हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – बीज ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  बीज

 

जलती सूखी ज़मीन,

ठूँठ से खड़े पेड़,

अंतिम संस्कार की

प्रतीक्षा करती पीली घास,

लू के गर्म शरारे,

दरकती माटी की दरारें,

इन दरारों के बीच पड़ा

वह बीज…,

मैं निराश नहीं हूँ,

यह बीज

मेरी आशा का केंद्र  है,

यह जो समाये है

विशाल संभावनाएँ

वृक्ष होने की,

छाया देने की,

बरसात देने की,

फल देने की,

फिर एक नया

बीज देने की,

मैं निराश नहीं हूँ

यह बीज

मेरी आशा का केंद्र है..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 6.11 बजे, 30.11.2019

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ प्रेम ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(  श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित  यह कहानी  ‘प्रेम’ हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती है । मनुष्य मोह माया के मोहपाश में  बंधा हुआ यह भूल जाता है कि वास्तव में उसके स्वयं के अतिरिक्त और स्वयं से अधिक कोई भी सगा नहीं है।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

 

 कथा-कहानी  – प्रेम 

 

शहर के वयोवृद्ध नेता एवं उद्योगपति उमाकान्त जी का कल देहावसान हो गया। उनकी विशाल कोठी के बरामदे में उनका पार्थिव शरीर अंतिम यात्रा हेतु तैयार रखा था। पूरा परिवार, चारों बेटे-बहुयें, तीनों बेटियां-दामाद एवं नाती पोते मोहल्ले वाले एवं पार्टी के सदस्य एक ओर खडे़ थे। पंडितजी का इशारा मिलने पर ज्यों ही उनको उठाने का प्रयास हुआ, सब का तीव्र क्रंदनयुक्त रुदन चालू हो गया।

पत्नी, बहुऐं दहाड़ें मार कर रोने लगीं, बेटे भी- बाबूजी आप क्यों चले गये अब हम कैसे रहेंगे-ऐसा कह कर फफक पडे, नाती पोते तो दादाजी को मत ले जाओ ऐसा आग्रह करने लगे, बडा पोता तो बाकायदा रास्ता रोक कर खड़ा हो गया। पार्टी सदस्य भी रुमाल में आंखें ढंक कर रोने जैसा कुछ करने लगे-आप नहीं होंगे तो पार्टी कैसी चलेगी ऐसा कुछ बोलते जा रहे थे। बेटियों ने सामूहिक मांग कर दी कि बाबूजी को खोल दो। मंझली बेटी तो अर्थी पर ही पछाड खाकर गिर पड़ी।

हमारी हिन्दू मान्यता के अनुसार उस समय उमाकान्त जी की आत्मा कंपाउंड के पास पेड पर बैठी यह सीन देख रही थी। उनका दिल भी पिघल आया और उन्होंने यमदूत से कहा- “भाई देख रहे हैं, मेरे बिना ये कैसे हो रहे हैं, मुझे केवल चौबीस घंटे और दे दो।“

यमदूत ने भी पता नहीं किस भावना में कहा- “ठीक है, जाओ एक दिन और रह लो तुम्हारी इस प्यारी दुनिया में।
यह कहते ही उमाकान्त जी ने आंखें खोल दी और कसमसाकर बोले अरे राजन, खोलो मुझे।”

इस अनपेक्षित घटना से पहले तो सब ओर अचानक सन्नाटा छा गया फिर सन्नाटे को तोडती पत्नी की आवाज आई- “इनका तो शुरू से ऐसा ही है, कोई भी काम ढंग से नहीं करते। कल से सबने इतनी मेहनत की, सब बेकार !!! लो अब करो स्वागत इन साहब जी का।”

पीछे-पीछे बड़ी बहू के बोल फूटे – “लो, अब बाबूजी को अदरक की चाय चाहिये होगी, फिर रात का खाना खायेंगे। चलो अपन तो किचन में ही भले।”

बड़े बेटे ने खीजते हुये कहा- “क्या बाबूजी, क्या है ये ? इतना रुपया पैसा समय, तैयारी सब बेकार कर दिया, इससे अच्छा तो मैं दुकान पर ही बैठा होता, आज की ग्राहकी भी गई। हट्.  .  .”

