जय प्रकाश पाण्डेय
एक शेरनी सौ लंगूर
(प्रस्तुत है श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का यह सटीक व्यंग्य)
© जय प्रकाश पाण्डेय
जय प्रकाश पाण्डेय
एक शेरनी सौ लंगूर
(प्रस्तुत है श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का यह सटीक व्यंग्य)
© जय प्रकाश पाण्डेय
सुश्री ज्योति हसबनीस
हळवा क्षण
(प्रस्तुत है सुश्री ज्योति हसबनीस जी का आलेख हळवा क्षण)
काळ भराभर पुढं जात असतो. आणि स्वत:बरोबर आपल्यालाही नेत असतो. कधी स्वखुषीने तर कधी नाईलाजाने, त्याचं बोट धरून पुढे पुढे आपली पावलं पडत राहतात. मागचं सारं काही धुसर धुसर होत जातं आणि त्याच वेळी समोरच्या दृष्यातले रंग अधिकच गहिरे आणि वेधक वाटायला लागतात. बदलत्या आयुष्याशी जवळीक वाढू लागते, गोडी निर्माण होते. जीवनातली लज्जत आणि रंगत अनुभवता अनुभवता एखादा क्षण असा येतो की परत मन झर्रकन काळाचं बोट सोडून पार भूतकाळात मुसंडी मारतं ..आणि शोधू लागतं काही हरवलेलं, निसटलेलं, काळाच्या ओघात दुरावलेलं..!! पाऊस पडल्यानंतरची तरारलेली जुईची वेल आणि वेड लावणारा तिचा सुगंध फार फार बेचैन करतो जिवाला! कर्दळीच्या पानातल्या जुईच्या कळ्यांची पुडीच माझ्या नजरेसमोर येते आणि पार माझ्या शाळा कालेजच्या दिवसात घेऊन जाते ती मला ! आई-बाबांचं सहजीवनच साकारतं माझ्या डोळ्यासमोर! छोटंसं घर आमचं चाळीतलं, बाग कुठे असणार तिथे ! पण बाबा अतिशय रसिक, आईची फुलांची आवड ओळखून न विसरता पावर हाउस वरून येतांना जुईच्या कळ्या तोडून कर्दळीच्या पानांत बांधून आणायचे , आणि शाळेतून आलेली थकलेली आई प्रसन्न् चेहऱ्याने गजरा करायची! गजरा लावतांनाचा तिचा आनंदी चेहरा अजूनही डोळ्यांसमोर तस्साच आहे, आणि आफिसमधून आल्यावर लगबगीने आईच्या हातात ती हिरवी पुडी देतांनाची बाबांची कृतकृत्य भाव असलेली छबी तश्शीच मनावर कोरली गेलीय ..!
काळाबरोबर भरपूर पुढे आलेय ..भरपूर काही मागे राहिलंय पण आई-बाबांच्या सुखी समाधानी सहजीवनाच्या स्मृती तर कालातीत आहेत …नेहमीच पाऊस पडणार …जुई तरारणार ..आणि त्या हिरव्या गार पुडीतल्या जुईच्या कळ्या मला परत लहान करणार ..आई-बाबांकडे घेऊन जाणार ..
येतो असा एखादा क्षण खुप हळवं करून जाणारा …!!
© ज्योति हसबनीस
श्री रमेश सैनी
ए.टी.एम. में प्रेम
(e-abhivyakti में सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का स्वागत है।)
जब ए.टी.एम. नहीं थे तब सबको एक तारीख का इंतजार रहता था, भले यह इंतजार से 2 तारीख से चालू हो जाता था। यह इंतजार सुनहरे सपनों की तरह था जो महीना भर साथ रहता था। मर्दों को एक तारीख का बहाना मिल जाता ‘‘घबड़ाओ नहीं एक तारीख को तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी कर दूंगा। इस इंतजार में शेष समय शांति से बीत जाता। बच्चे भी खुश और उनकी मां भी खुश । एक तारीख से हफ़्ते भर पहले पत्नी के उलझे बाल संवरने लगते। चेहरे पर रंग-रोगन की चमक आ जाती। शाम को पत्नी सज-संवरकर तीखी मुस्कान से स्वागत करती। यह सिलसिला हफ़्ता भर चलता। इन दिनों सूखे में भी हरियाली रहती और पति भी चाहता था कि एक तारीख को सारी मांग पूरी कर दे। यह नाटक सिर्फ आखिरी दिनों में ही करना पड़ता और आखिरी दिनों में गीले आटे से सने हाथ, उलझी जुल्फों के साथ ओरिजनल साफ-सुथरी षकल दिखती। एक तारीख तो खास होती, उस दिन सोला टका नगद तनख्वाह मिलती, न कोई झंझट न कोई लफड़ा। ये भारतीय परिवार के अच्छे दिन थे। यह भी अधिक दिन नहीं चल पाया।
एक दिन सरकारी फरमान आ गया, आप लोगों का वेतन आपके खाते में डाल दिया जायेगा। जिस दिन से पत्नियों ने बैंक वाला फरमान सुना तबसे वे जरूरत के समय ही समर्पित और शेष दिन अपनी मर्जी की जि़्न्दगी जीतीं। बैंक के भी मजे थे, नया-नया खाता था। पासबुक शानदार कवर चढ़ाकर रखते थे। बच्चे पासबुक को बड़ी ललक भरी नज़रों से देखते थे। उनकी इच्छा होती कि उसे स्पर्श कर लें, पर तुरन्त डांट पड़ जाती – यह गंदी हो जायेगी, यह बहुत कीमती चीज़ है। पत्नी को तो पासबुक दिखाते ही नहीं। अगर वह कहती – अपनी पासबुक दिखाओ। तब हम उसे टरका देते – तुम्हारे हाथ गंदे हैं, खराब हो जायेगी या अभी समय नहीं है, बाद में देख लेना। कुछ इसी तरह के बहाने बना देते और उसे पासबुक से दूर रखते। पढ़ी-लिखी पत्नियों के खतरे अधिक हैं और फायदे कम, वे पैसे के मामले में समझदार अधिक होती हैं, पासबुक में जमा राशि पर उनकी नज़र रहती है, अतः सावधान रहना पड़ता है।
बैंक से पैसे निकालने के हमने अनेक तरीके ईजाद किये। जिस दिन पैसा निकालने बैंक जाते, उस दिन हमारी खास सेवा- सुश्रुशा होती। खाली चाय नहीं, साथ में तगड़ा नाश्ता भी होता। हमको सजा-संवरा देख मोहल्ले वाले टोक देते – ‘‘गुप्ता जी बैंक जा रहे हो!’’ जाने के पहले हम चैकबुक निकालते, बच्चों को दिखाते, देखो इसे चेक कहते हैं। इस कागज के टुकड़े पर बैंक वाला हमें पैसे दे देगा। चेक को बुक से सावधानी से अलग करते, दो-चार बार उलटते-पलटते, फिर पत्नी से पूछते – ‘‘कितना लाना है।’’ वह जितना बताती उससे अधिक पैसा निकालते, शेष अपनी जेब में और बाकी से थमा देते। चेक में रकम भरते, अंकों में लिखते और दस्तखत करने के पूर्व दो चार बार बारीकी से चैक करते – यदि स्कूल और काॅलेज की परीक्षाओं में कापी जमा करने के पहले इतनी बारीकी से चैक करते तो शायद अपनी इस स्थिति का मलाल न रहता – तब दस्तख़त करते, फिर अपने ही दस्तख़त पर मंत्र-मुग्ध होते – ‘‘क्या शानदार हैं, क्या पाॅवर है हमारे दस्तख़तों में।’’ बैंक जाते, दो-चार लोगों से मेल मुलाकात करते – ‘‘देखो हमारा भी बैंक में खाता है, या हम भी बैंक वाले हैं। उसका रुआब ही अलग होता। पहले बैंक में खाता होना एक स्टेटस था। पर आज बैंक से लोन लेना स्टेटस होता है। लोग शान से बताते हैं – ‘हमने फलाने बैंक से इतना लोन लिया है। हमारी इतनी लिमिट हो गयी है। खाते में बिना पैसे के इस लिमिट तक पैसा निकाल सकते हैं। क्या उधार लेना सम्मान की बात हो गयी है? कि लोन लो और वापिस मत करो। लोन लो, भूल जाओ। टेंशन मत लो। फिर तो बैंक का टेंशन हो जाता है, आपका टेंशन, बैंक का टेंशन । आप टेंशन-मुक्त।
खैर दिन गुजरने लगे। चैक से पैसे निकलते रहे। फिर एक दिन एक दिन एक दुर्घटना घटी एक दिन बैंक से पैसे निकालने गये कि बाबू ने फार्म पकड़ा दिया और कहा – ‘‘बस नीचे सुन्दर हस्ताक्षर कर दो, शेष फाॅर्म हम भर देंगे। अब अगले महीने से हमारे पास पैसे लेने मत आना। आपके पास एक कार्ड आएगा, जिससे बाहर लगी मशीन से ज़रूरत के मुताबिक पैसा निकाला जा सकता है। हमने कहा – ‘‘मशीन से कैसे पैसा निकालेंगे।’’ तब उसने कहा – ‘‘आप कार्ड लेते आना, हम तरीका समझा देंगे।‘‘ एक दिन कार्ड आ गया, जिसे लेकर हम बैंक पहुंचे और बाबू से कहा, अब बताओ इससे कैसे निकलेगा पैसा? उसने पैसा निकालने का तरीका समझाया, जो आसान था। एक मित्र ने बताया, इसे मात्र कार्ड भर न समझो, यह लक्ष्मी है, लक्ष्मी! इसे संभाल कर रखो। तब से हम उसे पूजते, एहतियात बरतते और पत्नी-बच्चों से बचाकर लाॅकर में रखते।
इस तरह जिंदगी अच्छी खासी चल रही थी कि एक दिन नोटबंदी की घोषणा हो गयी। मशीन ने नोट उगलना बंद कर दिया। अब स्थिति यह हो गयी कि बैंक और मशीनों में ‘नोट देने रुकावट के लिए खेद’ का बोर्ड लगा दिया गया। बैंक के सामने लंबी लाइन लग गईं। अब अख़बारों में समाचार और विज्ञापन छपेंगे कि फलानी जगह का फलाना एटीएम बंद है, अतः आप कष्ट न करें। इससे एटीएम का नये ढंग से उपयोग होने लगा।
अब अपना पैसा भी लाईन में लगकर लो। बैंक वाला तो, ‘अंधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह-चीन्ह कर देय।’ अपना पैसा लो और अपमान ब्याज में, मन चाहा पैसा भी नहीं ले सकते हैं। जितना मशीन कहेगी, उतना ही मिलेगा, वह भी जेन्टलमेन की भांति कतार में लगकर। अब मशीन भी धोखा दे देती, उसका पूरा आदेश का पालन करो, फिर अंत में कह देती है, पैसा नहीं है, कष्ट के लिए खेद है। कभी-कभी तो यह स्थिति आई कि गार्ड बाहर से ही टरका देता। हम एक दिन पड़ौस के एटीएम पहुंचे, बाहर गार्ड साहब ने दूर से ही रोका, ‘बाबूजी मशीन में रुपया नहीं है।‘ हमने कहा, ‘कोई बात नहीं, अपना बेलेंस पता कर लेंगे।’
– उससे क्या फायदा?
