(डॉ हनीफ का e-abhivyakti में स्वागत है। डॉ हनीफ स प महिला महाविद्यालय, दुमका, झारखण्ड में प्राध्यापक (अंग्रेजी विभाग) हैं । आपके उपन्यास, काव्य संग्रह (हिन्दी/अंग्रेजी) एवं कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।)
No matter how far the soul-mates are, no matter what differences they have, no matter how cruel the course of destiny is; love finds bridges across the barriers, dissolves differences, and defies destiny. Miracles do happen in true love!
About the Book : What happens when two simple, unassuming people fall in love and embark on a struggle with their own emotions even while unaware of the plans destiny has for them? Can love survive against odds?
Soul Seekers is a love story that revolves around Pia, a pretty young thing with a haunting past. It stalks her as she ventures on a journey to Hyderabad, where love beckons to her. Two men enter her life, Atul and Yatin. Even as things seem to be shaping up, bizarre events force her to leave the city. Will love come calling her? Will the lovers triumph at the end?
Excerpts from the book – Soul Seekers
Beginning a life after so many nadirs was tough indeed. He had lost his mother, lost his foot, lost his love – in short he was going empty-handed to join a new job at a new place. He had never thought of teaching as a career for him. He had always wished to lead good firms as their financial consultant. But, this was what destiny had chosen for him!
Yatin had left all his belongings in Hyderabad and did not wish to go there to get them back. Therefore, he decided to get everything afresh. The only thing he had brought from there were some photographs of the wonderful days spent together with Pia and his other friends.
While he was packing his things, his father’s glance fell on a photo clicked by Mukesh. Yatin and Pia were dancing jovially in the shot, oblivious of the world.
Smiling at the photo, his father remarked, “I would be happy if you get someone like her as my daughter-in-law!”
Yatin glimpsed at the photo. Those were such happy moments! He took the photograph in his hands and kept gazing at it for hours. If only, he wondered. Yeah, had that accident not occurred; she would have been his. But he was no longer angry with himself or his lost foot. He had come to terms with it.
(प्रस्तुत है सात जन्मों के सम्बन्धों पर आधारित सुश्री ज्योति हसबनीस जी का आलेख ‘सोबत…सात जन्मांची’)
सात जन्माची सोबत करण्याच्या आणाभाका घेऊन हळूच एकमेकांच्या आयुष्यात प्रवेश करतो आपण. जोडीने संसार सुरू होतो. काडी काडी जमवून मेहनतीने घरटं बांधलं जातं. घरट्याला आकार देण्यात, वादळ वाऱ्याचा सामना करत घरट्यातली ऊब राखण्यात, घरट्यातल्या चिवचिवाटातलं स्वर्गसुख लुटण्यात आयुष्याची मध्यान्ह संपून उतरणीची ऊन्ह कधी सुरू होतात लक्षातच येत नाही. मध्यान्ह ओसरल्याचं निवलेपण तर असतं, पण सांजसावल्यांचं भय देखील मनात दाटायला सुरूवात होते. आपल्याच आपल्याला व्यापून टाकणाऱ्या लांब लांब सावल्या …मन काजळणाऱ्या …एक अनामिक हुरहूर लावणाऱ्या!
आतापर्यंतच्या प्रवासातील सारी वळणं, खाच खळगे, चढ उतार जोडीने पार केलेले असतात. अगदी कुठल्याही क्षणी हातावरची आश्वासक पकड कधी ढिली झालेली नसते, कायमच शब्दांच्या, स्पर्शाच्या खंबीर साथीने इथवरचा प्रवास झालेला असतो ….पण …अचानक हा हात हातातून सुटला …अगदी कायमचा तर …
अवचित एखाद्या कातरवेळी, हळव्या क्षणी मनात येणारा हा विचार अक्षरश: जिवाच्या पार चिंधड्या करून टाकतो, नाही का?
सकाळच्या चहापासून तर रात्रीच्या बातम्यांपर्यंतच्या दिवसभराच्या टाईम टेबलची एकमेकांच्या सोयीने केलेली आखणी, आणि तिचा सहज स्वीकार हेच अंगवळणी पडलेल्या मनाला, हे एकटेपण पेलवेल, झेपवेल?? व्यक्ती म्हणून स्वतंत्रपणे जगणं, स्वत:चा स्वतंत्र असा दिनक्रम आखणं, लौकिकार्थाने कुणाशी कायमच जोडलं गेलेलं पण आता केवळ स्वत:शीच उरलेलं नातं समर्थपणे निभावता येईल? अंधाराशी मैत्री करता येईल? रात्रीच्या कुशीत निवांतपणा साघता येईल? असे असंख्य विचार मनात थैमान घालू लागतात. काजळी धरलेली दिवली कशी अंधारालाच उजळवत आपलं केविलवाणेपण जपते तशी मनाची अवस्था होते अशा वेळी…पण मनाची अशी घालमेल, अशी तगमग, आणि येणारी मरगळ थोपवता यायलाच हवी.
जिव्हाळ्याची मुलं बाळं, जोडलेली जिवाभावाची माणसं, जोपासलेले छंद, या साऱ्यांनी परिपूर्ण असलेलं आपलं आयुष्य ह्या एकाकीपणाला असं घाबरेलच कशावरून? आणि एकाकीपण कसं? आपल्या घरट्यात आहेतच की जोडीदाराची स्पंदनं! समान आवडीचे छंद जोपासतांना नकळत मनात तर साधला जाणारच आहे ना संवाद त्याच्याशी! खचल्या क्षणांना ऊभारी देणारे त्याचे शब्द जपलेच आहेत ना कायम मनाशी!
कृष्णमेघी वीज चमकावी आणि अवघा आसमंत उजळून निघावा, अगदी तसा एक विचार मनात आला, की सात जन्माची सोबत अशी एवढ्यात कशी संपणार? अजून तर कित्ती एकत्र प्रवास करायचाय, मधुर स्मृतींची खुप सारी गाठोडी बांधायची आहेत अगदी सात जन्म पुरतील एवढी … आणि हो ती एकत्र वाहायची देखील आहेत ..अगदी सात जन्म बरोबरीने! जोडीदाराची साथ असणारच आहे कायम, एकमेकांमध्ये असलेलं रूजलेपण सात जन्म पुरणारं तर नक्कीच आहे, उगाचच नाही म्हणत जोडीदाराला सात जन्मांचा सोबती ! खरंच त्याच्याबरोबरच्या मघुर क्षणांची सोबत अक्षरश: सात जन्मांची ..!!
What better new year resolution can you have than learning to make people happier?
Be a LifeSkills Facilitator/ Master Teacher and propagate happiness! During the next year (2019), Radhika Jagat Bisht and Jagat Singh Bisht, Founders: LifeSkills, will conduct training programmes to groom facilitators/ master teachers. This will enable them to learn, understand, practise, and propagate life skills for health, happiness and tranquillity. It includes practical sessions on the art of Meditation, the basics of Yoga and the fundamentals of Laughter Yoga. Also included are inputs on the elements of Happiness and Well-being and the quintessence of Spirituality. Don’t miss this golden opportunity. Send us an email at [email protected] to register.
आत्मकथ्य – यह उपन्यासिका मेरी पहली कहानी ‘चुभता हुआ सत्य’ पर आधारित है। यह कहानी दैनिक नवीन दुनिया, जबलपुर की साप्ताहिक पत्रिका ‘तरंग’ के प्रवेशांक में 19 जुलाई 1982 को डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के साहित्य सम्पादन में प्रकाशित हुई थी।
इस उपन्यासिका का कथानक एवं कालखंड अस्सी-नब्बे के दशक का है।अतः इसके प्रत्येक पात्र को विगत 36 वर्ष से हृदय में जीवित रखा। जब भी समय मिला तभी इस कथानक के पात्रों को अपनी कलम से उसी प्रकार से तराशने का प्रयत्न किया, जिस प्रकार कोई शिल्पकार अपने औजारों से किसी शिलाखण्ड को वर्षों तराश-तराश कर जीवन्त नर-नारियों की मूर्तियों का आकार देता है, मानों वे अब बोल ही पड़ेंगी।
सबसे कठिन कार्य था, एक स्त्री पात्र को लेकर आत्मकथात्मक शैली में उपन्यासिका लिखना। संभवतः किसी लेखिका को भी एक पुरुष पात्र को लेकर आत्मकथात्मक शैली में लिखना इतना ही कठिन होता होगा। इन पात्रों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझते हुए पिछले 36 वर्ष तक अपने हृदय में सहेजने के पश्चात अब उन्हें उपन्यासिका का रूप दे कर संतुष्टि का अनुभव कर रहा हूँ। यह उपन्यासिका वर्तमान परिपेक्ष्य में कितनी सार्थक है, इसका निर्णय मैं अपने पाठकों पर छोड़ता हूँ।
अमेज़न पर यह ईबुक 27 दिसंबर मध्यरात्रि तक प्री-लॉंच ऑफर पर उपलब्ध है एवं 28 दिसंबर 2018 प्रातःकाल से विक्रय के लिए उपलब्ध रहेगी।
पुस्तक समीक्षा – चुभता हुआ सत्य – डॉ विजय कुमार तिवारी ‘किसलय’
लेखन की सार्थकता दिशाबोधी उद्देश्य की सफलता पर निर्भर करता है। लेखन सुगठित, सुग्राह्य, चिंतनपरक एवं उद्देश्य की कसौटी पर जितना खरा उतरेगा उतना व्यापक पठनीय, श्रवणीय तथा देखने योग्य होगा। सृजक की साधना, अभिव्यक्ति-चातुर्य तथा अनुभव ही सृजन को महानता और सार्थकता प्रदान करते हैं। अध्ययन एवं सांसारिक चिंतन-मनन उपरांत लिखा गया साहित्य निश्चित रूप से जनहितैषी एवं मार्गदर्शक होता है। हिन्दी में साहित्य लेखन का प्रारंभ ही धर्म, नीति, सद्भाव तथा मानवता से हुआ है। आज समय के दीर्घ अंतराल पश्चात लेखन बदला है, विषय बदले हैं और सबसे बड़ा बदलाव हुआ है तो वह है मानवीय दृष्टिकोण का। निःसंदेह तकनीकी प्रगति में अकल्पनीय वृद्धि हुई है परंतु वांछित मानवीय गुणों में निरंतर गिरावट हो रही है। आज बदलते परिवेश में शांति, सद्भाव, प्रेम, सहयोग एवं उदार भावों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का उत्तरदायित्व साहित्यकारों के ऊपर पुनः आ गया है। आज उत्कृष्ट साहित्य के प्रचार प्रसार एवं अनुकरण हेतु प्रबुद्ध वर्ग का आगे आना अनिवार्य हो गया है। आज जब हर शख्सियत ‘अपनी ढपली अपना राग’ अलापने में लगी है, तब समाज को सही दिशा देने का परंपरागत कार्य साहित्यकार को ही करना पड़ेगा। आज समाज में स्वार्थ, वैमनस्य, असमानता तथा घमंड जैसी बहुसंख्य समस्याएँ एवं विद्रूपताएँ व्याप्त हैं। ‘मैं’ को ‘हम’ में बदलने का कार्य कलमकार ही कर सकता है।
तुलसी और कबीर से लेकर आज तक साहित्यमनीषियों के प्रेरक प्रसंग तथा लेखन ने इस समाज को परस्पर बाँधे रखा है। आज भी ऐसे साहित्यकारों की कमी नहीं है जो निरंतर दिशाबोधी तथा सकारात्मक सृजन में संलग्न हैं। ऐसे ही एक साहित्यकार हैं श्री हेमंत बावनकर, जिनके साहित्य पर मैंने चिंतन-मनन तो किया ही है उन्हें निकट से जाना भी है। साधारण सहज एवं आत्मीय श्री हेमंत जी एक ओर जहाँ मितभाषी एवं सहयोगी प्रकृति के हैं, वहीं अपने लेखन के प्रति सदैव सजग तथा गंभीर भी रहते हैं। आपका काव्य हो, कहानियाँ हों अथवा उपन्यास। हर विधा में इन्हें निष्णात माना जा सकता है। भाषा-शैली, भाव-गाम्भीर्य, परिदृश्य-चित्रांकन के साथ ही अंतस तक प्रभावी संवाद आपके लेखन की विशेषताएँ हैं।
उपन्यासिका ‘चुभता हुआ सत्य’ भी एक ऐसी ही कृति है जिसमें मानवीय भावनाओं को प्रमुखता से उभारा गया है। पूरी उपन्यासिका को परिस्थितियों एवं परिवेश के अनुरूप दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक भाग में नायिका सुनीता के विवाह पूर्व का लेखा-जोखा है, वहीं दूसरे भाग में विवाहोपरांत उन संवेदनाओं का उल्लेख है जो मानवीय मूल्यों को कहीं न कहीं ठेस पहुँचाते हैं। उपन्यासिका में नायक सुनीता विद्यार्थी जीवन से ही बुद्धिमान, सत्य के प्रति निर्भीक तथा चिंतक प्रवृत्ति की लड़की रहती है। दहेज एवं लड़की वालों की बातों से वह काफी विचलित होती है। तभी एक पत्रकार रवि परिचर्चा हेतु साक्षात्कार के लिए उसके घर आता है। सुनीता उसके विचारों से प्रभावित होती है। मुलाकातें वैवाहिक प्रस्ताव तक पहुँचती हैं। नौकरी लगने पर रवि से उसका अंतरजातीय विवाह हो जाता है। इस भाग में मध्यम वर्गीय परिवारों, रैगिंग जैसी कुरीतियों, दहेज प्रथा, बेरोजगारी, ननद-भाभी के पवित्र रिश्ते एवं आचार-व्यवहार के ताने-बाने से मध्यम वर्गीय परिदृश्य पाठकों के जेहन में उभरकर स्थायित्व प्राप्त करता है। मीना भाभी माँ का आदर्श चित्रण भी लेखक की अपनी शैली का उदाहरण है।
विवाह के उपरांत लखनऊ यूनिट में रवि एम. ए. इंग्लिश पढ़ी सुनीता के साथ बड़े उत्साह और गर्व के साथ सैन्यजीवन आगे बढ़ाता है। यहाँ पर पढ़ी-लिखी सुनीता अफ़सर और सिपाहियों के भेद तथा अफसरों की पत्नियों द्वारा अफ़सरों जैसे व्यवहार से क्षुब्ध रहती है। एक बार महिला कल्याण समिति की अध्यक्ष और रवि के बॉस की पत्नी मिसेज शर्मा से बहस होने पर रवि को सिपाही से अर्दली बनने का खामियाजा भुगतना पड़ता है। इससे सुनीता मानसिक रूप से बेहद परेशान रहती है लेकिन रवि के समझाने पर उसका मन हल्का हो जाता है। इन प्रसंगों के चलते पूरी उपन्यासिका में सुनीता की वैचारिक उथल-पुथल चलती रहती है। सामाजिक बंधनों की बात, रवि के साथ आकर्षण की बात, बिटिया मधु की भावनाओं की बात, सैन्य जीवन में अफसर सिपाही के भेद की बात अथवा अफसर-सिपाहियों की पत्नियों के बीच भी उच्च एवं निम्न के भेद की बात सुनीता के मन को कचोटती है और एक दिन जब उसके सब्र का बाँध टूट पड़ता है तब पाठकों को भी एहसास होता है कि स्वाभिमान पर ठेस लगना साधारण नहीं होता। पति-पत्नी के आदर्श रिश्ते की सफलता का वर्णन भी इस उपन्यासिका में बखूबी किया गया है।
सुनीता के जीवन में ऐसे अनेक चुभते हुए सत्य सामने आते हैं और वह हर बार तिलमिला उठती है। शादी हेतु बार बार प्रस्तुत होना। अकेले जन्मे हैं अकेले ही मरेंगे। सैनिक से अधिक अर्दली की पत्नी हूँ। देशभक्ति में नैतिकता बहुत निचले स्तर तक पहुँच गई है। अमर शहीदों का जीवन कुछ धन या सिलाई मशीन से तौला जा सकता है? ऐसे और भी चुभते सत्य इस उपन्यासिका में हैं, जिनके माध्यम से जनचेतना लाने का प्रयास साहित्यकार श्री हेमन्त जी द्वारा किया गया है। अंत में राष्ट्रप्रेम का भाव रवि को सुनीता के दृष्टि में और ऊँचाई पर पहुँचा देता है। इसके साथ ही अब सुनीता के पास ऐसा कोई भी चुभता हुआ सत्य नहीं बचता जो उसके हृदय में गहराई तक चुभ सके।
इस तरह हम कह सकते हैं कि उपन्याससिका ‘चुभता हुआ सत्य’ आज समाज में व्याप्त विसंगतियों, कुरीतियों, दहेज, द्वेष आदि के उदाहरण प्रस्तुत करती ऐसी कृति है जिसे पढ़ने के पश्चात पाठक भी उद्वेलित होकर चिंतन-मनन हेतु निश्चित रूप से बाध्य होगा। उपन्यासिका में महाविद्यालयीन, पारिवारिक, वैवाहिक, युवक-युवती आकर्षण, ममता, वात्सल्य, सैन्य जीवन, निर्भीकता, सत्यता जैसे भावों का समावेश होना लेखक का व्यापक अध्ययन और ज्ञान का नतीजा ही कहा जाएगा। यह कृति समाज को नई दिशा दे। श्री हेमन्त जी का सृजन अबाध चलता रहे। उपन्यासिका ‘चुभता हुआ सत्य’ के प्रकाशन पर हमारी अंतस से अनंत बधाईयाँ।
– विजय तिवारी ‘किसलय’
विसुलोक, 2419 मधुवन कॉलोनी, विद्युत उपकेन्द्र के आगे, उखरी रोड, जबलपुर (मध्य प्रदेश) 482002.
(प्रस्तुत है सुश्री ज्योति हसबनीस का आलेख ‘शेवट गोड व्हावा’)
रिमझिमता पाऊस ..हवेतली सुरकी ..आणि वाफाळत्या काॅफीचा एकेक घोट ..बघता बघता काॅफीने तळ गाठला ..आणि शेवटचा घोट ..किंचित गोड लागला …अपार तृप्ती देऊन गेला .
कसं असतं ना माणसाचं …शेवट गोड तर सारं गोड हे अगदी ठसलं असतं त्याच्या मनावर ! मग ते सीरियल असो, कथा कादंबरी असो, नाटक असो , चित्रपट असो की आपल्या आजूबाजूला घडणाऱ्या गोष्टी असो ! ‘
‘ते दोघं आणि चारचौघं’ ह्यातही आपल्याला ‘त्या दोघांच्या’वियोगाची कल्पना करवतच नाही , त्यांच्या ओढीचा शेवट चिरकाल एकत्र येण्यातच व्हावा असंच आपल्याला वाटतं !
