(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक कविता मनमोहन जी मौन हुए…)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 217 ☆
☆ कविता – मनमोहन जी मौन हुए… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
☆ संस्थाएं ☆ “जाणीव…वृद्धों का अपना घर” ☆ साभार – श्री संजय भारद्वाज ☆
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पुराने पत्तों पर नयी ओस उतरती है,
अतीत का चक्र वर्तमान में ढलता है,
सृष्टि यौवन का स्वागत करती है,
अनुभव की लाठी लिए बुढ़ापा साथ चलता है।
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बचपन और बुढ़ापा, जीवन की अवस्था के दो ध्रुव हैं। बचपन में कौतूहल है, जिज्ञासा है, प्रश्न अनंत हैं। बुढ़ापे में न कौतूहल, न जिज्ञासा पर चाहें तो परमानंद हैं। पूरी निष्ठा से परमानंदी जीवन जीने का नाम है जाणीव, अ होम फॉर सीनियर सिटिजन्स।
जाणीव मूल रूप से मराठी शब्द है जिसका अर्थ है चेतना या भान या अनुभूति। मराठी में इसका उच्चारण ज़ाणीव होता है।
लगभग ढाई दशक पहले 6 घरेलू महिलाओं में जगी चेतना। चेतना, घर से विस्थापित वृद्धों के स्वाभिमानी और आनंदी जीवन जी सकने के लिए सीनियर सिटिजन होम खड़ा करने की। फलत: स्थापित हुआ, जाणीव, अ होम फॉर सीनियर सिटिजन्स।
निराशा को आशा, निरुत्साह को उत्साह में बदलने का नाम है जाणीव। जाणीव, पुणे-अहमदनगर मार्ग पर फुलगांव नामक स्थान पर स्थित है। जाणीव में प्रवेश करते ही लगता है जैसे नंदनवन में कदम रख दिये हों। यह नंदनवन प्राकृतिक सौंदर्य से लकदक है। जाणीव के परिसर में बड़ी संख्या में फलों के वृक्ष हैं। यहाँ आम के बड़े पेड़ हैं तो चीकू के घने पौधे भी हैं।
जामुन की महक है तो अमरूद की खुशबू भी है।
सीताफल है तो साथ में रामफल तो होगा ही।
अपरिमित संभावनाओं के साथ खड़े पीपल और नीम हैं। यहाँ नारियल है, पपीता है, नीबू है। पूरे परिसर में तुलसी के पौधों से भरे छोटे-छोटे उपवन मानो वृंदावन हैं।
पौधे हों या पेड़, किसीमें भी रासायनिक खाद का उपयोग नहीं होता। यहाँ सारी उपज सेंद्रिय अर्थात ऑर्गेनिक है।
जाणीव सुंदर वृक्षों से भरा है। यहाँ सघन गुलमोहर हैं, ऊँचे-ऊँचे अशोक हैं। बड़े पत्तों वाला यह पेड़ जिसे स्थानीय स्तर पर देसी बादाम कहा जाता है, यहाँ विराजमान है तो चंपा के वृक्षनुमा पौधे भी अपने पूरे विस्तार के साथ खड़े हैं।फायकस हो या शोभा के अन्य वृक्ष, सभी यहाँ फल रहे हैं, फूल रहे हैं। अनेक प्रजातियों के छोटे-बड़े पौधे और झाड़ियाँ यहाँ की अनुपम प्राकृतिक छटा में चार चाँद लगा रहे हैं।
यूँ देखें तो जीवन का संचित निस्वार्थ भाव से अपनों के लिए लुटानेवाले वृद्ध, घने वृक्षों जैसे ही होते हैं। जाणीव का परिसर फूलों के सौरभ से महकता है। यहाँ रहने वाले वृद्धों के अनुभव की सोंध और यह सौरभ मानो दुग्ध शर्करा योग हैं।
जाणीव में छोटे-छोटे ब्लॉक्स हैं। हर ब्लॉक में चार कमरे हैं। प्रत्येक कमरे में दो लोगों की रहने की व्यवस्था है। हर कमरे के सामने छोटा-सा सिटआउट है, रेस्ट चेयर है। यहाँ बैठकर वृद्ध प्रकृति का सान्निध्य अनुभव कर सकते हैं। कमरे के सामने व्हीलचेयर के लिए ढलान या दिया गया है। कमरे में बुज़ुर्गों का निजी सामान रखने के लिए वॉर्डरोब है। बुज़ुर्गों की सुविधा के लिए कमोड सिस्टम है, सहारा लेकर उठ सकने के लिए विशेष तौर से बनाया गया सपोर्ट है।
आश्रम में सौर ऊर्जा या सोलर सिस्टम है जिससे हर कमरे में गर्म पानी की व्यवस्था की गई है। वृद्धों को किसी तरह की असुविधा न हो, इसके लिए हर कमरे के लिए इन्वर्टर का बैकअप है।
चलते समय यदि सहारा लेना पड़े तो दोनों ओर रेलिंग की व्यवस्था है।
जहाँ आवश्यक हैं, वहाँ पक्के रास्ते बने हैं, शेष स्थान पर मिट्टी है। इसका लाभ यह कि यदि कभी किसी बुजुर्ग का संतुलन बिगड़ जाए तो माटी उनकी रक्षा कर सके।
परिसर में बाउंड्री वॉल के साथ जॉगिंग या वॉकिंग के लिए ट्रैक बना हुआ है। वृद्धजन इस प्राकृतिक वातावरण में परिसर के भीतर ही आनंद से घूम सकते हैं, हल्का व्यायाम कर सकते हैं।
जाणीव के परिसर में विघ्नहर्ता श्रीगणेश का पावन धाम है। इस मंदिर का सौंदर्य और यहाँ विराजमान मूर्ति आँखों में बस जाते हैं। साथ ही विट्ठल- रखुमाई अर्थात श्रीकृष्ण और रुक्मिणी तथा साईंबाबा भी हैं। मंदिर परिसर में शिवलिंग स्थापित हैं। मंदिर की स्थापना के लिए विशेष तौर पर सद्गुरु वामन राव पै पधारे थे।
मंदिर परिसर में विभिन्न आयोजन होते हैं। पुणे के हिंदी आंदोलन परिवार द्वारा किए जाने वाले तुलसी विवाह का दृश्य मन के भीतर तक उतर जाता है।
जाणीव की रसोई सभी सुविधाओं से सम्पन्न आदर्श आधुनिक रसोई है। यहाँ सुपाच्य, शुद्ध शाकाहारी भोजन की व्यवस्था है। प्रातः चाय, तत्पश्चात जलपान, दोपहर का भोजन, संध्या को चाय-बिस्किट, रात्रि का भोजन.., सारी व्यवस्था बिलकुल घर जैसी।
कहा जाता है, अनुभव से ही जीवन में ज्ञान की प्राप्ति होती है। हर अनुभव प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त करने के लिए जीवन कम पड़ जाता है। ऐसे में काम आती हैं पुस्तकें। ज्ञान का असीम भंडार होती हैं पुस्तकें। जाणीव का अपना पुस्तकालय है। इसमें हिंदी, मराठी, अंग्रेजी की पुस्तकें बड़ी संख्या में हैं। यहाँ वृद्धों के मनोरंजन की अच्छी व्यवस्था भी है।
