हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ होली ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ (स्वर – श्री आर डी वैष्णव, जोधपुर, राजस्थान )

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ  गंगाप्रसाद शर्मा  ‘गुणशेखर ‘ जी  की कविता  “होली ” और उनके मित्र श्री आर डी  वैष्णव जी के मधुर स्वर में  काव्य पाठ। ) 

 सस्वर काव्य -पाठ का  ई-अभिव्यक्ति ने प्रयोग स्वरुप एक प्रयास प्रारम्भ किया है।  प्रबुद्ध पाठकों के ह्रदय से स्नेह एवं प्रतिसाद के लिए आभार। 

आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया श्री आर डी वैष्णव जी के चित्र पर या यूट्यूब लिंक पर क्लिक कर उनका सुमधुर काव्य पाठ अवश्य आत्मसात करें।

श्री आर डी वैष्णव, जोधपुर, राजस्थान 

यूट्यूब लिंक  >>>>  https://youtu.be/XdTDyW9J88k

  ☆ होली पर्व पर विशेष  – होली   

 

बन्द करके कीचड़ी व्यापार होली में

खेल लें कुछ रंग अबकी बार होली में

हर सियासी रंग पे जो रंग चढ़ जाए

बस रंग झोली में वही हो यार होली में

राधिका की लाठियों की मार भी मीठी

खानी हमें है प्यार वाली मार होली में

चढ़ गईँ नफ़रत की बेलें हैं बहुत लंबी

हो सके तो काट देना झाड़ होली में

नाव जो मझधार र्में है डूब जाएगी

थामे नहीं गँवार कोई पतवार होली में

फूल सहमे पत्तियों में छिप के बैठे हैं

हो न जाएँ डालियाँ खूँख्वार होली में

वास्तु के हैं या असल के साँप ही तो हैं

साफ़ करना ध्यान से घर बार होली में

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत,  गुजरात

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 30 ☆ मुसाफिर ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “ मुसाफिर ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 30☆

☆ मुसाफिर

ज़्यादा, ज़्यादा और ज़्यादा

बारिश के इस मौसम में

मैं तुम्हें खोना भी नहीं चाहती,

पर तुमने तो जाने की

ठान ही ली है, है ना?

 

चले जाओ!

न ही तुम्हें मैं आवाज़ दूँगी,

न तुमसे रुकने की

कोई नम्र गुजारिश करूंगी

और न ही कोई हठ करूंगी…

आखिर जाने वाले को

रोका भी नहीं जा सकता ना?

 

सुनो ए आफताब!

जा रहे हो तुम

अपनी रज़ामंदी से,

ज़रूरी नहीं

कि जब तुम वापस आओ

मैं तुम्हारी बाहों में सिमट जाऊं,

आखिर मेरी भी तो कोई मर्ज़ी है, है ना?

 

जब तुम वापस आओगे

देखती रहूँगी तुम्हें आसमान पर,

तुम बस आते और जाते रहना

जैसे किसी राह पर मिले

हम कोई मुसाफ़िर थे,

और भूल गए एक दूसरे को

कुछ पल साथ चलकर!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – होली पर व्यंग्य ☆ इंकलाबी होली ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया।

कृतियां/रचनाएं – चार कृतियां- ’नाश्ता मंत्री का, गरीब के घर’, ‘काग के भाग बड़े‘,  ‘बेहतरीन व्यंग्य’ तथा ’यादों के दरीचे’। साथ ही भारत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पांच सौ रचनाएं प्रकाशित एवं प्रसारित। कुछेक रचनाओं का पंजाबी एवं कन्नड़ भाषा अनुवाद और प्रकाशन। व्यंग्य कथा- ‘कहां गया स्कूल?’ एवं हास्य कथा-‘भैंस साहब की‘ का बीसवीं सदी की चर्चित हास्य-व्यंग्य रचनाओं में चयन,  ‘आह! दराज, वाह! दराज’ का राजस्थान के उच्च माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में शुमार। राजस्थान के लघु कथाकार में लघु व्यंग्य कथाओं का संकलन।

पुरस्कार/ सम्मान – कादम्बिनी व्यंग्य-कथा प्रतियोगिता, जवाहर कला केन्द्र, पर्यावरण विभाग राजस्थान सरकार, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर, अखिल भारतीय साहित्य परिषद तथा राजस्थान लोक कला मण्डल द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित। राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार घोषित।)

