हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – वह-2 ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)

 

☆ संजय दृष्टि  – वह – 2

 

माँ सरस्वती की अनुकम्पा से  *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज 

 

सात 

 

वह नाचती है

आग सी,

यह आग

धौंकनी सी

काटती जाती है

सारी बेड़ियाँ।

 

आठ 

 

वह गुनगुनाती है

झरने सी,

यह झरना

झर डालता है

सारा थोपा हुआ

और बहता है

पहाड़ से

मिट्टी की ओर।

 

नौ 

 

वह करती है श्रृंगार

इस श्रृंगार से

उभरता है

व्यक्तित्व,

उमड़ता है

अस्तित्व।

 

दस 

 

वह लजाती है,

इस लाज से

ढकी-छुपी रहती हैं

समाज की कुंठाएँ।

 

ग्यारह 

 

वह खीझती है,

इस खीझ में

होती है तपिश

सर्द पड़ते रिश्तों को

गरमाने की।

 

बारह 

 

वह उत्तर नहीं देती,

प्रश्न जानते हैं

उत्तर आत्मसात

रखने की उसकी क्षमता,

प्रश्न निरुत्तर हो जाते हैं।

 

तेरह 

 

वह सींचती है

तुलसी चौरा,

जानती है

शालिग्राम को

बंधक बनाने की कला।

 

चौदह 

 

वह बनाती है रसोई,

देह में समाकर

देह को अस्तित्व देकर

देह को सिंचित-पोषित कर

वह गढ़ती है अगली पीढ़ी।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 8 ♥ कुपोषण की चिंता में बटर चिकिन ♥ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “कुपोषण की चिंता में बटर चिकिन”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 8 ☆ 

 

♥ कुपोषण की चिंता में बटर चिकिन ♥

 

एयर कंडीशन्ड, सजे धजे मीटिंग हाल में अंडाकार भव्य टेबिलो के किनारे लगी आरामदेह रिवाल्विंग कुर्सियों पर तमाम जिलों से आये हुये अधिकारियो की बैठक चल रही थी। गहन चिंता का विषय था कि विगत माह जो आंकड़े कम्प्यूटर पर इकट्ठे हुये थे उनके अनुसार प्रदेश में कुपोषण बढ़ रहा था। बच्चो का औसत वजन अचानक कम हो गया था। चुनाव सिर पर हैं, और पड़ोसी प्रदेश जहां विपक्षी दल की सरकार है, के अनुपात में हमारे प्रदेश में बच्चोँ में कुपोषण का बढ़ना संवेदन शील मुद्दा था, कई दिनो तक आंकड़ो की फाइल इस टेबिल से उस टेबिल पर चक्कर काटती रही। जिम्मेदारी तय किये जाने का असफल प्रयत्न किया जाता रहा, अंततोगत्वा कुपोषण की दर में वृद्धि के आंकड़ों पर मंत्री मण्डल में विचार विमर्श की लम्बी प्रक्रिया के बाद माननीय मंत्री जी ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर अपनी सार्वजनिक चिंता जाहिर कर दी। उन्होंने बच्चों के स्वास्थ्य से किसी को खिलवाड़ न करने देने की, एवं इसमें कोई भी कसर छोड़ने वाले अधिकारी को न बख्शने की खुली चेतावनी भी दे डाली।

आनन फानन में फैक्स भेजकर बाल विकास अधिकारियो, स्वास्थ्य अधिकारियों, जिला अधिकारियों को राजधानी बुलाया गया था। और परिणाम स्वरूप सरकार के मुख्य सचिव कुपोषण के आंकड़ो की चिंता में बैठक ले रहे थे। सरकार के जन संपर्क विभाग के अधिकारी मीटिग के नोट्स ले रहे थे, टीवी चैनल के पत्रकारो को, मीडिया को ससम्मान मीटिंग के कवरेज के लिये आमंत्रित किया गया था। एक बालिका की कलात्मक मुस्कराती तस्वीर एक प्रमुख अखबार के मुख पृष्ठ पर छपी थी जिसमें उसकी हड्डियां दिख रही थीं, वह तस्वीर भी एजेंडे में थी, और उस तस्वीर में विपक्ष की साजिश ढ़ूढ़ने का प्रयत्न हो रहा था। विचार मंथन चल रहा था।

एक युवा अधिकारी ने अपने पावर पाइंट प्रेजेंटेशन के माध्यम से आंकड़े प्रस्तुत कर बताया कि उसके क्षेत्र में तो बच्चों का वजन कम होने की अपेक्षा लगातार बढ़ता ही जा रहा है, वरिष्ठ सचिव ने उसे डपट कर चुप कराते हुये कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है? उन्होंने चिंता करते हुये अपने सुदीर्घ अनुभव के आधार पर उस अधिकारी को बताया कि अचानक वजन बढ़ना या कम होना थायराइड की शिकायत के कारण होता है। उन्होंने सभी से अपने अपने क्षेत्र में बच्चो का थायराइड टेस्ट कर बच्चो के स्वास्थ्य के प्रति सतर्क रहने की सलाह दी। जिसे सभी जिम्मेदार अधिकारियों ने अपनी कीमती डायरियो में तुरंत नोट कर लिया। एक महोदय ने इस सुझाव पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुये कुछ सवाल खड़े करने चाहे तो, बड़े साहब के समर्थक एक आई ए एस अधिकारी ने तुरंत ही उन्हें लगभग घुड़कते हुये कुपोषण के आंकड़ो पर सरकार की चिंता से अवगत कराया और इफ एण्ड बट की अपेक्षा काम करके परिणाम लाने को कहा। उस नासमझ को समझ आ गया कि यस मैन बनना ही बेहतर है। बड़े साहब के निजि सहायक ने तुरंत थायराइड टेस्ट के लक्ष्य निर्धारित करने हेतु आवश्यक प्रोफार्मा बना कर सबको देने हेतु कार्यवाही प्रारंभ कर दी, स्वास्थ्य विभाग के अमले ने त्वरित रूप से मोबाइल पर ही थायराइड टेस्ट की बाजार में कीमत का पता लगाया, और प्राप्त कीमत को दोगुना कर टेस्ट किट की खरीदी हेतु बजट प्रावधान हेतु नोटशीट लिख कर सक्षम स्वीकृति के लिये तैयारी कर ली। कुपोषण प्रभावित क्षेत्रो का पता लगाने के लिये बाल विकास अधिकारियो को उनकी जीप का औसत मासिक माइलेज बढ़ाने का अवसर मिलता नजर आया, जिसका लाभ उठाने हेतु एक अधेड़ अधिकारी ने अपनी बात रखी, जिसे बिना ज्यादा महत्व दिये वरिष्ट सचिव जी ने अगला बिंदु विचारार्थ ले लिया।

इससे सभी को यह बात स्पष्ट हो गई कि बिना मीटिंग में बोले, बाद में मीटिंग का हवाला देकर बहुत कुछ सकारात्मक किया जाना ज्यादा उचित होता है। बहरहाल कुपोषण से बचने के लिये दाल दलिया, दूध आदि की आपूर्ति बढ़ाने हेतु लिये गये मंत्री जी के निर्णय से अवगत करा कर लम्बी चली मीटिंग देर शाम को समाप्त हो सकी। मीटिंग की समाप्ति पर सभी प्रतिभागियों को डिनर पर आमंत्रित किया गया। डिनर दाल दलिया के सप्लायर की ओर से सौजन्य स्वरूप आयोजित था, और डिनर में बटर चिकिन की डिश विशेष रूप से बनवाई गई थी, क्योकि मुख्य सचिव महोदय को बटर चिकिन खास पसंद है।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #10 ☆ ज़िंदगी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “ज़िंदगी ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #10☆

 

☆ ज़िंदगी ☆

 

मैंने अपनी पत्नी को कहा, “आज उमेश चाय पर आ रहा है.”

“क्या !” पत्नी चौंकते हुए बोली, “पहले नहीं कहना चाहिए था ?”

मैंने पूछा, “क्यों भाई, क्या हुआ ?”’

“देखते नहीं, घर अस्तव्यस्त पड़ा है. सामान इधर उधर फैला है. पहले कहते तो इन सब को व्यवस्थित कर देती. वह आएगा तो क्या सोचेगा? मैडम साफ सुथरे रहते है और घर साफ सुथरा नहीं रखते हैं.”

“वह यहीं देखने तो आ रहा है. शादी के बाद की जिंदगी कैसी होती है और शादी के पहले की जिंदगी कैसी होती है ?”’

“क्या !” अब चौंकने की बारी पत्नी की थी, “क्या, वह भी शादी कर रह है.”

मैं ने कहा, “ हां,” और पत्नी घर को व्यवस्थित करने में लग गई. ताकि शादीशुदा जिंदगी व्यवस्थित दिखें.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 10 – सार्थक…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  साहित्य में नित नए प्रयोग हमें सदैव प्रेरित करते हैं। गद्य में प्रयोग आसानी से किए जा सकते हैं किन्तु, कविता में बंध-छंद के साथ बंधित होकर प्रयोग दुष्कर होते हैं, ऐसे में  यदि युवा कवि कुछ नवीन प्रयोग करते हैं उनका सदैव स्वागत है। प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  एक अतिसुन्दर रचना   “सार्थक…!”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #10 ☆ 

 

☆ सार्थक…! ☆ 

 

कटेवरी  हात           उभा  विटेवरी

दीनांचा   कैवारी        पांडुरंग  . . . . !

 

नाही राग लोभ         नाही मोजमाप

सुख वारेमाप            दर्शनात. . . . . !

 

रूप तुझे देवा          मना करी शांत

जाहलो निवांत         अंतर्यामी . . . . !

 

रमलो संसारी          नाही तुझे भान

गातो गुणगान           आता तरी. . . . . !

 

कीर्तनात दंग            भक्तीचाच रंग

रचिला अभंग            आवडीने. . . . !

 

भीमा नदीकाठ          सार्‍यांचे माहेर

कृपेचा  आहेर           अभंगात. . . !

 

सुख दुःखे सारी          भाग जगण्याचा

स्पर्श चरणांचा           झाल्यावर. . . . !

 

सुजा म्हणे आता        सार्थक जन्माचे

नाम विठ्ठलाचे             ओठी  आले.

 

© सुजित कदम

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (37) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।।37।।

अर्जुन ! जैसे अग्नि ज्वाला में लकड़ी सब जल जाती है

वैसे ही ज्ञानाग्नि सभी कर्मो को भस्म बनाती है।।37।।

भावार्थ :  क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है।।37।।

 

As the blazing fire reduces fuel to ashes, O Arjuna, so does the fire of knowledge reduce all actions to ashes! ।।37।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 8 – कितना बचेंगे …… ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है एक गीत  “कितना बचेंगे….. । )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 8 ☆

 

☆ कितना बचेंगे …..    ☆  

 

काल की है अनगिनत

परछाईयाँ

कितना बचेंगे।

 

टोह लेता है, घड़ी पल-छिन दिवस का

शून्य से सम्पूर्ण तक के  झूठ – सच का

मखमली है पैर या कि

बिवाईयां है

चलेंगे विपरीत, सुनिश्चित है

थकेंगे  ।  काल की…….

 

कष्ट भी झेले, सुखद सब खेल खेले

गंध  चंदन  की, भुजंग मिले  विषैले

खाईयां है या कि फिर

ऊंचाईयां है

बेवजह तकरार पर निश्चित

डसेंगे  । काल की………….।

 

विविध चिंताएं, बने चिंतक सुदर्शन

वेश धर कर  दे रहे हैं, दिव्य प्रवचन

यश, प्रशस्तिगान संग

शहनाईयां है

छद्म अक्षर, संस्मरण कितने

रचेंगे  । काल की…………..।

 

लालसाएं लोभ अतिशय चाह में सब

जब कभी ठोकर  लगेगी, राह में तब

छोर अंतिम पर खड़ी

सच्चाइयां है

चित्र खुद के देख कर खुद ही

हंसेंगे  ।

काल की है अनगिनत परछाईयाँ

कितना बचेंगे।।

 

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – वह ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)

 

☆ संजय दृष्टि  – वह 

 

माँ सरस्वती की अनुकम्पा से  *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज 

 

एक 

 

वह ताकती है

ज़मीन अकारण,

इस कारण

उसके भीतर समाई है

पूरी की पूरी एक धरती।

 

दो 

 

वह चलती है

दबे पाँव,

उसके पैरों के नीचे

दबे हैं सैकड़ों कोलाहल।

 

तीन 

 

वह करती है प्रेम

मौन रहकर,

इस मौन में छिपी हैं

प्रलय की आशंकाएँ

सृजन की संभावनाएँ।

 

चार 

 

वह अंकुरित

करती है

सृष्टि का बीज,

धरती का हरापन

उसका मोहताज़ है।

 

पाँच 

 

वह बोलती बहुत है

उसके बोलने से

पिघलते हैं

उसके भीतर बसी

अधूरी इच्छाओं के पहाड़।

 

छह 

 

वह हँसती है

मीठी, पहाड़ी

नदिया-सी,

इस नदी के

पेट में है

खारे पानी का

एक समंदर।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ कागज की नाव ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा भी वर्तमान सामाजिक परिवेश के ताने बाने पर आधारित है। डॉ प्रदीप जी के शब्द चयन एवं शैली  मौलिक है। )

 

☆ कागज की नाव ☆

 

मनोहर लाल अपने कमरे की  खिड़की से बाहर का नजारा देख रहे थे, तपती गर्मी के बाद झमाझम बारिश हो रही थी जिससे वातावरण में ठंडक का अहसास घुल रहा था। बहुत दिनों की तपन के बाद धरती भी अपनी प्यास बुझाकर मानो तृप्ति का  अनुभव कर रही हो।

बारिश की बड़ी बड़ी बूंदों से लान में पानी भर गया था और वह पानी तेजी से बाहर निकल कर सड़क पर दौड़ रहा था । मनोहरलाल को अपना बचपन याद आ गया, जब वे ऐसी बरसात में अपने भाई बहनों के साथ कागज की नाव बनाकर पानी में तैराते थे और देखते थे कि किसकी नाव कितनी दूर तक बहकर जाती है। जिसकी नाव सबसे दूर तक जाती थी वह विजेता भाव से सब भाई बहनों की ओर देखकर खुशी से ताली बजाकर पानी में छप-छप करने लगता था।

उनकी इच्छा पुनः कागज की नाव बनाकर लान में तैराने की हुई , अपनी इच्छा की पूर्ति हेतु उन्होंने अपनी आलमारी से एक पुरानी कॉपी निकालकर उसका एक पेज फाड़कर नाव बनाई और उसे कुर्ते की जेब में रखकर अपने कमरे से बाहर आये। आज रविवार होने से  बेटा, बहु और नाती भी घर पर ही थे। ये तीनों ड्राइंग रूम में अपने अपने मोबाइल में व्यस्त थे।

वे  धीमे कदमों से ड्राइंग रूम से बाहर निकल ही रहे थे कि बहु ने आवाज देते हुए पूछा – “पापाजी इतनी बारिश में बाहर कहाँ जा रहे हैं? जरा सी भी ठंडी हवा लग जावेगी तो आपको  सर्दी हो जाती है फिर पूरी रात छींकते, खांसते रहते हैं, देख नहीं रहे हैं कितनी तेज बारिश हो रही है ऐसे में लान में क्या करेंगे, अपने कमरे में ही आराम कीजिये।”

वह चुपचाप मुड़े एवं अपने कमरे की ओर बढ़ गये उनका एक हाथ कुर्ते की जेब में था जिसकी मुठ्ठी में दबी कागज की नाव बाहर आने को छटपटा रही थी।

बेटे, बहु और नाती अपनी आभासी दुनिया में खोये पहली बरसात की फ़ोटो पोस्ट कर उस पर मिल रहे लाइक कमेंट्स पर खुश हो रहे थे।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ कहाँ गया आँखों का पानी? ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आज प्रस्तुत है आदरणीय श्री संतोष नेमा जी की  समाज से प्रश्न करती हुई  एक  भावप्रवण कविता  “कहाँ गया आँखों का पानी?”)

