रंगमंच स्मृतियाँ – “काल चक्र” – श्री असीम कुमार दुबे

रंगमंच स्मृतियाँ – “काल चक्र” – श्री असीम कुमार दुबे

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं। – हेमन्त बावनकर)   

काल चक्र – मानवीय संवेदनाओं का बयां करता नाटक  

संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से कोशिश नाट्य संस्था की ओर से भारत भवन के अंतरंग सभागार में रंगकर्मी श्री असीम कुमार दुबे के निर्देशन में नाटक ‘काल चक्र’ का मंचन किया गया। इस नाटक का मंचन 13 वर्ष बाद कुछ बदलाव के बाद दुबारा किया गया। इससे पहले यह रवीन्द्र भवन में प्रस्तुत किया गया था।

नाटक का कथानक मराठी लेखक स्वर्गीय जयवंत दळवी के कालजयी नाटक पर आधारित है। इसके स्क्रिप्ट में कुछ बदलाव करने के पश्चात संगीत एवं प्रकाश के अभूतपूर्व संयोजन के साथ जीवन्त प्रस्तुति दी गई।

इस नाटक का गीत-संगीत अहम पहलू रहा।

शीर्षक गीत इस नाटक में बूढ़े- माँ बाप की मानसिक एवं शारीरिक स्थिति को बहुत गहराई से बयां करता है।

जन्म निश्चित

मृत्यु निश्चित

ये जीवन है कालचक्र ….. ।

इसी तरह हमनें जिन पर प्यार लुटाया

उन्होने हमें क्या लौटाया …… ।

उनके जीवन के आखिरी पड़ाव में आने वाली उलझनों और अपनों के तिरस्कार की पीड़ा दिखाई गई है।

यह एक सामान्य मध्यमवर्गीय ईमानदार परिवार के स्वाभिमानी पिता विटठल और माँ रुक्मणी की कहानी है। कहानी उन बुजुर्ग दम्पतियों की शारीरिक और मानसिक पीड़ा बयां करती है, जिनके दो बेटे होने के बावजूद उन्हें वृद्धाश्रम की राह दिखाई जाती है।  उनके दो पुत्र हैं विश्वनाथ एवं शरद। वे अपने बड़े बेटे विश्वनाथ और बहू लीला के पास रहते हैं। बेटे बहू बात-बात पर विट्ठल और रुक्मणी को ताने देते रहते हैं। उनका छोटा बेटा शरद एक दवा कंपनी में अधिकारी है और उसकी पत्नी मीना सोशल वर्कर है। वे दोनों स्वयं को बहुत ही व्यस्त दिखाते हैं। इसलिए माता पिता से मिलने कभी-कभार आ पाते हैं। नाटक का सबसे महत्वपूर्ण पल वह होता है, जब पिता सोचता है कि जिस तरह से लोग बच्चे गोद लेने के लिए विज्ञापन निकालते हैं, उसी तरह क्यों न माता-पिता को गोद लेने के लिए विज्ञापन निकाला जाए। जिस पर दोनों बेटे अपने पिता का मज़ाक बनाते हैं और कहते हैं किस इस उम्र में कौन तुम्हें गोद लेगा?

इतना सब कुछ होने के बाद भी प्रोफेसर दंपति राघव और इरावती उनको गोद लेने के लिए तैयार हो जाते हैं। प्रोफेसर दंपति उन्हें खुश रखने में कोई कसर नहीं छोड़ते। माता-पिता को गोद लेने के बाद जब माँ का जन्मदिन आता है जिसे काफी धूमधाम से जन्मदिन मनाया जाता है। इतनी अपार खुशी के माँ सहन नहीं कर पाती और उनको हार्ट अटैक आ जाता है। कुछ दिनों के पश्चात इरावती से कविता सुनते सुनते पिता भी आँखें मूँद लेते हैं। इसी समय दोनों बेटों को अपनी गलती पर पश्चाताप होता है। वे अपने माता पिता को वापस लेने जाते हैं। किन्तु,  जब तक वे पहुँचते हैं, तब तक सब कुछ समाप्त हो चुका होता है।

यदि मराठी में सारांश बयां करना चाहें तो –

“काल तुम्ही आमच्यावर अवलंबून होता. आज आम्ही तुमच्यावर अवलंबून आहोत ! हे एक कालचक्र आहे !

आज तुम्ही जे म्हणताय, तेच आम्ही आमच्या तरुणपणी म्हणत होतो. आज आम्ही जे म्हणतोय तेच तुम्ही उद्या तुमच्या म्हातारपणी म्हणणार!”

अर्थात

“कल तुम हम पर अवलंबित थे, आज हम तुम पर अवलंबित हैं। यह एक कालचक्र है!

आज जो तुम कह रहे हो, वही हम अपनी युवावस्था में कहते थे। आज जो हम कहते हैं, वही तुम कल अपनी वृद्धावस्था में कहोगे।”

मंच पर सुषमा ठाकुर, आलोक गच्छ, विवेक सावरीकर मृदुल, महुआ चटर्जी, भुवांशु शर्मा, राजीव श्रीवास्तव, रश्मि गोल्या, जगदीश बागोरा, अपूर्वा मुक्तिबोध, कान्हा जैन, अवनि वर्मा आदि ने प्रत्येक पात्र की सजीव भूमिकाएँ निभाईं।

नेपथ्य में कमल जैन (प्रकाश परिकल्पना), लीला और किशोर (मंच निर्माण), शरद नायक, प्रशांत धवले, स्मिता खरे (गायन) लक्ष्मी नारायण ओसले (वाद्य) एवं पुनीत वर्मा द्वारा वायलिन पर विशेष प्रस्तुति दी गई।

 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – चिड़िया – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जय प्रकाश पाण्डेय

 

चिड़िया

 

जब चिड़िया फुदकती है,
तो नहीं पूछो उसकी जाति,

जब चिड़िया चहकती है,
तो नहीं पूछो उसका धर्म,

चिड़िया पंख पसारती है,
तो नहीं पूछो वो मकसद,

चिड़िया हमारे मन में,
पैदा करती है उड़ने का भ्रम,

चिड़िया हमें सिखाती है,
घोंसले बनाने जैसा परिश्रम,

चिड़िया धर्म नहीं मानती,
चुगती है दाना बनाके झुंड,

चिड़िया उदास नहीं होती,
घोंसला टूटने के बाद,

फिर से हौसला बढ़ाती है,
उत्साह से हर तिनके साथ,

© जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – जिन्दगी का गणित – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

जिंदगी का गणित 

वैसे भी
मेरे लिए
गणित हमेशा से
पहेली रही है।

बड़ा ही कमजोर था
बचपन से
जिंदगी के गणित में।
शायद,
जिंदगी गणित की
सहेली रही है ।

फिर,
ब्याज के कई प्रश्न तो
आज तक अनसुलझे हैं।

मस्तिष्क के किसी कोने में
बड़ा ही कठिन प्रश्न-वाक्य है
“मूलधन से ब्याज बड़ा प्यारा होता है!”
इस
‘मूलधन’ और ‘ब्याज’ के सवाल में
‘दर’ कहीं नजर नहीं आता है।
शायद,
इन सबका ‘समय’ ही सहारा होता है।

दिखाई देने लगता है
खेत की मेढ़ पर
खेलता – एक छोटा बच्चा
कहीं काम करते – कुछ पुरुष
पृष्ठभूमि में
काम करती – कुछ स्त्रियाँ
और
एक झुर्रीदार चेहरा
सिर पर फेंटा बांधे
तीखी सर्दी, गर्मी और बारिश में
चलाते हुये हल।

शायद,
उसने भी की होगी कोशिश
फिर भी नहीं सुलझा पाया होगा
इस प्रश्न का हल।

आज तक
समझ नहीं पाया
कि
कब मूलधन से ब्याज हो गया हूँ ?
कब मूलधन से ब्याज हो गया है ?

यह प्रश्न
साधारण ब्याज का है?
या
चक्रवृद्धि ब्याज का है?

मूलधन किस पीढ़ी का है ?
और
उसे ब्याज समेत चुकाएगा कौन?
और
यदि चुकाएगा भी
तो किस दर पर
और
किसके दर पर ?

© हेमन्त बावनकर

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रंगमंच स्मृतियाँ – “तीसवीं शताब्दी” – श्री असीम कुमार दुबे

रंगमंच स्मृतियाँ – “तीसवीं शताब्दी” – श्री असीम कुमार दुबे

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं। – हेमन्त बावनकर)   

उपरोक्त चित्र भोपाल के भारत भवन में स्वर्गीय के जी त्रिवेदी नाट्य समारोह में बादल सरकार के नाटक “तीसवीं शताब्दी” के मंचन के समय का है। इस नाटक का ताना बाना हिरोशिमा की बरसी पर हिरोशिमा की विभीषिका के इर्द गिर्द बुना गया है।

इस नाटक में पात्र कल्पना करता है कि वह तीसवीं शताब्दी के लोगों से बात कर रहा है। उसे यह आभास होता है कि तीसवीं शताब्दी के लोग बीसवीं शताब्दी के लोगों पर यह आरोप लगाएंगे कि- हमने आखिर हिरोशिमा-नागासाकी जैसे कांड को होने ही क्यों दिया? वह पाता है कि इस शताब्दी का प्रत्येक व्यक्ति अपराधी है, उसका अपराध यह है कि उसने मानवता के प्रति ऐसी साज़िशों के प्रति आवाज क्यों नहीं उठाई?

इस समारोह में अनूप शर्मा को कला निर्देशन, जुल्फकार को संगीत के लिए सम्मानित किया गया। संगीता अत्रे को “शो मस्ट गो ऑन” के खिताब से नवाजा गया। यह संगीता अत्रे का रंगकर्म के प्रति समर्पण भाव को प्रदर्शित करता है जो अपनी माँ की दो दिन पूर्व मृत्यु के पश्चात भी नाटक में भावपूर्ण प्रस्तुति देने आईं। नाटक में असीम दुबे, नीति श्रीवास्तव, प्रवीण महुवाले, साजल श्रोत्रिय, संगीता अत्रे, दीपक तिवारी, ऐश्वर्या तिवारी, इन्दिरा आदि ने भूमिकाएँ निभाईं।

© असीम कुमार दुबे

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हिन्दी साहित्य – कविता – अर्जुन सा जनतंत्र…. मायावी षडयंत्र – डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

अर्जुन सा जनतंत्र…. मायावी षडयंत्र 

अभिलाषाएं  अनगिनत,  सपने  कई हजार

भ्रमित मनुज भूला हुआ, कालचक्र की मार।

 

दोहरा जीवन जी रहे,सुविधा भोगी लोग

स्वांग संत का दिवस में,रैन अनेकों भोग।

 

पानी पीते छानकर, जब हों बीच समाज

सुरा पान एकान्त में, बड़े – बड़ों  के राज।

 

यदि योगी नहीं बन सकें, उपयोगी बन जांय

दायित्वों के साथ में, परहित कर सुख पांय।

 

रामलीला में राम का अभिनय करता खास

मात – पिता को दे दिया, उसने ही वनवास।

 

सभी मुसाफिर है यहाँ,जाना है कहीं ओर

मंत्री  –  संत्री, अर्दली,  साहूकार  या  चोर।

 

लगा रहे हैं कहकहे, कर के वे दातौन

मटमैली सी  देहरी, सकुचाहट में मौन।

 

मोहपाश में है घिरा , अर्जुन सा जनतंत्र

कौरव दल के  बढ़ रहे, मायावी षडयंत्र।

 

बदल रही है बोलियां, बदल रहे हैं ढंग

बौराये से सब लगे, ज्यों  खाएं हो भंग।

 

ठहर गई है  जिंदगी,  मौन  हो  गए  ओंठ

रुके पांव उम्मीद के, गुमसुम गुमसुम चोट।

 

भूल  गए  सरकार जी, आना  मेरे  गाँव

छीन ले गए साथ मे, मेल-जोल सद्भाव।

 

शकुनि  से   पांसे  चले, ये   सरकारी   लोग

तबतक खुश होते नहीं,जबतक चढ़े न भोग।

 

जब से मेरे गाँव में, पड़े शहर के पांव

भाई  चारे प्रेम के, बुझने लगे अलाव।

 

लिखते – पढ़ते, सीखते, बढ़े आत्मविश्वास

मंजिल पर पहुंचे वही, जिसने किए प्रयास।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – सबसे बड़ा रुपैया – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जय प्रकाश पाण्डेय

(यह व्यंग्य बेशक श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर लिखा था किन्तु, अब भी सामयिक लगता है।)

सबसे बड़ा रुपैया

पहले कोई नहीं जानता था कि कि दुष्ट डालर का रुपए से कोई संबंध भी होता था। रुपया मस्त रहता था, कभी टेंशन में नहीं रहता था। टेंशन में रहा होता तो रुपये को कब की डायबिटीज और बी पी हो गई होती। पहले तो रुपया उछल कूद कर के खुद भी खुश रहता और सबको सुखी रखता था, तभी तो हर गली मुहल्ले के रेडियो में एक ही गाना बजता रहता था…….

“पांच रुपैया बारह आना,
मारेगा भैया ना ना न”

तब रुपैया की बारह आना से खूब पटती थी दोनों सुखी थे एकन्नी में पेट भर चाय और दुअन्नी में पेट भर पकौड़ा से काम चल जाता था कोई भूख से नहीं मरता था। घर का मुखिया परिवार के बारह लोगों को हंसी खुशी से पाल लेता था। अब तो गजबेगजब हो गया…

“बेटा भला न भैया
सबसे बड़ा रुपैया”

वाली बात सबके अंदर समा गई है बाप – महतारी को बेटे बर्फ के बांट से तौलकर अलग अलग बांट लेते हैं ये सब तभी से हुआ जबसे ये दुष्ट डालर रुपये पर बुरी नजर रखने लगा…… ये साला डालर कभी भी बेचारे रुपये का कान पकड़ कर झकझोर देता है। जैसई देखा कि आजादी के सत्तर साल का भाषण लाल किले से होने वाला है उसी दिन टंगड़ी मार के रुपये को सत्तर के चक्कर में गिरा दिया। लाल किले के भाषण की कीमत गिरा दी, डालर को पहले से पता चल गया होगा कि भाषण में लटके झटके ज्यादा होंगे, हर बात पर सत्तर साल का जिक्र आयेगा हर बार यही कहा जाएगा कि सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ, डालर दूरदर्शी है भाषण के पहले उसी दिन रुपए को उठा के पटक दिया। जो लोग डालर पहन के भाषण सुनने आये थे उनकी अंडरवियर गीली हो गई एलास्टिक जकड़ गई। गंगू  हमेशा से पट्टे वाली चड्डी पहनता है, इकहत्तर रुपये वाली डालर कभी नहीं पहनता। पट्टे वाली चड्डी में ये सुविधा रहती है कि अपनी सुविधानुसार नाड़े को कस लो, डालर में नाड़ा डालने की जगह ही नहीं बनाई गई।

बाजार में हर चीज पर एम आर पी लिख कर कीमत तय कर दी जाती है रुपये में कभी एम आर पी लिखा नहीं जाता।बड़े बाजार में रुपए को पतंग बना के उड़ाया जाता है और पतंग की डोर डालर के बाप के हाथ में होती है। डालर का बाप हाथ मटका मटका कर कभी पतंग नहीं उड़ाता और न अच्छे दिन की दुहाई देता। जो जबरदस्ती गले लगने लगता है उसकी जेब काट लेता है और समय आने पर उठा कर पटक देता है।

अगर कभी रुपये की कीमत की बात होती है तो सबसे पहले उसकी तुलना डालर से करते हैं और ये भी सच है कि जब देश आजाद हुआ था तब एक रुपया एक डालर के बराबर हुआ करता था। हमारे नेताओं की अपना घर भरने की प्रवृत्ति को जब डालर  जान गया तो अट्टहास करके उछाल मारने लगा। डालर ये अच्छी तरह समझ गया कि भारत में नेताओं का संसद में सोने का शौक और भारतीय महिलाओं का सोने से प्रेम दिनों दिन बढ़ेगा और इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए वो दादागिरी पर उतारू हो गया। इसी के चलते  जब रुपये को पटक कर इकहत्तर पर पहुंचा दिया तो भारत की तरफ व्यंग्य बाण चला कर वो कह रहा है कि मजबूत मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक स्थिति की मजबूती का प्रमाण होती है तो जब रुपया लगातार गिर रहा है तो सरकार क्यों कह रही है कि हम आर्थिक रुप से मजबूत हो रहे हैं क्योंकि हमारी देशभक्ति और विकास में आस्था है।

गंगू बहुत परेशान है माथे पर हाथ टिकाए सोच रहा है अजीब बात है सरकार कह रही है कि सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ और पुरानी सरकार की लकवाग्रस्त नीतियों से रुपये की कीमत गिरी है अब जब चार साल से विकास ही विकास हो रहा है और अच्छे दिन का डंका बज रहा है तो रुपया और तेजी से क्यों गिर रहा है और इकहत्तर पार करने की तैयारी में है।  रुपए की कीमत के दिनों दिन गिरने से गंगू चिंतित है और चिंता की बात ये भी है कि अर्थव्यवस्था के बारे में सरकार द्वारा जो दावे किए जा रहे हैं उसमें जनता को झटका मारने की प्रवृत्ति क्यों झलक रही है। हालांकि  रुपये की गिरावट से गंगू भी परेशान हैं घरवाली ताने मारती है और ये गाना गाती है…….

“ता थैया ता थैया,
आमदनी अठन्नी,
खर्चा रुपैया”

© जय प्रकाश पाण्डेय

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योग-साधना LIFESKILLS/जीवन कौशल-22 –SHRI JAGAT SINGH BISHT

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Recent studies reveal that nearly half of India’s private sector employees suffer from depression, anxiety and stress.
LifeSkills

Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore

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हिन्दी साहित्य – कविता – दीप पर्व / दीवाली (दो कवितायें) – डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

दीप पर्व

दीप पर्व का अर्थ है,  जन मन भरो उजास ।

केवल अपना ही नहीं ,सबका करो विकास।।

 

दीप उजाला बांटकर ,  देता है   संदेश ।

अपना हित साधो मगर, सर्वोपरि हो देश।।

 

बांध ,रेल, पुल में नहीं, अपना  हिंदुस्तान ।

सच्चे मन से देख  ले ,बच्चों की मुस्कान।।

 

नारे व्यर्थ विकास के, भाषण सभी फिजूल।

हंसते गाते यदि  नहीं ,  बच्चों  के   स्कूल ।।

 

दाता ने हमको  दिये, अन्न ,वस्त्र ,  स्कूल  ।

देश देवता को करें, अर्पित जीवन फूल ।।

 

एक अंधेरा  उजाला , किंतु नहीं है मित्र ।

सदभावों की सुरभि से ,होंगे सभी सुमित्र।।

 

© डॉ.राजकुमार “सुमित्र”



दीवाली

 

दीवाली की दस्तकें, दीपक की पदचाप।

आओ खुशियां मनायें,क्यों बैठे चुपचाप।।

 

अंधियारे की शक्ल में, बैठे कई सवाल ।

कर लेना फिर सामना ,पहले दीप उजाल।।

 

कष्टों का अंबार है ,दुःखों का अंधियार ।

हम तुम दीपक बनें तो ,फैलेगा  उजियार ।।

 

© डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

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रंगमंच – मध्य प्रदेश के रंगक्षेत्र में स्टेट बैंक के रंगकर्मियों का योगदान – श्री असीम कुमार दुबे

असीम कुमार दुबे 

मध्य प्रदेश के रंगक्षेत्र में स्टेट बैंक के रंगकर्मियों का योगदान

न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला  |

ना सौ न तत्कर्म नाट्यास्मिन  यन्नदृश्यते ||

(कोई ज्ञान, कोई शिल्प, कोई विद्या , कोई कला, कोई योग तथा कोई कर्म ऐसा नहीं है जो नाट्य में दिखाई न देता हो |)

नाटक से न केवल भाषा का विकास होता है, वरन मनुष्य का भी विकास होता है . भौतिकवाद के विश्व-व्यापी विकास के बाद आज सारी दुनिया में पुनः सांस्कृतिक मूल्यों कि आवश्यकता महसूस कि जा रही है . भले ही साहित्य में नाटक को कविता या कहानी के समतुल्य स्थान न मिला हो परन्तु नाटक में साहित्य कि सारी विधाओं का अद्भुत मेल है. नाटक भाषा को भाषा से जोड़ता है, नाटक मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है और नाटक जीवन को जीवन से जोड़ता है. दरअसल नाटक का एक मजबूत संपर्क सूत्र है .

भारतीय  स्टेट बैंक और रंगकर्म

यदि इस विषय पर चर्चा की जाये तो लोग सोच में पड़ जायेंगे कि एक बैंक का रंगकर्म  से क्या नाता ? भारतीय स्टेट  बैंक के भोपाल मंडल (मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ ) के कलाकारों ने विगत 40 वर्षों में  प्रदेश के और विशेषकर भोपाल के रंगक्षेत्र में अत्यंत उल्लेखनीय योगदान दिया है।   राजभाषा मास के दौरान ३० वर्षों तक सतत स्टेट बैंक नाट्य समारोह का आयोजन किया जाता रहा ( दुर्भाग्य से विगत कुछ वर्षों से यह समारोह बंद कर दिया गया है )।   इस नाट्य समारोह ने रंगमंच को एक नई ऊंचाई, एक नई शक्ति और एक नई ऊर्जा दी है।  स्टेट बैंक नाट्य समारोहों में मंचित नाटकों ने रचनात्मकता, सृजन क्षमता और रंगकर्म के प्रति कलाकारों की निष्ठा का एक ऐसा उदहारण प्रस्तुत किया है, जो शौकिया (अव्यवसायिक) रंगमंच में मिलना संभव नहीं है।

स्टेट बैंक के इस प्रतिष्ठित आयोजन में  देश के ख्यातनाम रंग निर्देशकों श्री हबीब तनवीर, श्री बंसी कौल,  श्री प्रभात गांगुली, श्री राजेंद्र गुप्त, श्री अलखनंदन, श्री जयंत देश्मुख, श्री प्रशांत खिरवडकर आदि का निर्णायकों एवं मुख्य अतिथियों के रूप में इस समारोह में शामिल होना इसके प्रतिष्ठित होने का प्रमाण है।   स्टेट बैंक के इस नाट्य समारोह को मध्य प्रदेश के पूर्व राज्यपालों महामहिम श्री भाई महावीर एवं श्री बलराम जाखड़ जी से भी सराहना मिली है।

स्टेट बैंक नाट्य समारोह ने कई श्रेष्ठ निर्देशक एवं  अभिनेता/अभिनेत्री भोपाल के रंमंच को दिए है। इनमे से कई अभिनेताओं ने भारत महोत्सव (रूस -1988) सहित देश के अनेक प्रतिष्ठित नाट्य समरोहों  में शिरकत की है।  बैंक के अनेक रंगकर्मी दूरदर्शन की टेलिफिल्मो, धारावाहिकों एवं फीचर फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं।

स्टेट बैंक के मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ के  रंगकर्मियों में से कुछ प्रमुख नाम हैं  स्व. श्री विजय डिंन्डोरकर, स्व. श्री प्रदीप पोद्दार, श्री अशोक बुलानी, श्री उदय शहाणे, श्री बसंत काशिकार, श्री असीम कुमार दुबे, श्री राकेश सेठी, श्री प्रवीण महुवाले, श्री आलोक गच्छ, श्री अविनाश नेमाडे, श्री जगदीश बागोरा, श्री संजय जैन, श्री सुधीर खानवलकर , श्री अरविन्द बिलगैया , श्री दीपक सभरवाल, श्री दीपक तिवारी, श्रीमती संध्या पोद्दार, श्रीमती सुशीला प्रसाद, श्रीमती रश्मि मुजुमदार, श्रीमती गीता अइयर आदि।

३० वर्षों में स्टेट बैंक नाट्य समारोहों में सैंया भये कोतवाल, दुलारी बाई, एक था गधा, आषाढ़ का एक दिन, सदगति, राम लीला, बगिया बांछा राम की , माँ रिटायर होती है , महाभोज, मोटेराम का सत्याग्रह , संध्या छाया, कोर्ट मार्शल, जिस लाहोर नई देख्या , अच्छे आदमी, अंजी, बजे ढिंडोरा, अरे शरीफ लोग, शुतुरमुर्ग, कालचक्र  सहित 100 से अधिक नाटकों के श्रेष्ठ प्रदर्शन किये गए  हैं।

© असीम कुमार दुबे

 

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योग-साधना LIFESKILLS/जीवन कौशल-21 –SHRI JAGAT SINGH BISHT

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Everyone wants to be happy. It is our duty to ensure that all children are adequately nourished; that they go to school, feel safe, and engage in sports and games.

LifeSkills

Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore

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