 ☆ होली पर व्यंग्य ☆ इंकलाबी होली ☆

मेरी कॉलोनी की महिलाओं ने पिछले माह एक अनूठे क्लब का गठन किया था और उसका नाम धरा ‘रीति तोड़क क्लब’। श्रीमती रीति वर्मा उस क्लब की संचालिका हुईं। क्लब की पहली बैठक में एक प्रस्ताव प्रस्तुत हुआ कि नारियों को भी साप्ताहिक अवकाश मिलना चाहिए। रीति वर्मा ने ही उस रीति को तोड़ने के लिए वह प्रस्ताव रखा था। उस प्रस्ताव को अभूतपूर्व समर्थन मिला। अभूतपूर्व इसलिए कि उससे पूर्व कोई प्रस्ताव ही पेश नहीं हुआ था। खैर, वह प्रस्ताव उसी भांति आसानी से पारित हो गया जिस तरह सांसदों-विधायकों के वेतन-भत्तों के विधेयक आनन फानन पास हो जाते हैं। सदस्याओं के पतियों को उस प्रस्ताव की प्रति देकर आगाह कर दिया गया कि वे आने वाले रविवार को घर संभालने के लिए, कमर कस कर तत्पर हो जाएं। बेचारे हुए भी। अपन भी उन बेचारों में से एक थे। चालू माह में चार रविवार पड़े और अगले माह पांच पड़ेंगे, कलैंडर को पलट पति नामक जीव कंपायमान हो गया।

एक कलैंडर रीति वर्मा ने भी पलटा लेकिन उनका मकसद कुछ और था। वे क्लब की अगली बैठक की तिथि तय करने के साथ ही कोई नया रीति तोड़क प्रस्ताव भी लाना चाहती थी। अगले माह होली है। श्रीमती वर्मा की आंखें चमक उठीं। वे बुदबुदायीं, ‘‘अरे वाह! कुल छः छुट्टियां हो जाएगीं। पांच तो संडे ही होंगे और एक दिन होली का। होली के दिन पति संभालेंगे घर और हमारा क्लब खेलेगा होली…हुर्रे…।’’

संचालिका महोदय ने दूसरी दोपहर को ही क्लब की दूसरी बैठक बुला ली और वह प्रस्ताव रख दिया। उसे सुनते ही मीटिंग हॉल में भूचाल आ गया। वह, ठहाकों का भूकंप था। घर ही हिल उठा था। कुछ सदस्याएं तो उठ कर नाचने लगीं। एक ने रीति वर्मा को बांहों में भर लिया, ‘‘कसम से क्या मार्वलस ऑयडिया लायी है, डीयर!’’

वह प्रस्ताव भी सर्वसम्मति से पारित हुआ और उसका नोटिफिकेशन भी तत्काल तैयार किया गया क्योंकि होली अगले हफ्ते ही थी। शाम को घर में प्रवेश करते ही मैडम ने वह टाइपशुदा नोटिस मेरे हाथ में थमा दिया। उसे पढकर मैं हैरत से बोला, ‘‘अन प्रेक्टिकेबल प्रपोजल है, यह। इस शहर को जानती हो, यहां स्त्रियां नार्मल डेज में ही सेफ नहीं होतीं, वे होली के हुडदंगी माहौल में कैसे सुरक्षित रह सकेंगी?’’

‘‘अरे, मैं कोई अकेली ही थोड़े खेलूंगी, हमारा पूरा ग्रुप होगा।’’ पत्नी वीरोचित भाव से बोली।

‘‘देखो, हमारे घर से आज तक कोई घर से बाहर गया नहीं। मैं खुद नहीं निकलता।’’ मैंने समझाने का एक प्रयास और किया।

‘‘आप तो रहने ही दो। गुलाल का एक टीका लगाने से ही लाल-पीले हो जाते हो। कलर न खुद लगवाते और न हमें लगवाने देते। सच, मेरा तो बहुत मन करता है, किसी पर जी भर कर रंग डालने का। पीहर में खूब खेलती थी। शादी के बाद अब, अवसर आया है तो यह चौहान क्यों चूके।’’ अपनी ओर संकेत करते हुए, श्रीमतीजी खिलखिला गयीं और हमारा मन होलिका सा दहक गया।

