ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित सुप्रसिद्ध मराठी साहित्यकार (कवी , लेखक, नाटककार, कथाकार व समीक्षक) स्व विष्णु वामन शिरवाडकर अपने उपनाम कुसुमाग्रज के नाम से जाने जाते हैं। आपको 1987 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। विश्व में आपके जन्मदिवस को मराठी भाषा गौरव दिन अथवा मराठी राजभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
इस सन्दर्भ में सुश्री ज्योति हसबनीस जी का स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘ कुसुमाग्रज ‘ जी पर आधारित आलेख को निम्न लिंक पर क्लिक कर अवश्य पढ़ें। यह मेरा सादर आग्रह है।
ई-अभिव्यक्ति उनके जन्मदिवस पर उनके गौरवपूर्ण साहित्य सृजन के लिए स्व विष्णु वामन शिरवाडकरजी का पुण्य स्मरण एवं उन्हें नमन करता है।
इस अवसर पर ई-अभिव्यक्ति से सम्बद्ध युवा साहित्यकार स्वप्ना अमृतकर की भावनाएं हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करना चाहते हैं।
☆ जन्म दिवस विशेष – स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ पुण्य स्मरण – सुश्री स्वप्ना अमृतकर☆
आज दि. २७ फेब्रुवारी २०२० हा दिवस प्रतिभासंपन्न महान कवी, लेखक श्री. वि.वा.शिरवाडकर सरांचा जन्मदिवस आहे, त्यांच्यावर मी काही माझ्या शब्दांत माझे भावतरंग मांडण्याचा प्रयत्न केला आहे.
मनातले भावतरंग श्री.वि.वा.शिरवाडकरांसाठी:
व्यक्त अव्यक्त विचारांची खोल दरी ओलांडूनी नितळ मनाच्या काठावर येवून सुरेख शब्दांचासाठा लेवूनी महान शब्दसखा कवितेच्या प्रवासात कवितेलाच बालपणांत, यौवनांत रूजवून अनेक रूपरंगांत काळीजकूपीतून अत्तरासम शब्दांना कवितांमध्ये पसरवूनी हलकीशी जागा देत देत आशयबद्धतेत मोहरून कवितेची प्रतिभा मराठी साहित्य जगतात उंचावून, प्रतिभासंपन्न कवी श्री वि. वा. शिरवाडकर सरांनी स्वत:ची ओळख लेखणीतून भक्कम करून मराठी भाषेला सन्मान देण्यात यशस्वी ठरले होते.
त्यांना शतश:नमन ..
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा “पर्दा”। यह लघुकथा हमें जीवन के उस कटु सत्य से रूबरू कराती है जिसे हम देख कर भी अनजान बन जाते हैं । जब आँखों पर मोह का पर्दा पड़ता है तो सब कुछ जायज ही लगता है। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर सामाजिक जीवन के कटु सत्य को उजागर करने की अहम् भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 22 ☆
☆ लघुकथा – पर्दा ☆
“पापा! आज भाई ने फिर फोन पर अपशब्द बोले.”
“एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दो.”
“आप दोनों के लिए भी अनाप-शनाप बोलता है.”
मुस्कुराकर – “अपने भाईसाहब की बातों को प्रवचन की तरह सुनो, जो नहीं चाहिए, छोड दो.”
“हमसे सहन नहीं होता है अब, फोन नहीं उठाउँगी उसका, बात करनी ही नहीं है उससे.”
“ऐसा नहीं कहते, एक ही भाई है तुम्हारा”
“और मेरा क्या?”
“भाई के मान – सम्मान का ध्यान रखो”
“मेरा मान – सम्मान ??”
“मेरी छोडिए, आप दोनों से इतने अपमानजनक ढंग से बोलता है, यह गलत नहीं है क्या?”
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday. Ms. Neelam Saxena Chandra ji is an Additional Divisional Railway Manager,Indian Railways, Pune Division. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Destiny”. This poem is from her book “The Frozen Evenings”.)
☆ Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 26☆
☆ Destiny ☆
Destiny does its deathly dance-
We remain but a slave in front of the master,
While it secretly rejoices!
Karna, the man with kavach and kundal,
Was the best trained, equipped,
As a warrior.
With Sun God as his father,
Well trained by Parshurama,
Possessing Indrastra,
He appeared invincible.
But when destiny decided to destroy him,
He gave his kavach and kundal inalms,
Indrastra got used for killing Ghatotkacha,
His chariot got stuck in the mud due to a curse
Of one of his earlier lives,
He couldn’t use Brahmastra
Since he forgot its handling due to another curse
And was killed by Arjuna, despite his requesting Krishna
(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)
(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti. An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.
We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poetry “चिरमृतक” published previously as ☆ संजय उवाच – चिरमृतक ☆ We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)
☆ Chirmritak –the Eternally Dead ☆
– The day was very bad.
-Why?
– There was a death in the neighbourhood. Went there early in the morning. Later on, the whole day was a waste as no work could be done properly.
-How else could it be, since it is inauspicious to see the face of the deceased right in the morning.
Especially, the last sentence was said in such a way as if the person saying it, has been conferred with ‘Amarpatta’ –the robe of deathlessness.
Just ponder over this sentence as not making of a formula of Shubha-Ashubh, the auspicious and ominous. Just a point to consider: After all, who stares at you in the mirror every morning? Who else but yourself!… How many births have you taken to reach here. How long has been your journey of of births and rebirths… How did every life come to an end… by death only? Isn’t? And, how were you reborn from the death? You see the face of the ‘Chirmitrak’, the eternally dead everyday! Also, the other aspect of this cycle is that you see the face of the resurrected one who is dying daily. Between Chiramritak, the eternal dead
or Chirjanma, the eternally born, you have to decide, which one are you!!
Always remember that, not through seeing the faces physically, but it’s the internal soulful life and death from within, that makes and sustains the lives.
Jeejivisha, the Will to live and diligence infuse the life into breath.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को उनके “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं “समसामयिक दोहे”.)
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “कुतर्क के तुर्क”। इस बेहतरीन समसामयिक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 35 ☆
☆ व्यंग्य – कुतर्क के तुर्क ☆
नेता जी अपने युवा पोते को सिखा रहे थे कि वर्तमान में वही बड़ा नेता है जो अपने तर्क या कुतर्क के जरिये खुद को जनता के सामने सही साबित कर अपने पीछे भीड़ खड़ी कर सके। विदेश से एम बी ए युवा नेता ने जो हाल ही विदेश से वापस लौटकर पिताजी की कास्टीट्युएंसी में कुछ कर के फटाफट अपना वर्चस्व बना लेना चाहता है, अमेरिका और गल्फ के चंद उदाहरण देते हुये कहा, आप सही कह रहे हैं दादा जी यह समय दुनियां भर में कुतर्को को स्थापित करने का समय है।
मूलभूत नैसर्गिक न्याय को भुलाकर, संविधान की मूल भावना को किनारे रखकर अपने कुतर्क के पक्ष में ढ़ूंढ़ निकाली गई किसी पंक्ति या शब्दावली की गलत सही व्याख्या कर देश में बेवजह बड़े बड़े आंदोलन खड़े किये जा रहे हैं। अल्लारख्खा और रामभरोसे दोनो ही तर्क कुतर्क के झूले में झूलने पर विवश हैं।
बिना संदर्भ समझे युवा तुर्क वाहवाही लूटने के लिये नासमझो के बीच गजल पढ़ रहे हैं। कापी कैट का जमाना है, चूंकि किसी आंदोलन में फलां शायर की फलां गजल पढ़ी जाती थी तो ये जनाब कैसे पीछे रह जाते, गूगल भाई का माइक दबा कर जितना याद हो वे लफ्ज ही तो बोलने हैं, लीजीये पूरी गजल हाजिर है, बिना जाने बूझे, पढ़ डालिये और तालियां बजवाईये, टी वी पर सुर्खियां बटोरिये। सुनने वाले भी कहां किसी से कम हैं, उन्हें भी कुछ खास लफ्ज ही सुनाई पड़े और पूर्वागृह से लबरेज जहर उगलने में उन्होंने देर न की। बेचारी गजल और कब्र में बंद शायर सोशल मीडिया पर ट्रेड करने लगा।
समाज का और देश का जो नुकसान कुछ कीमती संपत्ति जलाने से हुआ उससे कही बहुत अधिक नुकसान पीढ़ियों में स्थापित लोगों के बीच बने परस्पर सामंजस्य में खटास पैदा कर, निरर्थक ध्रुवीकरण से हो रहा है। आज की ग्लोबल होती, इंटर डिपेंडेंट दुनियां में क्या यह संभव है कि अपने अपने घरों, जातियों के संकुचित दायरों में रहकर देश, समाज चल सके ? इस संकुचन का अंत कहां है ? क्या डबल बेड पर भी अपने अपने कंबलो में सिमटन ही नेतागिरी का अंतिम लक्ष्य है ? नही, पर यह सही तर्क उस कुतर्क के सामने बहुत छोटा है, जिसमें एक वर्ग विशेष का छद्म घमण्ड छिपा है कि उनके बाबा के बाबा के बाबा तो यहां के बादशाह थे भले ही आज वे तांगे चला रहे हों, या फिर दूसरे वर्ग की वह पीड़ा जिसके चलते संग्रहालय में रखी ५०० साल पुरानी मूर्ति को तोड़ने के जुर्म की सजा यदि तब नही दी जा सकी तो आज तो वह दी ही जानी चाहिये भले ही अपराधियो के वंशजो को दी जाये।
दर्शनशास्त्र में तर्क या आर्ग्यूमेंट्स कथनों की ऐसी श्रंखला होती है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति या समुदाय को किसी तथ्य के लिये राज़ी किया जाता है या उन्हें किसी व्यक्तव्य को सत्य मानने के लिये कारण दिये जाते हैं। गणित, विज्ञान और तर्कशास्त्र में यह बिन्दु और अंत के निष्कर्ष औपचारिक तकनीकी भाषा में भी लिखे जा सकते हैं। कम्प्यूटर की तो सारी गणना पद्धति ही तर्क अर्थात लाजिक पर ही आधारित है। एक बंद घड़ी भी कुतर्क की भाषा में पांच मिनट तेज चलने वाली घड़ी से बेहतर कही जा सकती है, क्योकि बंद घड़ी २४ घंटो में कम से कम दो बार तो बिल्कुल सही समय बताती है। अरस्तु वे पहले दार्शनिक थे जिन्होने कुतर्को को भी सूचीबद्ध किया था।तो एक गजलगो के नाते अपना तो यही तर्क है कि शब्दो के नही भावनाओ के सही निहितार्थ समझने की जरूरत है, सबको बड़े दिल से बड़े काम करने के लिये एक जुट होना चाहिये, नेतागिरी चमकाने के चक्कर में जनता को बरगलाने के कुतर्क आज नही तो कल पकड़े ही जायेंगे।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक व्यावहारिक लघुकथा “बोझ ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं #37 ☆
☆ लघुकथा – बोझ ☆
“क्या हुआ था, हेड साहब ?”
“कोई ट्रक वाला टक्कर मार गया. बासाहब की टांग कट गई. लड़का मर गया.”
पुलिस वाले ने आगे बताया, ” इस के तीन मासूम बच्चे और अनपढ़ बीवी है.”
सुनते ही मोहन दहाड़ मार कर रो पड़ा,” भैया ! कहाँ चले गए. मुझ गरीब बेसहारा के भरोसे अपाहिज बाप, बेसहारा बच्चे और अपनी बीवी को छोड़ कर. अब मैं इन्हें कैसे संभालूँगा.”
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “पुनरागमन”। यह सत्य ही है कि पुराना इतिहास एक कालखंड के पश्चात दोहराया जाता है। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 7 ☆
☆ पुनरागमन☆
आगमन, पुनरागमन की प्रक्रिया कोई नयी नहीं है। जीवन की हर गतिविधियाँ 20 साल बाद दोहरायी जाती हैं। जैसे फैशन को ही लें आजकल जो कपड़ों का चलन बढ़ रहा है वो सब पुराने इतिहास को ही दुहरा रहा है बस हमारा देखने का नज़रिया बदल गया है और उस पहनावे को आधुनिक मान लेते हैं। यही चीज खान पान के क्षेत्र में भी देखने को मिलती है। पुराने समय में भी इनोवेशन होते थे जिसके फलस्वरूप नयी – नयी वैरायटी स्वाद की श्रंखलाओं से निरंतर जुड़ती जा रही है। आजकल हर वस्तुएँ ऑन लाइन बुलायी जा रहीं हैं। ये भी कोई अजूबा नहीं है। लाइन में तो हम सब बरसों से लग रहे हैं। कभी राशन के लिए तो कभी यात्रा के टिकट हेतु, कभी चुनावी टिकट हेतु, बिजली के बिल जमा हेतु, बैंक में खाता ऑपरेट करने हेतु । ऐसे ही न जाने कितने कार्य हैं जहाँ लम्बी लाइन लगती है। सो बदलते परिवेश में आधुनिकीकरण हो गया और ऑन लाइन की परंपरा आ बैठी। मन पसन्द भोजन, कपड़े, दैनिक उपयोग की वस्तुएँ, रोजमर्रा की सभी वस्तुएँ मिलने लग गयी हैं।
अरे भई चाँद और मंगल पर भी तो बसेरा करना है कहाँ तक लाइनों में समय व्यर्थ करें अब तो हवा में उड़ने का समय आ गया है। वैसे भी मन की उड़ान सदियों से सबसे तेज रही है। बस कल्पना के घोड़े दौड़ाइए और चल पड़िये जहाँ जी चाहे। वैज्ञानिकों ने भी सतत परिवर्तन को स्वीकार किया है। साथ ही ये भी माना है कि गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जाते हैं सो फैशन भी आता – जाता रहता नये- नये संशोधनों के साथ। संशोधन की बात पर तो संविधान संशोधन की बात याद आ गयी जिसका समय – समय पर मूल्यांकन होता रहता है जो होना भी चाहिए क्योंकि लोग बदल रहे हैं कब तक पुराना चलेगा। नयी विचारधारा का स्वागत करना चाहिए। तभी तो आगमन- पुनरागमन का सिद्धान्त सत्य सिद्ध होगा।