छोटा बेटा अंशुल थोडा व्यावहारिक बुद्धि का था। उसने मन ही मन सोचा अरे, मैं तो श्मशान से लौट कर जैन वकील साहब को बुलाने वाला था, बाबूजी की वसीयत खुलवाते। हाय, कहां गया मेरा नया बिजनेस !! हाय री किस्मत !!!

छोटी बेटी भी अचानक इस बीच होश  में आकर कूद पड़ी – “क्या बाबूजी आप भी, मैंने तो सोचा था कि मेरा हिस्सा मिल जायेगा तो लखनऊ में एक प्लॉट देखा था उसका सौदा फायनल कर देती, पर हाय रे भाग !!”

जो बड़ा पोता मत ले जाओ, मत ले जाओ की रट लगा रहा था – प्रगट में बोला “वाह दादाजी अच्छा हुआ आप आ गये, अब मुझे बाल नहीं कटाना पडेंगे, पर मन ही मन बोला लो ये बूढे बाबा वापस आ गये अब फिर से पढाई करो, फोन पर ज्यादा बात मत करो, सिगरेट मत पियो ये सब ज्ञान सुनना पडेगा। अरे भगवान, यार ये चमत्कार मेरे ही यहां होना था क्या ?”

रस्सियों से बंधे बंधे ही उमाकान्त जी ने अपनी लाडली पोती की ओर देखा जिसका मेकअप रोने के कारण पूरा बह निकला था, वह भी मन में भुनभुना रही थी- “अब ये दादू वही राग अलापेंगे, लडकों से बातें मत करो, स्कर्ट, फटी जींस, शॉर्ट्स  टॉप मत पहनो, खाना बनाओ, देर तक घर से बाहर मत रहो। शिट्, क्या लाइफ है।“

इस चखचख में उनके कान में पार्टी के कार्यकर्ता की दबी आवाज आई- “अबे तिवारी, ये बुढऊ तो लौट आया यार, अब ये फिर से चंदे का हिसाब, बिल वाउचर सब मांगेगा। यार हम कैसे काम करेंगे। बडी मुसीबत है ये बूढा।“

अपने प्रति सबका इतना प्रेम देखकर उमाकान्त जी का दिल जाने कैसा हो आया, उन्होंने उसी पेड पर बैठे यमदूत की ओर इशारा किया और फिर आंखें मूंद लीं –

इस बार हमेशा के लिये .  .  .  .

 

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार ( उत्तराखंड )

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 3 ☆ गीत – आज माँ हैं साथ मेरे ☆ – डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा एक लाख पचास हजार के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं उनका एक गीत   “आज माँ हैं साथ मेरे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 3 ☆

☆  आज माँ हैं साथ मेरे ☆ 

 

मैं अकेला ही चला हूँ

सज सँवरकर

काफिले की क्या जरूरत

आज माँ हैं साथ मेरे

 

पाप पुण्यों को समेटे

रख लिया है गोद में।

रो रहा कोई,मगन

कोई यहाँ आमोद में।।

 

बन्धनों से मुक्त तन-मन

किन्तु गति अवरोध है।

कौन जाने,है कहाँ

गन्तव्य किसको बोध है।।

 

मैं नवेला ही चला हूँ

सत डगर पर

काफिले की क्या जरूरत

आज माँ हैं साथ मेरे

 

सत्य,श्रम से जो सहेजा

था कलेजा थाम कर।

द्वंद्व युद्धों से लड़ा था

आरजू नीलाम कर।।

 

लुट गए घर-द्वार,आँगन

हार-गहने लुट गए।।

गीत छूटे , मीत छूटे

और सपने लुट गए।।

 

मैं अबेला ही चला हूँ

पथ बदलकर

काफिले की क्या जरूरत

आज माँ हैं साथ मेरे

 