होली दहन के दूसरे दिन ‘रीति तोड़क क्लब’ की सदस्याएं भोर होते ही क्लब के प्रांगण में पहुंच गयीं। अजब सा उछाह था, सबके मन में। रात को ही सारी तैयारी हो चुकी थी। महिलाएं किसी भी हाल में पुरूषों से पीछे नहीं रहना चाहती थीं। ठंडाई घुट रही थी। टबों में लाल-नीले-हरे रंग भरे हुए थे। उनके पास एक मेज पर लंबी लंबी पिचकारियां रखी थीं। उनके पास ही गुलाल भरी थालियां रखी थीं। सबने छक कर ठंडाई पी। रंगों से एक दूसरे को सरोबार किया। जी भर कर गुलाल मली। उल्लास के वातावरण में संयोजिका ने उद्घोष किया, ‘‘अब हम नगर फेरी को चलेंगे।’’ प्रौढ महिलाएं आगे आयीं। युवतियों को पीछे रखा। कॉलोनी की सड़कों पर होली के भजन गाता हुआ वह दल आगे बढा। उन स्वरों को सुनकर अनेक घरों के खिड़की दरवाजे खुल गए थे। जिस घर के सम्मुख कोई स्त्री दिख जाती तो उन्हें गुलाल का टीका अवश्य लगाया जाता।

कॉलोनी का अंत आ गया था। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार वहीं से वापस होना था किन्तु न जाने ऐसा क्या हुआ कि वह हुजूम आगे बढता ही गया। सुरों का सरगम बेढब हो गया। सुरीले स्वर फटने लगे। कदम लहराने लगे। वस्त्र, अस्त-व्यस्त हो गए। किसी को सड़क के किनारे एक टूटा हुआ कनस्तर दिख गया। एक युवती ने उसे उठा लिया और उसे एक टहनी से पीटती हुई, भौंडे ढंग से कोई रसिया गाने लगी। कॉलोनी के पास ही कच्ची बस्ती थी। उस जुलूस का रूख उस ओर ही था। वहां एक झोंपड़ी के आगे कुछ युवक मद्यपान में लीन थे। अधनंगे बच्चे एक दूसरे पर धूल उड़ाते खेल रहे थे।

अपनी ओर नाचती गाती स्त्रियों को आता देख हिचकी लेता एक लड़का बोला, ‘‘..हे…हे…अरे देख…कितने सारे हिंजड़े।’’ टोली के पास आते ही एक युवक उठ खड़ा हुआ, ‘‘अरे…बुआ! आज किसे कत्ल कर डालने का इरादा है?’’

इससे पहले कि तथाकथित बुआ कोई जवाब दे एक मनचले ने एक युवती से ठिठोली कर दी। प्रत्युत्तर में उसने तमाचा रसीद कर दिया। ‘‘इनकी यह औकात जो हम पर हाथ उठाएं। अभी चखाते हैं, इन्हें मजा।’’, वहां घिर आए कई मर्द चीखे।

इससे पहले कि कोई गजब हो। होली पर पुलिस का गश्ती दल वहां आ गया और उन महिलाओं को सुरक्षा मुहैय्या करा दी। बाद में भेद खुला कि ठंडाई पीसने वालों ने अपनी आदत के मुताबिक उसमें भांग मिला दी थी।

 

© प्रभाशंकर उपाध्याय

193, महाराणा प्रताप कॉलोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन- 322001

सम्पर्क-9414045857

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ होली पर्व विशेष – होली के रंग छंदों के संग ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आज होली के पर्व पर प्रस्तुत है आचार्य संजीव वर्मा ‘ सलिल ‘ जी की विशेष रचना  ‘ होली के रंग छंदों के संग ‘।)

☆ होली पर्व विशेष – होली के रंग छंदों के संग ☆

 

हुरियारों पे शारद मात सदय हों, जाग्रत सदा विवेक रहे

हैं चित्र जो गुप्त रहे मन में, साकार हों कवि की टेक रहे

हर भाल पे, गाल पे लाल गुलाल हो शोभित अंग अनंग बसे

मुॅंह काला हो नापाकों का, जो राहें खुशी की छेंक रहे

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चले आओ गले मिल लो, पुलक इस साल होली में

