअवसर उपस्थित होने पर अतिथियों को आमंत्रित किये जाने की उद्दाम भावनाओं की झलक मिलती हैं.

नये बंधन हैं, पावन संगम है!

हम प्रतीक्षा में हैं, आपका अभिनंदन है!!

दिनोंदिन छीजते मूल्यों के समय में विनम्र भावबोध की ये कवितायें हमें आश्वस्त करती चलती है कि अभी सब खत्म नहीं हुआ है. श्री आँसू अपनी कविताओं में मेटाफर सहजता से रचते चलते हैं. एक कविता में वे कहते हैं –

फलक से चांद उतरेगा तारे मुस्कुराएंगे!

हमें खुशी तब होगी जब आप हमारी शादी में आएंगे!!

श्री आँसू खूबसूरती से कविता में चाँद को उतारते चलते हैं. माना कि विवाह अगहन मास में कृष्ण पक्ष की तेरस को तय हुआ है, मगर मेजबान कान्फिडेंट है कि उस दिन आसमान से चाँद उतरेगा. उतरेगा क्या श्रीमान, चंद्रयान-2 की वापसी में उसे साथ में लेता आयेगा.  ये तारे जो आकाश में सूमड़े जैसे विचरते रहते हैं, उन्होनें भी प्रोमिस किया है कि वे उस दिन जरूर मुस्कराएँगे. खास कर शाम सात बजे से आपके आगमन तक तो मुस्कराएंगे ही. लेकिन, मेजबान इतने भर से संतुष्ट नहीं है – वो आपके आने पर ही खुश होगा. इस तरह का  मेटाफर श्री आँसू ही रच सकते हैं. श्री आँसू की कविताओं में सबसे सशक्त स्वर की अभिव्यक्ति बच्चों से मुखरित होती है.

नन्हे नन्हे पांव हमारे कैसे आयेँ बुलाने को!

मेरे चाचा की शादी में भूल न जाना आने को!!

एक बालमन की उद्दात्त भावना में कवि ने बालक की चलकर न आ पाने की विवशता को गूँथकर रूपक रचा है. वे अपनी कविताओं में पाठकों के लिये स्पेस छोडते चलते हैं,उक्त दो पंक्तियों में अंतर्निहित है कि रिसेप्शन के दिन तक सारस्वतारिष्ट का नियमित सेवन करें,मगर भूलें नहीं. यहाँ उनके उकेरे बगैर भी डाबर की सारस्वतारिष्ट का बिम्ब उभरता है. एक विपरीत समय में जब आरएसी भी अवेलेबल नहीं हो, मोबाइल ऐप कनफर्म होने की संभावना फॉर्टी टू परसेंट बता रहा हो, तब श्री आँसू अबोध शिशु के माध्यम से कहलाते हैं-

हल्दी है चन्दन है रिश्तों का बंधन है!

हमारे मामा की शादी में आपका अभिनन्दन है!!

इतनी मनुहार के बाद तो मेहमान को जनरल डिब्बे में बैठकर भी आना ही पड़ेगा. वे कहते हैं –

क्या करिश्मा है कुदरत का कि कौन किसके करीब होता है!

शादी उसी से होती है जो जिसका नसीब होता है!!

इन कविताओं का स्वर भाग्यवादी नहीं है लेकिन ये नियति के निर्णय के सर्वोपरि होने का एहसास कराती हैं. कुछ लोगों के केस में शादी का नसीब एक से अधिक बार जागता है, श्री आँसू की कविताएँ यहाँ किसी तरह का डिसक्रिमिनेशन नहीं करती, वे दूसरी, तीसरी या चौथी शादी में भी इसी शिद्दत से आमंत्रित करती हैं। श्री आँसू का कविकर्म पाठक को सोचने पर विवश करता है कि अगले की जन्मपत्रिका में विवाह का जोग बना है और आप हैं कि दफ्तर से छुट्टी का जुगाड़ नहीं कर पा रहे.

ना ड्यूटी ना दफ्तर ना ही कोई बहाना होगा !

हमारे चाचू की शादी में जलूल जलूल आना होगा !!

सशक्त बुलावे की एक कविता में श्री आँसू लिखते हैं –

आते हैं जिस भाव से भक्तों के भगवान !

उसी भाव से आप भी दर्शन दें श्रीमान !!

और इससे अधिक कह पाने का सामर्थ्य अन्य किसी मनुहारवादी कवि के यहाँ दिखाई नहीं पड़ता. इन कविताओं में समकालीन समय में आ रहे बदलावों की झलक भी मिलती है, एक अंश देखिये –

ढोल ताशे हुए पुराने डीजे का ज़माना है !

चाचू की शादी में जलूल जलूल आना है !!

श्री आँसू अपनी कविताओं में भाषा की शुद्धता के आग्रही नहीं रहे हैं. ये कवितायें  मानस के राजहंस में जहाँ हिन्दी के शुद्ध रूप का दर्शन होता है वहीं बाद की कविताओं में अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग समय के अनुरूप किया गया है, ये पंक्तियाँ देखिये –

कोल्डड्रिंक पियेंगे पॉपकोर्न खायेंगे!

बुआ की मैरिज़ में धूम मचाएंगे!!

श्री आँसू की कविताओं के मर्म तक पहुँचने के लिए पाठक को हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी होना जरूरी नहीं है. उनकी कविता का स्वर पाठक को सीधे कनेक्ट करनेवाला स्वर है, जैसे  –

ख्वाब में आयेंगे मैसिज़ की तरह दिल में बस जायेंगे रिंगटोन की तरह !

खुशियाँ कम ना होगी बेलेंस की तरह,

हमारी मौसी की शादी में बिजी ना होना नेटवर्क की तरह!!

और इन कविताओं में मेहमान के लिए हिदायतें भी हैं –

लिफाफे में पुराने नोट ना फ़साना!

हमारी मौसी की शादी में जलूल जलूल आना!!

श्री आँसू की कविताओं के शिल्प में पर्याप्त लोच दिखाई पड़ता है. प्रसंगवश उनमें मौसी, चाचा, बुआ किसी का भी प्रयोग किया जा सकता है. इससे न तो कविता के सौंदर्य पर न ही भावबोध में कोई अन्तर आता है. संग्रह की कविताओं में प्रत्येक पंक्ति की पीछे विस्मयादिबोधक चिन्ह लगाये गये हैं. पहली पंक्ति रच लिये जाने पर कवि को एक बार और दूसरी पंक्ति रच लिये जाने पर दो बार विस्मय होता है. कवि का स्वयं पर विस्मित होना उचित ही जान पड़ता है. बहरहाल, हिन्दी साहित्य के उत्तर आधुनिक समय में विवाह पत्रिकाओं में सिरजता काव्य आलोचकों की दृष्टि में अब भी अनदेखा ही है जबकि कितना कुछ विस्मयादिबोधक रचा जा रहा है. श्री आँसू हिन्दी साहित्य की स्वातंत्र्योत्तर मनुहारशील काव्यधारा के शीर्ष व्यक्तित्व हैं, उनकी अनदेखी अफसोसजनक है. आज हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य आलोचक स्वयं ही आलोचना के केंद्र में हैं तो उसकी वजहें जेनुईन हैं. उन्होनें अपने पसंदीदावाद को प्रोत्साहित करने के फेर में मनुहारवादी उम्दा कविताओं और उनके कवियों की उपेक्षा की है. आलोचक भय, भूख, अधिकारों की कविताओं पर वक्त जाया कर रहे हैं जबकि श्री आँसू की कविताएँ भूख के खिलाफ आश्वस्ति पैदा करती हैं कि –

पूडी खा के रसगुल्ले खा के कॉफ़ी पी के जाना जी!

मामा जी की शादी में पक्का पक्का आना जी!!

हिन्दी कविता संसार को आगे भी श्री आँसू से विवाह पत्रिकाओं में नव-सृजन की प्रतीक्षा रहेगी,भले वे व्हाट्सअप पर घूमनेवाली डिजिटल पत्रिकाओं पर ही प्रकाशित क्यों न की जाएँ.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 37 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 37

 

मेरा सदैव प्रयत्न रहता है कि मैं ई-अभिव्यक्ति से जुड़े प्रत्येक सम्माननीय लेखक एवं पाठकों से संवाद बना सकूँ। मैं सीधे तो संवाद नहीं बना पाया किन्तु, सम्माननीय लेखकों की रचनाओं के माध्यम से अवश्य जुड़ा रहा।  एक कारण यह भी रहा कि हम  ई-अभिव्यक्ति को तकनीकी दृष्टि से और सशक्त बना सकें ताकि हैकिंग एवं संवेदनशील विज्ञापनों से बचा सकें। अंततः इस कार्य में आप सबकी सद्भावनाओं से हम सफल भी हुए।

ई-अभिव्यक्ति में बढ़ती हुई आगंतुकों की संख्या हमारे सम्माननीय लेखकों एवं हमें प्रोत्साहित करती हैं।  हम कटिबद्ध हैं आपको और अधिक उत्कृष्ट साहित्य उपलब्ध कराने  के लिए।

 

हम प्रयासरत हैं कि आपको तकनीकी रूप से आगामी अंकों को नए संवर्धित स्वरूप में प्रस्तुत किया जा सके।

अब मेरा प्रयास रहेगा कि आपसे ई-संवाद अथवा अपनी रचनों के माध्यम से जुड़ा रहूँ ।

अंत में मैं पुनः इस यात्रा में आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ और मजरूह सुल्तानपुरी जी की निम्न पंक्तियाँ  दोहराना चाहता हूँ :

 

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर

लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बवानकर 

12 अगस्त 2019

 

(अपने सम्माननीय पाठकों से अनुरोध है कि- प्रत्येक रचनाओं के अंत में लाइक और कमेन्ट बॉक्स का उपयोग अवश्य करें और हाँ,  ये रचनाओं के शॉर्ट लिंक्स अपने मित्रों के साथ शेयर करना मत भूलिएगा।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – क्षण-क्षण ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

⌚ संजय दृष्टि  – क्षण-क्षण ⌚

मेरे इर्द-गिर्द
बिखरे पड़े हज़ारों क्षण,
हर क्षण खिलते
हर क्षण बुढ़ाते क्षण।
मैं उठा,
हर क्षण को तह कर
करीने से समेटने लगा,
कई जोड़ी आँखों में
प्रश्न भी तैरने लगा,
क्षण समेटने का
दुस्साहस कर रहा हूँ,
मैं यह क्या कर रहा हूँ…?
अजेय भाव से मुस्कराता
मैं निःशब्द
कुछ कह न सका,
समय साक्षी है
परास्त वही हुआ
अपने समय को जो
सहेज न सका।
आपका दिन विजयी हो।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 12 – लाल जोड़ा ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “लाल जोड़ा”। यह लघुकथा हमें परिवार ही नहीं पर्यावरण को भी सहेजने का सहज संदेश देती है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  समाज  को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 12 ☆

 

☆ लाल जोड़ा ☆

 

बहुत बड़ी स्मार्ट सिटी। चारों तरफ से आवागमन के साधन। स्कूल, कॉलेज, सिनेमा घर, बाजार, अस्पताल, सभी प्रकार की सुविधा। सिटी से थोड़ी दूर बाहर करीब 50 किलोमीटर के पास एक छोटा सा तालाब वहां 60-65 मकान जो झुग्गी झोपड़ी नुमा। शहर के वातावरण से बिल्कुल अनजान। अपने में ही मस्त रहना। और चाहे दुख हो चाहे सुख, बस वही सभी को निपटना। गांव से शहर कोई आता, जरूरत का सामान ले जाता। गाय भी पाले परंतु दूध अपने उपयोग के लिए नहीं करना। शहर में बेच कर पैसे कमाना। किसी के यहां मुर्गी का दड़बा भी है। बकरियां भी पाल रखे हैं। छोटे- बड़े, बच्चे, महिला, लड़कियां, सभी आपस में ही मिलकर रहना यही उनकी जिंदगी है।

रोज शाम को काम से सभी लौटने के बाद खाना बनाने वाले खाना बनाते हैं बाकी सब एक गोल घेरा बनाकर बैठे दिन चर्चा करते। किसी की बेटी की शादी, किसी के बेटे का ब्याह, सभी आसपास ही होता था।

उन्हीं घरों में बैदेही अपने माता – पिता के साथ रहती थी। जैसा नाम वैसा ही उसका काम। सभी का काम करती। बड़े – बुजुर्गों के काम पर चले जाने के बाद खुद 14 साल की बच्ची परंतु, अपने से छोटे सभी का ध्यान रखती थी। स्कूल तो जैसे किसी ने देखा ही नहीं। कभी गए, कभी नहीं गए। क्योंकि, जाने पर घर का काम कौन करता। अक्षर ज्ञान सभी को आता था।

बैदेही पढ़ने में होशियार थी। उसके अपने साथ की सहेली उससे कहती “बैदेही तुम तो निश्चित ही शहर जाओगी।” परंतु बेहद ही कहती “अरे नहीं इस मिट्टी को छोड़कर मैं कहीं भी नहीं जाऊंगी। देखना इसी मिट्टी पर मेरा अपना घर होगा।”

दिन बीतते गया। बैदेही का ब्याह तय किया माँ बापू ने। एक लड़का पास के गांव में स्कूल में चौकीदार का काम करता था। सभी बस्ती के लोग बहुत खुश थे, बैदेही के ब्याह को लेकर। बाजे – गाजे बजने लगे, सुहाग का जोड़ा भी आ गया। बैदही के लिए सभी लाल सुर्ख जोड़े को देखकर प्रसन्न थे।

दिन में पूजन का कार्यक्रम चल रहा था बस्ती के सभी महिलाएं पुरुष पास में मंदिर गए हुए थे। छोटा सा पंडाल लगा था बैदही के घर। घर में कुछ छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे। बैदेही को हल्दी लगनी थी।  सारी तैयारियां चल रही थी। खाना भी बन रहा था।

थोड़ी देर बाद अचानक आँधी चलने लगी। पंडाल जोर-जोर से हिलने लगा। मिट्टी का मकान सरकने की आवाज से बैदेही चौंक गई। तुरंत बच्चों को बाहर कर दिया और जरूरत का सामान बाहर लाने जा रही थी। हाथ में अपना लाल जोड़ा लेकर बैदेही बाहर दौड़ रही थी परंतु ये क्या! ऊपर से खपरैल वाला छत बैदेही के ऊपर आ गिरा। सैकड़ों लाल खपरैल से बैदेही दब गई। और जैसे आँधी एक बार में ही शांत हो गई। सभी आकर जल्दी-जल्दी बैदेही को निकालना शुरू किए। बहुत देर हो जाने के कारण बैदेही के प्राण- पखेरू उड़ चुके थे। बच्चों की जान बचाते बैदेही अपने सुहाग का जोड़ा हाथ में लिए सदा-सदा के लिए उसी मिट्टी में सो गई थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य- आलेख – ✉ चिट्ठियाँ ✉ – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी  का आलेख चिट्ठियाँ हमें एक बीते युग का स्मरण कराती है जिसका महत्व वर्तमान पीढ़ी को नहीं है।  वे उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते कि एक पीढ़ी ने अपने जीवन के वे क्षण कैसे चिट्ठियों की प्रतीक्षा और लेंडलाइन पर कॉल की प्रतीक्षा में व्यतीत किए थे।  सुश्री ऋतु जी का पुनः आभार।)

 

✉ चिट्ठियाँ  ✉

 

जब मैं सोचती हूँ कि मुझे लिखने की आदत कैसे पड़ी तब जेहन में एक ही ख्याल आता है चिट्ठियां लिखने की वजह से। हाँ, यह सच है जब हम स्कूल मैं पढ़ते थे तब चिट्ठी ही तो इक जरिया थी दूर संदेश भेजने का। लैंडलाइन फोन होते थे लेकिन एसटीडी सुविधा हर जगह उपलब्ध नहीं होती थी। हर गाँव में तो लैंडलाइन फोन उपलब्ध भी नहीं होता था। मेरे कॉलेज से निकलने के भी बहुत दिन बाद मोबाइल आया है। उस वक्त पेजर चला था मैसेंजर के तौर पर।