– अपना जमा पैसा मालूम हो जायेगा।
– कोई फायदा नहीं मशीन बंद है।
अंदर से कुछ खटपट की आवाज़ आ रही थी। हमारा संवाद सुन एक युवा जोड़ा लगभग चिपका हुआ बाहर निकला। दोनों हाथों में हाथ डाले मुस्कराते हुए आगे बढ़ गये।
मैंने पूछा – यह क्या है?
गार्ड ने कहा – प्रेम…!
– प्रेम, मशीन में प्रेम, पर मशीन तो बंद है।
– सर, मशीन बंद है पर उसका ए.सी. चालू है। बहुत सुकून मिलता है उन्हें।
– और तुम क्या कर रहे हो?
– सर मशीन बंद है, तो हम भी पुण्य कमा रहे हैं।
© रमेश सैनी
सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा
रौशनाई
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की एक भावप्रवण कविता।)
ये क्या हुआ, कहाँ बह चली ये गुलाबी पुरवाई?
क्या किसी भटके मुसाफिर को तेरी याद आई?
बहकी-बहकी सी लग रही है ये पीली चांदनी भी,
बादलों की परतों के पीछे छुप गयी है तनहाई!
क्या एक पल की रौशनी है,अंधेरा छोड़ जायेगी?
या फिर वो बज उठेगी जैसे हो कोई शहनाई?
डर सा लगता है दिल को सीली सी इन शामों में,
कहीं भँवरे सा डोलता हुआ वो उड़ न जाए हरजाई!
ज़ख्म और सह ना पायेगा यह सिसकता लम्हा,
जाना ही है तो चली जाए, पास न आये रौशनाई!
सुश्री ज्योति हसबनीस
शिस्तीची चौकट
(प्रस्तुत है सुश्री ज्योति हसबनीस जी का आलेख शिस्तीची चौकट)
अतिशय निष्ठेने एखाद्या व्रतस्थासारखं आपला दिनक्रम पाळणाऱ्या व्यक्तिंविषयी मला नेहमीच आदर आणि कुतूहल वाटत आलंय. आदर त्यांच्या शिस्तबद्ध जीवनशैलीबद्दल आणि कुतूहल नेमकी कुठल्या मातीची ही मंडळी बनलीत त्याबद्दल !
उजाडल्यापासून तर मावळेपर्यंत एका ठराविक पद्धतीनेच दिवसाची वाटचाल करणं यांना पसंत असतं. त्या आखीव रेखीवपणात एकही रेष जागची हललेली यांना चालत नाही. नियमितपणे अनियमितपणा करण्यावर यांचा काडीमात्र विश्वास तर नसतोच पण अनियमितपणा ह्या शब्दाला त्यांच्या शब्दकोषात स्थानच नसते ! पेपर वाचायचा झाला तरी ठराविक वेळेतच ठराविक बातम्यांना प्राधान्य देतच त्याला गुंडाळणार, मग कितीही वाचनीय संपादकीय असू दे, की मजेदार लेख असू दे ! घड्याळाच्या काट्यांची पोझिशन हवी ती आली की पेपरची गुंडाळी भिरकावलीच ! फिरायला निघाले तरी,डोळ्यांवर झापडं बसवल्यासारखी अगदी नाकासमोर चालणार, पक्ष्यांची मंजुळ साद ऐकून कान टवकारणार नाहीत, की आवाजाच्या रोखाने वेध घेणार नाहीत. चालीमध्ये ठराविक गती राखत, अध्ये मध्ये न रेंगाळता, झपझप योजलेला पल्ला पार करत व्यवस्थित घर गाठणार !दिवसभराचं व्यस्तपण घरी आल्यावर तरी शांत करतं का ..? छे: एक नजर मोबाईलवर अर्ध ऑफिस समर्थपणे पेलण्यात गुंगलेली तर एक नजर घड्याळाच्या काट्यांच्या गरगरण्यात गुंतलेली !आली रे आली हवी तशी पोझिशन काट्यांची की अन्न हे पूर्णब्रह्म मानून तेही एका रिच्यूअल सारखं आटोपून दिवसाची अखेर TV समोर रंजक करायला हे मोकळे ! हातात रिमोट जरी असला तरी त्यावर ठराविकच चॅनेल्स चे नंबर असावेत की काय याची दाट शंका यावी इतकी आलटून पालटून इन मिन तीन जरी नाही तरी पाच ते सहा चॅनेल्स बघणार ज्यात कधीही चटकदार सीरियल्स नसणार, मूव्हीज नसणार ..! हो , जगभरातल्या घडामोडींची मात्र रेलचेल असणार !
झोप यांच्या डोळ्यावर कधीच नसते ती तर घड्याळाच्या काट्यांवर असते …? त्यांची ह्यांना जमेल तशी हातमिळवणी झाली की निद्रा त्यांच्यावर प्रसन्न झालीच म्हणून समजा ! एका शिस्तबद्ध कार्यक्रमाची सांगता यशस्वीपणे झाल्याच्या खुषीत ही मंडळी लयबद्ध घोरू देखील लागतात !
कित्येकदा ह्या शिस्तबद्ध चौकटीचे कोन आजूबाजूच्यांना खुपतात, त्रासदायक ठरतात, पण ह्या शिस्तबद्ध चौकटीतलं जग अत्यंत सुरक्षित असतं, अनियमितपणाला घातल्या जाणाऱ्या नियमित वेसणामुळे एक अंगभूत अशी संरक्षक कवच कुंडलं ह्याला प्राप्त झालेली असतात, ही शिस्तशीर चौकटच त्या जगाची शान असते !
© ज्योति हसबनीस
सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा
पुरानी दोस्त
(जीवन के कटु सत्य को उजागर करती सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की एक भावप्रवण कविता।)
कभी
वो तुम्हारी पक्की सहेली हुआ करती होगी,
एक दूसरे का हाथ थामे हुए
तुम दोनों साथ चला करते होगे,
ढलती शामों में तो
अक्सर तुम उसके कंधों पर अपना सर रख
उससे घंटों बातें किया करते होगे,
और सीली रातों में
उसकी साँसों में तुम्हारी साँस
घुल जाया करती होगी…
तब तुम्हें यूँ लगता होगा
तुम जन्मों के बिछुड़े दीवाने हो
और बिलकुल ऐसे
जैसे तुम दोनों बरसों बाद मिले हो
तुम उसे अपने गले लगा लिया करते होगे…
तुम उसे दोस्त समझा करते थे,
पर वो तुम्हारी सबसे बड़ी दुश्मन थी!
यह तो अब
तुमने बरसों बाद जाना है
कि तनहाई का
कोई अस्तित्व था ही नहीं,
ये तो तुम्हारे अन्दर में बसी थी
और तुम्हारे कहने पर ही निकलती थी…
सुनो,
एक दिन तुम उठा लेना एक तलवार
और उसके तब तक टुकड़े करते रहना
जब तक वो पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जाए…
उसके मरते ही
तुम्हारे ज़हन में
जुस्तजू जनम लेगी
और तब तुम्हें
तनहाई नामक उस पुरानी सहेली की
याद भी नहीं आएगी…
© नीलम सक्सेना चंद्रा
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। वर्तमान में आप जनरल मैनेजर (विद्युत) पद पर पुणे मेट्रो में कार्यरत हैं।)
सुश्री ज्योति हसबनीस
ऊस डोंगा परी……..
(प्रस्तुत है सुश्री ज्योति हसबनीस जी की लघुकथा ऊस डोंगा परी……..। )
रात्रीची फ्लाईट घेतांनाच मनावर एक प्रकारचं दडपण आलं होतं. एयरपोर्टपासून घर बरंच दूर होतं. रात्रीच्या वेळी पायाखालचा रस्ता, सवयीची वळणं देखील अनोळखी भासू लागतात, रस्त्यावरचे दिवे बऱ्याचदा काळोखच उजळ करतायत की काय असा भास होत असतो. पण वेळेचं आणि पैशाचं गणित सोडवण्याचा हाच एक उत्तम पर्याय असल्याने जिवाच्या कराराने शेवटी हाच निवडला , आणि आता ज्याची भिती वाटत होती तेच झालं. चांगली दीड तास लेट झाली होती flight! विमान लॅंड होऊन सामान मिळेपर्यंत ११.३० च वाजले होते.
सामान घेऊन बाहेर पडले आणि रिक्षेवाले टॅक्सीवाले मागे पुढे घोटाळायला लागले, टॅक्सी की रिक्षा अशी दोलायमान स्थिती असतांनाच एक काळाकभिन्न, राकट, डेरेदार पोटाचा, घेरदार माणूस जणू मला घेरल्यासारखाच जवळ आला. ‘चला आपल्या रिक्षेत बसा, सामान द्या, तुम्ही व्हा पुढं!’ मला हो नाही म्हणायची संधी ही न देता.
जणू त्याने फर्मानच सोडलं त्याच्या रिक्षेत बसायचं. आणि त्याने एका माणसाला इशारा केला, त्यासरशी त्या माणसाने सराईतपणे रिक्षा जवळ आणून उभा केला आणि माझं सामान ठेवायला सुरूवात केली. ‘माझा हात घट्ट घरून ठेव ‘असं देवाला विनवत मी रिक्षेत बसले. मी मनोमन स्वत:लाच शिव्या घालत होते की, ‘का आपण असे त्या माणसाच्या म्हणण्याला भुललो, का नाही म्हंटलं नाही , कसा दिसत होता तो, अक्षरश: गुंड पुंड, भाई कॅटॅगरितला वाटत होता! आणि त्याने इशारा केलेला माणूस पण त्यालाच सामिल असणार! कित्येक उलट सुलट बातम्या पेपरमधल्या आपण वाचत असतो, का आपण त्यातून शहाणपण शिकत नाही, ‘अशा एक ना अनेक विचारांचे भुंगे डोकं पोखरायला लागले.
दिवसभराची पावसाची झड थांबली होती. खाचखळगे पाण्याने तुडुंब भरले होते ! रस्ते पण काजळलेले, शिणून पेंगुळलेले, एकटेपणात गुरफटलेले वाटत होते. गारेगार झालं होतं पुणं अगदी! थंडं वारं हाडात शिरून अगदी झिणझिणून टाकत होतं तनामनाला! एखाद् दुसरं वाहन आणि रिक्षेचा आवाज एवढंच काय ते रात्रीच्या नीरव शांततेचा भंग करत होतं. संभाषण नसल्याने एक विचित्र शांतता वातावरणात जाणवत होती. माझ्या मनातल्या गोंधळाचा सुगावा लागल्यासारखा, ‘ताई लेट झालं का विमान’ अशी त्याने संभाषणाला सुरूवात केली. त्याचं ‘ ताई ‘ हे संबोधन मी ऐकलं आणि माझ्या मनावरचा ताण अगदी कुठल्याकुठे पळाला. आणि मग आमच्या काय गप्पा रंगल्यायत राव ! त्याचं नेटकं कुटुंब, दोनच मुली पण त्यांना कसं मुलासारखं वाढवलं, त्याच्या ऐपतीप्रमाणे कसं शिकवलं, पुण्यातलं, समाजकारण, अर्थकारण, राजकारण, राजकारणातले डावपेच, मुत्सद्दी, तसंच कुचकामी नेतृत्व, आणि शेवटी सामान्यांसाठी सारे एकाच माळेचे मणी हा निष्कर्ष! सगळं शेवटी जिथलं तिथेच राहतं, आपल्या पोळीवर तूप ओतून घेणाऱ्यांचं फावतं असा सूर!
खरंच, रात्र , निर्मनुष्य रस्ता, दूरवरचं घर सारं सारं विसरायला झालं मला. भानावर येत, ‘आता डावीकडे घ्या दादा’ असं त्याला सुचवत मी घरी पोहोचले देखील! त्याला रिक्षेचं भाडं देत आणि वर बक्षिसी देत शुभ रात्री चिंतत जिना चढतांना चक्क गुणगुणत होते मी …
मंडळी कल्पना करा काय गुणगुणत असेन मी ..? ‘ ऊस डोंगा परी, रस नोहे डोंगा, काय भुललासी, वरलिया रंगा? ‘खरंच राहून राहून माझ्या डोळ्यासमोर तो काळाकभिन्न, राकट देहाचा, डेरेदार पोटाचा, घेरदार माणूस आणि त्याने त्या रिक्षेवाल्याला केलेला इशारा येत होता. त्याच्या बाह्यरूपाचा मी धसका घेतला होता, भीती वाटली होती मला, पण प्रत्यक्षात किती वेगळा अनुभव आला मला. खरंच बाह्यरूपावरून असे अंदाज बांधणं अगदी चुकीचं आणि एखाद्यावर अन्याय करण्यासारखंच आहे, नाही का? किती मोठी चूक करतो आपण अशावेळी! माणसाचं दिसणं आणि त्याचं असणं यातल्या त्याच्या माणूस असण्याचा विसर का पडतो आपल्याला? आणि हो अजून एक गोष्ट ….कुठल्याही परिस्थितीत आपला हात ‘त्याने’ घट्ट धरलाय ही जाणीव सतत मनाशी जपावी, ती जाणीव आपला प्रवास नेहमी सुरक्षित होईल ह्याची काळजीच घेते! आपल्याला उभारी देऊन निश्चिंत करते!!
© ज्योति हसबनीस
सूरज को मोमबत्ती सेल्स एशोसियेशन बरेली का फर्स्ट जुगनू अवार्ड
(प्रस्तुत है श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का एक कस्बे से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदान किए जाने वाले अवार्ड/ सम्मान /पुरस्कार आदि पर एक सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।)
मुझे मेरे व्यंग्य की सचाई, निरंतरता, भाषा और कटाक्ष की क्षमता के लिये कोई भी बड़ी, छोटी साहित्यिक संस्था कभी भी शाल , श्रीफल ,स्मृति चिन्ह व सम्मान पत्र और हो सके तो कुछ नगदी से सम्मानित कर सकती है. इससे उस संस्था और पुरस्कार का ही गौरव बढ़ेगा. मैं तो जैसा लिख रहा हूं, छप रहा हूं, लिखता छपता ही रहूंगा. सच को सच कहना गर्व का विषय ही होता है. ग्राम पीपरीकंला, पोस्ट आफिस झुंझनी की विश्व साहित्य विकास परिषद ने पोस्टकार्ड लिखकर मुझे सूचित किया है कि वे मात्र १००० रुपये सदस्यता शुल्क जमा करने पर मुझे व्यंग्य सम्राट के खिताब से अलंकृत करना चाहते हैं, जिसके लिये मेरा चयन संस्था की विद्वत समिति कर चुकी है.
हमारा परिवार लेखकीय परिवार है. हमारा नाम, पता, ईमेल और फोन नम्बर तक हमारी रचनाओ के साथ सार्वजनिक है. मतलब उतनी जानकारी जितनी के लिये आधार कार्ड या फेसबुक की गोपनीयता नीति पर अदालतो में जिरह हुये हम यूं ही सार्वजनिक किये बैठे हैं. इसके चलते मेरी पत्नी को भी इंटरनेशनल बायोग्राफिक इंस्टीट्यूट, मिशिगन से “वूमन आफ द ईयर” अवार्ड के आफर महज १०० डालर में, लेदर कवर हार्ड बाउंड बुक में फोटो सहित परिचय प्रकाशन के साथ घर बैठे आ चुके हैं, किताब की एक प्रति के साथ में मेटल इम्बोस्ड मेडल भी पंजीकृत डाक से मिलना था. पर चूंकि मैं तो अपनी पत्नी को पहले ही “वुमन आफ सेंचुरी” के सम्मान से सम्मानित कर चुका था अतः उसने विनम्रता पूर्वक यह अंतर्राष्ट्रीय सम्मान ठुकरा दिया. भले ही हम इस तरह के पुरस्कारो के लिये स्वयं को सर्वथा अयोग्य पाते रहे हैं, पर मेरे शहर के अनेक स्वनाम धन्य रचनाकारो के ऐसे पुरस्कारो से सम्मानित होने के फोटो सहित बाक्स न्यूज अखबार के सिटी पेज पर पढ़कर उन्हें बधाई देने के अवसर हमें जब तब मिलते रहते हैं. ये अवार्ड उनके बायोडाटा को और लम्बा कर देते हैं, साथ ही अगले अवार्ड के लिये पृष्ठभूमि भी बना देते हैं.
मुझे ज्ञात हुआ है कि सूरज को उसकी निरंतरता, ओजस्विता, ताप, प्रकाश और इन दिनो नान कंवेशनल इनर्जी में सोलर लाइट्स के क्षेत्र में प्रयुक्त होने पर मोमबत्ती सेल्स एशोसियेशन बरेली का फर्स्ट जुगनू अवार्ड घोषित किया गया है.
जिस तरह इन दिनो अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप साहब पर व्यंग्य हो रहे हैं, हमारे व्यंग्यकारो ने भी उन पर व्यंग्य उपन्यास लिखने की पहल की है, मैं सोच रहा हूं मित्रो से चर्चा करूंगा कि व्यंग्यकार एसोशियेशन की ओर से सम्माननीय राष्ट्रपति ट्रंप साहब के नाम पहला अंतर्राष्ट्रीय लालू व्यंग्य पर्सनेलिटी अवार्ड घोषित करवा ही दूं . इससे देश के वैश्विक सांस्कृतिक संबंध सुढ़ृड़ करने में व्यंग्य की भूमिका का भी निर्वहन हो सकेगा. यदि यह पुरस्कार देने के लिये अमेरिका के स्थानीय एड्रेस की जरूरत होगी तो मेरे पुत्र के न्यूयार्क दफ्तर का पता दिया जा सकता है. मित्रो के कई बच्चे इन दिनो अमेरिका में हैं, उनका प्रतिनिधि मण्डल व्हाईट हाउस पहुंचकर ससम्मान राष्ट्रपति जी को इस व्यंग्य सम्मान से अवार्डित कर सकेगा. मैं तो यहां से बैठे बैठे ही अपने पहले ट्वीट से ही उन्हें बधाई दे दूंगा. ये और बात है कि हमारे इस अवार्ड की वहां का विपक्ष और अखबार कितनी चर्चा करेंगे यह हम नही जानते.
© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८
सुश्री ज्योति हसबनीस
तरूणाई
(प्रस्तुत है सुश्री ज्योति हसबनीस जी की लघुकथा तरूणाई। )
‘आई मैत्री वेगळी, आणि व्यवसाय वेगळा’. व्यवसायात माझा पार्टनर म्हणून जरी आता तो राहिला नसला तरी आमच्यातली मैत्री तर तशीच आहे आणि तशीच राहणार. मित्र म्हणून तो आजही मला तितकाच आवडतो. नाही जमलं त्याला धंदा सांभाळणं, नाही मानवलं आम्हाला त्याचं व्यवसायाकडे दुर्लक्ष करणं. नविन नविन व्यवसाय, झोकून देऊन काम करून सुरूवात केली खरी आम्ही सगळ्यांनी, पण नाही राखता आलं त्याला उत्साहातलं सातत्य, देखरेखीतली जागरूकता, हिशेबातली सतर्कता! जाण असूनही नाही पेलता आली जवाबदारी, पण म्हणूनच दिला ना त्याला डच्चू! आम्हीच एकत्र बघितलेल्या स्वप्नाच्या मनोऱ्याचा एक खांब खणून बाजूला फेकतांना कोण यातना झाल्या आम्हाला, पण व्यवसाय सुरळीत चालावा, धंद्याला रूप यावं, म्हणून मनावर दगड ठेवून हा निर्णय घेतला, आणि योग्य वेळी निर्णय घेतल्याचा समाधानाचा सुस्कारा देखील सोडला. पण याचा अर्थ असा नाही ना होत की पार्टनरशीप बरोबर दोस्तीचाही शेवट झालाय! अगं कधीही काही सल्ल्याची गरज भासली , तर आम्ही धाव घेणारच त्याच्याकडे! अगं काय सुपीक डोकं आहे त्याचं, काय भन्नाट कल्पना असतात त्याच्या, हा आता थोडा भरकटलेला असतो , पण असतातच अशी ही creative लोकं थोडी भरकटलेली, त्यांचं जगही वेगळं, आणि त्यात रमण्याच्या त्यांच्या कल्पनाही वेगळ्या! चल निघतो मी, एक काम दिलंय त्याला, बघतो झालं का final ते! ‘फटाफट माझ्या प्रश्नाला उत्त्तर देत, की मला गप्प बसवत माझ्या प्रश्नार्थक मुद्रेची जराही फिकीर न करता, असंख्य विचारांच्या भोवऱ्यात मला एकटीला गरगरत सोडून बाईकला किक मारत झूम्मदिशी तो गेला सुद्धा!!
वयाच्या सव्वीसाव्या वर्षी विचारांची एवढी स्पष्टता आपल्यात होती? असली तरी ती इतक्या स्पष्टपणे मांडण्याची ताकद आणि पारदर्शीपण आपल्यात होतं? व्यवसाय आणि नात्यांची गल्लत न करता दोन्हीचा तोल सांभाळत जीवनाचा ताल बिघडू न देण्याची मानसिकता आपल्यात होती? मुळात नाकासमोर चालत, एका comfort zone मध्ये वावरण्याची सवय लावून घेत आयुष्य गेलं आपलं, वेगळी वाट चोखाळणं तर मनाला शिवलं देखील नाही आपल्या! आणि त्या पार्श्वभूमीवर मनात असेल तेच करणारी , ईप्सित साध्य करण्यासाठी जिवाचं रान करणारी ही तरूणाई खुप वेगळी भासली मला! वेगवेगळ्या क्षेत्रांत पावलं टाकतांना, चालीतला वेग, तिची लय बिघडू न देता कायम राखणाऱ्या ह्या तरूणाईचा, त्यांच्या आत्मविश्वासाचा मला खुप अभिमान वाटला त्या क्षणी ! स्वतंत्रपणे व्यवसाय उभारून भक्कमपणे पाय रोवू बघणारी ही दमदार तरूणाई मला खुप काही शिकवून गेली. माझ्या बुरसट आणि कोत्या विचारांचा धुव्वा उडवत मनाचा अगदी स्वच्छ उपसा करणारी ही तरूणाई एका वेगळ्याच तेजाने झळाळत असलेली मला जाणवली!
विचारांचं वादळ शमलं होतं. डोळ्यातल्या प्रश्नचिन्हाची जागा आता अपार स्नेहाने घेतली होती, कपाळावरच्या आठ्या पार विरल्या होत्या, चेहऱ्यावर कौतुक आणि आनंदाचं तृप्त हास्य पसरलं होतं, आणि मनात फक्त ‘शुभं भवतु’ चे हुंकार निनादत होते.
© ज्योति हसबनीस
डॉ कुन्दन सिंह परिहार
शहर में टहलने का आनन्द
(प्रस्तुत है डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का एक बेहतरीन व्यंग्य। )
उस दिन डॉक्टर को दिखाने गया तो उन्होंने बड़ी देर तक ठोक-बजा कर देखा,फिर बोले, ‘आपने अपने इस लाड़ले शरीर को बैठे बैठे खूब खिलाया पिलाया है। अब कुछ टहलना-घूमना, हाथ-पाँव चलाना शुरू कर दीजिए, वरना किसी दिन बिना नोटिस दिये यमराज आपका जीव समेटने के लिए आ जाएंगे।’
मेरा फिलहाल दुनिया छोड़ने का मन नहीं था। अभी धंधा उठान पर चल रहा था।घर धन-धान्य से भर रहा था।पत्नी-संतानें प्रसन्न थीं।ऐसे में दुनिया छोड़ना घाटे का सौदा होगा।दुनिया तभी छोड़ना चाहिए जब धंधा मंदी की तरफ चलने लगे और पत्नी-संतानें सदैव मुँह फुलाये रहें।
डॉक्टर की बात से घबराकर मैंने सबेरे टहलने के लिए अपनी कमर कस ली।दूसरे दिन सबेरे उठकर दीर्घकाल बाद सूर्य भगवान के दर्शन किये, फिर यह देखने लगा कि मुहल्ले का कौन सरफिरा सबेरे सबेरे घूमने निकलता है ताकि एक से भले दो हो जाएं।जल्दी ही मुझे सामने बैरागी जी दिख गये। बैरागी जी की खूबी यह है कि वे चलते-फिरते अपने आप से ही बात करते रहते हैं।बात की रौ में उनका सिर, चेहरा और हाथ जुंबिश करते रहते हैं।मैंने सोचा इनके साथ घूमने जाऊंगा तो ये कुछ देर के लिए अपने आप से बात करने से बच जाएंगे।बैरागी जी भी मेरे प्रस्ताव पर खासे खुश हुए।
लेकिन दो दिन में ही मुझे पता चल गया कि बैरागी जी की बेचैनी का राज़ क्या था।दरअसल वे सारे वक्त शेयरों के गुणा-भाग में लगे रहते थे।मुझे वे दो दिन तक बिना साँस लिए समझाते रहे कि कौन सा शेयर उठ रहा है, कौन सा गिर रहा है और किन शेयरों में पैसा लगाने से चाँदी ही चाँदी हो सकती है।उन्होंने यह भी बताया कि बीच में जब शेयरों के दाम ज़्यादा गिर गये थे तब सदमे के मारे उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था।
शेयरों की मुसलसल मार से दो दिन में ही मेरा दिमाग सुन्न हो गया और तीसरे दिन मैंने बैरागी जी को मरे-मरे स्वर में बता दिया कि तबियत ढीली होने के कारण मैं टहलने की स्थिति में नहीं हूँ।बैरागी जी तीन दिन तक बड़ी उम्मीद से मेरे दरवाज़े पर दस्तक देते रहे ताकि शेयरों के बारे में मेरा कुछ और ज्ञानवर्धन कर सकें।फिर मायूस होकर उन्होंने आना बन्द कर दिया और शायद अपने आप से गुफ्तगू करना फिर शुरू कर दिया।
