हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #32 ☆ भवसागर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 32 ☆

☆ भवसागर  ☆

स्थानीय बस अड्डे के पास सड़क पार करने के लिए खड़ा हूँ। भीड़-भाड़ है। शेअर ऑटो रिक्शावाले पास के उपनगरों, कस्बों, बस्तियों, सोसायटियों के नाम लेकर आवाज़ें लगा रहे हैं, अलां स्थान, फलां स्थान, यह नगर, वह नगर। हाइवे या सर्विस रोड, टूटा फुटपाथ या जॉगर्स पार्क। हर आते-जाते से पूछते हैं, हर ठहरे हुए से भी पूछते हैं।  जो आगंतुक जहाँ जाना चाहता  है, उस स्थान का नाम सुनकर स्वीकारोक्ति में सिर हिलाता हुआ शेअर ऑटो में स्थान पा जाता है। सवारियाँ भरने के बाद रिक्शा छूट निकलता है।

छूट निकले रिक्शा के साथ चिंतन भी दस्तक देने लगता है। सोचता हूँ कैसे भाग्यवान, कितने दिशावान हैं ये लोग! कोई आवाज़ देकर पूछता है कि कहाँ उतरना है और सामनेवाला अपना गंतव्य बता देता है। जीवन से मृत्यु और मृत्यु उपरांत  की यात्रा में भी जिसने गंतव्य को जान लिया, गंतव्य को पहचान लिया, समझ लिया कि उसे कहाँ उतरना है, उससे बड़ा द्रष्टा और कौन होगा?

एक मैं हूँ जो इसी सड़क के इर्द-गिर्द, इसी भीड़-भड़क्के में रोजाना अविराम भटकता हूँ। न यह पता कि आया कहाँ से हूँ, न यह पता कि जाना कहाँ है। अपनी पहचान पर मौन हूँ, पता ही नहीं कि मैं कौन हूँ।

सृष्टि में हरेक की भूमिका है। मनुष्य देह पाये जीव की गति मनुष्य के संग से ही सम्भव है। यह संग ही सत्संग कहलाता है।

दिव्य सत्संग है पथिक और नाविक का। आवागमन से मुक्ति दिलानेवाले साक्षात प्रभु श्रीराम, नदी पार उतरने के लिए केवट का निहोरा कर रहे हैं। अनन्य दृश्यावली है त्रिलोकी के स्वामी की, अद्भुत शब्दावली है गोस्वामी जी की।

जासु नाम सुमरित एक बारा
उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा
जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।

केवट का अड़ जाना, पार कराने के लिए शर्त रखने का  आनंद भी अपार है।

मागी नाव न केवटु आना
कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई
मानुष करनि मूरि कुछ अहई।

सोचता हूँ, केवट को श्रीराम मिले जिनकी चरणरज में जीव को मनुष्य करने की जड़ी-बूटी थी। मुझ अकिंचन को कोई केवट मिले जो श्वास भरती इस देह को मानुष कर सके।

तभी एक स्वर टोकता है, “उस पार जाना है?” कहना चाहता हूँ, “हाँ, भवसागर पार करना है। करा दे भैया…!”

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11.05 बजे, 22.01.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ  समय समय पर उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।  कुछ दिन पूर्व, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) के तत्वावधान में, न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम और कोलंबिया विश्वविद्यालय के सहयोग से दिल्ली विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित किया गया । इस सन्दर्भ में प्रस्तुत है उनका विशेष आलेख ‘अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन’. )

☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन

कुछ दिन पूर्व, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) के तत्वावधान में, न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम और कोलंबिया विश्वविद्यालय के सहयोग से दिल्ली विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित किया गया था।  सम्मेलन का उद्देश्य हिंदी अध्ययन की वैश्विक दृष्टि और इसके साहित्य को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखने, पढ़ने और समझने के तरीके पर ध्यान केंद्रित करना था।  इस आयोजन ने विश्व साहित्य और हिंदी साहित्य के बीच की खाई को पाटने में अनुवाद और अनुवाद अध्ययन की भूमिका को भी संबोधित किया।

अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन एक बड़ी सफलता था। एक उत्सवपूर्ण माहौल में, जहां दुनिया भर के शिक्षाविदों, साहित्यकारों और भाषाविदों को एक मंच पर एकत्रित होने का अवसर मिला। जहाँ उन्होंने अपने शोध कार्यों, बुद्धिशीलता, ज्ञान, नवीनतम विचारोँ और घटनाओं को साझा किया।

 

मुझे यह सूचित करने में सम्मान महसूस हो रहा है कि मुझे ‘भाषा और अनुवाद’  सत्र की अध्यक्षता करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसके साथ ही  मुझे एक शोध पत्र प्रस्तुत करने के लिए भी आमंत्रित किया गया, विषय: “हिंदी-उर्दू अनुवादों के माध्यम से अंतर सांस्कृतिक संवाद”, जिसे मंच द्वारा सराहा गया।

इस “ट्रांसलेशन सेंटर” ने दुनिया भर के कई विद्वानों की मेजबानी की है, जैसे कि गैब्रिएला निक इलीवा (न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय), एडविन जेंट्ज़लर (यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट, यूएसए), जूडी वाकबायशी (केंट स्टेट यूनिवर्सिटी, यूएसए), सिरी नेरगार्ड (फ्लोरेंस विश्वविद्यालय, इटली), मिलिना ब्रेटोवा (सोफिया यूनिवर्सिटी, बुल्गारिया), तोमोको किकुची, अजमल कमल के अलावा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतीय विद्वानों में हरीश त्रिवेदी, सुकृता पॉल कुमार, इंद्र नाथ चौधरी, गीता धरमराजन, रक्षंदा जलील, अशोक वाजपेयी, लीला  धर मंडलोई, अजय नावरिया, गगन गिल और अशोक चक्रधर अन्य।

 क्या कहूँ इस सम्मेलन के विषय में? विद्वानों का जमावड़ा वो भी पारिवारिक उत्सव के माहौल में… कितना प्रेम, कितना अपनत्व… शब्द कम पड़ रहे हैं आभार व्यक्त करने को… यूँ ही कुछ उद्गार  हैं आप सब के लिए… समय इंद्रप्रस्थ महाविद्यालय में थम सा गया है…

यादों का कारवाँ, यूँही थक कर

गुज़िश्ता पलों में थम सा गया है

न जाने क्यों, वक्त की दीवार में इक

ज़िंदा बुत की मानिंद चुन सा गया है…

इस सम्मेलन ने यह सिद्ध कर दिया कि सही चुने गए विषयों पर केंद्रित, सुरूचिपूर्ण और गरिमामय आयोजन के लिए   ईमानदारी, कर्मठता, सोच और दूरदृष्टता से हिंदी को विश्व पटल पर बहुत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है। बीज वक्तव्यों का चयन बहुत बुद्धिमत्ता और सावधानी से किया गया था और वो विषय ऐसे थे जिन में सभी की रुचि हो। समान्तर सत्रों को भी इस तरह से रखा गया था कि हर  प्रतिभागी को अपनी रुचि के अनुसार विषय मिल सकें। कई बार समान्तर सत्रों में से किसी एक को चुनना मुश्किल हो रहा था लेकिन उस से बचा नहीं जा सकता था।

सम्मेलन में समस्थ व्यवस्थाएँ पर्याप्त थीं। लेकिन भौतिक व्यवस्थाओं से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, उस के पिछी  छुपी भावनाएँ। आयोजन समिति के हर एक सदस्य और विद्यालय की हर एक छात्रा और स्वयंसेवक ने वह सब कुछ किया जो वह कर सकने में सक्षम थे और कई बार उस से कहीं अधिक भी किया।

विशेष रूप से ‘कविता फ़िल्मों का प्रदर्शन और परिचर्चा’ और अकादमिक सत्रों में संतोष चौबे जी की अध्यक्षता में ‘हिंदी और राजभाषा” पर आधारित सत्र बहुत ही अच्छे रहे।

सभी विदेशी प्रतिभागियों ने अपने उत्कृष्ट हिंदी ज्ञान से अत्यंत प्रभावित किया। सांस्कृतिक प्रोग्राम भी अत्यंत मनोरंजक और मनोहारी थे।

आयोजनकर्ताओं और संयोजकों ने एक बेहद सफल और सार्थक सम्मेलन आयोजित किया, जिसके दूरगामी और प्रभावशाली परिणाम होंगे।

 

प्रस्तुति –  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी (नौसेना मेडल) , पुणे

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रंगमंच स्मृतियाँ ☆ जबलपुर में साझा रंगमंच ☆ – प्रस्तुति – श्री वसंत काशीकर एवं श्री दिनेश चौधरी

श्री वसंत काशीकर

( ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से रंगमंच स्मृतियों स्तम्भ में सहयोग के लिए  वरिष्ठ नाट्यकर्मी  एवं अग्रज श्री वसंत काशीकर जी  का हृदय से आभार। श्री वसंत काशीकर  जी को उनकी हाल ही में स्थापित की गई  कला, साहित्य  एवं संस्कृति पर आधारित संस्था ‘जिज्ञासा ‘ की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनाएं। जबलपुर में साझा रंगकर्म की नींव रखने में अन्य रंगकर्म संस्थाओं के संस्थापकों में आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वैचारिक मतभेदों के पश्चात इतनी रंगकर्म संस्थाओं का एक मंच पर आना एक ऐतिहासिक घटना है । इस सद्कार्य  के लिए सभी संस्थाओं को ई -अभिव्यक्ति का साधुवाद )

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।)

इस प्रयास में  सहयोग के लिए  श्री वसंत काशीकर जी एवं श्री दिनेश चौधरी जी का आभार।  साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ   

– हेमन्त बावनकर

☆ रंगमंच स्मृतियाँ – जबलपुर में साझा रंगमंच – श्री वसंत काशीकर ☆

स्थानीय रंगसंस्थाओं विवेचना रंगमंडल, समागम रंगमंडल, जिज्ञासा, रचना, विमर्श, नाट्यलोक, रंगाभरण, इलहाम, द्वारा जारी साझा वक्तव्य

“जबलपुर रंगमंच के लंबे शानदार इतिहास के केंद्र में ,साझा रंगमंच की कल्पना ,उसकी बुनियादी शुरुवात एक नई और बड़ी घटना है।नगर की रंग संस्थाएं, रंगकर्मी  और रंग आंदोलनों के सक्रिय साथियों ने इस साझा रंगमंच को मूर्तरूप देने में अपनी सहमति प्रदान की है।यह कोई नई संस्था नहीं है, देशकाल की चुनोतियों को देखते हुए एक ताजा सहकारी आंदोलन का सूत्रपात है।कला ,साहित्य,संस्कृति की विविध धाराओं में अपनी पहचान और संस्थागत पहचानों को पूरी स्वायत्तता के साथ बनाये रखते हुए यह साझा रंगमंच एक समानांतर रूप में उत्प्रेरक का काम करेगा।यह सहकारिता, सामूहिकता और सार्वजनिक चेतना के साथ सहमत लोगों का एक बड़ा प्लेटफॉर्म होगा जिसमें भागीदारी और योगदान का हम संकल्प लेते हैं।”

अरुण पांडे,वसंत काशीकर,आशीष पाठक,समर सेनगुप्ता,डॉ प्रशांत कौरव,सत्येंद्र रावत,संजय गर्ग,आयुष राय,बृजेन्द्र राजपूत,विनोद विश्वकर्मा ,आशुतोष द्विवेदी द्वारा 23 जनवरी 2020 को तरंग प्रेक्षागृह में विवेचना रंगमंडल के नाट्य समारोह रंगपरसाई 2020 के अवसर पर जारी।

 

प्रस्तुति –  श्री वसंत काशीकर, जबलपुर, मध्यप्रदेश

श्री दिनेश चौधरी

संक्षिप्त परिचय –  रंगकर्म व लेखन-कार्य में सक्रिय। नाटकों की किताब व पुस्तिकाओं का सम्पादन व कुछ नाटकों का देश के विभिन्न नगरों में सफल मंचन। लेख, फीचर, रपट, संस्मरण, व्यंग्य-आदि देश की अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। संस्मरण और  व्यंग्य संग्रह शीघ्र-प्रकाश्य।

☆ रंगमंच स्मृतियाँ – जबलपुर का साझा रंगकर्म बनाम स्टेम सेल – श्री दिनेश चौधरी ☆

वैचारिक मतभेद के मूल में विचार ही होते हैं। इसका होना समाज के लिए शुभ-संकेत होता है। इसके बरक्स जहाँ विचार शून्यता होती है, वहाँ सारे फसाद अहम को लेकर होते हैं। ऐसी संस्थाएँ बहुत दिनों तक अपनी रचनात्मकता कायम नहीं रख पातीं और उन अवसरों की तलाश में होती हैं  जहाँ ‘शत्रु पक्ष’ को उखाड़ा जा सके और इस तरह उनके छद्म-अहम को खुराक मिलती रहे। यों थो बल्किड़ा-बहुत अहम होना भी कोई खराब बात नहीं होती, बशर्ते यह आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे और आत्म-सम्मान को बचाने के लिए कवच की तरह काम करे। यह मसला अलबत्ता विशुद्ध वैयक्तिक है और सामूहिक कार्यों इसके लिए कोई जगह नहीं होती।

जबलपुर में रंगमंच और रंगकर्म की एक लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। नगर में अनेक नाट्य-संस्थाएं काम कर रही हैं और ये एक-दूसरे के समानांतर नहीं, बल्कि साथ-साथ हैं। भौतिकी का सर्वमान्य सिद्धांत है कि समानांतर क्रम में जुड़ने पर परिणामी प्रतिरोध कम हो जाता है और श्रेणी क्रम में यह इंडिजुअल्स के योग के बराबर हो जाता है। प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है। सामने लहर बहुत बड़ी हो तो लोग हाथ जोड़कर श्रृंखलाबद्ध हो जाते हैं। समय के इस मोड़ पर जबलपुर की रंग संस्थाओं ने यही किया है।

रंग-परसाई 2020 में प्रवीण गुँजन के नाटक “कथा” के मंचन से पहले कल जबलपुर की सभी रंग-संस्थाएं एक मंच पर एक साथ खड़ी दिखाई पड़ीं। प्रतिनिधियों को आमंत्रित करते हुए आशुतोष द्विवेदी ने कहा कि यह सच है कि संस्थाएँ इस बीच टूटी भी हैं, पर उनके टूटने से नई संस्थाओं का निर्माण भी हुआ है। तो यह एक तरह से विखंडन नहीं, बल्कि विस्तार है। बात सच है। इन दिनों चिकित्सा-जगत में “स्टेम सेल थेरेपी” बहुत ज्यादा प्रचलित हो रही है और यह असाध्य रोगों को भी ठीक करने के काम आ रही है। स्टेम सेल वे कोशिकाएं होती हैं जो विखंडित होकर नई बन जातीं हैं और उन कोशिकाओं को ‘रिप्लेस’ कर देती हैं जो क्षतिग्रस्त हों। हमारे समाज में भी कई किस्म के रोग पनप रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए रंग-कोशिकाएं इन व्याधियों को दूर करने का प्रयास करेंगी।

रंग-संस्थाओं की ओर से वरिष्ठ निर्देशक वसंत काशीकर ने एक सयुंक्त-बयान जारी किया। यह बयान है:

” जबलपुर में रंगमंच के लंबे शानदार इतिहास के परिप्रेक्ष्य में ,साझा रंगमंच की कल्पना ,उसकी बुनियादी शुरुवात एक नई और बड़ी घटना है। नगर की रंग संस्थाएं, रंगकर्मी और रंग आंदोलनों के सक्रिय साथियों ने इस साझा रंगमंच को मूर्तरूप देने में अपनी सहमति प्रदान की है।यह कोई नई संस्था नहीं है, देशकाल की चुनोतियों को देखते हुए एक ताजा सहकारी आंदोलन का सूत्रपात है।कला , साहित्य,संस्कृति की विविध धाराओं में अपनी पहचान और संस्थागत पहचानों को पूरी स्वायत्तता के साथ बनाये रखते हुए यह साझा रंगमंच एक समानांतर रूप में उत्प्रेरक का काम करेगा।यह सहकारिता, सामूहिकता और सार्वजनिक चेतना के साथ सहमत लोगों का एक बड़ा प्लेटफॉर्म होगा जिसमें भागीदारी और योगदान का हम संकल्प लेते हैं।”

मंच को निम्न प्रतिनिधियों ने साझा किया:  विवेचना रंगमंडल-अरुण पांडे,

समागम रंगमंडल-आशीष पाठक,

जिज्ञासा- बसंत काशीकर

विमर्श –समर सेन गुप्ता

आयुध कला मंच-सत्येंद्र रावत

रंगा भरण- बृजेंद्र सिंह राजपूत

इलहाम-आयुष राय,

रंग विनोद- विनोद विश्वकर्मा

नाट्य लोक- संजय गर्ग

रंग पथिक-शुभम अर्पित

रचना – प्रशांत कौरव।

प्रस्तुति – श्री दिनेश चौधरी , जबलपुर, मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ समय ☆ डॉ मौसमी परिहार

डॉ मौसमी परिहार

( डॉ मौसमी परिहार जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है।  6 मार्च 1981 को संस्कारधानी जबलपुर में  जन्मी  डॉ मौसमी जी ने “डॉ हरिवंशराय बच्चन की काव्य भाषा का अध्ययन” विषय पर  पी एच डी अर्जित। आपकी रचनाओं का प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन तथा आकाशवाणी और दूरदर्शन से नियमित प्रसारण। आकाशवाणी के लोकप्रिय कार्यक्रम ‘युगवाणी’ तथा दूरदर्शन के ‘कृषि दर्शन’ का संचालन। रंगकर्म में विशेष रुचि के चलते सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ पटकथा लेखक और निर्देशक अशोक मिश्रा के निर्देशन में मंचित नाटक में महत्वपूर्ण भूमिका अभिनीत। कई सम्मानों से सम्मानित जिनमें महत्वपूर्ण हैं वुमन आवाज सम्मान, अटल सागर सम्मान, महादेवी सम्मान हैं। संप्रति – रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक। हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाओं को ई- अभिव्यक्ति में साझा करने की अपेक्षा करते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर कविता ‘समय’ )   

 ☆ कविता  – समय ☆

समय ने आज पूछा…

मुझसे एक सवाल

क्यों, कैसी हो…?

क्या हैं तुम्हारे हाल….?

 

बुझी बुझी सी,

परेशानियों की

झुर्रियां लिये,

मैं देख रही थी

एक टक….,

घड़ी की सुइयों को,

 

जो हंस रही थी

मुझ पर,

मेरी  हालत पर…!!

 

समय ने कहा…

“जरा एक बार,

अतीत को झांक तो जरा,”

और उठ समेट खुद को

मुझको तो हरा…!!

 

बीते कल में,

गुजरा बहुत कुछ,

क्यों भूलूँ उन,

अहसासों को…!!

जो बीता सुखद था

सब कुछ,,, दोष

क्यों दूं..

वक्त के पहरेदारों को…!!

 

© डॉ मौसमी परिहार, भोपाल

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 19 – प्रश्न आत्मा का परमात्मा से ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  जीवन दर्शन पर आधारित एक दार्शनिक / आध्यात्मिक  रचना ‘प्रश्न आत्मा का परमात्मा से  ‘।  आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 19  – विशाखा की नज़र से

☆ प्रश्न आत्मा का परमात्मा से  ☆

 

जिस तरह चुनती हूँ मैं

पूजा के फूल अगली सुबह

हे देव ! क्या तुम भी इसी तरह

चुनते हो आत्मा के फूल मुरझाए हुए ?

 

जिस तरह रखती हूँ मैं

बदले में उसके सुहासित पुष्प

हे देव ! क्या तुम भी इसी तरह

बदलते हो कलेवर को ?

 

यह छोटी सी क्रिया मेरा पूजन है

कुछ अर्पण है तेरे नाम का

क्या तेरी क्रिया भी पूजन है

और ये मन्त्र है बदलाव का ?

 

जिस तरह  करती हूँ जप

रखती हूं व्रत तेरे नाम का

शेष शय्या पर लेटे हुए

या पुष्प पर बैठे हुए

क्या स्मरण तुझे मेरे नाम का ?

 

हम इस धरा के सूक्ष्म से थलचर

पृथ्वी के घ्ररूण संग फिरते है हम, हर पल

जन्म – मरण के इस चक्र में

हे देव ! क्या  रूप बदल

करते हो भ्रमण हमारे लिए ?

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – ☆  Laughter Exercise Regime for Daily Practice – Video #1 ☆ – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

 ☆ Laughter Exercise Regime for Daily Practice ☆ 

Practice these exercises daily to be healthy, happy and wise.

How to LAUGH ALONE for HEALTH and HAPPINESS?

HAPPINESS ACTIVITY: Laughter Yoga

Laughter yoga is usually practiced in groups in the parks. But we need to laugh daily for health and happiness.

This is a learning video – a tutorial – for laughing alone every day.

 Video Link >>>>

LAUGHTER YOGA: VIDEO #1

 It demonstrates the following exercises:

Hoho haha warming up, tapping body and laughing, vowel breathing, pendulum breathing,aloha greeting, milk shake laughter, mobile laughter, just laugh, deep breathing, laughter cream, hearty laughter, silent laughter, laugh at yourself, mental floss, no AC in the room laughter,laughter meditation, humming and laughter yoga closing ritual.

Our Fundamentals:

Oor Fundamentals :
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.
We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.
Email: [email protected]

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer
Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 8 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 8 – अंत्येष्टि ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- किस प्रकार जहरीली शराब के सेवन से हाथ पांव  पीटते लोग मर रहे थे।  उसमें से एक अभागा पगली का पति भी था। अब आगे पढ़े—–)

उस दिन कुछ लोग उसके पति को सहारा दे पगली के दरवाजे पर लाये और घर से बाहर पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर लिटा कर चलते बने, घर के एक कोने में पड़ा उदास गौतम मौत की पीड़ा झेलते हाथ पांव पीटते अपने जन्मदाता को विवश हो सूनी सूनी आंखों से ताक रहा था।  कुछ भी करना उसके बस में नही था। वहीं पर पैरों के पास बैठी पगली अपने दुर्भाग्य पर अरण्य रुदन को विवश थी।  कोई भी तो नही था उसे ढाढ़स बंधाने वाला।  उसकी नशे की मस्ती अब मौत की पीड़ा में बदलती जा रही थी।

उस सर्द जाड़े की रात में जब सारा गाँव रजाइयों में दुबका नींद के आगोश में लिपटा पड़ा था। तब कोहरे की काली चादर में लिपटी रात के उस नीरव वातावरण में माँ बेटे रोये जा रहे थे कि- सहसा पास पड़े उस बेजान जिस्म में थोड़ी सी हलचल हुई, नशे में बंद आंखे थोड़ी सी खुली, जिसमें पश्चाताप के आंसू झिलमिलाते नजर आये,  हाथ क्षमा मांगने की मुद्रा में जुड़े, एक हिचकी आई फिर सब कुछ खामोश।

अब माँ बेटों के करूण क्रंदन से रात्रि की नीरवता भंग हो गई।  साथ ही गाँव के बाहर सिवान में सृगाल समूहों का झुण्ड हुंआ  हुंआ का शोर तथा कुत्तों का रूदन वातावरण को और डरावना बना रहे थे।

अब पगली के समक्ष पति के अन्त्येष्टि की समस्या एक यक्ष प्रश्न बन मुंह बाये खडी़ थी। जब कि उसके घर में खाने के लिए अन्न के दाने नही तो वह कफन के पैसे कहाँ से लाती।  यह तो भला हो उन गांव वालों का जो उसके बुरे वक्त में काम आए और अंतिम संस्कार में खुलकर मदद की तथा अपना पड़ोसी धर्म निभाया।

उस दिन उस गाँव के लोगों ने नशे से तबाह होते परिवार की पीड़ा को निकट से महसूस किया था तथा गाँव में किसी का चूल्हा उस दिन नहीं जला था। विधवा महिलाओं ने अपने वैधव्य का हवाला देकर उसे चुप कराया था। श्मशान में चिता पर लेटे पिता को मुखाग्नि का अग्नि दान दे गौतम ने अपने पुत्र होने का फर्ज निभाया था। वही श्मशान में कुछ दूर खड़ी पगली लहलह करती जलती चिता पर अपने जीवन के देवता के धू धू कर जलते शरीर को एकटक भाव शून्य चेहरे एवम् अश्रुपूरित नेत्रों से देखती जा रही थी।

ऐसा लगा जैसे उसे काठ मार गया हो, तभी सहसा गौतम माँ  के सीने से लग फूट फूट कर रो पड़ा था। उन माँ बेटों को रोता देख गाँव वासियों को लगा जैसे उनकी दुख पीड़ा देख महाश्मशान देवता भी रो पड़े हों।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग -9 –  संघर्ष 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (34) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा )

 

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ।।34।।

 

भजन यजन औ” नमन कर मन में मुझको देख

मुझे पायेगा भक्त हो मत्परायण सविवेक।।34।।

 

भावार्थ :  मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर। इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।।34।।

 

Fix thy mind on Me; be devoted to Me; sacrifice unto Me; bow down to Me; having thus united thy whole self with Me, taking Me as the Supreme Goal, thou shalt verily come unto Me.।।34।।

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्यायः ॥9॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ सच्ची सुहागन ☆ श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

( आदरणीय श्रीमती सविता मिश्रा ‘ अक्षजा’ जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं  (लघुकथा, कहानी, व्यंग्य, छंदमुक्त कविता, आलेख, समीक्षा, जापानी-विधा हायकु-चोका आदि)  की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आप एक अच्छी ब्लॉगर हैं। कई सम्मानों / पुरस्कारों  से सम्मानित / पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपकी कई रचनाएँ राष्ट्रिय स्टार की पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं एवं आकाशवाणी के कार्यक्रमों में प्रसारित हो चुकी हैं।  ‘रोशनी के अंकुर’ लघुकथा एकल-संग्रह प्रकाशित| आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा ‘ सच्ची सुहागन ‘.   हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करने की अपेक्षा करते हैं । )

 ☆ लघुकथा – सच्ची सुहागन ☆

पूरे दिन घर में आवागमन लगा था। दरवाज़ा खोलते, बंद करते, श्यामू परेशान हो गया था। घर की गहमागहमी से वह इतना तो समझ चुका था कि बहूरानी का उपवास है। सारे घर के लोग उनकी तीमारदारी में लगे थे। माँजी के द्वारा लाई गई साड़ी बहूरानी को पसंद न आई थी, वो नाराज़ थीं। अतः माँजी सरगी की तैयारी के लिए श्यामू को ही बार-बार आवाज दे रही थीं। सारी सामग्री उन्हें देने के बाद, वह घर के सभी सदस्यों को खाना खिलाने लगा। सभी काम से फुर्सत हो, माँजी से कह अपने घर की ओर चल पड़ा।

बाज़ार की रौनक देख अपनी जेब टटोली, महज दो सौ रूपये । सरगी के लिए ही ५० रूपये तो खर्च करने पड़ेंगे। आखिर त्योहार पर, फल इतने महँगे जो हो जाते हैं। मन को समझा, उसने सरगी के लिए आधा दर्जन केले खरीद ही लिए। वह भी अपनी दुल्हन को सुहागन रूप में सजी-धजी देखना चाहता था, अतः सौ रूपये की साड़ी और

शृंगार सामग्री भी ले ली।

सौ रूपये की लाल साड़ी को देख सोचने लगा, मेरी पत्नी तो इसमें ही खुश हो जायेगी। उसकी धोती में बहत्तर तो छेद हो गए हैं। अब कोठी वालों की तरह न सही, पर दो-चार साल में तन ढ़कने का एक कपड़ा तो दिला ही सकता हूँ। बहूरानी की तरह मुँह थोड़े फुलाएगी। कैसे माँजी की दी हुई साड़ी पर बहूरानी नाक-भौंह सिकोड़ रही थीं। छोटे मालिक के साथ बाजार जाकर, दूसरी साड़ी ले ही आईं।

मन में गुनते हुए ख़ुशी-ख़ुशी सब कुछ लेकर घर पहुँचा। अपने छोटे साहब की तरह ही, वह भी अपनी पत्नी की आँख बंद करते हुए बोला- “सोच-सोच क्या लाया हूँ मैं?”

“बड़े खुश लग रहे हो। लगता है कल के लिए, बच्चों को भरपेट खाने को कुछ लाए हो! आज तो भूखे पेट ही सो गए दोनों।”

 

© श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

फ़्लैट नंबर -३०२, हिल हॉउस, खंदारी अपार्टमेंट, खंदारी, आगरा, पिन- 282002

ई-मेल : [email protected]

मो. :  09411418621

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तेज धूप ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – तेज धूप

 

एसी कमरे में अंगुलियों के

इशारे पर नाचते तापमान में

चेहरे पर लगा लो कितनी ही परतें,

पिघलने लगती है सारी कृत्रिमता

चमकती धूप के साये में,

मैं सूरज की प्रतीक्षा करता हूँ

जिससे भी मिलता हूँ

चौखट के भीतर नहीं

तेज़ धूप में मिलता हूँ।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

7:22 बजे, 25.1.2020

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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