(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है एक सामयिक एवं मार्मिक रचना जिसकी पंक्तियां निश्चित ही आपके नेत्र नम कर देंगी और आपके नेत्रों के समक्ष सजीव चलचित्र का आभास देंगे।)
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(सांख्ययोग का विषय)
न जायते म्रियते वा कदा चिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।20।।
आत्मा शाश्वत ,अज अमर,इसका नहिं अवसान
मरता मात्र शरीर है, हो इतना अवधान।।20।।
भावार्थ : यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।।20।।
He is not born nor does He ever die; after having been, he again ceases not to be unborn, eternal, changeless and ancient. He is not killed when the body is killed. ।।20।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
A glimpse of our flagship program. ‘The Wheel of Happiness and Well-being’ is an activity based, multi dimensional, complete program on the HOW of happiness.
व्यंग्य संकलन – एक रोमांटिक की त्रासदी – डॉ.कुन्दन सिंह परिहार
पुस्तक समीक्षा
डॉ कुन्दन सिंह परिहार
(वरिष्ठ एवं प्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का यह 50 व्यंग्यों रचनाओं का दूसरा व्यंग्य संकलन है। कल हम आपके लिए इस व्यंग्य संकलन की एक विशिष्ट रचना प्रकाशित करेंगे)
डॉ. कुन्दन सिंह परिहार जी को e-abhivyakti की ओर से इस नवीनतम व्यंग्य संकलन के लिए हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई।
पुस्तक समीक्षा
एक रोमांटिक की त्रासदी (व्यंग्य संकलन) लेखक- कुन्दन सिंह परिहार प्रकाशक- उदय पब्लिशिंग हाउस, विशाखापटनम। मूल्य – 650 रु.
‘एक रोमांटिक की त्रासदी’ श्री कुन्दन सिंह परिहार की 50 व्यंग्य रचनाओं का संकलन है।लेखक का यह दूसरा व्यंग्य-संकलन है, यद्यपि इस बीच उनके पाँच कथा-संकलन प्रकाशित हो चुके हैं।संकलन हिन्दी के मूर्धन्य व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई को इन शब्दों के साथ समर्पित है—-‘परसाई जी की स्मृति को, जिन्होंने पढ़ाया तो बहुतों को, लेकिन अँगूठा किसी से नहीं माँगा। ‘ये मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ बार बार आकर्षित करती हैं।
पुस्तक का शीर्षक पहले व्यंग्य ‘एक रोमांटिक की त्रासदी’से अभिप्रेरित है।दिन में जो प्रकृति लुभाती है, आकर्षक लगती है, रात्रि में, यदि हम अभ्यस्त नहीं हैं तो, डरावनी लगती है।एक रात भी शहरी व्यक्ति को गाँव के खेत-खलिहान में काटना पड़े तो उसे नींद नहीं आती।मन भयग्रस्त हो जाता है, जबकि एक ग्रामीण उसी वातावरण में गहरी नींद सोता है।रचना में ग्रामीण और शहरी परिवेश का फर्क दर्शाया गया है।
दूसरी रचना ‘सुदामा के तंदुल’ उन नेताओं पर कटाक्ष है जिनके लिए चुनाव आते ही गरीब की झोपड़ी मंदिर बन जाती है।आज दलित, आदिवासी के घर भोजन राजनीति का ज़रूरी हिस्सा बन गया है।
इसी तरह के 50 पठनीय और प्रासंगिक व्यंग्य संग्रह में हैं।रचनाओं का फलक व्यापक है और इनमें समाज और मानव-मन के दबे-छिपे कोनों तक पहुँचने का प्रयास स्पष्ट है।
संग्रह की रचनाओं में बड़ी विविधता है।विचारों, भावों और कथन में कहीं भी पुनरावृत्ति नहीं है।हर विषय को विस्तार से सिलसिलेवार प्रस्तुत किया गया है।सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर पर्याप्त फोकस है।रचनाओं में किसी विचारधारा या दल की ओर झुकाव दृष्टिगोचर नहीं होता।भाषा की समृद्धता प्रभावित करती है।स्थानीय भाषा और बोली का भी सटीक उपयोग है।
संग्रह में छोटे छोटे प्रसंगों को लेकर व्यंग्य का ताना-बाना बुना गया है।सामान्य जन-जीवन में व्याप्त वैषम्य, विरूपताओं और विसंगतियों को उजागर करने के लिए व्यंग्य सशक्त माध्यम है और इस माध्यम का उपयोग लेखक ने बखूबी किया है।परसाई जी के शब्दों में कहें तो व्यंग्य अन्याय के विरुद्ध लेखक का हथियार बन जाता है।व्यंग्य के विषय में मदन कात्स्यायन का कथन है कि जिस देश में दारिद्र्य की दवा पंचवर्षीय योजना हो वहां के साहित्य का व्यंग्यात्मक होना अनिवार्य विवशता है।
इस संग्रह से पूर्व प्रकाशित परिहार जी के कथा-संग्रहों और व्यंग्य-संग्रह सुधी पाठकों के बीच चर्चित हुए हैं। विश्वास है कि प्रस्तुत संग्रह भी पाठकों के बीच समादृत होगा।
यह एक शाश्वत सत्य है कि जीवन एक पहेली है। आम तौर पर एक व्यक्ति जीवन में कम से कम तीन पीढ़ियाँ अवश्य देखता है। यदि सौभाग्यशाली रहा और ईश्वर ने चाहा तो चार या पाँच पीढ़ी भी ब्याज स्वरूप देख सकता है।
आज मैं आपसे संवाद स्वरूप यह कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ । पढ़ कर प्रतिकृया देंगे तो मुझे बेहद अच्छा लगेगा।
जिंदगी का गणित
वैसे भी
मेरे लिए
गणित हमेशा से
पहेली रही है।
बड़ा ही कमजोर था
बचपन से
जिंदगी के गणित में।
शायद,
जिंदगी गणित की
सहेली रही है ।
फिर,
ब्याज के कई प्रश्न तो
आज तक अनसुलझे हैं।
मस्तिष्क के किसी कोने में
बड़ा ही कठिन प्रश्न-वाक्य है
“मूलधन से ब्याज बड़ा प्यारा होता है!”
इस
‘मूलधन’ और ‘ब्याज’ के सवाल में
‘दर’ कहीं नजर नहीं आता है।
शायद,
इन सबका ‘समय’ ही सहारा होता है।
दिखाई देने लगता है
खेत की मेढ़ पर
खेलता – एक छोटा बच्चा
कहीं काम करते – कुछ पुरुष
पृष्ठभूमि में
काम करती – कुछ स्त्रियाँ
और
एक झुर्रीदार चेहरा
सिर पर फेंटा बांधे
तीखी सर्दी, गर्मी और बारिश में
चलाते हुये हल।
शायद,
उसने भी की होगी कोशिश
फिर भी नहीं सुलझा पाया होगा
इस प्रश्न का हल।
आज तक
समझ नहीं पाया
कि
कब मूलधन से ब्याज हो गया हूँ ?
कब मूलधन से ब्याज हो गया है ?
यह प्रश्न
साधारण ब्याज का है?
या
चक्रवृद्धि ब्याज का है?
मूलधन किस पीढ़ी का है ?
और
उसे ब्याज समेत चुकाएगा कौन?
और
यदि चुकाएगा भी
तो किस दर पर
और
किसके दर पर ?
(श्रीमति सुजाता काले जी का e-abhivyakti में स्वागत है। प्रस्तुत है पर्यावरण एवं मानवीय संवेदनाओं का बेहद सुंदर शब्द चित्रण।)
शहर शहर उजड़ गए,
बाग में बसर नहीं ।
चारों ओर आग है,
कहीं बची झील नहीं ।उजड़ गए हैं घोंसले,
उजड़े हुए हैं दिन कहीं ।
सफ़र तो खैर शुरू हुआ,
पर कहीं शज़र नहीं ।
मासूम से परिंदों का
अब न वासता कहीं,
कौन जिया कौन मरा,
अब कोई खबर नहीं ।
दुबक गए पहाड़ भी,
लुटी सी है नदी कहीं,
ये कौन चित्रकार है,
जिसने भरे न रंग अभी।
शाम हैं रूकी- रूकी,
दिन है बुझा कहीं,
सहर तो रोज होती है,
रात का पता नहीं ।
मंज़िलों की लाश ये,
कर रही तलाश है,
बेखबर सा हुस्न है,
इश्क से जुदा कहीं ।
जहां बनाया या ख़ुदा,
और तूने जुदा किया,
साँस तो रूकी सी है,
आह है जमीन हुई।
लुट चुका जहां मेरा,
अब कोई खुशी नहीं,
राह तो कफ़न की है,
ये साज़ का चमन नहीं ।
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(सांख्ययोग का विषय)
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।।19।।
जो इसको हन्ता या कि, मृत करते अनुमान
न मरती, न मारती, उनका है अज्ञान।।19।।
भावार्थ : जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है।।19।।
He who takes the Self to be the slayer and he who thinks He is slain, neither of them knows; He slays not nor is He slain. ।।19।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
टाइम्स ऑफ इंडिया (जबलपुर संस्कारण) के 19 मार्च 2019 के अंक में समाचार चैनलों की बेवजह/बेमानी बहसों के बीच एक सकारात्मक समाचार पढ़ कर लगा कि भाग दौड़ भरी इस दुनियाँ में अब भी इंसानियत जीवित है। क्यों ऐसे समाचार समुचित स्थान नहीं पाते जो इंसान को इंसान से जोड़ते हों। संक्षिप्त में समाचार कुछ इस प्रकार है :
संयोगवश विश्व किडनी दिवस (14 मार्च 2019) के दिन मुंबई के एक अस्पताल में दो परिवारों के मध्य एक अनुकरणीय किडनी प्रत्यारोपण ऑपरेशन किया गया। ठाणे के एक मुस्लिम परिवार एवं बिहार के एक हिन्दू परिवार में उनके पतियों को किडनी की आवश्यकता थी। उन्होने सर्वप्रथम अपने अपने परिवारों में प्रयास किया किन्तु ब्लड ग्रुप मैच न होने के कारण यह संभव नहीं हो पाया। संयोगवश दोनों परिवार की पत्नियों का ब्लड ग्रुप एवं किडनियाँ एक दूसरे के पतियों से मैच हो रही थी। अतः दोनों परिवार की पत्नियों ने एक दूसरे के पतियों को अपनी किडनियाँ दान देकर न केवल इंसानियत की मिसाल पेश की अपितु एक दूसरे परिवार से आजीवन रक्त संबंध भी बना लिए।
इस अनुकरणीय उदाहरण को आप किस दृष्टि से देखेंगे। हो सकता है कोई साहित्यकार इस पर लघुकथा भी लिख दे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आखिर हम अपने आस पास से अपनी रचनाओं के लिए ऐसे चरित्रों/पात्रों को ही तो तलाशते रहते हैं।
इस संदर्भ में मुझे अपने एक कलाम “जख्मी कलम की वसीयत” की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो आपसे साझा करना चाहूँगा: