हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 40 ☆ व्यंग्य – एक अति-शिष्ट आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘एक अति-शिष्ट आदमी’ एक बेहतरीन व्यंग्य है। कोई कितना भी शिष्ट या अति शिष्ट  व्यक्ति हो  उसमें कोई न कोई अशिष्टता या  लोभ-मोह तो अवश्य होगा ही जो डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि से बचना सम्भव ही नहीं है। ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 40 ☆

☆ व्यंग्य – एक अति-शिष्ट आदमी ☆

 लक्ष्मी बाबू की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे लक्ष्मी-पुत्र हैं। पैसा हो तो आदमी के पास बहुत सी नेमतें अपने आप खिंची चली आती हैं। पैसा है तो आप बहुत आराम से राजनीतिज्ञ या समाजसेवक बन सकते हैं। धन है तो आप बहुत बड़े विद्वान बन सकते हैं।

लक्ष्मी के लाड़ले होने के कारण लक्ष्मी बाबू स्वभाविक रूप से नगर के गणमान्य नागरिक हैं। नगर का कोई कार्यक्रम उनकी उपस्थिति के बिना सफल या सार्थक नहीं होता। इसीलिए लक्ष्मी बाबू के पास ढेरों आमंत्रण-पत्र पहुँचते रहते हैं और वे अधिकांश लोगों को उपकृत करते रहते हैं।

चन्दा बटोरने वाले अक्सर लक्ष्मी बाबू के दरवाज़े पर दस्तक देते रहते हैं और उनके घर से बहुत कम चन्दा-बटोरकर निराश लौटते हैं। थोड़ा बहुत प्रसाद सबको मिल जाता है। चन्दा लक्ष्मी बाबू के यश और उनकी लोकप्रियता को बढ़ाता है। हर धनी की भूख धन के अलावा प्रतिष्ठा और लोकप्रियता की होती है। थोड़े धन के निवेश से प्रतिष्ठा का अर्जन हो जाता है।

लक्ष्मी बाबू के साथ खास बात यह है कि वे अत्यधिक शिष्ट आदमी हैं। यह गुण लक्ष्मी बाबू को प्रतिष्ठित बनाता है, लेकिन यह लोगों की परेशानी का कारण भी बन जाता है।

लक्ष्मी बाबू किसी भी आयोजन में पहुँचकर चुपचाप सबसे पीछे वाली कुर्सी पर बैठ जाते हैं। कुछ देर बाद जब आयोजकों की नज़र उन पर पड़ती है तो वे उन्हें मंच पर ले जाते हैं। लक्ष्मी बाबू पीछे ही बैठे रहने की ज़िद करते हैं, लेकिन दो आदमी उन्हें ज़बरदस्ती पकड़कर मंच तक ले जाते हैं। लक्ष्मी बाबू दोनों आदमियों के बीच लटके, दोनों तरफ बैठे लोगों की तरफ हाथ जोड़ते हुए मंच तक पहुँचाये जाते हैं और लोग उनके नाटक को देखते रहते हैं।

यदि कोई आयोजन दरियों पर होता है तो लक्ष्मी बाबू वहाँ बैठ जाते हैं जहाँ लोगों के जूते उतरे होते हैं। फिर आयोजक उनकी शिष्टता से पीड़ित, उन्हें उठा ले जाते हैं और वे उसी तरह टंगे, दोनों हाथ जोड़कर नाक पर लगाये, मंच तक चले जाते हैं। लेकिन यह ज़रूर होता है कि वे हर आयोजन में इसी तरह मंच पर पहुँच जाते हैं।

लक्ष्मी बाबू की इन आदतों के कारण आयोजकों को सतर्क रहना पड़ता है। पता नहीं लक्ष्मी बाबू कब धीरे से आकर पीछे बैठ जाएं। उनके लिए हमेशा चौकस रहना पड़ता है।

