हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 17 ☆ रौशनाई!☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “रौशनाई!”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 17 ☆

☆ रौशनाई!

ये क्या हुआ, कहाँ बह चली ये गुलाबी पुरवाई?

क्या किसी भटके मुसाफिर को तेरी याद आई?

 

बहकी-बहकी सी लग रही है ये पीली चांदनी भी,

बादलों की परतों के पीछे छुप गयी है तनहाई!

 

क्या एक पल की रौशनी है, अंधेरा छोड़ जायेगी?

या फिर वो बज उठेगी जैसे हो कोई शहनाई?

 

डर सा लगता है दिल को सीली सी इन शामों में,

कहीं भँवरे सा डोलता हुआ वो उड़ न जाए हरजाई!

 

ज़ख्म और सह ना पायेगा यह सिसकता लम्हा,

जाना ही है तो चली जाए, पास न आये रौशनाई!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

 

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अपवाद ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  अपवाद

 

एक ही पिता की

संतानों के स्वभाव

और संकल्प में

ध्रुवीय अंतर

नई बात नहीं है,

मेरी पीड़ा और

मेरी जिजीविषा भी

अपवाद नहीं हैं!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 14☆ मलाला हूँ मैं ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  सुमन बाजपेयी जी की प्रसिद्ध पुस्तक “मलाला हूँ मैं ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा . यह मलाला यूसुफजई  के संघर्ष की प्रेरक पुस्तक है । श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 14  ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – मलाला हूँ मैं   

 

पुस्तक – मलाला हूँ मैं 

लेखिका  – सुमन बाजपेयी

प्रकाशक –  राजपाल एण्ड सन्स, कश्मीरी गेट दिल्ली

 

☆ मलाला हूँ मैं – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

कल मैं अपनी लाइब्रेरी में से एक किताब “मलाला हूं मैं” पलट रहा था तभी मुझे एक व्हाट्सअप मैंसेज मिला जिसमें  कुरआन शरीफ पर लिखी गयी पंक्तियाँ उद्धृत की गई थी…. उस मैसेज ने मुझे हाथ में उठाई किताब पढ़ने पर विवश कर दिया. तालिबान के सरकारो को  हिला देने वाले आतंक के सम्मुख एक बच्ची के जिजिविषा पूर्ण संघर्ष को सरल शब्दो में बताने वाली यह किताब बहुत प्रेरक है.

स्वात घाटी पाकिस्तान में वैसे ही नैसर्गिक सुंदरता बिखेरती है जैसे भारत में काश्मीर. किन्तु तालिबान के कट्टर मुस्लिमवाद ने वहां का जनजीवन छिन्न भिन्न कर रखा है. बी बी सी में अपने पेन नेम गुलमकई नाम से वहां के हालात की डायरी लिखने वाली बच्ची मलाला लड़कियो के शिक्षा, खेलने, बोलने जैसे मौलिक मानव अधिकारो की पैरोकार के रूप में ऐसी स्थापित हो गई कि कलम के सम्मुख तालिबानो की बंदूके हिलने लगी थी, और परिणामतः मलाला पर कायराना हमला किया गया था.

खुशकिस्मत मलाला इस  हमले में लंबे संघर्ष के बाद बच गई और वैश्विक सुर्खियो बन गई. उसे २०१४ में नोबल शांति पुरस्कार सहित अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिले.

इस पुस्तक में छोटे छोटे चैप्टर्स में मलाला युसुफजई के बचपन, उसके संघर्ष और प्रसिद्धि को बहुत रोचक व प्रभावी तरीके से बताने में लेखिका सफल रही हैं. किताब के अध्याय हैं  “मलाला हूंमैं”, हिम्मत की मिसाल, स्वात की बेटी, चुना संघर्ष का रास्ता, उठाई आवाज, मेरा स्वात, शाइनिंग गर्ल, बढ़ती दहशत, डायरी में लिखी सच्चाई, हो गई चर्चित, राजनीतिक कैरियर, प्रसिद्धि बढ़ती गई, हुई क्रूरता की शिकार, पूरी दुनिया साथ हो गई, हर घर में मलाला, काम आई दुआयें, सपना पूरा हुआ, बन गई एक रोशनी, संयुक्त राष्ट्र संघ में दिया गया भाषण, सम्मान व पुरस्कार, एक गजल मलाला के नाम.

