योग-साधना LIFESKILLS/जीवन कौशल-16 –SHRI JAGAT SINGH BISHT

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Cultivating a close, warm-hearted feeling for others automatically puts the mind at ease. It helps remove whatever fears or insecurities we may have and gives us the strength to cope with any obstacles we encounter. It is the ultimate source of success in life.
LifeSkills

 

Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore




हिन्दी साहित्य- लघुकथा – छोटू का दर्द – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

छोटू का दर्द

अधेड़ आयु का एक शराबी होटल में घुसते ही “ए छोटू…एक प्लेट भजिए और कड़क काली चाय देने का इधर, फटाफट.. जल्दी से”

“जी साब, अभी लाया।” फुर्ती से छोटु ने भजिए की प्लेट टेबल पर रखते हुए कहा- “चाय बन रही है साब, फिर लाता हूँ।”

“क्यों बे! ये टेबल कौन साफ़ करेगा  तेरा बाप?”

“साब, आप अपुन के बाप का नाम लेता है, मेरे को कोई मलाल नहीं इसका। अगर बाप ही ये काम कर लेता तो मैं  अभी किसी सरकारी स्कूल में पढ़ रहा होता।”

“अच्छा साब, आपका बच्चा तो पढता होगा ना?” टेबल पर पोंछा मारते हुए छोटू ने पूछा?

शराबी ने घूरते हुए कहा- “हाँ, पर तू ये सब क्यों पूछ रहा है?”

“क्योंकि साब, स्कूल जाना तो मैंने भी शुरू किया था, किन्तु बीच में ही बाप की दारू की लत के कारण पढ़ना  छोड़ना पड़ा।”

“अच्छा साब,- आपका बच्चा तो आखरी तक पढाई करता रहेगा ना?”

“अबे छुटके, सवाल पे सवाल आखिर तेरा मतलब क्या है?”

“माफ़ करना साब,  पर आपको ऐसी हालत में देख कर मुझे लगा कि, कहीं मेरी तरह आपके बच्चे को भी स्कूल छोड़कर किसी होटल – वोटल में…….”

छोटू अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि, शराबी का एक झन्नाटेदार हाथ उसके गाल पर पड़ा।

“अबे साले  तूने तो आज मेरा पूरा नशा ही उतार दिया रे..”

यह कहते हुए फिर अचानक द्रवित हो छोटू के कंधे पर एक पल के लिए हाथ रखा और सिर झटकते हुए होटल से बाहर निकल कर अपने घर की राह पकड़ ली।

छोटू चांटा खाने के बाद भी खुश था।

इसलिए कि, शायद अब उस आदमी का बच्चा अपनी पढाई पूरी कर सकेगा।

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’




योग-साधना LIFESKILLS/जीवन कौशल-15 –SHRI JAGAT SINGH BISHT

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, LaughterYoga Master Trainer, Author,Blogger,Educator,Speaker.)

While many people consider sensory experience as the main source of happiness, really it is peace of mind. What destroys peace of mind is anger, hatred, anxiety and fear. Kindness counters this—and through appropriate education we can learn to tackle such emotions.
LifeSkills

Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore




संस्थाएं – “हैल्पिंग हेण्ड्स – फॉरएवर वेल्फेयर सोसायटी” 

“हैल्पिंग हेण्ड्स – फॉरएवर वेल्फेयर सोसायटी” 

Helping Hands – Forever Welfare Society

आज के संवेदनहीन एवं संवादविहीन होते समाज में भी कुछ संवेदनशील व्यक्ति हैं, जिन पर समाज का वह हिस्सा निर्भर है जो स्वयं को असहाय महसूस करता है। ऐसे ही संवेदनशील व्यक्तियों की संवेदनशील अभिव्यक्ति का परिणाम है “हैल्पिंग हेण्ड्स – फॉरएवर वेल्फेयर सोसायटी” जैसी संस्थाओं का गठन। इस संस्था की नींव रखने वाले समाज-सेवा को समर्पित आदरणीय श्री देवेंद्र सिंह अरोरा  (अरोरा फुटवेयर, जबलपुर के संचालक) एक अत्यंत संवेदनशील व्यक्तित्व के धनी हैं, जो यह स्वीकार करने से स्पष्ट इंकार करते हैं कि- वे इस संस्था की नींव के पत्थर हैं। उनका मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति जो इस संस्था से जुड़ा है वह इस संस्था की नींव का पत्थर है। यह श्री अरोरा जी का बड़प्पन है एवं उनकी यही भावना संस्था के सदस्यों को मजबूती प्रदान करती है। प्रत्येक संस्था में कई अवयव होते हैं किन्तु कोई भी संस्था मात्र एक अवयव पर खड़ी रहती है जिसे हम उस संस्था की रीढ़ कहते हैं। इस संदर्भ में मुझे लगभग 25 वर्ष पूर्व पढ़ी हुई लियो ऐकमेन के अटलांटा संविधान की निम्न पंक्तियाँ याद आती हैं:

Leo Aikman – Atlanta Constitution
The body of every organization is structured from four kinds of bones. There are the wishbones, who spend all the time wishing someone would do the work. Then there are the jawbones, who do all the talking, but little else. The knuckle bones knock everything anybody else tries to do. Fortunately, in every organization there are also the backbones, who get under the load and do most of the work.

(Courtesy :  Free Inspirational Quotes 66-7 http://www.career-success-for-newbies.com/free-inspirational-quotes.html)

इस संदर्भ में मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि-  “हैल्पिंग हेण्ड्स – फॉरएवर वेल्फेयर सोसायटी” एक ऐसी संस्था है जिसके प्रत्येक सदस्य जमीन से जुड़े हैं एवं संस्था की रीढ़ (Backbone) की तरह कार्य कर रहे हैं। यदि एक वाक्य में कहना चाहूँ तो –

एक अनुकरणीय संस्था जो पूर्ण रूप से समाज के उत्थान के प्रति समर्पित है।

श्री अरोरा जी ने लगभग 20 सदस्यों को प्रोत्साहित करते हुए इस संस्था की नींव 1 जून 2015 को रखी। आधिकारिक तौर पर इस संस्था को 22 सितंबर 2015 को लगभग 50-60 सदस्यों के सहयोग से मूर्त रूप दिया।। आज इस संस्था से लगभग 270 सदस्य जुड़े हुए हैं जो कि प्रत्यक्ष अथवा अप्रयक्ष रूप से आर्थिक, मानसिक अथवा शारीरिक रूप से संस्था को सहयोग प्रदान कर रहे हैं।

मैं अचंभित हूँ संस्था द्वारा सोशल साइट्स जैसे फेसबुक एवं व्हाट्सएप के सकारात्मक प्रयोग को देखते हुए। कहीं किसी का भी एस.ओ.एस. कॉल / मेसेज आता है और कुछ ही समय में उस समस्या का स्वैच्छिक समाधान भी हो जाता है।

जब श्री अरोरा जी से इस संस्था की जीवन यात्रा के बारे में जानना चाहा तो उन्होने अत्यंत सादगी से जो उल्लिखित किया वह प्रस्तुत है उन्हीं के शब्दों में –

 

हैल्पिंग हैंड्स

एक अनंत अनवरत यात्रा

हैल्पिंग हैंड्स की स्थापना के पूर्व आम भारतीय की तरह हम सभी की भी यही मान्यता थी कि भारत में जन्मे हर इंसान की सभी तरह कि बुनियादी आवश्यक्ताओं की ज़िम्मेदारी सरकारों की ही होती है। किन्तु, फिर कुछ ऐसी बातें हुई कि जिसने हैल्पिंग हैंड्स की कल्पना को मूर्त रूप में लाने के लिए प्रेरित किया।

मेरे निवास स्थान हरी सिंह कॉलोनी जबलपुर के पास एक कन्या शाला स्थित है। इस शाला की छात्रा की फीस माफ कराने हेतु किसी पालक का आवेदन प्राप्त हुआ। इस संदर्भ में प्रिंसिपल से मिलने गया तो उन्होने कहा कि हम तो इस बच्चे की फीस माफ कर देते हैं, परंतु ऐसे सैकड़ों बच्चे हैं, जो फीस या धन के अभाव में शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते उनका क्या होगा?

ऐसे बच्चों का क्या होगा? यह प्रश्न बार-बार मेरे हृदय को कचोट रहा था।

इसी दौरान एक दूसरा वाकया हुआ।

हमारी कॉलोनी के हम चार मित्र सुबह के समय चाय पी रहे थे तभी पास बैठे एक बुजुर्ग भिक्षुक को मिर्गी के दौरे आने लगे। जैसे-तैसे यह व्यक्ति सामान्य हुआ तो हमने उससे पूछा कि आपको मिर्गी के दौरे आते हैं तो आप दवाई पास क्यों नहीं रखते। उसने कहा साहब पिछले तीन दिन से एक बार खाना खाया है तो दवा के पैसे कहाँ से लाऊँ?

बस यही शब्द हमारे दिमाग में गूंजने लगे –

  • उन बच्चों का क्या होगा?
  • दवा के पैसे कहाँ से आएंगे?

बस इन दो प्रश्नों ने हमें अपना सामाजिक दायित्व का बोध कराया तथा हमने अपने अन्य मित्रों के साथ संस्था को  प्रारम्भ करने का प्रयास प्रारम्भ किया। संस्था ने अपने कार्यक्षेत्र में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को अपनी प्राथमिकता में रखा।

संस्था ने अपने कार्य को प्रारम्भ करने के पहले ऐसी प्रक्रिया सुनिश्चित की जिससे संस्था के द्वारा की जाने वाली मदद पूर्णतया पारदर्शी तरीके से वास्तव में जरूरतमंद व्यक्ति तक पहुंचे। साथ ही संस्था द्वारा जरूरतमन्द व्यक्ति द्वारा चाहिए गई मदद को नगद के रूप में न देकर चाही गई सामाग्री, फीस या दवा के रूप में दी जाती है।

संस्था का मानना है कि स्वस्थ शरीर से स्वस्थ समाज, शहर तथा देश का निर्माण संभव है। साथ ही शिक्षित व्यक्ति अपने परिवार के साथ राष्ट्र निर्माण में भी अपनी भागीदारी कर सकता है। अतः संस्था द्वारा जरूरतमन्द निर्धन विद्यार्थियों को पुस्तकें, स्टेशनरी, फीस, स्कालरशिप के साथ-साथ फ्री कोचिंग का भी प्रावधान रखा गया है। कन्या शिक्षा को प्रोत्साहन देने क उद्येश्य से कन्या शालाओं से संपर्क किया गया साथ ही संस्था द्वारा पूर्णतया निःशुल्क मेडिकल उपकरण बैंक का गठन किया गया जिसमें व्हीलचेयर, एयर बेड, मेडिकल बेड, वॉटर बेड, वाकर, सक्शन मशीन आदि उपकरण जरूरतमंदों को सीमित समय के उपयोग हेतु निःशुल्क दिये जाते हैं।

हैल्पिंग हैंड्स द्वारा अपनी स्थापना के तीन वर्षों में लगभग 270 सदस्यों के विश्वास के फलस्वरूप शिक्षा, स्वास्थ्य, दिव्याङ्गता तथा अन्य क्षेत्रों हेतु 10 अनवरत क्रियाशील प्रोजेक्ट चलाये जा रहे हैं।

संस्था का यह प्रयास है कि जरूरतमन्द/निर्धन विद्यार्थियों हेतु शिक्षा संबंधी हर आवश्यकता तथा कोचिंग इत्यादि से उनका उत्कृष्ट परिणाम लाने में सहायक सिद्ध हो ताकि ये विद्यार्थी स्वावलंबी बनकर अपने परिवार का भरण पोषण करें तथा अच्छे नागरिक होने का कर्तव्य पूरा करें।

इस संस्था के सदस्यों के निःस्वार्थ समर्पण की भावना को देखते हुए हमें यह संदेश प्रचारित करना चाहिए कि व्यर्थ खर्चों पर नियंत्रण कर भिक्षावृत्ति को  हतोत्साहित करते हुए ऐसी संस्था को तन-मन-धन से  सहयोग करना चाहिए जो ‘अर्थ ‘की अपेक्षा समाज को विभिन्न रूप से सेवाएँ प्रदान कर रही है 

मैं आप सबकी ओर से श्री अरोरा जी एवं  संस्था के सभी सदस्यों का हृदय से सम्मान करता हूँ जो अपने परिवार  एवं  व्यापार/रोजगार/शिक्षा (छात्र  सदस्य)  आदि दायित्वों  के साथ मानव धर्म को निभाते हुए  समाज  के असहाय सदस्यों की सहायता करने हेतु तत्पर हैं।  

मैं ऐसी अन्य सामाजिक एवं हितार्थ संस्थाओं की जानकारी अभिव्यक्त करने हेतु कटिबद्ध हूँ।  यदि आपके पास ऐसी किसी संस्था की जानकारी हो तो उसे शेयर करने में मुझे अत्यंत प्रसन्नता होगी।

(अधिक जानकारी  एवं हैल्पिंग  से जुडने के लिए आप श्री देवेंद्र सिंह अरोरा जी से मोबाइल 9827007231 पर अथवा फेसबुक पेज https://www.facebook.com/Helping-Hands-FWS-Jabalpur-216595285348516/?ref=br_tf पर विजिट कर सकते हैं।)

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – डस्टबिन – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डस्टबिन

विवाह सम्बन्ध के लिए आये परिवार में अलग से परस्पर बातचीत में नवयुवती शीला ने युवक मनोज से पहला सवाल किया”

आपके घर में भी डस्टबिन तो होंगे ही, बताएंगे आप कि, उनमें सूखे कितने हैं और गीले कितने?

समझा नहीं मैं शीला जी, डस्टबिन से आपका क्या तात्पर्य है!

तात्पर्य यह है मनोज जी कि–

आपके परिवार में कितने बुजुर्ग हैं? इनमें सूखे से आशय-जो कोई काम-धाम करने की हालत में नहीं है पर अपनी सारसंभाल खुद करने में सक्षम है और गीले डस्टबिन से मेरा मतलब अशक्त स्थिति में बिस्तर पर पड़े परावलंबी व्यक्ति से है।

तुम्हारा मतलब,  बुजुर्ग डस्टबिन होते हैं?

हाँ, सही समझे, यही तो मैं कह रही हूँ।

ओहो! कितनी एडवांस हैं आप शीला जी, आपके इन सुंदर नवाधुनिक क़विचारों ने तो मेरे ज्ञानचक्षु ही खोल दिये।

अब मैं आपके ही शब्दों में बताता हूँ, यह कि–

हाँ, है मेरे घर में, सूखे और गीले दोनों तरह के डस्टबिन जो हमारी गलतियों, भूलों, कमियों व अनचाहे दूषित तत्वों को अपने में समेटते-सोखते हुए अपने आशीष भावों से सदैव हमारे स्वास्थ्य, सुख एवं समृद्धि की कामना करते रहते हैं।

ये वही डस्टबिन हैं जिनकी वजह से मेरा घर-परिवार व आसपास का संसार शुरू से स्वच्छ और सुंदर बना हुआ है।

शीला जी, मेरी राय मानो तो,- आप इन गीले सूखे पचड़ों में पड़ने की बजाय कोई नितांत डस्टबिन रहित घर-वर अपने लिए ढूंढ लें, शायद सभी मनचाहे सुख प्राप्त हो जाएं।

हाँ एक समस्या हो सकती है,वो है – ” घर के कूड़े-कचरे की”

पर चिंता न करें, समय के साथ आखिर एक दिन आपको भी तो डस्टबिन में तब्दील होना ही है, तभी इस समस्या के निदान के साथ साफ-सफाई के बारे में भी सोच लेना।

अच्छा, चलता हूँ शीला जी, बाय…..

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’




हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – एक व्यंग्यकार की आत्मकथा – श्री जगत सिंह बिष्ट

जगत सिंह बिष्ट

एक व्यंग्यकार की आत्मकथा

यह एक व्यंग्यकार की आत्मकथा है।  इसमें आपको ’एक गधे की आत्मकथा’ से ज़्यादा आनन्द आएगा।  गधा ज़माने का बोझ ढोता है, व्यंग्यकार समाज की विडम्बनाओं को पूरी शिददत से मह्सूस करता है।  इसके बाद भी दोनों बेचारे इतने भले होते हैं कि वक्त-बेवक्त ढेंचू-ढेंचू करके आप सबका मनोरंजन करते हैं।  यदि आप हमारी पीड़ा को ना समझकर केवल मुस्कुराते हैं तो आप से बढ़कर गधा कोई नहीं।  क्षमा करें, हमारी भाषा ही कुछ ऐसी होती है।

इस आत्मकथा में जितने प्रयोग सत्य के साथ किये गये हैं, उससे कहीं अधिक असत्य के साथ।  यह निर्णय आपको करना होगा कि क्या सत्य है और क्या असत्य।  मोटे तौर पर, उपलब्धियों के ब्यौरे को झूठा मानें और चारित्रिक कमज़ोरियों के चित्रण को सच्चा जानें।  आत्मकथा का जो अंश अच्छा लगे, उसे चुराया हुआ समझें और जो घटिया लगे, उसे मौलिक मान लें।  जहां कोई बात समझ में न आये तो उसका ठीक विपरीत अर्थ लगायें क्योंकि व्यंग्यकार शीर्षासन के शौकीन माने जाते हैं।

व्यंग्यकार ज़माने के साथ चलता है और उनको पहचानता है जो गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं।  आपकी रुचि और रुझान की भी उसे पहचान है. इसलिये उसकी आत्मकथा में आपको भरपूर मसाला मिलेगा. इस व्यंग्यकार की हार्दिक और शारीरिक ख्वाहिश है कि वह भी कमला दास और खुशवंत सिंह की तरह चर्चित हो. इसलिये वह आवश्यक हथकंडे अपनाने को भी तैयार है।

अब आत्मकथा आरंभ होती है…..

संयोग से मेरा कलयुगी अवतार संस्कारधानी जबलपुर में हुआ जहां से ओशो रजनीश, महर्षी महेश योगी और हरिशंकर परसाई ताल्लुक रखते हैं।  आज तक मैं यह नहीं समझ पाया कि लुच्चों-लफ़ंगों के लिये मशहूर इस शहर को संस्कारधानी क्यों कहा जाता है? भगवान रजनीश की प्रवचन-पुस्तक ’संभोग से समाधि की ओर’ का गहन अध्ययन मैंने जवानी के दिनों में गैर धार्मिक कारणों से किया था।  महर्षि महेश योगी के प्रति मेरी गहरी श्रद्धा तब से है जब उन्होंने भावातीत ध्यान के माध्यम से विश्व शांति का अनुष्टान किया था और अमरीका ने इराक पर ’कारपेट” बमबारी कर दी थी।  हरिशंकर परसाई का प्रभाव अलबत्ता मेरी सोच पर पर्याप्त रूप से पड़ा है।  शायद वे ही इस व्यंग्यकार के प्रेरणा पुरुष हैं।  उनकी तरह लिखना-पढ़ना चाहता हूं लेकिन टांगें तुड़वाने में मुझे डर लगता है।  मैं प्रतिबद्धता का जोखिम मौका देखकर उठाता हूं।

हरिशंकर परसाई के सान्निध्य में कुछ बातें सीखीं।  व्यंग्यकार कोई विदूषक या मसखरा नहीं होता।  वह पूरी गंभीरता और सूक्ष्मता के साथ घटनाओं को देखता है और विसंगतियों पर निर्ममता से प्रहार करता है।  एक बात में अवश्य वे मुझे ’मिसगाइड’ कर गये – उन्होंने मुझे ध्यानपूर्वक रवीन्द्रनाथ त्यागी की रचनाएं पढ़ने की सलाह दी।  मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया।  प्रारंभ में तो बहुत आनन्द आया लेकिन जब प्रत्येक व्यंग्य में महिलाओं का नख-शिख वर्णन आने लगा तो मैं दिग्भ्रमित-सा हो गया।  लिखते-पढ़ते वक्त मुझे जगह-जगह गद्य में उरोज और नितंब छिपे दिखाई देने लगे और मेरी बुद्धि और गद्य भ्रष्ट होते गये।  मुझे लगता है कि सम्मानित व्यंग्यकार की खोपड़ी में कोई रीतिकालीन पुर्जा आज भी फ़िट है।  मेरे लेखन में जहां कहीं घटियापन नज़र आये तो उसके लिये आदरणीय रवीन्द्रनाथ त्यागी को ज़िम्मेदार माना जाये।

शरद जोशी के व्यंग्य मैं मंत्रमुग्ध हो कर पढ़ता और सुनता था।  उनकी शब्द छटा अलौकिक होती थी और मैं मुक्त मन और कंठ से उसकी प्रशंसा करता था लेकिन उनके चेलों में एक अजब-सी संकीर्णता व विचारहीनता दृष्टिगोचर होती है।  वे हरिशंकर परसाई और उनके स्कूल के सभी व्यंग्यकारों को खारिज करते हैं जबकि उनके स्वयं के लेखन में दृष्टिशून्यता है।  मैंने व्यंग्य लेखन की शुरुआत भोपाल में की थी लेकिन ऐसे व्यंग्यकारों से दूर ही दूर रहा।  छ्त्तीसगढ़ अंचल के कुछ नामी व्यंग्यकारों के प्रति मेरी श्रद्धा, काफ़ी कोशिशों के बाद भी, उमड़ नहीं पाती।

आज तक मैं यह नहीं समझ सका कि इतने बड़े सरकारी अधिकारी होते हुए भी श्रीलाल शुक्ल और रवीन्द्रनाथ त्यागी इतने अच्छे व्यंग्य कैसे लिखते रहे।  मैं एक अदना-सा बैंक अधिकारी हूं लेकिन लाख चाहते हुए भी लिखने-पढ़्ने के लिये उतना समय नहीं दे पाता जितना उच्चकोटि के लेखन के लिये आवश्यक है।  नतीज़ा यह है कि मेरी गिनती न तो अच्छे अधिकारियों में होती है और न ही अच्छे व्यंग्यकारों में। मैं विज्ञान का विद्यार्थी था।  यह मेरी ताकत भी है और कमज़ोरी भी।  जीवन और लेखन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि मेरा ’असेट’ है और साहित्य का घोर अज्ञान मेरी कमी।

