ह्या एकांताचं आणि स्वमग्न मनाचं अगदी गाढ नातं आहे. एकांताच्या रूपात अवतरलेला आरसेमहाल आणि स्वमग्न मनाच्या प्रतिबिंबीत झालेल्या असंख्य छबी ..मोठं विलोभनीय दृष्य असतं ते. प्रत्येकच छबी स्वत:चं असं खास रुप घेऊन आलेली. कधी ती मैत्रिणींबरोबर भातुकलीत रमलेली असते, तर कधी अंगणातल्या ठिक्करबिल्ल्याच्या खेळात रमलेली, तर कधी शाळेच्या बाकावर बसून कवितेच्या जगात रममाण झालेली , तर कधी टारझनबरोबर आफ्रिकेच्या दाट जंगलात हरवलेली तर कधी श्रावणात झाडाला बांधलेल्या झोक्यावर बसून आकाशाशी स्पर्धा करत ऊंच ऊंच झोके घेणारी !
मध्येच एखादी छबी डोकावते डोळ्यात भरारीचं स्वप्न जागवणारी, तिचं तिचं आकाश शोधणारी, शोधलेल्या आकाशात जोडीदाराला सामावून घेणारी आणि नव्या जोमाने जणू इंद्रधनूच्या शोधात निघालेली ही छबी फारच लोभस भासते. तिच्या डोळ्यातील चमक बरंच काही बोलून जाते. तिच्या चेहऱ्यावरचे तृप्त भाव सुखाचा मूलमंत्रच जणू सांगू बघतात ..
आणि …अचानकच तिच्या अवती भवती वेगवेगळे भेसूर चेहरे डोकवायला लागतात …नको असलेले क्षण आणि त्यांनी व्यापलेले ठाण मांडून बसलेले त्या त्या घेरलेल्या क्षणांचे भेसूर चेहरे ..कितीही ठरवलं तरी ढवळून निघालेल्या तळातून सारं बाहेर येणारच ना ..आरसेमहालच तो, येणारी छबी लपून राहणार का …ती तर प्रतिबिंबीत होणारच..आणि एकांताच्या रूपातला तो आरसेमहाल एकदमच अंगावर येऊ बघतो, पण ….हीच वेळ असते स्वमग्न मनाला सावरायची, आधार द्यायची, फक्त आणि फक्त सुंदर तेच बघायला शिकवण्याची ! एकांताशी सुरेल नातं जोडायला शिकवण्याची !
नको असलेल्या कटू आठवणींचं ओझं किती वाहायचं, बोचकं बांधून भिरकावता आलंच पाहिजे आणि हिंमत करून एकदा भिरकावल्यावर, मागे वळून वळून त्या बोचक्याकडे कटाक्ष टाकणं, पुन: त्याला काखोटीला मारणं तर केवळ आत्मघातकीच !
एकांत आणि एकांतातलं स्वमग्न मन ह्यांच्यात सुसंवाद साधता यायला हवाच !
एकांतातल्या ह्या आरसेमहालातले स्वमग्न मनाचे चेहरे कायम उजळ हवेत, हंसरे हवेत, प्रसन्न हवेत ! सगळ्या उजळ चेहऱ्यांनी हा आरसेमहाल कायम लखलखताच दिसायला हवा !!
