आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (47) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन)

संजय उवाच

एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌।

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ।।47।।

 

ऐसा कह अर्जुन गया रथ में निश्चल बैठ

धनुष बाण को फेंककर,मन में दुःख समेट।।47।।

 

भावार्थ :  संजय बोले- रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए।।47।।

 

Having thus spoken in the midst of the battlefield, Arjuna, casting away his bow and arrow, sat down on the seat of the chariot with his mind overwhelmed with sorrow. ।।47।।

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः। ॥1॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – 89 – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

 

Teaching happiness is fulfilling. The content itself – happiness, flow, meaning, love, gratitude, accomplishment, growth, better relationships – constitutes human flourishing. Learning that you can have more of these things is life changing. Glimpsing the vision of a flourishing human future is life changing.
LifeSkills
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore



हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * वात्सल्य * – डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता

वात्सल्य

(डॉ . मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक लघुकथा   ‘वात्सल्य ’)

 

आठ माह पूर्व उसके बेटे कृष्ण का निधन हो गया था।
उसकी मां निरंतर आंसू बहा रही थी, उस बेटे के लिये जो उससे बात नहीं करता था,उसे गालियां देने व उस पर हाथ उठाने से तनिक गुरेज़ नहीं करता था,जिसने कभी अपने घर में कदम नहीं रखने दिया।
यह सब देख कर सपना हैरान थी।वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पायी और उसने उससे पूछ ही लिया…आप किसका मातम मना रही हैं?  वह बेटा…जिसने पिता के देहांत के पश्चात् अपनी विधवा मां की जायदाद हड़प कर रोने-बिलखने को छोड़ दिया और कभी बीमारी में भी  उसका हाल पूछने नहीं आया।
वह बेटा जिसने अपने बच्चों को कभी उससे बात तक नहीं करने दी और उसकी ज़िन्दगी को बद से बदतर बना डाला।
मां ने उस बेटे को कैसे माफ कर दिया… यह समझना उसके वश की बात नहीं थी।

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com




English Literature – Poetry – * When the Night Goes Dark!!! * – Mr Piyush Lokhande

Mr Piyush Lokhande

 

When the Night Goes Dark!!!

 

(e-abhivyakti welcomes Mr Piyush Lokhande.  Mr Piyush is a brilliant young poet and we present his amazing poem When the Night Goes Dark!!!.) 

 

It feels so lonely and fearful when the night goes dark,
Hear the hounds from the distance while they bark.
Embarking on an unending journey, a traveler starts,
Nocturnals coming out from their shades and the moon’s dim arc.

 

The wanderer wanders amidst the dusk so black,
Seeking and searching the purpose of his very existence
Like a lost duck separated from his trustworthy pack.

 

Haunted and bewildered by the wilderness around,
The poor soul’s eyes lit up sighting a hut by the nearby ground.
Topsy and curvy pavements lead onto a ray of hope,
Only to be obstructed by a dim shadow lurking in a bright night cloak.

 

Shimmy gray eyes of an aged damsel inquire the traveler’s intentions,
Food, thirst and a place to rest gain an instinctive ascension.
Touched by the tourist’s sorry state, queen nods hesitantly,
Warm cup of soup and soft cozy blanket renders the feel pleasantly.

 

Invigorated traveler resumes his exhaustive outing,
Passing the wild forests while the sunlight starts crowding.
Such philosophical and profound this life has been,
Clouding judgment from a damsel to the noblest queen.

 

While one prefers to run away from the darkest of shadows 
The other bathes in the rays of faith and hope that follows.

 

© Mr Piyush Lokhande




आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (46) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन)

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।

धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्‌॥

मुझे निशस्त्र ही युद्ध में कौरव डालें मार

तो भी समझूं कुशल,मैं करूं न कोई प्रहार।।46।।

भावार्थ :   यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा।।46।।

 

If the sons of Dhritarashtra, with weapons in hand, should slay me in battle, unresisting

and unarmed, that would be better for me. ।।46।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – 88 – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

When mindfulness of breathing is developed and cultivated, it is of great fruit and great benefit.
LifeSkills
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore



हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * अपराध बोध * – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