जैसा कि मैंने कहा,लक्ष्मी बाबू की शिष्टता चिपचिपाती रहती है। नमस्कार करते हैं तो कमर समकोण तक झुक जाती है। बुज़ुर्गों से मिलते हैं तो सीधे उनके चरण पकड़ लेते हैं। अपरिचितों से मिलते हैं तो उन्हें छाती से चिपका लेते हैं। महिलाओं से बात करते हैं तो हाथ जोड़कर उनके चरणों को निहारते रहते हैं। नज़र ऊपर ही नहीं उठती।

लक्ष्मी बाबू जब भाषण देते हैं तो विनम्रता  उनके शब्दों से चू-चू पड़ती है। वाणी से शहद टपकती है।  ‘मैं आपका सेवक’, ‘आपका चरण सेवक’, ‘मैं अज्ञानी’, ‘मैं मन्दबुद्धि’, ‘मैं महामूढ़’ जैसे शब्दों से उनका भाषण पटा रहता है। अति विनम्रता के नशे में उनका सिर दाहिने बायें झूमता रहता है।

लेकिन एक आयोजन में गड़बड़ हो गया। आयोजन के मुख्य अतिथि एक मंत्री जी थे। लक्ष्मी बाबू पहुँचे और आदत के मुताबिक पीछे वाली लाइन में बैठ गये। आयोजक मंत्री जी की अगवानी में व्यस्त थे, इसलिए उनकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। पूर्व के आयोजनों में आसपास के लोग आयोजकों को उनके आने की खबर दे देते थे, लेकिन इस बार पूरा फोकस मंत्री जी पर था।

लक्ष्मी बाबू बैठे बैठे कसमसाते रहे। उन्होंने कई बार अपनी गर्दन लम्बी करके इधर उधर झाँका कि किसी का ध्यान उनकी तरफ खिंचे, लेकिन सब बेकार।

लक्ष्मी बाबू का मुँह उतर गया। चेहरे पर घोर उदासी छा गयी। वे मुँह लटकाये, मरे कदमों से चलकर अपनी कार तक पहुँचे। तभी मंत्री जी से फुरसत पाये आयोजक ने उन्हें देखा। प्रफुल्लित भाव से बोला, ‘अरे लक्ष्मी बाबू, आप कहाँ बैठे थे?आप दिखे ही नहीं।’

लक्ष्मी बाबू का मुँह गुस्से से विकृत हो गया। फुफकार कर बोले, ‘आपके आँखें हों तो दिखें। कम दिखता हो तो चश्मा लगवा लो भइया। आपको तो मंत्री जी दिखते हैं, हम कहाँ दिखेंगे?’

वे फटाक से कार का दरवाज़ा बन्द करके बैठ गये। फिर खिड़की से सिर निकालकर बोले, ‘अब आगे के कामों में मंत्री जी से ही चन्दा लेना।’

कार सर्र से चली गयी और आयोजक शिष्ट-शिरोमणि लक्ष्मी बाबू का यह रूप देखकर भौंचक्का रह गया।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 25 – कुछ इस तरह ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘कुछ इस तरह । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 25 – विशाखा की नज़र से

☆ कुछ इस तरह ☆

 

तुम्हारे होने की तपिश

बन के सूरज की किरण

मेरे कांधों को सहलाती है

 

ऐसे जैसे दिसंबर के सर्द दिनों में

मैंने ओढ़ लिया हो तेरे नाम का

संदली दुशाला

 

जैसे धूप पार करती  है

आसमान में बना अदृश्य पुल

बढ़ चलती है पूरब से पश्चिम की ओर

 

मैं भी बदलती हूँ अपना बाना

सिंदूरी से सुनहरा

फिर से वही सिंदूरी

 

इस तरह तय करते हैं मेरे दिन

भोर से साँझ का सफर

और बदलती जाती हैं तारीख़ें

 

बदलते हैं माह जनवरी से दिसंबर !