मुख्य हॉल में टीवी है, जहाँ सब साथ बैठकर दूरदर्शन का आनंद ले सकते हैं।यहाँ कैरम, शतरंज, लूडो जैसे इनडोअर खेलों की सुविधा है।
जाणीव में 24 घंटे एंबुलेंस की व्यवस्था रखी गई है, जिससे किसी भी आपात स्थिति में संबंधित वृद्ध को समुचित उपचार मिल सके। जाणीव में वृद्धों का नियमित हेल्थ चेकअप किया जाता है।
यहाँ का सेवक वर्ग कर्तव्यपरायण और सेवाभावी है। यहाँ लगभग 100 लोगों की क्षमता वाला एक इको फ्रेंडली सभागार है। सभागृह में तीन तरफ से जालियाँ लगी हुई हैं। इन जालियों के चलते लगता है मानो आप बगीचे में बैठकर कोई आयोजन देख रहे हों।
इस सभागृह में किटी पार्टी, वरिष्ठ नागरिक मेला, बर्थडे सेलिब्रेशन से लेकर कॉरपोरेट इवेंट तक किए जा सकते हैं। शैक्षिक, साहित्यिक आयोजनों, एक दिन की कॉन्फ्रेंस के लिए भी यह स्थान आदर्श है। भोजन के लिए हॉल के बाहर प्राकृतिक वातावरण में समुचित स्थान उपलब्ध है।
जीवन में ऊँचा और ऊँचा उड़ने की इच्छा रखता है मनुष्य। मनुष्य के मन की इस इच्छा को तन में उतारता है झूला। परिसर में वृद्धों के सुरक्षित झूलने के लिए सुंदर झूले की व्यवस्था है।
जाणीव में स्थाई या अस्थाई रूप से कुछ समय रहने की व्यवस्था भी है। जाणीव की ढाई दशक की यात्रा शून्य से शिखर का प्रवास है।
जाणीव, अ होम फॉर सीनियर सिटिजन्स की जानकारी लेने अथवा आश्रम की विभिन्न गतिविधियों में सहयोग देने के लिए आप [email protected] पर सम्पर्क कर सकते हैं।
जुड़िए भीतर की चेतना से, जुड़िए जीवन की सार्थकता से, जुड़िए जाणीव से।
साभार – श्री संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
विज्ञान की अन्य विधाओं में भारतीय ज्योतिष शास्त्र का अपना विशेष स्थान है। हम अक्सर शुभ कार्यों के लिए शुभ मुहूर्त, शुभ विवाह के लिए सर्वोत्तम कुंडली मिलान आदि करते हैं। साथ ही हम इसकी स्वीकार्यता सुहृदय पाठकों के विवेक पर छोड़ते हैं। हमें प्रसन्नता है कि ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के विशेष अनुरोध पर साप्ताहिक राशिफल प्रत्येक शनिवार को साझा करना स्वीकार किया है। इसके लिए हम सभी आपके हृदयतल से आभारी हैं। साथ ही हम अपने पाठकों से भी जानना चाहेंगे कि इस स्तम्भ के बारे में उनकी क्या राय है ?
☆ ज्योतिष साहित्य ☆ साप्ताहिक राशिफल (30 दिसंबर 2024 से 5 जनवरी 2025) ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
समय की गणना में ग्रेगॅरियन कैलेंडर जिसे की बोलचाल की भाषा में अंग्रेजी कैलेंडर कहते हैं का 1 और वर्ष इस साप्ताहिक राशिफल के साथ-साथ समाप्त हो जाएगा और नया वर्ष 2025 का आगमन हो जाएगा। मैं पंडित अनिल पाण्डेय आज आपको वर्ष 2024 के अंतिम दो दिन और वर्ष 2025 के प्रथम पांच दिवस के सम्मिलित साप्ताहिक राशिफल बताने के लिए उपस्थित हूं।
सबसे पहले आप सभी को अंग्रेजी नव वर्ष की ढेर सारी बधाई। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आप पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखें।
इस सप्ताह बुध 4 तारीख के 12:34 दिन से वृश्चिक राशि से धनु राशि में प्रवेश करेगा। अन्य ग्रह जैसे कि सूर्य धनु राशि में, बक्री मंगल कर्क राशि में, वक्री गुरु वृष राशि में, शुक्र कुंभ राशि में, शनि कुंभ राशि में और राहु मीन राशि में पूर्ववत गोचर करेंगे। बुध का यह गोचर बड़े विकट प्रभाव दिखाएगा इसके असर के बारे में हम आगे राशिवार चर्चा करेंगे।
मेष राशि
इस सप्ताह आपके पास धन आने के अच्छे योग बनेंगे। भाग्य साथ देगा। माताजी और पिताजी का स्वास्थ्य ठीक रहेगा। कचहरी के कार्य सावधानी पूर्वक करें। इस सप्ताह आपके लिए 1 जनवरी 2 जनवरी और 3 जनवरी की दोपहर तक का समय किसी भी कार्य को करने के लिए उत्तम है। रविवार को सांयकाल में कोई नया काम करना उचित नहीं है। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन काले कुत्ते को रोटी खिलाएं। सप्ताह का शुभ दिन बृहस्पतिवार है।
वृष राशि
इस सप्ताह आपका और आपके जीवन साथी का स्वास्थ्य पिछले सप्ताह जैसा ही रहेगा। भाई बहनों से आपके संबंध ठीक रहेंगे। कार्यालय में आपकी प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी। भाग्य से आपको लाभ हो सकता है। इस सप्ताह आपके लिए 3 तारीख की दोपहर से बाद से लेकर 4 और 5 तारीख किसी भी कार्य को करने के लिए उपयुक्त हैं। 30 और 31 दिसंबर को आपको सचेत रहकर कार्य करना चाहिए। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन भगवान सूर्य को स्नान की उपरांत तांबे के पात्र में जल अक्षत और लाल पुष्प लेकर सूर्य मन्त्रों के साथ में जल अर्पण करें। सप्ताह का शुभ दिन शनिवार है।
मिथुन राशि
इस सप्ताह आपके पास धन आ सकता है। कचहरी के कार्य में सावधान रहें। कार्यालय में लड़ाई से बचें। इस सप्ताह भाग्य आपका साथ देगा। आपका और आपके जीवनसाथी का स्वास्थ्य ठीक रहेगा। इस सप्ताह आपके लिए 30 और 31 दिसंबर किसी भी कार्य को करने के लिए उपयुक्त हैं। एक, दो और तीन तारीख को आपको सावधानी पूर्वक कार्य करना चाहिए। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन किसी भी मंदिर में जाकर बाहर बैठे हुए गरीब लोगों के बीच में चावल का दान दें। सप्ताह का शुभ दिन रविवार है।
कर्क राशि
इस सप्ताह आपका और आपके जीवनसाथी का स्वास्थ्य पहले जैसा ही रहेगा। भाई बहनों के साथ संबंध ठीक रहेंगे। भाग्य से आपको मदद नहीं मिल पाएगी। आपको अपने पुरुषार्थ पर भरोसा करना पड़ेगा। अगर आप प्रयास करेंगे तो आप अपने शत्रुओं को पराजित कर सकते हैं। इस सप्ताह आपके लिए एक, दो और तीन जनवरी के दोपहर तक का समय कार्यों को करने के लिए उपयुक्त है। सप्ताह के बाकी दिन आपको सावधान रहकर कोई भी कार्य करना चाहिए। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप गरीब लोगों के बीच में कंबल का दान करें। सप्ताह का शुभ दिन बृहस्पतिवार है।
सिंह राशि
अविवाहित जातकों के विवाह के अच्छे सहयोंग बनेंगे। प्रेम संबंधों को बल मिलेगा। कार्यालय में आपकी स्थिति ठीक-ठाक रहेगी। शत्रु अपने आप पराजित होंगे। आपकी संतान आपका सहयोग करेगी। विद्यार्थियों का समय अच्छा चलेगा। इस सप्ताह आपके लिए 3 जनवरी के दोपहर से लेकर 4 और 5 जनवरी किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए लाभदायक है। एक दो और तीन जनवरी के दोपहर तक का समय सावधान रहने का है। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन गाय को हरा चारा खिलाएं। सप्ताह का शुभ दिन रविवार है।
कन्या राशि
इस सप्ताह आपको धन प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। उसमें आपको सफलता मिल सकती है। समाज में आपको प्रतिष्ठा प्राप्त होगी। अगर आप प्रयास करेंगे तो आपके शत्रु निश्चित रूप से परास्त हो जाएंगे। कार्यालय में आपकी प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी। इस सप्ताह आपके लिए 30 और 31 दिसंबर कार्यों को करने के लिए परिणाम दायक हैं। 3 जनवरी के दोपहर से लेकर 4 और 5 जनवरी को आपको सतर्क रहना चाहिए। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन रुद्राष्टक का पाठ करें। सप्ताह का शुभ दिन बुधवार है।
तुला राशि
इस सप्ताह आपको अपने भाई बहनों से अच्छा सहयोग प्राप्त हो सकता है। आपके पराक्रम में वृद्धि होगी। भाग्य भी आपका अनुकूल रहेगा। संतान से आपके सहयोग प्राप्त होगा। छात्रों की पढ़ाई उत्तम चलेगी। इस सप्ताह आपके लिए 1, 2 और 3 जनवरी किसी भी कार्य को करने के लिए शुभ फलदायक हैं। 5 जनवरी के दोपहर के बाद से आपको सावधान रहकर कार्य करना चाहिए। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन भगवान शिव का अभिषेक करें। सप्ताह का शुभ दिन बुधवार है।
वृश्चिक राशि
इस सप्ताह आपका और आपके जीवनसाथी का स्वास्थ्य पिछले सप्ताह जैसा ही रहेगा। आपके सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी। कार्यालय में आपको थोड़ी परेशानी हो सकती है। भाग्य का आपके सहयोग प्राप्त होगा। धन आने की अच्छी संभावना है। आपको अपने संतान से सहयोग प्राप्त नहीं हो पाएगा। इस सप्ताह आपके लिए 3 तारीख के दोपहर के बाद से चार और पांच तारीख किसी भी काम को करने के लिए उपयुक्त हैं। आपको चाहिए कि आप इस सप्ताह प्रतिदिन राम रक्षा स्त्रोत का पाठ करें। सप्ताह का शुभ दिन रविवार है।
धनु राशि
इस सप्ताह आपका और आपके जीवनसाथी का स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। कचहरी के कार्यों में सावधानी बरतें। भाई बहनों के साथ संबंध ठीक-ठाक रहेंगे। कार्यालय में आपकी स्थिति सामान्य रहेगी। दुर्घटनाओं से बचने का प्रयास करें। पेट के रोगों से सावधान रहें। इस सप्ताह आपके लिए 30 और 31 दिसंबर किसी भी कार्य को करने के लिए लाभप्रद हैं। सप्ताह के बाकी दिन सामान्य हैं। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन मसूर की दाल का दान करें और मंगलवार को हनुमान जी के मंदिर में जाकर कम से कम तीन बार हनुमान चालीसा का पाठ करें। सप्ताह का शुभ दिन मंगलवार है।
मकर राशि
इस सप्ताह आपको अपने संतान से सहयोग प्राप्त हो सकता है। धन आने की अच्छी उम्मीद है। कचहरी के कार्यों में सावधानी के साथ सफलता मिल सकती है। आप और आपके जीवन साथी में से एक का स्वास्थ्य थोड़ा खराब हो सकता है। लंबी यात्रा का योग भी बन सकता है। इस सप्ताह आपके लिए एक, दो और तीन जनवरी किसी भी काम को करने के लिए उपयुक्त हैं। 30 और 31 दिसंबर को आपको कोई भी कार्य बहुत सतर्कता पूर्वक करना चाहिए। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें। सप्ताह का शुभ दिन शुक्रवार है।
कुंभ राशि
इस सप्ताह आपका स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। जीवनसाथी के स्वास्थ्य में समस्या हो सकती है। अविवाहित जातकों के विवाह के उत्तम प्रस्ताव आ सकते हैं। धन लाभ होने की पूर्ण संभावना है। आप अपने दुश्मनों को परास्त कर सकते हैं। इस सप्ताह आपके लिए 3 जनवरी के दोपहर के बाद से लेकर चार और पांच जनवरी मंगलदायक है। एक, दो और तीन जनवरी के दोपहर तक का समय किसी भी कार्य को करने के लिए कम उपयुक्त है। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन गणेश अथर्वशीर्ष का पाठ करें। सप्ताह का शुभ दिन शनिवार है।
मीन राशि
