हिन्दी साहित्य – ☆ ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 3 ☆ गीत ☆ पर्यावरण को चोट ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है पर्यावरण संरक्षण पर एक गीत  “पर्यावरण को चोट”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 3 ☆

☆ कविता/ गीत  – पर्यावरण को चोट ☆

ना काटो,ना काटो, ना काटो सारे
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.
– एक –
पेड़ पौधे  दवाइयों के तुमने काटे,
पीपल, अश्वगंधा  और बरगद सारे.
नीम ,चंदन,तुलसी के पेड़ काट डारे.
धरती की पीर सुनो,ओ काटन हारे.
– दो –
सुन्दर फूलों की बगिया उजारी
चम्पा, गुलाब, गेंदा, और चमेली
जारुल ,पलास और कमल भी उजारे.
धरती की पीर सुनो,ओ काटन हारे.
– तीन –
बांस, बबूल, शीशम, इमली निबुआ,
अमरुद, आम, केला, तरबूज तेन्दुआ,
 पानी न दे पाये, सब मिट गये सारे
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.
– चार –
काट सारे पेड़ दिये, हवा पानी रोक लिये
कहाँ रूके बदरा कहाँ पानी बरसे
उड़ उड़ निकर के विखर गये सारे
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.
– पाँच –
धरती की बोली समझ लो सारे
पेड़ और पौधे फिर से लगाओ रे
छोटे बड़े सभी लग जाओ सारे.
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 7 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 7 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

 

प्रश्न :-  यह तो कपडे के बारे में हुआ। लेकिन यंत्र की बनी तो अनेक चीजें हैं। वे चीजें या तो हमें परदेश से लेनी होंगी या ऐसे यंत्र हमारे देश में दाखिल करने होंगे।

उत्तर:- सचमुच हमारे देव (मूर्तियाँ) भी जर्मनी के यंत्रों से बनकर आते हैं; तो फिर दियासलाई या आलपिन से लेकर कांच के झाड-फानूस की तो बात क्या? मेरा अपना जवाब तो एक ही है। जब ये चीजें यंत्र से नहीं बनती थी तब हिन्दुस्तान क्या करता था? वैसा ही वह आज भी कर सकता है। जब तक हम हाथ से आलपिन नहीं बनायेंगे तब तक हम उसके बिना अपना काम चला लेंगे। झाड-फानूस को आग  लगा देंगे। मिटटी के दिए में तेल डालकर और हमारे खेत में पैदा हुई रुई की बत्ती बनाकर दिया जलाएंगे। ऐसा करने से हमारी आँखे (खराब होने से) बचेंगी, पैसे बचेंगे और हम स्वदेशी रहेंगे, बनेंगे और स्वराज की धूनी जगायेंगे।

यह सारा काम सब लोग एक ही समय में करेंगे या एक ही समय में कुछ लोग यंत्र की सब चीजें छोड़ देंगे, यह संभव नहीं है। लेकिन अगर यह विचार सही होगा, तो हमेशा थोड़ी-थोड़ी चीजें छोड़ते जायेंगे। अगर हम ऐसा करेंगे तो दूसरे लोग भी ऐसा करेंगे। पहले तो यह विचार जड़ पकडे यह जरूरी है; बाद में उसके मुताबिक़ काम होगा। पहले एक आदमी करेगा, फिर दस, फिर सौ- यों नारियल की कहानी की तरह लोग बढ़ते ही जायेंगे। बड़े लोग  जो काम करते हैं उसे छोटे भी करते हैं और करेंगे। समझे तो बात छोटी और सरल है। आपको मुझे और दूसरों  के करने की राह नहीं देखना है। हम तो ज्यों ही समझ ले त्यों ही उसे शुरू कर दें। जो नहीं करेगा वह खोएगा। समझते हुए भी जो नहीं करेगा, वह निरा दम्भी कहलायेगा।

प्रश्न:- ट्रामगाडी और बिजली की बत्ती का क्या होगा?

उत्तर :- यह सवाल आपने बहुत देर से किया। इस सवाल में अब कोई जान नहीं रही। रेल ने अगर हमारा नाश किया है, तो क्या ट्राम नहीं करती? यंत्र तो सांप का ऐसा बिल है, जिसमें एक नहीं सैकड़ों सांप होते हैं। एक के पीछे दूसरा लगा ही रहता है। जहाँ यंत्र होंगे वहाँ बड़े शहर होंगे वहाँ ट्राम गाडी और रेलगाड़ी होगी। वहीं बिजली की बत्ती की जरूरत रहती है। आप जानते होंगे विलायत में भी देहातों में बिजली की बत्ती या ट्राम नहीं है। प्रामाणिक वैद्य और डाक्टर आपको बताएँगे कि जहाँ रेलगाड़ी, ट्रामगाडी वगैरा साधन बढे हैं, वहाँ लोगों की तंदुरुस्ती  गिरी हुई होती है। मुझे याद है कि यूरोप के एक शहर में जब पैसे की तंगी हो गई थी तब ट्रामों, वकीलों, डाक्टरों की आमदनी घट गई थी, लेकिन लोग तंदुरस्त हो गए थे।

यंत्र का गुण तो मुझे एक भी याद नहीं आता, जब कि उसके अवगुणों से मैं पूरी किताब लिख सकता हूँ।

प्रश्न :- यह सारा लिखा हुआ यंत्र की मदद से छापा जाएगा और उसकी मदद से बांटा जाएगा, यह यंत्र का गुण है या अवगुण?

उत्तर :- यह ‘जहर की दवा जहर है’ की मिसाल है। इसमें यंत्र का कोई गुण नहीं है। यंत्र मरते-मरते कह जाता है कि ‘मुझसे बचिए, होशियार रहिये; मुझसे आपको कोई फायदा नहीं होने का।‘ अगर ऐसा कहा जाय कि यंत्र ने इतनी ठीक कोशिश की, तो यह भी उन्ही के लिए लागू होता है, जो यंत्र के जाल में फँसे हुए हैं।

लेकिन मूल बात न भूलियेगा। मन में यह तय कर लेना चाहिए कि यंत्र खराब चीज है। बाद में हम उसका धीरे-धीरे नाश करेंगे। ऐसा कोई सरल रास्ता कुदरत ने बनाया ही नहीं है कि जिस चीज की हमें इच्छा हो वह तुरंत मिल जाय। यंत्र के ऊपर हमारी मीठी नजर के बजाय जहरीली नजर पड़ेगी, तो आखिर वह जाएगा ही।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ हैवानियत – दीवारें, सड़के, पेड़ बोल उठे अब तो सुधर जा इंसान  ☆ – श्री कुमार जितेंद्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(आज प्रस्तुत है  श्री कुमार जितेंद्र जी  का विशेष आलेख “हैवानियत – दीवारें, सड़के, पेड़ बोल उठे अब तो सुधर जा इंसान ”।  इस आलेख के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण का अद्भुत  सन्देश दिया गया   है.

☆हैवानियत – दीवारें, सड़के, पेड़ बोल उठे अब तो सुधर जा इंसान  ☆

 

*हैवानियत* अर्थ पशुओं के समान क्रूर आचरण, अमानवीय व्यवहार जो मानव के मानव होने को कलंकित करे। अगर इसमे पशुओं को हटा दिया जाए तो कितना अच्छा रहेंगा क्योंकि वर्तमान का पशु तो क्रूर आचरण शायद ही कोई करे। ऎसा सुनने में बहुत कम आता है। और अगर सौभाग्य से सुनने को मिल जाता है तो यह बात सुनने को मिलती है कि उस पशु ने उस इंसान की जान बचाई। वर्तमान की परिस्थितिया कुछ और ही बया कर रही है। वर्तमान में मनुष्य ख़ुद अपने ही समाज मनुष्य के लिए हैवानियत बन गया है। प्रतिदिन विभिन्न प्रकार की घटनाएँ सुनने को मिल रही है। जो भविष्य के लिए एक बहुत बड़ा खतरा साबित हो सकता है।

आईए विश्लेषण से समझते हैं *हैवानियत* को.