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – हाँ, मैं स्त्री हूँ! ☆ श्रीमती तृप्ति रक्षा 

 

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष 

श्रीमती तृप्ति रक्षा  

( ई – अभिव्यक्ति  में   श्रीमती तृप्ति रक्षा जी  का हार्दिक स्वागत है । आप शिक्षिका हैं एवं आपके वेब पोर्टल पर कवितायेँ प्रकाशित होती रहती हैं। संगीत, पुस्तकें पढ़ना एवं सामाजिक कार्यों में विशेष अभिरुचि है।  विचार- स्त्री हूँ स्त्री के साथ खड़ी हूँ।  आज  प्रस्तुत है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर  आपकी विशेष कविता  “हाँ, मैं  स्त्री हूँ!” )

☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष  – हाँ, मैं स्त्री हूँ! 

हाँ ,मैं  स्त्री हूँ !

तभी तो भूल जाती हूँ ,

बार -बार शब्दों के उन तीक्ष्ण बाणों को,

और क्षण भर मौन रहकर समेट लेती हूं,

खुद को रसोईघर  के कोने में ।

 

हाँ ,हूँ मैं स्त्री !

तभी तो साथ देती हूं हर बार,

तुम्हारे घर से निकाल देने की बात पर भी,

आमंत्रण देती  हूं साथ निभाने का  हर सुख-दुख में,

क्योंकि मेरा अस्तित्व है ज़िन्दा,

तुम्हारे साथ होने में ।

 

हूँ मैं स्त्री!

इतनी संवेदना तो है,कि भूल जाती हूं ,

कैसे छलते रहे हर-बार तुम मुझे और मैं मुस्कुरा कर माफ कर देती हूं,

डर है मुझे तुम्हारा प्यार खोने में।

 

हाँ, मैं वही स्त्री हूँ!

जो हर पल इक आस‌ में जीती है,

सुनहरे सपने सजाती है

जिसे पूरा होने के पहले हीं ,

तुम तोड़ देते हो और बुनते हो इक मकड़जाल

अपने झूठे रसूख को बचाने में ।

 

हाँ ,मैं  स्त्री हूँ !

जिसे परवाह नहीं अपने हाथों के छालों की,

वो तो बस तुम्हारे मुस्कान की प्रतीक्षा में है ,

पर कहां समझ पाते हो कि ये छोटी सी फरमाइश भी पूरी होती है,

तुम्हारे साथ -साथ

हँसने और रोने में।

 

हाँ मैं स्त्री हूँ

जो ढेर सारा जहर पीकर भी,

सोलह श्रृंगार कर इंतजार करती है

पर हाय! ये आखिरी ख्वाहिश भी तुम भूल जाते हो,

जिसे मैं ज़िन्दा रखती हूँ,

गले में मंगलसूत्र के होने में।

क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ ।

तुम हो, तो मैं ज़िन्दा हूँ ।।

 

© तृप्ति रक्षा

सिवान बिहार

☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष –

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – स्त्री तुम हो ☆ श्री दिवयांशु शेखर

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष 

श्री दिव्यांशु शेखर 

(युवा साहित्यकार श्री दिव्यांशु शेखर जी ने बिहार के सुपौल में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण की।  आप  मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं। जब आप ग्यारहवीं कक्षा में थे, तब से  ही आपने साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था। आपका प्रथम काव्य संग्रह “जिंदगी – एक चलचित्र” मई 2017 में प्रकाशित हुआ एवं प्रथम अङ्ग्रेज़ी उपन्यास  “Too Close – Too Far” दिसंबर 2018 में प्रकाशित हुआ। ये पुस्तकें सभी प्रमुख ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं। आज प्रस्तुत है  अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर  श्री दिव्यांशु शेखर जी की विशेष कविता “स्त्री तुम हो”  )

☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – स्त्री तुम हो 

 

स्वयं आदिशक्ति से लेकर सबके भक्ति तक,

पूज्य धात्री से लेकर प्यारी पुत्री तक,

सहभागी भगिनी से लेकर सहयोगी अर्धांगिनी तक,

दादी के पिहानी से लेकर नानी के कहानी तक,

नायक के मीत से लेकर गायक के गीत तक,

निर्देशक के मंचन से लेकर चित्रक के चित्रण तक,

संसार की संरचना से लेकर मेरी हर रचना तक।

 