सब हँसो मेरी चिता पर

किस तरह का जीव था।

जो स्वयं को छल रहा था

खोखली-सी नींव था।।

 

हर मनुज को जोड़कर

बलिदान जो देता रहा।

दीन की ईमान की

नौका सदा खेता रहा।।

 

मैं गहेला ही चला हूँ

जिस सफर पर

काफिले की क्या जरूरत

आज माँ हैं साथ मेरे

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #26 ☆ प्रेरणा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक अतिसुन्दर लघुकथा  “प्रेरणा”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #26 ☆

☆ प्रेरणा ☆

खुद कमा कर पढ़ाई करने वाले एक छात्र की सिफारिश करते हुए कमलेश ने कहा, “यार योगेश! तू उस छात्र की मदद कर दें. वह पढ़ने में बहुत होशियार है. डॉक्टर बन कर लोगों की सेवा करना चाहता है.”

“ठीक है मैं उस की मदद कर दूंगा.  उस से कहना कि मेरी नई नियुक्त संस्था से शिक्षाऋण का फार्म भर कर ऋण प्राप्त कर लें.” योगेश ने कहा तो कमलेश बोला, “मगर, मैं चाहता हूं कि तू उस की निस्वार्थ सेवा करें. उसे सीधे अपने नाम से पैसा दान दें.”

“नहीं यार! मैं ऐसा नहीं करना चाहता हूं ?”  योगेश ने कहा तो कमलेश बोला, “इस से तेरा नाम होगा ! लोग तूझे जिंदगी भर याद रखेंगे.”

“हाँ यार. तू बात तो ठीक कहता है. मगर,  मैं नहीं चाहता हूं कि उस छात्र की मेहनत कर के पढ़ने की जो प्रेरणा है वह खत्म हो जाए.”

“मैं उसे जानता हूं, वह बहुत मेहनती है. वह ऐसा नहीं करेगा”, कमलेश ने कुछ ओर कहना चाहा मगर, योगेश ने हाथ ऊंचा कर के उसे रोक दिया.

“भाई कमलेश ! यह उस के हित में है कि वह मेहनत कर के पढाई करें”, कह कर यौगेश ने अपनी आंख में आए आंसू को पौंछ लिए, “तुम्हें तो पता है कि दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंक कर पीता है.”

यह सच्चाई सुन कर कमलेश चुप हो गया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य – # 23 ☆ व्यंग्य – मिस्सड़ के मजे ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “मिस्सड़ के मजे”.  श्री विवेक रंजन जी का यह  सामयिक व्यंग्य  बेशक असामयिक लग रहा होगा किन्तु, मैं इसे सामयिक के दर्जे में ही रखता हूँ। ब्रेकिंग न्यूज़ तो कभी भी रिपीट होती रहती है।  तो मिस्सड के मजे तो कभी भी लिए जा सकते हैं।यह तो सिद्ध हो  ही  गया  कि  श्री विवेक जी  पुरे देश की राजनीति को किचन से जोड़ने में भी माहिर हैं। किससे किसकी और किसको उपमा  देना तो कोई  श्री विवेक जी से सीखे। इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 23 ☆ 

☆ मिस्सड़ के मजे ☆

 

मैं और मेरी पत्नी एक समारोह से दोपहर में घर लौटे थे,खाना बनाने वाली घर बंद देखकर लौट चुकी थी  मैने पत्नी से कहा डायटीशियन की दाल दलिया, उबली सब्जी, सूप, अंडे का भी केवल एग व्हाईट, खाते खाते मैं बोर हो चुका हूं , पत्नी की मिन्नत करते हुये मैंने प्यार से फरमाईश की कि बरसों हो गये हलवा नही खाया, क्यो न आज हलवा बनाया खाया जावे. हलवा ऐसा व्यंजन है जो किसी होटल में भी सहजता से नही मिलता, वह माँ, बहन या पत्नी के एकाधिकार में घर की रसोई में ही सुरक्षित है.

हमारी फरमाईश पर पत्नी ने भी पूरा पत्नित्व बताते हुये झिड़क कर  कहा बहुत चटोरे हो आप. फिर इस आश्वासन के बाद कि मैं चार किलोमीटर अतिरिक्त वाक पर जाउंगा, वह मेरे लिये कम घी का हलुआ बनाने को राजी हो ही गई. घर में लम्बे अरसे के बाद हलुआ बनना था, मौका महत्वपूर्ण था. रवे की तलाश हुई, डब्बे खोले गये, रवा था तो पर वांछित मात्रा से कम, वैसे ही जैसे महाराष्ट्र में बीजेपी के विधायक.

दलिया छानकर निपुण, गृहकार्य में दक्ष पत्नी ने किंचित मात्रा और जुटा ली, मुझे उसके अमित शाही गुण का अंदाजा हुआ. शक्कर के डब्बे में शक्कर भी तलहटी में ही थी, महीना अपने अंतिम पायदान पर था, और वैसे भी हम दोनो ही बगैर शक्कर की ही चाय पीते हैं. शक्कर तो काम वाली बाई की चाय के लिये ही खरीदी जाती है. मै हलुआ निर्माण की इस फुरसतिया रविवारी दोपहरी की प्रक्रिया में पूरी सहभागिता दे रहा था, पत्नी ने एक प्लेट में डब्बे से शक्कर उलट कर रख दी, तो अनजाने ही मुझे बचपन याद हो आया जब मैं माँ के पास किचन में बैठा बैठा शक्कर फांक जाया करता था, अनजाने ही मेरे हाथ चम्मच भर शक्कर फांकने के लिये बढ़े, पत्नी ने मेरी मंशा भांप ली और तुरंत ही शक्कर की प्लेट मेरी पहुंच से दूर अपने कब्जे में दूसरी ओर रख दी, मुझे लगा जैसे दल बदल के डर से कांग्रेस ने अपने विधायको को किसी रिसोर्ट में भेज दिया हो.

अब घी की खोज की गई तो पता चला कि बैलेंस डाईट के चक्कर में घी केवल भगवान के सामने दिया जलाने के लिये ही आता है, भोजन व ब्रेकफास्ट में हम मख्खन खाते हैं. याने सीधे तौर पर हलवा खाने की योजना पर पानी फिर गया. चटोरे मूड में हम अन्य विकल्प तलाशने लगे.

पत्नी ने प्रस्ताव रखा कि नमकीन उपमा बनाया जावे, पर मीठी नीम और धनिया पत्ती नही थी सो विचार के बाद भी उपमा बनने की बात बनी नही. जैसे महाराष्ट्र में सरकार गठन के अलग अलग विकल्प दिल्ली में की जा रही चर्चाओ में तलाशे जा रहे थे, वैसे ही हम किचिन से उठकर टी वी के सामने ड्राइग रूम में आ बैठे थे और मंत्रणा चल रही थी कि आखिर क्या खाया जावे, क्या और कैसे बनाया जावे, जो मुझे भी पसंद हो और पत्नी को भी. अस्तु काफी विचार विमर्श, चिंतन मनन, सोच विचार के बाद  पत्नी ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय कर डाला.

इसके आधार पर  नमकीन या मीठे के विरोधाभासी होने  की परवाह किये बगैर  उपलब्ध बिस्किट, खटमिट्ठा नमकीन और मीठे खुरमें के तीन डब्बो में  जो भी थोड़ा थोड़ा चूरा सहित जो भी कुछ बचा हुआ  उसे मिला वह सब  एक प्लेट में निकाल लाई, और बिना शक्कर की चाय के साथ हम भूखे पेट इस मिस्सड़ का आनंद लेने में मशगूल हो गये.

टी वी पर ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी चल रही थी महाराष्ट्र में कांग्रेस, शिवसेना और पवार कांग्रेस की मिली जुली सरकार बनने वाली है. सोते सोते तक यही स्थिति थी, सोकर उठे तो दूसरे ही शपथ ले चुके थे, शाम होते होते उनके बहुमत पर कुशंका के बादल मंडरा रहे थे, सचमुच हम रॉकेट युग मे पहुंच चुके हैं ।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (9) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

 

कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌।।9।।

 

 प्राचीन,सर्वज्ञ जग नियंता अतिसूक्ष्म जो जग का प्राणदाता

 अचिन्य सूर्य प्रभा सा भा स्वर तमस जहाँ पर फटक न पाता।।9।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियंता (अंतर्यामी रूप से सब प्राणियों के शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार शासन करने वाला) सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले अचिन्त्य-स्वरूप, सूर्य के सदृश नित्य चेतन प्रकाश रूप और अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमेश्वर का स्मरण करता है।।9।।

 

Whosoever meditates on the Omniscient, the Ancient, the ruler (of the whole world), minuter than an atom, the supporter of all, of inconceivable form, effulgent like the sun and beyond the darkness of ignorance.।।9।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ अंतर्मन की व्यथा ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।  आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक भावप्रवण  एवं सामयिक कविता अंतर्मन की व्यथा .)

 

कविता – अंतर्मन की व्यथा  ☆

 

एक नदी बह रही है भीतर कहीं

लेकिन भीगती नहीं है अंतर्मन की जमीं।

तुम हर बार एक नया कंकर फेंक कर

जगा देते हो मेरे भीतर की खामोशी

 

छेड़ते रहे हो हाहाकार की धुन और तब

इस अंतः सलिला के उफनते भंवर–प्रवाह

लील लेना चाहते हैं मेरी संपूर्णता – मेरा   – –

समन्वय,मेरा सृजन,मेरा जुड़ाव।

 

कर देना चाहते हैं बंटवारा मेरी जिंदगी का

वे बुलबुले – – जो पल-पल बनते बिगड़ते हैं

अंतर्मन में उदासी दया सहानुभूति संवेदन

आर्त शोक के आदिम बहुरूपी स्वांग लिए

 

मधु गंधा स्मृतियों की लहरें हिलोरें लेतीं

तोड़ देना चाहतीं हैं बरबस बांधे तटबंधों को

अंतर्मन के संदेश मिलते रहे हवा के परों पर

संध्या घर लौटती पंछियों की पांतों के साथ

 

पर भीतर बहती बेचैन धारा के हाहाकारों ने

पंगु कर दिया है अंतर्मन के एहसासों को

भीतर की गंगा में शेष हैं बधिर जल प्रवाह

गुने जाने वाले वेदनार्त सुरों के महोत्सव

 

और बीते पलों के अशोभन शव देह मात्र

जाग जाती है नदी पुनः साक्ष्य देने के लिए

उन निर्वासित क्षणों की घनीभूत प्रगाढ़ पीड़ा

साथ ही सूख जाती है अंतर्मन सलिला

महाप्रलय की शांति लेकर ………

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 26 – जर….. ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  जर…...    सुश्री प्रभा जी  ने सत्तर वर्ष की  वय में  जिस  परीकथा को लिखने की कल्पना की थी, उन्हें पता भी नहीं चला और उन्होंने इस कविता के माध्यम से लिख ही दिया। इसका आभास उन्हें तब होगा जब वे इस कविता को पुनः पढेंगी। वास्तव में कवि अपनी परिकल्पना में इतना खो जाता है  कि उसे पता ही नहीं चलता है कि वह एक कालजयी रचना कर रहा है। अतिसुन्दर परी कथा की  रचना एक मधुर स्मृति  की तरह संजो कर रखने लायक।  मैं यह लिखना नहीं भूलता कि  सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 26 ☆

जर….. ☆ 

 

जर मी जगलेच सत्तर वर्षे….

तर लिहिन एका म्हाता-या परीची कथा…

कुणाला आवडो न आवडो…

त्यात असेल एक गाव….

परीकथेतला….

आजोबा म्हणायचे,

“तुम्ही काहीही सांगाल, आम्हाला खरं वाटलं पाहिजे ना? ”

 

परी सांगेल तिची खरीखुरी कहाणी,

परीकथेत असतील इतरही प-या,

यक्ष, जादू च्या छड्या, चेटकिणी,

घडेल काही आक्रित,

नियती वाचवेल प्रत्येकवेळी परीला…..

परीला पडतील स्वप्न….अगदी साधीसुधी….

ती खेळेल भातुकलीचा खेळ

बाहुला बाहुलीचे लग्न ही लावेल….

 

ती हरवेल कधी जंगलात, कधी गर्दीत….

तिला सापडणार नाहीत हवे ते रस्ते…

ती रस्ता चुकेल, रडेल,

दुखेल, खुपेल तिलाही…

ती सहन करेल तोंड दाबून बुक्क्यांचा मार…

 

आयुष्यात प्रत्येक गोष्ट मनाविरुद्ध च घडणार आहे,

हे माहित असूनही,

ती लावेल पत्त्यांचे

नवे नवे डाव आणि हरत राहिल वारंवार!

 

परी सांगेल तिची खरीखुरी कहाणी, गाईल गाणी,

खेळेल  ऐलोमा पैलोमा….

 

ती करेल स्वयंपाक, थापिल भाकरी, कधी सुगरण असेल ती तर कधी करपेल तिचा भात,पोळी कच्ची राहिल,

आडाचं पाणी काढायला जाताना…तिचे पडतील ही दोन दात…

केस पांढरे होतील, सुरकुत्या पडतील चेह-यावर…..

परी म्हातारी होईल, तरीही तिला काढावसं वाटेल आडाचं पाणी….

कुणी म्हणेल ही सहजपणे….

“धप्पकन पडली त्यात”

ती पडेल आडात,पाण्यात की खडकावर माहित नाही…..

तिने हातात गच्च धरून ठेवलेला शिंपला पडेल त्याच आडात…

 

आणि आजूबाजूच्या फेर धरणा-या तरूण प-या म्हणतील….

आडात पडला शिंपला…..तिचा खेळ संपला!

 

जर मी जगलेच सत्तर वर्षे तर लिहिन एका म्हाता-या परीची कथा…..

जी आली होती जन्माला बाईच्या जातीत…..आणि मेली ही बाई म्हणूनच!

 

आणि ही कथा तुम्हाला नक्कीच खरी वाटेल

परीकथा असूनही..

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – परिचय ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  परिचय 

 

अपना परिचय

भेज दीजिए,

आयोजक ने कहा,

मैंने भेज दी

अपनी एक रचना,

कैसा परिचय भेजा है

बार-बार पढ़ता हूँ

हर बार अलग अर्थ

निकलकर आता  है,

शिकायत सुनकर

मेरा समूचा अस्तित्व

शब्दब्रह्म के आगे

दंडवत हो जाता है..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 6.11 बजे, 30.11.2019

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 24 – कुर्सी जब भी नई बनाई है ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक  विचारोत्तेजक कविता   “कुर्सी जब भी नई बनाई है। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 24 ☆

 

☆ कुर्सी जब भी नई बनाई है ☆  

 

कुर्सी जब भी नई बनाई है

पेड़ की  ही, हुई  कटाई है।

 

बांस सीधा खड़ा जो जंगल में

मौत  पहले, उसी की आई है।

 

उछलने कूदने वालों के हैं दिन

पढ़े लिखों को, समझ आई है।

 

जान सकता वो दर्द को कैसे

पांव में  तो,  मेरे  बिवाई  है।

 

रोटी दिखलाते हुए, भूखों को

फोटो  गमगीन हो, खिंचाई है।

 

बाढ़ नीचे, वो आसमानों पर

देख लो  कितनी, बेहयाई है।

 

दस्तखत, पहले दवा देने के

ट्रायलों पर, टिकी कमाई है।

 

एकमत से बढ़ा लिए वेतन

खुद प्रसूता,वे खुद ही दाई है।

 

पेड़ आंगन में जो बचा अब तक

उम्मीदें कुछ, वहीं से पाई है।

 

खाद-पानी, बने रहे तन्मय

फसल जो खेत में उगाई है।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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