किताब इसलिये भी आज प्रासंगिक है क्योकि पाकिस्तान हर मोर्चे पर धराशायी हो रहा है पर दुनियां में आतंक का नासूर खत्म होने ही नही आ रहा. भारत में सरकार तीन तलाक, मदरसो की शिक्षा पर बेहतर करने का यत्न  कर रही है किन्तु अभी भी धर्म की  सही व्याख्या समझे बिना शरीयत के पैरोकार सुधारवादी कदमो का विरोध करते दिखते हैं. मलाला सिर्फ एक महिला नही, उसके इरादे को एक आंदोलन एक वैश्विक जुनून बनाये जाने की जरूरत है.

निदा फाजली की गजल है ..

मलाला , आंखें तेरी चांद और सूरज
तेरा ख्वाब हिमाला
झूठे मकतब में सच्चा कुरान पढ़ा है तूने
अंधियारो से लड़नेवाली तेरा नाम उजाला

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 8– ☆ निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे – कवयित्री इंदिरा संत ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जीअपने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के  माध्यम से  वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे – कवयित्री इंदिरा संत”.  यह आलेख साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित सुप्रसिद्ध मराठी कवयित्री इंदिरा संत जी  की रचनाओं पर आधारित है ।  थे। इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 8 ☆

☆ निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे – कवयित्री इंदिरा संत☆ 

विसाव्या शतकातील एक नावारूपाला आलेली, राजमान्यता पावलेली कवयित्री म्हणून ‘इंदिरा संत’ ओळखल्या जातात. ४ जानेवारी १९१४ साली जन्मलेल्या ह्या थोर कवयित्रीने आपल्या संवेदनशील आणि सहजसुंदर लिखाणाने रसिकवाचनांवर मोहिनी तर घातलीच पण आपल्या आशयघन कविता, ललितगद्य लेखनाने मराठी साहित्यविश्व देखील अधिकच समृद्ध केले. ‘कविता हा माझ्या लेखनाचा आणि जगण्याचा गाभा आहे’ असे त्या स्वत:बद्दल म्हणत. ‘शेला’ ’मेंदी’ ’रंगबावरी’ह्या कवितासंग्रहांना राज्य शासनाचा पुरस्कार मिळाला तर त्यांच्या ‘गर्भरेशीम’ ह्या कविता संग्रहाला साहित्य अकादमीच्या पुरस्काराने गौरविले गेले. आज ह्या कवयित्रीची अतिशय गोड कविता घेऊन मी येतेय.

☆ निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे ☆

निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे

झुबे लालसर ल्यावे कानी ;

जरा शीरावे पदर खोचुनी

करवंदीच्या जाळीमधुनी.

 

शीळ खोल ये तळरानातून

भणभण वारा चढ़णीवरचा;

गालापाशी झील्मील लाडीक

स्वाद जीभेवर आंबट कच्चा.

 

नव्हती जाणीव आणि कुणाची

नव्हते स्वप्नही कुणी असावे;

डोंगर चढ़णीवर एकटे

किती फीरावे… उभे रहावे.

 

पुन्हा कधी न का मिळायचे

ते माझेपण आपले आपण;

झुरते तन मन त्याच्यासाठी

उरते पदरी तीच आठवण…

 

निवडुंगाच्या लाल झुब्याची,

टपोर हिरव्या करवंदाची…

 

स्वैर बालपण, आपल्यातच दंग असलेली स्वप्नाळू, मुग्ध तारूण्यावस्था ह्या साऱ्याला मागे टाकत काळ भराभर पुढे जातो. अनेक जवाबदाऱ्या समर्थपणे पेलत कर्तेपणाची झूल आपल्या नकळतच आपण मिरवू लागतो. व्यवहाराची गणितं सोडवण्यात, य़शापयशाच्या नोंदी ठेवण्यात, जीवनाचा ताळेबंद मांडण्यात जीवाचं निवांतपण हरवल्यागत होतं. आणि मग आठव येतो तो त्या बेभान बेधुंद काऴाचा !

