सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-6 – श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 6
भड़पुरा से झाँसीघाट
रात्रि विश्राम हमने भडपुरा स्थित कुटी में किया। कुटी की देखभाल एक बूढ़ी माँ माँग-ताँग कर करती है। वह आश्रम किसी बड़े किसान ने इस शर्त पर बनवा दिया था कि परिक्रमा करने वालों को भोजन मिलना चाहिए। वे वैरागी हैं, उसका बेटा नवरात्रि में दुर्गा जी की मूर्ति का पंडा बना था। वहीं झाँकी के पंडाल में रहता था। सुबह नहाने धोने भर को घर आता था। उसे ख़बर लगी तो वह देखने आया। बातचीत करके संतुष्ट हो कर चला गया। उसकी बीबी को छः लोगों के लिए रोटी सब्ज़ी बनाना था तो उसका मूड ख़राब होने से वातावरण ठीक नहीं रहा। हमने खाना बनाने में मदद की पेशकश की, जिसे निष्ठुरता से ठुकरा दिया गया। उसका 12 साल का लड़का बहुत बातूनी था। उसी के मार्फ़त बातचीत चलती रही। अंत में अपनी घरेलू चार रोटियों के बराबर एक टिक्कड नमक मिर्च में  बनी आलू की सब्ज़ी के साथ एक गोल थाली में आए जैसे भीम अपनी गदा के साथ रथ में चला आ रहा हो। किसी ने दो किसी ने तीन और किसी ने चार खाए। सच हैं स्वाद भोजन में नहीं भूख में होता है। नींद न जाने टूटी खाट, भूख न जाने बासी भात। यहाँ तो न खाट थी और न भात परंतु नर्मदा जी का किनारा था। बाहर निकल कर नर्मदा की ओर देखा वह शांत होकर हँसिया खिले चाँद की रोशनी में निंद्रामग्न थी। लहरों की झिलमिल जो दिन में नज़र आती है वह नदारत थी।
वर्षो बाद जमीन पर और कुछ लोगों ने शायद जीवन में पहली बार गद्दे के बिना सोने का प्रयास शुरू हुआ। बिस्तर तीन तरफ़ से खुली दहलान में लगाए गए। सबसे पहले तो मच्छरों का हमला हुआ लड़के ने कचरा जलाकर धुआँ करके उनसे छुटकारा दिलाया। उसके बाद मुंशीलाल जी के पास एक कुतिया आकर सो गई। उसे डंडे से भगाया। सोने की कोशिश की तो बरगद के पेड़ पर तेज़ हलचल होने लगी। जैसे भूतों का डेरा हो। उठकर देखा तो चमगादड़ का एक झुंड बरगद के फलों को खा रहा था। फलों के टुकड़े पट-पट नीचे गिर रहे थे। एकाध घंटा चमगादड़ देखते रहे। फिर सोने की कोशिश की तो सिर के पास कुछ आवाज़ आई। हाथ फेरा तो एक मेंढक पकड़ में आया उसे दूर फेंक दिया। सब डर गए कि मेंढक की खोज में साँप वहाँ आ सकता है। हमने सोचा छोड़ो यार शंकर भगवान गले में डाले रहते हैं। अब आएगा सो आएगा। 90% सांप ज़हरीले नहीं होते हैं और फिर जैसे हम सांप से डरते हैं उसी प्रकार वे भी आदमी से डरते हैं। अरुण दनायक जी अपनी डायरी लिखने बैठ गए। लोग पहले पानी पीते फिर पेशाब जाते रात गुज़रने की राह देखते रहे। देर रात एक झपकी लगी और सवेरा हो गया। कहीं कोई पाखाना नहीं था। खुले में हल्के हुए। कुटी की गाय का एक-एक गिलास कच्चा दूध पिया। उनको तीन सौ रुपए दान स्वरूप दिए और चल पड़े।
हम पाँचों फिर चले और बीहड डांगर, नाले पार करते हम भीकमपुर पहुँचे। ऊँची घास से रास्ता नहीं सूझता था। एक भी गलत कदम कम से कम बीस फुट नींचे गिरा सकता था। और हुआ भी यही एक जगह रास्ते की खोज में  दनायक जी गिरते गिरते बचे वापिस मुड उपर से मुंशीलाल पाटकार ने आवाज लगाई इधर आईये रास्ता यहाँ से है।
भडपुरा के हनुमान आश्रम  का तोता हमारे पहुँचते ही अपने सिर पर आकर बैठ गया। उतरने से साफ़ इंकार करता रहा। चिकनी चाँद उसे भा गई। तोता महाराज वीडियो के शौक़ीन थे।
जिस देश में गंगा बहती है का “है आग हमारे सीने मे हम आग से खेला करते हैं “ गीत पर ख़ूब नाचा ससुरा। विडियो बंद करो तो चोंच मारता था। फिर लगाया “चल उड़ जा रे पंछी ये देश हुआ बेगाना” मस्त हो गए तोता राम।
काफ़ी मान-मनुअ्अल के बाद अरूण दनायक भाई के सिर को भी उपकृत किया। एक और साथी की ज़िद पर महाराज वहाँ पहुँचे लेकिन टैक्स के रूप में काटकर ख़ून निकल दिया। उसे काजू दिए तो उसने कुतर कर छोड़ दिए। तोता खुले में रहता था उड़ता नहीं था। पता चला कि उसे गाँजा पीसकर खिलाया गया है इसलिए जब उसे तलफ की आदत हो है तो वह बाबाओं के पास रहता है।
धरती कछार पड़ा वहाँ के स्कूल में  दनायक जी ने बच्चों से मुलाकात में गांधी चर्चा की जिसने हमें आन्नदित किया कि गांधी जी की पहुँच समय और भौगोलिक स्थितियों की ग़ुलाम नहीं है। आंगनवाडी केन्द्र की ममता चढार की कर्तव्य परायणता से  प्रफुल्लित हुए। धरती कछार से गोपाल बर्मन को कोलिता दादा का बैग रखने को साथ ले लिया। उसने बातों-बातों में बताया कि लोग भाजपा से नाराज़ हैं। ग्रामीण समाज में भी लड़कियाँ खुल कर बिना झिझक सामने आने लगीं हैं और शादियों के लिए लड़कों को  निरस्त भी करने लगीं हैं। वहीं दूसरी ओर उनका यौन व्यवहार भी तेज़ी से बदल रहा है। बाय फ़्रेंड-गर्ल फ़्रेंड का कल्चर खेतों में या मेड पर विडीओ, वट्सएप, फ़ेस्बुक के माध्यम से से रहा है। ये मोबाइल क्रांति का असर है। अब लड़कियाँ को सेनेटरी पैड और विटामिन की गोलियाँ आंगनवाड़ी से प्रदान की जाती हैं।
आश्रम से चले तो आधा घण्टे में एक बड़े नाले से सबका सामना पड़ा। सौ फ़ुट चढ़ाई चढ़ कर फिर नीचे उतर नाला पार किया, फिर चढ़ाई चढ़कर ऊपर पहुँचे तो पहाड़ी के सामने एक और नाला दिखा। भूगोल का दिमाग़ लगाया तो देखा कि एक ही नाला सांप की कुंडली की तरह चारों तरफ़ घुमा हुआ है। चार-पाँच बार पहाड़ियाँ चढ़-उतर कर नाला पार करना होगा लोगों का दम निकल जाएगा। निर्णय लिया कि दाहिनी तरफ़ नर्मदा में उतर जाएँ वहाँ से किनारे-किनारे झाँसीघाट की तरफ़ बढ़ेंगे। आगे बढ़े तो एक सौ फ़ुट ऊँची खाई का मुँह नाले में खुल रहा था। वह नाला नर्मदा में मिल रहा था। उतरने को कहीं कोई रास्ता नहीं था। सुरेश पटवा और कोलिता दादा आगे थे बाक़ी तीन पीछे भटक गए। कोलिता दादा को पीछे करके सुरेश पटवा बैठ कर सौ फ़ुट खाई में स्कीइंग करके नाले के किनारे से नर्मदा की गोद में पहुँच गए। उन्होंने कोलिता दादा को भी इसी तरह स्कीइंग करके उतारा। तब तक बाक़ी लोग ऊपर आ गए थे वे चिल्ला रहे थे कि रास्ता कहाँ है। उनको तरीक़ा बताया तो आगे बढ़ने को तैयार न थे। लेकिन कोई रास्ता था भी नहीं। आधे घंटे की मशक़्क़त के बाद सब लोग नीचे आ गए। वहाँ से विक्रमपुर का रेल पुल अब स्पस्ट दिख रहा था और झाँसीघाट का सड़क पुल धुंधला सा नज़र आ रहा था।
ग्वारीघाट से लगभग पचास किमी दूर जबलपुर और नरसिंहपुर की सीमा पर स्थित भीकमपुर गाँव है। नर्मदा दाहिनी तट की ओर शान्त सी बहती है उधर बाँए तट से सनेर अथाह जलराशि लिये आगे बढती है। ऐसा लगता है नर्मदा बडी विनम्रता से सनेर की भेंट की हुई जलराशि वैसे ही स्वीकारती है जैसे भिषुणी भिक्षा ग्रहण करती है और फिर अगले घाट की ओर चली जाती है। सनेर सदानीरा है,इसका जल स्वच्छ है और इसे लोग सनीर भी कहते हैं। सनेर नदी का उदगम सतपुडा के पहाड से होता है। इसका उदगम स्थल  लखनादौन जिला सिवनी स्थित नागटोरिया रय्यत है। यह बारहमासी नदी धनककडी, नागन देवरी, दरगडा, सूखाभारत आदि गावों से गुजरते हुये संगम स्थल भीकमपुर पहुँचती है। कोलूघाट तट पर सिवनी जिले के आदिवासियों का मेला भरता है तो संगम तट भीकमपुर में जबलपुर व नरसिंहपुर जिले के लोग शिवरात्रि आदि पर्वो पर एकत्रित होते हैं।
नदी पार करने के लिए नाव का सहारा लिया फिर दो घंटे में विक्रमपुर के रेल्वे पुल के नीचे से निकल झाँसीघाट पहुँच गए। नहाया धोया नर्मदा जी को प्रणाम करके झोतेश्वर धर्मशाला पहुँचे।

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – माँ की नज़र – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

माँ की नज़र
अपनी बेटी अंजलि के आठवी की परीक्षा में प्रावीण्य सूची में आने की खुशी में सुधीर जी ने अपने घर पर आस-पास के लोगों की एक छोटी सी घरेलू पार्टी का आयोजन आज शाम को किया था।
रविवार का दिन था सो सुबह से ही घर के तीनों सदस्य व सुधीर की माताजी भी व्यवस्थाओं में जुटे थे।
इस गहमागहमी में बेटी को आराम से बैठ कर टी वी देखते पाकर वे गुस्सा होकर बोले- ”तुम्हारे ही लिये हमने ये कार्यक्रम रखा है और तुम काम में माँ को थोड़ा हाथ बंटाने की जगह आराम से बैठकर टी वी देख रही हो ? जाओ और मम्मी को रसोई में मदद करो।”
शोर सुनकर अंजलि की माँ बाहर आई और पति को कहा- “क्यों उसके पीछे पड़े रहते हो, अभी वह छोटी है फिर बड़ी होकर तो ताउम्र गृहस्थी में खटना ही है” – कहकर स्नेह भरी नजर बेटी पर ड़ालकर रसोई में चली गई। बेटी ने भी सुना और वैसे ही बैठी रही।
कुछ देर बाद नहाने के पूर्व सुधीर जी को याद आया कि नहाने का साबुन खत्म हो गया है। उन्होंने फिर बेटी को आवाज दी और कहा कि चेलाराम की दुकान से नहाने के साबुन की दो टिकिया जल्दी से ला दो और पैसे माँ से ले लेना।
यह सुनते ही उनकी  पत्नी फिर रसोई से बाहर आई और कहा-”सुनो, बिटिया अब बड़ी हो गई है, उसे यूं अकेला-दुकेला चाहे जहाँ बाहर मत भेजा करो, कुछ आया समझ में……..? आप खुद जाओ”….
अंजलि ने अपनी माँ की तरफ उलझन भरी निगाहों से देखा मानो उसकी दोनों बातों का मतलब समझना चाह रही हो फिर पहले की तरह चुपचाप टी वी देखने लगी।

©  सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकरजी हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में अभिरुचि।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास।)

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सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-5 – श्री सुरेश पटवा

 सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 5
बिजना घाट से भड़पुरा
सुबह जल्दी ही अगली यात्रा पर निकल लिए। पहले नदी के कछार में से ही चलते रहे। मुरकटिया घाट से नर्मदा का पहले बाई फिर दाई ओर मुडना देखा, उन दीर्घ चट्टानों को देखा जिन्हे नर्मदा मानो अपने साथ बहा कर लाई हो और फिर किनारे लगा दिया।हमें यहाँ नर्मदा का एक स्वरूप और दिखा बीच नदी पर स्थित गुफाओं का निर्माण मानो नर्मदा ने चट्टानो पर अपनी लहरिया छैनी हथौडी चलाकर छेद और गुफायें बना डाली हैं। आगे चले दुर्गम तो नहीं पर कठिन मार्ग कहीं नर्मदा के तीरे तीरे तो कहीं बीहड डांगर पार करते हम बढते रहे।
अचानक रास्ते में एक नाला आ गया। किसानों से पूछा तो उन्होंने ऊपर से नाला पार करने को बताया। हम सीधी चढ़ाई चढ़ने लगे। रास्ता बिलकुल भी नहीं था खेतों में  कँटीली झड़ियाँ थीं। एक कोने से हरी घास में से रास्ता टटोला तो मिल गया। नाला पार करके डाँगर के उतार-चढ़ाव से लोग भारी थकने लगे। नाले की ठंडाई में थोड़े आराम किया। आगे जाकर एक महाराज मिल गए।
उनसे चार पुरुषार्थ की चर्चा चल पड़ी। हिंदू धर्म में चार पुरुषार्थ की बड़ी महिमा गाई जाती है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। कोई भी मनुष्य जब कोई काम करता है तो इनमे से किसी एक या एकाधिक पुरुषार्थ की प्रेरणा से कर्म करता है। एक साधु से जब हमने इस बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि वे तो सब छोड़ चुके हैं। हरि ओम्।
हमने पूछा कि आदमी प्रकृतिजन्य चीज़ों जैसे भोजन करना, साँस लेना और निस्तार करना छोड़ सकता है क्या?
वे बोले प्रकृतिजन्य चीज़ें कभी छूटती हैं क्या? ये तो ज़िंदगी के साथ ही छूटेंगीं, बच्चा।
हमने कहा कि चार पुरुषार्थ में अर्थ, धर्म और मोक्ष मानव निर्मित अवधारणा या सिद्धांत हैं जबकि काम प्रकृतिजन्य है, उसकी माया जीव जंतु पेड़ पौधों सब में दिखती है। उसे अनंग याने  बिना अंग का भी कहा गया है। वह पकड़ में ही नहीं आता तो कैसे छूट सकता है? वे बग़लें झाँकने लगे, कुछ सोचते रहे। फिर बोले सब भगवान की माया है। माया ही तो नहीं छूटती। बड़ी हठीली होती है।
हम अर्थ पर आ गए। पूछा अर्थ छूटता है क्या? वे सचेत हो चुके थे, वे मौन सोचते रहे। फिर पूछा हमारा अर्थ से क्या आशय है।
हमने कहा धन जिससे हम ख़रीदारी करते हैं। धन कमाया जाय या दान में मिले उसकी प्रकृति खरदीने की होती है। जहाँ ख़रीद-बेंच आई तो  व्यापार शुरू और व्यापार आया तो लालच तो आना ही है। लालच आया तो चैन गया। धन सारा सुख और आराम दिला सकता है। जैसे आपके आश्रम को चलायमान रखने के लिए धन की ज़रूरत होती है।
वे बोले बिना अर्थ के तो कुछ सम्भव ही नहीं है। काम और अर्थ का निपटारा करके हम धर्म और मोक्ष पर आए कि धर्म और मोक्ष कहीं परिभाषित नहीं हैं। धर्म वह है जिसे जीव धारण करता है अतः सबके धर्म अलग-अलग हुए फिर वे अलग धर्म सामूहिक रूप से सब लोगों पर एक से कैसे लागू हो सकते हैं। वे चुप रहे।
मोक्ष गूँगे का गुड बताया जाता है जिसे जीते जी मिला वह बता नहीं सकता कि मोक्ष की क्या प्रकृति है। जैसे महावीर या बुद्ध ने अपने मोक्ष को कभी नहीं बताया। मोक्ष कैसे मिलेगा यह बताया है। उनके शिष्यों ने बताया कि उन्हें मोक्ष प्राप्त हो गया। जिसे मरने पर मोक्ष मिला वह मोक्ष की प्रकृति बताने हेतु मरने के बाद वापस आ नहीं सकता।
हम अपरिभाषित मूल्यों के दिखावे में जीने वाले समाज हैं। कहते कुछ हैं, मानते कुछ हैं, करते कुछ हैं। इसी को आडंबर या पाखण्ड कहते हैं। पश्चिमी सभ्यता के लोग काम और अर्थ को खुलकर जीते हैं। धर्म और मोक्ष से उन्हें कुछ मतलब नहीं है। इसलिए उन्हें कुछ छुपाना नहीं पड़ता है। हमारा समाज भी अब काम और अर्थ को जी भरकर जी रहा है। उपभोग से अर्थ व्यवस्था का विकास होता है। रोज़गार पैदा होते हैं।
साधु जी मुस्कराए और गले लगाकर पीछा छुड़ाया। चिलम को ब्रह्मान्ध्र तक खींच काम की प्राकृतिक महिमा और मानव जनित धर्म अर्थ और मोक्ष की अंतरधारा में विलीन हो गए। हम आगे की यात्रा पर निकल गए।
फिर नशा धर्म का या नशे का धर्म निभाते साधु मिले। आँखों के लाल डोरे उनके अफ़ीमची और गाँजे की चिलम खींचने की कहानी कह रहे थे। उन्होंने तुलसी जी की चौपाई सुनाई।
जड़-चेतन गुण-दोष मय विश्व कीन्ह करतार
संत हंस गुण पय लहहिं छोड़ वारि विकार।
साधुओं से रुद्र शिव शंकर चर्चा और तत्व ज्ञान की मीमांसा पश्चात औघड़ बाबा के साथ गाँजा चिलम सुट्टा खींचा और आशीर्वाद का आदान प्रदान हुआ।
शाम को पाँच बजे भड़पुरा पहुँच गए।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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Journey of Life – Ms. Neelam Saxena Chandra

Neelam Saxena Chandra

(We salute “Women Power”.  Yesterday, we shared journey of life of Ms. Malati Mishra. Today, we would like to share literary journey of Ms. Neelam Saxena Chandra, who is having a number of published books and awards in her credit.  She is working as a General Manager (Electrical Engineer), Pune Metro.) 

Date of Birth: 27/06

Education:  BE (Electronics and Power), PG Dip in IM&HRD, PG Dip in Financial Management, Certificate course in Finance from London School of Economics

Field of Interest: Writing poems/stories/novels

Introduction:  Neelam Saxena Chandra works as a General Manager (Electrical) at Mahametro, Pune. She is an Engineering graduate from VNIT and has done her Post Graduation Diploma in IM&HRD and also in Finance. She has completed a course in Finance from London School of Economics. She has authored 4 novels, 1 novella and 6 short story collections, 29 poetry collections and 10 children’s books to her credit. She is a bilingual writer; writing in English and Hindi.

  • She holds a record with the Limca Book of Records -2015 for being the Author having the highest number of publications in a year in English and Hindi.
  • She has won II prize in a poetry contest organized by American Embassy and in a National poetry contest organized by Poetry Council of India, 2016.
  • She has received Humanity International Women Achiever Awards 2018,
  • Bharat Nirman Literary award in 2017,
  • Premchand award by Ministry of Railways,
  • Rabindranath Tagore International Poetry award,
  • Son Inder Samman,
  • Freedom award by Radio city for Lyrics along with other awards and honors.
  • She was listed in Forbes as one among 78 most popular authors in the country in 2014.

Your Literary journey:

I was a very coy and introvert person as a child. My classmates must have rarely heard my voice, except when it came to answering questions raised by teachers. However, I would listen to books and open up my heart to my diary. I used to write poems at that time.

After joining Railways, I began compeering for events and I loved using short poems written by me. I also started writing short skits and would not only act in them, I would also direct those skits. After my daughter was born, her craving for a story a day kept the imaginative person in me live till I finally wrote down those stories and sent them for publishing. That marked the beginning of my writing journey.

Best and memorable events of life: In 2010, I won II prize for a short poem written by me in a contest organized by Arushi and American Embassy, for which Gulzar sahib was the judge. This marked a turning point in my writing journey.

Toughest moment of life: There can be nothing worse than ill-health and my toughest moments were when I was diagnosed with Rheumatoid Arthritis. However, subsequently, I learnt to fight and survive.

Strength: My patience, my staying grounded and my creativity.

Weakness: Occasionally, I do lose my temper.

Literary work: Since I have written around 53 books, I will only name the ones written in 2017 and 2018:

मैंने पिरोये हैं अलफाज Aug-18 Authors Press Hindi Poetry
कसम मटमैले मशरूम की May-18 National Book Trust Hindi Children’s stories
Tales from Venus May-18 LiFi Publications English Short story
The Frozen Evenings Dec-17 Authors Press English Poetry
दहलीज़ Nov-17 Virtuous Publications Hindi Children’s stories
ज़िंदगी का अलाव Sep-17 Authors Press Hindi Poetry
एक शमा हरदम जलती है Jul-17 Authors Press Hindi Poetry
आज बादल बन बरस जाना है Jul-17 Authors Press Hindi Poetry
A Princess, A Goal and A Mole Jun-17 Omji Publishing English Children’s stories
The Soul Unbound Apr-17 Authors Press English Poetry
Trove of Musings Apr-17 Authors Press English Poetry
मैं बहने लगी हूँ Apr-17 Authors Press Hindi Poetry
मैंने रंग दिये अलफाज Apr-17 Authors Press Hindi Poetry
मैंने तराशे हैं अलफाज Apr-17 Authors Press Hindi Poetry
रंगी मैं तेरे रंग में Apr-17 Authors Press Hindi Poetry
सप्तरंगी परी एवं रंगबिरंगी कहानियाँ Feb-17 AlokparvPrakashan Hindi Children’s stories
In the Flickering of an Eye Jan-17 LiFi Publications English Novel
Stella Jan-17 Prabhat Prakashan English Novel

 

Work life balancing journey and how you manage to write in between:

I adore my job and I am passionate about writing. So, I am able to find time for both. Writing comes to me very naturally, and it’s like a stream waiting to flow. It always tends to find its path.

Positive message to society:

Always believe in yourself, for no one knows you better than yourself.

Email : [email protected]

© Neelam Saxena Chandra

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सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-4 – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 4
भेड़ाघाट से बिजना घाट
भेड़ाघाट से बिजना घाट की यात्रा सबसे लम्बी थकाऊ और उबाऊ थी। पहले हमने तय किया था कि रामघाट में रुककर रात गुज़ारेंगे। मंगल सिंह परिहार जी वहाँ से चार किलोमीटर आगे रास्ता देख रहे थे। सुबह से कुछ भी नहीं खाया था। खजूर मूँगफली दाने और चने व पानी के दम पर खींचे जा रहे थे। चार घण्टे चल चुके थे। दोपहर में तेज़ धूप में चलने से शरीर का ग्लूकोस जल जाता है और हवा में ऑक्सिजन भी कम हो जाती है। मांसपेशियाँ जल्दी थकने लगतीं हैं और साँस फूलने लगती है। दो बजे के बाद सूर्य की रोशनी सामने से परेशान करने लगती है। ऐसे माहौल में नदी किनारे रास्ता भी  नहीं था। बर्मन लोगों ने नदी के कछार को हल चलाकर मिट्टी के बड़े-बड़े ढेले में बदल दिया था। खाने पीने का कोई ठिकाना नहीं था। साथियों को बाटी-भर्ता का लालच देकर खींचे जा रहे थे, जबकि भोजन का कहीं कोई ठिकाना नहीं था। उधर दनायक जी को परिहार जी मोबाइल से जल्दी आने की कह रहे थे। सब थक कर चूर थे। ऐसे में दल को खींच कर आगे ले जाना ज़रूरी था।
15 अक्टूबर को मंगल सिंह परिहार के आश्रम नुमा फ़ार्म हाऊस में विश्राम का अवसर मिला। वे एक बहुत पुराने परिचित सहकर्मी रहे हैं। उन्होंने दिन के ग्यारह बजे से, जब हम भेड़ाघाट से चले ही थे,  तब से बिजना गाँव से नर्मदा पार करके मुरकटिया  घाट आकर मोबाईल से सम्पर्क साध कर हमारी स्थिति लेना शुरू कर दिया। वे हर आधा घंटे में दनायक जी को मोबाईल से सम्पर्क साध कर स्थिति पूछते जा रहे थे। कभी मोबाईल लगता था और कभी नहीं लगता था।
हम लोग रामघाट से सड़क छोड़ नर्मदा किनारे आ गए वहाँ से अत्यंत दुरुह यात्रा शुरू हुई। छोटी नदी, नाले, झरने, सघन हरियाली और ताज़े गोंडे गए खेतों की मिट्टी के बड़े-बड़े ढेलों के बीच से घुटनों और ऐडियों की परीक्षा का समय था क्योंकि कहीं भी समतल ज़मीन नहीं थी। आगे छोटी पहाड़ियों का जमघट एक के बाद एक घाटियाँ का सिलसिला जिनको स्थानीय बोली में ड़ांगर कहते हैं। चम्बल में जैसे बीहड़ होते हैं जिनमे कँटीले पेड़-पौधे होते हैं वैसे नर्मदा के आजु-बाजु ड़ांगर का साम्राज्य है उनके बीच से पानी झिर कर जंगली नालों को आकार देते हैं।  उनको पार करने के लिए ऊपर चढ़ाई चढ़ना फिर उतरना फिर चढ़ना। यात्रियों का दम निकलने लगता है। पसीने से तरबतर शरीर में पूरी साँस धौंकनी के साथ भरकर पहाड़ियों को पार करने के बीच में नर्मदा दर्शन से हिम्मत बनती टूटती रहती है।
चार बजे कुछ हाल-बेहाल और कुछ निढ़ाल-पस्त हालत में बिजना घाट के सामने वाले मरकूटिया घाट पर मंगल सिंघ परमार बिस्कुट और केले फल के साथ स्वागत आतुर मिले। वहाँ उनकी सिकमी ज़मीन थी। उसी पर खड़े थे। बैठने को कोई छायादार जगह नहीं थी। यात्री बिस्कुट और केलों को क्षणभर में चट कर गए। नाव से नर्मदा पार करके दूसरी पार उतरे वहाँ एक बर्मन दादा पूड़ी और खीर का भंडारा करा रहे थे। यात्रियों ने भंडारा खाया। ख़ूब पानी पिया तो कुम्लाए चेहरों की रंगत और ढीले शरीरों में जान लौटने लगी।
मंगल सिंह  परिहार ने प्राकृतिक छटाओं में बसा अपना आश्रम दिखाया। जिसमें पारिजात और रुद्राक्ष के वृक्ष लगे हैं। सूर्यास्त का दृश्य अत्यंत सुंदर नज़र आता है। उन्होंने बताया कि उनके पूर्वज नागौद रियासत के राजा रहे हैं। परमार, परिहार, बुंदेले और बघेल ये सब गहडवाल राजपूत हैं। परमारों ने महोबा, परिहारों ने नागौद, बुन्देलों ने छतरपुर और बघेलों ने रीवा रियासत स्थापित की थी। ये सब पहले अजमेर के पृथ्वीराज़ चौहान या कन्नौज के जयचंद राज्यों के सरदार थे। 1091-92 में मुहम्मद गोरी के हाथों अजमेर, दिल्ली और कन्नौज हारने के बाद इन्होंने इन राज्यों को स्थापित किया था। नागौद कभी स्वतंत्र राज्य और कभी रीवा के बघेलों का करद राज्य हुआ करता था। उसके उत्तर-पश्चिम में केन नदी का अत्यंत ऊपजाऊ कछारी भाग था लेकिन दक्षिण-पूर्व में पथरीली ज़मीन थी। अतः राजपूतों ने नर्मदा के कछारी मे बसने का निर्णय लिया था।
अंग्रेज़ों ने 1861 में जबलपुर को राजधानी बनाकर सेंट्रल प्रोविंस राज्य बनाया तो रीवा, ग्वालियर, इंदौर, भोपाल रियासत छोड़कर मध्य प्रांत के नागौद  सहित बाक़ी सब इलाक़े उसमें रख दिए। तब ही नर्मदा घाटी का सर्वे करके जबलपुर की सीमा नर्मदा के उत्तर-दक्षिण में चरगवाँ-बरगी तक निर्धारित कर दी। परिहारों को ज़मींदारी में मगरमुहां का इलाक़ा दिया गया। कई परिहार सौ-सौ एकड़ के ज़मींदार बनकर आज के पाटन और शाहपुरा इलाक़े में आ बसे। उनमें मंगल सिंह परिहार के पूर्वज भी थे। मंगल सिंह के पिताजी मुल्लुसिंह परमार निरक्षर थे परंतु उन्होंने अपने आठ बेटों को पोस्ट-ग्रेजुएट कराया।
मंगल सिंह जी से देर रात तक बातें होतीं रहीं। वे हमें एक वेदान्ती साधु के दरबार में ले गए। हमसे कहा कि साधु जी वेदों के प्रकांड विद्वान हैं। आप उनसे गूढ़ प्रश्न कीजिए तब उनकी ज्ञान गंगा बहने लगेगी। हम लोग उनके दरबार मे पहुँचे पाँव-ज़ुहार होने के बाद बातचीत चली तो मौक़ा देखकर हमने एक सवाल का तीर चलाया कि हमारी जानने कि इच्छा है कि महाराज रुद्र और शिव का अंतर बताएँ तो बड़ी कृपा होगी। स्वामी जी ने थोड़ा इधर-उधर घुमाया। फिर विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया कि प्रश्न गूढ़ है और उनका ज्ञान वेदों तक ही सीमित है उन्होंने पुराण नहीं पढ़े हैं। वे नेपाल से नर्मदा की गोद में आकर बस गए हैं। नर्मदा परिक्रमा कर चुके हैं। वापस आकर परिहार जी ने शिमला मिर्च की साग-रोटी और दाल-चावल का बढ़िया भोजन कराया। उसके बाद बातों का सिलसिला चल पड़ा। परिहार जी की बातें सुनते रहे। उनकी बातों के क्रम को बीच में बोलकर तोड़ना उनके रुतबे को कम करने जैसा होता है यह बात हम जानते थे परंतु अन्य लोगों को नहीं पता था। एक सहयात्री ने टोकने की कोशिश की तो  हमने उसे चुपके से समझा दिया कि भैया:-
बंभना जाय खाय पीय से
   क्षत्री जाय बतियाय
       लाला जाय लेय-देय से
           शूद्र जाय लतियाय।
इस बुंदेलखंड की कहावत को गाँठ बाँध लो और चुपचाप सुनो। सुबह दो-दो रोटियाँ तोड़कर आश्रम से फिर नर्मदा की गोद मे पहुँच गए। इस प्रकार 13,14 और 15 अक्टूबर की यात्रा पूरी हुई। यहाँ से हमारे एक और साथी प्रयास जोशी ने हमसे विदा ली।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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जीवन-यात्रा-सुश्री मालती मिश्रा

मालती मिश्रा

 

 

 

 

 

(जीवन में प्रत्येक मनुष्य को अपनी जीवन यात्रा नियत समय पर नियत पथ पर चल कर पूर्ण करनी होती है।  किसी का जीवन पथ सीधा सादा सरल होता है तो किसी का कठिन संघर्षमय ।

मैं “नारी शक्ति”का सम्मान करते हुए शेयर करना चाहूँगा, एक युवती की जीवन यात्रा, जिसने एक सामान्य परिवार में जन्म लेकर बचपन से संघर्ष  करते हुए एक अध्यापिका, ब्लॉगर/लेखिका तक का सफर पूर्ण किया। शेष सफर जारी है।  जब हम पलट कर अपनी जीवन यात्रा का स्मरण करते हैं, तो कई क्षणों को भुला पाना अत्यन्त कठिन लगता है और उससे कठिन उस यात्रा को शेयर करना। प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा जी की जीवन यात्रा उनकी ही कलम से।)     

साहित्यिक नाम– ‘मयंती’

जन्म :  30-10-1977

संप्रति : शिक्षण एवं  स्वतंत्र लेखन

जीवन यात्रा : 

मेरा नाम मालती मिश्रा है।  मेरे पिताजी एक कृषक हैं और ग्राम देवरी बस्ती जिला, जो कि अब सन्त कबीर नगर में आता है के निवासी हैं। एफ०सी०आई० विभाग में कार्यरत होने के कारण पहले कानपुर उ०प्र० में सपरिवार रहते थे। इसलिए मेरी प्रारंभिक शिक्षा कानपुर से ही हुई। जब मैं कानपुर कन्या महाविद्यालय से ग्यारहवीं की पढ़ाई कर रही थी तभी मेरी माँ की तबियत अधिक खराब होने के कारण मुझे उनकी देखभाल के लिए पढ़ाई छोड़नी पड़ी और ऑपरेशन के उपरांत उनके साथ ही गाँव चली गई। एक वर्ष के बाद मैंने पुनः श्री जगद्गुरु शंकराचार्य विद्यालय मेहदावल से इंटरमीडिएट की पढ़ाई की। चित्रकला में मुझे बचपन से शौक होने के कारण तथा उसमें मेरा हाथ साफ था अतः ये जानने के बाद कि मैं आगे की पढ़ाई कानपुर से करूँगी मेरे आर्ट के अध्यापक महोदय ने ही मुझे कानपुर के डी०ए०वी० कॉलेज में एडमिशन लेने की सलाह दी। मैंने फिर डी०ए०वी० से चित्रकला विषय के साथ स्नातक की पढ़ाई आरंभ की परंतु कुछ व्यक्तिगत कारणों से बी०ए० की तृतीय वर्ष की परीक्षा पूरी न दे सकी और निराशा के अधीन हो आगे न पढ़ने का फैसला कर लिया।

तदुपरांत विवाह के पश्चात मैं दिल्ली की स्थानीय नागरिक बन गई। समय का सदुपयोग और स्वयं को आजमाने के लिए किसी सहेली के साथ विद्यालय में शिक्षिका के पद के लिए साक्षात्कार दे आई और नियुक्ति भी हो गई। मुझे बखूबी याद है कि मुझे दूसरी कक्षा दी गई थी पढ़ाने के लिए और मैं बहुत नर्वस थी।  परंतु कक्षा में जाकर जब मैंने अंग्रेजी की पुस्तक देखी तो सारा डर काफ़ूर हो गया। अब अध्यापन के साथ-साथ मैंने पुनः दिल्ली यूनिवर्सिटी से स्नातक तथा इग्नू से हिन्दी में स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण की। चित्रकला में स्नातकोत्तर या करियर तो अतीत में देखा हुआ महज़ स्वप्न बन चुका था। मैं स्नातकोत्तर होने से पहले ही हिन्दी की अध्यापिका बन चुकी थी और दसवीं कक्षा तक हिन्दी पढ़ाती थी। बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते ही मैं क्रिया-कलाप करवाते हुए अपनी चित्रकारी के शौक को पूरा कर लिया करती।  क्रियाकलाप के लिए बच्चों के लिए एकांकी लिखती थी, साथ ही स्कूल में होने वाले कार्यक्रमों का प्रतिवेदन अखबारों के लिए लिखती। इससे मेरे भीतर लेखन के प्रति रुचि उत्पन्न होने लगी।  इसी प्रक्रिया के अंतर्गत मैंने छात्रों से मैगज़ीन बनवाया और उसमें मैंने अपनी पहली कविता लिखी किन्तु दुर्भाग्यवश मैं वो मैगजीन पब्लिश  करवाती उससे पहले ही स्कूल छोड़ दिया। मैंने अध्यापन किसी अन्य स्कूल से बदस्तूर जारी रखा।

मैं अपने विचारों को पब्लिकली रखना चाहती। इसमें मेरी मदद मेरे पति ने की, उन्होंने मुझे ‘अन्तर्ध्वनि’ द वॉयस ऑफ सोल’ नामक वेब साइट तथा meelumishra.Blogspot.in  ब्लॉग बनाकर दिया ताकि मैं अपने विचार उस पर साझा कर सकूँ। अब मेरे विचारों को ज़मीन मिल गई थी। धीरे-धीरे मैंने काव्य रचना शुरू की। मेरे काव्य संग्रह में जब कविताओं की संख्या इतनी हो गई कि मैं उन्हें पुस्तक का रूप दे सकूँ, तब मैंने ‘उन्वान प्रकाशन’ से अपनी पुस्तक पब्लिश करवाई। अब मेरी दूसरी पुस्तक भी प्रकाशन हेतु तैयार है।

आपके जीवन के यादगार क्षण:

एक माँ के तौर पर 1995 में जब मैंने पहली बार अपनी बेटी को गोद में लिया और एक लेखिका के तौर पर जब मेरी पहली पुस्तक प्रकाशित होकर मेरे हाथ में आई।

आपके जीवन का सबसे कठिन क्षण : 

मेरे इकलौते मामा जी के देहांत के उपरांत तय हुआ कि मैं और मेरे दोनों छोटे भाई बाबूजी के साथ कानपुर में रहेंगे।  माँ गाँव में रहते हुए नाना-नानी की व अपने तथा उनके खेत-खलिहान की देखभाल करेंगीं। उस समय मेरी स्थिति ऐसी थी मानों किसी बच्चे को मनचाहा खिलौना हाथ में देकर उससे जबरन छीन लिया गया हो, मैं बहुत रो रही थी कोई चुप नहीं करवा पा रहा था।  तभी बाबूजी ने डाँटा।  अब मैं न रो पा रही थी और न चुप हो पा रही थी।  उस समय और फैसले ने मुझसे मेरा बचपन छीन लिया।

आपकी शक्ति :  मेरा आत्मविश्वास और मेरे बच्चे ये दोनों ही मेरी शक्ति हैं।

आपकी कमजोरी : गलत चीजें बर्दाश्त न कर पाने के कारण मेरा शीघ्र ही क्रोधित होजाना।

आपका साहित्य :

प्रकाशित पुस्तक- ‘अंतर्ध्वनि’ (काव्य-संग्रह), ‘इंतजार’ अतीत के पन्नों से (कहानी संग्रह), तीन साझा संग्रह तथा पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन जारी।

आपका कार्य-जीवन संतुलन

विवाहोपरांत, परिवार व बच्चों के प्रति जिम्मेदारियों को निभाते हुए अध्यापन के साथ-साथ मैंने अध्ययन भी किया।  आसान न होने के बावजूद इसे पूर्ण किया। आजकल प्राइवेट स्कूल में अध्यापन का मतलब 24×7 स्कूल के कार्यों में व्यस्त, ऐसे में घर और स्कूल में तालमेल बिठाना भी अपने-आप में चुनौतीपूर्ण होता है।  परंतु, मैं इसके साथ-साथ लेखन भी करती हूँ इसके पीछे मेरी बेटियों का सहयोग है। बिना उनके मेरे लिए ये सब बहुत मुशकिल होता।

आपका समाज के लिए सकारात्मक संदेश

मनुष्य हर पल, हर घड़ी, हर स्थान पर हर परिस्थिति में कुछ न कुछ सीखता ही है।  बेशक उसे उस वक्त इसका ज्ञान न हो परंतु आवश्यकता पड़ने पर उसे अनायास ही परिस्थिति, घटना, समस्या और समाधान सब याद हो आते हैं और तब महसूस होता है कि हमने अमुक समय अमुक सबक सीखा था। अत: जब हम जाने-अनजाने प्रतिक्षण सीखते ही हैं तो क्यों न हम प्रकृति से भी सीखें। प्रकृति एक ऐसी शिक्षक है,  जिसकी शिक्षा ग्रहण करके यदि मानव उसका अनुकरण करने लगे तो ‘वसुधैव कुटुंबकम’ महज एक मान्यता नहीं रह जाएगी बल्कि यह सहज ही साक्षात् दृष्टिगोचर होगी।

