श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
☆ संजय दृष्टि – डायलर-रिसीवर ☆
यात्रा पर हूँ और गाड़ी की प्रतीक्षा है। देख रहा हूँ कि कुछ दूर चहलकदमी कर रही चार- पाँच साल की एक बिटिया अपनी माँ से मोबाइल लेकर जाने किससे क्या-क्या बातें कर रही है। चपर-चपर बोल रही है। बीच-बीच में जोरों से हँसती है। ध्यान देने पर समझ में आया कि मोबाइल के दोनों छोर पर वही है। जो डायल कर रहा है, वही रिसीव भी कर रहा है। माँ के आवाज़ देने पर बोली, ‘अरे मम्मा, फोन पर बात कर रही हूँ, झूठी-मूठी की बात…’ और खिलखिला पड़ी। अलबत्ता उसके झूठमूठ में दुनिया भर की सच्चाई भरी हुई है। सच्चे मोबाइल पर सच्ची सहेली से बातें। सब कुछ इतना सुथरा, इतना पारदर्शी, इतना सच्चा कि मोबाइल सैटेलाइट की जगह मन के तारों से कनेक्ट हो रहा है।
बच्चों के चेहरे तपाक से कनेक्ट कर लेते हैं। निष्पाप, सदा हँसते, ऊर्जा से भरपूर। उनकी सच्चाई का कारण स्पष्ट है, जो डायल कर रहा है, वही रिसीव कर रहा है। भीतर-बाहर कोई भेद नहीं। भीतर-बाहर एक। द्वैत भीड़ में अद्वैत।
इस एकात्म ‘डायलर-रिसीवर’ फॉर्मूले को क्या हम नहीं अपना सकते? याद करो पिछली बार अपने आप से कब बातचीत की थी? अपने आप से बात करना याने अपने सर्वश्रेष्ठ मित्र से बात करना, ऐसी आत्मा से बात करना जिससे अपना भीतर या बाहर कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता। अपने आप से वार्तालाप याने परमात्मा से संवाद।
एकाएक बिना कोई नम्बर फिराये अपने आप से बात कर रहा हूँ। अनुभव कर रहा हूँ कि यों चपर- चपर बोलना और खिलखिलाना ज़रा भी कठिन नहीं। भीतर नई ऊर्जा प्रवाहित हो रही है।
अब तुम्हारा मेरी ओर खिंचा आना स्वाभाविक है पर सुनो, सदा लौह बने रहने के बजाय चुंबक बनने का प्रयास करो। खुद को डायल करो, खुद रिसीव करो, चुंबकत्व खुद तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाएगा।
आइए, आज खुद से बतियाएँ।
© संजय भारद्वाज , पुणे
9890122603