*दीवारें बोल उठी, अब तो सुधर जा इंसान* – पौराणिक कहावत है कि दीवारों के भी कान होते हैं। मतलब किसी भी बात को दूसरे को गोपनीय तरीके से बताना जिसे अन्य किसी व्यक्ति को पता नहीं चले। परन्तु वर्तमान समय कुछ ऎसी स्थितियां लेकर प्रकट हुआ है। जिससे मुकबधिर, निर्जीव दीवारे भी बोल उठी है…चिल्ला उठी….. बेटी बचाओं, बेटी बचाओं। पेड़ो ने अपनी हवा रोक ली, सूर्य ने तेज किरणें फैला दी फिर भी इंसान सोया हुआ है। जिस इंसान को जाग उठना था, वह इंसान आज रंगीन रंगो में रंगा हुआ है। फिर तो अंतर सामने आ ही गया है निर्जीव और सजीव में। आज उसका विपरीत परिणाम देखने को मिल रहा है। सजीव ख़ुद निर्जीव बनते जा रहे हैं, और निर्जीव इस वक्त सजीव बन चिल्ला रहे हैं। इस समय इस धरा पर दुष्कर्म की घटनाओं ने एक विकराल रूप धारण कर लिया है। धरा अपने आंसुओ को रोक नहीं पा रही है, जब सामने रक्त की धार बहती है। वही दूसरी ओर अख़बारों के पन्नो को पलटते ही दुष्कर्म की एक वारदात दिखाई पड़ती है, उसे ठीक से पूरा पढ़ ही नहीं पाते हैं। की टेलीविजन या सोशल मीडिया के माध्यम से दूसरी घटना घटित हो जाती है।  अपराधी बिना डर के अपराध को अंजाम दे रहे हैं। धन्य हो मनुष्य…. सड़को के चौराहे पर मोमबतिया जला के अख़बारों के पहले पन्ने पर आ जाते हैं। पर उन दीवारों की चीख, पुकार… बेटी बचाओं, बेटी बचाओं… कौन सुनेंगा। क्या अखबारों के पहले पन्ने पर मोमबतिया लेकर पंक्तिबद्ध खड़े रहने से… बेटी बचा पाओंगे? क्या एक – दूसरे पर आरोप लगाने से अपराध कम हो जाएंगे? अनगिनत प्रश्न सामने खड़े है। इंसान मूक बधिर क्यू हो गया है। हे! मनुष्य तू क्या से…. क्या हो गया है। इतना स्वार्थी जिसका आंकलन करना नामुमकिन है। जिस कोख में पला – बढ़ा… जिस कोख ने तुम्हारी पल – पल रक्षा की… आज तू उसका ही बदला ले रहा है। हे! मनुष्य तेरा अंत निश्चित है फिर भी तुझे डर नहीं। थोड़ा संभल जहां वक्त पे…. अन्यथा बह जाएंगा नदी की धार में।…. दीवारें बोल उठी… चीख उठी…. पुकार रही है… बेटी बचाओं, बेटी बचाओं।.

*फर्क’… इंसान और पशु में कितना फर्क है*….

यह ख़ुद इंसान ने साबित कर दिया है….ऎसा तो कभी इंसान के बारे में पशु ने सोचा तक भी नहीं था। उदाहरण देख ही लीजिए……. एक बेजुबान जीव, तेज गर्मी के मौसम में सड़क के किनारे पर मृत अवस्था में पड़ा हुआ था। धरा रक्त से रंगीन हो गई थी, लग रहा था किसी ने टक्कर मार गिरा दिया है। पास से होकर दुनिया के रईस लोगो की बड़ी गाड़ियां गुजर रही है, किसी का ध्यान उस मृत बॉडी की तरफ नहीं गया क्योकि वह बॉडी जब जिंदा थी तब बोल नहीं सकी..और…… न दुनिया छोड़ देने के बाद… उसके कोई परिवार वाले है जो उसकी पैरवी कर सके…. जहां है वही है… सुरज भी अपनी किरणो को समेटे हुए शाम की आंचल में छिप गया। धीरे – धीरे… धरा पर लालीमा चाहने वाली….सड़क के आँसू बह रहे थे। बार बार उस पशु को देखते हुए…क्या यह मेरी ही कोख में समा गया……..अगर उस पशु की जगह कोई इंसान होता तो… न.. जाने अब तक उस हाइवे पर.. भीड़ जमा हो गई होती।   न जाने कितने बड़े बड़े बोलने वाले … चिल्लाते हुए नजर आते… कितनी जांच एजेंसियों ने हाइवे को घेर लिया होता… पता नहीं कितने फैसले लिए होते.. पर इस जीव के कोई सामने तक नहीं देख रहा है। रोजाना ऎसे पशु मौत के घाट उतार दिया दिए जाते हैं सड़को पर.. फिर उनकी कोई देखभाल तो दूर सामने तक नहीं देख पाते हैं। ….इंसान रंगीन रंगो में रंगा हुआ पास से गुजर रहा है.l  क्या मनुष्य और जानवर में इतना बड़ा फर्क… जबकि जानवर तो मनुष्य के किसी न किसी रूप में जरूर सहयोग दिया है। जितने पशु मनुष्यों के उपयोगी है उतने तो इंसान भी आज पशुओं की देखभाल नहीं कर रहे हैं। वर्तमान स्थिति में देखा जाए सड़को के इर्दगिर्द व चौराहे के मार्ग पर बहुत सारे बेजुबान जीव विचरण  करते हुए नजर आते हैं। पर उनकी तरफ देखने वाला कोई नहीं है। केवल बड़ी बड़ी बाते करने के लिए सोशल नेटवर्किंग पर व्याख्यान देते नजर आते हैं। वास्तविक धरातल पर मनुष्य आज जीव जंतुओं के लिए समय नहीं दे रहा है। मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति करने में लगा हुआ है। हें! प्राणी….. समय रहते तुम्हें बदलना होगा…. पशु को अपना परिवार मानना होगा…. उसका जीवन भर साथ देना होगा…. तभी तुम्हारा जीवन सार्थक होगा…

*खुद के विकास से – पेड़ो का कत्ल*….क्या यह भी हैवानियत से कम है…. कुछ वक्त पहले एक रास्ते से गुजरने दौरान दौड पड़ी नजर कटे हुए वृक्षों पर……. और कुछ पल सोचने को मजबूर कर दिया……. पेड़ है, तो यही जाना कि वह रहेगा नहीं……. सुनने में भले ही अजीब लगे… पर यह हकीकत है…. जो निस्वार्थ मनुष्य के जीवन को जिंदा बनाए रख रहे हैं…निःशुल्क ऑक्सिजन उपलब्‍ध करा रहे हैं… जहरीली गैसों को ग्रहण कर रहे हैं… फिर भी आज वही मनुष्य अपने खुद के विकास के लिए…खुद के जीवन के लिए उन पेड़ो का जीवन समाप्‍त कर रहे हैं…. क्या दोष उन पेड़ो का…. जो अपनी युवा अवस्था में ही जिंदगी खो रहे हैं। उन्हें न पता था कि इस जगह जन्म लेने से अपनी जिंदगी युवा अवस्था में ही चली जाएंगी।….. जब किसी मनुष्य की दुर्घटना होती है तो पता नहीं कितना बवाल खड़ा कर देता…..विभिन्न प्रकार की जांच की मांग कर देता है…. न जाने कितने तरीको का इस्तेमाल कर लेता है…. पर आज इन बेजुबान पेड़ो पर जब तीव्र गति से जे सी बी दौड पड़ती है…. एक पल में जिंदगी समाप्‍त कर दी जाती है…. मनुष्य देख रहे यह सब… फिर वह कुछ नहीं कर पाता… पेड़ बेचारे निःशब्द है… एक तरफा पेड़ लगा रहे हैं… दूसरी तरफ युवा पेड़ो की जिंदगी दाँव पर लगी है..

  *आओ मिलकर हैवानियत का संधि विच्छेद कर एक अच्छा प्रण ले* आओ इस धरा पर जहर रूपी फैल रहा शब्द हैवानियत का संधि विच्छेद कर उसमे से *हैवा* को अलग कर देते हैं। और अपने आसपास के वातावरण में अच्छी *नियत* को प्रकाशमान करे। ताकि भविष्य के लिए अच्छी नियत वाले मनुष्य के बीच रहने का सौभाग्य मिले। हें! प्राणी मनुष्य जीवन बड़ा अनमोल है, इस अनमोल रत्न को अनमोल ही रहने दें।.

 

©  कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (16) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( भक्ति योग का विषय )

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ।।16।।

ब्रम्ह लोक इत्यादि से आना होता लौट

किंतु मुझे पा फिर कभी जन्म नहीं न सोच।।16।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! ब्रह्मलोकपर्यंत सब लोक पुनरावर्ती हैं, परन्तु हे कुन्तीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित होने से अनित्य हैं।।16।।

 

(All) the worlds, including the world of Brahma, are subject to return again, O Arjuna! But he who reaches me, O son of Kunti, has no rebirth!।।16।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 20 ☆ विसाल ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “विसाल”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 20 ☆

☆ विसाल

ज़ाफ़रानी* शामों में

मैं जब भी घूमा करती थी

नीली नदी के किनारे,

नज़र पड़ ही जाती थी

उस बेक़रार से दरख़्त पर

और उस कभी न मानने वाली

बेल पर!