©  दिव्यांशु  शेखर

कोलकाता

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – सृष्टि के विधान में नहीं नारी से सुन्दर रचना ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साहित्य की अन्य विधाओं में भी उनका विशेष दखल है। आज प्रस्तुत है  अंतर्राष्ट्रीय महिला  दिवस पर  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  की यह  विशेष कविता “सृष्टि के विधान में नहीं नारी से सुन्दर रचना”।   

☆ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष  –  सृष्टि के विधान में नहीं नारी से सुन्दर रचना 

 

सुंदर सौम्य और शील वेदों का है ये कहना।

सृष्टि के विधान में नहीं नारी से सुन्दर रचना

 

बेटी बहन और मां के रूप में

ममता और  त्याग का सहना

 

पाकर सौभाग्य शृंगार जगत में

हँसते हँसते दुख-सुख सहना

 

सृष्टि के विधान में नहीं नारी से सुंदर रचना

 

पिता के घर बेटी के रूप में

प्रकृति का अनमोल खजाना

 

जब जाए पति के घर में

पहन कर्तव्यों का गहना

 

सृष्टि के विधान में नहीं नारी से दूसरी रचना

 

पता चला कन्या भ्रूण है कोख में

पेट में ही चाहा उसको मरवाना

 

यह है कैसी विडंबना जग में

कैसे होगा उस कन्या का जीना

 

सृष्टि के विधान में नहीं नारी से दूसरी रचना

 

स्नेह दया करुणा जीवन में

ममता ही है उसका  गहना

 

त्याग की मूरत बनी है जग में

नए वंश को है उसे जनम देना

 

सृष्टि के विधान में नहीं नारी से दूसरी रचना

 

लगा सिंदूरी रंग मांथे में

कर अपने हाथों पे भरोसा

 

शक्ति रूप में पूजी जाती

सारे जगत में नारी हमेशा

 

सुंदर सौम्य और शील वेदों का है ये कहना

सृष्टी के विधान में नहीं नारी से सुन्दर रचना

 

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 14 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 14 – मिलान ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- अभी तक आप ने पगली के जीवन की पूर्वाध की कथा पढ़ी, अब उसके जीवन की उत्तरार्ध की कथाओं का अवलोकन करे, आपको पता चल जायेगा। कि किन घटनाओं ने पगली को पगली से पगली माई बना सामाजिक सम्मान के शीर्ष पर स्थापित कर दिया, उस कड़ी में पगली भले ही दुर्गा माई, लक्ष्मी माई सरस्वती माई का स्थान ग्रहण न कर पाई हो, लेकिन उस लड़ी की एक कड़ी तो बन ही गई। आगे पढ़ें —-)

दोपहर का समय बीत चला था, भगवान भास्कर चमकते हुए अस्ताचल गामी हो चले थे।  पगली अपनी बेखुदी में अस्फुट स्वरों में मन ही मन कुछ बुदबुदाती हुइ आगे बढ़ी चली जा रही थी।  उसी समय पास में चल रही प्रायमरी पाठशाला में बच्चों का अवकाश हुआ था।

पगली को पास से गुजरते देख शरारती बच्चों की एक टोली पगली के पीछे पड़ गई थी।  वे उसे पगली पगली कह चिढ़ाते जा रहे थे।  सहसा पगली आवेशित हो चीख पडी़। उसने बच्चों को दौड़ा भी लिया था।  शरारती बच्चों ने उसपर पत्थरों की बौछार कर थी।  उन पत्थरों से चोटिल पगली जमीन पर गिर पड़ी थी।

उसी समय राह गुजरते कुछ लोगों नें बच्चों को ललकारा तो वे गधे की सींग की तरह वहाँ से गायब हो गये।

पगली परकटी पंछी  की तरह गिर कर चोटिल हो  छटपटा उठी थी।  दर्द और पीड़ा से बुरा हाल था उसका।  कुछ समय बाद वह उठ कर धीरे धीरे चलती हुई अपने अंजान गंतव्य की तरफ बढ़ चली थी।  उसे बुखार हो आया था।  दर्द और पीड़ा सेबुरा हाल था उसका।  उसके बदन के पोर पोर दर्द से टूट रहे थे।

उस दिन उस क्षेत्र में एन सीसी की एक बटालियन पगली के गाँव में कैम्प कर रही थी।  उस बटालियन का एक सक्रिय सदस्य गोविन्द भी था।  वह कैम्प के सामाजिक कार्यों मे बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेता था।  जाड़े का मौसम था।  धीरे धीरे चलती हुई सनसनाती ठंढी हवा शरीर में चुभन का एहसास करा रही थी।   आकाश काले बादलों से आच्छादित था।  आकाश  में काले बादलों का डेरा था।  आवाजाही तथा लुका छिपा का क्रम जारी था। ऐसा लग रहा था जैसे बादल अब बरसे तब बरसे।

उस दिन ग्राम प्रधान के अहाते में ही पूरी बटालिय रूकी  हुइ थी।  आज प्रधान ने सारे कैडेट्स तथा अधिकारियों के सम्मान में भोज का आयोजन किया था।  वातावरण में भातिभांति के पकने वाले पकवानों की सुगंध घुली हुई थी।  जो भोजन बनाने वालों के विशिष्ट कला का परिचय दे रही थी।

कैडेट्स की कठोर दिनचर्या तथा चले सफाई अभियान की मेहनत ने थका कर रख दिया था।  शाम के समय टोलियों में बटे कैडेट्स अपने पसंद के कार्यो में लग गये थे।  कोइ समय बिताने के लिए ताश के पत्ते फेट रहा था, तो कोइ अंत्याक्षरी खेल रहा था।

वही पर अधिकारी गांव के विकास का खाका खींच रहे थे, कही लोक परंपराओं में व्याप्त कुरितियों के पक्ष विपक्ष में गर्मागर्म बहस जारी थी।

इन सबके बीच सबसे अलग दिखने वाले व्यक्तित्व का मालिक गोविन्द अहाते के कोने में खड़े बरगद के नीचे चबूतरे पर  बैठा ना जाने किस उधेड़ बुन में खोया हुआ अकेला बैठा था।  ना जाने क्यों उसे रह रह कर अपनी माँ की याद आ रही थी, जो उसे बेचैनी भरा एहसास दे रही थी।  उसका मन व्याकुल था।  अंधेरा हो चला था, चिन्तन मे खोये उसके स्मृति पटल पर अंकित माँ की छबि तैरती तो अनायास उसकी आँखों को भिगो जाती।

वह उस दरख़्त के नीचे अपने ही ख्यालों में गुमसुम खोया था कि उस नीरव वातावरण को चीरती हुई करूणा से ओतप्रोत एक आवाज (अरे मोरे ललवा कंहा छोड़ि के परईले रे) उसके कर्ण पटल से टकराई थी।

उस आवाज में छिपी पीड़ा लाचारी, तथा बेबसी के एहसास ने गोविन्द के भावुकता भरे हृदय को आंदोलित कर दिया। अब अनायास ही गोविन्द के पांव उस दर्दभरी आवाज की दिशा मेंबढ़ चले थे। घने अंधेरे को चीरता  वह उसी दिशा में बढा जा रहा था।  उसे खेत की मेड़ पर एक इंसानी छाया दोनों हाथ उपर उठाये दुआ मांगने के अंदाज में बैठी दिखी थी।  जो बार बार अपनी करूण आवाज में अपने जिगर के टुकड़े को पुकार रही थी, जो इस दुनियाँ में था ही नही, उसकी आवाज में बस जमानेभर का दर्द समाया था। वह दर्द पीड़ा, बेबसी से कराह रही थी।