अगर आप ढंग से प्रयास करेंगे तो इस सप्ताह आपको कचहरी के कार्यों में लाभ प्राप्त हो सकता है। अपने कार्यालय में आपको प्रतिष्ठा मिल सकती है। भाग्य से आपके सहयोग प्राप्त होगा। । भाई बहनों के साथ आपके संबंध ठीक रहेंगे। पिताजी का स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। माता जी का स्वास्थ्य भी ठीक-ठाक रहेगा। इस सप्ताह आपके लिए 30 और 31 दिसंबर किसी भी कार्य को करने के लिए अनुकूल है। 3 जनवरी के बाद से लेकर चार और पांच जनवरी को आपको बड़े सावधानी से कोई भी कार्य करना चाहिए। इस सप्ताह आपको चाहिए कि आप प्रतिदिन घर की बनी पहली रोटी गौ माता को दें। सप्ताह का शुभ दिन मंगलवार है।
ध्यान दें कि यह सामान्य भविष्यवाणी है। अगर आप व्यक्तिगत और सटीक भविष्वाणी जानना चाहते हैं तो आपको मुझसे दूरभाष पर या व्यक्तिगत रूप से संपर्क कर अपनी कुंडली का विश्लेषण करवाना चाहिए। मां शारदा से प्रार्थना है या आप सदैव स्वस्थ सुखी और संपन्न रहें। जय मां शारदा।
‘ ज्ञानसविता ‘ म्हणावी अशी विलक्षण बुद्धिमान, कर्तबगार आणि कार्यसमर्पित असणारी माझी पत्नी डॉ. सौ. अपर्णा श्रोत्री हिचे १० डिसेंबर २०२४ रोजी दुःखद निधन झाले. आता केवळ तिच्या असंख्य आठवणी मनात अविरत रुंजी घालत राहिल्या आहेत. अपर्णाने आपले सारे आयुष्य मातृत्वाच्या सेवेच्या संवर्धनात आणि आपल्या शिष्यांना तरबेज आणि निपुण करण्यात वेचले. तिच्या त्या अविरत कार्यापुढे आज पुन्हा एकदा नतमस्तक होतांना मला अगदी माझ्याही नकळत सुचलेली ही कविता — जणू मी मनःपूर्वक तिला वाहिलेली श्रद्धांजलीच – –
☆ ज्ञानसविता…… ☆ डॉ. निशिकांत श्रोत्री ☆
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आश्वासुनिया मातृत्वाला ज्ञानसविता अस्त पावली
उजळूनी साऱ्या विश्वाला कर्मप्रभा शाश्वत झाली ||धृ||
गीता हा चार पात्रांमधील संवाद ! धृतराष्ट्र, संजय, अर्जुन, आणि श्रीकृष्ण. गीतेची सुरुवात धृतराष्ट्राच्या प्रश्नाने आणि शेवट संजय याच्या उत्तराने. त्यामुळे यातील संगतीचा विचार महत्त्वाचा ठरतो.
धृतराष्ट्र बहि:चक्षुनी आंधळा आहेच पण, पुत्र प्रेमामुळे अंत:चक्षुनेही अंध आहे. त्याला युद्धाचे वर्णन सांगणार संजय हा धृतराष्ट्राचा एकनिष्ठ सेवक व सारथी. त्याला व्यासांनी दिव्यदृष्टी दिली होती. तो व्यासांचा शिष्य होता. राजमहालात आपल्या स्वामींच्या पायाशी बसून रणांगणावरील युद्धाचे वर्णन सांगण्यासाठी त्याची योजना. अर्जुन पंडूपुत्र श्रेष्ठ धनुर्धर आणि श्रीकृष्ण त्याच्या रथाचा सारथी तसेच अर्जुनाचा मित्र, सखा, बंधू, प्रत्यक्ष परमात्मा.
गीतेचा पहिला श्लोक म्हणजे धृतराष्ट्राने संजयाला विचारलेला प्रश्न. धृतराष्ट्र उवाच,
“धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:l
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जयll” (१/१)
हे संजया, धर्मक्षेत्र अशा कुरुक्षेत्रावर युद्धाच्या इच्छेने एकत्र आलेल्या माझ्या व पंडूच्या पुत्रांनी काय केले? गीतेत हा एकमेव श्लोक धृतराष्ट्राच्या तोंडी आहे. आणि तो त्याचा स्वभाव, इच्छा व्यक्त करायला पुरेसा आहे. पुत्रप्रेमात गुंतलेला धृतराष्ट्र त्यांच्या जयाची वार्ता ऐकायला उत्सुक आहे. भिष्म, द्रोण, कर्ण दुर्योधनाच्या बाजूला आणि सैन्यही पांडवांच्या सैन्यापेक्षा दीडपट. त्यामुळे कौरवच युद्ध जिंकणार असे वाटत आहे. ‘ मामका:’ हा शब्दच आपल्या मुलांचे प्रेम आणि पंडूचे मुलगे असा परकेपणा निर्माण करतात. हे युद्ध होणारच. पण निर्णय ऐकायला तो उत्सुक आहे. बाहेरून शांत पण अंतस्थ तणावग्रस्त असे व्यक्तिमत्व.
गीतेत पुढे संजयाने केलेले युद्धाच्या तयारीचे वर्णन, अर्जुनाला झालेला मोह, त्याचा युद्ध न करण्याचा निश्चय, कृष्णाने त्याचे केलेले मतपरिवर्तन, त्यासाठी सांगितलेले तीन योग, स्वधर्माची- स्वकर्माची जाणीव, आत्म्याचे अविनाशित्व इत्यादी उपदेशाने अर्जुनाचा मोह दूर होऊन त्याचे युद्ध करायला तयार होणे हे विषय येतात. हे सर्व तत्त्वज्ञान ऐकून संजयाला आत्मिक आनंद मिळाला होता. धृतराष्ट्राच्या पहिल्या प्रश्नाला उत्तर देण्याची जबाबदारी संजय याची. युद्धभूमीवर पांडवांचा जय होणार याची खात्री संजयाला आहे. पण तसे सांगितले तर आपल्या स्वामींना रुचणार नाही आणि खोटे बोलावे तर आपल्या मनाला पटणार नाही. म्हणून मोठे खुबीदार उत्तर मोठ्या चतुर्याने, आडपडद्याने संजय देतो. प्रत्यक्ष तोंडाने कौरवांचा पराजय होईल असे न सांगता,
जेथे योगेश्वर श्रीकृष्ण आणि धनुर्धर पार्थ तेथे श्री, विजय, भूती आणि निती असे माझे निश्चित मत आहे. प्रत्यक्ष युद्ध घडायच्या आधीच आपले मत सांगून संजय मोकळा झाला. एक सर्वत्र, सर्व काळी योग्य असे सत्य त्याने सांगितले. श्रीकृष्ण स्वतः योगेश्वर सर्व योग जाणणारे आणि तसा मार्ग दाखवणारे, तत्त्वज्ञानी, सर्वज्ञ आणि त्यांना साथ पार्थ म्हणजे ध्येयापर्यंत पोहोचण्यासाठी प्रयत्न करणारा, धनुर्धारी अर्जुन. म्हणजेच बुद्धीला ज्यावेळी पराक्रमाची जोड मिळते तेव्हाच विजय आणि वैभव प्राप्त होते. जे दुर्योधनाकडे नव्हते. त्यामुळे अर्जुन म्हणजे त्याचा भाऊ युधिष्ठिर जिंकणार आणि त्याला सर्व वैभव प्राप्त होणार. असे आपले ठाम मत सांगण्याचे धैर्य संजयला प्राप्त झाले, ते श्रीकृष्णाने अर्जुनाला केलेले बोधामृत ऐकून. अशा प्रकारे पहिल्या आणि शेवटच्या श्लोकाची संगती. म्हणून गीता ही संजयाच्या भावाने ऐकण्यासाठी, अर्जुनाच्या भूमिकेतून आचरण्यासाठी आणि श्रीकृष्ण बनण्याचा प्रयत्न करण्यासाठी आणि आंधळ पुत्र प्रेम नसावं हे दाखवण्यासाठी आहे. श्रीकृष्ण म्हणजे तत्वज्ञान आणि अर्जुन म्हणजे कर्म यांची सांगड आहे.
