English Literature – Book-Review/Abstract – In the Flickering of an Eye – Ms. Neelam Saxena Chandra

In the Flickering of an Eye

A novel written by Ms. Neelam Saxena Chandra by LiFi Publications

Twenty five years worth of ‘what ifs’ and ‘if onlys’ have haunted and tortured Vinay. He cannot help but go back in time again and again to that one moment that changed his life forever. A chance encounter with a person from his past, and a journey through the majestic hills of Kalimpong lead him to some of his answers, in the form of an elusive woman, who bears a striking resemblance to the woman he loved and lost. Will he finally get his happily-ever-after? Or will his story, tarnished when he was nineteen by the gotra system, forever be punctuated with too many full stops?

Milind Uikey, Film Director Bollywood – This novel opens up the complexities of a novel writing through intricate inner world of writer himself.

Major Mohammed Ali Shah, Actor Bollywood – A very well narrated tale, engrossing from the beginning to the end

I. Puri, Art Writer, Curator & Documentarian – This novel is a beautifully imagined work, the story of a young couple in India today standing up to fight against caste prejudice.

Read on to find out more.

Excerpts from the book – In the Flickering of an Eye   

Both of them got down from the car. Vinay took his trolley bag and began moving in the direction of the station. Taking the bag in his hand, Anuj said, “If you don’t mind let me leave you till the train.”

Vinay objected vehemently at first. He did not like anyone helping him. However, Anuj’s words melted him. He said, “Would you have said no if I was your own son?”

Both of them walked silently. The train was stationed already at the platform. Anuj kept Vinay’s luggage below his berth, touched his feet and was about to leave when Vinay suddenly muttered, “Vinu did not die, Anuj. Neither did Manju.”

Anuj looked at him questioningly. However, Vinay was quiet as before. The engine whistled. Train began moving at slow speed. Anuj looked at Vinay again as if to ensure that what he had heard was indeed correct. However, Vinay had begun looking outside. Anuj quietly got down from the train.

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हिन्दी साहित्य – कविता – ‘नदी रुकती नहीं ’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

 

नदी रुकती नहीं 

 

पहाड़ से गिरकर भी

घुटने नहीं टेकती

उछलती,उफनती हुई

आगे बढ़ती है

शिलाखण्डों को दोनों हाथों से

ढकेलती है

यह नदी है

नदी रुकती नहीं

कहीं ठहरकर

उसे झील नहीं बनना है

कोई पोखर नहीं होना है

काई-कुंभी नहीं ढोना है

उसे बस बहना है

बहना ही है

नदी की असली पहचान

अपनी पहचान उसे नहीं खोना है

यही तो नदी का नदी होना है.

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – जीडीपी आगे नागरिक पीछे – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

जीडीपी आगे नागरिक पीछे
(प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का व्यंग्य  जीडीपी आगे नागरिक पीछे आपको जीडीपी की सांख्यिकीय  बाजीगरी के खेल और साधारण नागरिक की व्यथा पर विचार करने के लिए अवश्य मजबूर कर देगा।)
अश्विन एक नंबर से फेल हो गया. आधे नंबर का सवाल गलत हुआ और आधा नंबर माइनस मार्किंग में चला गया. नौकरी में भर्ती की प्रतियोगितात्मक परीक्षा. सीधा, सिंपल, स्ट्रेट जीके का सवाल. तीसरी तिमाही में भारत की जीडीपी दर कितनी थी ?सुबह के अखबारों में 6.8  प्रतिशत थी. परीक्षा देकर बाहर निकला तब तक दोपहर के अख़बारों में 7.2 प्रतिशत बताई गई थी. कॉपी चेक हुई उस दिन 9.7 प्रतिशत का आंकड़ा सामने आया. वही समयकाल, वही सांख्यिकी संस्थान, वही अर्थशास्त्री.मीडिया भी वही, श्रेय लेने वाला जननायक भी वही मगर आंकड़ा बदल गया. जीडीपी की गुगली से अश्विन अकेला आउट नहीं है – आप भी तो हैं. देश चीन से आगे निकल गया और आप हैं कि पान की गुमटी से आगे नहीं जा पा रहे. आंकड़े आप पढ़ नहीं पाते, पढ़ लें तो जान नहीं पाते, जान लें तो समझ नहीं पाते कि जैसे जैसे जीडीपी बढ़ती जाती है वैसे वैसे आप पीछे क्यों होते जाते हैं. आंकड़ों में ग्रोथ तो है जॉब नहीं है. उत्पादन है, सामान है खरीदने के पैसे नहीं हैं. स्कूल है, कॉलेज है, दवा है,डॉक्टर है, पाँच सितारा अस्पताल है, बस आपकी पहुँच में नहीं हैं. इतना पढ़कर ही खुश हो लेते हैं कि हम पीछे रह गए तो क्या देश तो आगे बढ़ा. अंगुली काली कराने और मशीन का खटका दबाने के बीच के तीस सेकण्ड में जीडीपी याद नहीं रहती,जाति याद रहती है.
जाति के ख्याल ने अश्विन को इष्टदेव का स्मरण कराया. साष्टांग प्रणाम करके उसने पूछा – हे संकटमोचन, मेरा उत्तर कहाँ गलत हुआ. आप ही बताइये तीसरी तिमाही में वृद्धि  की वास्तविक दर कितनी थी ? पवनपुत्र बोले– चीर के अपना सीना दिखाना आसान है सही सही जीडीपी बता पाना मुश्किल है. हमारे युग में न जीडीपी हुआ करे थी ना चुनाव. होते तो एक-दो चुनाव तो इसी मुद्दे पर निपट जाते कि चौदह साल के भरत भाई सा. के कार्यकाल में जीडीपी ज्यादा बढ़ी कि बड़े भैया के अयोध्या वापस आने के बाद विकास तेज़ हुआ. तुलसीदासजी ने दस हज़ार से ज्यादा दोहे, सोरठे लिखे मानस में मगर एक चौपाई में भी जीडीपी का उल्लेख नहीं करा. वरना आर्यावर्त के जननायकों में होड़ लग जाती कि हमने त्रेतायुग से ज्यादा विकास करा. बहरहाल, सांख्यिकी के बाज़ीगरों से पता करके अगलीबार बता पाउँगा.
अश्विन ने कहा – कोई बात नहीं प्रभु, इतना तो समझ ही गया हूँ कि आंकड़े महज़ आंकड़े नहीं होते. वे जादुई मिट्टी होते हैं. हार्वर्ड ग्रेजुएटेड दरबारी वित्तीय जादूगर उनसे वैसी आकृति बनाकर दिखा सकते हैं जैसी जननायक को पसंद आती है. जितनी देर में आप समंदर लाँघ पाते हैं उससे कम देर में वे पिछले दस पंद्रह साल की जीडीपी ग्रोथ रेट बदल लेते हैं. वे वन-टू-का-फोर, फोर-टू-का-सिक्स-इलेवन करने में निष्णात हैं. मौका-ए-जरूरत उसी कच्ची गीली मिट्टी से कीचड़ बनाकर जननायक को हेंडओवर कर देते हैं कि लो महाराज चुनाव आ गया है – फैंको इसे सामनेवाले पे.
तीन परिक्रमा देकर निकल गया अश्विन, उसके साथ उसकी पूरी पीढ़ी है,जॉब पोर्टल्स हैं, उन पर सबके सीवी हैं, बस साक्षात्कार के बुलावे बाकी हैं. आयेंगे, घबराईये मत,जननायक कह रहा है जीडीपी बढ़ रही है.
© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टीटी नगर, भोपाल, मोबाइल  9425019837

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हिन्दी साहित्य – आलेख – आम हिन्दी पाठकों को हिंग्लिश परोसते कुछ अखबार – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

आम हिन्दी पाठकों को हिंग्लिश परोसते कुछ अखबार
(आजकल हिन्दी के समाचार पत्रों में हिंगलिश के उपयोग पर डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी का तथ्यात्मक एवं विचारणीय आलेख)
भूमंडलीकरण या सार्वभौमिकता की बात कोई नई नहीं है। हमारे प्राचीन ग्रंथ ‘वसुधैव कुटुंबकम्” की बात लिख कर इसकी आवश्यकता पहले ही प्रतिपादित कर चुके हैं, लेकिन इसका आशय यह कदापि नहीं है कि आवश्यकता न होते हुए भी हम अपनी संस्कृति ,रीति-रिवाज, परंपराओं, धर्म एवं भाषा तक को दरकिनार कर दूसरों की गोद में बैठ जाएँ। बेहतर तो यह है कि हम स्वयं को ही इतना सक्षम बनाने का प्रयास करें कि हमें छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों का मुँह न ताकना पड़े। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि हम केवल और केवल नकलची बनकर नकल न उतारते फिरें।  परिस्थितियों एवं परिवेश की आवश्यकतानुरूप स्वयं को ढालना अच्छी बात है, परंतु बिना सोचे-समझे अंधानुकरण को बेवकूफी भी कहा जाता है। एक छोटा सा उदाहरण है ‘नेक टाई’ का। इसे गले में बाँधने का सिर्फ और सिर्फ यही उद्देश्य है कि ठंडे देशों में गले और गले के आसपास ठंड से बचा जा सके परंतु हमारे यहाँ मई-जून की गर्मी में भी मोटे कोट-पेंट के साथ नेक टाई पहन कर लोग अपनी तथाकथित प्रतिष्ठा बताने से नहीं चूकते। आंग्ल भाषा की उपयोगिता अथवा आवश्यकता हो या न हो कुछ पढ़ेलिखे नासमझ अंग्रेजी झाड़े बिना नहीं रह पाते। हम केवल परस्पर वार्तालाप की बात करें तब क्या दो विभिन्न भाषी एक दूसरे की बात समझ पाएँगे? कदापि नहीं। बस, मैं यही कहना चाहता हूँ कि आजकल हमारे कुछ हिंदी अखबार वालों का मानना है कि वे देवनागरी में इंग्लिश लिखकर अपनी ज्यादा लोकप्रियता अथवा पहुँच बना लेंगे। ऐसा करना क्या, सोचना भी गलत होगा। एक हिंदी के आम पाठक को उसकी अपनी भाषा के अतिरिक्त चीनी, रूसी, जापानी या अंग्रेजी के शब्दों को देवनागरी में लिखकर पढ़ाओगे तो क्या वह आपके द्वारा लिखी बात पूर्णरूपेण समझ सकेगा? नहीं समझेगा न। आप सोचते हैं जो लोग अंग्रेजी समझते हैं उनके लिए आसानी है, तो जिसे अंग्रेजी आती है फिर आपके हिन्दी अखबार क्यों पढ़ेगा। दूसरी बात जिसे हिंदी कम आती है अथवा अहिंदी भाषी है, तब तो ऐसे लोग हिंदी के बजाय अपनी भाषा को ज्यादा पसंद करेंगे, अथवा अंग्रेजी को रोमन में न पढ़कर पूरा अंग्रेजी अखबार ही न खरीदेंगे।
यह मात्र सांकेतिक चित्र है।

मेरे मत से इन तथाकथित अखबार वालों की भाषा से यदि हिंग्लिश तबका जुड़ता है, जिसे ये हिंग्लिश पाठकों की अतिरिक्त वृद्धि मानते हैं तो उन्हें स्वीकारना पड़ेगा कि उससे कहीं ज्यादा इनके हिन्दी पाठकों में कमी हो रही है। उनके पास अन्य पसंदीदा  अखबारों के विकल्प भी होते हैं। आज के अंतरजालीय युग में जब हर सूचना हमारे पास आप से पहले पहुँच रही है, तब इन तथाकथित अखबारों की प्राथमिकताएँ बची कहाँ हैं। आज के तकनीकी युग एवं खोजी पत्रकारिता के चलते छोटे से छोटा अखबार भी पिछड़ा नहीं है। अब तो ग्रामीण अंचल तक अद्यतन रहते हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी की मर्यादा, सम्मान एवं संवर्धन हमारा कर्तव्य है। हिन्दी के पावन आँचल में किसी गैर भाषा के इस तरह थिगड़े लगाने का प्रयास राष्ट्रभाषा का अपमान और मेरे अनुसार राष्ट्रद्रोह जैसा है। विश्व की किसी भी भाषा, संस्कृति अथवा परंपराओं से घृणा अथवा अनादर हमारी संस्कृति में नहीं है। हमारे नीति शास्त्रों में ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ भी लिखा है। आज हिन्दी की विकृति पर तुले हुए लोग हठधर्मिता की पराकाष्ठा पार करते नजर आ रहे हैं। इनकी अपने देश, अपनी संस्कृति एवं अपनी राष्ट्रभाषा संबंधी प्रतिबद्धता भी संशय के कटघरे में खड़ी प्रतीत होने लगी है। आज आप किसी भी पाठक से पूछ लीजिए, वह आज लिखी जा रही विकृत भाषा एवं अव्यवहारिक संस्कृति से स्वयं को क्षुब्ध बतलायेगा। अब तो सुबह-सुबह अखबार पढ़ कर मन में कड़वाहट सी भर जाती है। अप्रिय भाषा एवं अवांछित समाचारों की बाढ़ सी दिखाई देती है, वहीं अखबारों की यह भी मनमानी चलती है कि हम अपने घर, अपने समूह या विज्ञापन का चाहे जितना बड़ा भाग प्रकाशित करें, मेरी मर्जी। पाठक के दर्द की किसी को चिंता नहीं रहती। सरकार भी इनकी नकेल नहीं कस पाती। सरकारी, बड़े व्यवसायियों एवं नेताओं के विज्ञापनों की बड़ी कमाई से अखबार बड़े उद्योगों में तब्दील हो गए हैं। हम चाहे जब अखबार के मुख्य अथवा नगर पृष्ठ तक में एक अदद पूरी खबर के लिए तरस जाते हैं, फिर नगर, देश-प्रदेश एवं समाज की बात तो बहुत दूर है। समाचार पत्रों से स्थानीय साहित्य भी जैसे लुप्त होता जा रहा है। आज दरकार है आदर्श भाषा की, आदर्श सोच की और आदर्श अखबारों की। साथ ही देश तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व की। मैं मानता हूँ कि समाज सुधार का ठेका अखबारों ने नहीं ले रखा है,  किंतु यह भी सत्य है कि, ये तथाकथित अखबार क्या मानक गरिमा का ध्यान रख पाते हैं।

अंत में पुनः मेरा मानना है कि आज जब हर छोटे-बड़े शहरों में पहले जैसे एक-दो नहीं पचासों अखबार निकलते हैं, तब ऐसे में अपनी व्यावसायिक तथा निजी सोच पर नियंत्रण कर ये विशिष्ट अखबार हम असंगठित पाठकों को मनमाना परोसने से परहेज करें। राष्ट्रभाषा हिंदी को हिंग्लिश बनने से बचाने के प्रयास करना हम सभी का नैतिक कर्त्तव्य है, इसे अमल में लाने का विनम्र अनुरोध है।
© विजय तिवारी ‘किसलय’ 

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हिन्दी साहित्य – कविता – धूप-छांव……. – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

धूप-छांव…….

 

जीवन में दिन हैं तो, फिर रातें भी है

है मनमोहक फूल तो फिर कांटे भी है।

 

कुछ खोया तो, बदले में कुछ पाना है

कहीं रूठना है तो, कहीं मनाना है,

हुए मौन तो, मन में कुछ बातें भी है

जीवन में दिन————–

 

मिलन जुदाई का, आपस में नाता है

सम्बन्धों का मूल्य, समझ तब आता है

टूटे रिश्ते तो, नवीन नाते भी हैं

जीवन में दिन————-

 

है विश्वास अगर तो, शंकाएं भी है

मन में है यदि अवध तो,लंकायें भी है

प्रेम समन्वय भी, अन्तरघातें भी हैं

जीवन में दिन…………….

 

है पूनम प्रकाश तो, फिर मावस भी है

शुष्क मरुस्थल कहीं,कहीं पावस भी है

तृषित कभी तो, तृप्त कभी पाते भी हैं

जीवन में दिन………………

 

है पतझड़ आंगन में तो, बसन्त भी है

जन्में हैं तो, इस जीवन का अंत भी है

रुदन अगर दुख में, सुख में गाते भी हैं

जीवन में दिन————–

 

टूट टूट जो, जुड़ते और संवरते हैं

पीड़ाओं में गीत, मधुरतम गढ़ते हैं

व्यथित हृदय, दर्दों को सहलाते भी हैं

जीवन में दिन है तो फिर रातें भी है

है मनमोहक फूल तो फिर कांटे भी हैं।

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल–Meditation: Breathing with the Mind – Learning Video #7 -Shri Jagat Singh Bisht

MEDITATION: BREATHING WITH THE MIND

Learning Video #7

Learn meditation step by step. Practice meditation breath by breath.

When mindfulness of breathing is developed and cultivated, it is of great fruit and great benefit.

Video link:

Instructions:

Sit down with legs folded crosswise, back straight and eyes closed.

Always mindful, breathe in; mindful, breathe out.

FIRST TETRAD (BODY GROUP):

Be aware of your breath around your nostrils as you breathe in and as you breathe out. Do not try to regulate your breath in any way. Observe your natural breath as it is.

Breathing in long, understand: I am breathing in long; breathing out long, understand: I am breathing out long.

Breathing in short, understand: I am breathing in short; breathing out short, understand: I am breathing out short.

Be aware of your body as you breathe in and as you breathe out.

Breathe in experiencing the whole body, breathe out experiencing the whole body.

Breathe in tranquilizing the whole body, breathe out tranquilizing the whole body.

Don’t worry if your mind wanders away, gently bring it back and observe your breath.

Ever mindful, breathe in; mindful, breathe out.

SECOND TETRAD (FEELINGS GROUP):

Be aware of your feelings you breathe in and as you breathe out.

Breathe in experiencing your feelings, breathe out experiencing your feelings.

Breathe in experiencing rapture, breathe out experiencing rapture.

Breathe in experiencing pleasure, breathe out experiencing pleasure.

Be aware of your mental processes as you breathe in and as you breathe out.

Breathe in experiencing mental formations, breathe out experiencing mental formations.

Breathe in tranquilizing mental formations, breathe out tranquilizing mental formations.

Ever mindful, breathe in; mindful, breathe out.

THIRD TETRAD (MIND GROUP):

Be aware of your mind as you breathe in and as you breathe out.

Breathe in experiencing the mind, breathe out experiencing the mind.Breathe in gladdening the mind, breathe out gladdening the mind.

Breathe in concentrating the mind, breathe out concentrating the mind.

Breathe in liberating the mind, breathe out liberating the mind.

Ever mindful, breathe in; mindful, breathe out.

May all beings be happy, be peaceful, be liberated.

Open your eyes and come out of meditation.

Be happy and stay blessed!

(Based on the Anapanasati Sutta)

Jagat Singh Bisht, Founder: LifeSkills

[email protected]

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English Literature – Book-Review/Abstract – Winter Shall fade…. – Ms. Simran Chandra & Ms. Neelam Saxena Chandra

Winter Shall fade ….

 

 

 

 

 

 

A poetry collection written by Ms. Neelam Saxena Chandra along with co-author Simran Chandra published by Omji Publishers finds a place in Limca Book of Records for being the first book to be co-authored by a mother-daughter duo.

It is a collection of 55 Poems on different genres of life.  While writing this book the Author Ms. Simran Chandra was student of Class XII, DPS, ELDECO, LUCKNOW. Writing poetry is her passion. One of her poems was published in an international anthology and a few others in national anthologies and magazines. Ms. Neelam Saxena Chandra is an engineer by profession (General Manager (Electrical), Pune Metro). More than six hundred of her stories/poems have been published in various leading Indian as well as international journals and anthologies.  She has won several awards.

Shri Tuhin A. Sinha an Indian Author and politician says – “It is a rare providence, when both, a mother and daughter write poems which are published together … Neelam & Simran are talented poets …. their poems are simple, yet immensely rassuring and inspiring. They bring out the positive side of life in every situation and encourage you to look at the brighter side of things. The effort is indeed commendable!”

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A selected poem from “Winter shall fade ….”

DREAMS 

I embrace my dreams

Just like the moon

Embraces the moonlight

Or the veil of night

Embraces the stars.

I fall in love with them

Little by little

And they come to me

Bit by bit

Kissing me

Hugging me

Skimming me,

As if drizzling upon me

And covering me with affection,

Percolating like fragrance

All over my being

And singing

Some happy numbers.

Keep dreaming

For

The relationship

Between dreams and self

Is the most fulfilling…

© Ms. Simran Chandra & Ms. Neelam Saxena Chandra

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हिन्दी साहित्य – कविता – ‘कोई बताएं हमें’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

 

कोई बताएं हमें

कोई बताए  हमें

कि क्यों न लिखी जाए यह ख़बर

कि हर  ख़बर

आंख में तिनके की तरह

चुभती है

हर अख़बार

डरावना लगता है

और,

गर्दन रेतता हुआ

दिल चाक- चाक कर जाता है

सोशल मीडिया भी

अखबार पलटते हुए

लगता है कि पन्ने -पन्ने से

बलात्कारी बाहर आ रहे हैं

टीवी का बटन दबाने से पहले

मन में खटका होता है कि कहीं

क्रूर और बर्बर हत्यारे

स्क्रीन से  बाहर

न आ जाएं

अपने-अपने तमंचे और  बंदूके ताने हुए

कहीं निकल न पड़ें झुंड के झुंड जंगली कुत्ते

भूखे  भेड़िए, लकड़बग्घे

कहीं स्क्रीन के आकाश से उतरने न लगें

उल्लू, चील, बाज  और  कव्वे

कर दें आक्रमण एक साथ

उस  गौरैया पर

जो उड़ना चाहती है जी भर कर!

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – घुसपैठ के बहाने – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने आखिर रिटायर्ड लोगों की खोपड़ी  “घुसपैठ के बहाने “अच्छी तरह से खंगाल ही लिया। ) 

घुसपैठ के बहाने

रिटायर हुए लोगों से घुसपैठ पर बातचीत ………….

Smiley, Happy, Face, Smile, Lucky, Luck(नागरिकता और घुसपैठियों को लेकर सब परेशान हैं टीवी चैनल और पार्टी वाले ज्यादा परेशान हैं चुनाव के डर से। कुछ डुकरों के टाइम पास के लिए एक सवाल पूछा गया, सबके अलग अलग जबाब पढ़िये।) 

सवाल –  रिटायर होने के बाद टाईम पास कैसे कर रहे हैं ? घुसपैठ के बारे में आपके क्या विचार हैं ?

बंसल जी –   बैंक ने बीस साल पत्नी से दूर रखा ,अब हिसाब किताब पूरा कर रहा हूं , जमा नामे में फर्क को ढूंढ रहा हूं ।मोहल्ले वाले घुसपैठिया कह कहकर चिढ़ाने लगे हैं जब नौकरी में थे तो महीने दो महीने में घर आते थे तो सबसे मिलते – जुलते थे। अब घर ही में घुसे रहते हैं।

मिश्रा जी –   लोगों को समझा रहा हूं कि बैंक ने दो साल पहले क्यूं रिटायर किया ।पड़ोसन कहती है आपको बैंक ने भले रिटायर कर दिया है पर आप तो बिल्कुल जवान लगते हैं …….. जब से उसने ऐसा कहा है तभी से उनके घर में हमारी घुसपैठ बढ़ गई है।

तिवारी जी –  अरे साहब बिल्कुल मस्त हो गए हैं ,मस्ती कर रहे हैं ,पड़ोसन से गप्प करते हैं , उनके छोटे – मोटे काम कर देते हैं, घरवाली से थोड़ा झगड़ा – अगड़ा कर लेते हैं। बाकी टाइम में टीवी चैनलों पर 40 लाख घुसपैठियों के ऊपर चलने वाली बहसें और वोट राजनीति का मजा लेते रहते हैं।

जोशी जी –  जब तक नौकरी में रहे, बैंक को खूब चूना लगाया ,चूना लगाने की आदत पड़ गई थी ,इसलिए चूना लगाने की जगह तलाशते हैं ।अच्छे नागरिक बनने की कोशिश कर रहे हैं पर असाम के चुनाव के पहले नागरिकता पर सवाल अचानक बहुत उठ गए हैं। घुसपैठियों पर नजर रखते हैं पर चुप रहते हैं इसलिए मोहल्ले के बच्चे चिढ़ाने लगे हैं,

“जोशी पड़ोसी कुछ भी देखे, हम कुछ नहीं बोलेगा”

बतरा जी –  देखो साधो, अपनी शुरु से खुचड़ करने की आदत रही है। इसीलिए हर बात में खुचड़ करके टाइम पास कर लेते हैं। बैंक वालों से जाकर लड़ते हैं, कांऊटर वाली को परेशान करते हैं, फिर घर आकर पत्नी को पटाते हैं। मेहमानों की घुसपैठ से परेशान हो गए हैं इसलिए घुसपैठियों के बारे में कुछ बोलना अभी ठीक नहीं है।

नेमा जी –   कुछ नहीं यार, हर दम कुछ नहीं करने के बारे में सोचते रहते हैं। मन में सैकड़ों इच्छाओं का द्वंद चलता रहता है मन में ऊंटपटांग इच्छाओं की घुसपैठ के कारण किसी काम में मन नहीं लगता। माल्या और नीरव मोदी की नागरिकता पर चिंतन – मनन करते हैं। जब वे लोग पचीस तीस हजार करोड़ रुपये खाकर भाग गए तो सरकार पासपोर्ट जब्ती पर नये नियम बनाने का सोच रही है इस बात से और परेशान हो गए हैं।

शर्मा जी –  भोजन भजन फटाफट करते हैं, फिर भविष्य फल पढ़ के नर्मदा मैया के दर्शन करते हैं, लौटते समय भंवरलाल पार्क में डुकरों के साथ चुनाव और घुसपैठियों पर बहस लड़ाते हैं फिर बस पकड़कर मंदिर के सामने बैठ जाते हैं।

जैन साब –  लड़के की दुकान में बैठ के हिसाब किताब करके कुछ महिलाओं को गलत नं के कपड़े दे देते हैं ।

विचारधारा की घुसपैठ के कारण लड़की की जमीं जमाई शादी टूट गई इसलिए लड़की की शादी के लिए बाकी टाइम में लड़का ढूंढते हैं, दरअसल में लड़की ने लड़का पसंद कर लिया था शादी के कार्ड भी छप गए थे, प्रधान सेवक की आर्थिक नीतियों पर लड़के लड़की में बहस हो गई लड़का अंधमूक समर्थक था तो शादी टूट गई।

विश्वकर्मा जी –  पंचर की दुकान खोल ली है ,पंचर करने और बनाने में टाइम का पता नईं चलता। बरसात के गड्ढों में छुपीं कीलें टायर ट्यूब में घुसपैठ कर जाते हैं तो बिजनेस बढ़िया चलता है।

पांडे जी – रिटायर होने के बाद तम्बाकू चूना मलने का शौक पाल लिया। ऊंगली में चूना लगाके घिसाई करने में मजा आता है फिर बढ़िया पान लगवा कर रगड़ा डाल देते हैं,पान वाले से  बतियाते हुए पीक मारते हैं और दो चार ठो पान और लपटवा के डाक्टर के यहां की लाइन में लग जाते हैं। पैरों में आयी सूजन के लिए डाॅ का कहना है कि पेट में पटारों ने घुसपैठ की है।

सोनी जी –   पूछ के क्या करोगे, बैंक ने कुछ करने लायक ही नहीं छोड़ा, पूरा चूस लिया, प्रमोशन की परीक्षा में नागरिकता और घुसपैठियों का निबंध नहीं लिख पाए थे तो प्रमोशन भी नहीं दिया और लफड़ों में फंसाकर वीआरएस दे दिया।

गुप्ता जी –  का बतायें भैया… रिटायर का हुए ,कोई कुछ समझतै नैई हैं, न घर के न घाट के । बीबी कुत्ता जी कह के बुलाती है और बीच-बीच में घुसपैठिया घोषित करने की धमकी देती है।

स्वामी जी –  कोई काम न धाम तो डी ए का हिसाब लगाते रहते हैं समझ नईं आत तो बैंक मनेजर के पास चले जात हैं। बैंक वाला चिढ़ने लगा है गार्ड घुसने नहीं देता। आजकल डिबिया में किमाच लेकर जाते हैं जो भी मिसबिहेव करता है उसकी सीट तरफ फूंक देते हैं।

वर्मा जी– देखो भाई हम शुद्ध लाला ठहरे ,अभी भी ला ..ला…के चक्कर में रहते हैं

पहले कुछ फायदा कराओ तब सवाल का जबाब पाओ।

श्रीवास्तव जी – रिटायर होने होने के बाद ज्यादा ही काम बढ़ गए हैं, आंख ,नाक ,दिल की सर्विसिंग कराने के चक्कर में डाक्टरनी से इश्क में पड़ गए हैं। “जब सबै भूमि गोपाल की” तो कहां के घुसपैठिया……. और कैसी नागरिकता…. ।

**********अभी इतने लोग से ही बात हो पाई है,आपकी और किसी से इस बारे में बात हो तो जरूर बताईयेगा …..

सादर अभिवादन

Smiley, Happy, Face, Smile, Lucky, Luck

© जय प्रकाश पाण्डेय

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संस्मरण- विकास की दौड़ में खुद को खोते गाँव – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

 

 

 

 

विकास की दौड़ में खुद को खोते गाँव

(सुश्री मालती मिश्रा जी का यह आलेख आपको जीवन  के उन  क्षणों का स्मरण करवाता है जो हम विकास की दौड़ में अपने अतीत के साथ खोते जा  रहे हैं। यह मेरे लिए अत्यन्त कठिन था कि इस आलेख को जीवन यात्रा मानूँ या संस्मरण। अब आप स्वयं ही तय करें कि यह आलेख जीवन यात्रा है अथवा संस्मरण।)

वही गाँव है वही सब अपने हैं पर मन फिर भी बेचैन है। आजकल जिधर देखो बस विकास की चर्चा होती है। हर कोई विकास चाहता है, पर इस विकास की चाह में क्या कुछ पीछे छूट गया, ये शायद ही किसी को नजर आता हो। या शायद कोई पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहता। पर जो इस विकास की दौड़ में भी दिल में अपनों को और अपनत्व को बसाए बैठे हैं उनकी नजरें, उनका दिल तो वही अपनापन ढूँढ़ता है। विकास तो मस्तिष्क को संतुष्टि हेतु और शारीरिक और सामाजिक उपभोग के लिए शरीर को चाहिए, हृदय को तो भावनाओं की संतुष्टि चाहिए जो प्रेम और सद्भावना से जुड़ी होती है।

मैं कई वर्षों बाद अपने पैतृक गाँव आई थी मन आह्लादित था…कितने साल हो गए गाँव नहीं गई, दिल्ली जैसे शहर की व्यस्तता में ऐसे खो गई कि गाँव की ओर रुख ही न कर पाई पर दूर रहकर भी मेरी आत्मा सदा गाँव से जुड़ी रही। जब भी कोई परेशानी होती तो गाँव की याद आ जाती कि किस तरह गाँव में सभी एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ होते, गाँव में किसी बेटी की शादी होती थी तो गाँव के हर घर में गेहूँ और धान भिजवा दिया जाता और सभी अपने-अपने घर पर गेहूँ पीसकर और धान कूटकर आटा, चावल तैयार करके शादी वाले घर में दे जाया करते। शादी के दो दिन पहले से सभी घरों से चारपाई और गद्दे आदि मेहमान और बारातियों के लिए ले जाया करते। लोग अपने घरों में चाहे खुद जमीन पर सोते पर शादी वाले घर में कुछ भी देने को मना नहीं करते और जब तक मेहमान विदा नहीं हो जाते तब तक सहयोग करते। उस समय सुविधाएँ कम थीं पर आपसी प्रेम और सद्भाव था जिसके चलते किसी एक की बेटी पूरे गाँव की बेटी और एक की इज़्जत पूरे गाँव की इज़्ज़त होती थी।

बाबूजी शहर में नौकरी करते थे लिहाजा हम भी उनके साथ ही रहते, बाबूजी तो हर तीसरे-चौथे महीने आवश्यकतानुसार गाँव चले जाया करते थे पर हम बच्चों को तो मई-जून का इंतजार करना पड़ता था, जब गर्मियों की छुट्टियाँ पड़तीं तब हम सब भाई-बहन पूरे डेढ़-दो महीने के लिए जाया करते।

उस समय स्टेशन से गाँव तक के लिए किसी वाहन की सुविधा नहीं थी तो हमें तीन-चार कोस की दूरी पैदल चलकर तय करनी होती थी। हम छोटे थे और नगरवासी भी बन चुके थे तो नाजुकता आना तो स्वाभाविक है, फिर भी हम आपस में होड़ लगाते एक-दूसरे संग खेलते-कूदते, थककर रुकते फिर बाबूजी का हौसलाअफजाई पाकर आगे बढ़ते। रास्ते में दूर से नजर आते पेड़ों के झुरमुटों को देकर आँखों में उम्मीद की चमक लिए बाबूजी से पूछते कि “और कितनी दूर है?” और बाबूजी बहलाने वाले भाव से कहते “बस थोड़ी दूर” और हम फिर नए जोश नई स्फूर्ति से आगे बढ़ चलते। गाँव पहुँचते-पहुँचते सूर्य देव अपना प्रचण्ड रूप दिखाना शुरू कर चुके होते। हम गाँव के बाहर ही होते कि पता नहीं किस खबरिये से या गाँव की मान्यतानुसार आगंतुक की खबर देने वाले कौवे से पता चल जाता और दादी हाथ में जल का लोटा लिए पहले से ही खड़ी मिलतीं। हमारी नजर उतारकर ही हमें घर तो छोड़ो गाँव में प्रवेश मिलता। खेलने के लिए पूरा गाँव ही हमारा प्ले-ग्राउंड होता, किसी के भी घर में छिप जाते किसी के भी पीछे दुबक जाते सभी का भरपूर सहयोग मिलता। रोज शाम को घर के बाहर बाबूजी के मिलने-जुलने वालों का तांता लगा रहता। अपनी चारपाई पर लेटे हुए उनकी बातें सुनते-सुनते सो जाने का जो आनंद मिलता कि आज वो किसी टेलीविजन किसी म्यूजिक सिस्टम से नहीं मिल सकता।

डेढ़-दो महीने कब निकल जाते पता ही नहीं चलता और जाते समय सिर्फ आस-पड़ोस के ही नहीं बल्कि गाँव के अन्य घरों के भी पुरुष-महिलाएँ हमें गाँव से बाहर तक विदा करने आते, दादी की हमउम्र सभी महिलाओं की आँखें बरस रही होतीं उन्हें देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल होता कि किसका बेटा या पोता-पोती बिछड़ रहे हैं।

धीरे-धीरे गाँव का भी विकास होने लगा, सुविधाएँ बढ़ने लगीं और सोच के दायरे घटने लगे। जो सबका या हमारा हुआ करता था, वो अब तेरा और मेरा होने लगा था। पहले साधन कम थे पर मदद के लिए हाथ बहुत थे अब साधन बढ़े हैं पर मदद करने वाले हाथ धीरे-धीरे लुप्त होने लगे हैं।

अब तो गाँव का नजारा ही बदल चुका है, सुविधाएँ बढ़ी हैं ये तो पता था पर इतनी कि जहाँ पहले रिक्शा भी नहीं मिल पाता था वहाँ अब टैम्पो उपलब्ध था वो भी घर तक। गाँव के बदले हुए रूप के कारण मैं पहचान न सकी , जहाँ पहले छोटा सा बगीचा हुआ करता था, वहाँ अब कई पक्के घर हैं। लोग कच्ची झोपड़ियों से पक्के मकानों में आ गए हैं, परंतु जेठ की दुपहरी की वो प्राकृतिक बयार खो गई जिसके लिए लोग दोपहर से शाम तक यहाँ पेड़ों की छाँह में बैठा करते थे।

कुछ कमी महसूस हो रही थी शायद वहाँ की आबो-हवा में घुले हुए प्रेम की। लोग आँखों में अचरज या शायद अन्जानेपन का भाव लिए निहार रहे थे, मुझे लगा कि अभी कोई दादी-काकी उठकर मेरे पास आएँगीं और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए प्रेम भरी झिड़की देते हुए कहेंगी-“मिल गई फुरसत बिटिया?” पर ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि मैं उस समय हतप्रभ रह गई जब मैंने गाँव की अधेड़ महिला से रास्ता पूछा, मुझे उम्मीद थी कि वो मेरा हाल-चाल पूछेंगी और बातें करते हुए घर तक मेरे साथ जाएँगीं पर उन्होंने राह तो बता दी और अपने काम में व्यस्त हो गईं। एक पल में ही ऐसा महसूस हुआ कि गाँवों में शहरों से अधिक व्यस्तता है।

अपने ही घर के बाहर खड़ी मैं अपना वो घर खोज रही थी जो कुछ वर्ष पहले छोड़ गई थी। मँझले चाचा के घर की जगह पर सिर्फ नीव थी जिसमें बड़ी-बड़ी झाड़ियाँ खड़ी अपनी सत्ता दर्शा रही थीं, छोटे बाबा जी का घर वहाँ से नदारद था और उन्होंने नया घर हमारे घर की दीवार से लगाकर बनवा लिया था। छोटे चाचा जी का वो पुराना घर तो था पर वह अब सिर्फ ईंधन और भूसा रखने के काम आता सिर्फ हमारा अपना घर वही पुराने रूप में खड़ा था और सब उसी घर में रहते हैं पर वो भी इसलिए क्योंकि बाबूजी ने भी गाँव के बाहर एक बड़ा घर बनवा लिया है पर वो अभी तक अपनी पुरानी ज़मीन से जुड़े हुए हैं, इसीलिए मँझले चाचा की तरह नए घर में रहने के लिए पुराने घर को तोड़ न सके।

विकास का यह चेहरा मुझे बड़ा ही कुरूप लगा, एक बड़े कुनबे के होने के बाद भी सुबह सब अकेले ही घर से खेतों के लिए निकलते हैं, इतने लोगों के होते हुए भी शाम को घर के बाहर वीरानी सी छाई रहती है। पड़ोसी तो दूर अपने ही परिवार के सदस्यों को एक साथ जुटने के लिए घंटों लग जाते हैं। विकास के इस दौड़ में गाँवों ने आपसी प्रेम, सद्भाव, सहयोग, एक-दूसरे के लिए अपनापन आदि अनमोल भावनाओं की कीमत पर कुछ सहूलियतें  खरीदी हैं। आज लोगों के पास पैसे और सहूलियतें तो हैं पर वो सुख नहीं है, जो एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर सहयोग से हर कार्य को करने में था। विकास ने गाँवों को नगरों से तो जोड़ दिया पर आपसी प्रेम की डोर को तोड़ दिया। विकास का ऊपरी आवरण जितना खूबसूरत लगता है भीतर से उतना ही नीरस है।

© मालती मिश्रा ‘मयंती’

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