भावार्थ : हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।।7।।
Whenever there is a decline of righteousness, O Arjuna, and rise of unrighteousness, then I manifest Myself! ।।7।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(आपसे यह साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं e-abhivyakti के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं । अब हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है उनका व्यंग्य –“बुरी नज़र और विघ्नहरण जूता” जो निश्चित ही …….. ! अरे जनाब यदि मैं ही विवेचना कर दूँ तो आपको पढ़ने में क्या मज़ा आएगा? इसलिए बिना समय गँवाए कृपा कर के पढ़ें, आनंद लें और कमेंट्स करना न भूलें । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 6 ☆
☆ व्यंग्य – बुरी नज़र और विघ्नहरण जूता ☆
एक निर्माणाधीन मकान की बगल से गुज़रता हूँ तो देखता हूँ कि ऊपर एक कोने में एक पुराना जूता लटकाया गया है। जूते की तली सड़क पर चलने वालों की तरफ है। यह मकान को बुरी नज़र से बचाने का अचूक नुस्खा है। किसी अधबने मकान पर काली झंडी लहराती दिखती है तो किसी पर काली हंडी उल्टी लटकी है। मतलब यह है कि ईंट, पत्थर, सीमेंट को भी नज़र लगती है।गज़ब की होती है यह बुरी नज़र जो ईंट,पत्थर, कंक्रीट को भी भेद जाती है। क्या करती है यह बुरी नज़र? मकान में दरार कर देती है, या नींव को कमज़ोर कर देती है, या सीधे सीधे मकान को पटक देती है? आदमी पर बुरी नज़र की कारस्तानी की बात तो सुनी थी। डिठौना लगाना देखा, राई-नोन उतारना देखा। लेकिन मकानों पर बुरी नज़र का असर जानकर तो लगा कि नज़र किसी लेज़र किरण से कम नहीं।
कैसी होती है यह बुरी नज़र? क्या यह कोई स्थायी चीज़ होती है या यह ईर्ष्या या द्वेष से एकाएक उपजती है? किसी का आलीशान बंगला देखा, दिल में हूक उठी, और तीसरे नेत्र की तरह बुरी नज़र भक से चालू हो गयी। अगर यह कोई स्थायी लक्षण है तो यह कुछ खास लोगों में ही पायी जानी चाहिए। देश के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में कुछ स्त्रियों को ‘चुड़ैल’ मानकर मार डाला गया या मारा पीटा गया। उन पर आरोप था कि उनकी बुरी नज़र या उनके तंत्र-मंत्र से गांव में दूसरों को नुकसान हुआ। दिलचस्प बात यह है कि यह आरोप किसी पुरुष पर नहीं लगा क्योंकि ‘चुड़ैल’ का नाम बताने वाले ओझा जी अक्सर पुरुष होते हैं।
मकानों पर लटकी झंडियों, हंडियों और जूतियों को देखकर लगता है कि सरकार को भी लोगों की संपत्ति की रक्षा के लिए प्रयास करना चाहिए। यह प्रयास निजी स्तर पर ही क्यों हो? इसलिए सबसे पहले तो नेत्र-विशेषज्ञों के द्वारा सबकी आँखों की जांच कराके बुरी नज़र वालों की एक फेहरिस्त बना ली जानी चाहिए। फिर इन बुरी नज़र वालों को कानूनन कोई पहचान-चिन्ह धारण करने को बाध्य किया जाना चाहिए। हो सके तो उन्हें घर से निकलने पर गांधारी की तरह आँखों पर पट्टी बांधने को कहा जाए, या कोई ऐसा चश्मा बनाया जाए जिसके काँच में बुरी नज़र के घातक तत्व को ‘न्यूट्रलाइज़’ करने की शक्ति हो, जैसे सिगरेट का फिल्टर निकोटिन को जज़्ब कर लेता है। जो भी हो, देश की संपत्ति को नुकसान से बचाने के लिए सरकार को कुछ न कुछ करना ज़रूरी है।
यह अनुसंधान का विषय है कि बुरी नज़र आँख से प्रक्षेपित कैसे होती है। विज्ञान के हिसाब से तो आँख सिर्फ एक कैमरा है, जो तस्वीर को ग्रहण तो करती है, लेकिन भेजती कुछ नहीं। लेकिन विज्ञान पर यकीन करके हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से तो काम नहीं चलेगा। जब सयाने कहते हैं कि बुरी नज़र धनुष से छूटे बाण की तरह चलती है तो ज़रूर चलती होगी। वर्ना लोग आदमियों और घरों को बचाने का इतना पुख्ता इंतज़ाम क्यों करते? फिल्मी गीतों के हिसाब से तो आँखें विभिन्न प्रकार के घातक अस्त्रों से सुसज्जित रहती हैं जो दिल को घायल करने से लेकर जान तक ले सकते हैं। नमूने हैं —-‘ना मारो नजरिया के बान’, ‘मस्त नजर की कटार, दिल के उतर गयी पार’, और ‘अँखियों से गोली मारे, लड़की कमाल।’ नायिका की आँखों के बारे में रीतिकालीन कवि रसलीन की पंक्ति है —–‘जियत मरत झुकि झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।’
वैसे सब लोग बुरी नज़र के उपचार के लिए जूते की तरफ नहीं भागते। बहुत से ट्रक वाले ट्रक के पीछे ‘बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला’ लिख कर काम चला लेते हैं। फिल्मों में नायक नायिका के लिए ‘चश्मेबद्दूर’ गाकर तसल्ली कर लेता है। लेकिन फिर भी इस बला से बचने के लिए जूते का प्रयोग बहुतायत से होता है।
इतिहास के बारीक अध्ययन से पता चलता है कि जूता बद-नज़र और बददिमाग़ के इलाज का प्रभावी उपकरण रहा है। रियासतों के ज़माने में इसका प्रयोग काफी उदारता से रिआया को उसकी औकात का एहसास दिलाने के लिए किया जाता था। तब का जूता शुद्ध चमड़े का और मज़बूत होता था। उसके सामने दंड के अन्य सब उपकरण हेठे थे क्योंकि जूता चमड़ी और इज़्ज़त दोनों खींच लेता था। आजकल रबर सोल के हल्के-फुल्के जूतों का फैशन है जो सिर्फ इज़्ज़त हरने के ही काम आ सकते हैं। इसलिए जिन लोगों के लिए इज़्ज़त का कोई ख़ास महत्व नहीं है उनके लिए जूता भयकारी नहीं रहा। ग़रज़ यह कि आज के ज़माने में जूते की कीमत में भले ही वृद्धि हुई हो, लेकिन उसकी उपयोगिता में कमी हुई है। यह बात उन लोगों को ध्यान में रखना चाहिए जो बुरी नज़र को निर्मूल करने के लिए जूता लटकाते हैं।
दरअसल बुरी नज़र वालों का उपयोग भी देश के हित में हो सकता है, लेकिन जैसे हम अपने शिक्षित युवकों, इंजीनियरों, डाक्टरों का उपयोग करना नहीं जानते वैसे ही हम बुरी नज़र वालों का रचनात्मक उपयोग करना नहीं जानते। बुरी नज़र वालों को लड़ाई के मोर्चों पर भेजा जा सकता है जहाँ उनकी नज़र का इस्तेमाल दुश्मन के बंकरों को तोड़ने, पुल उड़ाने और टैंकों को बरबाद करने के लिए किया जा सकता है। यह नुस्खा कारगर होने के साथ साथ बेहद सस्ता भी है। कुछ बुरी नज़र वालों को नगर निगम के अतिक्रमण हटाने वाले दस्ते में भर्ती किया जा सकता है, जहाँ वे घंटों का काम मिनटों में करेंगे। नलकूपों की बोरिंग, मकानों के लिए नींव की खुदाई और पत्थरों को तोड़ने के कामों के लिए भी बुरी नज़र बहुत कारगर सिद्ध हो सकती है। हमारे पास ही काम की ऐसी बढ़िया तकनीक है, और हम विदेशों से मंहगे उपकरण खरीदने में लगे हैं।
विशेषज्ञों को इस काम में तुरन्त लगा देना चाहिए कि बुरी नज़र कितने स्तरों पर और कितने तरीकों से काम में लायी जा सकती है। यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या बुरी नज़र में किसी और तत्व का संयोग करके कोई और ताकतवर चीज़ पैदा की जा सकती है। मेरे खयाल से बुरी नज़र में असीमित संभावनाएं हैं, बशर्ते कि हम इन संभावनाओं की खोज-बीन के प्रति जागरूक हों।अब तक हमने इस क्षेत्र की बहुत उपेक्षा की। परिणामतः दूसरे देश कहीं से कहीं पहुंच गये और हम पीछे रह गये। अब एक क्षण भी गंवाना आत्मघाती होगा।
( “साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की तृतीय कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 3 ☆
☆ मोक्ष… ☆
मोक्ष.., ऐसा शब्द जिसकी चाह विश्व के हर मनुष्य में इनबिल्ट है। बढ़ती आयु के साथ यह एक्टिवेट होती जाती है। स्वर्ग-सी धरती पर पंचसिद्ध मनुष्य काया मिलने की उपलब्धि को भूलकर प्रायः जीव अलग-अलग पंथों की पोशाकों, प्रार्थना पद्धति, लोकाचार आदि में मोक्ष गमन के मार्ग तलाशने लगता है। तलाश का यह सिलसिला भटकाव उत्पन्न करता है।
एक घटना सुनाता हूँ। मोक्ष के राजमार्ग की खोज में अपने ही संभ्रम में शहर की एक सड़क पर से जा रहा था। वातावरण में किसी कुत्ते के रोने का स्वर रह-रहकर गूँज रहा था पर आसपास कुत्ता कहीं दिखाई नहीं देता था। एकाएक एक कठोर वस्तु पैरों से टकराई। पीड़ा से व्यथित मैंने देखा यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। गेंद मेरे पैरों से टकराकर कुछ आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई।
आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। गेंद उठाता कि कुत्ते के रोने का स्वर फिर गूँजा। उसने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और शायद मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गंवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।
मैं बच्चे से कुछ पूछता कि एकाएक उसकी टोली में से किसी ने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।
संभ्रम छँट गया था। मोक्ष की राह मिल गई थी।
धरती के मोक्ष का सम्मान करो, आकाश का परमानंद मोक्षधाम तुम्हारा सम्मान करेगा।
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन । आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ जी की दो कवितायें “ऐनवक्त की कविता” और “हमारे गाँव में खुशहाली”।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। आज प्रस्तुत है उनका आलेख “मज़दूरी / मजबूरी वाली”। यह एक आलेख ही नहीं अपितु, आह्वान है, यह हमें हमारे समाज के प्रति मानवीय एवं सामाजिक दायित्व को भी याद दिलाता है। यह हमें प्रोत्साहित करता है कि यदि प्रत्येक व्यक्ति कम से कम एक ऐसे बच्चे का दायित्व उठा ले जो “मजबूरी में बाल मजदूरी” कर रहा हो तो हम न जाने कितने ही बच्चों को सम्मानजनक जीवन देने में सफल हो सकते हैं। बाल मजदूरी के साथ ही उन्होने और भी कई सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डाला है। इस दिशा में कई गैर सरकारी संगठन भी कार्य कर रहे हैं। किन्तु, एक मनुष्य अथवा एक नागरिक के रूप में हमारा भी तो कुछ कर्तव्य बनता है? जरा सोचें…. ।
☆ मज़दूरी / मजबूरी वाली☆
मज़दूरी इनकी मजबूरी एक विवादास्पद विषय है तथा अनेक प्रश्नों व समस्याओं को जन्म देता है। अनगिनत पात्र मनोमस्तिष्क में दस्तक देते हैं, क्योंकि लम्बे समय तक मुझे अंग-संग रहने का अवसर प्राप्त हुआ है। यह पात्र कभी लुकाछिपी का खेल खेलते हैं तो कभी करुणामय नेत्रों से निहारते हैं, मानो विधाता के न्याय पर अंगुली उठा रहे हों। —कैसा न्याय है यह? जब सृष्टि-नियंता ने सबको समान बनाया है— सब में एक-सा रक्त प्रवाहित है तो हमसे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों? एक ओर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में रहने वाले लब्ध-प्रतिष्ठित धनी लोग और दूसरी ओर झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले, खुले आकाश के नीचे ज़िन्दगी बसर करने वाले लोग क्यों? हमारे देश में इंडिया और भारत में वैषम्य क्यों?
उक्त कथन बहुत चिंतनीय है, विचारणीय है। जब हम मासूम बच्चों को मज़दूरी करते देखते हैं तो आत्मग्लानि होती है। ढाबे पर बर्तन धोते या चाय व खाना परोसते बच्चे, रैड लाइट पर गाड़ी साफ करते व फूल, खिलौने खरीदने का अनुरोध करते बच्चे, सड़क किनारे अपने छोटे भाई-बहिन का ख्याल रखते, जूठन पर टूटते नंग-धड़ंग बच्चे, अधिक पाने के लिए एक-दूसरे से झगड़ते, मरने-मारने पर उतारू बच्चे, रेलवे स्टेशन पर बूट-पालिश करते, ट्रेन में अपनी कमीज़ से कंपार्टमेंट की सफाई करते या अखबार व मैगज़ीन बेचते बच्चों की ओर हमारा ध्यान स्वतः आकर्षित हो जाता है और हम उनकी मज़बूरी के बारे में जानने को आतुर हो, उन पर प्रश्नों की बौछार लगा देते हैं। परन्तु सहानुभूति प्रकट करने के अतिरिक्त कुछ कर पाने में, स्वयं को असमर्थ पाते हैं।
मुझे स्मरण हो रही है वह घटना, जब मैं गुवाहाटी की ट्रेन की प्रतीक्षा में दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बैठी थी। अपनी ड्रेस बदलते और स्वयं को मिट्टी से लथपथ करते, घाव दर्शाने हेतु मरहम लगाते, एक जैसी टोपियां डालते देख, मैं एक बच्चे से वार्तालाप कर बैठी। वह मौन रहा और इसी बीच एक व्यक्ति उन सब के लिए भोजन लेकर आया। भोजन करने के पश्चात् वे अपने-अपने गंतव्य की ओर बढ़ गए। उस बच्चे ने मेरी जिज्ञासा के बारे में अपने मालिक को जानकारी दी। वह मुझे घूरता रहा मानो देख लेने की धमकी दे रहा हो।
बच्चे ट्रेन के अलग-अलग डिब्बों में सवार हो गए परंतु उस गैंग के बाशिंदों ने मुझे नहीं चढ़ने दिया। उन्होंने रास्ता रोके रखा और चार-पांच लोग ए•सी• कंपार्टमेंट के दरवाज़े में खड़े हो गए और अपने मिशन में सफल हो गए। मेरा मोबाइल व पैसे पर्स से गायब हो चुके थे। ट्रेन के चलने के कारण मैं कोई कार्यवाही भी नहीं कर सकती थी। वे लोग उस डिब्बे से उतर चुके थे।
मैं सारा रास्ता यही सोचती रही, कितने शातिर हैं यह लोग…वे इन बच्चों से भीख मांगने का धंधा करवाते हैं और यह बच्चे शायद डर के मारे उनके इशारों पर नाचते रहते हैं। यह भी हो सकता है कि इनके माता- पिता इन कारिंदों से रात को बच्चों की एवज़ में पैसा वसूलते हों। वैसे भी छोटे बच्चों को तो स्त्रियां किराए पर ले लेती हैं …अपना धंधा चलाने के निमित्त और रात को उनके माता-पिता को लौटा देती हैं, दिहाड़ी के साथ।
जहां तक दिहाड़ी का संबंध है, बच्चों व महिलाओं को कम पैसे दिए जाते हैं। बाल मज़दूरी कानूनी अपराध है। परंतु बच्चों के बिना तो इनका काम ही नहीं चलता।
सुबह जब बच्चे, कंधे पर बैग लटका कर, स्कूल बस या कार में यूनिफॉर्म पहनकर जाते हैं, तो इनके हृदय का आक्रोश सहसा फूट निकलता है और वे अपने माता-पिता को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देते हैं। वे उन्हें स्कूल भेजने की अपेक्षा, उनके हाथ में कटोरा थमाकर क्यों भेज देते हैं? उनके साथ यह दोगला व्यवहार क्यों? माता पिता के उत्तर से उन्हें संतोष नहीं होता। उनके कोमल मन में समानाधिकारों व व्यवस्था-परिवर्तन की बात उठती है और वे उन्हें आग़ाह करते हैं कि वे भविष्य में कूड़ा बीनने व भीख मांगने नहीं जायेंगे, न ही मेहनत मज़दूरी करेंगे।
चलिए! रुख करते हैं, घरों में काम करने वाली बाइयों की ओर…जिन्हें उनके परिचित सब्ज़बाग दिखला कर दूसरे प्रदेशों से ले आते हैं और इन नाबालिग लड़कियों को दूसरों के घरों में काम पर लगा देते हैं, जिसकी एवज़ में वे मोटी रकम वसूलते हैं। 11 महीने तक वे उस घर में दिन रात काम करती हैं। जब वे घर छोड़ कर आती हैं तो उदास होती हैं और काम करना इनकी मजबूरी। परंतु धीरे-धीरे वे मालकिन की भांति व्यवहार करने लगती हैं। आजकल वे बहुत भाव खाती हैं
परंतु कई घरों में तो उनका शोषण किया जाता है। दिन रात काम करने के पश्चात् इन्हें पेट भर खाना भी नहीं मिलता। साथ ही उन्हें बंधक बनाकर रखा जाता है, मारा-पीटा जाता है व शारीरिक शोषण भी किया जाता है। यह मासूम अपनी मनोव्यथा किसी से नहीं कह सकतीं। कई बार जुल्म सहते-सहते तंग आकर वे भाग निकलती हैं या आत्महत्या कर लेती हैं।
आजकल तो एजेंटों का यह धंधा खूब पनप रहा है। वे लड़की को किसी के घर छोड़ कर साल भर का एडवांस ले जाते हैं और चंद घंटों बात वह लड़की अपने साथ कीमती सामान लेकर भाग निकलती है। वे बेचारे पुलिस स्टेशन के चक्कर लगाते रह जाते हैं। वहां जाकर उन्हें आभास होता है कि वे ठगी के शिकार हो चुके हैं।
परंतु बहुत से बच्चों को मज़दूरी करनी पड़ती है विषम पारिवारिक परिस्थितियों के कारण, किसी अनहोनी के घटित हो जाने के कारण, उन मासूमों के कंधों पर परिवार का बोझ आन पड़ता है और वे उम्र से पहले बड़े हो जाते हैं। यदि इन्हें मज़दूरी न मिले तो असामान्य परिस्थितियों में परिवार खुदक़ुशी करने को विवश हो जाता है और भीख मांगने के अतिरिक्त उनके सम्मुख दूसरा विकल्प शेष नहीं रहता।
परन्तु कुछ बच्चों में आत्म सम्मान का प्रभाव अत्यंत प्रबल होता है। वे मेहनत-मज़दूरी करना चाहते हैं क्योंकि भीख मांगना उनकी फ़ितरत नहीं होती और उनके संस्कार उन्हें झुकने नहीं देते।
चंद लोग क्षणिक सुख के निमित्त अपनी संतान को जन्म देकर सड़कों पर भीख मांगने को छोड़ देते हैं। अक्सर वे बच्चे नशे के आदी होने के कारण अपराध जगत् की अंधी गलियों में अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। वे समाज में अव्यवस्था व दहशत फैलाने का उपक्रम करते हैं तथा यह बाल अपराधी रिश्तों को दरक़िनार कर अपने माता-पिता व परिवार-जनों की जान लेने में भी संकोच नहीं करते। लूटपाट, हत्या, बलात्कार, अपहरण आदि को अंजाम देना इनकी दिनचर्या में शामिल हो जाता है। मुझे ऐसे बहुत से बच्चों के संपर्क में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। लाख प्रयास करने पर भी मैं उन्हें इन बुरी आदतों से सदैव के लिए मुक्त नहीं करवा पाई। ऐसे लोग वादा करके अक्सर भूल जाते हैं और फिर उसी दलदल में लौट जाते हैं। इनके चाहने वाले दबंग लोग इन्हें सत्मार्ग पर चलने नहीं देते क्योंकि इससे उनका धंधा चौपट हो जाता है।
मज़दूरी इनकी मजबूरी पर भी विश्वास करना कठिन हो गया है क्योंकि आजकल तो सब मुखौटा धारण किए हैं। अपनी मजबूरी को दर्शा कर लोगों को लूटना इनका पेशा बन गया है। वे बच्चे जिन्हें मजबूरी के कारण मज़दूरी करनी है, सचमुच सहानुभूति के पात्र हैं। समाज के लोगों व सरकार के नुमाइंदों को उनकी सहायता-सुरक्षा के लिए हाथ बढ़ाने चाहिएं ताकि एक स्वस्थ समाज की संरचना हो सके और हर बच्चे को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त हो सके। मानव-मूल्यों का संरक्षण हो तथा संबंधों की गरिमा बनी रहे। स्नेह, प्रेम, सौहार्द, सहयोग, सहनशीलता, सहानुभूति आदि दैवीय गुणों का अस्तित्व कायम रहे। इंसान के मन में दूसरे की मजबूरी का लाभ उठाने का भाव कभी भी जाग्रत न हो और समाज में समन्वय, सामंजस्य व समरसता का साम्राज्य हो। मानव स्व पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ एक अच्छा इंसान बन जाये।
अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, यदि हम सब मिलकर प्रयासरत रहें और एक बच्चे की शिक्षा का दायित्व वहन कर लें, तो हम 10 में से 1 बच्चे को एक अच्छा प्रशासक, एक अच्छा इंसान व एक अच्छा नागरिक बना पाने में सफलता प्राप्त कर सकेंगे और शेष बच्चे भले ही जीवन की सुख-सुविधाएं जुटाने में सक्षम न हों, अपराध जगत की अंधी गलियों में भटकने से बच जायेंगे। निरंतर अभ्यास व प्रयास से हम अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। हमें इस मुहिम को आगे बढ़ाना होगा, जैसाकि हमारी सरकार इन मासूम बच्चों के उत्थान के लिये नवीन योजनाएं ला रही है, जिसके अच्छे परिणाम हमारे समक्ष हैं। हमें जाति विशेष को आरक्षण न देकर, अच्छी शिक्षा के निमित्त उन्हें सुख-सुविधाएं प्रदान करनी होंगी ताकि उनमें हीन भावना न पनपे। प्रतिस्पर्धात्मक युग में वे अपनी योग्यता के मापदंड पर वे खरे उतर सकें और सिर उठा कर कह सकें, ‘हम किसी से कम नही।’
इन्हीं शुभकामनाओं व अपेक्षाओं के साथ…
शुभाशी,
डा. मुक्ता
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
(प्रस्तुत है सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की दसवीं कड़ी व्यक्ती पूजा…। सुश्री आरूशी दाते जी ने व्यक्ति पूजा की अत्यन्त सुंदर रूप से विवेचना की है। किसी व्यक्ति विशेष के विचारों से सहमत होना या उसका सम्मान व्यक्ति पूजा की श्रेणी में नहीं आता है, यह अत्यन्त स्पष्ट है। किन्तु, कई बार इस भावना को न समझने से दोनों पक्ष असहज स्थिति में आ जाते हैं। हमारा आत्मसम्मान हमें समय समय पर सचेत भी करता रहता है। आवश्यक है हम अपने हृदय की सुनें। सुश्री आरूशी जी के आलेख मानवीय रिश्तों को भावनात्मक रूप से जोड़ते हैं। इस शृंखला की क ड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। )
साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #10
☆ व्यक्ती पूजा… ☆
ती कधी फारशी जमली नाही… (खरंच का?)
का?
कदाचित आपले विचार कोणावर लादायचे नाहीत, ही शिकवण जोपासलेली आहे.. आणि विचार कोणावर लादता येतील ह्यावर विश्वास नाही… एखादी गोष्ट दुसऱ्याला पटवून देऊ शकतो कदाचित, आणि पटवून दिले तर त्याचाच ध्यास असावा हे ही अयोग्य आहे, नाही का?
काही लोकांना हे जमतं बाई… कसं ना म्हणजे… जाऊ दे, आपण विचार कशाला करायचा, ह्या भावनेतून गप्प बसते…
पण खरंच मी कधी व्यक्ती पूजा केली नाही का? हा प्रश्न मनात येतो आणि मन वेगवेगळ्या दिशांवर आरूढ होते… जे काही चांगलं आहे, किंवा जे चांगलं नाही, ते ठरवताना आपण नक्की काय करतो… त्यात कधी स्वतः विचार असतो तर कधी दुसऱ्यांनी दिलेले सल्ले असतात… सल्ले अनेकांकडून मिळत असले तरी ठराविक लोकांचेच सल्ले आपण आचरणात आणतो… मग ही व्यक्तीपूजा झाली का?
नाही नाही, असं स्वतःला सांगत पुन्हा त्या विचार चक्रात अडकून जाते… नक्की कोण – व्यक्ती की विचार ? हे द्वंद्व दूर होत नाही… कधी कधी असं वाटतं की ती व्यक्ती आवडते, जवळची वाटते किंवा विश्वासक वाटते म्हणून आपण तिचे विचार, सल्ले मान्य करतो, म्हणजे व्यक्ती पुज़ाच झाली की !
स्वतःचं समाधान व्हावं म्हणून मग मी स्वतःलाच समजावते, ही व्यक्ती पूजा नाही गं, फक्त त्या व्यक्तीचे विचार घेतेस तू !
तुम्हालाही असंच वाटतं का?
पुन्हा एक गोंधळ सुरू होतो… व्यक्ती, माणूस म्हणजे तरी नक्की काय?
विचारांचे मूर्त रूप… हो ना! मग विचारांची स्वीकृतता म्हणजे त्या व्यक्तीचाही स्वीकार !
असो, खूप गुंतागुंतीचा विषय आहे… पण आयुष्यातील प्रत्येक व्यक्ती (जरी आपण तिचे पूजक नसलो तरी) आपल्याला काही तरी देऊन जाते ह्याची जाणीव जिवंत राहिली पाहिजे… !
Spending mindful, intentional time around trees – what the Japanese call shinrin-yoku, or forest bathing – can promote health and happiness.
Shinrin-yoku, or forest bathing, can reduce your stress levels and blood pressure, strengthen your immune and cardiovascular systems, boost your energy, mood, creativity, and concentration, and even help you lose weight and live longer.
We all know how good being in nature can make us feel.
The sounds of the forest, the scent of the trees, the sunlight playing through the leaves, the fresh, clean air – these things give us a sense of comfort.
Being in nature can restore our mood, give us back our energy and vitality, refresh and rejuvenate us.
‘Shinrin’ in Japanese means ‘forest’ and ‘yoku’ means ‘bath’.
So shinrin-yoku means bathing in the forest atmosphere, or taking in the forest through our senses.
Shinrin-yoku is not exercise, or hiking, or jogging.
It is simply being in nature, connecting with it through our sense of sight, hearing, taste, smell and touch.
We are part of the natural world. Our rhythms are the rhythms of nature.
As we walk slowly through the forest, seeing, listening, smelling, tasting and touching, we bring our rhythms into step with nature.
Shinrin-yoku is like a bridge. By opening our senses, it bridges the gap between us and the natural world.
When we are in harmony with the natural world we can begin to heal.
Our nervous system can reset itself, our bodies and minds can go back to how they ought to be.
We may not travel very far on our forest walk but, in connecting us with nature, shinrin-yoku takes us all the way home to our true selves.
Even a small amount of time in nature can have an impact on our health.
A two-hour forest bath will help you to unplug from technology and slow down.
It will bring you into the present moment and de-stress and relax you.
Shinrin-yoku can:
Reduce blood pressure
Lower stress
Improve cardiovascular and metabolic health
Lower blood sugar levels
When people started to practise shinrin-yoku, in the early 1980s, it was based only on common sense and the intuitive idea that being in the beautiful green forests of Japan would be good for us. Until recently, however, there was little scientific evidence to support what we have always known innately about the healing power of the forest.
It has been now scientifically proven that shinrin-yoku can:
Boost the immune system
Increase energy
Decrease anxiety, depression and anger
Reduce stress and bring about a state of relaxation
The World Health Organization calls stress the health epidemic of the twenty-first century. And finding ways to manage stress – not just for our own health but for the health of our communities, at home and in the workplace – is the most significant health challenge of the future.
Studies have now proved that forest bathing:
Lowers the stress hormones cortisol and adrenaline
Suppresses the sympathetic or ‘fight or flight’ system
Enhances the parasympathetic or ‘rest and recover’ system
Lowers blood pressure and increases heart-rate variability Numerous studies have been conducted and a huge mass of data collected from hundreds of people on the impact of forest-bathing on various aspects of human health.
Forest-bathing can help you sleep
Forest-bathing can improve your mood
Forest-bathing boosts the immune system
Courtesy: THE JAPANESE ART AND SCIENCE OF SHINRIN-YOKU FOREST BATHING by Dr Qing Li Music: Healing by Kevin MacLeod is licensed under a Creative Commons Attribution licence (https://creativecommons.org/licenses/…)
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and trainings. Email: [email protected]
Founders: LifeSkills
Jagat Singh Bisht
Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.
Radhika Bisht:
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.
आत्म प्रकृति स्वाधीन शक्ति से ,अपना जन्म प्रकटता हूँ।।6।।
भावार्थ : मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।।6।।
Though I am unborn and of imperishable nature, and though I am the Lord of all beings, yet, ruling over My own Nature, I am born by My own Maya. ।।6।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(सुश्री सुषमा भंडारी जी साहित्यिक संस्था हिंदी साहित्य मंथन की महासचिव एवं प्रणेता साहित्य संस्थान की अध्यक्षा हैं । प्रस्तुत है आपकी भावपूर्ण कविता आगे-आगे क्यूं तू भागे? आपकी विभिन्न विधाओं की रचनाओं का सदैव स्वागत है। )
(यह एक संयोग ही है की आज के ही दिन श्री आशीष कुमार जी की पुस्तक ‘पूर्ण विनाशक’ का विमोचन है। श्री आशीष जी को उनकी इस नवीनतम कृति की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनायें।)
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला के अंश “स्मृतियाँ/Memories”। आज के साप्ताहिक स्तम्भ में प्रस्तुत है एक अत्यन्त भावुक एवं मार्मिक संस्मरण “सरदार”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #6 ☆
☆ सरदार ☆
मैंने अपनी अभियांत्रिकी सूचना प्रौद्योगिकी से सन 2000 से लेकर 2004 तक की थी । इस दौरान मैंने अपनी जिंदगी के 4 साल उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में व्यतीत किये और बहुत कुछ सिखने को मिला । मैं अभियांत्रिकी के सूचना प्रौद्योगिकी की बात नहीं कर रहा बल्कि जिंदगी ने बहुत कुछ सिखाया । अलग अलग तरह के लोगो से वास्ता पड़ा सबकी सोच को समझने की कोशिश की । उस दौरान ये भी समझ में आया की कैसे किसी की संस्कृति, रहन सहन, उसका क्षेत्र और उसके माता पिता, भाई बहन आदि का उसके विचारो, प्रकृति और चरित्र पर प्रभाव पड़ता है । अभियांत्रिकी में शुरू का 1 महीना तो जान पहचान आदि में ही बीत जाता है ।
धीरे धीरे मेरी भी मेरी शाखा सूचना प्रौद्योगिकी के बाक़ी साथियो से जान पहचान और कुछ से दोस्ती भी शुरू हो गयी एक लड़का जो की सरदार जी थे हमेशा कक्षा में देर से आता था कभी कभी तो आता भी नहीं था एक दिन हमारी व्यक्तित्व विकास (Personality Development) का व्याख्यान (lecture) था उसमे अध्यापिका ने बोला के आज आप सब लोग अपना परिचय (Introduction) दीजिये । तो सब साथी अपना परिचय ऐसे दे रहे थे ‘My Name is….’ और हमारी अध्यापिका सबको Ok Ok बोल रही थी । कुछ देर बाद सरदार जी का नंबर आया उन्होंने अपना परिचय My name is …….से शुरू नहीं किया बल्की ‘I am … ‘ से शुरू किया । अध्यापिका ने बोला वैरी गुड जब हमे कोई अपना परिचय देने को बोले तो हमे I am and name बताना चाहिए ना की शुरुवात ही my name is से करनी चाहिए । क्योकि सामने वाला आपके बारे में पूछ रहा है ना कि केवल आपका नाम । उसके बाद कक्षा के सब छात्र अपना परिचय ‘I am …’ से ही देने लगे । सरदार जी ने जो अपना नाम बताया था वो मेरे दिमाग पर छप गया वो नाम था ‘राजविंदर सिंह रैना’
धीरे धीरे राजविंदर और मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी । फिर अभियांत्रिकी के दूसरे साल में मैं और राजविंदर कमरा साथी (Roommate) बन गए । मैं राजविंदर को बोला करता था यार तुम्हे तो Modeling में जाना चाहिए था तो वो हमेशा बोलता ‘नहीं यार Modeling के लिए तो बहुत कम उम्र से तैयारी करनी पड़ती है और मैं तो बूढ़ा हो गया हूँ’ तो जवाब में बोलता ‘तुम्हारा नाम है राजविंदर सिंह रैना मतलब तुम्हारे नाम में राजा भी है और शेर भी, और ना ही राजा कभी बूढ़ा होता है ना ही शेर’ इस बात पर राजविंदर बहुत हँसा करता था । राजविंदर में ये विशेषता थी की वो अपनी बातो से किसी रोते हुए को भी हँसा सकता था ।
इंजीनियरिंग में लड़के रात रात भर जागते है कुछ पढ़ाई करते है कुछ खुराफ़ात । हमारे कमरे से करीब 100 मीटर की दूरी पर एक चाय की टपरी थी जिसे एक बाप और दो बेटे चलाते थे । बाप और एक बेटा सुबह से रात तक चाय की टपरी संभालते थे और दूसरा बेटा रात से सुबह तक । ऐसे वो ‘गुप्ता जी’ की चाय की टपरी 24X7 खुली रहती थी । कॉलेज की परीक्षाओ के समय हम लोग रात को कभी भी गुप्ता जी की चाय की टपरी पर चाय पीने चले जाते थे कभी रात्रि में 11:30 कभी रात्रि में 2:00 कभी सुबह 5:00 आदि आदि । रात के समय गुप्ता जी की चाय की टपरी पर काफी रिक्शा वाले भी बैठे रहते थे क्योकि वो बेचारे अपना घर चलाने के लिए रात में भी रिक्शा चलाते थे क्योकि रात मे पैसे थोड़े ज्यादा मिल जाते थे धीरे धीरे मेरी और राजविंदर की उन रिक्शावालों से भी अच्छी पहचान हो गयी थी ।
अब अगर हम लोगो को अपने घर (Hometown) जाना हो तो हम लोग रात को गुप्ता जी की चाय की टपरी पर से ही रिक्शा लेते थे क्योकि ज्यादातर ट्रेन मेरे और राजविंदर के Hometown के लिए रात में ही चलती थी तो घर जाते समय हम लोग पहले गुप्ता जी के यहाँ चाय पीते फिर वही से रिक्शा में बैठ कर रेलवे स्टेशन चले जाते । सामान्य तौर पर हम लोग ट्रेन का टिकट कई दिन पहले ही बुक करा लेते थे पर कभी कभी अचानक भी जाना पड़ता था ऐसे ही एक बार राजविंदर को अचानक अपने घर जम्मू जाना था सर्दी का समय था उसकी ट्रेन करीब रात के 12:30 पर बरेली आती थी । हम लोग रात 10:00 बजे के करीब गुप्ता जी की चाय की टपरी पर पहुंचे हमने चाय पी, फिर मैंने राजविंदर से पूछा ‘यार तेरा ट्रेन में टिकट बुक नहीं हुआ है तो टिकट और रास्ते के लिए पैसे है या नहीं ?’ तो राजविंदर ने कहा ‘Don’t worry यार 500 रूपये है’ मैंने कहा ‘ठीक है’ फिर हमे गुप्ता जी की चाय की टपरी पर ही एक जानने वाला रिक्शावाला मिल गया राजविंदर उस रिक्शा में बैठ गया मैंने उसे विदा किया और वापस कमरे की तरफ चल दिया ।
मैं घर आ कर सो गया अगले दिन मुझे मेरे एक मित्र ने बताया की रात को करीब 3:00 बजे राजविंदर का फ़ोन आया था उस समय सन 2001 में मेरे पास मोबाइल फ़ोन नहीं हुआ करता था तो राजविंदर का फ़ोन उस दोस्त के पास आया था जिसके पास उस समय मोबाइल फ़ोन था मैंने उस दोस्त से घबरहाट और उत्सुकता से पूछा ‘क्या हुआ इतनी रात को उसने फ़ोन क्यों किया था ?’
उस दोस्त ने कहा ‘यार वो बिना टिकट यात्रा कर रहा था T.C. ने पकड़ लिया था तो किसी स्टेशन से फ़ोन कर के T.C. को ये confirm करा रहा था की वो स्टूडेंट है ताकि T.C. उसे छोड़ दे ‘ मैंने बोला ‘नहीं यार ऐसा कैसे हो सकता है जब वो गया था तो उसके पास 500 रूपये थे उतने में स्लीपर का टिकट आराम से आ जाता’ उस दोस्त ने कहा ‘पता नहीं यार’ । जब राजविंदर अपने घर से वापस आया तो सबसे पहले मैंने उससे यही पूछा ‘यार तेरे पास तो टिकट के लिए पैसे थे फिर बिना टिकट यात्रा क्यों कर रहे थे ?’ तो वो बोला ‘यार वो रामलाल चाचा वो जिनकी रिक्शा में बैठकर मैं स्टेशन तक गया था उनकी बच्ची बहुत बीमार थी और उनके पास डॉक्टर को दिखाने के पैसे नहीं थे इसलिए मैंने 500 रूपये उन्हें दे दिए थे’ मैं मन में सोच रहा था की जो किसी और की परेशानी मे अपने पास के सारे पैसे किसी जरूरतमंद को देदे और बिना टिकट यात्रा करता हुआ पकड़ा जाये शायद उसी को सरदार बोलते हैं। दिल से सलाम है राजविंदर को ।