हे युद्ध एकाच कुटुंबातील दोन भावांच्या मुलांमध्ये, दोन वृत्तीं मधील आहे. आसूरी आणि दैवी. तेव्हा असुरी वृत्ती कडून दैवी वृत्तीकडे वाटचाल करणे महत्त्वाचे. आपल्यामध्येही दोन्ही प्रकारचे गुण असतात. शरीराच्या रणांगणावर लढाईसाठी एकत्र आलेले. तेव्हा अंत:करणातील श्रीकृष्णाचे स्मरण करून अर्जुन रूपाने साधना करावी आणि दुर्गुणांवरती विजय मिळवावा.
गीतेची सुरुवात ‘धर्म’ या शब्दाने आणि शेवट ‘मम’ या शब्दाने म्हणून ‘धर्ममम ‘ म्हणजे माझा धर्म. म्हणजेच स्वधर्म- स्वकर्तव्य सांगणारी गीता. त्याचे आचरण हेच गीतेचे सार. अशा आचरणाने कुरुक्षेत्राचे धर्मक्षेत्र करता येते. कुरु म्हणजे कर आणि क्षेत्र म्हणजे शरीर. धर्माधिष्ठित विहित कार्याला शरीर लावणे म्हणजेच कुरुक्षेत्राचे धर्मक्षेत्र करणे. पलायनवाद सोडून समर्थपणे प्रसंगाला तोंड द्यायला शिकवणे हेच गीतेचे वैशिष्ट्य. दुर्गुणावर सद्गुणांचा हा विजय. त्यासाठी गरज बुद्धीची आणि साधनेची मग सुखच सुख. हे जाणणे हीच गीतेच्या पहिल्या व शेवटच्या श्लोकाची संगती.
☆ चाकं – भाग १ (भावानुवाद) – डॉ हंसा दीप ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆
डॉ. हंसा दीप
एकाच घरात दोन विश्व. एक गतिमान आणि दुसरं स्थिर.
व्हील चेअरवर धसून बसलेल्या कैमिलाच्या जगात चाकं चालायची, पण ती स्थीर असायची. हेनरी स्वत: चालायचा आणि पत्नीलाही ढकलायचा. कित्येक वर्षापूर्वी व्हील चेअर प्रथम घरात आली, तेव्हा जराही कल्पना नव्हती, की एक दिवस कैमिला यातच सामावून जाईल.
एक दिवस गडद काळोखात कैमिला कशाला तरी धडकली आणि पडली. त्यावेळी डॉक्टरांनी कमीत कमी दहा दिवस तरी चालू नका, म्हणून सांगितले होते. हेनरीने तिच्या सोयीसाठी लगेचच व्हील चेअर आणली होती आणि तिच्यावर तिला बसवून तो अगदी मनापासून ती ढकालायचा. म्हणायचा, ‘तुझ्यासाठी इतकं तरी मी करू शकतोच ना कैमी! उद्या चालू लागलीस की माझी गरज नाही पडणार. आता निदान मी तुझ्या अवती-भवती तरी राहू शकतो. ’ त्यावेळी प्रत्येक क्षणी हेनरीच्या प्रेमाचा अनुभव घेत, आस-पास बघत मस्करी करत ती म्हणायची, ‘वाटतय, याच चेअरवर कायमचं राहावं. तुझं प्रेम मिळतं ना! माझ्या खांद्यावरचे तुझे हात मला असहाय्य वाटू देत नाहीत.
‘भांडण नाही. वाद म्हण. एखाद्या गोष्टीवर वाद घालणं म्हणजे भांडण नाही.’
‘या आधी तू असं कधी म्हणाला नाहीस. तुझे डोळे भांडणासारखेच गरगरायचे’
हेनरीने हे बोलणं अगदी सहज थट्टेवारीत घेतलं आणि म्हणाला, तुला पाहून डोळे चक्रावले जात असतील, एवढंच! पण कैमी, पाय चांगले असले तरी तू बसून राहू शकतेस. व्हील चेअरवर नाही, या शानदार सिंहासनासारख्या खुर्चीवर. तेव्हाही मी तुझ्या मागेच राहीन. ’
कैमिला हे गमतीत बोलली खरी, पण काही वर्षात ते तिचं जीवनच झालं. बर्फावरून ती घसरली होती. केवळ पायच घसरले नव्हते. सगळं शरीरच आखडलं होतं.
महिनाभर बिछान्यावर पडून राहिल्यानंतर, फिजियोच्या अथक प्रयासाने शरीराची बाकी अंगे सक्रिय झाली, पण पायाची स्थिती सुधारली नाही. त्यानंतर ती पुन्हा आपल्या पायावर उभी राहू शकली नाही. विशेषज्ञ चिकित्सकांच्या टीमचं म्हणण की काही वर्षांनंतर पायांची क्षमता आपोआप वाढेल. त्यावेळी सर्जरीनंतर तिला चालता येईल.
पुढच्या पाच वर्षांच्या दरम्यान अनेकदा, एकामागून एक अनेक चेकप झाले. अनेक वर्षं या व्हील चेअरमध्ये कैदेत राहिल्यानंतर अखेर सर्जंरीसाठी हिरवा झेंडा दाखवला गेला. उद्या सर्जरी आहे. त्यानंतर तिला नेहमीसाठी या चेअरमधून मुक्ती मिळेल.