अरे मैं तो बात कर रही थी चिट्ठियों की। दरअसल मेरा परिवार बहुत बड़ा है। मेरी दादी जी के नौ बच्चे और फिर उनके बच्चे देश विदेशों में हर जगह फैले हुए हैं। मेरी दादी जी हमारे पास गाँव में ही रहती थीं। सब जगह घूम फिर तो आती पर मन वापिस आकर गाँव में ही लगता। हम चार बहन-भाइयों में से अकेली मैं अपने माँ-बाप के साथ रह गई और बाकी सब हॉस्टल में चले गए। पापा व्यापार के चक्कर में बाहर रहते। माँ गृहकार्य में व्यस्त रहती। दादी जी को मैं मिलती सब जगह चिट्ठी लिखवाने के लिए, कभी किसी ताऊजी, चाचाजी, बुआजी, मामाजी या किसी अन्य रिश्तेदार को । मैं पारांगत हो गई थी लिखने में। सब कहते बिट्टू (निक नेम) से चिट्ठी लिखवाया करो, सारे समाचार लिखती है। मैं इतना सुनकर ही बस फूली न समाती।

अब जब मेरे खुद के भाई-बहन हॉस्टल में थे तो रूटिन और बढ़ गई। मेरा उनसे इस तरह बात कर एकाकीपन दूर हो जाता। मेरे दोनों भाई अब विदेश में सैटल हो गये हैं, उनको राखी भेजने लगी तो मेरे छोटा भाई जो अमेरिका में है उसकी बात याद आ गई “पहले भी तो इतनी चिट्ठियां लिखती थी, और तू तो वैसे भी लिखती है, कम से कम चार लाइन तो राखी के साथ लिख कर भेज दिया कर”। जो मुझे हर बार ऐसे ही भावुक कर चिट्ठी लिखने को मजबूर कर देता है, मैंने उन दोनों को अपने हाथ से लिख राखी के साथ पोस्ट किया। आँखें भर आई उनको याद कर, सोच रही थी कि क्यों भगवान ने मुझे इतना अंतर्मुखी बना दिया जो उनसे खुल कर फोन पर बात भी नहीं कर सकती। जब चिट्ठी लिखती थी उनको तो हर बात कर लिया करती। फिर मुझे कहीं न कहीं चिट्ठियों के लगभग विलुप्त होते अस्तित्व पर अफसोस सा होता है। मेरी जिंदगी में अब चिट्ठियों की जगह डायरी ने लेना शुरु कर दिया था, लेकिन वह तो सिर्फ अपना दिल हल्का करने का माध्यम भर है। कई दफा वे दिन याद कर व जब बतौर याद रखी कुछ चिट्ठियां उठा पढ़ने लगती हूँ, तब लगता है काश! वह दौर फिर लौट आये।

 

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #12 – पोत माझा ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक सामयिक एवं सार्थक कविता  “पोत माझा”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 12 ☆

? पोत माझा ?

 

फक्त दिसतो मी मवाल्यासारखा

पोत माझा हा फुलांच्यासारखा

 

गंध व्हावे अन् फिरावे वाटता

धुंद वारा हा दिवाण्यासारखा

 

सहज येथे गायिला मल्हार मी

नाचला मग मेघ वेड्यासारखा

 

सागराची गाज माझ्यावर अशी

आणि दिसला तू किनाऱ्यासारखा

 

पेटलेला कोळसाही वागतो

ऊब देते त्या मिठीच्यासारखा

 

मोरपंखी पैठणी तू नेसता

पदर वाटे हा पिसाऱ्यासारखा

 

जीवनाचा सपक वाटे सार हा

जीवनी तू या  मसाल्यासारखा

 

गोड कोठे बोलणे शिकलास हे

गायकीच्या तू घराण्यासारखा

 

तख्त ना हे ताज येथे राहिले

ना अशोका तू नवाबासारखा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (7) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा )

 

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।।7।।

 

जो योगी रखता स्वयं इंद्रियों पर अधिकार

सब कुछ करते हुये भी कोई न उस पर भार।।7।।

      

भावार्थ :  जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता।।7।।

 

He who is devoted to the path of action, whose mind is quite pure, who has conquered the self, who has subdued his senses and who has realised his Self as the Self in all beings, though acting, he is not tainted. ।।7।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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