Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 28 – Growing up ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday. Ms. Neelam Saxena Chandra ji is  an Additional Divisional Railway Manager, Indian Railways, Pune Division. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Growing up.  This poem  is from her book “The Frozen Evenings”.)

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 28

☆ Growing up  ☆

 

I need to grow up.

 

My body needs to stoop,

My hair needs to grey,

My hairlines need to recede,

My veins need to come out

From the back of my hands,

My feet need to tremble

While walking,

My skin needs dryness

That refuses the moisturiser;

But more than that

I need to learn

To let go.

 

Yes,

I need to grow up!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ होली की हुड़दंग मेरे देश मे….. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज प्रस्तुत है अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की  एक समसामयिक कविता  “होली की हुड़दंग मेरे देश मे…..। )

☆ कविता – होली की हुड़दंग मेरे देश मे….. ☆ 

बड़ी जोर से मची हुई है, होली की हुड़दंग

मेरे देश में ।

वैमनस्य, अलगाव, मज़हबी, राजनीति के रंग

मेरे देश में।।

 

कोरोना के कहर से ज्यादा

राजनीति जहरीली

कुर्सी के कीड़े ने कर दी

सबकी पतलुन ढीली,

कभी इधर औ कभी उधर से

फुट रहे गुब्बारे

गुमसुम जनता मन ही मन में

हो रही काली-पीली

आवक-जावक खेल सियासी

खा कर भ्रम की भंङ्ग

मेरे देश में।।

 

विविध रंग परिधानों में

देखो प्रगति की बातें

आश्वासनी पुलावों की है

जनता को सौगातें,

भाषण औ’आश्वासन सुन कर

दूर करो गम अपने

इधर विरोधी अलग अलग,

संसद में राग सुनाते,

लोकतंत्र या शोकतंत्र के, कैसे-कैसे ढंग

मेरे देश में

भूख गरीबी वैमनस्य के भ्रष्टाचारी रंग

मेरे देश में।

 

रक्तचाप बढ़ गए,

धरोहर मौन मीनारों के

सिमट गई पावन गंगा,

अपने ही किनारों से,

झांक रहे शिवलिंग,

बिल्व फल फूल नहीं मिलते

झुलस रहा आकाश

फरेबी झूठे नारों से,

बैठ कुर्सियों पर अगुआ, लड़ रहे परस्पर जंग

मेरे देश में

भूख गरीबी, वैमनस्य के भ्रष्टाचारी रंग

मेरे देश में।

 

ये भी वही औ’ वे भी वही

किस पर विश्वास करें

होली पर कैसे, किससे

क्योंकर, परिहास करें,

कहने को जनसेवक

लेकिन मालिक बन बैठे हैं

इन सफेदपोशों पर

कैसे हम विश्वास करें,

मुंह खोलें या बंद रखें, पर पेट रहेगा तंग

मेरे देश में

भूख गरीबी वैमनस्य के भ्रष्टाचारी रंग

मेरे देश में।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ त्रिकाल /Trikaal – श्री संजय भारद्वाज ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी  द्वारा श्री संजय भारद्वाज जी की कविता “त्रिकाल ”  का अंग्रेजी भावानुवाद  “Trikaal” ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का अवसर एक संयोग है। 

भावनुवादों में ऐसे  प्रयोगों के लिए हम हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं। 

आइए…हम लोग भी इस कविता के मूल हिंदी  रचना के साथ-साथ अंग्रेजी में भी आत्मसात करें और अपनी प्रतिक्रियाओं से कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी  को परिचित कराएँ।

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – त्रिकाल  ☆

☆ श्री संजय भरद्वाज जी  की मूल रचना – त्रिकाल ☆

 

कालजयी होने की लिप्सा में

बूँद भर अमृत के लिए

वे लड़ते-मरते रहे,

उधर हलाहल पीकर

महादेव, त्रिकाल हो गए!


©  संजय भारद्वाज

रात्रि 10:55 बजे, 11 मार्च 2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

☆  English Version  of  Poem of  Shri Sanjay Bhardwaj ☆ 

☆  “Trikal – by Captain Pravin  Raghuwanshi 

In the lust of

being immortal

They kept fighting

and perishing

for a drop of nectar…

 

While, the Mahadev

became Trikal,

the timeless entity

After consuming

Halahal, the poison!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 37 ☆ व्यंग्य – हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  व्यंग्य  “हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा ”।  वैसे इस व्यंग्य के रंग को चोखा बनाने के लिए उन्होंने हर्र भी लगाया है और फिटकरी भी । यदि विश्वास न  हो तो पढ़ कर देख लीजिये। अपनी बेहतरीन  व्यंग्य  शैली के माध्यम से श्री विवेक रंजन जी सांकेतिक रूप से वह सब कह देते हैं जिसे पाठक समझ जाते हैं और सदैव सकारात्मक रूप से लेते हैं ।  श्री विवेक रंजन जी  को इस बेहतरीन व्यंग्य के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 37 ☆ 

☆ व्यंग्य – हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा ☆

हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा आये. इस कहावत का अर्थ है कि बिना मेहनत व लागत के ही  किसी काम में उसका बेहतर परिणाम मिल जाना. संसाधनो की कमी के वर्तमान समय में यह मैनेजमेंट फंडा है कि हर्र और फिटकरी की बचत के साथ चोखे रंग के लिये हर संभव प्रयास हों.

दलाली के धंधे को इसी मुहावरे से समझाया जाता है. जिसमें स्वयं की पूंजी के बिना भी  लाभार्जन किया जा सकता है.   इन दिनो  नेता, मीडियाकर्मी, डाक्टर सभी इसी मुहावरे से प्रेरित लगते हैं. लोगों की ख्वाहिशें है कि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही हैं. एक मांग पूरी नही हो पाती दूसरी पर दावा किया जाने लगता है.  इसलिये नेताओ को हर्र लगे न फिटकरी वाले मुहावरे पर अमल कर लोगो को प्रसन्न करने के नुस्खे अपनाना शुरू किया है.

इस दिशा में ही बसे बसाये शहर का नाम बदलकर लोगो की ईगो  सेटिस्फाई करने के प्रयास हो रहे हैं. नया शहर बसाना तो पुराने लोगों का पुराना फार्मूला था. अब सब कुछ वर्चुएल पसंद किया जाता है. इसलिये कही शहरो के नाम बदलकर लोगो को खुश करने के प्रयास हो रहे हैं, तो कही गुमनाम निर्जन  द्वीप को ही ऐतिहासिक अस्मिता से जोड़कर उसका नामकरण करके  वाहवाही लूटने के सद्प्रयास हो रहे हैं.

केवल ७ वचन देकर दूल्हा भरी महफिल से दहेज सहित दुल्हन ले आता है, हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा आये इस मुहावरे का यह सटीक उदाहरण है, शायद इससे ही प्रेरित होकर घोषणा पत्र को वचन पत्र में बदल दिया गया. परिणाम में जनता ने सरकार ही बदल दी . लोकतंत्र भी इंटरेस्टिंग है, केवल एक सीट कम या ज्यादा हो जाये तो, ढ़ेरो योजनायें शुरू या बंद हो सकती हैं.

अनेको योजनाओ का नाम बदल सकता है, आनंद परमानंद में बदल जाता है. जो कल तक दूसरो की जांच कर रहे थे वे ही जांच के घेरे में आ जाते हैं.

वैसे हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा वाले मुहावरे का एक और सशक्त तरीका है, आरोप लगाना. एक बारगी तो लकड़ी की हांडी चढ़ ही जाती है.  सही मौके पर झूठा सच्चा आरोप पूरी ताकत से गंगाजल हाथ में लेकर लगा दीजीये, और अपना मतलब सिद्ध कीजीये.  बाद में सच झूठ का फैसला जब होगा तब होगा, वैसे भी अदालतो में तो इन दिनो इस बात पर सुनवाई होती है कि सुनवाई कब की जाये.

वर्चुएल प्यार की तलाश में प्रेमी बिना वीसा पासपोर्ट देश विदेश भाग जाते हैं, मतलब ये कि वर्चुएलिटी में भी दम तो होता है.  इसीलिये कहीं व्हाटसअप पर लिखी कविता पर  वर्चुएल पुरस्कार बांटे जा रहे हैं, तो कहीं सोशल मीडीया पर पोस्ट डालकर देश प्रेम जताया जा रहा है.  ये सब बिना हर्र और फिटकरी के व्यय के चोखे रंग लाने की तरकीबें ही हैं. वादे पूरे करने के दावे पूरे जोर शोर से कीजीये, आसमान में सूराख करने वाली शायरी पढ़िये और महफिल लूट लीजिये. इसके विपरीत जो बेचारा अपनी उपलब्धियों के बल पर महफिल लूटने के मंसूबे पालेगा, अव्वल तो उसे उपलब्धियां अर्जित करनी पड़ेंगी, फिर जो काम करेगा उससे गलतियां भी होंगी, लोग काम में मीन मेख निकालेंगे  वह सफाई देता रह जायेगा इसलिये केवल वचन देकर या आरोप लगाकर या शहरो का योजनाओ का नाम बदलकर, माफी देकर, बिना हर्र या फिटकरी के ही चोखा रंग लाना ही बेहतर है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 9 ☆ ऑन लाइन सम्बंधो का दौर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “ऑन लाइन सम्बंधो का दौर।  इस समसामयिक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 9 ☆

☆ ऑन लाइन सम्बंधो का दौर

मनुष्य सामाजिक प्राणी है सो जैसे ही मौका मिला कालोनियों का निर्माण शुरू कर देता है । मजे की बात हर व्यक्ति ऐसी जगह बसाहट चाहता है जहाँ शांति हो । इसी शांति की खोज में न जाने कितने जंगल तबाह हो गये । जंगलों को उजाड़ कर अपना आशियाना बनाना प्राचीन काल से चला आ रहा है । पांडवों ने भी खांडव वन उजाड़ कर इंद्रप्रस्थ बनाया था । जिसका दर्द भगवान श्रीकृष्ण को आखिरी समय तक रहा ।

एकांत वास व सबसे दूर रहने की एक वज़ह और भी है । सबसे मिलने जुलने में स्वागत सत्कार करना पड़ता है । आज की तकनीकी ग्रस्त पीढ़ी के पास इतना समय कहाँ कि वो सम्बंधो को ढोते फिरे । आने- जाने में चाय – नाश्ता करवाओ ,फिर इधर – उधर की बातें सो फ़ायदा कम कायदा ही ज्यादा नजर आता है ।  अब तो यही बेहतर है कि ऑन लाइन सम्बंधो को निभाया जाये , बधाई संदेशों से लेकर सारे पकवान व उपहार सब के सिंबल मौजूद हैं बस इधर से उधर करते रहिए और त्योहारों की गहमा- गहमी से बचे रहिये ।

संस्कार और संस्कृति को बचाने की ऑन लाइन मुहिम तो जोर- शोर से चल रही है बस उसके मुखिया बनने की देर है । जिसके पास समय हो वो इस पद पर आसीन हो सकता है । मुखिया की बात से तुलसी दास जी द्वारा रचित ये दोहा याद आता है –

मुखिया मुह सो चाहिए …..खान – पान सो एक ।

पाले पोसे सकल अंग, तुलसी सहित विवेक ।।

अब सच्ची बात तो ये है कि ये पद उसी को मिल सकता है जिसका मुह  सबको एक समान जानकारी प्रदान करे ; बिना भेदभाव के । हाँ एक बात और है कि मुह देखी तो बिल्कुल न करे ; सामने कुछ और पीठ पीछे कुछ और । वो मन से ईमानदार हो , बुद्धिमान हो तभी तो सारे समाज को एक सूत्र में पिरोकर रख सकेगा ।

ऑन लाइन सम्बंधो की सबसे बड़ी खूबी  है कि –  ये पूरी दुनिया को मुट्ठी में कर सकते हैं । सबको एक साथ जानकारी फॉरवर्ड कर जागरूक बनाना इसका मुख्य लक्ष्य है । एक तरफ जहाँ लोग ये कह रहे हैं कि अब रिश्तों में वो गर्माहट नहीं बची जो पहले थी तो दूसरी ओर ऑन लाइन सम्बंध सभी रिश्तों को बखूबी निभा रहे हैं । इतनी आत्मीयता व उचित संबोधनों से बातचीत होती है कि इस मिठास के आगे तो शहद भी फीका पड़ जाता है ।  और सबसे बढ़िया बात कि इन मुलाकातों में कोई संक्रमण का डर भी नहीं होता । समय- समय पर जो बीमारियाँ हमको डराती रहतीं हैं वो भी इससे खुद डरकर भाग जाती हैं ; न दवा – दारू की झंझट, न कोई साइड इफ़ेक्ट  । सो अब तो हर त्योहार ऑन लाइन ही मनाइये आखिर परम्पराओं को हम लोग ही तो  बचायेंगे । एक दूसरे को शुभकामनाएँ, बधाई व शुभाशीष देते रहें लेते रहें ।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 17 ☆ कविता – ये अपना  नूतन वर्ष है ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  ये अपना  नूतन वर्ष है.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 17 ☆

☆ ये अपना  नूतन वर्ष है ☆ 

 

शस्य श्यामला धरती पर

हरषे नर्तन की शहनाई

तब अपना नूतन वर्ष है

मंद-सुगंध चले पुरवाई

तब अपना नूतन वर्ष है

 

ये सर्द कुहासा छँटने दो

रातों का पहरा हटने दो

धरती का रूप निखरने दो

फागों के गीत थिरकने दो

 