 

☆ कहाँ गया आँखों का पानी ?☆ 

कहाँ गया आँखों का पानी

खोज रहे ज्ञानी विज्ञानी।।

 

बात बात पर झगड़ा करते ।

आपस में ही लड़ते मरते ।।

नाहक में बदनाम जवानी।।

कहाँ गया आँखों का पानी ।।

 

मर्यादा,गैरत,खुद्दारी ।

गये दिनों की बातें सारी। ।।

गरम खून करता मनमानी ।

कहाँ गया आँखों का पानी ।।

 

बड़े बुजुर्ग पड़े हैरत में।  ।

बचा शेष क्या अब गैरत में ।।

मर्यादा की मिटी निशानी।।

कहाँ गया आँखों का पानी ।।

 

मूल्य हीन संस्कार पड़े सब।

तिरष्कार की भेंट चढ़े सब।।

भूले जब से राम-कहानी ।

कहाँ गया आँखों का पानी ।

 

सडक,बग़ीचे या चौराहे ।

सब नाजायज गए उगाहे।।

करें खूब फूहड़ नादानी। ।

कहाँ गया आँखों का पानी।।

 

तंग हुए तन के पहिनावे ।

लाज-शरम अँसुआ ढरकावे

लफ्फाजों की चुभती बानी ।

कहाँ गया आँखों का पानी ।।

 

बिनु ‘संतोष’ नहीं सुख भैया।

दुख में डूबी जीवन नैया ।।

हुई तिरोहित रीति पुरानी। ।

कहाँ गया आँखों का पानी ।।

 

कहाँ गया आँखों का पानी ।

खोज रहे ज्ञानी विज्ञानी ।।

 

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 10 – वृक्षातळी ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी  कविता वृक्षातळी।  यह  शाश्वत  सत्य है कि जो समय बीत चुका है उसकी पुनरावृत्ति असंभव है।  उस बीते हुए समय के साथ बहुत सी स्मृतियाँ और बहुत से अपने वरिष्ठ भी पीछे छूट जाते हैं और अपनी स्मृतियाँ छोड़ जाते हैं । फिर यह अनंत प्रक्रिया समय के साथ चलती रहती है। आज हमारी स्मृतियों में कोई अंकित है तो कल हम किसी की स्मृतियों में अंकित होंगे। पीढ़ी दर पीढ़ी चल रही इस प्रक्रिया को सुश्री प्रभा जी ने अत्यंत सहजता से काव्य स्वरूप दिया है। 

आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 10 ☆

 

☆ वृक्षातळी ☆

 

माणसं आपल्या अवतीभवती  असतात तेव्हा ब-याचदा दुर्लक्षिली जातात…..पण ती या जगातून निघून गेल्यावर त्यांची किंमत कळते, उणीव भासते, असं का होतं?आपण या विचाराने अस्वस्थ होतो, दुःखी होतो…  ही जगरहाटी आहे…

“जिन्दगी के सफरमे गुजर जाते है जो मकाम, वो फिर नही आते…..”

आत्ता आईची आठवण येते पण आई खुप दूर निघून गेली…..

एक अतिविशाल वृक्ष ,

अचानक भेटला प्रवासात आणि आठवले,

इथे येऊन गेलोय आपण,

पूर्वी कधीतरी …..

जाग्या झाल्या सा-याच आठवणी  !

पाय पसरून बसलेल्या

या ऐसपैस वृक्षाच्या बुंध्याशी बसून काढली होती

स्वतःचीच अनेक छायाचित्रे !

 

तेव्हा नव्हते जाणवले पण आज

आठवते  आहे आज,

आई घरी एकटीच होती

आणि आपण भटकलो होतो

रानोमाळ जंगलातले नाचरे मोर पहात !

तिला ही आवडले असते—

हसरे थेंब नाच रे मोर …..

ते विहंगम दृश्य आणि हा

अस्ताव्यस्त महाकाय वृक्ष !

आज ती नाही ……

उद्या होईल कदाचित आपलीही तिच अवस्था ,

आपल्याला पहायचे असेल,

फिरायचे असेल रानोमाळ ,

पण दुर्लक्षिले जाऊ आपणही

तिच्यासारखेच !

तेव्हा आपल्यातरी कुठे लक्षात आले होते ते  ??

उद्या “आपल्यांच्या “ही लक्षात रहाणार नाही आपण !त्या अजस्त्र वृक्षातळी ,

काल हसलो खिदळलो ……

पण आज जाणवतेय-

तेव्हाही हरवत होते काहीतरी ,आज ही हरवते आहे काही ……

त्या वृक्षातळी !!

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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