(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti. An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.
Captain Praveen Raghuvanshi ji is not only proficient in Hindi and English, but also has a lot of interference in Urdu and Sanskrit. We are pleased to present his original creation “Anguish of the Tree!” for our enlightened readers. Also, he made available the Hindi Version of his poem “पेड़ की व्यथा!” which you can read in tomorrow’s (Sunday) issue.)
☆ Anguish of the Tree! ☆
Some people have come
to cut the tree,
But, the biting sun forces them
to take refuge under its shade!
Exclaims the tree: Why to cut me
I would have died
Just like that only,
Had no one sat under my shade!
How’d they know
the effect of scorching sun,
Who always live
under the coolest of shade!
How’d would they know
the extent of sufferings
Who have never lived in the devastated villages..!
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस विशेष – भाषा ☆
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनके स्थायी स्तम्भ “आशीष साहित्य”में उनकी पुस्तक पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है महाशिवरात्रि पर्व पर विशेष सामायिक आलेख “हिन्दू खगोल-विज्ञान”। )
ब्रह्माण्ड में ग्रहों की कोई गति और हलचल हमें विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं से प्रभावित करती है । हम जानते हैं कि सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की गति पृथ्वी पर एक वर्ष के लिए जिम्मेदार है और यदि हम इस गति को छह हिस्सों में विभाजित करते हैं तो यह वसंत, ग्रीष्मकालीन, मानसून, शरद ऋतु, पूर्व-शीतकालीन और शीतकालीन जैसे पृथ्वी पर मौसम को परिभाषित करता है । इसमें दो-दो विषुव (equinox) और अयनांत (solstice) भी सम्मलित हैं । पृथ्वी पर हमारे सौर मंडल के ग्रहों की ऊर्जा का संयोजन हमेशाएक ही प्रकार का नहीं होता है क्योंकि विभिन्न ग्रहों की गति और हमारी धरती के आंदोलन की गति भिन्न भिन्न होती है । विशेष रूप से ऊर्जा के प्रवाह को जानने के लिए हमें ब्रह्माण्ड में सूर्य की स्थिति, नक्षत्रों में चंद्रमा की स्थिति, चंद्रमा की तिथि, जिसकी गणना चंद्रमा के उतार चढ़ाव या शुक्ल और कृष्ण पक्षों के चक्रों से की जाती है, और अन्य कई पहलुओं को ध्यान में रखना पड़ता है । हर समय इन ऊर्जायों के सभी संयोजन समान नहीं होते हैं । कभी-कभी कुछ अच्छे होते हैं, और अन्य बुरे, और इसी तरह । आपको पता होगा ही कि सूर्य की ऊर्जा के कारण पृथ्वी पर जीवन संभव है, सूर्य के बिना पृथ्वी पर कोई जीवन संभव नहीं हो सकता है । जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया था कि हमारे वातावरण में जीवन की मूल इकाई, प्राण आयन मुख्य रूप से सूर्य से ही उत्पन्न होते हैं, और चंद्रमा के चक्र समुद्र के ज्वार- भाटा, व्यक्ति के मस्तिष्क और स्त्रियों के मासिक धर्म चक्र पर प्रभाव डालते हैं । मंगल गृह हमारी शारीरिक क्षमता और क्रोध के लिए ज़िम्मेदार होता है, और इसी तरह अन्य ग्रहों की ऊर्जा हमारे शरीर, मस्तिष्क हमारे रहन सहन और जीवन के हर पहलू पर अपना प्रभाव डालती है ।
अयनांत अयनांत/अयनान्त (अंग्रेज़ी:सोलस्टिस) एक खगोलय घटना है जो वर्ष में दो बार घटित होती है जब सूर्य खगोलीय गोले में खगोलीय मध्य रेखा के सापेक्ष अपनी उच्चतम अथवा निम्नतम अवस्था में भ्रमण करता है । विषुव और अयनान्त मिलकर एक ऋतु का निर्माण करते हैं । इन्हें हम संक्रान्ति तथा सम्पात इन संज्ञाओं से भी जानते हैं । विभिन्न सभ्यताओं में अयनान्त को ग्रीष्मकाल और शीतकाल की शुरुआत अथवा मध्य बिन्दु माना जाता है । 21 जून को दोपहर को जब सूर्य कर्क रेखा पर सिर के ठीक ऊपर रहता है, इसे उत्तर अयनान्त या कर्क संक्रांति कहते हैं । इस समय उत्तरी गोलार्ध में सर्वाधिक लम्बे दिन होते हैं और ग्रीष्म ऋतु होती है जबकि दक्षिणी गोलार्ध में इसके विपरीत सर्वाधिक छोटे दिन होते हैं और शीत ऋतु का समय होता है । मार्च और सितम्बर में जब दिन और रात्रि दोनों 12-12 घण्टों के होते हैं तब उसे विषुवदिन कहते हैं।
तो हम कह सकते हैं कि ब्रह्मांड इकाइयों के कुछ संयोजनों के दौरान प्रकृति हमें एकाग्रता, ध्यान, प्रार्थना इत्यादि करने में सहायता करती है अन्य में, हम प्रकृति के साथ स्वयं का सामंजस्य बनाकर शारीरिक रूप से अधिक आसानी से कार्य कर सकते हैं आदि आदि । तो कुछ संयोजन एक तरह का कार्य प्रारम्भ करने के लिए अच्छे होते हैं और अन्य किसी और प्रकार के कार्य के लिए । पूरे वर्ष में पाँच प्रसिद्ध रातें आती हैं जिसमें विशाल मात्रा में ब्रह्मांड की ऊर्जा पृथ्वी पर बहती है । अब यह व्यक्ति से व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह उस ऊर्जा को अपने आप के लिए या किसी और के लिए उसका उपयोग अच्छे तौर पर कर सकता है या दूसरों के लिए बुराई के तौर पर, जैसे कुछ तांत्रिक अनुष्ठानों में किया जाता है । इसके अतरिक्त कुछ रातें ऐसी भी होती है जो 3-4 वर्षो में एक बार या 10-20 वर्षो में एक बार एवं कुछ तो सदियों में एक बार या युगों में एक बार आती हैं । ये सब हमारे सौर मंडल में उपस्थित ग्रहों, नक्षत्रों और कुछ हमारे सौर मंडल के बाहर के पिंडो आदि की सापेक्ष गति और अन्य कई कारणों से होता है ।
ये पाँच विशेष रातें पाँच महत्वपूर्ण हिन्दु पर्वों की रात्रि हैं जो महाशिवरात्रि से शुरू होती हैं और उसके पश्चात होली, जन्माष्टमी, कालरात्रि और पाँचवी और तांत्रवाद के लिए सबसे खास रात्रि वह रात्रि है जो दिवाली के पूर्व मध्यरात्रि से शुरू होती है जिसे नरकचतुर्दशी या छोटी दिवाली या काली चौदस या भूत चौदस भी कहा जाता है । अर्थात वह समय, जो दिवाली रात्रि विशेष समय पूर्व, दिवाली रात्रि या नरक चतुरादाशी रात्रि 12:00 बजे से सुबह दिवाली की सुबह ब्रह्ममुहूर्त तक होता है ।
कालरात्रि नवरात्रि समारोहों की नौ रातों के दौरान माँ कालरात्रि की परंपरागत रूप से पूजा की जाती है । विशेष रूप से नवरात्र पूजा (हिंदू प्रार्थना अनुष्ठान) का सातवां दिन उन्हें समर्पित है और उन्हें माता देवी का भयंकर रूप माना जाता है, उसकी उपस्थिति स्वयं भय का आह्वान करती है । माना जाता है कि देवी का यह रूप सभी दानव इकाइयों, भूत, आत्माओं और नकारात्मक ऊर्जाओं का विनाशक माना जाता है, जो इस रात्रि उनके आने के स्मरण मात्र से भी भागते हैं ।
नरकचतुर्दशी यह त्यौहार नरक चौदस या नर्क चतुर्दशी या नर्का पूजा के नाम से भी प्रसिद्ध है । मान्यता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल तेल लगाकर अपामार्ग (चिचड़ी) की पत्तियाँ जल में डालकर स्नान करने से नरक से मुक्ति मिलती है । विधि-विधान से पूजा करने वाले व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो कर स्वर्ग को प्राप्त करते हैं । शाम को दीपदान की प्रथा है जिसे यमराज के लिए किया जाता है । इस रात्रि दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं । एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंधी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था । इस उपलक्ष में दीयों की बारात सजायी जाती है इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक अन्य कथा यह है कि रन्ति (अर्थ : केलि, क्रीड़ा, विराम) देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे । उन्होंने जाने-अनजाने में भी कभी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके सामने यमदूत आ खड़े हुए । यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आये हो क्योंकि आपके यहाँ आने का अर्थ है कि मुझे नर्क जाना होगा । आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है । पुण्यात्मा राजा की अनुनय भरी वाणी सुनकर यमदूत ने कहा हे राजन एक बार आपके द्वार से एक भूखा ब्राह्मण लौट गया यह उसी पापकर्म का फल है । दूतों की इस प्रकार कहने पर राजा ने यमदूतों से कहा कि मैं आपसे विनती करता हूँ कि मुझे एक वर्ष का और समय दे दे । यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी । राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुँचा और उन्हें सब वृतान्त कहकर उनसे पूछा कि कृपया इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय है । ऋषि बोले हे राजन आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्राह्मणो को भोजन करवा कर उनसे अपने हुए अपराधों के लिए क्षमा याचना करें । राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया । इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ । उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है । इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल लगाकर और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर उससे स्नान करने का बड़ा महात्मय है । स्नान के पश्चात विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना अत्यंत पुण्यदायक कहा गया है । इससे पाप कटता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है ।
नरक चतुर्दशी (काली चौदस, रूप चौदस, छोटी दीवाली या नरक निवारण चतुर्दशी के रूप में भी जाना जाता है) हिंदू कैलेंडर अश्विन महीने की विक्रम संवत में और कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (चौदहवें दिन) पर होती है । यह दीपावली के पाँच दिवसीय महोत्सव का दूसरा दिन है । भूत चतुर्दशी चंद्रमा की बढ़ती अवधि के दौरान अंधकार पक्ष या कृष्ण पक्ष के 14 वें दिन पर हर बंगाली परिवार में मनाया जाता है और यह पूर्णिमा की रात्रि से पहले होता है । यह सामान्य रूप से अश्विन या कार्तिक के महीने में 14 दिन या चतुर्दशी पर होता है ।
ब्रह्ममुहूर्त सूर्योदय के डेढ़ घण्टा पहले का मुहूर्त, ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है । सही-सही कहा जाय तो सूर्योदय के 2 मुहूर्त पहले, या सूर्योदय के 4 घटिका पहले का मुहूर्त । 1 मुहूर्त की अवधि 48 मिनट होती है । अतः सूर्योदय के 96 मिनट पूर्व का समय ब्रह्म मुहूर्त होता है । इस समय संपूर्ण वातावरण शांतिमय और निर्मल होता है । देवी-देवता इस काल में विचरण कर रहे होते हैं । सत्व गुणों की प्रधानता रहती है । प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है । जल्दी उठने में सौंदर्य, बल, विद्या और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । यह समय ग्रंथ रचना के लिए उत्तम माना गया है । वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि ब्रह्म मुहुर्त में वायुमंडल प्रदूषणरहित होता है । इसी समय वायुमंडल में ऑक्सीजन (प्राणवायु) की मात्रा सबसे अधिक (41 प्रतिशत) होती है, जो फेफड़ों की शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण होती है । शुद्ध वायु मिलने से मन, मस्तिष्क भी स्वस्थ रहता है । ऐसे समय में शहर की सफाई निषेध है । आयुर्वेद के अनुसार इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य कहा गया है । ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है । यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है, क्योंकि रात्रि को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है । सुबह ऑक्सिजन का स्तर भी ज्यादा होता है जो मस्तिष्क को अतिरिक्त ऊर्जा प्रदान करता है जिसके चलते अध्ययन बातें स्मृति कोष में आसानी से चली जाती है ।
अगर हम बारीकी से विश्लेषण करे, महाशिवरात्रि का पर्व फाल्गुन के महीने में आता है ।
फाल्गुन हिंदू कैलेंडर का एक महीना है । भारत के राष्ट्रीय नागरिक कैलेंडर में, फाल्गुन वर्ष का बारहवां महीना है, और ग्रेगोरियन कैलेंडर में फरवरी/मार्च के साथ मेल खाता है । चंद्र-सौर धार्मिक कैलेंडर में, फाल्गुन वर्ष के एक ही समय में नए चंद्रमा या पूर्णिमा पर शुरू हो सकता है, और वर्ष का बारहवां महीना होता है । हालांकि, गुजरात में, कार्तिक वर्ष का पहला महीना है, और इसलिए फाल्गुन गुजरातियों के लिए पाँचवें महीने के रूप में आता है । होली (15वी तिथि या पूर्णिमा शुक्ल पक्ष फाल्गुन) और महाशिवरात्रि (14वी तिथि कृष्ण पक्ष फाल्गुन) की छुट्टियां इस महीने में मनाई जाती हैं । सौर धार्मिक कैलेंडर में, फाल्गुन सूर्य के मीन राशि में प्रवेश के साथ शुरू होता है, और सौर वर्ष, या वसंत का बारहवां महीना होता है । यह वह समय है जब भारत में बहुत गर्म या ठंडा मौसम नहीं होताहै ।
महा शिवरात्रि कृष्णपक्ष की 14वीं तिथि या चंद्रमा के घटने के चक्र में चौदवें दिन मनाया जाता है। वैज्ञानिक रूप से कृष्ण पक्ष के चंद्रमा की चतुर्दशी पर, चंद्रमा की पृथ्वी को ऊर्जा देने की क्षमता बहुत कम हो जाती है (जो की उसके अगले दिन अमावस्या को पूर्ण समाप्त हो जाती है), इसलिए मन की अभिव्यक्ति भी कम हो जाती है, एक व्यक्ति का मस्तिष्क परेशान हो जाता है, और किसी भी विचार से कई मानसिक तनाव हो सकते हैं ।
तो अच्छे विचारों के साथ एक खाली मस्तिष्क भरने के लिए या हमारे मन पर प्रक्षेपित चंद्रमा की ऊर्जा को नए और ताजे रूप से स्थापित करने के लिए सब को महा शिवरात्रि पर भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए । महा शिवरात्रि से पहले, सूर्य देव (सूर्य के देवता), भी उत्तरायण तक पहुँच चुके होते हैं अर्थात यह मौसम बदलने का समय भी होता है ।
उत्तरायण सूर्य की एक दशा है । ‘उत्तरायण’ (= उत्तर + अयन) का शाब्दिक अर्थ है – ‘उत्तर में गमन’ । दिन के समय सूर्य के उच्चतम बिंदु को यदि दैनिक तौर पर देखा जाये तो वह बिंदु हर दिन उत्तर की ओर बढ़ता हुआ दिखेगा । उत्तरायण की दशा में पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में दिन लम्बे होते जाते हैं और रातें छोटी । उत्तरायण का आरंभ 21 या 22 दिसम्बर होता है । यह अंतर इसलिए है क्योंकि विषुवों के पूर्ववर्ती होने के कारण अयनकाल प्रति वर्ष 50 चाप सेकंड (arcseconds) की दर से लगातार प्रसंस्करण कर रहे हैं, यानी यह अंतर नाक्षत्रिक (sidereal) और उष्णकटिबंधीय राशि चक्रों के बीच का अंतर है । सूर्य सिद्धांत बारह राशियों में से चार की सीमाओं को चार अयनांत कालिक (solstitial) और विषुव (equinoctial) बिंदुओं से जोड़कर इस अंतर को पूरा करता है । यह दशा 21 जून तक रहती है । उसके बाद पुनः दिन छोटे और रात्रि लम्बी होती जाती है । उत्तरायण का पूरक दक्षिणायन है, यानी नाक्षत्रिक राशि चक्र के अनुसार कर्क संक्रांति और मकर संक्रांति के बीच की अवधि और उष्णकटिबंधीय राशि चक्र के अनुसार ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अयनांत के बीच की अवधि ।
तो यह शुभ समय होता है वसंत का स्वागत करने के लिए । वसंत जो खुशी और उत्तेजना के साथ मस्तिष्क को भरता है, महा शिवरात्रि पर भी सबसे शुभ समय ‘निशिता काल’ (अर्थ : हिंदू अर्धरात्रि का समय) है, जिसमें धरती पर सभी ग्रहों की ऊर्जा का संयोजन उनके कुंडली ग्रह की स्थिति के बावजूद पृथ्वी के सभी मानवों के लिए सकारात्मक होता है । महा शिवरात्रि पर आध्यात्मिक ऊर्जा के संयोजन की व्याख्या करने के लिए, यह फाल्गुन महीने में पड़ता है, जो कि सूर्य के स्थान परिवर्तन का समय होता है और वह उत्तरायन में प्रवेश कर चूका होता है इस समय सर्दी का मौसम समाप्त हो जाता है । फाल्गुन नाम ‘उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र’ पर आधारित है, जिसके स्वामी सूर्य देव हैं, जिसमें मोक्ष, आयुर्वेदिक दोष वात, जाति योद्धा, गुणवत्ता स्थिर, गण मानव, दिशा पूर्व की प्रेरणा होती है । महा शिवरात्रि चंद्रमा के घटने के चक्र के 14 वें दिन पर आता है, इसके एकदम बाद अमावस्या (जिसमे चंद्रमा का प्रकाश पृथ्वी पर नहीं दिखाई देता) होती है । तो चंद्रमा के घटने की 14वी तिथि वह समय होता है जब चंद्रमा के चक्र की ऊर्जा का अंतिम भाग उसकी ऊर्जा के दूसरे भाग द्वारा परिवर्तित होने वाला होता है ।
(सौ. सुजाता काळे जी मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं। उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी द्वारा प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण मराठी कविता “तेव्हा तुझी आठवण येते…”।)
(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। श्रीमती उर्मिला जी के “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है अपनी सासु माँ को समर्पित उनकी एक अतिसुन्दर कविता “इंगळ्यांची मंजुळा”। कविता का प्रकार – मुक्तछंद है। श्रीमती उर्मिला जी की कवितायेँ हमारे सामजिक परिवेश को रेखांकित करती हैं। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है। ऐसे सामाजिक / पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 23 ☆
ज्या घरात आजी-आजोबा,म्हणजे सासू सासरे,दीर जावा ,नणंदा , बाळगोपळ आहेत असं घर गोकुळच असतं.सासरे घराचा कणा असतात तर सासूबाई आपल्या घरातल्या चालीरीती,रुढी परंपरा चढून जाण्यासाठीचा जिना असतात.
आपण जेव्हा लग्न होऊन सासरी येतो तेव्हा पतीनंतर सगळ्यात पहिली चांगली ओळख होते ती सासूबाईची. त्यांचे मुळे आपल्या खऱ्या सासरच्या आयुष्याची सुरुवात होते. घरातल्यांची आपले कुलाचार कुल परंपरांची ओळख होते , ती केवळ आणि केवळ सासुबाईंमुळेच.अशाच माझ्या सासूबाईं त्यांचं नाव ” मंजुळा ” त्यांची ओळख मी माझ्या कवितेतून करुन देते आहे.:-
ASANA PRANAYAMA MUDRA BANDHA by Swami Satyanada Saraswati
YOGA: THE PATH TO HOLISTIC HEALTH by B.K.S Iyengar
Caution: This is only a demonstration to facilitate practice of the asanas. It must be supplemented by a thorough study of each of the asanas. Careful attention must be paid to the contra indications in respect of each one of the asanas. It is advisable to practice under the guidance of a yoga teacher.)
Music:
Healing by Kevin MacLeod is licensed under a Creative Commons Attribution licence (https://creativecommons.org/licenses/…)
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga
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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills
Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.
जलचर बीच में वरूण हूँ नागों बीच अनंत
पितरों में हूँ अर्थमा,नियमन कर्ता यम।।29।।
भावार्थ : मैं नागों में (नाग और सर्प ये दो प्रकार की सर्पों की ही जाति है।) शेषनाग और जलचरों का अधिपति वरुण देवता हूँ और पितरों में अर्यमा नामक पितर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ।।29।।
I am Ananta among the Nagas; I am Varuna among water-Deities; Aryaman among the manes I am; I am Yama among the governors.।।29।।
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन । वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। मैं डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ जी का हृदय से आभारी हूँ जो उन्होंने मेरे आग्रह पर एक संस्मरण ही नहीं अपितु एक साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दस्तावेज ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों को साझा करने का अवसर दिया है। इस सन्दर्भ में अनायास ही स्मृति पटल पर अंकित ई-अभिव्यक्ति पर दिए गए प्रख्यात साहित्यकार नामवर सिंह जी नहीं रहे शीर्षक से उनके निधन के दुखद समाचार की याद दिला दी। प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘ गुणशेखर ‘ जी का एक पुण्य संस्मरण – आलोचना के दिनमान से अनौपचारिक संवाद । )
☆पुण्य स्मरण – स्व. प्रो नामवरसिंह – आलोचना के दिनमान से अनौपचारिक संवाद ☆
स्व. प्रो नामवरसिंह
जन्म: 28 जुलाई 1926 (बनारस के जीयनपुर गाँव में) निधन: 19 फरवरी 2019 (नई दिल्ली)
“न तन होगा न मन होगा । मरेंगे हम किताबों पर, बरक अपना कफ़न होगा” – प्रो नामवरसिंह
मेरे मन में बार-बार यही प्रश्न कौंधता रहा कि हर आने-जाने वाले से हमेशा साहित्य पर चर्चा कर कराके वे ऊबते न होंगे क्या? लोग उन्हें इसलिए सताते होंगे कि किसी
२ नवंबर १८ को आलोचना के दिनमान प्रोफेसर नामवरसिंह के सानिध्य की ऊष्मा के साथ-साथ उन्हें करीब से देखने-सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। वे २८ जुलाई को ९३ वर्ष के हो चुके थे। सांध्य वेला के दिनमान होते हुए भी दीप्त और प्रदीप्त थे। उनमें पर्याप्त ऊर्जा और ऊष्मा अब भी अवशिष्ट थी।
इन दिनों उनसे मिलने का समय लेना दुष्कर मानते हुए लोगों ने उनसे मिलने -जुलने का उपक्रम प्रायः छोड़ ही दिया था। इसके पीछे उनका स्वास्थ्य सबसे बड़ा कारण था या लोगों का स्वार्थ इस पर मौन रहना ही तब भी बेहतर था और आज भी बेहतर ही है ।
उन दिनों वे अकेले ही रहते थे। अवस्था के प्रभाव के कारण स्वास्थ्य की शिथिलता स्वाभाविक थी। लेकिन एकाकीपन भी उन्हें कम दुःख न देता होगा। जितनी देर वहां रहा यही सोचकर बहुत उद्विग्न रहा। रात का एकाकीपन उन्हें डराता भी होगा। उनके राग और वैराग्य के मध्य सम पर रहते हुए एक घंटा बिताया। विलंबित में हुए संवादों से रिसते रस ने ऐसा बांधा था कि जैसे एक घंटे में समूचा युग जी लिया हो।
मेरे जैसे क्या बड़े बड़ों तक के लिए उनसे मिलना एक व्यक्ति से नहीं एक दिशा दर्शक से मिलना होता रहा है. आलोचक से ही नहीं नए लोचन देने वाले से मिलना होता था. उनसे मिला तो सोचा था कि सताऊँगा नहीं लेकिन अंततः सता ही दिया।
लगे हाथ उनसे बाल साहित्य पर भी चर्चा कर डाली। बीसवीं सदी का महाकवि पूछ लिया। बीसवीं सदी के हिंदी के महाकवि पर उन्हें बोलने के लिए विवश किया तो जयशंकर प्रसाद और कामायनी के अनेकश: उल्लेख के बाद भी उन्होंने केवल निराला को ही महाकवि माना।इसके लिये उनका स्पष्ट मानना था कि कोई कवि अपनी रचना के शिल्प विधान से नहीं अपितु जनपक्षधरता से महाकवि बनता है। जायसीऔर तुलसी जैसे कवियों के विषय में कोई खतरा मोल न लेने के कारण मैंने जान-बूझ कर यह प्रश्न दागा था।बाल साहित्य पर उन्होंने कहा कि दुनिया के हर बड़े साहित्यकार ने लिखा है लेकिन छुटभैये उसे अछूता समझते हैं।कुछ बाल साहित्यकारों के एक दो नाम उन्होँने लिये तो कुछ नाम मैंने भी गिनाए। मेरे द्वारा लिए गए बहुत से नामों का विरोध भले उन्होंने नहीं किया लेकिन मुझसे सहमत से नहीं लगे। वे नाम यहाँ और खासकर इस अवसर पर लेना उचित न मानकर छोड़ रहा हूँ। आचार्य दिविक रमेश जी को बाल साहित्य में मिले साहित्य अकादमी को उन्होँने शुभ लक्षण माना। लेकिन गिने-चुने को छोड़कर शेष साहित्यकारों द्वारा की जा रही वर्तमान में बाल साहित्य की उपेक्षा को उन्होंने स्वस्थ वृत्ति नहीं माना। उन्हें ईश्वर जैसे विषय पर उन पर छिड़े विवाद पर प्रश्न पर प्रश्न करके विचलित करना या कुछ उगलवाना किसी भी दृष्टि से उन पर मेरे द्वारा किए गए अत्याचार से कम न था। फिर भी उन्होंने असंयत हुए बिना हर प्रश्न का यथासंभव समाधान किया था।
प्रतिष्ठित पत्रिका में स्थान मिल जाएगा। लेकिन इस बात का ध्यान उन्हें शायद ही रहता होगा कि इस अवस्था में अब उन्हें बोलने का कष्ट कम ही दिया जाए तो अच्छा है।
आलोचना के किंबदंती पुरुष बन जाने के बाद हर कोई उनसे कुछ न कुछ कबूलवाना चाहता रहा है। साहित्यकार भी टी वी के पत्रकारों की तरह क्यों सबसे पहले और सबसे नया के चक्कर में पड़ा हुआ रहता है । वह भी क्यों इसी फिराक में रहता है कि किसी तरह चर्चा में आए । शायद इसी लिए कि वह किसी को भी शहीद करके अपना लक्ष्य साध सके। यह अवमूल्यन अखरता ही नहीं बरछे की तरह भीतर धंसता चला जाता है।
मैं सोचता हूँ कि क्या साहित्यकार भी व्यापारी नहीं होता जा रहा है। जो इन जैसे व्यक्तित्वों और अन्य बुजुर्गों को प्रश्न पूछ-पूछ कर तंग करते हैं । इसके साथ यह भी सोचता हूँ कि क्या इन्होंने अपनी जवानी में खुद भी यह व्यापार न किया होगा? क्या भारतीय संस्कृति के भीतर के राग रंग इन्हें न रुचते रहे होंगे जिन्हें हठात न मानकर साम्यवाद की कंठी बाँधी थी. लेकिन इन तर्कों के बल पर उन्हें सताना मुझे बोझिल करता रहा था। पापी बनाता रहा था।
इनके साम्यवादी ताप और प्रताप का सूर्य अब तक पूरी तरह से ढल चुका था। इनके लिए कभी दो कौड़ी के रहे भारतीय जीवन दर्शन के जन्म-मरण और ईश्वर जैसे विषय अब इन्हें ख़ुद बहुत रास आ रहे थे। तभी तो इन्होंने एक घंटे की बातचीत में कई बार दुहराया कि -“न तन होगा न मन होगा । मरेंगे हम किताबों पर, बरक अपना कफ़न होगा.”
इनसे बातचीत के समय मैं इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया कि लोग इन्हें विभिन्न विश्वविद्यालयों में और अन्य जगहों पर भी हिंदी पदों के नियोक्ता जगत का अधिनायक क्यों मानते रहे हैं? इन्होंने पक्षपात किया भी होगा क्या? यदि ऐसा होता तो कोई न कोई गुरुभक्त ऐसा होता जो इनकी इनकी सेवा में तब भी आता-जाता होता जब वे मदद की बेहद ज़रूरत महसूस करते थे। ऐसे बहुत सारे उदाहरण मैं जानता हूँ जहाँ अयोग्य और योग्य के भेद से परे परम हंस सम रहकर उपकार किए गए। उनमें से एकाध लायक भी निकले जो आज भी अपने-अपने गुरुदेवों की सेवा करते -कराते देखे पाये जाते हैं। लेकिन इनके यहाँ ऐसा कुछ भी क्यों नहीं था? शायद उस कोटि का उपकार इनके द्वारा न किया जा सका होगा।
एक घंटे में ही उनके मुख मण्डल की श्यामल आभा निराला की संध्या सुंदरी के कंधे पर हाथ धरे आत्मीयता की सजलता भरे वैचारिक मेघों वाले आसमान से धीरे-धीरे उतरती हुई मेरे मानस पटल पर छविमान होती हुई अंतस तक उतर गई थी। संकोच दूर हुआ तो ऐसी छनी कि जैसे दो अंतरंग लंबे अंतराल पर मिले हों।आलोचना के दिनमान से यह अनौपचारिक संवाद मुझे आज भी ऊष्मित कर रहा है।
मेरे रहते उनका वीरान -सा घर और न कोई फोन न संवाद मुझे डराता रहा था। दो-दो संतानों के बावज़ूद बस एक समय खाना बनाने आने वाली के अलावा किसी अन्य मददगार का न होना न जाने क्यों मुझ जैसे गैर को भी डरा रहा था। पर,उनके अपने इतने निश्चिंत क्यों थे। यह बात मेरी समझ से परे थी। मेरे मन में बार-बार आ रहा था कि अगर बाथरूम में गिर गए तो कौन उठाएगा इन्हें। अस्पताल कौन ले जाएगा। बहुत संभल-संभल के चलते थे पर सीधे नहीं चल पाते थे। गौरैया की तरह फुदक-फुदक के चलना उनकी कला नहीं विवशता थी ।अटैक तो अपने बस में था नहीं। उसके लिये तो इस अवस्था में अकेले रहना खतरों से खेलना था। यह खेल वे अपने अन्तिम दिनों में भी खेल रहे थे।
उस दिन जीवन के सबसे बड़े और अनिवार्य सत्य मृत्यु के सन्निकट देखने के बावज़ूद मैं उन्हें अस्ताचल का सूर्य नहीं मान पा रहा था.
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का प्रेरकआलेख “तृष्णाएं–दु:खों का कारण”. डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें और हमारी सोच को सकारात्मक दृष्टिकोण देता है। इस आलेख में महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘तृष्णा में छेद ही छेद हैं ज़िंदगी भर भरते हुए मालूम पड़ता है कि इस स्थिति में हाथ कुछ नहीं आता।’ यदि आप गागर में कुएं से जल भरते हैं, तो छेद होने के कारण वह बाहर आते-आते खाली हो जाती है और कुएं में शोर मचता रहता है। परंतु उसके हाथ कुछ नहीं लगता।डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य दर्ज करें )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 35☆
☆ तृष्णाएं–दु:खों का कारण☆
किसी को हरा देना बेहद आसान है, परंतु किसी को जीतना बेहद मुश्किल है। तुम किसी को बुरा-भला कह कर, उसे नीचा दिखला कर, गाली-गलौच कर, उसे शारीरिक व मानसिक रूप से आहत व पराजित कर सकते हो, परंतु उस के अंतर्मन पर विजय प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। ‘वास्तव में यदि तुम किसी का अनादर करते हो, तो वह खुद का अनादर है’… ऋषि अंगिरा का यह कथन कोटिशः सत्य है। परंतु अहंनिष्ठ बावरा मन इतराता है कि वह किसी पर क्रोध दरशा कर, ऊंची आवाज़ में चिल्ला कर बड़ा बन गया है। वास्तव में इससे आपकी प्रतिष्ठा का हनन होता है, आपका मान-सम्मान दांव पर लगता है, दूसरे का नहीं… यदि वह मौन रहकर आपकी बदमिजाज़ी व आरोपों व को सहन करता है। इसलिए मनुष्य को दूसरे का अनादर करने से पहले सोच लेना चाहिए कि वह अपना अनादर करने जा रहा है। लोग दूसरे को नहीं, आपको बुरा-भला कह कर आपकी निंदा करेंगे। ‘अधजल गगरी छलकत जाए’ अर्थात् आधी भरी हुई गागर छलकती है, शोर करती है और पूरी भरी हुई शांत रहती है, क्योंकि उसमें स्पेस नहीं रहता।
सो! जीवन में जितनी तृष्णाएं होंगी, उतने छेद होंगे। महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘तृष्णा में छेद ही छेद हैं ज़िंदगी भर भरते हुए मालूम पड़ता है कि इस स्थिति में हाथ कुछ नहीं आता।’ यदि आप गागर में कुएं से जल भरते हैं, तो छेद होने के कारण वह बाहर आते-आते खाली हो जाती है और कुएं में शोर मचता रहता है। परंतु उसके हाथ कुछ नहीं लगता। इसी प्रकार मानव आजीवन तृष्णाओं के भंवर से बाहर नहीं आ सकता, क्योंकि यह मानव को एक पल भी चैन से नहीं बैठने देतीं। एक के पश्चात् दूसरी इच्छा जन्म लेती है। सो! मानव को चिंतन करने का समय प्राप्त ही नहीं होता और न ही वह इस तथ्य से अवगत हो पाता है कि उसके जीवन का प्रयोजन क्या है? वह क्यों आया है, इस जगत् में? उम्र भर वह स्व-पर व राग-द्वेष के भंवर से बाहर नहीं आ पाता। मनुष्य सदैव इसी भ्रम में जीता है कि वह सर्वश्रेष्ठ है और वह कभी गलती कर भी नहीं सकता।
‘विश्व रूपी वृक्ष के अमृत समान दो फल हैं… सरस प्रिय वचन व सज्जनों की संगति’…चाणक्य की उक्त युक्ति चिंतनीय है, माननीय है, विचारणीय है। अहंनिष्ठ, आत्मकेंद्रित व क्रोधी मानव सज्जनों की संगति नहीं करता…क्योंकि उसे तो सबमें दोष ही दोष नज़र आते हैं। सो! मधुर व प्रिय वचन बोलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। क्रोधी व्यक्ति हर समय आग-बबूला रहता है तथा सदैव कटु वचनों का प्रयोग करना उसकी नियति बन जाती है। सरस व प्रिय वचन तो वही बोलेगा, जो विनम्र होगा, ज़मीन से जुड़ा होगा, सत्य के निकट होगा, अच्छाई-बुराई से परिचित होगा, क्योंकि पके हुए फल जिस वृक्ष पर लगते हैं, वह सदैव झुका रहता है। लोग भी सदैव उसे ही पत्थर मारते हैं, क्योंकि सबको मीठे फलों की अपेक्षा रहती है। इसी प्रकार लोग ऐसे व्यक्ति की संगति चाहते हैं, जो मधुभाषी हो, विनम्र हो, सत्य व हितकर वाणी बोले।
विद्या से विनम्रता आती है और विनम्रता से विनय भाव जाग्रत होता है। ‘सामान्यत: जो व्यक्ति के सत्य के साथ कर्त्तव्य-परायणता में लीन रहता है, उसके मार्ग में बाधक होना कोई सरल कार्य नहीं’… टैगोर जी का यह कथन कोटिश: सत्य है। जो व्यक्ति सत्य की राह पर चलता है, अपने कर्म को पूजा समझ कर करता है, उसके मार्ग में बाधाएं आ ही नहीं सकतीं और न ही उसे पथ-विचलित कर सकती हैं। अच्छे का फल सदैव अच्छा व बुरे का बुरा ही होता है। इसलिए अब्राहिम लिंकन कहते हैं कि ‘जब मैं अच्छा करता हूं, तो अच्छा महसूस होता है और बुरा करता हूं, तो बुरा महसूस होता है, यही मेरा धर्म है।’ सो! वे उसे शास्त्र- सम्मत स्वीकार जीवन में धारण करते हैं। यदि आपके भीतर संतोष है, तो आप सबसे अमीर हैं…यदि शांति है, तो सबसे सुखी हैं… यदि दया है, तो आप सबसे अच्छे इंसान हैं। इसलिए संतोष व शांति से बढ़कर है करुणा भाव, जो इंसान को इंसान बनाता है। यही सर्वश्रेष्ठ गुण है… महात्मा बुद्ध ने भी करुणा को सर्वोत्तम गुण स्वीकारा है। प्रेम व करुणा में सभी दैवीय भाव समाहित हैं। जहां प्रेम के साथ करुणा है, वहां स्नेह व सौहार्द होगा, सहृदयता व सदाशयता होगी…एक-दूसरे की परवाह होगी और सहानुभूति, सहनशीलता व संवेदना होगी। जीवन में इनकी दरक़ार मानव को सदैव रहती है। इसलिए मानव को दूसरों के चश्मे से न देखने की सलाह दी गई है, क्योंकि उनकी नज़रें धुंधली हो सकती हैं। खुद को खुद से बेहतर कोई नहीं समझ सकता।
असफलता में सफलता छिपी होती है। हर असफलता मानव को पाठ पढ़ाती है, तभी वह एक दिन सफल होता है। सफलता अनुभव की पाठशाला है, जिससे गुज़र कर इंसान महानता का पद प्राप्त कर सकता है। स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार ‘पहले के अनुभव से नया अनुभव हासिल करना होता है। इस क्रिया को ज्ञान कहते हैं।’ जो निर्णय लेने से पूर्व उसके समस्त पहलुओं पर चिंतन-मनन कर निर्णय लेता है, उसे असफलता का मुंह देखना नहीं पड़ता…यह क्रिया ज्ञान कहलाती है, जीवन की राह दर्शाती है । इसी संदर्भ में उनकी यह उक्ति भी विचारणीय है कि ‘कोई व्यक्ति कितना भी महान् क्यों न हो, आंखे मूंदकर उसके पीछे न चलें। यदि ईश्वर की ऐसी मंशा होती, तो वह हर प्राणी को आंख, कान, नाक, मुंह और दिमाग क्यों देता?’
इसलिए अंधानुकरण भले ही व्यक्ति का हो या रास्ते का,… मानव को पथ-विचलित करता है और दिग्भ्रमित होने के कारण, उसका अपने लक्ष्य तक पहुंचना असंभव हो जाता है। एक बार गलत राह का अनुसरण करने के पश्चात् उसका लौटना दुष्कर होता है, अत्यंत कठिन होता है। इस उक्ति के माध्यम से, वे समाज को सजग-सचेत करते हुए कहते हैं कि हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती। यह संसार मृग-तृष्णा है। उसके पीछे मत भागो अन्यथा रेगिस्तान में जल की तलाश में बेतहाशा भागते हुए हिरण के समान होगी, मानव की दुर्दशा… जिसका अंत प्राणोत्सर्ग के रूप में होना अवश्यांभावी है।
ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से अर्थ। इंसान कमाल का है कि पसंद करे, तो बुराई नहीं देखता, नफ़रत करे, तो अच्छाई नहीं देखता। सो! ज्ञान से दृष्टि व सोच अधिक प्रभावशाली है। ज्ञान से हमें शब्दार्थ समझ में आते हैं, परंतु अर्थ हमें जीवन के रहस्य से अवगत कराते हैं.. अनुभव दे जाते हैं। वास्तव में प्रेम व नफ़रत से ही हर व्यक्ति का मूल्यांकन संभव हैं। अकसर हमारा ध्यान उसके दोषों की ओर नहीं जाता… यदि हम उससे घृणा करते हैं। इस स्थिति में हमें उसके दोष गुणों व अच्छाइयों-सम भासते हैं। जैसाकि सौंदर्य व्यक्ति में नहीं, उसकी दृष्टि में होता है। हमारी मन:स्थिति, सोच व नज़रिया निर्धारित करते हैं…व्यक्ति व वस्तु के सौंदर्य व कुरूपता को…सो! ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ इससे भी बढ़कर है हमारा व्यवहार… जो ज्ञान से भी बड़ा है। ज़िंदगी में अनेक परिस्थितियां आती हैं, जब ज्ञान फेल हो जाता है। परंतु हम उत्तम व्यवहार से प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने में सफल हो जाते हैं अर्थात् सुविचार व व्यवहार बगिया के वे सुंदर पुष्प हैं, जो व्यक्तित्व को महका देते हैं और सब्र व सच्चाई अपने शहसवार को कभी गिरने नहीं देते, न किसी के कदमों में, न ही किसी की नज़रों में अर्थात् वे हमें यह पाठ पढ़ाते हैं कि जीवन एक यात्रा है… रो-रो कर जीने से लंबी लगेगी, हंस कर जीने से कब पूरी हो जाएगी… पता ही नहीं चलेगा। इसलिए अपनों के बीच अपनों की तलाश कीजिए… है तो यह बहुत कठिन, परंतु यह भी अकाट्य सत्य है कि पीठ में छुरा घोंपने वाले आपके निकटतम संबंधी व प्रियजन ही होते हैं। सो! दूसरों की अपेक्षा खुद से उम्मीद रखिए, यही सर्वोत्तम प्रेरणा-स्रोत है, जो आपकी दुर्गम राह को सुगम व प्राप्य बनाता है।
सो! तृष्णाएं सुरसा के मुख की भांति कभी समाप्त होने का नाम ही नहीं लेतीं, निरंतर बढ़ती रहती है और आजीवन हमें दु:ख के भंवर से बाहर नहीं आने देतीं। हम उन्हें पूरा करने में पूरे जीवन की खुशियां झोंक देते हैं… गलत हथकंडे अपनाते हैं और उनकी की भावनाओं को रौंदते हुए चले जाते हैं। दूसरों पर अकारण दोषारोपण करना, हमारी आदत में शुमार हो जाता है। निंदा हमारा स्वभाव बन जाता है और अहं व सर्वश्रेष्ठता का भाव हमारे अंतर्मन में इस प्रकार घर कर लेता है, जिसे बाहर निकाल फेंकना व उससे मुक्ति पाना हमारे वश की बात नहीं रहती। तृष्णा व अहं का चोली दामन का साथ है। एक के बिना दूसरा अधूरा है, अस्तित्वहीन है। इसलिए जब आप तृष्णाओं को अपने जीवन से बाहर निकाल देते हैं…अहं स्वत: नष्ट हो जाता है और जीवन में सुख-शांति व आनंद का पदार्पण हो जाता है।
शालीनता, विनम्रता आदि इसके जीवन साथी के रूप में प्रवेश पाकर सुक़ून पाते हैं। समय पंख लगा कैसे उड़ जाता है, व्यक्ति जान ही नहीं पाता। उसके जीवन में सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। अर्थशास्त्र भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने का संदेश देता है, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा इनकी पूर्ति करना असंभव है। यह चिंता, तनाव व अवसाद की जनक है, जिससे मुक्ति पाने का इंसान के पास कोई कारग़र उपाय नहीं है। तृष्णाएं हमारे जीवन को नरक के द्वार पर पहुंचा देती हैं, जहां से लौटना नामुमक़िन है। परंतु जब तक हम उनके प्रवेश पर अंकुश लगा निषिद्ध कर देते हैं तो वे पुन: दस्तक देने का साहस नहीं जुटा पाते। तृष्णाएं तो सर्प की भांति हैं। उम्र भर दूध पिलाओ, डसने से बाज़ नहीं आतीं। यह सदैव हानि पहुंचाती हैं… मानव को कटघरे में खड़ा कर तमाशा देखती हैं। इनके फ़न को कुचलना ही सबके लिए उपयोगी व हितकारी है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस☆
आज अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है। विभाजन के बाद पाकिस्तान ने उर्दू को अपनी राजभाषा घोषित किया था। पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) बांग्लाभाषी था। वहाँ छात्रों ने बांग्ला को द्वितीय राजभाषा का स्थान देने के लिए मोर्चा निकाला। बदले में उन्हें गोलियाँ मिली। इस घटना ने तूल पकड़ा। बाद में 1971 में भारत की सहायता से बांग्लादेश स्वतंत्र राष्ट्र बन गया।
1952 की घटना के परिप्रेक्ष्य में 1999 में यूनेस्को ने 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस घोषित किया।
आज का दिन हर भाषा के सम्मान , बहुभाषावाद एवं बहुसांस्कृतिक समन्वय के संकल्प के प्रति स्वयं को समर्पित करने का है।
मातृभाषा मनुष्य के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मातृभाषा की जड़ों में उस भूभाग की लोकसंस्कृति होती है। इस तरह भाषा के माध्यम से संस्कृति का जतन और प्रसार भी होता है। भारतेंदु जी के शब्दों में, ‘ निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल/ बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।’
हृदय के शूल को मिटाने के लिए हम मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा की मांग और समर्थन करते हैं।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