मन कघीच पोहोचतं त्या निवडुंगाच्या झाडापाशी. आणि असंख्य आठवणींचं मोहोळ एका क्षणात उडतं. लाल झुब्यांनी नटलेला तो निवडुंग, त्या टप्पोरल्या करवंदीच्या भरदार जाळ्या, ती डोंगराची चढण, तो दऱ्याखोऱ्यातून भणाणत्या वाऱ्याचा शीळभरला नाद, ती आंबट कच्ची करवंदाची गालात घोळणारी जीभेवर रेंगाळणारी चव, आणि स्वत:च्याच मस्तीतले स्वत:पलिकडे नसलेले बेधुंद मन ! किती वारा प्यावा, किती आसमंत निरखावा, आणि किती निसर्ग अंगावर घ्यावा…साऱ्याचा मनसोक्त आनंद लुटतांना कधी दुसऱ्या कुणाचा विचार  देखील

मनाला शिवला नाही आणि शिवणार कसा..स्वत:तच रमलेल्या मनात इतर कुणाचा शिरकाव होईलच कसा..!

पुन: ते सारं अनुभवावं ह्याची ओढ कवयित्रीला लागली आहे. तसं शांतपण, निवलेपण, भारलेपण, स्वमग्न बेधुंदपण पुन: जगता येईल का तेवढ्याच असोशीने असा एक हलका तरंगही मनात तिच्या उमटून जातो.

*पुन्हा कधी न का मिळायचे

ते माझेपण आपले आपण

झुरते तनमन त्याच्यासाठी

उरते पदरी तीच आठवण*

ह्यातून तिची साशंकता तिने व्यक्त केलीय. सारी बंधनं झुगारून द्यावीत, काळाची पावलं उलटी पडावीत, पुन: एकदा ते स्वैर क्षण अनुभवावे, रसरसून जगावे, कधी तरी आपल्याही मनात असं तरळून जातंच ना !

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #24 – कुर्बान जिस्म जाँ ये, मेरी यहाँ वतन पर ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण हिंदी ग़ज़ल  “कुर्बान जिस्म जाँ ये, मेरी यहाँ वतन पर”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 24 ☆

 

☆ कुर्बान जिस्म जाँ ये, मेरी यहाँ वतन पर ☆

 

कुर्बान जिस्म जाँ ये मेरी यहाँ वतन पर

मैं नाम खुद लिखूंगा मेरा वहाँ कफ़न पर

 

मैं हाथ तोड़ दूंगा गद्दार के कसम से

कोई न हाथ डाले अब देश की बहन पर

 

झंडा सफे़द लेकर शव को उठाने आओ

गिनलो निशान सारे ना’पाक’ इस बदन पर

 

बारूद कम हुआ है अल्लाह की फ़जल से

अब फूल ही खिलेंगे कश्मीर के चमन पर

 

दुनिया समझ गई है दमख़म यहाँ हमारा

अब नाम हिंद का मैं लिख दूं वहाँ गगन पर

 

शांति की राह पर हम चलते रहे निरंतर

विश्वास है हमारा गांधी के उस भजन पर

 

भूखा किसान क्यो है इसका जवाब चुप्पी

कुछ साथ दे रहे हैं नेता बडे गबन पर

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 24 – आज  की नारी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर  आलेख   “आज  की नारी ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 24 ☆

☆ लेख – आज  की नारी ☆

कविवर जयशंकर प्रसाद की रचना है –

” नारी तुम केवल श्रद्धा हो

विश्वास रजत नग पग तल में,

पीयूष स्रोत सी बहा करो

जीवन के सुंदर समतल में।”

यूं तो सबके जीवन में कोई ना कोई कहानी अवश्य ही होती है। किसी की लंबी, किसी की छोटी  कोई रोचक, भाव प्रद, तो कोई हृदयस्पर्शी। कोई बहुत ही आक्रमक, तो कोई आकर्षण से परिपूर्ण। कोई ममता से सरोकार तो कोई हृदय विहीन। परंतु यह सब भावनाएं, कहानियाँ जिसके आसपास होती हैं वो है नारी।

परमात्मा ने हमको इस मानवीय काया के रूप में जो अनुपम उपहार दिया है। उसकी तुलना किसी भी अन्य अनुदान से कर पाना संभव नहीं है। वो जीवन जिसे प्राप्त करने के लिए देवी-देवता भी लालायित रहते हैं वह है मनुष्य जीवन। मनुष्य जीवन के रूप में मिले अवसर को यदि सौभाग्य का नाम दिया जाए तो उसे ही नारी कहा जाता है।

*यत्र नारी पूज्यंते रमंते तत्र देवता*

अर्थात जहां नारी (सृष्टि) की पूजा होती है। वहां देवता अपने आप निवास करते हैं। और नारी की गरिमा को आज सहज ही स्वीकारा जाता है। धरती माता से लेकर भारत माता, मां गंगा से लेकर मां गायत्री देवी तक नारी शक्ति का ही चित्रण और पूजन होता है। यदि कोई जीवन चाहता है और इस पृथ्वी पर उसे आना है तो बिना मां (नारी) के कृपा पात्र के बिना यह संभव नहीं हो सकता है।

नारी भारतीय संस्कृति का आधार स्तंभ है। अपने प्राणों कि न्योछावर कर उन्होंने संपूर्ण सृष्टि में अपना स्थान देवी के रूप में स्थापित कर लिया है। तभी शास्त्रों में पूजनीय है। इतिहास साक्षी है जब-जब घोर संकट का सामना करना पड़ा है, नारी शक्ति ही सामने आकर उनका संहार करती है।जब-जब उनकी परीक्षा लेनी चाही तब-तब उन्होंने पुरुष बल को ही अपना हथियार बना लिया। याद करिए माता अनुसूया के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेने स्वयं ब्रह्मा  विष्णु और शिव जी आए। मां अनुसूया ने अपने पतिव्रत धर्म और अपने पति की ताकत का वास्ता देकर तीनों भगवान को बाल रूप में कर लिया था। और अपने धर्म का पालन किया था। नारी शक्ति संपूर्ण ब्रह्मांड को हिला सकती है। आज भारतीय समाज को ऐसे ही संकल्प की धनी नारी की आवश्यकता है। जिसके संकल्प बल से त्रिमूर्ति को झुकना पड़े।

नारी सृष्टि निर्माता की आदित्य रचना है। नारी के अभाव में सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह एक ऐसा छायादार वृक्ष है जिसकी छाया के अभाव में मनुष्य अपनी आशा- आकांक्षाओं के विषय में उदासीन ही रहेगा। प्रत्येक माता-पिता की इच्छा होती है कि उनके यहां संतान उत्पन्न हो। संतान के अभाव में परिवार अपूर्ण रहता है। जिस घर के आंगन में बच्चों की किलकारियां नहीं गूंजती, वह घर बिना सुगंधी के पुष्प के समान दिखाई देता है। यह संतान रूपी धन दो रूपों में प्राप्त होता है:-पुत्र  अथवा पुत्री। पहले हमेशा से देखा जाता रहा कि माता-पिता पुत्र की कामना करते थे। पर अब समय बदल गया है बेटा हो या बेटी माता पिता अपने बच्चे के लिए सुंदर स्वस्थ और स्वावलंबी जीवन की कामना करते हैं। पुराने समय से कुछ तो अंतर आ गया है। अब समाज में यह कहा जाने लगा कि “मेरी बेटी मेरा अभिमान” मेरा गर्व और क्यों ना हो वर्तमान स्वरूप में आज हम देख रहे हैं कि राजनीति के क्षेत्र में, शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में, समाज सेवा के क्षेत्र में, हवाई सेवा से लेकर रेल सेवा और अन्य उद्योग धंधों के विकास में भी नारी अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। किसी ने सच ही कहा है :-

 “एक कदम जो मेरा बढाओगे

दस कदम स्वयं आगे बढ़ा लूंगी मैं,

प्रोत्साहन व सहयोग जो दोगे

अंतरिक्ष कर दिखा दूंगी मैं”

अक्सर हमें ज्ञान मिलता है कि दो रूपों को जाना जाता है। (1)आकृति (2)प्रकृति। आकृति को समझना बड़ा ही आसान है कि बाहरी वातावरण, एक रूप, रंग, बनावट जिस की संरचना हो, इसी को आकृति कहते हैं। और जब प्रकृति कहा जाता है तब इसकी आंतरिक रचना जिसमें सारा सृष्टि समाया हुआ है और इसी सृष्टि का नाम ही *नारी* है, जिसके लिए स्वयं ब्रह्मदेव ने भी कहे हैं:-

 “देख जिसकी शक्ति को।

भयभीत होता दुष्ट दल हो।।

नारी तुम ही कल।

आज और कल हो।।

संगठन की शक्ति।

विचारों का मंथन हो।।

नारी तुम ही इस सृष्टि में।

नव पल्लव हो।।”

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (23) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( अन्य देवताओं की उपासना का विषय )

 

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌।

देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ।।23।।

 

अल्प बुद्धि जन का रहा,अस्थिर सा विश्वास

देव भक्त पाते देव को मेरे , मेरे पास।।23।।

 

भावार्थ :  परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।।23।।

 

Verily the reward (fruit) that accrues to those men of small intelligence is finite. The worshippers of the god go to them, but my devotees come to me.।।23।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – शैली ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  शैली 

…हरेक की अपनी विशिष्ट शैली होती है। आपकी अपनी दृष्टि में आपकी शैली की कौन सी विशेषता उसे अन्य शैलियों से अलग करती है?

…यह शैली ज़िंदगी के मर्सिया नहीं पढ़ती बल्कि मौत के सोहर गाती है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(31.10.2013)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 21 – लाल बत्ती की इज्जत ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक कहानी “लाल बत्ती की इज्जत। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 21☆

 

☆ लघुकथा – लाल बत्ती की इज्जत  

 

“——- हलो…. बेटा तुम्हारे पापा अस्पताल में बहुत सीरियस हैं तुम्हें बहुत याद कर रहे हैं, उनका आखिरी समय चल रहा है। यहां मेरे सिवाय उनका कोई नहीं है। कब आओगे बेटा ?”

माँ चिल्लाती रही, बड़बड़ाती रही पर अमेरिका में नौकरी करने गए एकलौते बेटे को फुरसत नहीं मिली। बेटे के इंतजार में पिता की आंखें फटी रह गईं, सांस रुक गई, पर बेटे ने खोज खबर नहीं ली।

पिता को गए कई साल हो गये तो बेटे की पत्नी को लगा कि माँ भी अचानक चली गई तो मुंबई के मंहगे फ्लैट और नासिक की सौ एकड़ जमीन का क्या होगा…..?

मंहगे फ्लैट और मंहगी जमीन के लोभ में पति-पत्नी चिंतित रहने लगे।

एक दिन बेटा फ्लाइट से मुंबई पहुंचा। माँ को समझाया कि माँ क्यों न हम नासिक की सौ एकड़ जमीन और मुंबई का मंहगा फ्लैट बेच दें और फिर स्थाई रूप से तुम मेरे पास अमेरिका में रहो। तुम्हारी बहू दिनों रात तुम्हारी सेवा करेगी। बेटे की बातों में आकर माँ ने करोड़ों की जमीन और कई करोड़ का फ्लैट बेच दिया। बेटे ने सारा पैसा अपने विदेशी बैंक में जमा किया और माँ को लेकर एयरपोर्ट की कुर्सी में बैठ गया, माँ के साथ बढ़िया भोजन किया और थोड़ी देर बाद कोई बहाना बना कर कहीं चला गया माँ रास्ता देखती रही। पूरी रात जागती रही। वह नहीं आया, तब माँ हड़बड़ाहट में उस ओर भागी जिस ओर उसका बेटा यह कहकर गया था कि वह थोड़ी देर बाद आ जायेगा।

परेशान रोती हुई उसने सुरक्षा गार्ड से बेटे का हुलिया बताते हुए खोज खबर ली तो पता चला कि उसका बेटा रात की फ्लाइट से ही अमेरिका उड़ गया है। उसे विश्वास नहीं हुआ, वह सुरक्षा गार्ड को धक्का देने लगी…. पुलिस ने आकर उसे गिरफ्तार कर लिया। क्योंकि, वो लाल बत्ती के नियमों का उल्लंघन कर रही थी। जब लाल बत्ती जल रही हो तो लाल बत्ती की इज्जत करनी चाहिए।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिंदी साहित्य – सफरनामा ☆ नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण # 5 – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से ☆ – श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

(विगत सफरनामा -नर्मदा यात्रा प्रथम चरण  के अंतर्गत हमने  श्री सुरेश पटवा जी की कलम से हमने  ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा किया था। इस यात्रा की अगली कड़ी में हम श्री सुरेश पटवा  जी और उनके साथियों द्वारा भेजे  गए  ब्लॉग पोस्ट आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। इस श्रंखला में  आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे।

इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास कर रहे हैं। उनके सहयात्री  तथा गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा नर्मदा यात्रा संस्मरण उनके दृष्टिकोण से प्रस्तुत कर रहे हैं। आज के ही अंक में उनके संस्मरण की दूसरी कड़ी प्रकाशित की गई है। निश्चित ही आपको नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इन पंक्तियों के लिखे जाते तक  यह यात्रा पूर्ण हो चुकी है। आज प्रस्तुत है नर्मदा यात्रा  द्वितीय चरण पर श्री सुरेश पटवा जी  के यात्रा संस्मरण की पांचवी एवं अंतिम कड़ी।  )  

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆ सफरनामा – नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण # 5  – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से ☆ 

☆ झाँसी घाट से सतधारा घाट ☆
(104  किलोमीटर) 

नर्मदा अमरकण्टक से निकलकर डिंडोरी-मंडला से आगे बढ़कर पहाड़ों को छोड़कर दो पर्वत शृंखलाओं दक्षिण में सतपुड़ा और उत्तर में कैमोर से आते विंध्य के पहाड़ों के समानांतर दस से बीस किलोमीटर की औसत दूरी बनाकर अरब सागर की तरफ़ कहीं उछलती-कूदती, कहीं गांभीर्यता लिए हुए, कहीं पसर के और कहीं-कहीं सिकुड़ कर बहती है। उसके अलौकिक सौंदर्य और आँचल में स्निग्ध जीवन के स्पंदन की अनुभूति के लिए पैदल यात्रा पर निकलना भाग्यशाली को नसीब होता है।

यह यात्रा वानप्रस्थ के द्वारा सभ्रांत मोह से मुक्ति का अभ्यास भी है। जिस नश्वर संसार को एक दिन अचानक या रोगग्रस्त होकर छोड़ना है क्यों न उस मोह को धीरे-धीरे प्रकृति के बीच छोड़ना सीख लें और नर्मदा के तटों पर बिखरे अद्भुत प्राकृतिक जीवन सौंदर्य का अवलोकन भी करें।