 

आज अचानक देखा

कि पहुँचने लगी है वो बेल

उस नीली नदी किनारे खड़े

अमलतास के

उम्मीद भरे पीले दरख़्त पर,

एहसास की धारा बनकर|

 

शायद

वो खामोश रहती होगी,

पर अपनी चौकन्नी आँखों से

देखती रहती होगी

उस दरख़्त के ज़हन के उतार-चढ़ाव,

महसूस किया करती होगी

उस दरख़्त की बेताबी,

समझती होगी

उस दरख़्त की बेइंतेहा मुहब्बत को…

 

एक दिन

बेल के जिगर में भी

तलातुम** आना ही था,

और आज की शाम वो

अब बिना किसी बंदिश के

बह चली है

एहसास की धारा बनकर

विसाल*** के लिए!

 

*ज़ाफ़रानी = saffron

**तलातुम = waves

***विसाल = to meet

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्त्रीत्व ☆ श्री संजय भारद्वाज

 

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  स्त्रीत्व

 

उन आँखों में

बसी है स्त्री देह,

देह नहीं, सिर्फ

कुछ अंग विशेष,

अंग विशेष भी नहीं

केवल मादा चिरायंध,

सोचता हूँ काश,

इन आँखों में कभी

बस सके स्त्री देह..,

केवल देह नहीं

स्त्रीत्व का सौरभ,

केवल सौरभ नहीं

अपितु स्त्रीत्व

अपनी समग्रता के साथ,

फिर सोचता हूँ

समग्रता बसाने के लिए

उन आँखों का व्यास

भी तो बड़ा होना चाहिए!

 

समाज की आँख का व्यास बढ़ाने की मुहिम का हिस्सा बनें। आपका दिन सार्थक हो।

 

संजय भारद्वाज
[email protected]

प्रात: 9.24 बजे, 5.12.19

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ पैबंद ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक शिक्षाप्रद एवं प्रेरक लघुकथा पैबंद)

 

लघुकथा – पैबंद  ☆

 

बरात बिदा हुई। रोती रोती नई दुल्हन श्यामा कब नींद में खो  गई पता ही नहीं चला।

एकाएक नींद खुली,  पता लगा बरात ससुराल  द्वारे पहुंच चुकी है। परछन के लिए सासु माँ दरवाजे पर आ खडी हुईं। ज्यों ही हाथ उठाया बहू को परछन कर  टीका लगाने के लिए—कि ब्लाउज की  बाँह के पास पैबंद दिखाई पड़ा नई बहू को।

कठोर पुरातनपंथी दादी सास और  माँ के पुछल्ले लल्ला–अपने ससुर जी के बारे में बहुत सुन रखा था आने वाली बहू ने। उसी समय मन ही मन संकल्प लिया कि बस  अब पैबंद और नहीं, कभी नहीं । आज सासु माँ नये कपड़ों में – परछन की नई साड़ी नये बलाउज में मेरी अगवानी करेंगी और आगे से पैबंद कभी नहीं !

– – – और अगली सुबह रिश्तेदारों ने देखा कि एक नहीं दो दो नई नई बहुएं नजर आ रहीं हैं घर में— सासजी भी कितने वर्षों में आज पहली बार बहू जैसी सजी सँवरी हैं और – – दादी सासु माँ के लाडले लल्ला नई बहू के महाकंजूस  ससुरजी—एक कोने में उखड़े उखड़े से बैठे हैं और अपनी पूजनीय माताजी से  बतरस का आनंद ले रहे हैं।

पास खड़ी – – दूल्हा भाई से छोटी चार  ननदें कृतज्ञ नजरों से  ही मानों भाभी की आरती उतार रहीं हैं और भविष्य उनका भी सुधर गया है वे सभी  आश्वस्त हैं।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #27 – वासनांचे कोपरे ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  सामयिक कविता  “वासनांचे कोपरे”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 27 ☆

 

☆ वासनांचे कोपरे ☆

 

केवढे हे कौर्य घडते रोज येथे बाप रे

मी मुलीचा बाप आहे येत नाही झोप रे

 

पावसाळा गाळ सारा घेउनी गेला जरी

स्वच्छ नाही होत यांच्या वासनांचे कोपरे

 

जाळण्या कचऱ्यास बंदी जाळती नारीस हे

वृत्तपत्रे छापतांना अक्षरांना कापरे

 

फलक हे निर्जीव त्यांच्या चेहऱ्यावर वेदना

झुंडशाहीला कुठे या कायद्याचा चाप रे

 

घोषणा अन् मागण्यांचे हे निखारे चालले

राजभवनाच्या पुढे हे घेत नाही झेप रे

 

येउद्या शिवराज्य येथे वा शरीयत कायदा

शीर वा हे हात तोडा थांबवा हे पाप रे

 

या सुया देतात जखमा आणि फिरती मोकळ्या

जन्मभर नाही मिळाला या कळ्यांना लेप रे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 16 ☆ कर्मभूमि के लिए बलिदान ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  प्रो सी बी श्रीवास्तव जी की प्रसिद्ध पुस्तक “कर्म भूमि के लिये बलिदानपर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.  यह किताब ८ रोचक बाल कथाओ का संग्रह है। श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 16 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – कर्म भूमि के लिये बलिदान  

पुस्तक – कर्म भूमि के लिये बलिदान

लेखक – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध

मूल्य –  30 रु

प्रकाशक –  बी एल एण्टरप्राईज जयपुर
ISBN 978-81-905446-1-0

 

☆ कर्म भूमि के लिये बलिदान – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

बच्चो के चरित्र निर्माण में अच्छे बाल साहित्य की भूमिका निर्विवाद है.  बाल कवितायें जहां जीवन पर्यंत स्मरण में रहती हैं व किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पथ प्रदर्शन करती हैं वहीं बचपन में पढ़ी गई कहानियां अवचेतन में ही व्यक्तित्व बनाती हैं. बाल कथा के नायक बच्चे के संस्कार गढ़ते हैं.  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ‘एक शिक्षा शास्त्री व बाल मनोविज्ञान के जानकार विद्वान मनीषी हैं. उनकी यह किताब ८ रोचक बाल कथाओ का संग्रह है.

नन्हें बच्चो के मानसिक धरातल पर उतरकर उन्होंने सरल शब्द शैली में कहानियां कही हैं.  बच्चे ही नही बड़े भी इन्हें पढ़ते हैं तो  पूरी कहानी पढ़कर ही उठ पाते हैं. कारगिल युद्ध के अमर शहीद हेमसिंह की शहादत की कहानी कर्मभूमि के लिये बलिदान के आधार पर पुस्तक का नाम दिया गया है. सभी कहानियां सचित्र प्रस्तुत की गई हैं. पुस्तक विशेष रूप से बच्चो के लिये पठनीय व संग्रहणीय है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 27 – प्रेम ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावप्रवण लघुकथा  “ प्रेम ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 27 ☆

☆ लघुकथा – प्रेम ☆

 

रेल की पटरियों के किनारे, स्टेशन के प्लेटफार्म से थोड़ी दूर, ट्रेन को आते जाते  देखना रोज ही, मधुबनी का काम था। रूप यौवन से भरपूर, जो भी देखता  उसे मंत्रमुग्ध हो जाता था। कभी बालों को लहराते, कभी गगरी उठाए पानी ले जाते। धीरे-धीरे वह भी समझने लगी कि उसे हजारों आंखें देखती है। परंतु सोचती ट्रेन में बैठे मुसाफिर का आना जाना तो रोज है। कोई ट्रेन मेरे लिए क्यों रुकेगी।

एक मालगाड़ी अक्सर कोयला लेकर वहां से निकलती। कोयला उठाने के लिए सभी दौड़ लगाते थे। उसका ड्राइवर जानबूझकर गाड़ी वहां पर धीमी गति से करता या फिर मधुबनी को रोज देखते हुए निकलता था। मधुबनी को उसका देखना अच्छा लगता था। परंतु कभी कल्पना करना भी उसके लिए चांद सितारों वाली बात थी।

एक दिन उस मालगाड़ी से कुछ सज्जन पुरुष- महिला उतरे और मधुबनी के घर की ओर आने लगे। साथ में ड्राइवर साहब भी थे। सभी लोग पगडंडी से चलते मधुबनी के घर पहुंचे और एक सज्जन जो ड्राइवर के पिताजी थे। उन्होंने मधुबनी के माता पिता से कहा – हमारा बेटा सतीश मधुबनी को बहुत प्यार करता है। उससे शादी करना चाहता है क्या आप अपनी बिटिया देना चाहेंगे। सभी आश्चर्य में थे, परंतु मधुबनी बहुत खुश थी और उसका प्रेम, इंतजार सभी जीत गया। सोचने लगी आज आंखों के प्रेम ने ज़िन्दगी की चलती ट्रेन को भी कुछ क्षण रोक लिया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares