रंगमंच स्मृतियाँ – “काल चक्र” – श्री असीम कुमार दुबे
(यह विडम्बना है कि – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं। – हेमन्त बावनकर)
काल चक्र – मानवीय संवेदनाओं का बयां करता नाटक
संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से कोशिश नाट्य संस्था की ओर से भारत भवन के अंतरंग सभागार में रंगकर्मी श्री असीम कुमार दुबे के निर्देशन में नाटक ‘काल चक्र’ का मंचन किया गया। इस नाटक का मंचन 13 वर्ष बाद कुछ बदलाव के बाद दुबारा किया गया। इससे पहले यह रवीन्द्र भवन में प्रस्तुत किया गया था।
नाटक का कथानक मराठी लेखक स्वर्गीय जयवंत दळवी के कालजयी नाटक पर आधारित है। इसके स्क्रिप्ट में कुछ बदलाव करने के पश्चात संगीत एवं प्रकाश के अभूतपूर्व संयोजन के साथ जीवन्त प्रस्तुति दी गई।
इस नाटक का गीत-संगीत अहम पहलू रहा।
शीर्षक गीत इस नाटक में बूढ़े- माँ बाप की मानसिक एवं शारीरिक स्थिति को बहुत गहराई से बयां करता है।
जन्म निश्चित
मृत्यु निश्चित
ये जीवन है कालचक्र ….. ।
इसी तरह हमनें जिन पर प्यार लुटाया
उन्होने हमें क्या लौटाया …… ।
उनके जीवन के आखिरी पड़ाव में आने वाली उलझनों और अपनों के तिरस्कार की पीड़ा दिखाई गई है।
यह एक सामान्य मध्यमवर्गीय ईमानदार परिवार के स्वाभिमानी पिता विटठल और माँ रुक्मणी की कहानी है। कहानी उन बुजुर्ग दम्पतियों की शारीरिक और मानसिक पीड़ा बयां करती है, जिनके दो बेटे होने के बावजूद उन्हें वृद्धाश्रम की राह दिखाई जाती है। उनके दो पुत्र हैं विश्वनाथ एवं शरद। वे अपने बड़े बेटे विश्वनाथ और बहू लीला के पास रहते हैं। बेटे बहू बात-बात पर विट्ठल और रुक्मणी को ताने देते रहते हैं। उनका छोटा बेटा शरद एक दवा कंपनी में अधिकारी है और उसकी पत्नी मीना सोशल वर्कर है। वे दोनों स्वयं को बहुत ही व्यस्त दिखाते हैं। इसलिए माता पिता से मिलने कभी-कभार आ पाते हैं। नाटक का सबसे महत्वपूर्ण पल वह होता है, जब पिता सोचता है कि जिस तरह से लोग बच्चे गोद लेने के लिए विज्ञापन निकालते हैं, उसी तरह क्यों न माता-पिता को गोद लेने के लिए विज्ञापन निकाला जाए। जिस पर दोनों बेटे अपने पिता का मज़ाक बनाते हैं और कहते हैं किस इस उम्र में कौन तुम्हें गोद लेगा?
इतना सब कुछ होने के बाद भी प्रोफेसर दंपति राघव और इरावती उनको गोद लेने के लिए तैयार हो जाते हैं। प्रोफेसर दंपति उन्हें खुश रखने में कोई कसर नहीं छोड़ते। माता-पिता को गोद लेने के बाद जब माँ का जन्मदिन आता है जिसे काफी धूमधाम से जन्मदिन मनाया जाता है। इतनी अपार खुशी के माँ सहन नहीं कर पाती और उनको हार्ट अटैक आ जाता है। कुछ दिनों के पश्चात इरावती से कविता सुनते सुनते पिता भी आँखें मूँद लेते हैं। इसी समय दोनों बेटों को अपनी गलती पर पश्चाताप होता है। वे अपने माता पिता को वापस लेने जाते हैं। किन्तु, जब तक वे पहुँचते हैं, तब तक सब कुछ समाप्त हो चुका होता है।
यदि मराठी में सारांश बयां करना चाहें तो –
“काल तुम्ही आमच्यावर अवलंबून होता. आज आम्ही तुमच्यावर अवलंबून आहोत ! हे एक कालचक्र आहे !
आज तुम्ही जे म्हणताय, तेच आम्ही आमच्या तरुणपणी म्हणत होतो. आज आम्ही जे म्हणतोय तेच तुम्ही उद्या तुमच्या म्हातारपणी म्हणणार!”
अर्थात
“कल तुम हम पर अवलंबित थे, आज हम तुम पर अवलंबित हैं। यह एक कालचक्र है!
आज जो तुम कह रहे हो, वही हम अपनी युवावस्था में कहते थे। आज जो हम कहते हैं, वही तुम कल अपनी वृद्धावस्था में कहोगे।”
मंच पर सुषमा ठाकुर, आलोक गच्छ, विवेक सावरीकर मृदुल, महुआ चटर्जी, भुवांशु शर्मा, राजीव श्रीवास्तव, रश्मि गोल्या, जगदीश बागोरा, अपूर्वा मुक्तिबोध, कान्हा जैन, अवनि वर्मा आदि ने प्रत्येक पात्र की सजीव भूमिकाएँ निभाईं।
नेपथ्य में कमल जैन (प्रकाश परिकल्पना), लीला और किशोर (मंच निर्माण), शरद नायक, प्रशांत धवले, स्मिता खरे (गायन) लक्ष्मी नारायण ओसले (वाद्य) एवं पुनीत वर्मा द्वारा वायलिन पर विशेष प्रस्तुति दी गई।