हेनरी खूप आशावादी होता. तो खुश होता. आता कैमि लवकरच चालायला लागेल. तिला असं असहाय्य बघणं, त्याला खूप त्रासदायक वाटायचं. त्याला ते जुने दिवस आठवायचे. त्यावेळी कैमिचे पाय एखाद्या जागी कधीच टिकायचे नाहीत. तिची जबर इच्छाशक्ती हेनरीला हैराण करायची. घरकाम, नोकरी आणि मित्रमंडळी. कधी मॉल, कधी पार्क, प्रत्येक ठिकाणी सगळी कामं निपटत ती धावत राह्यची. एकाच वेळी, धावत-पळत अनेक कामे करायची तिची सवय होती. तिची धाव-पळ आशा तर्हेची असे, की जणू एखादं मिनिट उशीर झाला, तर जशी काही दुनियाच थांबेल. तिच्या हाता-पायात असं सामंजस्य होतं, की मेंदूकडून सूचना येताच ते आपापली ड्यूटी करू लागत. तिचा उत्साह पाहून हेनरी चकित व्हायचा. स्वत: काही करायच्या ऐवजी कैमिवरच अवलंबून राह्यचा. अनेक कामे कैमिसाठी जशी काही रांग लावून उभी असायची. अजून हे करायचय, ते करायचय, या दरम्यान सूर्य आपला प्रकाश घेऊन विश्रांतीसाठी निघून जायचा, तेव्हा कैमिला वाटायचं, आजचा दिवस संपला आणि आता उद्यापर्यंत तिलाही आपले शरीर बिछान्यापर्यंत घेऊन जायचय. तिच्या या गतीचा हेनरीला वैताग यायचा. हेनरीला प्रत्येक काम आरामात, सावकाश करण्याची सवय होती. स्टोअरमधे भाजी, दूध, फळे घ्यायला जायचा तेव्हा काळजीपूर्वक एकेक केळं निवडत बसायचा. जोपर्यंत तो दुसरे फळ निवडू लागायचा, तोपर्यंत कैमि इतर सगळी खरेदी आटपून तिथे हजर व्हायची.
हेनरीला वाटायचं, तो नालायक आहे. कोणत्याच कामाचा नाही. इतका वेग तो कुठून आणणार? तो म्हणायचादेखील, ‘कैमि, देवाने तुझ्या पायाला चाकं लावून पाठवलय आणि माझ्या पायाला हळू हळू चालण्यासाठी साखळदंड. त्याच्या अशा हलक्या-फुलक्या बोलण्याची कैमिला खूप मजा वाटे. ‘हेनरी, आपल्या प्रेमाच्या बेड्यात तू मला चांगलच अडकवलयस. तू जसा आहेस, तसाच मला आवडतोस!’
‘मग आता मला कमी ओरडा खायला लागेल नं? ‘
एक चुंबन घ्यायची कैमिला, कारण हेनरीच्या या धिम्या गतीमुळे ती अनेकदा चिडचिडायचीसुद्धा. यावरून दोघांची अनेकदा भांडणंसुद्धा व्हायची. त्याच्या धिम्या गतीमुळे कैमिलाच्या ख्ंद्यावरील कामाचा बोजा वाढायचा. मग ती अधून-मधून त्याला टोमणेही मारायची. हेनरीच्या हातात गप्प बसून सहन करण्याशिवाय दुसरा कुठलाच पर्याय नव्हता. यामुळे कधी कधी घरात इतकी शांतता, स्तब्धता असायची की ती दोघांनाही टोचायची. एक-दोन दिवसात मग सगळं सामान्य होऊन जात असे.
प्रकृती चांगली असल्याने कैमिला अनेकदा पडून उठायची. पण, त्या दिवशी, बर्फात ती जी पडली, ती स्थिती भयावह होती. ती तिला व्हील चेअरमधे कैद करून गेली. हेनरी रिटायर्ड झाला होता आणि कैमिलाला कंपलसरी रिटायरमेंट घ्यावी लागली. तेव्हापासून हेनरी तिचा केवळ पतीच नाही, तर कैमिचा पायही बनला होता. तिला जेव्हा कशाची गरज असेल तेव्हा, हेनरीच असायचा. अनेक वेळा, अनेक गरजेच्या गोष्टी ती आपल्या जवळच्या टेबलावर ठेवून घ्यायची. हेनरीला वारंवार त्रास द्यावा लागू नये, असं तिला वाटायचं. तरीही काही ना काही राहायचच. कदाचित बर्याच वर्षांच्या शीघ्र गतीचा आणि मंद गतीचा हिशेब बरोबर होत चाललाय. आता हेनरीच तिचे पाय होते, जे मंद गतीने का चालोत, निदान चालत तरी होते. कैमिचे जलद धावणारे पाय दुर्भाग्याने आता थांबलेच होते. जेव्हापासून ती खुर्चीशी बांधली गेलीय, तिला अनेक वेळा वाटलं, जसे काही तिचे पाय कधी चाललेच नाहीत. चालणारे लोक तिला जादुगार वाटतात. ती कधी त्यांच्या पायाकडे तर कधी आपल्या पायांकडे बघायची. तिला जाणवायचं आपल्या पायांनी चालणार्या माणसाला कधी वाटतच नाही, की तो गतिमान आहे. गती आहे, तर जीवन आहे.
एका खुर्चीत कैद असलेलं जीवन काय जीवन आहे? खुर्चीत सामावलेलं तिचं जीवन, पायाचं मौन, ती असहाय्यशी झेलत होती. विविध अवयवांचं सामंजस्य निभावताना पायांनी जसा काही असहकार पुकारला होता. या धावत्या जगात पायांची जंगली जिद्द तिला दिवसेंदिवस जशी काही खात होती. हेनरीला दाखवण्यासाठी ती वर-वर हसायची, पण आतल्या आत खूप रडायची. हे रडू तीळ तीळ करत तिच्या जीवनेच्छेला गिळत होतं.
तिच्या या थांबलेपणाची पूर्ण कल्पना हेनरीला होती. कैमिला आशा स्थितीत बघणं, हे त्याच्यासाठी शिक्षेपेक्षा काही कमी नव्हतं. तिला जास्तीत जास्त मदत करून तो, ती शिक्षा कमी करण्याचा प्रयत्न करायचा. तिच्या अन्य गराजांबरोबरच, तिच्या मनोरंजनाचाही तो विचार करायचा. पण, लाख इच्छा असूनही तो कैमिची विवशता, लाचारी कमी करू शकत नसे. घरात दोनच माणसे, पण दोघेही आपआपल्या परिघात बंदिस्त होती. आता दोघांच्यात कधीही वाद होत नव्हते. भांडणे होत नव्हती. नेहमी नाकावर राग असणारा हेनरी आता अगदी शांत होऊ लागला होता.
दोघेही निवृत्त. दोघांची पेन्शन बेताची. गरजाही बेताच्याच. हलकं-फुलकं खाणं आणि एक ठरीव दिनचर्या. मनाला वाटेल तेव्हा निजावं, मनाला वाटेल तेव्हा उठावं. साठ-बासष्ठचं वय म्हणजे फार काही नाही. पायांनी साथ दिली असती, तर यापुढचा प्रवास हा खुशीचा प्रवास झाला असता. कैमिची एकच इच्छा आता बाकी राहिली होती. ती म्हणजे, जीवनात एकदा तरी चालण्याचा आनंद घेणं. आपल्या पायांवर उभं राहून मनमुराद चालण्याची तिची इच्छा होती. या वेळेची वाट बघता बघता तिचे डोळे दगड होऊन गेले होते.
थंडीमधे वेळ निघून जात असे. पण उन्हाळ्यात जेव्हा सगळं शहर घराबाहेर लोटलेलं दिसे, तेव्हा ती उदासपणे येणार्या – जाणार्या लोकांकडे असासून पाह्यची. रोज संध्याकाळी हेनरी तिची व्हील चेअर व्हरांड्यात आणून त्याच्या टोकाशी नेऊन ठेवत असे, म्हणजे येणार्या – जाणार्या लोकांकडे बघून तिला आपला वेळ घालवता येईल.
कैमी कधी पुस्तक वाचायची. कधी थंड हवेत एखादी डुलकी काढायची. पण वैताग आणणारी गोष्ट ही होती, की अनेकदा संतुलन बिघडल्याने व्हील चेअरचे लॉक उघडायचे. अनेकदा ती पडता पडता वाचली होती. हेनरीने यावर उपाय शोधून काढला होता. त्याने व्हील चेअरच्या चारी बाजुंनी टीनचे दरवाजे बनवून घेतले, त्यामुळे ती कितीही हलली, डुलली तरी संतुलन बिघडून ती खाली पडणार नाही. कोणत्याही तर्हेची दुर्घटना घडू नये, म्हणून सुरक्षिततेसाठी तिथे कुलूपही लावले.
— क्रमशः भाग पहिला
मूळ हिन्दी कथा – “पहिए“
हिन्दी लेखिका : डॉ. हंसा दीप, कॅनडा
संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada
मनस्पर्शी साहित्य परिवार आयोजित ‘ भाऊबीज विशेष लेख स्पर्धा ’ या राज्यस्तरीय स्पर्धेत आपल्या समूहातील ज्येष्ठ लेखिका सौ. राधिका भांडारकर यांच्या “मानसुमने“ या लेखाला प्रथम पुरस्कार प्रदान करण्यात आलेला आहे.
लेखाचा विषय होता… “लाडक्या बहिणीला भेट हवी : दानाची नाही मानाची“
या पुरस्काराबद्दल राधिकाताईंचे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि यापुढील अशाच यशस्वी साहित्यिक वाटचालीसाठी असंख्य हार्दिक शुभेच्छा.
आजच्या अंकात वाचूया हा प्रथम पुरस्कारप्राप्त लेख.
– संपादक मंडळ
ई – अभिव्यक्ती, मराठी विभाग
मनमंजुषेतून
☆ मानसुमने… ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆
सोनियाच्या ताटी । उजळल्या ज्योती ।
ओवाळीते भाऊराया । वेड्या बहिणीची वेडी ही माया ।।
या ओळी वातावरणातून कधीही लहरत आल्या की कान आणि मन तृप्त होतं. बहीण हा शब्द कधी एकट्याने येतच नसावा. अदृश्यपणे बहीण या शब्दाबरोबर भाऊ हा शब्द असतो आणि ज्या ज्या वेळी बहीणभाऊ असा जोडशब्द उच्चारला जातो तेव्हा नकळत त्या भोवती मायेची, प्रेमाची, भावबंधनाची झालर सहजपणे विणली जाते.
हिंदू संस्कृतीत बहीणभावाच्या या नात्याला अपरंपार महत्त्व आहे आणि हा ममतेचा रेशीमबंध सदैव जपला जावा म्हणूनच *रक्षाबंधन*, *भाऊबीज* यासारखे सण बहीणभावामधली प्रेमाची गाठ अतूट राहण्यासाठी साजरे केले जातात. परंपरा आणि संकेतात गुंतलेला हा भावनिक धागा अशा रीतीने जपला जातो.
अर्थात बहीणभावाचं सांस्कृतिक पातळीवरचं नातं असं असावं अशी सामाजिक अपेक्षा असते. प्रत्यक्षातले अनुभव कदाचित निराळे असू शकतात. मुळातच नाती टिकवणं, नाती जपणं, नात्यातला बंध पाळणं, नात्याला अधिक सुंदर करणं या गोष्टी आजच्या यंत्रयुगात मात्र काहीशा धूसर झालेल्या जाणवतात.
जगण्याच्या कल्पनाच बदलल्या आहेत का? की यांत्रिकतेत, कमालीच्या गतिमानतेत, स्पर्धेच्या युगात, स्वातंत्र्याच्या अफाट कल्पनेत, स्थळ काळानुसार कुठेतरी या संकेतांनाच नकळत पायदळी चिरडले जात आहे का?
एक हजारो मे मेरी बहना है
सारी उमर हमे संग रहना है।।
हे फक्त गाण्यापुरतंच उरलं आहे का?
पण या साऱ्या सांस्कृतिक पारंपरिक प्रश्नांची उत्तरे शोधण्यापूर्वी एक गमतीदार विचार मनात येतो तो सध्या राजकीय क्षेत्रात गाजत असलेल्या *लाडकी बहीण* या शब्द समूहामुळे. वास्तविक या लेखाला मला कुठलंही राजकारणी स्वरूप नक्कीच द्यायचं नाही अथवा राजकारणावर टीका करण्याचा माझा हेतूही नाही पण समाजात जगत असताना “जगणं आणि राजकारण” याची फारकत कशी करणार? शिवाय एका राजकीय पक्षाकडून लाडक्या बहिणीला मिळणारं हे अनुदान नक्की कशासाठी? हा प्रश्न दुर्लक्षित कसा काय करणार? “आवळा देऊन कोहळा” काढण्यासारखं नाही का वाटत हे? *घ्या अनुदान करा मतदान* अशी एक अंतस्थ घोषणा नाही का ऐकू येत? भेटीत दानाची भूमिका असेल पण या दानात बहिणीचा मान, सन्मान खरोखरच राखला आहे का आणि तसं असेलच तर मग पुढचा अत्यंत महत्त्वाचा आणि ज्वलंत प्रश्न निर्माण होतो तो महिलांच्या सुरक्षिततेविषयी.
प्रत्येक मिनिटाला तीन ते पाच बलात्कार होत असलेल्या आपल्या देशात *लाडकी बहीण* या शब्दरचनेला कुठला अर्थ प्राप्त होतो? पंधराशे रुपयाची भेट तिच्या खात्यात जमा करा आणि तिच्या स्त्रीत्वाचे, स्वाभिमानाचे, अस्तित्वाचे धिंडवडे पहात रहा.