आकाश पिता की भाँति सभी प्राणियों पर बिना भेदभाव के समान रूप से अपनी छाया करता है, धरती सबकी माँ है, इसे देश, नगर, गाँव में मनुष्यों ने बाँटा है।  नदी जल देने में, वृक्ष फल व प्राणवायु देने में जब कोई भेदभाव नहीं करते, सभी प्राणिमात्र पर सदैव समान कृपा करते हैं तो हमें भी उनसे सीख ग्रहण कर अपने बीच के भेदभाव मिटाकर आपसी भाईचारे को बढ़ावा देना चाहिए, तभी यह “वसुधैव कुटुम्बकम्” की धारणा साकार हो सकती है।

मैं मानती हूँ कि आज के समय में यह इतना सहज नहीं है। परन्तु, जिससे जितना हो सके उतना तो अवश्य करना चाहिए मसलन अपने आस-पास यदि हम किसी की कोई मदद कर सकें तो यथासंभव करना चाहिए।  इससे उस इंसान का इंसानियत पर विश्वास बढ़ जाता है तथा वह या अन्य जिसने भी उस क्षण का अवलोकन किया होगा, सक्षम होने की स्थिति में दूसरों की मदद करने में कतराएँगे नहीं। इंसानियत से ही इंसानियत का जन्म होता है और मनुष्य को स्वार्थांध होकर अपना यह सर्वोच्च गुण नहीं त्यागना चाहिए।

व्यक्ति से समाज और समाज से गाँव, नगर और देश बनते हैं। किसी भी देश के सम्पन्न होने के लिए उसके नागरिकों की सम्पन्नता आवश्यक है और इसके लिए प्रत्येक नागरिक का शिक्षित होना आवश्यक है अतः यथासंभव हमारा प्रयास यही होना चाहिए कि कोई बच्चा अनपढ़ न रहे क्योंकि शिक्षा ही वह माध्यम है जो व्यक्ति से उसकी स्वयं की पहचान कराती है तथा उसे उसकी मंजिल तक ले जाती है।

Email : [email protected]

© सुश्री मालती मिश्रा

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सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-3 – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 3
तिलवारा घाट से भेड़ाघाट 
15 तारीख़ को हम तिलवारा घाट से चलने को तैयार हुए तो पता चला कि पुल के किनारे से एक नाला गारद और कंपे से भरा होने के कारण दलदली हो गया है लिहाज़ा एक किलोमीटर ऊपर से नए घूँसोर, लमहेंटा,चरगवा, धरती कछार से एक रोड शाहपुरा निकल गई है। लम्हेंटा घाट पर शनि मंदिर से लगा ब्रह्म कुंड देखा। ऐसी मान्यता है कि जब कोई कोढ़ी मर जाता है तो उसके शव को ब्रह्मकुंड में सिरा देते हैं। वह सीधा पाताल लोक पहुँच जाता है।
शाम को चार बजे धुआँधार पहुँच गए। डूंडवारा से पसर कर बहने वाली नर्मदा अचानक लजा कर सिमट गई। उसका पानी सिमट कर गहरे खड्ड में तेज़ी से गिरने लगा तो वह छोटे कणों में बदलकर धुएँ की शक्ल में दिखने लग गया। यही जबलपुर की शान धुआँधार जलप्रपात है। अचानक यादों के फ़्लैश बैक में 1987 का चित्र घूम गया, जब सुरेश पटवा स्टेट बैंक भेड़ाघाट में शाखा प्रबंधक हुआ करते थे। दो साहूकार सुनील जैन और ब्रजकिशोर मूर्तियों के कुशल कारीगरों और नाविकों को दो-तीन रुपया प्रतिमाह सूद पर क़र्ज़ दिया करते थे याने 24-36 प्रतिशत वार्षिक का ब्याज वसूलते थे। जिसके लिए उन्होंने बैंक से लिमिट ले रखी थी। कारीगर और नाविक न तो बैंक से क़र्ज़ लेते थे न बैंक में रक़म जमा करते थे। बैंक का बट्टा बैठ रहा था।
वे दोनों अपनी लिमिट बढ़वाने बैंक आए तो उनसे पुरानी लिमिट का खाता बंद करके बढ़ी हुई लिमिट का नया खाता फ़र्म के नाम से खुलवाने को कहा गया। उन्होंने कारीगरों और नाविकों से रक़म वसूल कर खाते बंद कर दिए। उनके बढ़ी लिमिट के प्रस्ताव जबलपुर क्षेत्रीय कार्यालय भेज दिए गए। इस बीच 200 नाविकों और कारीगरों को दस-दस हज़ार के क़र्ज़ बाँटकर उनके बचत खाते भी खोल दिए गए। वे शोषण मुक्त हुए और बैंक लाभ कमाने लगा। दोनों साहूकारों को नई लिमिट दी और उनको मूर्तियों का स्टॉक रखने को ज़रूरी बताया। उन्होंने कारीगरों से मूर्तियाँ ख़रीदना शुरू कर दिया। इस प्रकार बैंक स्थानीय वित्तीय कारोबार का मध्यस्थ बन गया।
भेड़ाघाट संगमरमर की मूर्तियों और कलाकारी के लिए मशहूर है। संगमरमर या सिर्फ मरमर (फारसी) संग-पत्थर, ए-का, मर्मर-मुलायम = मुलायम पत्थर।
यह एक कायांतरित शैल है, जो कि चूना पत्थर के कायांतरण का परिणाम है। यह अधिकतर कैलसाइट का बना होता है, जो कि कैल्शियम कार्बोनेट (CaCO3) का स्फटिकीय रूप है। यह शिल्पकला के लिये निर्माण अवयव हेतु प्रयुक्त होता है। इसका नाम फारसी से निकला है, जिसका अर्थ है मुलायम चिकना पत्थर।
संगमरमर एक कायांतरित चट्टान है जिसका निर्माण अवसादी कार्बोनेट चट्टानों के क्षरण और कभी-कभी संपर्क कायांतरण के फलस्वरूप होता है। यह अवसादी कार्बोनेट चट्टानें चूना पत्थर या डोलोस्टोन, या फिर पुराना संगमरमर हो सकती है। कायांतरण की इस प्रक्रिया के दौरान मूल चट्टान का पुनर्क्रिस्टलीकरण होता है। अवसादी निक्षेपों से संगमरमर बनने की इस प्रक्रिया में उच्च तापमान और दबाव के चलते मूल चट्टान मे उपस्थित किसी भी प्रकार के जीवाश्मिक अवशेष और चट्टान की मूल बनावट नष्ट हो जाती है। ये चट्टानें डूंडवारा से बगरई तक नर्मदा के आग़ोश में फैली हुई हैं। नर्मदा पहले धुआँधार के खड्ड में न गिरकर उसके दाहिनी तरफ़ से सीधे सरस्वती घाट पहुँचती थी। हज़ारों सालों से नर्मदा चट्टानों को काटती रही तब कहीं जाकर संगमरमर का स्वप्नलोक उजागर हुआ। जिसकी बन्दरकूदनी में राजकपूर ने नाव पर “चंदा एक बार जो उधर मुँह फेरे मैं तुझसे प्यार कर लूँगी, आँखें दो चार कर लूँगी” गीत को सेल्यूलाईड पर नर्गिस के साथ रचकर बॉलीवुड का इतिहास रच दिया। अब लाखों लोग उस सौंदर्य लोक को निहारने वहाँ जाते हैं।
बगरई कारीगरों का गाँव है। वहाँ कारीगरों के 250-300 गाँव हैं। चारों तरफ़ संगमरमर पत्थर की खदानें हैं। दस हज़ार रुपयों में एक ट्रॉली ख़रीद कर कटर, छेनी, वसूली और दांतेदार रगड़ से पत्थर को मूर्तियों की शक्ल में ढाल देते हैं। अधिकांश कारीगरों ने बैंकों से क़र्ज़ लिए थे वे सब ख़राब हो गए, उनका रिकार्ड बिगड़ने से उनको क़र्ज़ मिलना बंद हो गया। अब निजी माइक्रो फ़ाइनैन्स कम्पनी उन्हें 24% वार्षिक दर से क़र्ज़ उनके घर पर देते हैं और घर से ही वसूली करते हैं। बगरई गाँव में एक बसोड के घर रुक कर पानी पिया। अरुण दनायक जी ने उनसे लम्बी बातचीत की, उनके फ़ोटो उतारे। आगे रामघाट की तरफ़ चल दिए। तब पता नहीं था कि हमें बिजना घाट तक का सफ़र तय करना होगा।
पंचवटी तट स्थित नेपाली कोठी, जहाँ हमारे ठहरने की व्यवस्था मेरे अरुण जी के सुधीर भाई ने की थी, वहीं रात्रि विश्राम किया। यहाँ से हमारे एक अन्य साथी अविनाश दवे भी बिछुड गये।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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हिन्दी साहित्य- कविता -मैं काली नहीं हूँ माँ! – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

नीलम सक्सेना चंद्रा

 

 

 

 

 

मैं काली नहीं हूँ माँ!