अपराध बोध 
रात के सन्नाटे में गुप्ता सर कोचिंग क्लास में  पढ़ाकर अपनी मोटरसाइकिल से घर जा रहे थे । अचानक एक मोड़ पर चार हथियारबंद युवकों ने सामने आकर उन्हें रोक लिया । एक युवक ने उन्हें छुरा पेट में अड़ाते हुए कहा ” जो भी माल हो फौरन निकाल कर दे दो , वरना ……… “
गुप्ता सर ने घबराई हुई आवाज में कुछ कहना चाहा, तभी उन्हें वह लड़का जाना पहचाना लगा । उन्होंने उसे गौर से देखा और आंखों में चमक लाते हुए बोले – ” अरे……… विनोद बेटे तुम……… मुझे पहचाना नहीं, मैं तुम्हारा गुरूजी, तुम्हें मैंने 12 वीं कक्षा में पढ़ाया था………”  विनोद नें बात बीच में ही काटकर गुर्राते हुए कहा ……… “चुप……… अपनी गन्दी जुबान से गुरुजी जैसे पवित्र शब्द मत निकालिये। आप जैसे शिक्षा के व्यापारियों ने वास्तविक गुरूजी के ज्ञान को पीछे धकेल कर शिक्षा का मजाक बनाकर सिर्फ रुपया कमाना अपना उद्देश्य बना लिया है और हम जैसे बेरोजगारों को सही रोजगारी शिक्षा के अभाव में ही अपराध के इस अंधेरे जंगल में भटककर अपना और अपने परिवार का पेट पालना पड़ रहा है । यदि आप जैसे गुरुओं ने शिक्षा को व्यापार न बनाया होता और हमें  सही शिक्षा  प्रदान की होती तो आज देश में हम जैसे अपराधी बेरोजगारों की फौज पैदा न होती ……… । इसके पहले कि हम लोगों का वहशीपन जागे, आप  तत्काल यहां से चले जाइये।”
गुप्ता सर शर्म से सिर झुकाये अपने शिक्षक धर्म के बोझ को ढोते हुए अपराधबोध से ग्रसित घर की ओर बढ़ गये ।
© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002



मराठी साहित्य – मराठी आलेख – * वृद्धाश्रम : जबाबदारीतून पळवाट * – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

वृद्धाश्रम : जबाबदारीतून पळवाट

(प्रस्तुत है  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  का  वर्तमान सामाजिक परिवेश में वयोवृद्ध पीढ़ी पर एक विचारणीय आलेख) 

काळ बदललाय, माणूस बदललाय, जमाना बदललाय. . . नेहमी ऐकतो  आपण. कोणी घडवले हे बदल? माणसानच आपली विचारसरणी बदलली  आणि दोष बदलत्या काळाला देऊन मोकळा झाला. आपण समाजात रहातो. . . समाजाचे देणे लागतो. . .
ही संकल्पना प्रत्येकाने सोइस्कर अर्थ लावून बदलून घेतली. स्वतःची जीवनसंहिता ठरवताना प्रत्येकाने माणसापेक्षा पैशाला  अधिक महत्त्व दिले  अन तिथेच नात्यात परकेपणा आला.
चार पायाच्या प्राण्यांना
हौसेने पाळतात माणसं
दोन पायाच्या  आप्तांना
मोलान सांभाळतात माणसं
हे आजचं वास्तव.  विभक्त कुटुंब पद्धतीतून जन्माला आलेली ही विचार सरणी. आज ”हम दो हमारा  एक”  चा नारा लावणारे सुशिक्षित पाळीव, मुक्या प्राण्यांवर अतोनात भूतदया दाखवतात.  अन जन्मदात्या आईवडिलांना मात्र वृद्धाश्रमाचा रस्ता दाखवतात. मी मी म्हणणारे सुशिक्षित पतीपत्नी दिवसरात्र घराबाहेर रहातात. नवी पिढी सोशल मिडिया नेटवर्किंग मधून स्वतःचे भविष्य साकारताना दिसते.  एकविसाव्या शतकातील घर संवाद साधताना कमी पण वाद घालताना जास्त दिसतात.  वाद वाढले की माणस माणसांना टाळायला लागतात. अशी नात्यातली अंतरेच नात्यात विसंवाद  आणि दरी निर्माण करतात.
आज प्रत्येकाला पैसा हवा आहे. पैशामुळे माणसाला दुय्यम ठरवणारी स्वार्थी विचारसरणी जीवनाचा अविभाज्य भाग बनली आहे.
इथे कोण लेकाचा कुणाची देशसेवा पाहतो
तू मला ओवाळ आता, मी तुला ओवाळतो.
हे ओवाळणं,  एकमेकांची तळी उचलून धरणं या प्रवृत्तीतून माणूस माणसाशी स्पर्धा करतो आहे. आर्थिक दृष्ट्या दुर्बल घटकात  आता ज्येष्ठ नागरिकांचा समावेश होतो हे आपले दुर्दैव म्हणावे लागेल. वास्तल्य, ममत्व या भावनेने ज्येष्ठ,आपल्या  अपत्यांना  आपल्या जवळील आर्थिक धन देऊन टाकतात.  आपला लेक वृद्धापकाळी आपला सांभाळ करील,  आपल्या म्हातारपणाची काठी बनेल या संकल्पना आता कालबाह्य बनू पहात आहेत.
वृद्धाश्रम काळाची गरज हा विचार पुढे आला आणि मग नवीन पिढीला रान मोकळे झाले.
नवीन पिढीला आता संस्कारापेक्षा व्यवहार जास्त महत्वाचा वाटतो. पैसा  असेल तर माणूस ताठ मानेने जगू शकतो हा  अनुभव त्याला  आपल्या माणसात दुरावा निर्माण करायला भाग पाडतो. जुन्या पिढीतील नातवंडे सांभाळणारी जुनी पिढी, त्यांचे विचार,  नव्या पिढीला नकोसे वाटतात.
”पैसा फेको तमाशा देखो ”
हे ब्रीद वाक्य घेऊन नवीन पिढी माणुसकी पेक्षा  मतलबी पणाला प्राधान्य देताना दिसते.
जुन्या पिढीचा स्वभाव दोष हे कारण पुढे करून ज्येष्ठ नागरिकांना वृद्धाश्रमाचा रस्ता दाखवला जातो. पण नवी पिढी स्वतःच्या पायावर उभे करण्यासाठी त्यांनी केलेले कष्ट, जबाबदारी नवी पिढी व्यवहारी दृष्टीने तोलते. आमच पालन पोषण करण त्यांची जबाबदारी होती त्यात जगावेगळे असे काय केले?  अशी मुक्ताफळे  उधळली जातात.  घर  उभे करताना घरातल्या माणसाला  आपलेस करण्याचा संस्कार पैसा नामक द्रव्याने काबीज केल्याने ही वैचारिक दरी निर्माण झाली आहे.  आणि या दरीवर सेतू बंधनाचे कार्य वृद्धाश्रमाने केले आहे.
वृद्धापकाळी हवा  असलेला मायेचा  ओलावा, समदुःखी ,  समवयस्क व्यक्ती कडून मिळाल्यावर  एकटा जीव वृद्धाश्रमात आपोआप रुळतो. स्वतःच दुःख विसरायला शिकतो.  प्रत्येक व्यक्ती  आपला राग  आपल्या व्यक्ती वर किंवा पगारी नोकरावर काढू शकते. .वृद्धाश्रमात या दोन्ही गोष्टी शक्य नसल्याने माणूस नव्याने जगायला शिकतो. स्वतःच्या विश्वात रममाण होण्यासाठी स्वतःच्या भावनांना  आवर घालतो आणि हा नवा घरोबा स्विकारतो.
नवीन पिढीला घडविण्यात  आपण कुठेतरी कमी पडत  आहोत का? याचा विचार करण्याची गरज  आता निर्माण झाली आहे. कारण  आईवडिलांना सांभाळण्याचे दायित्व नाकारून नव्या पिढीने शोधलेली ही पळवाट कुटुंब व्यवस्थेला हानीकारक आहे. आज  आई बापांना वृद्धाश्रमात पाठविण्याचा आदर्श पुढील पिढीने घेतला तर  नातेसंबंध अजूनच मतलबी होतील.
या स्पर्धेच्या युगात स्वतःचा निभाव लागण्यासाठी नव्या पिढीने शोधलेली ही पळवाट नातेसंबंधाला सुरूंग लावणारी आहेच पण त्याच बरोबर दिखाऊ पणाचे समर्थन करणारी आहे.  आज  आई बाबा वृद्धाश्रमात रहातात ही गोष्ट ताठ मानेने सांगितली जावी यासाठी काही समाज कंटक प्रयत्न शील आहेत.  आपण वृद्ध झाल्यावर  आपल्याला सन्मानाने जगता यावे यासाठी शोधलेली वृद्धाश्रमाची पळवाट नात्यातले स्नेहबंध कमी करीत आहे हेच खरे  आहे.
आपण कुणाचा  आदर्श घ्यायचा? कुणाचा आदर्श समोर ठेवायचा?  आपली जबाबदारी ,आपली कर्तव्ये हे सारे जर  आपण  आपल्या  आर्थिक परिस्थितीशी निगडीत केले तर हा गुंता सोडवायला  अतिशय कठीण जाईल.
आपण  आणि आपली जबाबदारी यात जोपर्यंत  ”आई बाबा ‘, यांचा समावेश होत नाही तोपर्यंत ही पळवाट आडवाटेन या समाजव्यवस्थेला ,  कुटुंब व्यवस्थाला दुर्बल करीत रहाणार यात शंका नाही.
मी माणसाचा आहे,  माणूस माझ्या आहे त्याच मन जपणे ही माझी जबाबदारी  आद्य कर्तव्य आहे हे जोपर्यंत नवीन पिढी मान्य करीत नाही तोपर्यंत ही पळवाट अशीच निघत रहाणार.
आपण घडायचं की आपण बिघडायचं हे  आता ज्याचं त्यानचं ठरवायचं.

© विजय यशवंत सातपुते, यशश्री पुणे. 

मोबाईल  9371319798




आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (45) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन)

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥

अरे,अरे,धिक पाप में गहन फँसे हम आज

जो सुख,राज्य के लोभवश लड़ने चला समाज।।45।।

भावार्थ :  हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं।।45।।

 

Alas! We are involved in a great sin in that we are prepared to kill our kinsmen through greed for the pleasures of a kingdom ।।45।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – 87 – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

 

How is mindfulness of breathing developed and cultivated, so that it is of great fruit and great benefit?
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Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore