(यह संयोग ही नहीं मेरा सौभाग्य ही है कि – ईश्वर ने वर्षों पश्चात मुझे अपने पूर्व प्राचार्य श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी (केंद्रीय विद्यालय क्रमांक -1), जबलपुर से सरस्वती वंदना के रूप में माँ वीणा वादिनी का आशीर्वाद प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हो रहा है। अपने गुरुवर द्वारा लिखित ‘सरस्वती वंदना’ आप सबसे साझा कर गौरवान्वित एवं कृतार्थ अनुभव कर रहा हूँ।)
(श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का e-abhivyakti में स्वागत है। प्रस्तुत है श्री विवेक जी का विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे आयोजनों पर एक सार्थक व्यंग्य।)
इन दिनो मेरा घर ग्लोबल विलेज की इकाई है. बड़े बेटी दामाद दुबई से आये हुये हैं , छोटी बेटी लंदन से और बेटा न्यूयार्क से. मेरे पिताजी अपने आजादी से पहले और बाद के अनुभवो के तथा अपनी लिखी २७ किताबो के साथ हैं . मेरी सुगढ़ पत्नी जिसने हिन्दी माध्यम की सरस्वती शाला के पक्ष में मेरे तमाम तर्को को दरकिनार कर बच्चो की शिक्षा कांवेंट स्कूलों से करवाई है, बच्चो की सफलता पर गर्वित रहती है. पत्नी का उसके पिता और मेरे श्वसुर जी के महाकाव्य की स्मृतियो को नमन करते हुये अपने हिन्दी अतीत और अंग्रेजी के बूते दुनियां में सफल अपने बच्चो के वर्तमान पर घमण्ड अस्वाभाविक नही है. मैं अपने बब्बा जी के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सेदारी की गौरव गाथायें लिये उसके सम्मुख हर भारतीय पति की तरह नतमस्तक रहता हूँ. हमारे लिये गर्व का विषय यह है कि तमाम अंग्रेजी दां होने के बाद भी मेरी बेटियो की हिन्दी में साहित्यिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और उल्लेखनीय है कि भले ही मुझे अपनी दस बारह पुस्तकें प्रकाशित करवाने हेतु भागमभाग, और कुछ के लिये प्रकाशन व्यय तक देना पड़ा रहा हो पर बेटियो की पुस्तके बाकायदा रायल्टी के अनुबंध पत्र के साथ प्रकाशक ने स्वयं ही छापी हैं. ये और बात है कि अब तक कभी रायल्टी के चैक के हमें दर्शन लाभ नही हो पाये हैं. तो इस भावभूमि के संग जब हम सब मारीशस में विश्व हिन्दी सम्मेलन के पूर्व घर पर इकट्ठे हुये तो स्वाभाविक था कि हिन्दी साहित्य प्रेमी हमारे परिवार का विश्व हिन्दी सम्मेलन घर पर ही मारीशस के सम्मेलन के उद्घाटन से पहले ही शुरु हो गया.
मेरे घर पर आयोजित इस विश्व हिन्दी सम्मेलन का पहला ही महत्वपूर्ण सत्र खाने की मेज पर इस गरमागरम बहस पर परिचर्चा का रहा कि चार पीढ़ीयो से साहित्य सेवा करने वाले हमारे परिवार में से किसी को भी मारीशस का बुलावा क्यो नही मिला? पत्नी ने सत्र की अध्यक्षता करते हुये स्पष्ट कनक्लूजन प्रस्तुत किया कि मुझमें जुगाड़ की प्रवृत्ति न होने के चलते ही ऐसा होता है. मैने अपना सतर्क तर्क दिया कि बुलावा आता भी तो हम जाते ही नही हम लोगो को तो यहाँ मिलना था और फिर विगत दसवें सम्मेलन में मैने व पिताजी दोनो ने ही भोपाल में प्रतिनिधित्व किया तो था! तो छूटते ही पत्नी को मेरी बातो में अंगूर खट्टे होने का आभास हो चुका था उसने बमबारी की, भोपाल के उस प्रतिनिधित्व से क्या मिला? बात में वजन था, मैं भी आत्म मंथन करने पर विवश हो गया कि सचमुच भोपाल में मेरी भागीदारी या मारीशस में न होने से न तो मुझे कोई अंतर पड़ा और न ही हिन्दी को. फिर मुझे भोपाल सम्मेलन की अपनी उपलब्धि याद आई वह सेल्फी जो मैने दसवें भोपाल विश्व हिन्दी सम्मेलन के गेट पर ली थी और जो कई दिनो तक मेरे फेसबुक पेज की प्रोफाईल पिक्चर बनी रही थी.
घर के वैश्विक हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर पत्नी ने प्रदर्शनी का सफल आयोजन किया था. दामाद जी के सम्मुख उसने उसके पिताजी के महान कालजयी पुरस्कृत महाकाव्य देवयानी की सुरक्षित प्रति दिखला, मेरे बेटे ने उसके ग्रेट ग्रैंड पा यानी मेरे बब्बा जी की हस्तलिखित डायरी, आजादी के तराने वाली पाकेट बुक साइज की पीले पड़ रहे अखबारी पन्नो पर मुद्रित पतली पतली पुस्तिकायें जिन पर मूल्य आधा पैसा अंकित है , ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में उन्हें पालीथिन के भीतर संरक्षित स्वरूप में दिखाया. उन्हें देखकर पिताजी की स्मृतियां ताजा हो आईं और हम बड़ी देर तक हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत की बातें करते रहे. यह सत्र भाषाई सौहाद्र तथा विशेष प्रदर्शन का सत्र रहा.
अगले कुछ सत्र मौज मस्ती और डिनर के रहे. सारे डेलीगेट्स सामूहिक रूप से आयोजन स्थल अर्थात घर के आस पास भ्रमण पर निकल गये. कुछ शापिंग वगैरह भी हुई. डिनर के लिये शहर के बड़े होटलो में हम टेबिल बुक करके सुस्वादु भोजन का एनजाय करते रहे. मारीशस वाले सम्मेलन की तुलना में खाने के मीनू में तो शायद ही कमी रही हो पर हाँ पीने वाले मीनू में जरूर हम कमजोर रह गये होंगे. वैसे हम वहाँ जाते भी तो भी हमारा हाल यथावत ही होता . हम लोगो ने हिन्दी के लिये बड़ी चिंता व्यक्त की. पिताजी ने उनके भगवत गीता के हिन्दी काव्य अनुवाद में हिन्दी अर्थ के साथ ही अंग्रेजी अर्थ भी जोड़कर पुनर्प्रकाशन का प्रस्ताव रखा जिससे अंग्रेजी माध्यम वाले बच्चे भी गीता समझ सकें. प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास हो गया. मैंने विशेष रूप से अपने बेटे से आग्रह किया कि वह भी परिवार की रचनात्मक परिपाटी को आगे बढ़ाने के लिये हिन्दी में न सही अंग्रेजी में ही साहित्यिक न सही उसकी रुचि के वैज्ञानिक विृयो पर ही कोई किताब लिखे. जिस पर मुझे उसकी ओर से विचार करने का आश्वासन मिला . बच्चो ने मुझे व अपने बब्बा जी को कविता की जगह गद्य लिखने की सलाह दी. बच्चो के अनुसार कविता सेलेबल नही होती. इस तरह गहन वैचारिक विमर्शो से ओतप्रोत घर का विश्व हिन्दी सम्मेलन परिपूर्ण हुआ. हम सब न केवल हिन्दी को अपने दिलो में संजोये अपने अपने कार्यो के लिये अपनी अपनी जगह वापस हो लिये वरन हिन्दी के मातृभाषी सास्कृतिक मूल्यों ने पुनः हम सब को दुनियां भर में बिखरे होने के बाद भी भावनात्मक रूप से कुछ और करीब कर दिया.
उशिर झालाच शेवटी निघायला असं पुटपुटत भराभर बगिचा गाठला आणि गोल गोल चकरा मारायला सुरूवात केली , तीन चार चकरांनंतर पावलांचा वेग आपोआपच थोडा मंदावला , आणि नजरही अगदीच नाकासमोर चालायचं सोडून चुकार मुलासारखी आजूबाजू भिरभिरायला लागली , एव्हाना अगदी गडीगूप असलेले कानही भवतालचे आवाज टिपण्यात अगदी गुंतून गेले कुहूकुहू चा गोड आवाज कानी साठवून घेतांना आज भारद्वाज दिसावा असं मनात येतंय तेवढ्यात मी एकदम दचकलेच …..केवढं गडगडाटी हास्य कानावर आदळलं कुठूनतरी ..कुठल्या दिशेने हा गडगडाट होतोय याचा वेध घेतेय तर काय ..दोन्ही हात कंबरेवर ठेवून मागे झुकून आकाशाच्या दिशेने आ वासत एक हाफ चड्डी t shirt मधलं महाकाय धूड एकटंच हास्याची आवर्तनांवर आवर्तनं पार पाडत होतं ..! बापरे …केवढी एकरूपता , तन्मयता , आजूबाजूच्यांचा विसर पाडणारी ! आणि केवढी ही अघोरी तपश्चर्या …आजूबाजूच्यांना हादरवून सोडणारी
गडगडाटी वातावरणाचे जराही तरंग चेहऱ्यावर उमटू न देता न डगमगता एक सुशांत मूर्ती अत्यंत स्थितप्रज्ञपणे समोरच्याच बाकावर सुखासनात बसलेली आणि ओंकाराच्या गहन साधनेत गढून गेलेली आढळली ..खरंच अद्वैताशी एकरूप होण्याचा हा मार्ग किती भंवतालाचा विसर पाडणारा असू शकतो याचं एक जिवंत उदाहरणच डोळ्यासमोर होतं माझ्या …
धाडधाड आवाजाने एकदम भानावर आले आणि जरा बाजू सरकले …अहाहा काय मस्त दुक्कल होती मैत्रिणींची ..मस्त पोनी बांधलेली ..ट्रॅक सूट घातलेला ..आणि पायातल्या शूज चा आवाज करत पळा पळा ..कोण पुढे पळे तो अशी स्पर्धा करत रस्त्यातल्या सगळ्यांना अंगचोरपणा करायला भाग पाडत बिंधास पळापळ चालली होती दोघींची ! सक्काळ सक्काळ चकाट्या पिटणाऱ्या टोळक्याकडे दुर्लक्ष करत थोडं जिम मारू म्हटलं तर काय चक्क एकही instrument रिकामं नाही !भरीला भर म्हणून चक्क घुंघट ओढलेली उताराकडे झुकलेली स्त्री air skier वर
स्वार झालेली पाहीली आणि मग काय बघतच राहीले तिच्याकडे , तिचं सराईतासारखं पाम व्हील फिरवणं , मिनी स्कीवर लीलया स्वार होणं , waist twister चा समोरून मागून वापर करणं , आणि एकूणच सगळ्या instruments शी तिने साधलेली जवळीक तर चाट करणारी होती ..!
वयाचा अडसर , जागेचा अडसर , वेड्या वाकड्या पसरलेल्या देहाचा अडसर कश्शालाही न जुमानता , सारे निर्बंध झुगारून मुक्तपणे चाललेली समस्त मंडळींची ती निरामय आरोग्याची आराधना अगदी भान हरपायला लावणारी होती ….! प्रत्येकाचे ध्येय एकच पण त्या ध्येयाप्रतीची वाटचाल वेगळी , आणि वाटचालीतली रंगत ही आगळी ! मिळून सारी …ह्या खेळात मग मीही सामिल झाले … शाळेची PT आठवली , सरांची कडक नजर आठवली आणि त्यांच्याच चालीत एक,दो , तीन, चार . पाच ,छे , सात, आठ . आठ ,सात ,छे पाच , चार तीन दो एक असे लहानपणी गिरवलेले PT चे धडे मन आणि शरीर मोठ्या प्रेमाने गिरवायला लागले ! (आणि हो , हे धडे गिरवतांना मोठमोठ्याने टाळ्या पिटत जाणारं एक कपल माझ्यासमोरून गेलं तेव्हा त्या टाळकुटीने किती ऊर्जा त्यांना मिळत असणार याची नोंद घेणाऱ्या अगोचर मनाला दमदाटी करायला मी अजिब्बात विसरले नाही हं !)
