संस्मरण- विकास की दौड़ में खुद को खोते गाँव – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

 

 

 

 

विकास की दौड़ में खुद को खोते गाँव

(सुश्री मालती मिश्रा जी का यह आलेख आपको जीवन  के उन  क्षणों का स्मरण करवाता है जो हम विकास की दौड़ में अपने अतीत के साथ खोते जा  रहे हैं। यह मेरे लिए अत्यन्त कठिन था कि इस आलेख को जीवन यात्रा मानूँ या संस्मरण। अब आप स्वयं ही तय करें कि यह आलेख जीवन यात्रा है अथवा संस्मरण।)

वही गाँव है वही सब अपने हैं पर मन फिर भी बेचैन है। आजकल जिधर देखो बस विकास की चर्चा होती है। हर कोई विकास चाहता है, पर इस विकास की चाह में क्या कुछ पीछे छूट गया, ये शायद ही किसी को नजर आता हो। या शायद कोई पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहता। पर जो इस विकास की दौड़ में भी दिल में अपनों को और अपनत्व को बसाए बैठे हैं उनकी नजरें, उनका दिल तो वही अपनापन ढूँढ़ता है। विकास तो मस्तिष्क को संतुष्टि हेतु और शारीरिक और सामाजिक उपभोग के लिए शरीर को चाहिए, हृदय को तो भावनाओं की संतुष्टि चाहिए जो प्रेम और सद्भावना से जुड़ी होती है।

मैं कई वर्षों बाद अपने पैतृक गाँव आई थी मन आह्लादित था…कितने साल हो गए गाँव नहीं गई, दिल्ली जैसे शहर की व्यस्तता में ऐसे खो गई कि गाँव की ओर रुख ही न कर पाई पर दूर रहकर भी मेरी आत्मा सदा गाँव से जुड़ी रही। जब भी कोई परेशानी होती तो गाँव की याद आ जाती कि किस तरह गाँव में सभी एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ होते, गाँव में किसी बेटी की शादी होती थी तो गाँव के हर घर में गेहूँ और धान भिजवा दिया जाता और सभी अपने-अपने घर पर गेहूँ पीसकर और धान कूटकर आटा, चावल तैयार करके शादी वाले घर में दे जाया करते। शादी के दो दिन पहले से सभी घरों से चारपाई और गद्दे आदि मेहमान और बारातियों के लिए ले जाया करते। लोग अपने घरों में चाहे खुद जमीन पर सोते पर शादी वाले घर में कुछ भी देने को मना नहीं करते और जब तक मेहमान विदा नहीं हो जाते तब तक सहयोग करते। उस समय सुविधाएँ कम थीं पर आपसी प्रेम और सद्भाव था जिसके चलते किसी एक की बेटी पूरे गाँव की बेटी और एक की इज़्जत पूरे गाँव की इज़्ज़त होती थी।

बाबूजी शहर में नौकरी करते थे लिहाजा हम भी उनके साथ ही रहते, बाबूजी तो हर तीसरे-चौथे महीने आवश्यकतानुसार गाँव चले जाया करते थे पर हम बच्चों को तो मई-जून का इंतजार करना पड़ता था, जब गर्मियों की छुट्टियाँ पड़तीं तब हम सब भाई-बहन पूरे डेढ़-दो महीने के लिए जाया करते।

उस समय स्टेशन से गाँव तक के लिए किसी वाहन की सुविधा नहीं थी तो हमें तीन-चार कोस की दूरी पैदल चलकर तय करनी होती थी। हम छोटे थे और नगरवासी भी बन चुके थे तो नाजुकता आना तो स्वाभाविक है, फिर भी हम आपस में होड़ लगाते एक-दूसरे संग खेलते-कूदते, थककर रुकते फिर बाबूजी का हौसलाअफजाई पाकर आगे बढ़ते। रास्ते में दूर से नजर आते पेड़ों के झुरमुटों को देकर आँखों में उम्मीद की चमक लिए बाबूजी से पूछते कि “और कितनी दूर है?” और बाबूजी बहलाने वाले भाव से कहते “बस थोड़ी दूर” और हम फिर नए जोश नई स्फूर्ति से आगे बढ़ चलते। गाँव पहुँचते-पहुँचते सूर्य देव अपना प्रचण्ड रूप दिखाना शुरू कर चुके होते। हम गाँव के बाहर ही होते कि पता नहीं किस खबरिये से या गाँव की मान्यतानुसार आगंतुक की खबर देने वाले कौवे से पता चल जाता और दादी हाथ में जल का लोटा लिए पहले से ही खड़ी मिलतीं। हमारी नजर उतारकर ही हमें घर तो छोड़ो गाँव में प्रवेश मिलता। खेलने के लिए पूरा गाँव ही हमारा प्ले-ग्राउंड होता, किसी के भी घर में छिप जाते किसी के भी पीछे दुबक जाते सभी का भरपूर सहयोग मिलता। रोज शाम को घर के बाहर बाबूजी के मिलने-जुलने वालों का तांता लगा रहता। अपनी चारपाई पर लेटे हुए उनकी बातें सुनते-सुनते सो जाने का जो आनंद मिलता कि आज वो किसी टेलीविजन किसी म्यूजिक सिस्टम से नहीं मिल सकता।

डेढ़-दो महीने कब निकल जाते पता ही नहीं चलता और जाते समय सिर्फ आस-पड़ोस के ही नहीं बल्कि गाँव के अन्य घरों के भी पुरुष-महिलाएँ हमें गाँव से बाहर तक विदा करने आते, दादी की हमउम्र सभी महिलाओं की आँखें बरस रही होतीं उन्हें देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल होता कि किसका बेटा या पोता-पोती बिछड़ रहे हैं।

धीरे-धीरे गाँव का भी विकास होने लगा, सुविधाएँ बढ़ने लगीं और सोच के दायरे घटने लगे। जो सबका या हमारा हुआ करता था, वो अब तेरा और मेरा होने लगा था। पहले साधन कम थे पर मदद के लिए हाथ बहुत थे अब साधन बढ़े हैं पर मदद करने वाले हाथ धीरे-धीरे लुप्त होने लगे हैं।

अब तो गाँव का नजारा ही बदल चुका है, सुविधाएँ बढ़ी हैं ये तो पता था पर इतनी कि जहाँ पहले रिक्शा भी नहीं मिल पाता था वहाँ अब टैम्पो उपलब्ध था वो भी घर तक। गाँव के बदले हुए रूप के कारण मैं पहचान न सकी , जहाँ पहले छोटा सा बगीचा हुआ करता था, वहाँ अब कई पक्के घर हैं। लोग कच्ची झोपड़ियों से पक्के मकानों में आ गए हैं, परंतु जेठ की दुपहरी की वो प्राकृतिक बयार खो गई जिसके लिए लोग दोपहर से शाम तक यहाँ पेड़ों की छाँह में बैठा करते थे।

कुछ कमी महसूस हो रही थी शायद वहाँ की आबो-हवा में घुले हुए प्रेम की। लोग आँखों में अचरज या शायद अन्जानेपन का भाव लिए निहार रहे थे, मुझे लगा कि अभी कोई दादी-काकी उठकर मेरे पास आएँगीं और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए प्रेम भरी झिड़की देते हुए कहेंगी-“मिल गई फुरसत बिटिया?” पर ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि मैं उस समय हतप्रभ रह गई जब मैंने गाँव की अधेड़ महिला से रास्ता पूछा, मुझे उम्मीद थी कि वो मेरा हाल-चाल पूछेंगी और बातें करते हुए घर तक मेरे साथ जाएँगीं पर उन्होंने राह तो बता दी और अपने काम में व्यस्त हो गईं। एक पल में ही ऐसा महसूस हुआ कि गाँवों में शहरों से अधिक व्यस्तता है।

अपने ही घर के बाहर खड़ी मैं अपना वो घर खोज रही थी जो कुछ वर्ष पहले छोड़ गई थी। मँझले चाचा के घर की जगह पर सिर्फ नीव थी जिसमें बड़ी-बड़ी झाड़ियाँ खड़ी अपनी सत्ता दर्शा रही थीं, छोटे बाबा जी का घर वहाँ से नदारद था और उन्होंने नया घर हमारे घर की दीवार से लगाकर बनवा लिया था। छोटे चाचा जी का वो पुराना घर तो था पर वह अब सिर्फ ईंधन और भूसा रखने के काम आता सिर्फ हमारा अपना घर वही पुराने रूप में खड़ा था और सब उसी घर में रहते हैं पर वो भी इसलिए क्योंकि बाबूजी ने भी गाँव के बाहर एक बड़ा घर बनवा लिया है पर वो अभी तक अपनी पुरानी ज़मीन से जुड़े हुए हैं, इसीलिए मँझले चाचा की तरह नए घर में रहने के लिए पुराने घर को तोड़ न सके।

विकास का यह चेहरा मुझे बड़ा ही कुरूप लगा, एक बड़े कुनबे के होने के बाद भी सुबह सब अकेले ही घर से खेतों के लिए निकलते हैं, इतने लोगों के होते हुए भी शाम को घर के बाहर वीरानी सी छाई रहती है। पड़ोसी तो दूर अपने ही परिवार के सदस्यों को एक साथ जुटने के लिए घंटों लग जाते हैं। विकास के इस दौड़ में गाँवों ने आपसी प्रेम, सद्भाव, सहयोग, एक-दूसरे के लिए अपनापन आदि अनमोल भावनाओं की कीमत पर कुछ सहूलियतें  खरीदी हैं। आज लोगों के पास पैसे और सहूलियतें तो हैं पर वो सुख नहीं है, जो एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर सहयोग से हर कार्य को करने में था। विकास ने गाँवों को नगरों से तो जोड़ दिया पर आपसी प्रेम की डोर को तोड़ दिया। विकास का ऊपरी आवरण जितना खूबसूरत लगता है भीतर से उतना ही नीरस है।

© मालती मिश्रा ‘मयंती’

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योग-साधना – LifeSkills/जीवन कौशल –Shri Jagat Singh Bisht & Smt Radhika Bisht

 

 

Nourish your body, mind and soul with yoga, laughter, meditation, modern science and ancient wisdom to experience lasting happiness and well-being.

 

 

 

With years of deep research and practical sessions, we have developed a unique and complete programme for health, happiness and harmony of the body, mind and spirit. It transforms the entire experience of life by taking care of all the relevant dimensions – physiological, psychological and spiritual.

Founders  – Shri Jagat Singh Bisht and Smt Radhika Bisht, LifeSkills, Indore

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – संवादहीन भ्रम….. – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

संवादहीन भ्रम…..

हृदय की बायपास सर्जरी करवा कर रामदीन कुछ दिन भोपाल में विश्राम के बाद बहु-बेटे के साथ आ गया।

ऑपरेशन के बाद सारे परिचित , शुभचिंतक वहां घर पर मिलने आते रहे। इन सब के बीच  कालोनी में ही रहने वाले अपने अंतरंग मित्र शेखर की अनुपस्थिति रह-रह कर कचोटती रही।

अपने मित्रों की सूची में जब भी शेखर की बात आती, रामदीन विषाद व रोष से भर जाता। एक वर्ष बीतने को आया किन्तु इस अवधि में न तो शेखर की ओर से  और न, ही रामदीन की ओर से परस्पर एक दूसरे से सम्पर्क कर वस्तुस्थिति जानने का प्रयास हुआ।

इतने अनन्य मित्र की इस बेरुखी से स्वाभाविक ही शेखर के प्रति रामदीन के मन में खीझ भरी इर्ष्या ने घर कर लिया था। समय बेसमय जब भी मित्र की याद आते ही मुंह कसैला सा होने लगता था।

वर्षोपरान्त रामदीन का पुनः मेडिकल चेकअप के लिए भोपाल जाना हुआ। वहां अस्पताल में अनायास ही शेखर से सामना हो गया, देखकर हतप्रभ रह गया।

देखा कि- शेखर अपनी पत्नी का सहारा लिए कंपकंपाते हुए डॉक्टर के केबिन से बाहर निकल रहा है।

पता चला कि, रामदीन के ऑपरेशन के समय से ही वह पार्किसंस की असाध्य बीमारी से ग्रसित चल रहा है।

विस्मित रामदीन के मन में अनजाने ही संवादहीनता के चलते मित्र शेखर के प्रति उपजे अब तक के सारे कलुषित भाव एक क्षण में साफ हो गए।

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल–Meditation: Breathing with the Mind – Learning Video #6 -Shri Jagat Singh Bisht

MEDITATION: BREATHING WITH THE MIND

Learning Video #6

Learn and practice meditation breath by breath. When mindfulness of breathing is developed and cultivated, it is of great fruit and great benefit.

Video link:

Instructions:

Sit down with legs folded crosswise, back straight and eyes closed.

Always mindful, breathe in; mindful, breathe out.

Breathing in long, understand:I am breathing in long; breathing out long, understand: I am breathing out long.

Breathing in short, understand: I am breathing in short; breathing out short, understand: I am breathing out short.

Breathe in experiencing the whole body, breathe out experiencing the whole body.

Breathe in tranquilizing the whole body, breathe out tranquilizing the whole body.

Breathe in experiencing rapture, breathe out experiencing rapture.

Breathe in experiencing pleasure, breathe out experiencing pleasure.

As you breathe in and out, observe your mental processes.

Be aware of the mental processes.

Breathe in experiencing mental formations, breathe out experiencing mental formations.

Breathe in tranquilizing mental formations, breathe out tranquilizing mental formations.

Ever mindful, breathe in; mindful, breathe out.

May all beings be happy, be peaceful, be liberated.

Open your eyes and come out of meditation.

(Based on the Anapanasati Sutta)

 

Jagat Singh Bisht, Founder: LifeSkills

[email protected]

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English Literature – Poetry – Tragedy of Humanity – Hemant Bawankar

Hemant Bawankar

Tragedy of Humanity

(34 years ago in the night of December 2-3, 1984, MIC gas was leaked from the Union Carbide, Bhopal. My poem is a tribute to all those people who lost their life in this incident.  This poem has been cited from my book “The Variegated Life of Emotional Hearts”.)

I heard that

in unknown nations

unknown human beings were

knowingly or unknowingly

burnt alive

killed in gas chambers

burnt in radiation…..

 

Since then

our humanity

has been lost in space

and slept in vain.

 

Remember those moments

when MIC1 was leaked

from a pesticide factory

in that dark night

when

the entire world was sleeping

and

an innocent child was weeping

embraced by

the poisonous gas

in the dead mother’s lap.

 

A youth

just slept

taking his last breath

on a nearby road

who was blessed

for longevity

by an astrologer.

 

Alas!

That innocent child…. and

so-called long-lived youth

are the sign of

thousands of dead human beings.

On that night

black or white

rich or poor

and

beyond the definition of racism

were not running

but,

entire humanity

was running.

 

Those

who smelled MIC1

slept with last breath

and

those who could not…

they are sick

and

approaching to slow death

with the side effect.

 

We can only remember

their souls

in anniversaries

of such tragedies

that is becoming

the dark side of

the humanity

the history.

  1. MIC – Methyl Isocyanate.

© Hemant Bawankar

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हिन्दी साहित्य- कविता – गैस त्रासदी – हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

गैस त्रासदी

(आज से  34 वर्ष पूर्व  2-3 दिसंबर 1984 की रात  यूनियन कार्बाइड, भोपाल से मिक गैस  रिसने  से कई  लोगों  की मृत्यु हो गई थी ।  मेरे काव्य -संग्रह  ‘शब्द …. और कविता’ से  उद्धृत  गैस त्रासदी पर श्रद्धांजलि स्वरूप।)

हम
गैस त्रासदी की बरसियां मना रहे हैं।
बन्द
हड़ताल और प्रदर्शन कर रहे हैं।
यूका और एण्डर्सन के पुतले जला रहे हैं।

जलाओ
शौक से जलाओ
आखिर
ये सब
प्रजातंत्र के प्रतीक जो ठहरे।

बरसों पहले
हिटलर के गैस चैम्बर में
कुछ इंसान
तिल तिल मरे थे।
हिरोशिमा नागासाकी में
कुछ इंसान
विकिरण में जले थे।

तब से
हमारी इंसानियत
खोई हुई है।
अनन्त आकाश में
सोई हुई है।

याद करो वे क्षण
जब गैस रिसी थी।

यूका प्रशासन तंत्र के साथ
सारा संसार सो रहा था।

और …. दूर
गैस के दायरे में
एक अबोध बच्चा रो रहा था।

ज्योतिषी ने
जिस युवा को
दीर्घजीवी बताया था।
वह सड़क पर गिरकर
चिर निद्रा में सो रहा था।

अफसोस!
अबोध बच्चे….. कथित दीर्घजीवी
हजारों मृतकों के प्रतीक हैं।

उस रात
हिन्दू मुस्लिम
सिक्ख ईसाई
अमीर गरीब नहीं
इंसान भाग रहा था।

जिस ने मिक पी ली
उसे मौत नें सुला दिया।
जिसे मौत नहीं आई
उसे मौत ने रुला दिया।

धीमा जहर असर कर रहा है।
मिकग्रस्त
तिल तिल मौत मर रहा है।

सबको श्रद्धांजलि!
गैस त्रासदी की बरसी पर स्मृतिवश!

© हेमन्त बावनकर

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संस्मरण-भूली हुई यादें – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

भूली हुई यादें

(वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय श्री जयप्रकाश पाण्डे जी हमारी पीढ़ी के उन सौभाग्यशाली लोगों में शामिल हैं  जिन्हें कई वरिष्ठ हस्तियों से व्यक्तिगत रूप से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जिनमें प्रमुख तौर पर स्व श्री हरीशंकर परसाईं और आचार्य रजनीश जैसी हस्तियाँ शामिल हैं। हम समय समय पर उनके संस्मरणों का उल्लेख अपने पाठक मित्रों  से साझा करते रहेंगे।)  

इन दिनों डर और अविश्वास ने हम सब की जिंदगी में ऐसा कब्जा जमा लिया है कि कुछ भी सच नहीं लगता, किसी पर भी विश्वास नहीं होता। कोई अपनी पुरानी यादों के पन्ने खोल कर किसी को बताना चाहता है तो सुनने वाला डर और अविश्वास की चपेट में लगता है।

जिस दोस्त को हम ये कहानी बता रहे हैं, वह इस कहानी के सच के लिए तस्वीर चाह रहा है, सेल्फी देखना चाह रहा है, विडियो की बात कर रहा है। उस जमाने में ये सब कहां थे। फिर कहां से लाएं जिससे उसे लगे कि जो वह सुन रहा है सच सुन रहा है।  लड़कपन की कहानी है जब हम छठवीं या सातवीं में पढ़ रहे थे गांव से पढ़ने शहर आये थे गरीबी के साथ गोलबाजार के एक खपरैल कमरे में रहते थे बड़े भाई उन दिनों डॉ महेश दत्त मिश्रा जी के अंडर में इण्डियन प्राइम मिनिस्टर संबंधी विषय पर पीएचडी कर रहे थे। पिता स्वतंत्रता संग्राम के दिनों नौकरी छोड़कर आँखें गवां चुके थे। माँ पिता जी गाँव में थे। घर के पड़ोस में महाकौशल स्कूल था और उस पार अलका लाज के पास साहू के मकान में महात्मा गांधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डाक्टर महेश दत्त मिश्र जी दो कमरे के मकान में रहते थे। सीमेंट से बना मकान था। अविवाहित थे, खुद अपने हाथों घर की साफ-सफाई करते, खाना बनाते, बर्तन और कपड़े धोते। खेलते खेलते कभी हम उनके घर पहुंच जाते। एक दिन घर पहुँचे तो वे फूली फूली रोटियां सेंक रहे थे और एक पुरानी सी मेज में बैठे दाढ़ी वाले सज्जन को वो गर्म रोटियां परोस रहे थे, हम भी सामने बैठ गए, हमें भी गरमा गर्म एक रोटी परोस दी उन्होंने। खेलते खेलते भूख तो लगी थी वे गरम रोटियां जो खायीं तो उसका प्यारा स्वाद आज तक नहीं भूल पाए।

मिश्र जी गोल गोल फूली रोटियां सामने बैठे दाढ़ी वाले को परोसते जाते और दोनों आपस में हंस हंसकर बातें भी कर रहे थे। वे दाढ़ी वाले सज्जन आचार्य रजनीश थे जो उन दिनों विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। लड़कपन था खाया पिया और हम बढ़ लिए…. ।

कुछ दिन बाद शहीद स्मारक के सामने हम लोग खेल रहे थे, खेलते खेलते शहीद स्मारक भवन के हाल में हम लोग घुस कर बैठ गए तो सामने मंच में बैठे वही दाढ़ी वाले रजनीश कुछ कुछ बोल रहे थे, थोड़े बहुत जो लोग सुन रहे थे वे भी धीरे-धीरे खिसक रहे थे पर वे लगातार बोले ही जा रहे थे। इस तरह से लड़कपन में आचार्य रजनीश से बिना परिचय के मिलना हुआ।

बड़े भैया के साथ परसाई जी के यहां जाते तब भी वहां ये बैठे दिखे थे पर उस समय हम न परसाई जी को जानते थे और न ये दाढ़ी वाले आचार्य रजनीश को। कमरे के पीछे आचार्य रजनीश के भाई अरविंद जैन रहते थे जो डी एन जैन महाविद्यालय  में पढ़ाते थे।

अभी दो तीन साल पहले जब पूना के आश्रम घूमने गए तो वहां हमारे एक दोस्त मिल गए, उनसे जब लड़कपन के दिनों की चर्चा करते हुए ओशो से भेंट की कहानी सुनाई तो पहले वे ध्यान से सुनते रहे फिर फोटो की मांग करने लगे……

अब बताओ कि 48 साल पहले की फोटो दोस्त को लाकर कहाँ से दिखायें, जब हमें ये भी नहीं मालूम था कि फोटो – ओटो भी होती थी। हमने कहा पूना आये थे तो सोचा ओशो आश्रम भी घूम आयें और आप मिल गए तो यादों के पन्ने भी खुल गए तो सोचा इन यादों को आपसे शेयर कर लिया जाए, फोटो तो नहीं हैं पर मन मस्तिष्क में सब यादें अचानक उभर आयीं। तब दोस्त ने एक अच्छी सलाह दी कि अब बता दिया तो बता दिया, अब किसी के सामने मत बताना, नहीं तो लोग सोचेंगे कि दिमाग कुछ घूम गया है…….

©  जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – जिनगी का यो यो बीप टेस्ट – श्री शांतिलाल जैन 

श्री शांतिलाल जैन 

जिनगी का यो यो बीप टेस्ट

(आदरणीय श्री शांतिलाल जैन जी का यह व्यंग्य कुछ समय पूर्व सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा था। सम्पूर्ण व्यंग्य मात्र एक पोस्ट की तरह जिसमें  कहीं भी उनके नाम का उल्लेख नहीं था। जब यह व्यंग्य उन्होने मुझे भेजा और मैंने इस सच्चाई से उन्हें अवगत कराया तो बड़ा ही निश्छल एवं निष्कपट उत्तर मिला – “मैंने इन चीजों पर कभी ध्यान नहीं दिया। लिखा, कहीं छप गया तो ठीक, फिर अगले काम में लग गए।” उनके इस उत्तर पर मैं निःशब्द हूँ, किन्तु ,मेरा मानना है की हम सबको सबके कार्य और नाम को यथेष्ट सम्मान देना चाहिए।)

“हलो अम्मा, हम गोपाल बोल रहा हूँ…..परणाम……हम ठीक हूँ अम्मा…वारंगल आ गया हूँ….काहे ? काहे क्या अम्मा, हम बताये था ना आपको… हम ‘यो यो टेस्टवा’ पास कर रहे हैं. का बतायें अम्मा…..जिनगी के खेल में बने रहना है तो यो यो टेस्टवा तो पास करना ही पड़ेगा ना… का है कि फेल हो जाते तो मार दिये जाते….क्या पूछ रही हो…..कि क्या होता है ई टेस्टवा में. केतना तो छप रहा पेपर में. हम भी पेपर में ही पढ़े हैं. तुम समझ नहीं सकोगी अम्मा फिर भी बताये दे रहे हैं….ई टेस्टवा में दो सीधी गईल लाइन पर तनिक तनिक दूरी पर कई कोनवा रखे जाते हैं जिनके बीच बीस मीटर की दूरी होईल है. दौड़नेवाला एक लाईनवा के पीछे अपना पांव रखकर शुरुआत करता है और ईशारा मिलते ही दौड़ने लगता है. दो कोनवा के बीच की दूरी पर बनी दो लाईनों के बीच लगातार दौड़ना पड़ता है अम्मा और जब एक घंटी सी बजती है जिसे बीप कहते हैं तब मुड़ना होता है. हर बीप पर तेज़ और तेज दौड़ना होता है. तो अम्मा…शहर क्या कोन्स समझो. छपरा से सिलचर. सिलचर से जयपुर. जयपुर से रायपुर. रायपुर से भिवंडी. भिवंडी से राजकोट. राजकोट से वारंगल. दूरी मीटरवा में नहीं किलोमीटरवा में. लट्ठ की बीप बज उठती है तो पहले से तेज़ भागना पड़ता है अम्मा. ये हमरे जिन्दा रहने के‘यो-यो बीप टेस्ट’ हैं. आप तो जानती हो अम्मा पाँव जिस रेखा के पीछे रहा उसे ये लोग गरीबी की रेखा कहते हैं, बाबा के संकेतवा पे दौड़ना शुरू किये थे. पहला कोन सिलचर में रहा, दूसरा भिवंडी में, अभी आखिरी बीपवा राजकोट में बजल रहा.

…बस अम्मा आपका आशीरवाद ठहरा जो किसी तरह इस कोनवा तक आ गए. रेल छत पर भी तिल रखने की जगह नही थी. हम तो तीन बार बिजली के तार से टकराते टकराते बचे हैं मगर हाजीपुरवाला नरेन अँधेरे में छत से कब कहाँ गिरा पता भी नहीं चला. रोओ मत अम्मा….दरद कैसा ? टेस्टवा पास करने की खुसी में डंडा खाने का दरद भूल गए हैं.

अम्मा….बाबा बचपन में कहते थे ना हम भारतीय हैं – गलत कहते थे. हर कोन पर हम बिहारी हैं अम्मा. बीप बजानेवाले असमी, मराठी, गुजरती, तेलुगु या ऐसे ही कुछ कुछ हैं. केतना केतना दौड़े हैं – भारतीय कोई नहीं मिलल. का बताई अम्मा… टेस्टवा की बीप बजानेवाले महीनों काम करा लेते हैं फिर बिना पगार दिए बीप बजा देते हैं ससुरे. हम तो फिर भी दौड़ लेब अम्मा  – आपकी बहू मुश्किल से दौड़ पाती हैं. चिंकू को गोद में उठाये, परी को पीठ पर लादे गिरस्ती का सामानवा लिए दौड़ते हैं अम्मा. किसी तरह पहुँच जाते हैं दूसरे कोन पे…..हेलो अम्मा.. सुन रही हो….बाबा कहते थे ना अम्बेडकरजी लिखलवा क़ानून का केताब में कि सब बराबर हैं – ऊ गलत कहिन. लट्ठ उनकी केताब पे भी भारी पड़ता है. .. अभी रहेंगे यहाँ हम…यहाँ नई राजधानी बन रही है सो बीप बजने में समय बाकी है अभी… चलो रखते हैं… दस रूपये का रिचार्ज करवाए थे. बेलेंस ख़तम होने को है. खुसी बस इतनी कि जिनगी का यो यो टेस्ट किलियर करते जा रहे हैं…. अपना ख़याल रखना अम्मा. परणाम.

© श्री शांतिलाल जैन 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – एक बहके बुजुर्ग का संकट – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

एक बहके बुजुर्ग का संकट

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. कुन्दन सिंह परिहार जी विगत पाँच दशक से भी अधिक समय से साहित्य सेवा के लिए समर्पित हैं।  चालीस वर्ष तक महाविद्यालयीन अध्यापन के बाद 2001 में जबलपुर के गोविन्द राम सेकसरिया अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त। आप म.प्र. हिन्दी  साहित्य सम्मेलन के वागीश्वरी पुरस्कार एवं राजस्थान पत्रिका के सृजनशीलता सम्मान से सम्मानित हैं।  आपके  पाँच कथा संग्रह एवं दो व्यंग्य संग्रह  प्रकाशित हो चुके हैं।  साथ  ही  200  से अधिक कहानियाँ एवं लगभग इतने ही व्यंग्य विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। e-abhivyakti में हम आपके इस प्रथम व्यंग्य को प्रकाशित कर गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं एवं भविष्य में भी साहित्यिक सहयोग की अपेक्षा करते हैं।) 

बब्बू भाई करीब पैंतीस साल की शानदार सेवा करके दफ्तर से बाइज़्ज़त और बेदाग़ रिटायर हो गये। रिटायर होने के बाद ज्यादातर रिटायर्ड लोगों की तरह न घर के रहे, न घाट के। रोज सवाल मुँह बाये खड़ा हो जाता कि कहाँ जायें और क्या करें। घर में ज्यादा धरे रहें तो आफत, ज्यादा घूमें घामें तो आफत।

बब्बू भाई की पूजा-पाठ में कभी रुचि रही नहीं। कभी घरवालों का जोर पड़ा तो मंदिर हो लिए, कभी घर में पूजा हुई तो यंत्रवत खानापूरी कर ली, और उसके बाद फुरसत। इसलिए रिटायरमेंट का वक्त पूजा-पाठ में गुजारने का वसीला नहीं बना, जो बहुत से रिटायर्ड लोग करते हैं।
बब्बू भाई सबेरे उठकर पास के पुल की तरफ निकल जाते। वहाँ धीरे धीरे टहलते रहते। पुल की दीवार से टिककर कानों में इयर फोन लगाकर पसंद के गाने सुनते रहते। इसी में घंटा डेढ़ घंटा कट जाता। कोई परिचित मिल जाता तो आराम से बात भी हो जाती।

इधर कुछ दिन से बब्बू भाई पास के पार्क में जाने लगे हैं। पार्क साफ-सुथरा है। घूमने के लिए पक्की पट्टी है, बैठने के लिए पत्थर की बेंचें हैं, बीच में हरी घास का मैदान है। बब्बू भाई गीत-गज़ल के शौकीन हैं। समझ भी रखते हैं। मोबाइल में यू-ट्यूब पर गज़लें लगा लेते हैं। बेंच पर बैठकर बड़ी देर तक सुनते रहते हैं और वाल्यूम बढ़ा देते हैं ताकि आसपास के लोग भी आनंद लें। बेगम अख्तर, जगजीत सिंह, मेंहदी हसन, गुलाम अली, फरीदा खानम, नूरजहां, मलिका पुखराज के स्वर देर तक गूंजते रहते हैं। आजू-बाजू में टहलते लोग उन सुरों को सुनकर कुछ देर ठमक जाते हैं।

बब्बू भाई पार्क से संतुष्ट होकर, अच्छे संगीत को बांटने का एहसास लेकर लौटते हैं। बड़ी देर तक मूड अच्छा बना रहता है।
लेकिन मुहल्ले में बब्बू भाई के खिलाफ कुछ और खिचड़ी पकने लगी। मुहल्ले की महिलाओं ने बब्बू भाई की पत्नी से शिकायत की कि बब्बू भाई के लच्छन कुछ अच्छे नहीं हैं, वे पार्क में बैठकर ऊटपटाँग गाने सुनते रहते हैं। शिकायत है कि उनका आचरण बुजुर्गों जैसा कम और लफंगों जैसा ज्यादा है।

बब्बू भाई की पत्नी किराने की दूकान पर मुहल्ले की ‘बुआ जी’ से मिलीं तो बात और तफसील से हुई। बुआ जी बोलीं, ‘बहन अब क्या बतायें। आपके हज़बैंड पार्क में रोज इश्क विश्क वाले गाने लगाकर बैठ जाते हैं। कोई बेगम हैं जो गाती हैं– ‘अय मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, कोई गाती हैं ‘आज जाने की जिद न करो, यों ही पहलू में बैठे रहो’, मतलब यह सब कि सब काम-धंधा छोड़कर इनके बगल में धरे रहो। एक और गाती हैं ‘अभी तो मैं जवान हूँ।’ अब बताओ भैना, आपके हज़बैंड को इस उमर में ये गाने सुनना शोभा देता है क्या? बुढ़ापे में कोई गाये कि अभी तो मैं जवान हूँ तो कैसा लगेगा? एक और पाकिस्तानी गायक हैं जो गाते हैं कि तेरा छत पे नंगे पांव आना याद है। अब बताओ मुहल्ले के लड़के ये गाने सुनेंगे तो उनके दिमाग पर क्या असर पड़ेगा? वैसे ही नयी पीढ़ी का सत्यानाश हो रहा है। आपके हज़बैंड को चाहिए कि परलोक की चिन्ता करें और भजन कीर्तन वगैरह सुनें। उन्हें सत्संग में भेजा करो। संस्कार चैनल दिखाया करो। इस उम्र में इश्क के गाने सुनकर परलोक नहीं  बनने वाला।’

बुआ जी आगे बोलीं, ‘और फिर आपके हज़बैंड ज़्यादातर पाकिस्तानी गायकों के गाने क्यों सुनते हैं? पाकिस्तान हमारा दुश्मन है। हम पाकिस्तानी गायकों को घुसने नहीं देते। लेकिन आपके हज़बैंड उन्हें कान से और दिल से चिपकाए रहते हैं। ये अच्छी बात नहीं है। इससे आपके हज़बैंड की देशभक्ति पर सवाल उठता है।’

बब्बू भाई की पत्नी ने लौटकर सब पति को बताया। बब्बू भाई भी चिंता में पड़ गये। यह कहाँ की मुसीबत आ गयी!

अब बब्बू भाई पार्क में बैठते तो मुहल्ले की महिलाएं टहलते टहलते रुककर सुझाव देने लगतीं -‘भाई साहब, हरिओम शरन लगा लीजिए। ‘तेरा राम जी करेंगे बेड़ा पार’ या ‘मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तुम्हारे  आऊँ ‘।अनूप जलोटा को लगाइए। गजल वजल सुनना भूल जाएंगे। ‘ बब्बू भाई अब इयरफोन से ही सुनते ताकि आसपास के लोगों को हवा न लगे कि वे क्या सुन रहे हैं।

बब्बू भाई के पास अब सत्संग में चलने के निमंत्रण आने लगे। बब्बू भाई बहाना बनाकर बचते। मुहल्ले वाले उन्हें सुधारने पर आमादा हो गये थे। बुआजी ने बब्बू भाई की पत्नी को यह सलाह दे दी थी कि हर साल बब्बू भाई को तीर्थयात्रा पर ले जायें और हर महीने घर में सुन्दरकांड का पाठ करायें।

इस चौतरफा हमले से परेशान बब्बू भाई फिलहाल अंतर्ध्यान हो गये हैं। सुना है कि वे ससुराल-सेवन के लिए निकल गये हैं। एक दो महीने वहाँ रहेंगे, फिर दूसरी रिश्तेदारियां खंगालेंगे। फिलहाल उनका शहर लौटने का इरादा नहीं है। उम्मीद की जा रही है कि उनकी अनुपस्थिति से मुहल्ले का प्रदूषण-स्तर कुछ कम हो जायेगा।

यह भी चर्चा है कि उनका इरादा नर्मदा किनारे एक दो एकड़ ज़मीन खरीदने का है जहाँ वे कुटिया बनाकर रहेंगे और जहाँ उन्हें टोकने और नसीहत देने वाला कोई न होगा।

© डॉ कुन्दन सिंह परिहार (मो. 9926660392)

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हिन्दी साहित्य- कविता – ‘दिल्ली’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

दिल्ली

किसे समझते हैं आप दिल्ली!

जगमगाती ज्योति से नहाए

लोकतंत्र की पालकी उठाए खड़े लकदक

संसद,राष्ट्रपति और शास्त्रीभवन

व्य्यापारिक व कूटनीतिक बाँहैं फैलाए

युद्धिष्ठिर को गले लगाने को आतुर

लोहे के धृतराष्ट्र-से बेचैन

दुनिया भर के राष्ट्रों के दूतावास,

विश्वस्वास्थ्य संगठन,बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्यालय

सर्वोच्च न्यायालय,एम्स और

जवाहर लाल नेहरू विश्वद्यालय

यानी न्याय,स्वास्थ्य,अर्थ और शिक्षा के

नित नए सांचे-ढाँचे, गढ़ते -तोड़ते संस्थान

इतिहास,धर्म,संस्कृति,साहित्य और कला को

छाती पेटे लगाए

लालकिला, कुतुबमीनार, शीशमहल

अक्षरधाम, ज़ामामस्ज़िद, इंडियागेट, चाँदनी चौक

रामलीला मैदान, प्रगति मैदान, ललित कला अकादमी, हिंदी अकादमी, ज्ञानपीठ,

वाणी, राजकमल, किताबघर जैसे

अद्भुत विरासत साधे

स्थापत्य, स्थान और प्रतिष्ठान

आखिर किसे समझते हैं आप दिल्ली !

 

कल-कारखानों का विष पीती-पिलाती

काँखती,कराहती बहती

काली-कलूटी कुब्जा यमुना

दिल्ली और एन सी आर के बीचोबीच

अपने पशुओं के लिए घास ढोती

उपले थापती आधी दुनिया

माने औरत जाति

आखिर किसे कहते हैं आप दिल्ली!

 

मिरांडा हॉउस, लेडी श्रीराम कॉलेज में

किताबों में सर गाड़े

या किसी पब्लिक स्कूल के पीछे वाले भूभाग में

बड़े पेड़ या झाड़ की आड़ में स्मैक के आगोश में

छिपके बैठी होनहार पीढ़ी

रेडलाइट इलाके में छापे मारती हाँफती भागती पुलिस

पंचतारों में बिकने को आतुर किशोरियाँ

और उनको ढोते दलाल

बोलो! किसे पुकारेंगे आप  दिल्ली?

 

ओला, ऊबर को चलते-चलते बुक करती

मालों में काम को सरपट जाती लड़कियाँ

मेट्रो, बस या बाज़ार में

पर्स और मोबाइल मारते  जेबकतरे

चिचिलाती धूप और शीत लहर में

पानी की लाइन में खड़े बच्चे-बूढ़े और अधेड़

क्या ये भी नहीं है दिल्ली?

 

संघ लोक सेवा आयोग की अग्नि परीक्षा में

घर-बार की होलिका जलाए

ककड़ी-से फटे होठों को चाटते

कोचिंगों की परिक्रमा करते तरुण

क़र्ज़ में डूबे किसान-से

चिंताओं के पहाड़ के साथ

अपना स्ववृत्त लादे रोज़गार खोजते युवा

चौराहों पर बाबू जी !बाबू जी !

चिल्लाते सहमे हुए पास आते

झिड़कियां खाकर भी हाथ बाँधे

आशा में खड़े मज़दूर

इनमें सबके सब दिल्ली  के भले न हों

पर इन में भी  खोज  सकते हैं आप दिल्ली।

 

दिल्ली सिर्फ जन प्रतिनिधियों की आबादी नहीं है

बीमारी से बचे पैसों से साग सब्जी लाते

आम आदमियों के हिस्से में भी है

कुछ दिल्ली

इसे धृतराष्ट्र के हवाले किया तो

हस्तिनापुर के झगड़े में

निर्वस्त्र हुई द्रोपदी -सी

हाहाकारी हो सकती है दिल्ली

बारबाला भी नहीं है दिल्ली

जो सुरा परोसे और मुस्काए

और, किसी नगर सेठ की जंघा पर बैठ जाए

दिल्ली सिर्फ और सिर्फ़ सफ़ेद खादी नहीं है

दिल्ली बहुत कुछ स्याह भी है

उसके बरक्स

मलमली रंगीनियाँ भी हैं दिल्ली में।

दिल्ली में कुछ के ही होते हैं हफ्ते में पाँच दिन

बाक़ी के हिस्से में चौबीस घंटों वाला

सात दिन का ही है सप्ताह

क्या सोचते हैं दिल्ली के बारे में आप!

 

धक्कामुक्की हो सकती है मेट्रो और बसों में

पर केवल भीड़ भी नहीं है दिल्ली

दिल्ली में कोई पूछ भी सकता है

परिवार के हाल-चाल और नहीं भी

एकांत में थाम सकता है कोई हाथ

अपना सकता है जीवन भर के लिए

पल में छूट  सकता है कोई हाथ

पुकारने पर दूर -दूर तक नहीं दिख सकती है

कोई आदम की छाया भी

लेकिन दिल्ली निर्जन भी  नहीं है

डियरपार्क में बतकही हो सकती है

विश्वनाथ त्रिपाठी से

किसी आयोजन में मिल सकते हैं

नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डे

हरनोट और दिविक रमेश

‘काला पहाड़’ लादे रेगिस्तान की रेत

फाँकते आए मोरवाल

या उसे धकेलते

देश के कोने-कोने से आए

कई साहित्यकार छोटे-बड़े  गुट में

यानी निर्गुट भी नहीं है दिल्ली

दिल्ली में दल हैं दलों के कीचकांदो से उपजे

जानलेवा दलदल भी हैं दिल्ली में

नेता,अभिनेता,व्यापारी,चोर,दिवालिया,साहित्यकार

नाटककार,साहूकार हो या फिर चोर छिनार,

दिल्ली में बसना सब  चाहते हैं

लेकिन बसाना कोई नहीं चाहता है दिल से

किसी को अपनी -अपनी दिल्ली में

बसाने को बसाते भी हैं जो नई दिल्ली

वे बस संख्या लाते हैं दिल्ली में

इनमें केवल साहित्यकार ही नहीं हैं

जो बनाने को मठ

उदारतावश ढोते रहे हैं यह संज्ञाविहीन संख्या

ला-ला के भरते रहे हैं

अपना गाँव,देश-जवार बाहर-बाहर से

गुडगांवा,गाज़ियाबाद,फरीदाबाद वाली दिल्ली में

शकूर और दयाबस्ती में

नेता भी कुछ कम नहीं हैं इनमें अग्रणी

कौन पूछे कि किस वजह से

आधे से ज़्यादा नेता और साहित्यकर ही

बसते हैं हमारी दिल्ली में?

आपको भी बनना है कुछ तो आ जाओ दिल्ली

छानो ख़ाक

किसी का लंगोट छाँटो या पेटीकोट

शर्माओ मत

कविता हो या राजनीति

सब गड्डमड्ड कर डालो

बढ़ो आगे

गढ़ो नए प्रतिमान

जिसमें कुछ न हो उसमें ही सबकुछ दिखाओ

और सबकुछ वाली पांडुलिपि को कूड़ा बताओ

तभी तो तुम्हारा प्रातिभ दरसेगा

सर्जक यदि कुबेर हुआ तो धन यश सब बरसेगा

और जब कुछ हो जाओ तो फिर देर मत लगाओ

गुट बनाओ जैसे बनाया था तुम्हारे गुरु ने

सबसे पहले उसी को पटखनी दो

जिसका छांटा है दिन-रात लंगोट

फिर क्या है

मज़े से शराब पी-पीकर जिस-तिस को गरियाओ

पगुराओ गंधाती आत्म कथा

यह भी इसी दिल्ली की एक हृष्ट-पुष्ट यानी

स्वस्थ ,साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपरा है।

खैर छोड़ो!यह तो रही हमारी अपनी बताओ

आखिर आप किसे मानते हैं दिल्ली!

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

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