पीछे टाँगने वाले  हल्के बैग में एक जींस या पैंट के साथ फ़ुल बाहों की तीन शर्ट एक जोड़ी पजामा कुर्ता, एक शाल, तोलिया और अंडरवेयर, साबुन तेल रखकर कर चले। वैसे तो आश्रम और धर्मशालाओं में भोजन की व्यवस्था हो  जाती है फिर भी रास्ते में ज़रूरत के लिए समुचित मात्रा में खजूर, भूनी मूँगफली, भुना चना और ड्राई फ़्रूट, पानी की बोतल और एक स्टील लोटा के साथ एक छोटा चाक़ू भी रख उतर पड़े समर में।

कहीं कुछ न मिले तो परिक्रमा वासियों का मूलमंत्र “करतल भिक्षु-तरुतल वास” भी आज़माना जीवन का एक विलक्षण अनुभव रहा।

 

हम सभी परिक्रमा वासियों में जगमोहन अग्रवाल सबसे वरिष्ठ हैं, लेकिन वे सबसे ज़्यादा मज़बूती और जूझारूपन से यात्रा में भाग लेते हैं। उनके पैरों में तकलीफ़ है इसलिए घुटने ज़मीन पर टेककर पंद्रह किलो का भार खड़े हो पाते हैं। अन्य शारीरिक दिक़्क़तों के बावजूद वे निरंतर यात्रा करते रहे। उन्होंने कभी भी नहीं कहा कि वे परेशानी में हैं, नर्मदा जी में उनकी उनकी आस्था प्रबल है। नरसिंहपुर जिले की गाड़रवाडा तहसील के कौंडिया ग्राम के मूल निवासी हैं। जहाँ कभी कौंड़िल्य ऋषि का आश्रम हुआ करता था। जीवंतता, जीवटता और जूझारूपन उनकी सबसे बड़ी पूँजी है।

नर्मदा परिक्रमा दुनिया की सबसे कठिन यात्राओं में से दुरुह यात्रा है। हिंदू हज़ारों सालों से इस यात्रा को करते आ रहे हैं। इस यात्रा के सामने डिस्कवरी चैनल की नक़ली साहसिक यात्राएँ कहीं नहीं लगतीं क्योंकि उनमें ड्रोन केमरा, सैटलायट इमेज, फ़ोटो ग्राफ़र दल और सपोर्ट के रूप में मेडिकल टीम वहाँ साथ चलते हैं, उनके पास बेहतरीन जीवन रक्षक दवाएँ और आकस्मिक जोखिम से निपटने के अस्त्र होते हैं।

नर्मदा यात्रा का कोई तैयार रास्ता नहीं होता क्योंकि प्रत्येक वर्ष नर्मदा के भीषण प्रवाह में सारे किनारे कट कर रास्तों को धो डालते हैं। नर्मदा तेज़ बहाव से कहीं किनारों को तोड़ डालती है, कहीं कँपा छोड़ जाती है, कहीं किसान कछारी खेतों को बखर कर पैदल चलना दूभर कर देते हैं, कहीं स्प्रिंकलर की सिंचाई के कारण कीचड़ से से सने खेतों में क़दम रखने से ऐडी तक पैर गंपते हैं, कहीं नुकीली धारदार पहाड़ी पर चलना ठीक वैसा ही है जैसे खड़ी दीवार पर छिपकली जैसे पैर जमाकर खिसकना, कहीं पहाड़ी नालों की गहराई को फिसल कर पार करना।

उस पर भोजन और ठहरने की व्यवस्था का कोई ठिकाना नहीं, ऐसी विषम परिस्थितियों में नौ दिनों में 104 किलोमीटर की पदयात्रा सारा अहंकार तोड़ कर रख देती है। इसके सामने यूथ होस्टल की ट्रैकिंग बच्चों का मन बहलाव है।

1,65,181 क़दम की यात्रा के दौरान जिन आश्रमों और उनके स्वामियों संचालकों के आश्रय और भोजन दिया वे साधुवाद के पात्र हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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