खुप कष्ट करून जिद्दीने वाढवलेल्या मुलांनी आईचा आधार बनून तिला अपार सुख देऊन तिचा शेवट सुखासमाधानात व्हावा असंच आपल्याला वाटतं !
वन्यपशुंच्या जीवनावरील लघुपट बघतांनादेखील जिवाच्या भीतीने सुसाट पळणारं हरिण वाघाच्या तडाख्यातून सुटून सुखरूप आपल्या कळपात जावं , गरूडाची झडप चुकावी आणि गोजिरवाणं सीगल त्याच्या तावडीतून सुटावं , कपारीच्या आश्रयाने त्याने दडावं , आणि अशा जीवघेण्या पाठलागाचा शेवट त्यांच्या सुखरूप असण्यात व्हावा ..हेच मन म्हणत असतं !
आयुष्य पुरेपूर उपभोगून झालेली वयोवृद्ध मंडळी ..वाढणारी वयं आणि ढासळत चाललेलं आरोग्य सांभाळत कशीबशी आला दिवस साजरा करणारी पिकली पानं ..कमीत कमी यांचा तर शेवट गोड व्हावाच ..आहे त्यापेक्षा अजून कमीअधिक वाट्याला न येता आजवर चाखलेल्या गोडीची चव मनभर असतांनाच त्यांचा शेवट व्हावा असं तर वाटतंच वाटतं …!
कॉफीचा तो शेवटचा घोट पण किती विचारांचं मोहोळ उठवलं त्याने !
मनात आलं कसं असतं ना माणसाचं , एखादी गोष्ट नाही करायची म्हणली तरी हटकून तीच कराविशी वाटते , आणि ती केल्यानंतर त्याचं नेमकं स्पष्टीकरणही अंतर्मनातल्या ‘मी’ साठी मनात तयारच असतं! बिनसाखरेची काॅफी प्यावी म्हणून काॅफी घेतली तशीच पण मनाच्या समाधानासाठी अपराधी भावाने चिमूटभर साखरही घातलीच कपात ..काॅफी संपता संपता समाधान होतं अजिबात गोड नाही लागत आहे त्याचं आणि शेवटी एका घोटात काॅफीला आलेल्या माफक गोडव्याने जीव सुखावला ..काॅफीचा तो शेवटचा घोट अपार तृप्ती देऊन गेला ! आणि त्या अपार तृप्तीतच विचार आला तो अशा सुखांताचा ..!!!!
The World Happiness Report is a landmark survey of the state of global happiness. The World Happiness Report 2018, ranks 156 countries by their happiness levels, and 117 countries by the happiness of their immigrants.
यह लेखकों के लिए भारी संकट का समय है।लेखक मोटे-मोटे पोथे लिखकर पटक रहा है, लेकिन पढ़ने वाला कोई नहीं।पाठक सिरे से नदारद है।घोंघे की तरह अपने खोल में दुबक गया है।लेखक बार बार व्याकुल होकर आँखों पर हथेली की ओट लगाकर देखता है, लेकिन सब तरफ सन्नाटा पसरा है।पाठक ‘डोडो’ पक्षी की तरह ग़ायब हो गया है।
हालत यह है कि पत्रिकाओं में इने-गिने पच्चीस पचास लेखक ही बदल बदल कर कभी लेखक और कभी पाठक का चोला ओढ़ते रहते हैं। कभी वे लेखक बन जाते हैं, कभी पाठक।एक दूसरे की कमियां ढूँढ़ते रहते हैं और बगलें बजाते रहते हैं। कुछ लेखक पाठकों से इतने मायूस हो गये हैं कि अपने घर पर चाय का लालच देकर दस बीस मित्रों को बुला लेते हैं और उन से अपनी तारीफ सुनकर खुश हो लेते हैं।अगर कोई नासमझ,स्पष्टवादी श्रोता रचना की आलोचना करने लग जाए तो उसे तत्काल बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।यानी लेखक का ह्रदय कोमल होता है,इसलिए उसे आघात न पहुँचाया जाए।
साहित्य-प्रेम की हालत यह है कि अब साहित्यिक कार्यक्रमों के निमंत्रण-पत्र में लिखा जाता है–‘सबसे पहले पहुँचने वाले और अंत तक रुकने वाले पाँच श्रोताओं को पुरस्कृत किया जाएगा।’ कार्यक्रम के बीच में दो तीन बार घोषणा होती है कि कार्यक्रम के अंत में सबके लिए चाय की व्यवस्था है।
इसी माहौल में जानी मानी मासिक पत्रिका ‘प्रलाप’ में मेरी एक रचना छपी और मैं उत्साह में मित्रों-परिचितों का मुँह देखने लगा कि कोई कहेगा कि वाह भई,क्या धाँसू रचना लिखी है।लेकिन मित्र और परिचित ‘हाय’ ‘हलो’ कहते आजूबाजू से गुज़रते रहे, किसी ने भी रुककर मुँह खोलकर यह नहीं कहा कि भाई, मैंने आपकी बेमिसाल रचना पढ़ी।
अंततः मेरा दिल बैठने लगा। दुनिया बेरौनक लगने लगी।लगा कि पृथ्वी पाठक-विहीन हो गयी।पाठक दूसरे लेखकों को भले न पढ़ें, कम से कम मुझे तो पढ़ें।लेकिन पाठक बड़ा निष्ठुर हो गया है।जब कद्रदाँ ही नहीं तो हुनर का क्या मोल!
हारकर मैंने एक दिन अपने मित्र पारखी जी को रास्ते में पकड़ लिया।उम्मीद से उनकी तरफ देखते हुए पूछा,’मासिक प्रलाप मँगा रहे हैं?’
वे नाक सिकोड़कर बोले,’जब से पेट्रोल चार रुपये मँहगा हुआ, अपन ने साहित्यिक पत्रिकाएं खरीदना एकदम बन्द कर दिया।अब अपन साहित्य वाहित्य ‘अफोर्ड’ नहीं कर सकते।साहित्य वाहित्य से होता भी क्या है?किस मर्ज की दवा है यह?’
मैंने उनके उच्च विचार सुनने के बाद मरी आवाज़ में कहा,’उस पत्रिका के नये अंक में मेरी रचना छपी है।’
वे बोले,’वाह, अच्छी बात है।सुनकर खुशी हुई।अगर पत्रिका कहीं मिल गयी तो जरूर पढ़ूँगा,फिर अपने बहुमूल्य मत से अवगत कराऊँगा।’
मैंने संकोच को परे रखकर कहा,’कहें तो पत्रिका आपके पास भेज दूँ?
वे मुफ्तखोरी की संभावना देख प्रसन्न होकर बोले,’इससे बेहतर क्या हो सकता है!मैं तत्काल पढ़कर आपसे विचार-विमर्श करूँगा।’
मैंने उनके स्कूटर की बास्केट में कुछ पुस्तकें देखकर पूछा,’ये कौन सी किताबें हैं?’
वे बोले,’यह बैंगन बनाने की सौ विधियों पर है और दूसरी शनि की साढ़ेसाती के लक्षणों और उनके उपचार के बारे में है।’
फिर वे थोड़े दुखी स्वर में बोले, ‘दरअसल मेरे ग्रह अभी ठीक नहीं चल रहे हैं।घर में किसी न किसी वजह से अशांति बनी रहती है। वास्तु-विशेषज्ञ से पूछा तो उन्होंने अशांति की वजह यह बतायी कि हमारा टायलेट और किचिन साउथ-वेस्ट में है। टायलेट को नार्थ-वेस्ट और किचिन को साउथ-ईस्ट में ले जाना पड़ेगा।इसमें बीस-पचीस हजार का खर्चा होगा।’
मैंने सहानुभूति में कहा,’यह एक और सनीचर लग गया’
वे ठंडी साँस भरकर बोले,’क्या करें!जो लिखा है वह भोगना पड़ेगा।आप पत्रिका जल्दी भेज दें।मैं फटाफट पढ़ डालूँगा।’
मैंने जल्दी ही पत्रिका उनके पास भेज दी।फिर पन्द्रह-बीस दिन गुज़र गये, लेकिन उनका कोई फोन-वोन नहीं आया।धीरज खोकर मैंने उन्हें फोन किया।वे बोले,’गुरू दरअसल मैं तो वास्तुशास्त्र के चक्कर में फँसा रहा, इस बीच तुम्हारी पत्रिका मेरे साले साहब उठा ले गये।बड़े साहित्य-प्रेमी हैं।कहने लगे पहले मैं पढ़ूँगा।बस,मैं वापस ले लेता हूँ।एक दो दिन की बात है।’
फिर डेढ़ महीना बाद उन्हें फोन किया।जवाब मिला,’साले साहब कह रहे थे कि पत्रिका उनके ससुर साहब ले गये।वे भी घनघोर साहित्य-प्रेमी हैं।तुम्हारी रचना का अच्छा प्रसार हो रहा है।तुम चिंता मत करना।मैं पत्रिका वापस ले लूँगा।’
फिर एक दिन सड़क पर टकरा गये।बोले,’तुम्हारी पत्रिका तो साले साहब के ससुर के एक मित्र ले गये।वे भी बड़े पुस्तक-प्रेमी हैं।तुम्हारी रचना खूब पढ़ी जा रही है।’
छः महीने गुज़र जाने के बाद मैंने पारखी जी को फोन किया और निवेदन किया कि पत्रिका वापस कर दें,मुझे उसकी सख़्त ज़रूरत है।
वे बोले,’बंधुवर, फिलहाल तो पत्रिका का पता नहीं चल रहा है।साले के ससुर साहब के मित्र कुछ भुलक्कड़ हैं।उन्हें याद नहीं आ रहा है कि उन्होंने पत्रिका कहाँ छोड़ दी।वे उसे पढ़ भी नहीं पाये।उसमें उन्होंने एक सौ का नोट रख दिया था, वह भी चला गया।बेचारे बहुत परेशान हैं।’
फिर वे बोले,’आप ऐसा करो, पत्रिका की दूसरी प्रति मेरे पास भेज दो।मैं फटाफट पढ़ कर आपसे आपकी रचना पर चर्चा कर लूँगा।इस बार किसी को छूने भी नहीं दूँगा। आप निश्चिंत होकर भेज दो।आपकी रचना की प्रसिद्धि के लिए हमारी आलोचना ज़रूरी है।’
तब से मैं पारखी जी से बचता फिर रहा हूँ।मित्रों से पता चला है कि वे बेसब्री से पत्रिका की दूसरी प्रति का इंतज़ार कर रहे हैं।
(प्रस्तुत है जीवन में छोटी-छोटी बातों में प्रसन्नता ढूँढने के लिए आपको प्रेरित करता सुश्री ज्योति हसबनीस जी का यह आलेख । )
छोट्या छोट्या गोष्टीतून आनंद शोधणं , आणि त्या आनंदात हरवून जाणं , हा एक स्वभाव असतो . हा जर आपला स्थायी भाव असला तर प्रतिकूल परिस्थितीतदेखील अनुकूलता निर्माण करण्याचं कसब अंगी मुरतं , आणि सारंच साधं सोपं सरळ वाटू लागतं . कामाचे डोंगर त्यातल्या अवघड चढणींसकट सुकर होतात लीलया पार होतात .
घराचं छोटंसं रिनोव्हेशनचं काम काढलं तेव्हा कामगारवर्ग खुप जवळून परिचयाचा झाला माझ्या . त्यांच्या सवयी , लकबी , स्वभाव , साऱ्या कंगोऱ्यांसकट अनुभवास आलं माझ्या . सकाळी कामावर येतांना नीटनेटकी चापून चोपून साडी नेसलेली नीला आल्या आल्या शर्टाचा डगला चढवून चेहऱ्यावर ओढणी गुंडाळणार आणि केसांत ओढणीच्या कडेने दोन टप्पोरी शेवंतीची फुलं माळणार ! टेबलावर ठेवलेल्या मोठ्ठ्या आरशासमोर क्षणभर थबकणार आणि समाधानाने पुढे सरकणार ! हवं ते मिळाल्याचा आणि आवडतं ते साधल्याचा आनंद तिच्या चमचमत्या डोळ्यातून ओसंडून वाहणार ! हो ..रसिकतेला बंधनं कुठली ? फुलं सजवायला अगदी फुलदाणीचंच बंधन कशासाठी …फुलं सजवायला एक छोटासा पाईपचा तुकडा देखील पुरतो , आणि तो ठेवायला , मातीचे ढिगारे जरी असले तरी एखादा कोपरा देखील मिळतो . थोडीशी वाळू आणि थोडंसं पाणी टाकून सजवलेली फुलं दिवसभरच्या नीरस कंटाळवाण्या कामात देखील चेहऱ्याची टवटवी अबाधित ठेवायला मनापासून मदत करतात ही तिच्या वृत्तीतली किती मोठी सकारात्मकता !
ग्रॅनाईट मोल्डिंग फिटिंग चं काम करणारा युसूफ सतत गुणगुणत राहणार किंवा मोबाईलची गुणगुण ऐकणार! आवडतं गाणं ऐकतांना त्याचा चेहरा असा काही लकाकणार की वाटावं सारी सुखं याच्या पायाशी लोळण घेतायत जणू ! जुगाड करून खोलीत लावलेला ट्यूबलाईट,त्या लाईटमध्ये अखंड चालणारे त्याचे हात , कसंबसं चार्जर सांभाळत , लटकत, गुणगुणणारा बापडा मोबाईल ,आणि सूरात सूर मिसळत कामात तल्लीन झालेला , चिवटपणे कामाचा फडशा पाडणारा युसूफ ..! खरंच सूरात आनंद शोधत भान विसरत , समाधानाने वाट्याला आलेलं काम प्रामाणिकपणे पार पाडण्यात खरी गंमत आहे ही किती सकारात्मक मानसिकता !
चहा, जेवण एकत्र घेतांनाचा त्यांचा आपसातला संवाद , हास्य विनोद म्हणजे एक प्रकारचा life on a lighter mode ची झलकच जणू ! खरंच छोट्या छोट्या गोष्टी देखील किती शिकवतात आपल्याला . हातातोंडाची मिळवणी असलेलं त्यांचं चाकोरीतलं आयुष्य , आणि त्या चाकोरीत जगतांनादेखील सुखाचे छोटे छोटे कण वेचणं , त्यातला आनंद लुटणं , त्यातलं आंतरिक समाधान आणि त्याची पसरलेली चेहऱ्यावरची तृप्ती सारंच अगदी हातात हात घालून वावरत असतं असं जाणवतं या मंडळींना बघून !
आंतरिक समाधान पैशाच्या सुबत्तेवर , समाजातल्या प्रतिष्ठेवर , सामाजिक स्थानावर अवलंबून असतं हे यांच्या कधी गावीही नसतं मग अशा प्रश्नांचं उलटसुलट जाळं विणण्यात त्याची उत्तरं शोधण्यात आपण का रंगून जातो आणि काल्पनिक सुखाच्या मागे धावत छोट्या छोट्या आनंदाला मुकतो , आयुष्याची लज्जत आणि रंगतच हरवून बसतो ??
(यह सत्य है कि ईश्वर ने मानव हृदय को साद-प्रतिसाद के भँवर में उलझा कर रखा है जबकि प्रकृति अपना कार्य करती रहती है। उसे प्रतिसाद से कोई लेना देना नहीं है। इस तथ्य पर प्रकाश डालती यह रचना सुश्री ज्योति हसबनीस जीके संवेदनशील हृदय को दर्शाती है।)
*पाऊस मनातला*….
मनातल्या पावसाची रूपं एक का असतात ? सहस्त्रधारांनी कोसळणारा पाऊस …आणि लक्षावधी रूपांनी त्याचं मनाचा ताबा घेणं , कधी आत आत झिरपत माझ्यातल्या ‘मी’शी मुक्त संवाद साधणं …कधी आठवणींचं बेट गदागदा हलवत हलकेच एखादा हळवा सूर आळवणं …तर कधी चिंब भंवतालाला डोळ्यात साठवतांना घरट्यातली ऊब अनुभवणं … त्याच्या बेताल वागण्यावर माझं चिडणं..त्याच्या लयबद्ध पदन्यासावर माझं ठेका धरणं ..त्याच्या फसव्या रूपाला बळी पडणं …तर लोभस रूपाला डोळे भरून पाहणं …त्याचं भरभरून देतांनाचा कृतकृत्य भाव आणि सारं काही देऊन झाल्यानंतरचं इंद्रधनुषी हास्य …सारं सारं मनात तस्संच जपणं आणि प्रत्येक भेटीच्या वेळी असाच आहेस ना रे तू असं त्याला आसूसून विचारणं …!
शैशव आणि अबोघ वयातल्या पावसाचं भेटणं , त्याच्याशी केलेली दंगामस्ती , त्याने केलेली तनामनाची पार घुसळण साऱ्याच्या गोड आठवणी पहिल्या पावसाच्या मृद्गंधासारख्या असतात , भरून येऊ दे आभाळ की मन भरून आलंच , आठवणींची कुपी उघडलीच , मृद्गंध दरवळलाच !
पाण्याच्या खळाळात सोडलेल्या होड्या , डौलात जाणारी त्यांची स्वारी , बुडणार तर नाही ना असं शंकाकुल मन …बिंधासपणे टू व्हिलरवर मुक्तपणे अंगावर घेतलेला पाऊस …रेनकोटचा जामानिमा करत मुलांची केलेली शाळेतली पाठवणी ..आणि आता परत तितक्याच उत्साहात चिमुरड्या नातींबरोबर खळाळात सोडलेल्या रंगीत होड्या …एक कटाक्ष त्यांच्यांतले उत्सुक सचिंत भाव हेरण्यात गुंतलेला तर दुसरा नितळ निळ्या आकाशाचा वेध घेण्यात गुंतलेला !
खरंय ..जीवनचक्र हे असेच असते सृष्टीचक्र हे असेच असते !!
पाऊस येऊ दे ना दरचवर्षी पण त्याला भेटायला आतुरलेल्या मनाचं हे अस्संच असतं …!
पहिला शिडकावा पावसाचा होऊ दे की आठवणीच्या किर्र रानातले असंख्य काजवे सारं रान उजळीत मुक्तछंद आळवू लागतात ….आणि होते थाटामाटात एका दैदिप्यमान उत्सवाची सुरूवात , गडगडाटात , कडकडाटात आणि लखलखाटात …!
त्या लखलखाटात वसुंधरेचे भंवतालात झिरपलेले तृप्तीचे हुंकार असतात , तिच्या डोळ्यातली हिरवाईच्या डोहाळ्याची चमचमती स्वप्न असतात , अंगाखांद्यावर झुलणारी पाचूची बेटं असतात , तृणपात्यांच्या गळ्यातले पाणीदार मोत्यांचे सर असतात , मनोहर रंगीबेरंगी फुलांचा मोहक कशिदा असतो आणि अशा अपूर्व हिरव्या शालू शेल्याच्या साजातलं तिचं रूप अगदी उत्सवी असतं ,मंत्रमुग्ध करणारं असतं !