व्यंग्य की दुनिया में महिला व्यंग्य लेखिकाओं और प्रशंसिकाओं की कमी बेहद खलती है।  शायद ’व्यंग्य’ शब्द में ही विकर्षण प्रतिध्वनित होता है।  फ़िर भी, भविष्य के प्रति यह व्यंग्यकार आशावान है और इंतज़ार के मीठे फ़लों के लिये पलक पाँवड़े बिछाये बैठा है।  एक गृहस्थ व्यंग्यकार इससे अधिक खुले आमंत्रण का खतरा मोल नहीं ले सकता।  मेरी इकलौती बीवी और मेरा इकलौता बेटा सब कुछ जानते समझते हुए भी मुस्कुराकर सब कुछ झेलते रहते हैं।  उन पर दो अलग अलग व्यंग्य महाकाव्य बुढ़ापे में रचूंगा।  अभी ’रिस्क’ लेना ठीक नहीं।  अपने प्रेम-प्रसंगों पर भी  फ़ुरसत में कभी लिखूंगा।  इनमेम धर्म, संप्रदाय और प्रदेशों की संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर अनेकता में एकता की राष्ट्रीय भावना आपको दिखाई देगी।  प्रारंभिक प्रेम कथाएं ’प्लेटोनिक’ हैं और बाद वाली ’फ़्रॉयडियन’ – यानि मैं निरंतर विकास क्रम में आगे बढ़ता रहता हूँ।

लेखन और प्रकाशन के क्षेत्र में मैं बहुत ’लकी’ रहा।  थोड़ा लिखकर खूब छ्पा और प्रसिद्धि पाई।  कुछ साहित्य-संपादक मेरे खास मित्र हैं और कुछ पंकज बिष्ट के धोखे में मुझे बेधड़क छाप देते हैं।  कई बार आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी मैं पंकज बिष्ट के नाम से वार्ताएं प्रसारित कर चुका हूँ।  स्थानान्तरण के बाद जब किसी नये नगर में पहुंचता हूं तो शायद इसीलिये मेरा परिचय ’सुविख्यात’ लेखक के रूप में कराया जाता है।  मैं खामोश रहता हूँ।  मेरा पहला व्यंग्य-संग्रह ’तिरछी नज़र’ भी उसी धोखे में छप गया।  प्रकाशक बेचारा आज तक पछता रहा है।  पुस्तक का शीर्षक देखकर गलतफ़हमी में नौजवान और बूढ़े सभी इसे रस लेकर एकांत में पढ़ते हैं।  बच्चे उसको पढ़कर बाल-साहित्य का आनंद पाते हैं।  कुछ विद्वान आलोचकों ने इस भ्रम में पहले संकलन की तारीफ़ कर दी कि शायद आगे चलकर मैं बेहतर लिखने लगूँ ।  पाठकों को मैं, खुशवंत सिंह की तरह, मसाले का प्रलोभन देता रहता हूं और वो मेरी रचनाएं किसी झूठी उम्मीद में पढ़ते चले जाते हैं।  साहित्यिक मित्रों को बेवकूफ़ बनाना ज़्यादा मुश्किल नहीं होता।  उन्होंने लिखना-पढ़ना, सोचना- समझना, काफ़ी समय पहले से बंद किया होता है।  उनसे मिलते ही मैं उनकी कीर्ति की चर्चा करने लगता हूँ और वे जाते ही मेरी प्रतिष्ठा बढ़ाने में लग जाते हैं।  साहित्य का संसार अंदर और बाहर बड़ा मज़ेदार है।

समाज में व्यंग्यकार कोई सम्माननीय जीव नहीं माना जाता।  इस जंतु को थोड़ी-बहुत स्वीकृति ’भय बिनु होय न प्रीति’ के सूत्र के अंतर्गत ही मिलती है।  नासमझ लोग उससे उसी तरह खौफ़ खाते हैं जैसे क्रिकेट में बल्लेबाज तूफ़ानी गेंदबाजों से आतंकित होते हैं।  मुझे तो ‘लेग स्पिन’ गेंदबाजी में ज़्यादा आनंद आता है।  लाइन, लैंग्थ और फ़्लाइट में परिवर्तन करते हुए, लैग स्पिन के बीच अचानक गुगली या फ़्लिपर फ़ैंकने का जो आनंद है, वो बाऊन्सर पटकने में कहाँ ! सार्थक और मारक व्यंग्य वही है जिसमें खिलाड़ी क्लीन-बोल्ड भी हो जाए और अपनी मूर्खता पर तिलमिलाने भी लगे।  व्यंग्य में लक्ष्य-भेदन की कुशलता के साथ-साथ खेल भावना, क्रीड़ा-कौतुक और खिलंदड़पन भी हो तो आनंद कई गुना बढ़ जाता है।  गंभीरता अपनी जगह है और छेड़छाड़ का मज़ा अपनी जगह।

यह आत्मकथा मैंने बड़ी संजीदगी के साथ शुरु की थी लेकिन लंबा लिखने का धैर्य मुझमें नहीं है और जो कुछ भी आड़ा-तिरछा लिखता हूं, उसे छपवाने की मुझे जल्दी रहती है।  अतः आत्मकथा न सही, फ़िलहाल आत्मकथा की भूमिका पढ़कर ही कृतार्थ हों।  शुभचिंतकों की सलाह पर धीरे-धीरे मैं अपने व्यंगों को ’चुइंगम’ की तरह खींचने का अभ्यास कर रहा हूं।  अगर सफ़ल हुआ तो कभी न कभी आत्मकथा अवश्य लिखूंगा……..

©  जगत सिंह बिष्ट

(श्री जगत सिंह बिष्ट जी मास्टर टीचर : हैप्पीनेस्स अँड वेल-बीइंग, हास्य-योग मास्टर ट्रेनर, लेखक, ब्लॉगर, शिक्षाविद एवं विशिष्ट वक्ता के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार भी हैं।)




जीवन-यात्रा- डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

 

 

 

 

 

(श्रद्धेय डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर जी का मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होने मुझे प्रोत्साहित किया और मेरे विशेष अनुरोध पर अपनी जीवन-यात्रा के कठिन क्षणों को बड़े ही बेबाक तरीके से साझा किया, जिसे साझा करने के लिए जीवन के उच्चतम शिखर पर पहुँचने के बाद अपने कठिनतम क्षणों को साझा करने का साहस हर कोई नहीं कर पाते। मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ, जमीन से जुड़े डॉ गुणशेखर जी का हृदय से सम्मान करते हुए उनकी जीवन यात्रा उनकी ही कलम से।)

जन्म: 01-11-1962

अभिरुचि:  लेखन

मेरी पसन्द : अपने बारे में ज़्यादा प्रचार-प्रसार न तो मुझे पसंद है और न उचित ही है।

संप्रति: पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय

परिचय:

(मैंने ऊपर ‘मैं और मेरी पसंद’ में बता दिया है कि अपने बारे में ज़्यादा प्रचार-प्रसार न तो मुझे पसंद है और न उचित ही है। )

इसके बावज़ूद अगर लिखना ही हो तो मैं कहूँगा कि मेरी ज़िंदगी  में कई ऐसे मोड़   आए जहाँ से लौटने  के अलावा कोई चारा  ही नहीं  दिखता था लेकिन चमत्कार  हुए और रास्ते  मिलते  चले गए।

मेरे जीवन में धमाकेदार मोड़  १४ जून १९७८ को तब आया जब मेरी शादी हो गई। उस समय मैं बारहवीं का विद्यार्थी था। ज़िंदगी में दो-दो  बोर्ड  एक साथ।मेरे ससुर  के लिए ब्याही  बेटी  को घर में रखना नाक  का सवाल लगता था और मुझे बवाल। जब भी घर जाता और लौटने को होता तो पत्नी  मेरे पायजामे  के नाड़े  में लटक  जाती थी। नाड़ा याद नहीं  कि कभी टूटा  कि  नहीं।अगर नहीं टूटा होगा तो बस  इसी कारण से कि लोकलाज  वश मैं ठंडा हो जाता था।
मैंने पढ़ना तब शुरू किया था जब यह समझ पैदा हो गई कि अगर रामायण पढ़नी सीख गए तो लोग  इज़्ज़त से अपने घर बुलाएँगे।जीवन का एक मोड़ यह भी था। संयोग से हमारे चचेरे  ताऊ को रामायण पढ़ने वाले लड़के   नहीं मिल  रहे थे।वे  हमारे लिए वरदान  सिद्ध हुए और मौलवी  नुमा  अध्यापक को एक दिन धर लाए कि हमारे गाँव के बच्चों को पढ़ाओ। उनका उद्देश्य्य रामायण पढ़ लेने वाले लड़के  तैयार करना था ।सो, दो रुपए  महीने  की फीस भर कर एक ही साल   की घिसाई में मैं पाँचवीं  तक पढ़ गया। पहले दर्ज़े  में दस  ग्यारह के बीच  रहा हूँगा और पाँचवीं में भी वही उमर लिखाई गई। यानी  एक साल  में ही पाँच-पाँच  वैतरणियाँ (कक्षाएँ) पार कर गया। परिणामतः सन् सतहत्तर  तक दसवीं की बड़ी  वैतरणी भी तर गया। इसके बाद समस्याएँ भले बड़ी-बड़ी  आईं लेकिन कभी बड़ी   लगीं नहीं।
पत्नी के ज़ेवर जो  उधार के थे वे बरात से लौटते ही लौट गए थे। ट्यूशन पढ़ाके उसे पायल  बनवा के दी वह भी बारहवीं  की परीक्षा के लिए ३० रुपए में बेंच दीं। उन्नासी में बारहवीं की वैतरणी भी पार हो गई।
उसके  बाद का जीवन और संघर्षमय हो गया। ज्यों -ज्यों  संघर्ष बढ़ता गया मैं मज़बूत होता गया। बी.ए.और एम.ए. तक मेरे पास बीबी और दो बच्चों के भरण-पोषण के लिए शाम को चार बाग  स्टेशन पर उतरने वाले बैगन के सड़े-सुड़े  केले  लाकर  बाहर बेंचना  और उससे दो-चार  रुपए कमा  लेने के कारण कभी कभार सौ-पचास  की नकद पूँजी इसके अलावा  चल  संपत्ति में  शायद कटोरी या कटोरा और एक तवा  यानी  कुल  जमा दो-तीन  बर्तनों की ही पूँजी रही। उसी पूँजी के साथ सन् बयासी में लखनऊ महानगर  में शानसे अड़ा या पड़ा  हुआ था एम.ए. करने के लिए।
लखनऊ प्रवास के दौरान  ही मेरे जीवन में और ज़बर्दस्त मोड़ आया जहाज मुड़ना  भी था साथ में आँधी से सामना  भी करना  था। हुआ यह था कि मेरे लखनऊ आने के एक ही साल के भीतर ही बीबी-बच्चों का गाँव में रहना  दुष्कर हो गया था।
एक कोचिंग में जब मुझ अकेले को ज़िंदा  रहने भर को मिलने लगा तो उन्हें भी इलाज के बहाने ले आया। कहाँ एक का खर्च और कहाँ चार का! जीविका  दुष्कर हुई। कभी-कभी भूखों भी मरे  लेकिन एल.टी. और एम.एड कर ही डाले। नौकरी  तब मिली  जब पूरी तरह टूट चुके  थे सन् १९९१में। सन् ८९ में जे आर एफ निकाल  चुके थे लेकिन वे पैसे  काम न आ सके। उनकी प्रक्रिया पूरी होते-होते पूरे दो साल लग गए और नौकरी मिल गई तो उस वज़ीफ़े को सलाम कर लिया। मेरे जीवन का एक यह भी मोड़ है जहाँ से पुर शुकूँ मंज़िल भले न दिखी हो पर भूख ने हमसे नमस्ते अवश्य कर ली थी।

जीवन के अविस्मरणीय क्षण : 

मेरे ईरान और चीन के लंबे प्रवास मेरे लिए सुखद और सम्मान जनक रहे। इसके अलावा लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी में सहायक प्रोफ़सर रहते हुए काफ़ी मान-सम्मान मिला। आज भी किसी प्रदेश में जाता हूँ तो दस-पाँच आईएएस,आईपीएस,आईआरएस और विदेश जाता हूँ तो आईएफएस मिल जाते हैं तो उस समय अपना गरुत्त्व जाग जाता  है लेकिन गुरूर तब भी नहीं।

जीवन के सबसे कठिन क्षण: 

एम.ए करते समय लखनऊ की एक ठेकी पर रहना, रेलवे स्टेशन पर कोलाहल के बीच पढ़ना पर ताप-ताप कर रातें बिताना।

आपकी शक्ति:

चराचचराचचर  के प्रति समान संवेदना, सकारात्मक सोच और  मनुष्य में आस्था।

आपकी कमजोरी

किसी भी संवेदनशील बात पर बिना आँसू गिराए नहीं रह पाना।

आपके शोध कार्य / प्रकाशन

बीस से अधिक पुस्तकें-गज़ल, कविता और दोहा संग्रह, आलोचना की एक पुस्तक, भाषा और व्याकरण पर पाँच पुस्तकें और कुछ संपादित  हैं (विवरण नेट पर उपलब्ध हैं)। आईएएस अकादमी, मसूरी  में दो आधार पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं। क्वांग्तोंग  वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय के स्नातक  पाठ्यक्रम में भी रचनाएँ शामिल की गई हैं।

आपकी कार्य-जीवन संतुलन: 

कभी नसीब नहीं हुई। फूलों की सेज की कल्पना भी कभी नहीं की। इसलिए आज भी स्लीपवेल के गुलगुल और थुलथुल गद्दे को छोड़कर फर्श पर बिछी दुबली-पतली खुरदरी दरी पर पूरे अभिमान के साथ सोता  हूँ।

आपका समाज को सकारात्मक सन्देश: 

आज ही के दिन २०१५ को प्रिय भाई जय प्रकाश मानस की टाइम लाइन पर दी  गई मेरी  अभिव्यक्ति –

मैं और मेरी पसंद – 15
डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

”अपने संदर्भ में क्या और कौन के उत्तर खुद देने में हमें सदैव संकोच रहा है। अपने बारे में तो सभी बोलते हैं। अच्छा हो कि कुछ दूसरों के बारे में भी बोला जाए। श्रम-स्वेद सने श्रमिक और अन्न दाता किसान हमें बहुत प्यारे लगते हैं। इनके कोमल हाथों से आँगन और द्वार-द्वार रोपे गए हरे-भरे पौधे, बगिया, हरी-भरी लहलहाती फसलें और इन्हीं के सुदृढ़ हाथों खोदी गई रेगिस्तान को भी हरा-भरा कर देने वाली नहरें अच्छी लगती हैं। इसलिए इनको और इनके बारे में लिखने-पढ़ने वाले हमें बहुत अच्छे लगते हैं।

देश और विदेश के विभेद से रहित शांत और उन्मद नदी-नद, पर्वत और उत्ताल तरंगों वाले सागरों को अपने अंक में सहेजे  समूची प्रकृति हमें मोहित करती  है। इसी प्रकृति के पुजारी महा पंडित राहुल सांकृत्यायन और उनकी यायावरी भी हमें  बहुत पसंद हैं। किशोरावस्था में पढ़ा गया उनका यह प्रिय शेर –

सैर कर दुनिया की गाफिल ज़िंदगानी फिर कहाँ
ज़िंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ ।

अवस्था ढलने के बावजूद भुलाए नहीं भूलता। यही शेर अब भी शिथिल होते पैरों में रवानी भर देता है। उनकी तरह हमको भी घूमना बहुत पसंद है। कभी-कभी मन करता है कि सारा घर-द्वार बेंच-बाँच कर पूरी दुनिया घूम डालें। लेकिन माँ, पत्नी और बच्चों तथा परिवार वालों के  नेह से गीले नयन सदा बांधते रहे हैं। बच्चों का मतलब बेटे-बेटी से अधिक नातिनें और पोती से है।

शहरों में लखनऊ शहर और प्रदेशों में केरल हमें बहुत प्यारा लगता है। वर्षों पहली देखी केरल की नैसर्गिक आभा अब भी आँखों में बसी हुई है। वहाँ के समुद्री तट हमें सदैव आकर्षित  करते रहे हैं। जब भी उन तटों पर गया हूँ ऐसा लगा है कि जैसे प्रगल्भा नायिका की तरह उनकी नीलांचल, उत्ताल तरंगें बाहें फैलाकर अपनी ओर बुला रही हैं।

साहित्य का पठन-पाठन मुझे बहुत पसंद है। किसी खास कवि/कवयित्री या लेखक/लेखिका से बंधकर केवल उसी का हो जाना हमें कभी पसंद नहीं रहा। हमने जीव और जीवन दोनों को छुट्टा रखने में सदैव सुख का अनुभव किया है। इसलिए न कभी किसी खास खूँटे में बंधे और न आगे बंधने  का विचार है। सच कहें,हमें तो  वे कवि या लेखक ही अधिक पसंद आते रहे जिन्होंने जीवन को सच्चे अर्थों में जिया है और  उसे सही संदर्भों में परिभाषित भी किया है। वे लोग फिर चाहे साहित्यकार हों या आमजन हमें बिल्कुल पसंद नहीं जो जीवन में नहीं बल्कि जीवन के अभिनय में विश्वास करते हैं। भाव को अंतस का नहीं जिह्वा का ऋंगार बनाकर प्रस्तुत करते हैं।

अपनी समझ की सभी भाषाओं की समस्त  विधाएँ हमें अच्छी लगती हैं।अपवाद स्वरूप इक्का-दुक्का फ़िल्मों को छोडकर सामान्यतः फ़िल्में मुझे अच्छी नहीं लगतीं लेकिन नाटक अच्छे लगते हैं।  मैं तो पंजाबी, मराठी और उर्दू के नाटक भी बड़े चाव से देखता-सुनता हूँ। अच्छा तो और भी बहुत कुछ लगता है लेकिन सबका उल्लेख  इतने छोटे कैनवास पर संभव नहीं। विशेष रूप से वे लोग हमें बहुत पसंद हैं जो केवल अपने लिए नहीं, केवल और केवल अपनों  के लिए भी नहीं अपितु अपने-पराए और छोटे-बड़े के भेद से परे समस्त सृष्टि के लिए उदार भाव से जीते हैं -“अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसां, उदार चरितानांतु वसुधैव कुटुंबकम् ।”

मोबाइल: 8000691717/00862036204385

ईमेल: [email protected]

 




सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-6 – श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 6
भड़पुरा से झाँसीघाट
रात्रि विश्राम हमने भडपुरा स्थित कुटी में किया। कुटी की देखभाल एक बूढ़ी माँ माँग-ताँग कर करती है। वह आश्रम किसी बड़े किसान ने इस शर्त पर बनवा दिया था कि परिक्रमा करने वालों को भोजन मिलना चाहिए। वे वैरागी हैं, उसका बेटा नवरात्रि में दुर्गा जी की मूर्ति का पंडा बना था। वहीं झाँकी के पंडाल में रहता था। सुबह नहाने धोने भर को घर आता था। उसे ख़बर लगी तो वह देखने आया। बातचीत करके संतुष्ट हो कर चला गया। उसकी बीबी को छः लोगों के लिए रोटी सब्ज़ी बनाना था तो उसका मूड ख़राब होने से वातावरण ठीक नहीं रहा। हमने खाना बनाने में मदद की पेशकश की, जिसे निष्ठुरता से ठुकरा दिया गया। उसका 12 साल का लड़का बहुत बातूनी था। उसी के मार्फ़त बातचीत चलती रही। अंत में अपनी घरेलू चार रोटियों के बराबर एक टिक्कड नमक मिर्च में  बनी आलू की सब्ज़ी के साथ एक गोल थाली में आए जैसे भीम अपनी गदा के साथ रथ में चला आ रहा हो। किसी ने दो किसी ने तीन और किसी ने चार खाए। सच हैं स्वाद भोजन में नहीं भूख में होता है। नींद न जाने टूटी खाट, भूख न जाने बासी भात। यहाँ तो न खाट थी और न भात परंतु नर्मदा जी का किनारा था। बाहर निकल कर नर्मदा की ओर देखा वह शांत होकर हँसिया खिले चाँद की रोशनी में निंद्रामग्न थी। लहरों की झिलमिल जो दिन में नज़र आती है वह नदारत थी।
वर्षो बाद जमीन पर और कुछ लोगों ने शायद जीवन में पहली बार गद्दे के बिना सोने का प्रयास शुरू हुआ। बिस्तर तीन तरफ़ से खुली दहलान में लगाए गए। सबसे पहले तो मच्छरों का हमला हुआ लड़के ने कचरा जलाकर धुआँ करके उनसे छुटकारा दिलाया। उसके बाद मुंशीलाल जी के पास एक कुतिया आकर सो गई। उसे डंडे से भगाया। सोने की कोशिश की तो बरगद के पेड़ पर तेज़ हलचल होने लगी। जैसे भूतों का डेरा हो। उठकर देखा तो चमगादड़ का एक झुंड बरगद के फलों को खा रहा था। फलों के टुकड़े पट-पट नीचे गिर रहे थे। एकाध घंटा चमगादड़ देखते रहे। फिर सोने की कोशिश की तो सिर के पास कुछ आवाज़ आई। हाथ फेरा तो एक मेंढक पकड़ में आया उसे दूर फेंक दिया। सब डर गए कि मेंढक की खोज में साँप वहाँ आ सकता है। हमने सोचा छोड़ो यार शंकर भगवान गले में डाले रहते हैं। अब आएगा सो आएगा। 90% सांप ज़हरीले नहीं होते हैं और फिर जैसे हम सांप से डरते हैं उसी प्रकार वे भी आदमी से डरते हैं। अरुण दनायक जी अपनी डायरी लिखने बैठ गए। लोग पहले पानी पीते फिर पेशाब जाते रात गुज़रने की राह देखते रहे। देर रात एक झपकी लगी और सवेरा हो गया। कहीं कोई पाखाना नहीं था। खुले में हल्के हुए। कुटी की गाय का एक-एक गिलास कच्चा दूध पिया। उनको तीन सौ रुपए दान स्वरूप दिए और चल पड़े।
हम पाँचों फिर चले और बीहड डांगर, नाले पार करते हम भीकमपुर पहुँचे। ऊँची घास से रास्ता नहीं सूझता था। एक भी गलत कदम कम से कम बीस फुट नींचे गिरा सकता था। और हुआ भी यही एक जगह रास्ते की खोज में  दनायक जी गिरते गिरते बचे वापिस मुड उपर से मुंशीलाल पाटकार ने आवाज लगाई इधर आईये रास्ता यहाँ से है।
भडपुरा के हनुमान आश्रम  का तोता हमारे पहुँचते ही अपने सिर पर आकर बैठ गया। उतरने से साफ़ इंकार करता रहा। चिकनी चाँद उसे भा गई। तोता महाराज वीडियो के शौक़ीन थे।
जिस देश में गंगा बहती है का “है आग हमारे सीने मे हम आग से खेला करते हैं “ गीत पर ख़ूब नाचा ससुरा। विडियो बंद करो तो चोंच मारता था। फिर लगाया “चल उड़ जा रे पंछी ये देश हुआ बेगाना” मस्त हो गए तोता राम।
काफ़ी मान-मनुअ्अल के बाद अरूण दनायक भाई के सिर को भी उपकृत किया। एक और साथी की ज़िद पर महाराज वहाँ पहुँचे लेकिन टैक्स के रूप में काटकर ख़ून निकल दिया। उसे काजू दिए तो उसने कुतर कर छोड़ दिए। तोता खुले में रहता था उड़ता नहीं था। पता चला कि उसे गाँजा पीसकर खिलाया गया है इसलिए जब उसे तलफ की आदत हो है तो वह बाबाओं के पास रहता है।
धरती कछार पड़ा वहाँ के स्कूल में  दनायक जी ने बच्चों से मुलाकात में गांधी चर्चा की जिसने हमें आन्नदित किया कि गांधी जी की पहुँच समय और भौगोलिक स्थितियों की ग़ुलाम नहीं है। आंगनवाडी केन्द्र की ममता चढार की कर्तव्य परायणता से  प्रफुल्लित हुए। धरती कछार से गोपाल बर्मन को कोलिता दादा का बैग रखने को साथ ले लिया। उसने बातों-बातों में बताया कि लोग भाजपा से नाराज़ हैं। ग्रामीण समाज में भी लड़कियाँ खुल कर बिना झिझक सामने आने लगीं हैं और शादियों के लिए लड़कों को  निरस्त भी करने लगीं हैं। वहीं दूसरी ओर उनका यौन व्यवहार भी तेज़ी से बदल रहा है। बाय फ़्रेंड-गर्ल फ़्रेंड का कल्चर खेतों में या मेड पर विडीओ, वट्सएप, फ़ेस्बुक के माध्यम से से रहा है। ये मोबाइल क्रांति का असर है। अब लड़कियाँ को सेनेटरी पैड और विटामिन की गोलियाँ आंगनवाड़ी से प्रदान की जाती हैं।
आश्रम से चले तो आधा घण्टे में एक बड़े नाले से सबका सामना पड़ा। सौ फ़ुट चढ़ाई चढ़ कर फिर नीचे उतर नाला पार किया, फिर चढ़ाई चढ़कर ऊपर पहुँचे तो पहाड़ी के सामने एक और नाला दिखा। भूगोल का दिमाग़ लगाया तो देखा कि एक ही नाला सांप की कुंडली की तरह चारों तरफ़ घुमा हुआ है। चार-पाँच बार पहाड़ियाँ चढ़-उतर कर नाला पार करना होगा लोगों का दम निकल जाएगा। निर्णय लिया कि दाहिनी तरफ़ नर्मदा में उतर जाएँ वहाँ से किनारे-किनारे झाँसीघाट की तरफ़ बढ़ेंगे। आगे बढ़े तो एक सौ फ़ुट ऊँची खाई का मुँह नाले में खुल रहा था। वह नाला नर्मदा में मिल रहा था। उतरने को कहीं कोई रास्ता नहीं था। सुरेश पटवा और कोलिता दादा आगे थे बाक़ी तीन पीछे भटक गए। कोलिता दादा को पीछे करके सुरेश पटवा बैठ कर सौ फ़ुट खाई में स्कीइंग करके नाले के किनारे से नर्मदा की गोद में पहुँच गए। उन्होंने कोलिता दादा को भी इसी तरह स्कीइंग करके उतारा। तब तक बाक़ी लोग ऊपर आ गए थे वे चिल्ला रहे थे कि रास्ता कहाँ है। उनको तरीक़ा बताया तो आगे बढ़ने को तैयार न थे। लेकिन कोई रास्ता था भी नहीं। आधे घंटे की मशक़्क़त के बाद सब लोग नीचे आ गए। वहाँ से विक्रमपुर का रेल पुल अब स्पस्ट दिख रहा था और झाँसीघाट का सड़क पुल धुंधला सा नज़र आ रहा था।
ग्वारीघाट से लगभग पचास किमी दूर जबलपुर और नरसिंहपुर की सीमा पर स्थित भीकमपुर गाँव है। नर्मदा दाहिनी तट की ओर शान्त सी बहती है उधर बाँए तट से सनेर अथाह जलराशि लिये आगे बढती है। ऐसा लगता है नर्मदा बडी विनम्रता से सनेर की भेंट की हुई जलराशि वैसे ही स्वीकारती है जैसे भिषुणी भिक्षा ग्रहण करती है और फिर अगले घाट की ओर चली जाती है। सनेर सदानीरा है,इसका जल स्वच्छ है और इसे लोग सनीर भी कहते हैं। सनेर नदी का उदगम सतपुडा के पहाड से होता है। इसका उदगम स्थल  लखनादौन जिला सिवनी स्थित नागटोरिया रय्यत है। यह बारहमासी नदी धनककडी, नागन देवरी, दरगडा, सूखाभारत आदि गावों से गुजरते हुये संगम स्थल भीकमपुर पहुँचती है। कोलूघाट तट पर सिवनी जिले के आदिवासियों का मेला भरता है तो संगम तट भीकमपुर में जबलपुर व नरसिंहपुर जिले के लोग शिवरात्रि आदि पर्वो पर एकत्रित होते हैं।
नदी पार करने के लिए नाव का सहारा लिया फिर दो घंटे में विक्रमपुर के रेल्वे पुल के नीचे से निकल झाँसीघाट पहुँच गए। नहाया धोया नर्मदा जी को प्रणाम करके झोतेश्वर धर्मशाला पहुँचे।

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)




हिन्दी साहित्य- लघुकथा – माँ की नज़र – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

माँ की नज़र
अपनी बेटी अंजलि के आठवी की परीक्षा में प्रावीण्य सूची में आने की खुशी में सुधीर जी ने अपने घर पर आस-पास के लोगों की एक छोटी सी घरेलू पार्टी का आयोजन आज शाम को किया था।
रविवार का दिन था सो सुबह से ही घर के तीनों सदस्य व सुधीर की माताजी भी व्यवस्थाओं में जुटे थे।
इस गहमागहमी में बेटी को आराम से बैठ कर टी वी देखते पाकर वे गुस्सा होकर बोले- ”तुम्हारे ही लिये हमने ये कार्यक्रम रखा है और तुम काम में माँ को थोड़ा हाथ बंटाने की जगह आराम से बैठकर टी वी देख रही हो ? जाओ और मम्मी को रसोई में मदद करो।”
शोर सुनकर अंजलि की माँ बाहर आई और पति को कहा- “क्यों उसके पीछे पड़े रहते हो, अभी वह छोटी है फिर बड़ी होकर तो ताउम्र गृहस्थी में खटना ही है” – कहकर स्नेह भरी नजर बेटी पर ड़ालकर रसोई में चली गई। बेटी ने भी सुना और वैसे ही बैठी रही।
कुछ देर बाद नहाने के पूर्व सुधीर जी को याद आया कि नहाने का साबुन खत्म हो गया है। उन्होंने फिर बेटी को आवाज दी और कहा कि चेलाराम की दुकान से नहाने के साबुन की दो टिकिया जल्दी से ला दो और पैसे माँ से ले लेना।
यह सुनते ही उनकी  पत्नी फिर रसोई से बाहर आई और कहा-”सुनो, बिटिया अब बड़ी हो गई है, उसे यूं अकेला-दुकेला चाहे जहाँ बाहर मत भेजा करो, कुछ आया समझ में……..? आप खुद जाओ”….
अंजलि ने अपनी माँ की तरफ उलझन भरी निगाहों से देखा मानो उसकी दोनों बातों का मतलब समझना चाह रही हो फिर पहले की तरह चुपचाप टी वी देखने लगी।

©  सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकरजी हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में अभिरुचि।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास।)




सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-5 – श्री सुरेश पटवा

 सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 5
बिजना घाट से भड़पुरा
सुबह जल्दी ही अगली यात्रा पर निकल लिए। पहले नदी के कछार में से ही चलते रहे। मुरकटिया घाट से नर्मदा का पहले बाई फिर दाई ओर मुडना देखा, उन दीर्घ चट्टानों को देखा जिन्हे नर्मदा मानो अपने साथ बहा कर लाई हो और फिर किनारे लगा दिया।हमें यहाँ नर्मदा का एक स्वरूप और दिखा बीच नदी पर स्थित गुफाओं का निर्माण मानो नर्मदा ने चट्टानो पर अपनी लहरिया छैनी हथौडी चलाकर छेद और गुफायें बना डाली हैं। आगे चले दुर्गम तो नहीं पर कठिन मार्ग कहीं नर्मदा के तीरे तीरे तो कहीं बीहड डांगर पार करते हम बढते रहे।
अचानक रास्ते में एक नाला आ गया। किसानों से पूछा तो उन्होंने ऊपर से नाला पार करने को बताया। हम सीधी चढ़ाई चढ़ने लगे। रास्ता बिलकुल भी नहीं था खेतों में  कँटीली झड़ियाँ थीं। एक कोने से हरी घास में से रास्ता टटोला तो मिल गया। नाला पार करके डाँगर के उतार-चढ़ाव से लोग भारी थकने लगे। नाले की ठंडाई में थोड़े आराम किया। आगे जाकर एक महाराज मिल गए।
उनसे चार पुरुषार्थ की चर्चा चल पड़ी। हिंदू धर्म में चार पुरुषार्थ की बड़ी महिमा गाई जाती है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। कोई भी मनुष्य जब कोई काम करता है तो इनमे से किसी एक या एकाधिक पुरुषार्थ की प्रेरणा से कर्म करता है। एक साधु से जब हमने इस बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि वे तो सब छोड़ चुके हैं। हरि ओम्।
हमने पूछा कि आदमी प्रकृतिजन्य चीज़ों जैसे भोजन करना, साँस लेना और निस्तार करना छोड़ सकता है क्या?
वे बोले प्रकृतिजन्य चीज़ें कभी छूटती हैं क्या? ये तो ज़िंदगी के साथ ही छूटेंगीं, बच्चा।
हमने कहा कि चार पुरुषार्थ में अर्थ, धर्म और मोक्ष मानव निर्मित अवधारणा या सिद्धांत हैं जबकि काम प्रकृतिजन्य है, उसकी माया जीव जंतु पेड़ पौधों सब में दिखती है। उसे अनंग याने  बिना अंग का भी कहा गया है। वह पकड़ में ही नहीं आता तो कैसे छूट सकता है? वे बग़लें झाँकने लगे, कुछ सोचते रहे। फिर बोले सब भगवान की माया है। माया ही तो नहीं छूटती। बड़ी हठीली होती है।
हम अर्थ पर आ गए। पूछा अर्थ छूटता है क्या? वे सचेत हो चुके थे, वे मौन सोचते रहे। फिर पूछा हमारा अर्थ से क्या आशय है।
हमने कहा धन जिससे हम ख़रीदारी करते हैं। धन कमाया जाय या दान में मिले उसकी प्रकृति खरदीने की होती है। जहाँ ख़रीद-बेंच आई तो  व्यापार शुरू और व्यापार आया तो लालच तो आना ही है। लालच आया तो चैन गया। धन सारा सुख और आराम दिला सकता है। जैसे आपके आश्रम को चलायमान रखने के लिए धन की ज़रूरत होती है।
वे बोले बिना अर्थ के तो कुछ सम्भव ही नहीं है। काम और अर्थ का निपटारा करके हम धर्म और मोक्ष पर आए कि धर्म और मोक्ष कहीं परिभाषित नहीं हैं। धर्म वह है जिसे जीव धारण करता है अतः सबके धर्म अलग-अलग हुए फिर वे अलग धर्म सामूहिक रूप से सब लोगों पर एक से कैसे लागू हो सकते हैं। वे चुप रहे।
मोक्ष गूँगे का गुड बताया जाता है जिसे जीते जी मिला वह बता नहीं सकता कि मोक्ष की क्या प्रकृति है। जैसे महावीर या बुद्ध ने अपने मोक्ष को कभी नहीं बताया। मोक्ष कैसे मिलेगा यह बताया है। उनके शिष्यों ने बताया कि उन्हें मोक्ष प्राप्त हो गया। जिसे मरने पर मोक्ष मिला वह मोक्ष की प्रकृति बताने हेतु मरने के बाद वापस आ नहीं सकता।
हम अपरिभाषित मूल्यों के दिखावे में जीने वाले समाज हैं। कहते कुछ हैं, मानते कुछ हैं, करते कुछ हैं। इसी को आडंबर या पाखण्ड कहते हैं। पश्चिमी सभ्यता के लोग काम और अर्थ को खुलकर जीते हैं। धर्म और मोक्ष से उन्हें कुछ मतलब नहीं है। इसलिए उन्हें कुछ छुपाना नहीं पड़ता है। हमारा समाज भी अब काम और अर्थ को जी भरकर जी रहा है। उपभोग से अर्थ व्यवस्था का विकास होता है। रोज़गार पैदा होते हैं।
साधु जी मुस्कराए और गले लगाकर पीछा छुड़ाया। चिलम को ब्रह्मान्ध्र तक खींच काम की प्राकृतिक महिमा और मानव जनित धर्म अर्थ और मोक्ष की अंतरधारा में विलीन हो गए। हम आगे की यात्रा पर निकल गए।
फिर नशा धर्म का या नशे का धर्म निभाते साधु मिले। आँखों के लाल डोरे उनके अफ़ीमची और गाँजे की चिलम खींचने की कहानी कह रहे थे। उन्होंने तुलसी जी की चौपाई सुनाई।
जड़-चेतन गुण-दोष मय विश्व कीन्ह करतार
संत हंस गुण पय लहहिं छोड़ वारि विकार।
साधुओं से रुद्र शिव शंकर चर्चा और तत्व ज्ञान की मीमांसा पश्चात औघड़ बाबा के साथ गाँजा चिलम सुट्टा खींचा और आशीर्वाद का आदान प्रदान हुआ।
शाम को पाँच बजे भड़पुरा पहुँच गए।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)