(e-abhivyakti में डॉ प्रदीप शशांक जी का स्वागत है।)
उत्कर्ष की अवांछनीय हरकतें दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थीं । गलत दोस्तों की संगत में रहकर वह पूरी तरह बिगड़ चुका था । उत्कर्ष की हरकतों से वह बहुत परेशान रहती थी । वह उसे बहुत समझाने की कोशिश करती किन्तु उत्कर्ष के कानों में जूं तक न रेंगती ।
उत्कर्ष के पिता की मृत्यु के पश्चात उसने यह सोचकर अपने आप को संभाला था कि अब उसका 24 वर्षीय पुत्र ही उसके बुढ़ापे का सहारा बनेगा , किन्तु वह सहारा बनने की जगह उसके शेष जीवन में दुखों का पहाड़ खड़ा करता जा रहा था ।
जुआ ,सट्टा एवं शराब की बढ़ती लत के कारण आये दिन घर पर उधार वसूलने आने वालों से वह बेहद परेशान हो गई थी । आखिर उसने उत्कर्ष के व्यवहार से परेशान होकर अपने ह्रदय को कड़ा करते हुए एक कठोर निर्णय लिया ।
कुछ दिन बाद समाचार पत्रों में आम सूचना प्रकाशित हुई ——- मैं श्रीमती शोभना पति स्व. श्री मयंक, अपने पुत्र उत्कर्ष के आचरण, दुर्व्यवहार एवं अवगुणों से व्यथित होकर अपनी समस्त चल अचल संपत्ति से उसे बेदखल करती हूँ । अगर भविष्य में उसके द्वारा किसी भी व्यक्ति / संस्था से कोई भी सम्पत्ति सम्बन्धी, उधार सम्बन्धी या अन्य लेनदेन किया जाता है तो वह स्वयं उसका देनदार होगा —– ।
उसके चेहरे पर विषाद पूर्ण संतोष का भाव था तथा उसे विश्वास था कि समाज उसके पुत्र की करतूतों को जानकर उसे कुमाता नहीं समझेगा ।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(गणतन्त्र दिवस पर सब बापू के भोंपू बजाने की तैयारी में हैं। प्रख्यात व्यंग्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी इसे कैसे देखते हैं बांचिये)
शहर के मुख्य चौराहे पर बापू का बुत है, उसके ठीक सामने, मूगंफली, उबले चने, अंडे वालों के ठेले लगते हैं और इन ठेलों के सामने सड़क के दूसरे किनारे पर, लोहे की सलाखों में बंद एक दुकान है, दुकान में रंग-बिरंगी शीशीयां सजी हैं. लाइट का डेकोरम है,अर्धनग्न तस्वीरों के पोस्टर लगे है, दुकान के ऊपर आधा लाल आधा हरा एक साइन बोर्ड लगा है- “विदेशी शराब की सरकारी दुकान”। इस बोर्ड को आजादी के बाद से हर बरस, नया ठेका मिलते ही, नया ठेकेदार नये रंग-पेंट में लिखवाकर, तरीके से लगवा देता है। आम नागरिकों को विदेशी शराब की सरकारी दूकान से निखालिस मेड इन इंडिया, देसी माल भारी टैक्स वगैरह के साथ सरे आम देर रात तक पूरी तरह नगद लेनदेन से बेचा जाता है. यह दुकान सरकारी राजस्व कोष की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। प्रतिवर्ष जन कल्याण के बजट के लिये जो मदद सरकार जुटाती है, उसका बड़ा भाग शहर-शहर फैली ऐसी ही दुकानों से एकत्रित होता है। सरकार में एक अदद आबकारी विभाग इन विदेशी शराब की देसी दुकानों के लिये चलाया जा रहा लोकप्रिय विभाग है। विभाग के मंत्री जी हैं, जिला अधिकारी हैं, सचिव है और इंस्पेक्टर वगैरह भी है। शराब के ठेकेदार है। शराब के अभिजात्य माननीय उपभोक्ता आदि हैं। गांधी जी का बुत गवाह है, देर रात तक, सप्ताह में सातों दिन, दुकान में रौनक बनी रहती है। सारा व्यवसाय नगद गांधी जी की फोटू वाले नोटो से ही होता है। शासन को अन्य कार्यक्रम ऋण बांटकर, सब्सडी देकर चलाने पड़ते है। सर्वहारा वर्ग के मूंगफली, अंडे और चने के ठेले भी इस दुकान के सहारे ही चलते है। “मंदिर-मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला” हरिवंशराय बच्चन जी की मधुशाला के प्याले का मधुरस यही है। इस मधुरस पर क्या टैक्स होगा, यह राजनैतिक पार्टियों का चंदा तय करने का प्रमुख सूत्र है। गांधी जी ने जाने क्यों इतने लाभदायक व्यवसाय को कभी समझा नहीं, और शराबबंदी, जैसी हरकतें करते रहे। आज उनके अनुयायियी कितनी विद्वता से हर गांव, हर चौराहे पर, विदेशी शराब का देसी धंधा कर रहे हैं। गांधी जी का बुत अनजान राहगीर को पता बताने के काम भी आता है , गुगल मैप और हर हाथ में एंड्राइड फोन आ जाने से यह प्रवृत्ति कुछ कम हुई है, पर अब गांधी जी गूगल का डूडल बन रहे हैं।
राष्ट्रपिता को कोई कभी भी न भूले इसलिये हर लेन देन की हरी नीली, गुलाबी मुद्रा पर उनके चित्र छपवा दिये गये हैं. ये और बात है कि प्रायः ये हरी नीली गुलाबी मुद्रा बड़े लोगो के पास पहुंचते पहुंचते जाने कैसे बिना रंग बदले काली हो जाती है. हर भला बुरा काम रुपयो के बगैर संभव नही, तो रुपयो में प्रिंटेड बापू देश के विकास में इस जेब से उस जेब का निरंतर अनथक सफर कर रहे हैं। वो तो भला हो मोदी जी का जिसने बापू की इस भागम भाग को किंचित विश्राम दिया, रातो रात बापू के करोड़ो को बंडलो के बंडल बंद कर दिया. फिर डिजिटल ट्रांस्फर की ऐसी जुगत निकाली कि अब कौन बनेगा करोड़पति में हर रात अमिताभ बच्चन पल भर में करोड़ो डिजिटली ट्रांस्फर करते दिखते हैं, बिना गांधी जी को दौड़ाये गांधी जी इस खाते से उस खाते में दौड़ रहे हैं।
बापू की रंगीन फोटू हर मंत्री और बड़े अधिकारी की कुर्सी के पीछे दीवार पर लटकी हुई है, जाने क्यो मुझे यह बेबस फोटो ऐसी लगती है जैसे सलीब पर लटके ईसा मसीह हों, और वे कह रहे हो, हे राम ! इन्हें माफ करना ये नही जानते कि ये क्या कर रहे हैं।
बापू की समाधि केवल एक है। वह भी दिल्ली में यमुना तीरे. यह राजनेताओ के अनशन करने, शपथ लेने, रूठने मनाने, विदेशी मेहमानो को घुमाने और जलती अखण्ड ज्योति के दर्शनों के काम आती है। लाल किले की प्राचीर से भाषण देने जाने से पहले हर महान नेता अपनी आत्मा की रिचार्जिंग के लिये पूरे काफिले के साथ यहां आता है। अंजुरी भर गुलाब के फूलो की पंखुड़ियां चढ़ाता है और बदले में बापू उसे बड़ी घोषणा करने की ताकत दे देते हैं।
बापू से जुड़े सारे स्थल नये भारत के नये पर्यटन स्थल बना दिये गये हैं। सेवाग्राम, वर्धा,वगैरह स्थलो पर देसी विदेशी मेहमानो की सरकारी असरकारी मेहमान नवाजी होती है। इस पर्यटन का प्रभाव यह होता है कि कभी कोई बुलेट ट्रेन दे जाता है, तो कभी परमाणु ईधन की कोई डील हो पाये ऐसा माहौल बन जाता है।
इन दिनो बापू को हाईजैक करने के जोरदार अभियान हो रहे हैं. कांग्रेस बेबस रह गई और मोदी जी ने गांधी जी से उनकी सफाई की जिम्मेदारी ही छीन ली. वह भी उनके जन्म दिन पर, उन्होने सारे देशवासियो पर यह जिम्मेदारी ट्रांस्फर कर दी है। अब देश में मार्डन साफ सफाई दिखने लगी है। हरे नीले पीले कचरे के डिब्बे जगह जगह रखे दिखते हैं। वैक्यूम क्लीनर से हवाई अड्डो और रेल्वे स्टेशनो पर वर्दी पहने कर्मचारी साफ सफाई करते दिखते हैं। थियेटर, माल वगैरह में पेशाब घर में तीखी बद्बू की जगह डी-ओडरेंट की खुश्बू आती है। कचरा खरीदा जा रहा है और उससे महंगी बिजली बनाई जा रही है। ये और बात है कि गांधी जी के बुत पर जमी धूल नियमित रूप से हटाने और उन पर बैठे कबूतरो को उड़ाने के टेंडर अब तक किसी नगर पालिका ने नही किये हैं।
बापू का एक और शाश्वत उपयोग है, जिस पर केवल बुद्धिजीवीयो का एकाधिकार है। गांधी भाषण माला, पुरस्कार व सम्मान, गांधी जयंती, पुण्यतिथी या अन्य देश प्रेम के मौको पर गांधी पर, उनके सिद्धांतो पर किताब छापी जा सकती है, जो बिके न बिके पढ़ी जाये या नही पर उसे सरकारी खरीद कर पुस्तकालयो में भेजा जाना सुनिश्चित होता है। गांधी जी, बच्चो के निबंध लिखने के काम भी आते हैं और जो बच्चा उनके सत्य के प्रयोगो व अहिंसा के सिद्धांतो के साथ ही तीन बंदरो की कहानी सही सही समझ समझा लेता है उसे भरपूर नम्बर देने में मास्साब को कोई कठिनाई नही होती। फिल्म जगत भी जब तब गांधी जी को बाक्स आफिस पर इनकैश कर लेता है, कभी “मुन्ना भाई” बनाकर तो कभी “गांधी” बनाकर। जब जब देश के विकास के शिलान्यास, उद्घाटन होते हैं लाउडस्पीकर चिल्लाता है “साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल, दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना भाल।”
सच है ! गांधी से पहले, गांधी के बाद, पर हमेशा गांधी के साथ देश प्रगति पथ पर अग्रसर है। गुजरे हुये बापू भी देश के विकास में पूरे सवा लाख के हैं !
Everyone lives. But life becomes a pleasant journey if you come across something that is called love. Love is not only about romance. It is something more than that. The feeling of love and affection can arise from your child, from your parents, from your colleagues and from your friends. Only if life were easy! Life is the most complicated thing one ever comes across. Life is all about relationships, which never follow a mathematical or geometrical pattern. Sometimes, the one who you felt loved you, turns out to be a traitor. And love may come from the most unexpected corner. It is these twists and turns that make the twenty-one stories in this book.
Excerpts from the book –Casket of Stories
Three days later, Raju and his parents turned up at the clinic. But, my eyes were searching Rajni. I wondered why she had not come. In fact, it was due to her that I had opened an NGO to take care of kids like her. Children who suffered since their parents could not afford the medicines and insulin. Especially, the girls who suffered since the poor would rather let their daughters die than spent so much money on them. My web page had her photo at the top. I had tied-up with many Doctors whom I had met at London for funding. I was eagerly looking forward for my project.
My thoughts were suddenly interrupted by a phone call on my mobile. At London, Dr Julia had shown a lot of interest in getting a project funded for the girl children diagnosed with juvenile diabetes in India. Back to my native place, I had made full project details and mailed her. She had called up to confirm the sponsorship.
Happily, I glanced at Raju. He looked quite energetic. I was jubilant to see his progress. After his examination, his father asked me to give them Rajni’s quota of medicines. He defended himself, “Rajni is studying hard for exams and hence she could not come with us to see you. She has sent lots of love to you. You know, Doctor Sahib, she prays for you daily. May you always prosper. Can you please hand over her medicines? We will surely get her next time.”
I was about to oblige. But tears struggling to come out of Radha’s eyes made me ponder. I said sternly, “No, I will give you only when she comes here.”
Radha’s tears finally scuffled out and she burbled, “Rajni is dead!”
वर्तमान समय विज्ञान का युग है। भौतिकवाद विश्व में परिव्याप्त है। विज्ञान ने छोटे बड़े विभिन्न यंत्रो और उनके सहयोग से नये-नये उत्पादों को गति दी है बहुमुखी विकास ने प्रखर बाजारवाद को जन्म दिया है। मानव की वृत्ति और रूचि में विकार हो गया है। धन अर्जन और उसके संग्रह तथा संवर्धन की मनोवृत्ति विकसित हुई है। धन का महत्व और प्रभाव बहुत बढ़ गया है पर दुर्भाग्य है कि इसी के परिणाम स्वरूप समाज का चारित्रिक पतन हुआ है। नौतिक मूल्यों का निरंतर ह्नास हो रहा है। धर्म निरपेक्ष राजनीति ने धर्म की उपेक्षा की है अतः धार्मिक भावना पर आघात हुआ हैं मन असंयमित और उच्छृंखल हो गया हैं। नई पीढ़ी के आचरण में पुराना धार्मिक भाव दिखाई नहीं देता । भड़कीले दिखावों की वृद्धि हुई है। सारा वातावरण बदला-बदला है। प्रेम, सहायोग, सद्भाव सहानुभूति, उदारता, ईमानदारी और कर्म निष्ठा के मूल्यवान मानवीय मूल्यों की आभा कम हुई है। स्वार्थ परता बढ़ी है। आर्थिक विषमता और वर्ग भेद को बढ़ावा मिला है। सारा विकास धन मूलक एवं एकांगी दिखता हैं परिस्थितियों में का बारीक विश्लेषण तो यही बताता है कि समाज में असमानता असंवेदनशीलता और असहयोग की भावना ने बढ़ती हुई भौतिक सुविधाओं के बीच भी, दुख और दैन्य को कम नहीं किया हैं उल्टे मानसिक वेदनायें बढ़ाई हंै और वे गुण जो यक्ति को व्यक्ति से जोड़ते है उनका सामयिक विकास नहीं हो पा रहा है। धार्मिक विचार जो मन में मृदुता और उदारता घोलते है, उनका घर परिवार में बड़े-बूढ़ों से जो शिक्षण और आदर्श मिलना चाहिये वह नहीं मिल पा रहा है। व्यस्तता के कारण समयाभाव ने जीवन सारणी को बिलकुल नया मोड़ दे दिया है। परिणामतः शारीरिक, मानसिक न सामाजिक विकृतियों ने जन्म ले लिया है। जीवन में सरलता के स्थान पर जटिलता बढ़ती जा रही है।
हमारा भारत जो कभी अपने मानवीय गुणों तथा धार्मिक आचरण और आध्यात्मिक चेतना के कारण अद्वितीय था और विश्व गुरू कहलाता था आज पश्चिम की अनावश्यक नकल के कारण अपनी उच्च चिंतन धारा से विमुख सा हो चला दिखाता है। हमारा देश आध्यात्मिक धरोहर का धनी है। वेदों, उपनिषदों के साथ गीता और रामायण सरीखे ऐसे उत्कृष्ट ग्रंथ है जिनमें मानवीय आदर्श और जीवन की कला का विशद विवेचन और मार्गदर्शन सुलभ है। ये विश्व साहित्य के अनुपम ग्रंथ है परन्तु आज अधिकांश लोगों का ध्यान उस और नहीं जाता। इनका अनुशीलन हमें जीवन में नयी दिशा दे सकता है। जो उनका पठन, चिन्तन, मनन करता है वह सदाचारी, सहिष्णु और विवेकी बनकर उत्थान कर सकता है। अपना और समाज का कल्याण कर सकता है तथा वास्तविक आनन्द प्राप्त कर सकता है। दोनों ंमें अनेकों ऐसे सरल सूत्र हैं जो मंत्रों की भाॅति सरलता से अपनाये जा सकते है और आदर्श जीवन जिया जा सकता है।
तुलसी दास जी कृत ‘‘रामचरित मानस‘‘ तो हिन्दी में है परन्तु योगिराज भगवान कृष्ण के मुख से उद्भूत गीता संस्कृत भाषा में है। बहुत से पढ़े लिखे विद्वान भी संस्कृत भाषा के ज्ञान के अभाव में उसे पढ़ और समझ नहीं पाते। इसी दृष्टि से मेरे मन में उसका हिन्दी में श्लोकशः सरल अनुवाद उपलब्ध करने का भाव जगा।
