आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (12) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन )

 

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।

मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ।।12।।

 

राजस,तामस,सात्विक,सभी भाव यह जान

ये  सब हैं मुझसे ही मैं उन रहित समान।।12।।

      

भावार्थ :  और भी जो सत्त्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजो गुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू ‘मुझसे ही होने वाले हैं’ ऐसा जान, परन्तु वास्तव में (गीता अ. 9 श्लोक 4-5 में देखना चाहिए) उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं।।12।।

 

Whatever being (and objects) that are pure, active and inert, know that they proceed from Me. They are in Me, yet I am not in them.।।12।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 6. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

☆ संजय दृष्टि  –  6.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

 

जैसा पहले कहा जा चुका है कि भारतीय लोक में दहाई के बिना इकाई का मान नहीं है। समूह के बिना व्यक्ति का अस्तित्व यहाँ अग्राह्य है। यही कारण है कि लोक का क्रियाकलाप सामूहिक है। लोक में नृत्य सामूहिक है। लोक में गायन सामूहिक है। समूह में हर किसी का निबाह हो जाता है। समूह हर किसी को प्रतिभा प्रदर्शन  हेतु मंच देता है तो हरेक के विरेचन के लिए सेतु भी बनता है। सामूहिकता ऐसी कि भोजन भी पंगत में बैठकर सबके साथ ही होगा। भोजन के समय किसी अतिथि के घर आ जाने पर मानसिक विचलन का शिकार हो जाने वाली आधुनिकता की किसी शायर ने लोक से सटीक तुलना करते हुए लिखा है,

एक वो दौर था, सोचता था मेहमान आये तो खाना खाऊँ
लानत है इस दौर पर, सोचता हूँ मेहमान जाये तो खाना खाऊँ

शादी-ब्याह में गाँव जुटता था। जातिप्रथा को लेकर आज जो अरण्यरुदान है, सामूहिकता में हर जाति समाविष्ट है। हरेक अपना दायित्व निर्वहन करता है। ब्याह बेटी का है तो बेटी सबकी है। आज चलन कुछ कम हो गया है पर पहले मोहल्ले के हर घर में विवाह पूर्व बेटी को भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता, हर घर बेटी के साथ यथाशक्ति कुछ बाँध देता।

लोकगीत का अपना सनातन इतिहास है। सत्य तो यह है कि लोकगीतों ने इतिहास बचाया। घर-घर बाप-दादा का नाम याद  रखा, घर-घर श्रुत वंशावलियाँ बनाईं और बचाईं। केवल वंशावली ही नहीं, कुल, गोत्र, शासन, गाँव, खेत, खलिहान, कुलदेवता, कुलदेवी, ग्रामदेवता, आचार, संस्कार, परंपरा, राग, विराग, वैराग्य, मोह, धर्म, कर्म, भाषा, अपभ्रंश, वैराग्य की गाथा, रोमांस के किस्से, सब बचाया। इतना ही नहीं 1857 के स्वाधीनता संग्राम के में कमल और रोटी के चिह्न को अँग्रेजों ने दस्तावेज़ों के रूप में भले जला दिया पर लोकगीतों के मुँह पर ताला नहीं जड़ सका। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रणबाँकुरों के बलिदान को लोकगीतों ने ही जीवित रखा। इसी तरह अनादि काल से चले आ रहे सोलह संस्कारों को धर्मशास्त्रों के बाद  प्रथा में लोगों की ज़ुबान पर लोकगीतों ने ही टिकाये रखा।

त्योहार सामूहिक हैं, एकात्म हैं। व्रत-पर्व, धार्मिक अनुष्ठान, भजन-कीर्तन सब सामूहिक हैं। एकात्मता ऐसी कि त्योहारों में मिठाई का आदान-प्रदान हर छोटा-बड़ा करता है। महिलाएँ व्रत का उद्यापन करें, त्यौहार या अनुष्ठान हरेक में यथाशक्ति एक से लेकर इक्यावन महिलाओं के भोजन/ जलपान का प्रावधान है। लोक-परम्परा भागीदारी का व्रत, त्यौहार  और भागीदारी का अनुष्ठान है। धार्मिक ग्रंथों का पाठ और पारायण भी इसी संस्कृति की पुष्टि करते हैं। श्रीरामचरितमानस का पाठ तो जोड़ने का माध्यम है ही अपितु जो पढ़ना नहीं जानते उन्हें भी साथ लेने के लिए संपुट तो अनिवार्यत: सामूहिक है।

लोकपरंपराओं, लोकविधाओं- गीत, नृत्य, नाट्य, आदि का जन्मदाता कोई एक नहीं है। प्रेरणास्रोत भी एक नहीं है। इनका स्रोत, जन्मदाता, शिक्षक, प्रशिक्षक, सब लोक ही है। गरबा हो, भंगड़ा हो,  बिहू हो या होरी, लोक खुद इसे गढ़ता है, खुद इसे परिष्कृत करता है। यहाँ जो है, समूह का है। जैसे ॠषि परंपरा में सुभाषित किसने कहे, किसने लिखे का कोई रेकॉर्ड नहीं है, उसी तरह लोकोक्तियों, सीखें किसी एक की नहीं हैं। परंपरा की चर्चा अतीतजीवी होना नहीं होता। सनद रहे कि अतीत के बिना वर्तमान नहीं जन्मता और भविष्य तो कोरी कल्पना ही है। जो समुदाय अपने अतीत से, वह भी ऐसे गौरवशाली अतीत से अपरिचित रखा जाये. उसके आगे का प्रवसन सुकर कैसे होगा? विदेशी शक्तियों ने अपने एजेंडा के अनुकूल हमारे अतीत को असभ्य और ग्लानि भरा बताया। लज्जित करने वाला विरोधाभास यह है कि निरक्षरों का ‘समूह’, प्राय: पढ़े-लिखों तक आते-आतेे ‘गिरोह’ में बदल जाता है। गिरोह निहित स्वार्थ के अंतर्गत कृत्रिम एकता का नारा उछालकर उसकी आँच में अपनी रोटी सेंकता है जबकि समूह एकात्मता को आत्मसात कर, उसे जीता हुआ एक साथ भूखा सो जाता है।

लोक का जीवन सरल, सहज और अनौपचारिक है। यहाँ छिपा हुआ कुछ भी नहीं है। यहाँ घरों के दरवाज़े सदा खुले रहते हैं। महाराष्ट्र के शिर्डी के पास शनैश्वर के प्रसिद्ध धाम शनि शिंगणापुर में लोगों के घर में सदियों से दरवाज़े नहीं रखने की लोकपरंपरा है। कैमरे के फ्लैश में चमकने के कुछ शौकीन ‘चोरी करो’(!) आंदोलन के लिए वहाँ पहुँचे भी थे। लोक के विश्वास से कुछ सार्थक घट रहा हो तो उस पर ‘अंधविश्वास’ का ठप्पा लगाकर विष बोने की आवश्यकता नहीं। खुले दरवाज़ों की संस्कृति में पास-पड़ोस में, मोहल्ले में रहने वाले सभी मामा, काका, मामी, बुआ हैं। इनमें से कोई भी किसीके भी बच्चे को अधिकार से डाँट सकता है, अन्यथा मानने का कोई प्रश्न ही नहीं। इन आत्मीय संबोधनों का परिणाम यह कि सम्बंधितों के बीच  अपनेपन का रिश्ता विकसित होता है। गाँव के ही संरक्षक हो जाने से अनैतिक कर्मों और दुराचार की आशंका कम हो जाती है। विशेषकर बढ़ते यौन अपराधों के आँकड़ों पर काम करने वाले संबोधन द्वारा उत्पन्न होने वाले नेह और दायित्व का भी अध्ययन करें तो तो यह उनके शोध और समाज दोनों के लिए हितकर होगा।

क्रमशः…….7

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 20 – मेरे पिता …..☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  बेटियों पर आधारित एक भावपूर्ण रचना   “मेरे पिता …..। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 20☆

 

☆ मेरे पिता ….. ☆  

 

सजग साधक

रत, सुबह से शाम तक

दो घड़ी मिलता नहीं

आराम तक

हम सभी की दाल-रोटी

की जुगत में

जो हमारी राह के कांटे

खुशी से बीनता है,

वो मनस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

सूर्य को सिर पर धरे

गर्मी सहे जो

और जाड़ों में

बिना स्वेटर रहे जो

मौसमों के कोप से

हमको बचाते

बारिशों में असुरक्षित

हर समय जो भींगता है,

वो तपस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

स्वप्न जो सब के

उन्हें साकार करने

और संशय, भय

सभी के दूर हरने

संकटों से जूझता जो

धीर और गंभीर

पुलकित, हृदय में

नहीं खिन्नता है,

वो यशस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

जो कभी कहता नहीं

दुख-दर्द अपना

घर संवरता जाए

है बस एक सपना

पर्व,व्रत, उत्सव

मनाएं साथ सब

जिसकी सबेरे – सांझ

भगवन्नाम में तल्लीनता है,

वो महर्षि कौन?

वो मेरे पिता है।

 

मौन आशीषें

सदा देते रहे जो

नाव घर की

हर समय खेते रहे जो

डांटते, पुचकारते, उपदेश देते

सदा दाता भाव

मंगलमय,विनम्र प्रवीणता है,

वो  दधीचि कौन?

वो मेरे पिता हैं।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 22 – उत्तरायण ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  “उत्तरायण.  सुश्री प्रभा जी की कविता  में जीवन के उत्तरायण की जो कल्पना की गई है वह वास्तव में कल्पना से परे है।  ऐसी कविता की कल्पना करने  के पश्चात कविता रचने के मध्य की प्रक्रिया  निश्चित ही कवि को दार्शनिक भाव से परिपूर्ण करने की क्षमता रखती है।  काल के सम्मुख कोई टिक नहीं सकता और उस पर कविता  रचने के लिए काल के कपाल पर  लिखने जैसा है। सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 22 ☆

☆ उत्तरायण ☆ 

माहीत नाही यापुढचं
आयुष्य कसं असेल?
वय उतरणीला लागल्यावर
आठवतात
तारुण्यातले अवघड घाट
वळण-वळसे…
स्वप्नवत्‌ फुलपंखी
अभिमंत्रित वाटा…
ठरवून थोडीच लिहिता येते
आयुष्याची कादंबरी?
काय चूक आणि काय बरोबर
हेही कळेनासं होतं
काळाच्या निबिड अरण्यातले सर्प
भिववतात मनाला
कुठल्या पाप-पुण्याचा
हिशेब मागेल काळ
मनात फुलू पाहताहेत
आजही कमळकळ्या
त्या उमलू द्यायच्या की
करायचं पुन्हा परत
भ्रूणहत्येचं पाप?
की निरीच्छ होऊन
उतरायचं नर्मदामैय्येत
मगरमत्स्यांचं भक्ष्य होण्यासाठी ?

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिंदी साहित्य – सफरनामा ☆ नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण #2 – श्री अरुण कुमार डनायक जी की कलम से ☆ – अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। आज प्रस्तुत है नर्मदा यात्रा  द्वितीय चरण पर  प्रस्तुत है  श्री अरुण डनायक  जी का नर्मदा यात्रा  के संस्मरण की अगली कड़ी । ) 

ई-अभिव्यक्ति की और से सम्पूर्ण दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण के लिए शुभकामनाएं। 

☆ सफरनामा – नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण #2  – श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से ☆

 

अगर सौ या दो सौ साल बाद किसी को एक दंपती नर्मदा परिक्रमा करता दिखाई दे, पति के साथ में झाड़ू हो और पत्नी के हाथ में टोकरी और खुरपी; पति घाटों की सफाई करता हो और पत्नी कचरे को ले जाकर दूर फेंकती हो और दोनों वृक्षारोपण भी करते हों, तो समझ लीजिए कि वे हमीं हैं – कांता और मैं।”
“कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साथ का सुर मिलाता है, उसी प्रकार इस जन्म में तो हम नर्मदा परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे। परिक्रमा तो अगले जन्म से करेंगे।”
श्रद्धेय अमृत लाल वेगड़ की पुस्तक तीरे-तीरे नर्मदा से।
वेगड़ बापू से तो नहीं मिला पर बा कांताजी के आशीर्वाद पिछली यात्रा शुरु करने से पहले लिये थे।अब जब कल से यह यात्रा दुबारा शुरु कर रहा हूं तो सौन्दर्य की नदी नर्मदा और तीरे तीरे नर्मदा के उन अंशों को बारम्बार  पढ़ रहा हूं जिनका संबंध हमारी यात्रा से होगा। रचनात्मक कार्यों की सूची में अब एक काम और जुड़ गया है , घाटों की सफाई। भगवान शक्ति दे और अमृतस्य नर्मदा के सृजक आदरणीय वेगड़ बापू आशीर्वाद दें कि यह संकल्प निर्विध्न पूरे हों। कल शरद से बात करूंगा। वे संत स्वरूपा ऋषि तुल्य आत्मा अमृत लाल वेगड़ के सुपुत्र हैं और मेरे मित्र भी। उनसे व दिलीप से मेरा परिचय 2000 से है जब मैं भारतीय स्टेट बैंक की कमला नेहरु नगर शाखा का मुख्य प्रबंधक था और दोनों भाई हमारे  ग्राहक। एकाधिक बार उनके घर गया पर बा-बापू से नहीं मिला। लेकिन अब जब परिक्रमा करता हूं और उनकी लिखी किताबें पढ़ता हूं तो लगता है वेगड़ बापू बगल में खड़े अपनी बूढ़ी आंखों से मुझे निहार रहे हैं और कह रहे हैं बेटा तू चलता चल , निर्भय होकर परकम्मा कर  मैं हूं न तेरे साथ।
नर्मदे हर!

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (11) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन )

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।11।।

बलवानों में बल हूँ मैं,राग द्वेष प्रतिकूल

सब तत्वों में कामना धर्मभाव अनूकूल।।11।।

भावार्थ :  हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूँ।।11।।

 

Of the strong, I am the strength devoid of desire and attachment, and in (all) beings, I am the desire unopposed to Dharma, O Arjuna!।।11।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 15 ☆ पथरीली आँखें ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “पथरीली आँखें ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 15 ☆

☆ पथरीली आँखें

 

जब खुश होने पर

तुम्हारी आँखों में चमक न आये,

जब ग़म में डूबने पर

तुम न ही पलकें मीच सको,

न ही आंसू बहा सको,

जब तुम्हारी आँखें

पत्थर हो जाएँ,

तब तुम

डुबा देना ख़ुद को

जुस्तजू की चाशनी में…

 

सुनो,

इस जुस्तजू की इस चाशनी में

घुल जाएगा आँखों का

सारा पथरीलापन

और उन आँखों में आकर बस जायेंगे

जोश के जुगनू!

 

इन जुगनुओं की रौशनी से

तुम यूँ इतराकर चलना

कि सारी दुनिया

तुम्हें देखती ही रह जाए

और दाँतों तले उंगली दबा ले!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 5. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

☆ संजय दृष्टि  –  5.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

 

एक आख्यान के अनुसार व्यास जी जब संन्यास के लिए वन जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे, उस समय जल में स्नान करने वाली स्त्रियों ने नग्न शुकदेव को देखकर वस्त्र धारण नही किया, परन्तु वस्त्र पहने हुए व्यासजी को देखकर लज्जा से कपड़े पहन लिए। व्यास जी ने आश्चर्य करते हुए जब पूछा तो उन स्त्रियों ने जवाब दिया कि आपकी दृष्टि में तो अभी स्त्री पुरुष का भेद बना हुआ है, पर आपके पुत्र की दृष्टि में यह भेद नही है। आपमें वासना शेष है, आपके पुत्र में उपासना अशेष है।
वासना द्वैत का प्रतीक है, उपासना अद्वैत जगाती है। लोक जैसा होने के लिए मनसा वाचा कर्मणा निर्वसन होना होगा। लोक में कुछ भी कृत्रिम नहीं है।

लोक सहजता से जीवन जीता है। लोकसंस्कृति में श्लील-अश्लील की रेखा विभाजक और विघातक रूप में नहीं है। यहाँ किसी कथित अश्लील चुटकुले पर एक स्त्री भी उतने ही खिलखिलाकर हँस लेती है जितना एक पुरुष। लोक स्त्री विमर्श के ढोल नहीं बजाता पर युवतियों को स्वयंवर का अवसर देता है, अपना साथी चुनने के लिए युवक-युवतियों के लिए ‘घोटुल’ बनाता है। 1600 ईस्वी में गोस्वामी जी के दोहे ‘ ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारि, सकल ताड़ना के अधिकारी’ में ‘ध्यान देने योग्य’ के बजाय ‘ताड़ना’ का अर्थ प्रताड़ना बताने वाले भूल गये कि द्वापरनरेश श्रीकृष्ण ने अपनी बहन सुभद्रा को अर्जुन के साथ भाग जाने की सलाह दी थी। पनघट पर महिलाओं का साथ जाना प्रचलन में रहा। सुरक्षा के साथ-साथ, साथ बतियाने, संवाद करने,  मन की गाँठें खोलने वाला घाट याने पनघट। पनघट याने स्त्रियों के भीतर जमे को तरल कर प्रवाहित होने, उन्हें हल्का करने का स्पेस। आज आधुनिकता में भी अपने ‘स्पेस’ के लिए संघर्ष करती स्त्री को लोक ‘गारियों’ के माध्यम से हर किसी पर टिप्पणी कर विरेचन का अवसर प्रदान करता है।

लोक के उदात्त भाव को विदेशी लेखकों ने भी रेखांकित किया। कुछ कथन द्रष्टव्य हैं-

“भारत मानव जाति का पालना है, मानवीय वाणी का जन्म स्थान है, इतिहास की जननी है और विभूतियों की दादी है और इन सब के ऊपर परम्पराओं की परदादी है। मानव इतिहास में हमारी सबसे कीमती और सबसे अधिक अनुदेशात्मक सामग्री का भण्डार केवल भारत में है!’

– मार्क ट्वेन (लेखक, अमेरिका)

‘यदि पृथ्वी के मुख पर कोई ऐसा स्थान है जहां जीवित मानव जाति के सभी सपनों को बेहद शुरुआती समय से आश्रय मिलता है, और जहां मनुष्य ने अपने अस्तित्व का सपना देखा, वह भारत है।!‘

– रोम्या रोलां (फ्रांसीसी विद्वान) 

‘हम सभी भारतीयों का अभिवादन करते हैं, जिन्होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना विज्ञान की कोई भी खोज संभव नहीं थी।!‘

– एल्बर्ट आइनस्टाइन (सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी, जर्मनी) 

‘यदि हम से पूछा जाता कि आकाश तले कौन सा मानव मन सबसे अधिक विकसित है, इसके कुछ मनचाहे उपहार क्या हैं, जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर सबसे अधिक गहराई से किसने विचार किया है और इसकी समाधान पाए हैं तो मैं कहूंगा इसका उत्तर है भारत।‘

– मेक्स मुलर (जर्मन विद्वान)

‘भारत ने शताब्दियों से एक लम्बे आरोहण के दौरान मानव जाति के एक चौथाई भाग पर अमिट छाप छोड़ी है। भारत के पास उसका स्थान मानवीयता की भावना को सांकेतिक रूप से दर्शाने और महान राष्ट्रों के बीच अपना स्थान बनाने का दावा करने का अधिकार है। पर्शिया से चीनी समुद्र तक साइबेरिया के बर्फीलें क्षेत्रों से जावा और बोरनियो के द्वीप समूहों तक भारत में अपनी मान्यता, अपनी कहानियां और अपनी सभ्यता का प्रचार प्रसार किया है।‘

– सिल्विया लेवी (फ्रांसीसी विद्वान) 

‘भारत ने चीन की सीमापार अपना एक भी सैनिक न भेजते हुए बीस शताब्दियों के लिए चीन को सांस्कृतिक रूप से जीता और उस पर अपना प्रभुत्व बनाया है।‘

– हु शिह (अमेरिका में चीन के पूर्व राजदूत)

दुनिया के कुछ हिस्से ऐसे हैं जहां एक बार जाने के बाद वे आपके मन में बस जाते हैं और उनकी याद कभी नहीं मिटती। मेरे लिए भारत एक ऐसा ही स्थान है। जब मैंने यहां पहली बार कदम रखा तो मैं यहां की भूमि की समृद्धि, यहां की चटक हरियाली और भव्य वास्तुकला से, यहां के रंगों, खुशबुओं, स्वादों और ध्वनियों की शुद्ध, संघन तीव्रता से अपने अनुभूतियों को भर लेने की क्षमता से अभिभूत हो गई। यह अनुभव कुछ ऐसा ही था जब मैंने दुनिया को उसके स्याह और सफेद रंग में देखा, जब मैंने भारत के जनजीवन को देखा और पाया कि यहां सभी कुछ चमकदार बहुरंगी है।

– किथ बेलोज़ (मुख्य संपादक, नेशनल जियोग्राफिक सोसाइटी)

‘ मैं भारत के अनेक राज्यों में घूमा. वहाँ मैंने एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं देखा जो भिखारी हो, चोर हो. ऐसी विलक्षण सम्पदा देखी है मैंने इस देश में, ऐसे उच्चतम मौलिक विचार, इतने काबिल/गुणी व्यक्ति देखे हैं कि मुझे नहीं लगता कि हम कभी इस देश को गुलाम बना पाएँगे, जब तक कि हम इस देश की अध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत को नष्ट ना कर दें, जो इस देश की वास्तव में रीढ़ है।

और इसलिए मेरा प्रस्ताव है कि इस देश की वर्षों पुरानी ‘शिक्षा प्रणाली‘ और यहाँ की ‘संस्कृति‘ को बदल दिया जाए, क्यूंकि जब भारतीय ये सोचेंगे कि जो कुछ भी विदेशी है और ब्रिटेन का है, वह अच्छा और बेहतर है उनके स्वयं से, तब ये भारतीय अपना अपनी पौराणिक संस्कृति और स्वाभिमान को खो बैठेंगे और तब ये लोग वो बन जाएंगे जो हम उन्हें बनाना चाहते हैं, एक वास्तविक गुलाम भारत !‘

 – भारत का दौरा करने के बाद 1835 में ब्रिटिश संसद में दिए गये अँग्रेज मैकाले के भाषण के अंश। ( ये दस्तावेज संग्रहित हैं ) 

भारत में बीस लाख देवी-देवता हैं और वे सभी की पूजा करते हैं। धर्म के मामले में बाकी सभी देश कंगाल हैं, भारत ही करोड़पति है।

 – मार्क ट्वेन

कोई भी अध्याय जिसका आरम्भ पश्चिमी है, यदि उसे मानव जाति के विनाश में समाप्त नहीं होना है तो उसका अंत भारतीय होना ही चाहिए। इतिहास के इस बेहद खतरनाक क्षण में मानव जाति की मुक्ति का एकमात्र तरीका भरतीय तरीक है।

– डॉ. अर्नॉल्ड टोयनबी

इसी संदर्भ में महान दार्शनिक स्वामी विवेकानंद का यह कथन भी भी ज्योतिपुँज-सा है-

भारत में हजारों वर्षों से शांति पूर्वक अपना अस्तित्व बनाए रखा। यहां जीवन तब भी था जब ग्रीस अस्तित्व में नहीं आया था . . . इससे भी पहले जब इतिहास का कोई अभिलेख नहीं मिलता, और परम्पराओं ने उस अंधियारे भूतकाल में जाने की हिम्मत नहीं की। तब से लेकर अब तक विचारों के बाद नए विचार यहां से उभर कर आते रहे और प्रत्येक बोले गए शब्द के साथ आशीर्वाद और इसके पूर्व शांति का संदेश जुड़ा रहा। हम दुनिया के किसी भी राष्ट्र पर विजेता नहीं रहे हैं और यह आशीर्वाद हमारे सिर पर है और इसलिए हम जीवित हैं. . .!‘

क्रमशः…….6

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 12 ☆संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी ”  ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  विश्वप्रसिद्ध पुस्तक “संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी ”  जिसकी 30 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं पर श्री विवेक जी  की चर्चा ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 12  ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी 

पुस्तक – संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी

हिन्दी अनुवाद –  The monk who sold his Ferari का  हिंदी संस्करण

लेखक – रोबिन शर्मा

मूल्य –  199 रु

किताब जिसकी दुनियां भर में ३० लाख प्रतियां बिकी  

 

☆ संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

जूलियन मेंटले एक वकील थे, जो अनियमित जीवन शैली से निराश हो चुके थे. बाद में उन्होने अपने पेशे, धन दौलत घर को त्याग कर हिमालय की कन्दराओ में सिवाना के संतो के साथ ज्ञान प्राप्त किया. उनके जीवन का निचोड़ बताती यह पुस्तक जिसे दुनिया के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लेखको में से एक राबिन शर्मा ने लिखा है और जिस किताब की दुनियां भर में ३० लाख प्रतियां बिक चुकी हैं पठनीय है व जीवन दर्शन सिखाती है. किताब बताती है कि कैसे हम अपने जीवन में आनंद का विस्तार कर सकते हैं. जीवन के उद्देश्य और आवश्यकता को समझ सकते हैं. जीवन में स्वयं अपने पर कैसे शासन किया जावे, अपने समय को किस तरह सुनियोजित करना चाहिये, तथा अपने रिश्तो को किस तरह निभाना चाहिये तथा जीवन को उसकी परिपूर्णता में कैसे जीना चाहिये यह इस किताब को पढ़कर ज्ञात होता है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 22 – रंगोली की दिवाली ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर  एवं भावुक लघुकथा “रंगोली की दिवाली”

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 22 ☆

 

☆ रंगोली की दिवाली ☆

 

रामप्रताप अपने उसूलों के पक्के शिक्षक। सारा जीवन अनुशासन जाति धर्म को मानते हुए, अपने हिसाब से जीने वाले व्यक्ति थे। कड़क मिजाज के होने के, कारण उनकी धर्मपत्नी शांति देवी भी कभी मुंह खोल कर उनका विरोध नहीं कर सकती थी, चाहे वह सही हो या गलत अपने पतिदेव का ही साथ देती आई। शांति देवी जैसा नाम वैसा ही उनका स्वभाव बन चुका था।

रामप्रताप और शांति देवी के एक बेटा था। जिसका नाम सुधीर था। बड़ा होने पर वह पढ़ाई के सिलसिले में बाहर चला गया था। दीपावली की साफ सफाई चल रही थी। रामप्रताप की पुस्तकों की अलमारी साफ करते समय शांति देवी के हाथ एक पत्र लग गया। बहुत पुरानी चिट्ठी थी, उनके बेटे के हाथ की लिखी हुई, लिखा था: पिताजी मैंने एक गरीब अपने से छोटी जाति की कन्या जिसका नाम ‘रंगोली’ है, शादी करना चाहता हूँ। हम दोनों साथ में पढ़ते हैं, और शायद नौकरी भी साथ में ही करेंगे। आपका आशीर्वाद मिले तो मैं रंगोली को साथ लेकर घर आ जाऊं। यदि आपको पसंद हो तो मैं घर आऊंगा। अन्यथा मैं और रंगोली यहाँ पर कोर्ट मैरिज कर लेंगे। शांति देवी पत्र को पढ़ते-पढ़ते रोने लगी। क्या? हुआ जो अपनी पसंद से शादी कर लिया, खुश तो है क्यों नहीं, आने देते, माफ क्यों नहीं कर देते, अनेक सवाल उसके मन पर आने लगे। पत्र को हाथ में छुपा कर अपने पास रख ली, और सारा काम करने लगी।

दिन बीता दीपावली भी आई और त्यौहार भी खत्म हो गया। परन्तु, खुशियाँ जैसे रूठ गई थी। दोनों इस चीज को समझते थे। दो-चार दिन बाद एक दिन सुबह चाय पीते-पीते शांति हिम्मत कर अपने पति से बोली “आज मुझे बेटे बहू की बहुत याद आ रही है। माफ कर दीजिए ना उन्हें, घर बुला लीजिए” परन्तु रामप्रताप कुछ नहीं बोले। अपने आप गुमसुम घर से निकल गए। उनके मन में कुछ और बातें चल रही थी। जो वह शांति देवी को बताना नहीं चाह रहे थे। जाते-जाते कह गए मैं शाम को देर से आऊंगा। तुम खाना खाकर अपना काम कर लेना, मेरा इंतजार नहीं करना। दिन में खाना खाकर शांति देवी अपने कमरे में सोने चली गई।

संध्या समय अंधेरा हो आया था। सोचा चल कर दिया बत्ती लगा ले, और यह कब तक आएंगे, जाने कहाँ गए हैं? सोचते-सोचते अपने काम पर लग गई। भगवान के मंदिर में आरती का दिया लगा रही थी तभी, बाहर से अंग्रेजी बाजे की आवाज आई। लग रहा था जैसे दरवाजे पर ही बज रहा हो। जल्दी-जल्दी चल कर उसने दरवाजा खोला। सामने गेट पर बहुत बड़ी सुंदर सी रंगोली सजी हुई थी, और शहनाई और बाजे बज रहे थे। उसे कुछ समझ नहीं आया। रंगोली के बीचो-बीच थाली में दिए की रोशनी दीपक लिए उसकी बहू’ रंगोली ‘सोलह श्रृंगार कर खड़ी थी। साथ में बेटा भी था।

रामप्रताप ने कहा – “दीपावली नहीं मनाओगी!! रंगोली का स्वागत कर लक्ष्मी को अंदर ले आओ।“

आज भी शांति देवी मुँह से कुछ ना बोली।

बस मुस्कुराते हुए आँखों से आँसू बहाते पूजा की थाली लेकर अपने रंगोली का स्वागत कर उसे अंदर ले आई। दीपावली का त्यौहार फिर से आज रोशन हो गया। बहुत खुश हो अपने पति से बोली – “मैं आज तक आपको समझ ना पाई दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं और बधाई।” यह कहते हुए वह अपने पति के चरणों पर झुक गई।

शुभ दीपावली!

 

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