अचानक  गोविन्द  को सामने देख पगली का मन ऐसे मचल उठा जैसे कोई छोटा बच्चा खिलौने की चाह में  मचलता है।  गोविन्द भी खुद को रोक नहीं पाया था और माई माई कहते कहते हुए पगली के पावों से जा लिपटा था।  पगली ने जब गोविन्द का स्नेहिल स्पर्श पाया अपनी दुख तथ

पीड़ा के पल भूलकर उसे बाहों में भर अपने गले लगा लिया था।  उसके माथे को बेतहासा चूमती चली गई थी, उसे लगा जैसे उसका बिछड़ा गौतम ही
उससे गले आ मिला हो, उसकी ममता आंखों के रास्ते सावन भादों की बूंदे बन। बरस पड़ी थी। उन मां बेटों का मिलन देख उनके मिलन के साक्षी आकाश की आंखों से भी मानो करूणा बरस रही थी।  अब हल्की हल्की बारिश होने लगी थी।  गोविन्द पगली का हाथ थामे तेज गति से ग्राम प्रधान के अहाते की तरफ बढ़ा चला जा
रहा था।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 15 – कर्मपथ 

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – स्वप्नपाकळ्या ☆ ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है होली के अवसर पर उनकी कविता “होळीचा रंग “.) 

(दिनांक २३-०२-२०२०ला राज्यस्तरीय साहित्य व संस्कृती महोत्सव २०२०चे कवि कट्टा मंचाचे अध्यक्ष पद स्विकारतांना , कविंना प्रमाणपत्र व सन्मानचिन्ह प्रदान करतांना श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 1 ☆

☆ कविता – होळीचा रंग  ☆ 

रंग खेळू, रंग उधळू, उधळू गुलाल

रंगात रंगू या, निळ्या पिवळ्या लाल ।।

 

काही रंग ओले, काही सुकलेले रंग

जीवनाच्या अंतरंगी, वेगळे  तरंग

माणुसकीचे काही, काही चवचाल।।

रंगात रंगू या…….

 

होळीच्या निमित्ताने, खरे खरे बोलू

रंगलेल्या चेह-याची, आज पोल खोलू

मानू नका वाईट, ही होळीची धमाल।।

रंगात रंगू या…….

 

मित्रांनो धुता येईल, तन रंगलेले

कसे धुता येईल हो, मन मळलेले

होळीच्या गुलालात, आहे ही कमाल ।।

रंगात रंगू या…..

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #12 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #12 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

 

मन के कर्म सुधार ले, मन ही प्रमुख प्रधान । 

कायिक वाचिक कर्म तो, मन की ही संतान ।।

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

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Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.  We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.

Email: [email protected]

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (2) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

( विश्वरूप के दर्शन हेतु अर्जुन की प्रार्थना )

 

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।

त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्‌ ।। 2।।

सुनी आपसे विश्व के जन्म – मरण की बात

कमलनयन ! माहात्म्य भी जो शाश्वत अवदात ।। 2।।

 

भावार्थ :  क्योंकि हे कमलनेत्र! मैंने आपसे भूतों की उत्पत्ति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है।। 2।।

 

The origin and the destruction of beings verily have been heard by me in detail from Thee, O lotus-eyed Lord, and also Thy inexhaustible greatness!।। 2।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 45 ☆ ई-अभिव्यक्ति को अपार स्नेह / प्रतिसाद के लिए आभार  ☆ रिश्तों / संबंधों पर आधारित रचनाएँ आमंत्रित ☆ हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–45

☆ ई-अभिव्यक्ति को अपार स्नेह / प्रतिसाद के लिए आभार  रिश्तों / संबंधों पर आधारित रचनाएँ आमंत्रित

 प्रिय मित्रों,

आज के संवाद के माध्यम से मुझे पुनः आपसे विमर्श का अवसर प्राप्त हुआ है।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ई-अभिव्यक्ति  वेबसाइट को मिला 1,51,900+ विजिटर्स (सम्माननीय एवं प्रबुद्ध लेखकगण/पाठकगण) का प्रतिसाद’। पुनः आपके साथ संवाद करना निश्चित ही मेरे लिए गौरव के क्षण हैं।  इस अकल्पनीय प्रतिसाद एवं इन क्षणों के आप ही भागीदार हैं। यदि आप सब का सहयोग नहीं मिलता तो मैं इस मंच पर इतनी उत्कृष्ट रचनाएँ देने में  स्वयं को असमर्थ पाता। मैं नतमस्तक हूँ ,आपके अपार स्नेह के लिए।  आप सबका हृदयतल से आभार। 

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ये रिश्ते भी बड़े अजीब होते हैं, जो हमें पृथ्वी के किसी भी कोने में  बसे जाने अनजाने लोगों से आपस में अदृश्य सूत्रों से जोड़ देते हैं। अब मेरा और आपका ही रिश्ता ले लीजिये। आप में से कई लोगों से न तो मैं व्यक्तिगत रूप से मिला हूँ और न ही आप मुझसे व्यक्तिगत रूप से मिले हैं किन्तु, स्नेह का एक बंधन है जो हमें बांधे रखता है। आप में से कई मेरे अनुज/अनुजा, अग्रज/अग्रजा, मित्र, परम आदरणीय /आदरणीया, गुरुवर और मातृ पितृ  सदृश्य तक बन गए हैं। ये अदृश्य सम्बन्ध मुझमें ऊर्जा का संचार करते हैं। मेरा सदैव प्रयास रहता है और ईश्वर से कामना करता हूँ  कि मैं अपनी इस सम्बन्ध को आजीवन निभाऊं। और आपसे भी अपेक्षा रखता हूँ कि मेरे प्रति यह स्नेह ऐसा ही बना रहेगा।

मेरा और आपका सम्बन्ध मात्र रचनाओं के आदान प्रदान तक ही सीमित नहीं है, इस सम्बन्ध में हमारी संवेदनाएं भी जुडी हुई हैं। संभवतः संवेदनहीन सम्बन्ध कभी सार्थक नहीं होते। हाल ही में मैंने कर्नल अखिल साह जी एवं डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘ गुणशेखर’ जी द्वारा रचित दो रचनाएँ ‘माँ’ शीर्षक से प्रकाशित की थी, जो अत्यंत संवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी हैं और उन्हें पाठकों का भरपूर स्नेह / प्रतिसाद मिला। मेरे पास ऐसे ही “पिता” से सम्बंधित रचनाएँ भी प्राप्त हुई हैं जो शीघ्र प्रकाश्य हैं। इन रचनाओं ने ह्रदय को झकझोर दिया। इसके बाद संबंधों पर इतनी सुन्दर रचनाएँ आने लगीं जिसकी मैंने कभी कल्पना ही नहीं की थी। श्री विवेक चतुर्वेदी जी की नवीन पुस्तक “स्त्रियां घर लौटती हैं’  पर विभिन्न लेखक लेखिकाओं की समीक्षाएं और टिप्पणियां सम्पादित करते समय पढ़ कर विस्मित हूँ । यह पुस्तक हिंदी साहित्य के क्षितिज पर नए आयाम गढ़ रही है। आज प्रकाशित श्री संजय भारद्वाज जी की मानवीय संबंधों पर आधारित समसामयिक रचना “आमरण” हमें विचार करने हेतु प्रेरित करती है।

मैंने ऊपर जिन संबंधों की चर्चा की है उनमें रक्त संबंधों के अतिरिक्त भी ऐसे कई सम्बन्ध हैं जिन पर अति सुन्दर साहित्य रचा गया है। मेरा मानना है कि कोई भी साहित्य जो आज तक रचा गया है उसका आधार कोई सम्बन्ध या रिश्ता न हो ऐसा शायद ही संभव हो । कई सम्बन्ध ऐसे होते हैं जिनके बारे में हम भावनात्मक रूप से लिख देते हैं किन्तु वे सम्बन्ध परिपेक्ष्य में रहते हैं ।