ईश्वर की कृपा से अनुवाद बहुत अच्छा बन पड़ा है। प्रत्येक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी दिया गया है, जिससे हर कोई पढ़ सके समझ सके, और गीता के मूल पाठ सा आनन्द लेते हुये चिन्तन-मनन कर सके , व यह वैश्विक रूप से उपयोगी पुस्तक बन सके . मेरे पुत्र विवेक रंजन श्रीवास्तव ने कृति को इस स्वरूप में प्रस्तुत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
मुझे विश्वास है कि सुधी पाठक कम से कम उत्सुकता वश इस गीतानुवाद को पढ़कर लाभान्वित हो सकेंगे। कुछ थोड़े पाठक भी यदि इस से लाभ पा सके तो मैं अपने श्रम को सफल समझूंगा।
जन साधारण से मेरा सादर विनम्र निवेदन है कि गीता व रामायण सरीखे पवित्र अद्धुत हितकारी ग्रंथों का आत्मशुद्धि और शांति के लिये प्रतिदिन समय निकाल कर पारायण अवश्य करें। ये सदाचार और आनंद देने वाले विश्व स्तरीय साहित्यिक ग्रंथ है। अस्तु।
(कल से हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(हम गुरुवर प्रो चित्रभूषण श्रीवास्तव ‘विद्ग्ध‘ एवं उनके सुपुत्र श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी के विशेष आभारी हैं जिन्होने उपरोक्त ग्रंथ
e-abhivyakti.com में प्रकाशित करने हेतु उपलब्ध किया है।)
एक साल पहले सरकारी फंड से बने स्कूल की दीवार इस बरसात में भरभरा के गिर गई तो दुर्गा पंडित जी पड़ोस के खपरैल मकान की परछी में टाट पट्टी बिछा कर क्लास लगाने लगे। गांव के स्कूल की दीवारों पर ‘स्कूल चलें हम’ की इबारत लिखी देखकर कई बच्चे बिचक जाते फिर दुर्गा पंडित जी छड़ी लेकर उनको हकालते। बीच-बीच में गाली भी बकते जाते, बात बात में गाली बकना उनकी आदत ही है।
स्कूल में पहले प्रार्थना होती, फिर भजन होते हैं। जो बच्चा भजन नहीं गाता पंडित जी उसके पिछवाड़े में छड़ी चलाते । दुर्गा पंडित जी भजनों के बहुत शौकीन हैं। जब से उन्होंने अखबार में भजन गाने वाले डुकर की छोटी परी जस लीन की खबर पढ़ी है तब से उनको……. “ऐसी लागी लगन’ वो भी हो गई मगन………” वाला भजन बार बार याद आता है। मेज में छड़ी पटकने के साथ पीरियड चालू हो जाता है, काले श्याम पट पर चाक से दिन और दिनांक लिख दी जाती है ।
छड़ी उठी छकौड़ी की तरफ…. “हां, तो छकौड़ी अपने प्रधानमंत्री का नाम बताओ?”
छकौड़ी – “भजन करेंगे… भजन करेंगे…. उनका नाम कल किसी से पता करेंगे…..”
छड़ी बढ़ी छकौड़ी के घुटने पर पड़ी।
दुर्गा पंडित जी बड़बड़ाने लगे – “बुरा हाल है शिक्षा का… मोबाइल ने बर्बाद कर दिया, सरकार शिक्षा पर ज्यादा प्रयोग करती रहती है स्कूल चलें हम लिखवाती है और नकली डिग्री के बल पर लोग शिक्षा के मंत्री बन जाते हैं।आजकल की औलाद बहुत उज्जड्ड है कुछ पूछो कुछ बताती है। भजन गायक हारमोनियम बजा बजा के “भजन बिना, चैन न आये राम “
गाते गाते नयी उमर की बाला के प्यार में पड़ जाते हैं बच्चे सुनते हैं तो हंसते हैं। बच्चों का मन भटकने लगता है। मन भटकने से वे प्रधानमंत्री का नाम तक नहीं बता पाते हैं।बच्चे भोले होते हैं धारा 377 में कैसा – क्या होता है बार बार पूछते हैं। मास्टर जी नहीं बता पाते तो बाहर जाकर हंसी उड़ाते हैं। मोबाइल युग के बच्चे बड़े समझदार हो गए हैं, दुर्गा पंडित जी भजन गाते हुए पड़ोसन के घर घुसते हैं तो बच्चे तांका झांकी करते हैं। हंसते हैं….. मजाक उड़ाते हैं, फिर मेडम के पास धारा 497 का मतलब पूछने जाते हैं। मेडम चाव से अखबार पढ़ कर एडल्टरी के बारे में पूरी बात बताती हैं। एक बार-बार फेल होने वाला हृष्ट पुष्ट बच्चा मेडम को प्यार से देखता है। मेडम शादीशुदा हैं पर पति से चिढ़ती हैं पति महिलाओं की भजन मंडली में हारमोनियम बजाते हैं।
लंच टाइम के बाद फिर छड़ी उठी और सरला की चोटी में फँस गयी। सरला तुम जलोटा का संधि विग्रह करके श्याम पट में लिखो। सरला होशियार है उठ कर शयामपट में लिख देती है… ” जलो +टाटा”
दुर्गा पंडित जी बताते हैं कि भजन में बड़ी शक्ति होती है और भजन में बड़ा वजन होता है भजन से तनाव दूर होता है और भजन करते करते मन जस लीन में लीन हो जाता है।
चुनाव के पहले बड़े बड़े अविश्वसनीय ऐतिहासिक पार्टी सुधारक फैसले आ रहे हैं कई बड़े नेता इन फैसलों से खुश हैं और नेता जी की बड़ी जीत बताते हैं। अभी अभी खबर आयी है कि “वो आ गई है” फिर से गली मोहल्ले की चौपाल में लोग बड़बड़ायेंगे…
“एक शेरनी सौ लगूंर”
शेरनी के फैसलों से हर गली मुहल्ले में नयी नयी भजन मंडलियां बनेगीं और बच्चे नयी नवेली संस्कृति से परिचित होंगे। नये नये रोमांचक रहस्यमय वीडियो वाईरल होंगे। लोग मजे लेंगे दवाईयों की दुकान में खास तरह की दवाईयों और तेल की मांग बढ़ जाएगी। स्कूलों के टायलेट में सीसीटीवी लगाने का धंधा बढ़ जाएगा। चुनाव और तीज त्योहारों में हारमोनियम बजाने वाले की डिमांड बढ़ जाएगी। दुख है कि तब तक दुर्गा पंडित जी रिटायर हो जाएंगे और खटिया में डले डले टी वी में भजनों के कार्यक्रम भी देखेंगे और देखेंगे यू पी के रिजल्ट……. ।
काळ भराभर पुढं जात असतो. आणि स्वत:बरोबर आपल्यालाही नेत असतो. कधी स्वखुषीने तर कधी नाईलाजाने, त्याचं बोट धरून पुढे पुढे आपली पावलं पडत राहतात. मागचं सारं काही धुसर धुसर होत जातं आणि त्याच वेळी समोरच्या दृष्यातले रंग अधिकच गहिरे आणि वेधक वाटायला लागतात. बदलत्या आयुष्याशी जवळीक वाढू लागते, गोडी निर्माण होते. जीवनातली लज्जत आणि रंगत अनुभवता अनुभवता एखादा क्षण असा येतो की परत मन झर्रकन काळाचं बोट सोडून पार भूतकाळात मुसंडी मारतं ..आणि शोधू लागतं काही हरवलेलं, निसटलेलं, काळाच्या ओघात दुरावलेलं..!! पाऊस पडल्यानंतरची तरारलेली जुईची वेल आणि वेड लावणारा तिचा सुगंध फार फार बेचैन करतो जिवाला! कर्दळीच्या पानातल्या जुईच्या कळ्यांची पुडीच माझ्या नजरेसमोर येते आणि पार माझ्या शाळा कालेजच्या दिवसात घेऊन जाते ती मला ! आई-बाबांचं सहजीवनच साकारतं माझ्या डोळ्यासमोर! छोटंसं घर आमचं चाळीतलं, बाग कुठे असणार तिथे ! पण बाबा अतिशय रसिक, आईची फुलांची आवड ओळखून न विसरता पावर हाउस वरून येतांना जुईच्या कळ्या तोडून कर्दळीच्या पानांत बांधून आणायचे , आणि शाळेतून आलेली थकलेली आई प्रसन्न् चेहऱ्याने गजरा करायची! गजरा लावतांनाचा तिचा आनंदी चेहरा अजूनही डोळ्यांसमोर तस्साच आहे, आणि आफिसमधून आल्यावर लगबगीने आईच्या हातात ती हिरवी पुडी देतांनाची बाबांची कृतकृत्य भाव असलेली छबी तश्शीच मनावर कोरली गेलीय ..!
काळाबरोबर भरपूर पुढे आलेय ..भरपूर काही मागे राहिलंय पण आई-बाबांच्या सुखी समाधानी सहजीवनाच्या स्मृती तर कालातीत आहेत …नेहमीच पाऊस पडणार …जुई तरारणार ..आणि त्या हिरव्या गार पुडीतल्या जुईच्या कळ्या मला परत लहान करणार ..आई-बाबांकडे घेऊन जाणार ..