खरंच सकाळचे मॉर्निंग walk ने गजबजलेले रस्ते , फुललेल्या बागा , अत्यंत वयस्कर मंडळींनी काठी टेकत टेकत शांतपणे घराच्या अंगणात मारलेल्या फेऱ्या बघितल्या आणि आजकाल माणूस किती health conscious झालाय हे जाणवायला लागलं . त्याचं असं हे health conscious होऊन निसर्गाच्या सान्निध्यात राहून , मन प्रसन्न ठेवणं , निकोप ठेवणं ही एक प्रकारे निरामय समाजस्वास्थ्याची नांदीच नव्हे काय !
एक कमरे का दृश्य: एक तख़्त, दो कुर्सियाँ एक मेज। मेज पर कागज, कलम, कुछ पुस्तकें, कोने में कृष्ण जी की मूर्ति या चित्र, सफ़ेद वस्त्रों में आँखों पर चश्मा लगाए एक युवती और कमीज, पैंट, टाई, मोज़े पहने एक युवक बातचीत कर रहे हैं। युवक कुर्सी पर बैठा है, युवती तख़्त पर बैठी है।
नांदीपाठ: उद्घोषक: दर्शकों! प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक लघु नाटिका ‘विश्वास’। यह नाटिका जुड़ी है एक ऐसी गरिमामयी महिला से जिसने पराधीनता के काल में, परिवार में स्त्री-शिक्षा का प्रचलन न होने के बाद भी न केवल उच्च शिक्षा ग्रहण की, अपितु देश के स्वतंत्रता सत्याग्रह में योगदान किया, स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में असाधारण कार्य किया, हिंदी साहित्य की अभूतपूर्व श्रीवृद्धि की, अपने समय के सर्व श्रेष्ठ पुरस्कारों के लिए चुनी गयी, भारत सरकार ने उस पर डाक टिकिट निकाले, उस पर अनेक शोध कार्य हुए, हो रहे हैं और होते रहेंगे। नाटिका का नायक एक अल्प ज्ञात युवक है जिसने विदेश में चिकित्सा शिक्षा पाने के बाद भी भारतीयता के संस्कारों को नहीं छोड़ा और अपने मूक समर्पण से प्रेम और त्याग का एक नया उदाहरण स्थापित किया।
युवक: ‘चलो।’
युवती: “कहाँ।”
युवक: ‘गृहस्थी बसाने।’
युवती: “गृहस्थी आप बसाइए, मैं नहीं चल सकती?”
युवक: ‘तुम्हारे बिना गृहस्थी कैसे बस सकती है? तुम्हारे साथ ही तो बसाना है। मैं विदेश में कई वर्षों तक रहकर पढ़ता रहा हूँ लेकिन मैंने कभी किसी की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा।’
युवती: “यह क्या कह रहे हैं? ऐसा कुछ तो मैंने आपके बारे में सोचा भी नहीं।”
युवक: ‘फिर क्या कठिनाई है? मैं जानता हूँ तुम साहित्य सेवा, महिला शिक्षा, बापू के सत्याग्रह और न जाने किन-किन आंदोलनों से जुड़ चुकी हो। विश्वास करो तुम्हारे किसी काम में कोई बाधा न आएगी। मैं खुद तुम्हारे कामों से जुड़कर सहयोग करूँगा।’
युवती: “मुझे आप पर पूरा भरोसा है, कह सकती हूँ खुद से भी अधिक, लेकिन मैं गृहस्थी बसाने के लिए चल नहीं सकती।”
युवक: ‘समझा, तुम निश्चिन्त रहो। घर के बड़े-बूढ़े कोई भी तुम्हें घर के रीति-रिवाज़ मानने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, तुम्हें पर्दा-घूँघट नहीं करना होगा। मैं सबसे बात कर, सहमति लेकर ही आया हूँ।’
युवती: “अरे बाप रे! आपने क्या-क्या कर लिया? अच्छा होता सबसे पहले मुझसे ही पूछ लेते, तो इतना सब नहीं करना पड़ता।, यह सब व्यर्थ हो गया क्योंकि मैं तो गृहस्थी बसा नहीं सकती।”
युवक: ‘ओफ्फोह! मैं भी पढ़ा-लिखा बेवकूफ हूँ, डॉक्टर होकर भी नहीं समझा, कोई शारीरिक बाधा है तो भी चिंता न करो। तुम जैसा चाहोगी इलाज करा लेंगे, जब तक तुम स्वस्थ न हो जाओ और तुम्हारा मन न हो मैं तुम्हें कोई संबंध बनाने के लिए नहीं कहूँगा।’
युवती: “इसका भी मुझे भरोसा है। इस कलियुग में ऐसा भी आदमी होता है, कौन मानेगा?”
युवक: ‘कोई न जाने और न माने, मुझे किसी को मनवाना भी नहीं है, तुम्हारे अलावा।’
युवती: “लेकिन मैं तो यह सब मानकर भी गृहस्थी के लिए नहीं मान सकती।”
युवक: ‘अब तुम्हीं बताओ, ऐसा क्या करूँ जो तुम मान जाओ और गृहस्थी बसा सको। तुम जो भी कहोगी मैं करने के लिए तैयार हूँ।’
युवती: “ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं करने के लिए कहूँ।”
युवक: ‘हो सकता है तुम्हें विवाह का स्मरण न हो, तब हम नन्हें बच्चे ही तो थे। ऐसा करो हम दुबारा विवाह कर लेते हैं, जिस पद्धति से तुम कहो उससे, तब तो तुम्हें कोई आपत्ति न होगी?’
युवती: “यह भी नहीं हो सकता, जब आप विदेश में रहकर पढ़ाई कर रहे थे तभी मैंने सन्यास ले लिया था। सन्यासिनी गृहस्थ कैसे हो सकती है?”
युवक: ‘लेकिन यह तो गलत हुआ, तुम मेरी विवाहिता पत्नी हो, किसी भी धर्म में पति-पत्नी दोनों की सहमति के बिना उनमें से कोई एक या दोनों को संन्यास नहीं दिया जा सकता। चलो, अपने गुरु जी से भी पूछ लो।’
युवती: “चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ठीक कह रहे हैं लेकिन मैं जानती हूँ कि आप मेरी हर इच्छा का मान रखेंगे इसी भरोसे तो गुरु जी को कह पाई कि मेरी इच्छा में आपकी सहमति है। अब आप मेरा भरोसा तो नहीं तोड़ेंगे यह भी जानती हूँ।”
युवक: ‘अब क्या कहूँ? क्या करूँ? तुम तो मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ रहीं।’
युवती: “रास्ता ही तो छोड़ रही हूँ। मैं सन्यासिनी हूँ, मेरे लिए गृहस्थी की बात सोचना भी कर्तव्य से च्युत होने की तरह है। किसी पुरुष से एकांत में बात करना भी वर्जित है लेकिन तुम्हें कैसे मना कर सकती हूँ? मैं नियम भंग का प्रायश्चित्य कर लूँगी।”
युवक: ‘ऐसा करो हम पति-पत्नी की तरह न सही, सहयोगियों की तरह तो रह ही सकते हैं, जैसे श्री श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा रहे थे।’
युवती: “आपके तर्क भी अनंत हैं। वे महापुरुष थे, हम सामान्य जन हैं, कितने लोकापवाद होंगे? सोचा भी है?”
युवक: ‘नहीं सोचा और सच कहूँ तो मुझे सिवा तुम्हारे किसी के विषय में सोचना भी नहीं है।’
युवती: “लेकिन मुझे तो सोचना है, सबके बारे में। मैं तुम्हारे भरोसे सन्यासिनी तो हो गयी लेकिन अपनी सासू माँ को उनकी वंश बेल बढ़ते देखने से भी अकारण वंचित कर दूँ तो क्या विधाता मुझे क्षमा करेगा? विधाता की छोड़ भी दूँ तो मेरा अपना मन मुझे कटघरे में खड़ा कर जीने न देगा। जो हो चुका उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। विधि के विधान पर न मेरा वश है न आपका। चलिए, हम दोनों इस सत्य को स्वीकार करें। आपको विवाह बंधन से मैंने उसी क्षण मुक्त कर दिया था, जब सन्यास लेने की बात सोची थी। आप अपने बड़ों को पूरी बात बता दें, जहाँ चाहें वहाँ विवाह करें। मैं बड़भागी हूँ जो आपके जैसे व्यक्ति से सम्बन्ध जुड़ा। अपने मन पर किसी तरह का बोझ न रखें।”
युवक: ‘तुम तो चट्टान की तरह हो, हिमालय सी, मैं खुद को तुम्हरी छाया से भी कम आँक रहा हूँ। ठीक है, तुम्हारी ही बात रहे। तुम प्रायश्चित्य करो, मैंने तुमसे तुम्हारा नियम भंग कर बात की, दोषी हूँ, इसलिए मैं भी प्रायश्चित्य करूँगा। सन्यासिनी को शेष सांसारिक चिंताएँ नहीं करना चाहिए। तुम जब जहाँ जो भी करो उसमें मेरी पूरी सहमति मानना। जिस तरह तुमने सन्यास का निर्णय मेरे भरोसे लिया उसी तरह मैं भी तुम्हारे भरोसे इस अनबँधे बंधन को निभाता रहूँगा। कभी तुम्हारा या मेरा मन हो या आकस्मिक रूप से हम कहीं एक साथ पहुँचे तो तुमसे बात करने में या कभी आवश्यकता पर सहायता लेने से तुम खुद को नहीं रोकोगी, मुझे खबर करोगी तुमसे बिना पूछे यह विश्वास लेकर जा रहा हूँ। तुम यह विश्वास न तो तोड़ सकोगी, न मना कर सकोगी। तुम अशिक्षा से लड़ रही हो, मैं अपने ज्ञान से बीमारियों से लड़ूँगा। इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो एक ही होगी हमारी राह।’
कुछ समय तक युवक युवती की और देखता रहा, किन्तु युवती का झुका सर ऊपर न उठता देख और अपनी बात का उत्तर न मिलता देख नमस्ते कर चल पड़ा बाहर की ओर।
[मंच पर नांदी का प्रवेश: दर्शकों क्या आपने इन्हें पहचाना? इस नाटिका के पात्र हैं हिंदी साहित्य की अमर विभूति महीयसी महादेवी वर्मा जी और उनके बचपन में हुए बाल विवाह के पति जो चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने विदेश चले गये थे।]
(प्रस्तुत है सुश्री ज्योति हसबनीस जी की मानवीय सम्बन्धों पर आधारित व्यावहारिक लघुकथा ‘बीज अंकुरे अंकुरे’)
‘चालव रे, चालव सपसप हात जरा, तोंड आवर आता ! ‘ घामाच्या धारांनी निथळत असलेला माळी त्याच्या सहकाऱ्यावर डाफरला ! आकाशात ढगांची जमवाजमव झाली होती , हलकं वारं आणि सळसळती पानं जणू पावसाच्या आगमनाची वर्दीच देत होती . माती, खत , साऱ्याचा एक मोठ्ठा ढेपाळलेला ढिगारा , वाफ्यातल्या उपटलेल्या शेवंतीचा बाजूला पडलेला भारा , कीटकनाशकाचं भलं मोठं बोचकं , आणि ह्या साऱ्या अस्ताव्यस्त पार्श्वभूमीवर सारं वेळेवारी आटपेल ना ह्या विवंचनेत ओढगस्त चेहऱ्याने बागेत अस्वस्थपणे येरझारा घालणारी मी !
जवळ जवळ प्रत्येकच मान्सूनमध्ये हे चिरपरिचित दृष्य आमच्या बागेत हमखास बघायला मिळतं . सगळ्या बागकामाचा फडशा एकट्याने पाडणारा आमचा माळी मात्र आताशा एका सहकाऱ्याला बरोबर आणायला लागला होता. त्यांचं मातीखतात बरबटणं, झाडांना सुबक कापून शिस्तीत वाढवणं, रोपं लावणं, फुलवणं, निगा राखणं, अधून मधून आपला कसबी हात बागेवरून फिरवत तिचा चेहरा मोहरा पाsर बदलवणं, वर्षभर किती विविध कामं सफाईदारपणे पार पाडतात ही मंडळी ! अगदी हातावरचं पोट असतं त्यांचं ! मेहनत , बागकामाचं ज्ञान , आणि गाठीशी असलेला कामाचा अनुभव एवढ्या बळावर मिळेल तो बागेचा तुकडा इमाने इतबारे राखत , फुलवत खुष असतात ही मंडळी आपल्या संसाराच्या तारेवरच्या कसरतीत ! पण ह्या त्यांच्या कष्टांना जर त्यांनी संघटितपणाची जोड दिली तर ..! आणि त्या कल्पनेपाशी मी थबकलेच क्षणभर !