 

माँ,

सुना है माँ,

कल किसी ने एक बार फ़िर

यह कहकर मुझसे रिश्ता ठुकरा दिया

कि मैं काली हूँ!

 

माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!

 

कल जब मैं

बाज़ार जा रही थी,

चौक पर जो मवाली खड़े रहते हैं,

उन्होंने मुझे देखकर सीटी बजाई थी

और बहुत कुछ गन्दा-गन्दा बोला था,

जिसे मैंने हरदम की तरह नज़रंदाज़ कर दिया था;

काले तो वो लोग हैं माँ!

माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!

 

उस दिन जब मेरे बॉस ने

चश्मे के नीचे से घूरकर कहा था,

प्रमोशन के लिए

और कुछ भी करना होता है,

मैं तो डर ही गयी थी माँ!

काला तो वो मेरा बॉस था माँ!

माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!

 

अभी कल टेलीविज़न पर ख़बर सुनी,

एक औरत के साथ कुकर्म कर

उसे जला दिया गया!

माँ, यह कैसा न्याय है माँ?

काले तो वो लोग थे माँ!

माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!

 

यह कैसा देश है माँ

जहाँ बुरे काम करने से कुछ नहीं होता

और चमड़ी के रंग पर

लड़की को काली कहा जाता है?

माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!

माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!

© नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। वर्तमान में  आप जनरल मैनेजर (विद्युत) पद पर पुणे मेट्रो में कार्यरत हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-2 – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। ) 

नर्मदा परिक्रमा 2
ग्वारीघाट से तिलवारा घाट
ग्वारीघाट से चले दो घंटे हो चुके थे। तिलवारा घाट शाम तक पहुँचने का लक्ष्य था। तिलवारा घाट का पुल तीन किलोमीटर पहले से दिखने लगा था। उसे देखते ही लगा कि लो पहुँच गए तिलवारा घाट परंतु चलते-चलते पुल नज़दीक ही नहीं आ रहा था।
पुल के  दृश्य का पेनोरमा नज़ारा जैसा का तैसा बना था।
तभी सामने एक बड़ा चौड़ा पहाड़ी नाला रास्ता रोककर खड़ा हो गया। खेतों में काम कर रहे मल्लाहों से पूछा तो उन्होंने बताया कि दो किलोमीटर ऊपर चढ़कर नाला पार करके नागपुर रोड पर पहुँच कर तिलवारा घाट पहुँचा जा सकता है इसका मतलब हुआ चार किलोमीटर का चक्कर। सबके पसीने छूट गए।
टी पी चौधरी साहब सपत्नीक गेंदों की मालाओं, नारियल,फल और ढेर सारा प्यार व परकम्मावासियों के प्रति हृदय में सम्मान आस्था लेकर तिलवारा घाट पर खड़े थे। हमारी स्थिति लेते रहे थे।  मोबाइल से उनको निवेदन किया कि एक नाव घाट से भिजवा दें। इसके पहले कि वे घाट पर आएँ, एक नाविक को हम दिख गए और हमने भी तेज़ आवाज़ के साथ हाथ हिलाए। एक नाव में बैठकर तिलवारा घाट पर उतरे। चौधरी साहब ने बड़ी आत्मीयता और सम्मान से मालाओं को पहनाकर स्वागत किया और नारियल चीरोंजी अर्पित किया मानो हम देव हो गए हों। हमेशा की तरह हम उनके चरणस्पर्श करने को झुके तो उन्होंने हमें रोक दिया क्योंकि हम परिक्रमा वासी थे। भाभी जी अभिभूत थीं। उनका मातृवत प्रेम पूरी यात्रा हमारे साथ चला। सब लोग चौधरी दम्पत्ति के बारे में बतियाते रहे।
वैराग्य पर बातें करने लगे। घर, कपड़े, बिस्तर, पानी, खाना, पंखा, फ़र्निचर, गद्दे, गाड़ी, रुपया-पैसे, रिश्ते-नाते इन सब से परे भगवान भरोसे सिर्फ़ भगवान भरोसे। न रास्ते का पता, न खाने का पता, न ठिकाने का पता।
बस एक अवलंबन नर्मदा, जिसके भरोसे ईश्वर के रिश्ते की डोर आदमियत से बंधी है। बस वही बचाएगी, वही खिलाएगी, वही सुलाएगी।
सब कुछ तोड़कर और सब कुछ छोड़कर उसकी धारा में जाओगे तो वह पार लगाएगी। कर्मकांड से परे एक दीपक आस्था का। जूझो धूप से, पहाड़ से, पानी से, इंसानी नादानी से।
धौंकनी सा चलता दिल, पिघल कर पसीना होती देह और आत्मा में तारनहार के प्रति असीम आस्था की परीक्षा है नर्मदा यात्रा।
जिस घर के सामने पहुँचकर कंठ से  “नर्मदे हर” का अलख जगाया। उत्तर में हर-हर नर्मदे का स्वर घर के सभी सदस्यों की आवाज़ में एकसाथ गूंजा और सबसे बुज़ुर्ग सदस्य की आवाज़ सुनाई देती है बैठो साहब पानी पी लो, चाय पी लो, भोजन बना दें।
सिर्फ़ आदमियत का रिश्ता कि पूरी पृथ्वी के जीव एक ही ब्रह्म के अंश हैं। सब अन्योनाश्रित हैं। वसुधेव कुटुम्बकम। भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा मूल्य, जो मानवता वादियों का सबसे बड़ा संबल है। धर्म का सच्चा रूप। दुनिया की आतंकवाद के विरुद्ध एकमात्र आशा।
अत्यावश्यक से परे न्यूनतम पर जीवन पर विचार हुआ। भूख, भोजन, यौनइच्छा और आराम ये चार चीज़ें मानुष और पशु को प्रकृति की अनिवार्य देन हैं क्योंकि जीवन का चक्र इन्हीं से गतिमान होता है। भूख है तो भोजन की तलाश है, शरीर की थकान से भरपेट भोजन मिला तो यौन इच्छा जागती है, जिसकी पूर्ति होते ही नींद की प्रगाढ़तावश आराम अनिवार्य हो जाता है।
छः दिन भूख, भोजन, यौनइच्छा से परे सुबह से शाम तक चलते-चलते चूर होने से भूख मिट गई, भोजन नहीं मिला तो यौनइच्छा लुप्त सी रही क्योंकि काम की जननी ऊर्जा का अंश देह में बचा ही नहीं।
यहाँ से प्रथम सह यात्री विनोद प्रजापति दमोह को वापिस चले गये, श्रीवर्धन नेमा व रवि भाटिया जबलपुर।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-1 – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे।

श्री पटवा जी  ने नर्मदा परिक्रमा खंड-1 की यात्रा अपने परिक्रमा-दल के साथ पूर्ण  कर ली है। अब  हम साझा करेंगे उनकी  यात्रा का अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में ।) 

नर्मदा परिक्रमा-1
परिक्रमा दल 
नाम              उम्र  परिचय
बी सी कोलिता      91      सेवानिवृत्त फ़ौजी
जगमोहन अग्रवाल  71      सेवानिवृत बैंकर
प्रयास जोशी        66      सेवानिवृत बैंकर
अरुण दनायक      59      स.म.प्र. भारतीय स्टेट बैंक
श्रीवर्धन नेमा      59      सेवारत बैंकर
रवि भाटिया        63      सेवानिवृत्त बैंकर
विनोद प्रजापति    59      सेवारत बैंकर
अविनाश दवे      60      सेवारत बैंकर
मुंशीलाल पाटकर    59      वक़ील
सुरेश पटवा        67      सेवानिवृत्त बैंकर
नर्मदा नदी का प्राकृतिक विवरण।
उद्गम – मेकल पर्वत श्रेणी, अमरकंटक
समुद्र तल से ऊंचाई – 1051 मीटर
म.प्र में प्रवाह –  1079 किमी
कुल प्रवाह (लम्बाई) – 1312 किमी
नर्मदा बेसिन का कुल क्षेत्रफल –  98496 वर्ग किमी
राज्य – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात
विलय – भरूच के आगे खंभात की खाड़ी
सनातन मान्यता
नर्मदा जी – वैराग्य की अधिष्ठात्री है
गंगा जी – ज्ञान की,
यमुना जी – भक्ति की,
ब्रह्मपुत्रा – तेज की,
गोदावरी – ऐश्वर्य की,
कृष्णा – कामना की और
सरस्वती जी – विवेक के प्रतिष्ठान की।
सनातन परम्परा में सारा संसार इनकी निर्मलता और ओजस्विता व मांगलिक भाव के कारण आदर करता है। श्रद्धा से पूजन करता है। मानव जीवन में जल का विशेष महत्व है। यही महत्व जीवन को स्वार्थ, परमार्थ से जोडता है। प्रकृति और मानव का गहरा संबंध है। नर्मदा तटवासी माँ नर्मदा के करुणामय व वात्सल्य स्वरूप को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। बडी श्रद्धा से पैदल चलते हुए इनकी परिक्रमा करते हैं। अनेक देवगणों ने नर्मदा तत्व का अवगाहन ध्यान किया है। ऐसी एक मान्यता है कि द्रोणपुत्र अश्वत्थामा अभी भी माँ नर्मदा की परिक्रमा कर रहे हैं। इन्हीं नर्मदा के किनारे न जाने कितने दिव्य तीर्थ, ज्योतिर्लिंग, उपलिग आदि स्थापित हैं। जिनकी महत्ता चहुँ ओर फैली है। परिक्रमा वासी लगभग तेरह सौ बारह किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा करते हैं। श्री नर्मदा जी की जहाँ से परिक्रमावासी परिक्रमा का संकल्प लेते हैं वहाँ के योग्य व्यक्ति से अपनी स्पष्ट विश्वसनीयता का प्रमाण पत्र लेते हैं। परिक्रमा प्रारंभ् श्री नर्मदा पूजन व कढाई चढाने के बाद प्रारंभ् होती है।
नर्मदा की इसी ख्याति के कारण यह विश्व की अकेली ऐसी नदी है जिसकी विधिवत परिक्रमा की जाती है । प्रतिदिन नर्मदा का दर्शन करते हुए उसे सदैव अपनी दाहिनी ओर रखते हुए, उसे पार किए बिना दोनों तटों की पदयात्रा को नर्मदा प्रदक्षिणा या परिक्रमा कहा जाता है। यह परिक्रमा अमरकंटक या ओंकारेश्वर से प्रारंभ करके नदी के किनारे-किनारे चलते हुए दोनों तटों की पूरी यात्रा के बाद वहीं पर पूरी की जाती है जहाँ से प्रारंभ की गई थी ।
व्रत और निष्ठापूर्वक की जाने वाली नर्मदा परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और 13 दिन में पूरी करने का विधान है, परन्तु कुछ लोग इसे 108 दिनों में भी पूरी करते हैं । आजकल सडक मार्ग से वाहन द्वारा काफी कम समय में भी परिक्रमा करने का चलन हो गया है ।
पैदल परिक्रमा का आनंद सबसे अलग है। पैदल परिक्रमा अखंड और खंड दो प्रकार से ली जाती है। जो लोग 3 साल, 3 महीना और 13 दिन का समय एक साथ नहीं निकल सकते वे कई टुकड़ों में परिक्रमा कर सकते हैं।
नर्मदा परिक्रमा के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करने के लिए स्वामी मायानन्द चैतन्य कृत नर्मदा पंचांग (1915) श्री दयाशंकर दुबे कृत नर्मदा रहस्य (1934), श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत नर्मदा दर्शन (1988) तथा स्वामी ओंकारानन्द गिरि कृत श्रीनर्मदा प्रदक्षिणा पठनीय पुस्तकें हैं जिनमें इस परिक्रमा के तौर-तरीकों और परिक्रमा मार्ग का विवरण विस्तार से मिलता है।
इसके अतिरिक्त श्री अमृतलाल वेगड द्वारा पूरी नर्मदा की परिक्रमा के बारे में लिखी गई अद्वितीय पुस्तकें ’’सौंदर्य की नदी‘‘ नर्मदा तथा ’’अमृतस्य नर्मदा‘‘ नर्मदा परिक्रमा पथ के सौंदर्य और संस्कृति दोनों पर अनूठे ढंग से प्रकाश डालती है । श्री वेगड की ये दोनों पुस्तकें हिन्दी साहित्य के प्रेमियों और नर्मदा अनुरागियों के लिए सांस्कृतिक-साहित्यिक धरोहर जैसी हैं । यद्वपि ये सभी पुस्तकें नर्मदा पर निर्मित बांध से बने जलाशयों के कारण परिक्रमा पथ के कुछ हिस्सों के बारे में आज केवल एतिहासिक महत्व की ही रह गई है, परन्तु फिर भी नर्मदा परिक्रमा के इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए अवश्य पठनीय है । नर्मदा की पहली वायु परिक्रमा संपन्न करके श्री अनिल माधव दवे द्वारा लिखी गई पुस्तक ’अमरकण्टक से अमरकण्टक तक‘ (2006) भी आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत प्रासंगिक है ।
पतित पावनी नर्मदा की विलक्षणता यह भी है कि वह दक्षिण भारत के पठार की अन्य समस्त प्रमुख नदियों के विपरीत पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है । इसके अतिरिक्त केवल ताप्ती ही पश्चिम की ओर बहती है परन्तु एक वैज्ञानिक धारणा यह भी है कि करोडों वर्ष पहले ताप्ती भी नर्मदा की सहायक नदी ही थी और बाद में भूगर्भीय उथल-पुथल से दोनों के मुहाने पर समुद्र केकिनारों में भू-आकृति में बदलाव के फलस्वरूप ये अलग-अलग होकर समुद्र में मिलने लगीं । कुछ भी रहा हो परन्तु इस विषय पर भू-वैज्ञानिक आमतौर पर सहमत हैं कि नर्मदा और ताप्ती विश्व की प्राचीनतम नदियाँ हैं । नर्मदा घाटी में मौजूद चट्टानों की बनावट और शंख तथा सीपों के जीवाश्मों की बडी संख्या में मिलना इस बात को स्पष्ट करता है कि यहां समुद्री खारे पानी की उपस्थिति थी । यहां मिले वनस्पतियों के जीवाश्मों में खरे पानी के आस-पास उगने वाले पेड-पौधों के सम्मिलित होने से भी यह धारणा पुष्ट होती है कि यह क्षेत्र करोडों वर्ष पूर्व भू-भाग के भीतर अरब सागर के घुसने से बनी खारे पानी की दलदली झील जैसा था । नर्मदा पुराण से भी ज्ञात होता है कि नर्मदा नदी का उद्गम स्थल प्रारंभ में एक अत्यन्त विशाल झील के समान था । यह झील संभवतः समुद्र के खारे पानी से निर्मित झील रही होगी । कुछ विद्वानों का मत है कि धार जिले में बाघ की गुफाओं तक समुद्र लगा हुआ था और संभवतः यहां नर्मदा की खाडी का बंदरगाह रहा होगा।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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