रिश्तों / संबंधों पर आधारित रचनाएँ आमंत्रित

ई-अभिव्यक्ति साहित्य में सकारात्मक नए प्रयोग करने के लिए कटिबद्ध है। मेरे उपरोक्त विचारों से आप निश्चित रूप से सहमत होंगे। इस पूरी प्रक्रिया में मन में एक विचार आया कि क्यों न आपसे रिश्तों या संबंधों पर आधारित रचनाएँ आमंत्रित की जाएँ और अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा की जाएँ ।

वैसे तो पारिवारिक रिश्तों की एक लम्बी फेहरिश्त है जिनमें प्रपौत्र- प्रपौत्री  से लेकर परनाना-परनानी, परदादा-परदादी तक जिनसे हम हर दिन रूबरू होते रहते हैं । वैसे तो संबंधों की लम्बी फेहरिश्त असीमित है।  कुछ सम्बन्ध और रिश्ते जो इस समय मेरे मस्तिष्क में आ रहे हैं आपसे उदाहरणार्थ साझा करने का प्रयास करता हूँ। इससे परे भी आपके मस्तिष्क में कई सम्बन्धो होंगे जो हम साझा करना चाहेंगे ।

पति पत्नी, प्रेमी प्रेमिका, मित्र, पड़ौसी  तो सामान्य हैं ही। आज जब इंसानियत तार तार हो रही है ऐसे में  मानवीय सम्बन्ध, हमारा राष्ट्र से सम्बन्ध, प्रकृति एवं पर्यावरण से सम्बन्ध, पालतू एवं अन्य जानवरों से सम्बन्ध,  थर्ड जेंडर जो कभी कभार हमसे रूबरू होते हैं उनसे सम्बन्ध,  समाज में बमुश्किल स्वीकार्य रिश्ते (लिव-इन रिलेशनशिप, समलैंगिक) और ऐसे बहुत सारे सम्बन्ध और रिश्ते जो आपके विचारों में आ रहे हैं और मेरे विचारों में नहीं आ पा रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह कि कोई भी और कैसा भी सम्बन्ध या रिश्ता।

तो फिर देर किस बात की कलम / कम्प्यूटर कीबोर्ड पर शुरू हो जाइये और भेज दीजिये किसी भी संबंध / रिश्ते पर आधारित अपनी हिंदी/मराठी /अंग्रेजी में रचना  (कविता /लघुकथा /आलेख) अधिकतम 500-750 शब्दों में । ई-अभिव्यक्ति को किसी भी रूप में प्रकाशित करने की स्वतंत्रता  की आपकी अनुमति के साथ रचना पर कॉपीराइट आपका। हाँ रचना प्रेषित करते समय इस मंच के मूलमंत्र जो डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  के आशीर्वचन में व्याप्त है का अवश्य ध्यान रखें। 

सन्दर्भ : अभिव्यक्ति 

संकेतों के सेतु पर, साधे काम तुरन्त ।
दीर्घवायी हो जयी हो, कर्मठ प्रिय हेमन्त ।।

काम तुम्हारा कठिन है, बहुत कठिन अभिव्यक्ति।
बंद तिजोरी सा यहाँ,  दिखता है हर व्यक्ति ।।

मनोवृत्ति हो निर्मला, प्रकट निर्मल भाव।
यदि शब्दों का असंयम, हो विपरीत प्रभाव।।

सजग नागरिक की तरह, जाहिर  हो अभिव्यक्ति।
सर्वोपरि है देशहित, बड़ा न कोई व्यक्ति ।।

–  डॉ राजकुमार “सुमित्र”

आपसे अनुरोध है कि हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को यदि हम अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी से साझा करें तो उन्हें निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। इस प्रयास में हमने कई वरिष्ठतम  साहित्यिक विभूतियों से चर्चा की है एवं व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर  ससम्मान आलेख समय समय पर  प्रकाशित कर रहे हैं। आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम  पीढ़ी के मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के कार्यों को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें। 

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

7 मार्च 2020

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