खरंच प्रचंड मेहनत करणारी ही कष्टकरी जमात संघटित का नाही होऊ शकत? माती रेतीखताचा योग्य समतोल राखून वाफे तयार करणं, बी बियाणं पेरून रोपं तयार करणं, तयार झालेली रोपं वाफ्यात लावणं, अधून मधून खुरपी करत मुळांना सुखाने श्वास घ्यायला मदत करणं, कीड फवारणं, सुरेख लॅंडस्केपिंग करणं, झाडांना विविध आकारांत आटोक्यात ठेवणं अशी किती विभागणी होऊ शकते कामाची ! जशी ज्याची मती तशी त्याची गती ह्या न्यायाने ज्याला त्याला आपल्या आवाक्यानुसार कामं वाटून घेता येतील, बोलण्यात सफाई आणि व्यवहारात रोखठोक असणारा गडी कामं मिळवून वाटून देईल, जो तो आपलं नेमून दिलेलं काम तर करेलच प्रसंगी दुसऱ्यासही मदतीसाठी आपणहून सरसावेल, खरंच एक जर सिस्टीम लावली कामाची तर किती गोष्टी सोप्या होतील त्यांच्या आणि आपल्यासाठी देखील किती सुखाचं होईल माळ्याकरवी पार पडणारं बागकाम ! आपल्या सुखासाठी वेठीस धरलेल्या ह्या कष्टकऱ्यांची ही जमात बघितली ना की मला खरंच असं सुचवावंसं वाटतं की ‘ बाबांनो, तुम्ही संघटित व्हा, आणि मिळून नियोजनबद्ध कष्ट करा , नक्कीच त्यातून चांगलंच निष्पन्न निघेल, त्याचा तुम्हालाच फायदा होईल ..! आणि आमची देखील परवड थांबेल. ‘मनात आलेले विचार त्याच्यासमोर मांडावे म्हणून मोठ्या उत्साहात मी त्याच्याकडे वळले आणि, ‘मॅडम काम झालं, निघतो मी, गुडियाला शाळेत सोडायचंय ‘असं म्हणत तो गेलादेखील!
माती खताचे ढिगारे बागेत जागोजागी वाफ्यांमध्ये विसावले होते, वाफा बालशेवंतीने अगदी लेकुरवाळा भासत होता. नव्या झिलईतली बाग खुपच झोकदार वाटत होती. आपल्या कष्टाचा हात बागेवरून मायेने फिरवून , कलाकुसर करून माझा माळी तर कधीच दिसेनासा झाला होता पण माझ्या मनात मात्र त्यांच्या संघटनशक्तीच्या कल्पनेची बीजं रोवली गेली होती! काहीतरी आकारत होतं, देता येईल का त्याला नीटस रूप ह्या विचारांत थेंब थेंब पडणाऱ्या पावसाचं रूपांतर सरी कोसळण्यात कधी झालं कळलं देखील नाही!
(हम श्री सदानंद आंबेकर जीके आभारी हैं, इस अत्यंत मार्मिक एवं भावप्रवणकाव्यात्मक आत्मकथ्य के लिए। यह काव्यात्मक आत्मकथ्य हमें ही नहीं हमारी अगली पीढ़ी के लिए भीपर्यावरणकेसंरक्षण के लिए एक संदेश है।श्री सदानंद आंबेकरजी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।गायत्री तीर्थशांतिकुंज, हरिद्वारके निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 सेनिरंतर प्रवास।)
(दो तीन दिन पूर्व एक निर्माणस्थल पर एक परिपक्व पेड़ को बेदर्दी से कटते देखा।पिछले आठ सालों से उसे देख रहा था।मैं कर तो कुछ नहीं पाया पर उसकी पुकार इन शब्दों में उतर आयी।सब कुछ ऐसे हीघटित हुआ है।)