बैरागी जी के न आने का इत्मीनान करने के बाद मैं अकेला ही टहलने निकल पड़ा।ज़ाहिर है मैंने उन सड़कों का चुनाव किया जिन पर बैरागी जी से टकराने का अन्देशा नहीं था।
मैं लंबे कदम रखता, झपटता चल रहा था कि तभी मेरे बगल से तीन चार नौजवान टी शर्ट और हाफ-पैंट पहने ‘जागिंग’ करते हुए निकले।मुझे अच्छा लगा।मन में आया कि मैं भी थोड़ी दौड़ लगा लूँ, कि तभी जाने कहाँ से प्रकट होकर कुत्तों का एक पूरा कुनबा उन नौजवानों के पीछे पड़ गया।उन्होंने नौजवानों को पछियाना तभी बन्द किया जब उन्होंने दौड़ना बन्द कर दिया।मेरी समझ में आ गया कि शहर की सड़कों पर दौड़ना अक्लमंदी की बात नहीं है।
मेरे आगे एक सज्जन एक लंबे-चौड़े कुत्ते की ज़ंजीर थामे घिसटते हुए से चल रहे थे।अचानक कुत्ता बीच सड़क पर रुककर बड़ी शंका का निवारण करने लगा और उसके स्वामी मुँह उठाकर इत्मीनान से बादलों की खूबसूरती निहारने लगे।मुझे उनकी इस ग़ैरज़िम्मेदारी पर ख़ासा ग़ुस्सा आया।मन हुआ उन्हें दो चार बातें सुनाकर नागरिक के रूप में उनकी ज़िम्मेदारी का अहसास कराऊँ,लेकिन कुत्ते की कद-काठी और उसकी ख़ूँख़्वार शक्ल देखने के बाद मैंने अपना इरादा मुल्तवी कर दिया।
आगे बढ़ा तो कई घरों की चारदीवारी के किनारे लगे फूलदार वृक्षों से फूल तोड़ते कई लोग दिखे।इनमें पुरुष स्त्री, बाल वृद्ध सभी थे।मकान-मालिक भीतर सो रहे थे और ये संभ्रांत लोग अवसर का लाभ उठाकर निःसंकोच फूलों पर हाथ साफ कर रहे थे।ऐसे ही एक पुष्पप्रेमी ने मुझे बताया था कि चोरी के फूलों से पूजा करने पर पूजा ज़्यादा फलदायक होती है।
थोड़ा आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे किनारे शहर का सुपरिचित नाला चलने लगा।यह नाला शहर की जीवन-रेखा है।यह शहर के वजूद में उसी तरह पैवस्त है जैसे आदमी के शरीर में रक्तवाहिनी नलिकाएं होती हैं।शहर में जहाँ भी जाइए, इसकी बहार दिखायी देती है।शहर की गन्दगी का वाहक यह नाला कई घरों के ऐन दरवाज़े से बहता है।इन घरों में लगातार इसकी सुगंध बसी रहती है और सदैव इसके जल का दर्शन-लाभ होता रहता है।
आगे सड़क एक पुल पर चढ़ जाती है, जिस पर घूमने वालों की गहमागहमी रहती है।घूमने के अलावा यहां और उद्देश्यों से भी लोग आते हैं।एक सज्जन नियमित रूप से पुल के फुटपाथ पर शीर्षासन करते हैं जिससे घूमनेवालों का बिना टिकट मनोरंजन होता है। कुछ लोग पी.टी.करने की शैली में फुटपाथ पर उछलते कूदते दिखते हैं।यहाँ बूढ़ों के कई गोल नियमित रूप से जमते हैं और देर तक जमे रहते हैं।मुझे यह भ्रम था कि ये बूढ़े परलोक और पाप-पुण्य की बातें करते होंगे, लेकिन यह मेरा मुग़ालता ही निकला।जब उनकी बातों पर कान दिया तो पता चला कि उन्हें परलोक के अलावा अनेक ग़म हैं।एक गोल में पेंशन पर मिलने वाले कम मंहगाई भत्ते का रोना रोया जा रहा था तो दूसरे में मियादी जमाओं पर घट गये ब्याज का स्यापा हो रहा था।एक और गोल एक ऐसी लड़की की चर्चा में मगन था जो पड़ोस के लड़के के साथ पलायन कर गयी थी।
इन दृश्यों से बचने के लिए मैंने दूसरे दिन पास के पार्क में घूमने की सोची, लेकिन वहां प्रवेश करने पर मेरा साक्षात्कार आदमियों के बजाय आराम फरमा रहे सुअरों और कुत्तों से हुआ, जिन्होंने मुझे नाराज़ नज़रों से देखा।वहाँ पालिथिन की इस्तेमाल की हुई थैलियाँ और बासा,सड़ता हुआ खाना सब तरफ बिखरा था और कुत्ते और सुअर दावत का मज़ा ले रहे थे।पता चला कि नगर का विकास प्राधिकरण उस पार्क को शादी-ब्याह के लिए किराये पर उठा देता था और फिर कई दिन तक यही दृश्य उपस्थित होता था।वहाँ की सफाई की ज़िम्मेदारी कुत्तों, सुअरों और कचरा बीनने वालों पर छोड़ दी गयी थी।
अगली सुबह फिर मैं पूरे उत्साह में ऐसी सड़क के अन्वेषण के लिए निकल पड़ा जहाँ कुत्ते आदमी को न पछयाते हों,सुअरों के दर्शन न होते हों और कुत्ता-स्वामी अपने ख़ूँख्वार कुत्तों को सड़क के बीच में फ़ारिग़ न कराते हों।
© डॉ कुन्दन सिंह परिहार