भुला शिकवे-शिकायत, लाल कर दें गाल होली में

बहाकर छंद की सलिला, भिगा दें स्नेह से तुमको

खिला लें मन कमल अपने, हुलस इस साल होली में

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करो जब कल्पना कवि जी रॅंगीली ध्यान यह रखना

पियो ठंडाई, खा गुझिया नशीली होश मत तजना

सखी, साली, सहेली या कि कवयित्री सुना कविता

बुलाती लाख हो, सॅंग सजनि के साजन सदा सजना

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नहीं माया की गल पाई है अबकी दाल होली में

नहीं अखिलेश-राहुल का सजा है भाल होली में

अमित पा जन-समर्थन, ले कमल खिल रहे हैं मोदी

लिखो कविता बने जो प्रेम की टकसाल होली में

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ईंट पर ईंट हो सहयोग की इस बार होली में

लगा सरिए सुदृढ़ कुछ स्नेह के मिल यार होली में

मिला सीमेंट सद्भावों की, बिजली प्रीत की देना

रचे निर्माण हर, सुख का नया संसार होली में

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न छीनो चैन मन का ऐ मेरी सरकार होली में

न रूठो यार! लगने दो कवित-दरबार होली में

मिलाकर नैन सारी रैन मन बेचैन फागुन में

गले मिल, बाॅंह में भरकर करो सत्कार होली में

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नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी मोहे बरजो न राधिका

आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो मुॅंह ही न फेर ले साॅंसों की साधिका

गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाॅंवरे से साॅंवरे की कामना भी बाॅंवरी

बैन से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका

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©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ०७६९९९५५९६१८ ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ (होली पर्व विशेष) संजय दृष्टि – प्रहलाद ☆ श्री संजय भारद्वाज

होली पर्व विशेष

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – प्रहलाद ☆

 

मेरे लिखे ख़त

जब-जब उसने

आग को दिखाए,

कागज़ जल गया

हर्फ़ उभर आए,

झुंझलाई,भौंचक्की-सी

हुई बार-बार दंग,

कई होलिकाएँ जल मरीं,

प्रहलाद सिद्ध हुआ

हर बार मेरे प्रेम का रंग..!

होली की ‘प्रह्लाद’ शुभकामनाएँ।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(कविता संग्रह *मैं नहीं लिखता कविता* से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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English Literature ☆ Weekly Column – Abhivyakti # 10 ☆ Respect ☆ Hemant Bawankar

Hemant Bawankar

(All of the literature written by me was for self satisfaction. Now I started sharing them with you all. Every person has two characters. One is visible and another is invisible. This poem shows us mirror.  Today, I present my poem ‘Respect’.)

My introduction is available on following links.

☆ Weekly Column – Abhivyakti # 10 

☆ Respect  ☆

I’m not

as you are thinking.

You have seen

my body;

the dress of soul!

 

Don’t respect me

my body

the dress of soul.

Try to search

another side of the wall

hanging between

dress and soul.

 

If you succeed

then

I will respect you

else

you disrespect me.

 

© Hemant Bawankar, Pune

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ अंतरराष्ट्रीय_महिला_दिवस_पर_न_रोना… _करो_ना..।  ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग

श्रीमती समीक्षा तैलंग 

 

(आज प्रस्तुत है श्रीमति समीक्षा तैलंग जी  की  एक बेहतरीन समसामयिक मौलिक व्यंग्य रचना _अंतरराष्ट्रीय_महिला_दिवस_पर_न_रोना… _करो_ना..।  शायद आपको मिल जाये  इस प्रश्न का उत्तर कि – कैसे करें बेअसर ,अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से लेकर होली तक चीन का असर ? )  

☆ व्यंग्य –  “_अंतरराष्ट्रीय_महिला_दिवस_पर_न_रोना… _करो_ना..।”  ☆ 

इतना कोरोना का रोना ले के बैठे हो यार…। जान जाने से डरते हो… सच में!! तो फिर केवल कोरोना से ही क्यों डरते हो भाई…।

महिलाओं से बलात्कार करने से पहले भी डरो…। नहीं डरोगे, पता है। तुम्हारी आत्मा तुम्हें कचोटती नहीं…।

महिलाओं की इज्ज़त का रोना हम ताउम्र गाते रहेंगे लेकिन करेंगे नहीं।

ट्रेफिक के नियम तोड़ने से भी डरो ना…। नहीं डरेंगे…। इसमें डरने वाली क्या बात है, श्शैःः।

हजारों की तादाद में लोग जान गंवा देते हैं इस चक्कर में…। और लाखों के घर उजड़ जाते हैं।

तो….। वायरस थोड़े है, हावी हुआ और हम जान गंवा बैठेंगे।

हेलमेट नहीं लगाना तो नहीं लगाना। जान जाए तो जाए।

अभी तो बस, कोरोना से डरना जरूरी है। सेनेटाइजर और मास्क के लिए मारामारी है।

बस इस बीमारी से मौत नहीं होनी चाहिए। बाकी किसी से भी हो, चलेगा। वो हमारी गलती से होगी इसलिए दुख भी कम होगा। लेकिन चीन की गलती से होगी तो न चल पाएगा।

हम चीन का विरोध करते हैं तो उसकी दी हुई बीमारी का भी विरोध करना जरूरी है।

आखिर विरोधी, विरोध करने के लिए ही होते हैं। सही, गलत कहां जान पाते।

फिर भी रंग पिचकारी हम चीन की ही खरीदेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं…।

 

©समीक्षा तैलंग, पुणे

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हिन्दी साहित्य ☆ होली पर्व विशेष – अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 1☆ प्रस्तुति – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  उनके । द्वारा संकलित  बाल साहित्यकारों की यादगार  होली के संस्मरण ।  ये संस्मरण हम दो भागों में प्रकाशित कर रहे हैं।  हम सभी बाल साहित्यकारों का ह्रदय से अभिनंदन करते हैं । )

श्री ओमप्रकाश जी के ही शब्दों में –

“होली वही है. होली का भाईचारा वही है. होली खेलने के तरीके बदल गए है. पहले दुश्मन को गले लगाते थे. उसे दोस्त बनाते थे. उस के लिए एक नया अंदाज था. आज वह अंदाज बदल गया है. होली दुश्मनी  निकालने का तरीका रह गई है.

क्या आप जानना चाहते हैं कि आप के पसंदीदा रचनाकार बचपन में कैसे होली खेलते थे? आइए उन्हीं से उन्हीं की लेखनी से पढ़ते हैं, वै कैसे होली खेलते थे.”

प्रस्तुति- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 1☆

सुश्री अंजली खेर

अंजली खेर लेखिका हैं.  वे बताती है. बात उस वक्त की है जब वे सातवी कक्षा में पढ़ती थी. उस साल हम सभी एक ही कोलोनी के बच्चों ने एक योजना बनाई. सुबह से ही सभी एक मकान  की छत पर इकट्टा हो गए . छत से बाहर पानी जाने वाले सभी रास्ते को बंद कर दिया और सभी टंकियों  के पानी को छोड़ दिया. सभी पानी छत पर इकट्टा कर लिया. फिर एकदूसरे पर छपा छप पानी फेक कर होली मनाई. उसी पानी में कबड्डी भी खेली . जम के लोटलोट कर नहाए.

जब सभी के घर में पानी नहीं आया. इस से सभी को हमारी बदमाशी का पता चल गया.  हम सब को अपनेअपने मातापिता ने खूब डांट पिलाई.

आज भी जब दोस्तों से बात होती हैं तो उस होली को याद कर सभी खिलखिला कर हंस पड़ते हैं.

श्री देवदत्त शर्मा

देवदत्त शर्मा के बचपन की यादगार होली. आप धार्मिक रचनाओं की रचियता है. आप कहते हैं कि वैसी होली कहाँ है जैसी हम खेलते थे. घर के आंगन में एक बड़े कड़ाह में पानी व गहरा गुलाबी रंग भर दिया जाता था . उस के चारों ओर घर की कुल वधुएं हाथ में कपडे़ का मोटा कोड़ा लेकर खड़ी हो जाती थी.पुरुष वर्ग कड़ाह से अपनी डोलची में रंग भरा पानी ले कर महिलाओं पर जोर से फेंकते थे.

कोशिश यह रहती थी पुरुष कड़ाह तक नहीं पहुंचे. अगर कोई पहुंचता है तो औरतें गीले कौड़े से मारती थी. कुछ औरतें मिल कर उसे भरे हुए कड़ाह में डाल देती थी. मोहल्ले के दर्शकों को मजा आता था .