कुछ करो प्रतीक्षा और अभी

प्रकृति को दुल्हन बनने दो

खुशियों में गाए अमराई

तब अपना नूतन वर्ष है

मंद-सुगंध चले पुरवाई

तब अपना नूतन वर्ष है

 

प्रतिप्रदा चैत की आने दो

धरती को सुधा लुटाने दो

चहुँदिश को ही महकाने दो

तन-मन में फाग सुनाने दो

 

ये कीर्ति सदा है आर्यों की

ये आर्यावर्त की प्रीत रही

जब धरा दुल्हन-सी मुस्काई

तब अपना नूतन वर्ष है

मंद-सुगन्ध बहे पुरवाई

तब अपना नूतन वर्ष है

 

युक्ति प्रमाण से स्वयंसिद्ध

नव वर्ष हमारा है प्रसिद्ध

ब्रह्माण्ड रचे कुछ नव नूतन

तब होती जग में रिद्धि-सिद्धि

 

तितली फूलों पर मँडराएँ

भौंरे फागों को गुंजाएँ

उल्लास उमंगें मन भाईं

तब अपना नूतन वर्ष है

मंद-सुगंध बहे पुरवाई

तब अपना नूतन वर्ष है

 

डॉ राकेश चक्र ( एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 39 – बेबस ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बेशर्म । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #39 ☆

☆ लघुकथा – बेबस ☆

धनिया इस बार सोच रही थी कि जो 10 बोरी गेहूँ  हुआ है उस से अपने पुत्र रवि के लिए कॉपी, किताब और स्कूल की ड्रेस लाएगी जिस से वह स्कूल जा कर पढ़ सके. मगर उसे पता नहीं था कि उस के पति होरी ने बनिये से पहले ही कर्ज ले रखा है.

वह आया. कर्ज में ५ बोरी गेहूँ ले गया. अब ५ बोरी गेहूँ बचा था. उसे खाने के लिए रखना था. साथ ही घर भी चलाना था. इस लिए वह सोचते हुए धम्म से कुर्सी पर बैठ गई कि वह अब क्या करेगी ?

पीछे खड़ा रवि अवाक् था. बनिया उसी के सामने आया. गेहूँ भरा. ले कर चला गया. वह कुछ नहीं कर सका.

“अब क्या करूँ? क्या इस भूसे का भी कोई उपयोग हो सकता है ? ” धनिया बैठी- बैठी यही सोच रही थी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 37 – एकटी…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण  एवं संवेदनशील  कविता “एकटी…! ”।  यह अकेली चिड़िया जीवन के  कटु सत्य को  अकेली अनुभव करती है , साथ ही अपने बच्चों को स्वतंत्र आकाश में उड़ते देखकर उतनी ही प्रसन्न भी होती है। यह कविता पढ़ कर आप निश्चित ही विचार करेंगे, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है । आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #37☆ 

☆ एकटी…! ☆ 

आली बघ चिऊताई आज माझ्या परसात

दाणे टिपुनिया नेई पिल्लांसाठी घरट्यात…!

 

पिल्लासाठी घरट्यात सदा तिचे येणे जाणे

घास मायेचा भरवी चोचीतून मोती दाणे…!

 

चोचीतून मोतीदाणे पिल्ले रोज टिपायची

झाली लहानाची मोठी आस आता उडण्याची…!

 

आस आता उडण्याची आकाशात फिरण्याची

झाले गगन ठेंगणे पिल्ले उडाली आकाशी…!

 

पिल्ले उडाली आकाशी नवे जग शोधायला

एकटीच जगे चिऊ घरपण जपायला…!

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #16 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #16 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

काया कर्म सुधार ले, वाणी कर्म सुधार ।

मन के कर्म सुधार ले, यही धर्म का सार ।।

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
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Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (6) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(भगवान द्वारा अपने विश्व रूप का वर्णन )

 

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।

बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ।। 6।।

 

मरूत रूद्र आदित्य वसु अश्विनी विविध प्रकार

अचरज पूर्ण अपूर्व सब नये विभिन्न आकार ।। 6।।

 

भावार्थ :  हे भरतवंशी अर्जुन! तू मुझमें आदित्यों को अर्थात अदिति के द्वादश पुत्रों को, आठ वसुओं को, एकादश रुद्रों को, दोनों अश्विनीकुमारों को और उनचास मरुद्गणों को देख तथा और भी बहुत से पहले न देखे हुए आश्चर्यमय रूपों को देख।। 6।।

 

Behold the Adityas, the Vasus, the Rudras, the two Asvins and also the Maruts; behold many wonders never seen before, O Arjuna!।। 6।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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