हम छोटे  बच्चे थे. अत: कड़ाह के पास नहीं जाते थे. मेरे काकाजी ने बांस की एक पिचकारी बना कर मुझे दी मैं अलग बाल्टी में रंग घोल कर पिचकारी भर कर दर्शकों को भिगोता था. यह मेरी पहली होली थी. तब मैं 5-7 वर्ष का था . गांव में इस प्रथा को फाग खेलना कहते थे. अब यह प्रथा नगण्य है.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 29 ☆ काव्य संग्रह – गीत गुंजन – श्री ओम अग्रवाल बबुआ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  कवि ओम अग्रवाल बबुआ जी  के  काव्य  संग्रह  “गीत गुंजन” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 29 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा –काव्य   संग्रह   – गीत गुंजन

पुस्तक –  ( काव्य – संग्रह ) गीत गुंजन

लेखक – कवि ओम अग्रवाल बबुआ

प्रकाशक –प्रभा श्री पब्लिकेशन , वाराणसी

 मूल्य – २५० रु, पृष्ठ ११६, हार्ड बाउंड
 ☆ काव्य   संग्रह   – गीत गुंजन  – श्री  ओम अग्रवाल बबुआ –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

गीत , कविता मनोभावी अभिव्यक्ति की विधा है, जो स्वयं रचनाकार को तथा पाठक व श्रोता को हार्दिक आनन्द प्रदान करती है.

सामान्यतः फेसबुक, व्हाट्सअप को गंभीर साहित्य का विरोधी माना जाता है, किन्तु स्वयं कवि ओम अग्रवाल बबुआ ने अपनी बात में उल्लेख किया है कि उन्हें इन नवाचारी संसाधनो से कवितायें लिखने में गति मिली व उसकी परिणिति ही उनकी यह प्रथम कृति है.

किताब में धार्मिक भावना की रचनायें जैसे गणेश वंदना, सरस्वती वन्दना, कृष्ण स्तुतियां, दोहे, हास्य रचना मेरी औकात, तो स्त्री विमर्श की कवितायें नारी, बेटियां, प्यार हो तुम, प्रेम गीत, आदि भी हैं.

पहली किताब का अल्हड़ उत्साह, रचनाओ में परिलक्षित हो रहा है, जैसे यह पुस्तक उनकी डायरी का प्रकाशित रूपांतरण हो.

अगली पुस्तको में कवि ओम अग्रवाल बबुआ जी से और भी गंभीर साहित्य अपेक्षित है.

पुस्तक से चार पंक्तियां पढ़िये ..

आशाओ के दर्पण में

पावन पुण्य समर्पण में

जब दूर कहीं वे अपने हों

जब आंखों में सपने हों

तब नींद भाग सी जाती है

जब याद तुम्हारी आती है.

रचनायें आनन्द लेने योग्य हैं.

 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 39 – होली पर्व विशेष – रंग गुलाबी बरसे बदरिया ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  होली के पर्व पर  होली की मस्ती में सराबोर एक श्रृंगारिक गीत  रंग गुलाबी बरसे बदरिया। इस अतिसुन्दर गीत के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 39☆

☆ होली पर्व विशेष  –  रंग गुलाबी बरसे बदरिया

 

रंग गुलाबी बरसे बदरिया

पी के मिलन को तरसे अखियां

 

इधर उधर से नजर चुरा  के

तुम कब मिलोगे हमसे सांवरिया

 

घर में मन लगता नहीं है

बिन देखे चैन पड़ता नहीं है

 

चुपके से मिलने का कोई बहाना

लिखकर कब अब भेजोगे पतिया

 

सूना सूना है मेरे घर का आंगन

मैय्या बाबुल  न भाई बहना

 

आओगे कब राह देख रही सजना

फागुन की होली का करके बहाना

 

जब तुम आओगे नैनों में कजरा

सजा के रखूंगी बालों में गजरा

 

अपने ही रंग में रंग लूं सांवरिया

रंग गुलाबी बरसे बदरिया

 

रुत है मिलन की मेरे सांवरिया

गुजिया पपडी खोये की मिठाइयां

 

होश गवा दे  भांग की ठंडाईया

अपने हाथों से पिलाऊगी सैंया

 

रंग गुलाबी बरसे बदरिया

अपने पिया की मै तो बांवरिया

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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