परवाच मी माझी मदतनीस कविता हिला सहज विचारलं, “ का गं ! तू *लाडकी बहीण* योजनेत तुझं नाव नोंदवलंस की नाही?” तेव्हा तिने ताठ मानेने डोळे रोखून माझ्याकडे पाहिलं आणि ती म्हणाली, ” ताई मला दान नको मला मान हवा. “
घरोघरी ती काम करते, चार पैसे कमावते. मुलाच्या शिक्षणाचे स्वप्न पाहते आणि दारुड्या नवऱ्याचा रोज मार खाते. रस्त्यातून चालत येताना तिला असंख्य विकारी नजरा झेलाव्या लागतात तेव्हा कुठे जातो हा लाडक्या बहिणीचा भाऊ आणि त्याच्या मनगटावर असंख्य भगिनींनी रक्षाबंधनाच्या दिवशी बांधलेले ते धागे?
ओवाळणीच्या ताटात दिलेल्या भाऊबीजेतून बहिणीला हवा असतो विश्वास. भेटीत केवळ काहीतरी दिल्याचा भाव नको. राखला जावा तिचा मान, जपली जावी तिची सक्षमता, तिचा जगण्याचा अधिकार, तिची आत्मनिर्भरता.
महिला सक्षमतेच्या विविध कायद्यांची अंमलबजावणी आणि कायद्याचे ज्ञानदान तिला मिळावे. वडिलोपार्जित मालमत्तेतला तिचा हक्क तिला सन्मानाने मिळावा. तिच्या स्त्रीधनाची बूज राखली जावी. एका ओवाळणीने तिला लाचार किंवा उपकृत करुन एक प्रकारच्या अदृश्य दास्यात बांधण्यापेक्षा तिच्यासाठी सन्मानाची दालनं खुली करून द्या.. जिथे नसतील हिंसा, मानहानी, निर्भत्सना, अत्याचार, तिच्या देहाची केलेली लक्तरे, तिच्या जन्माची झालेली हेळसांड. तिथे फक्त असावी मानाच्या सुमनांची शुद्ध मोकळी उधळण.
.. अपेक्षा ही आहे.. नुसत्या दानाची नव्हे.. तर सन्मानाची.
☆ शिरसाष्टांग प्रणिपात… ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’☆
प. पू. सद्गुरू श्रीमहाराज,
शिरसाष्टांग प्रणिपात.
मार्गशीर्ष कृ. ९, शके १९४६ …. आपली पुण्यतिथी. त्यानिमित्ताने मनात आलेले विचार इथे मांडण्याचा प्रयत्न करतोय. सामान्य मनुष्य मरतो आणि संत मात्र आपले जीवीत कार्य पूर्ण करतात आणि आपली अवतार समाप्ती करतात. त्यांचे जीवन कृतार्थ असते तर सामान्य मनुष्याला मतितार्थ कळतोच असे नाही. अनेक संत आपली मृत्यू तिथी आधीच सांगतात आणि मग आपला देह ठेवतात. सामान्य मनुष्याचे मात्र या उलट असते…. !
प्रत्येक मनुष्याला कसल्या ना कसल्या आधाराची गरज असते. अनेक वेळा मनुष्य नश्वर गोष्टींचा आधार शोधतो. त्याला कधी तो मिळतो अथवा मिळत नाही, पण नश्वर आधार शाश्वत समाधान देऊ शकेल असे मानणे हीच मोठी चूक ठरते आणि सामान्य मनुष्य मात्र कायम असमाधानी रहातो असे आपल्या लक्षात येईल. संताचा आधार, संतांच्या ग्रंथाचा आधार आणि संतांनी दिलेल्या नामाचा आधार हाच खरा आधार. हे लक्षात येण्यासाठी मात्र पूर्वसुकृत असावे लागते, याबद्दल वाचकांचे एकमत होऊ शकेल.
श्रीमहाराज, आपण स्वतः नाम घेतले आणि सर्वांना नाम घेण्यास सांगितले. नुसते (?) नाम घेऊन काय होते ? अनेक शिष्य नामाने गुरू पदाला नेऊन, असे मानणाऱ्या आमच्यासारख्या सामान्य जनांना, नामाने (नामस्मरणाने) काय होऊ शकते, याचे प्रत्यंतर आणून दिलेत.
जयांचा जनी जन्म नामांत झाला
जयाने सदा वास नामात केला
जयांच्या मुखी सर्वदा नाम कीर्ती
नमस्कार त्या ब्रह्मचैतन्य मूर्ती ….
आपण नामाच्या प्रसारासाठी जन्म घेतला, आयुष्यभर अखंड नाम घेतले आणि सर्वांना नाम घेण्यास प्रवृत्त केले. सामान्य मनुष्याला नामाचा आधार दिला आणि आज आपले निर्वाण होऊन सुमारे १११ वर्षे झाली तरी नाम प्रसाराचे कार्य अव्याहत चालू आहे, ही आपल्या कार्याची महती म्हणता येईल. मनुष्य देहात असताना काम केले तर आपण समजू शकतो, पण देह सोडल्यावर देखील एखादे कार्य अव्याहत चालू रहाणे यात त्या कर्त्याची महानता दिसून येते. मी भाग्यवान आहे की मला आपण आपले शिष्यत्व दिलेत. आदरणीय भाऊसाहेब केतकर म्हणायचे की श्रीमहाराज भेटले आता काही मिळायचे बाकी राहिलें नाही. माझी सध्याची मनःस्थिती, वृत्ती अगदी तशीच आहे. फक्त ती कायम राहील असा आशीर्वाद आपण मला द्यावा.
आपलं एक वचन अतिशय प्रसिद्ध आहे. ” जेथें नाम, तेथें माझा प्राण। ही सांभाळावी खूण।।” हे वचन माझं तोंडपाठ आहे, परंतु माझी तितकी साधना नसल्याने, मी देहबुद्धीच्या आधीन असल्याने मला या वचनाची अल्पशी अनुभूती देखील नाही. मला गोंदवल्यात यायला आवडते, आपल्या घरचे अन्न (भोजनप्रसाद ) खायला आवडते. आपल्या सहवासात राहायला आवडते. पण तो योग अनेक दिवसांत आला नाही. आज आपली आठवण अनावर झाली, म्हणून हे पत्र लिहीत आहे. हे पत्र प्रातिनिधिक आहे, आपल्या प्रत्येक भक्ताच्या मनात कमीअधिक प्रमाणात माझ्या सारखीच भावना असेल… !
रोज पोटाची खळगी भरण्यासाठी आणि आमच्या फाटक्या प्रपंचाला ठिगळं लावण्यासाठी आमचा जास्तीतजास्त वेळ खर्च होत असतो, त्यामुळे नामस्मरण करणे आम्ही लांबणीवर टाकत असतो.
आपण म्हणता की बाळ, अनुसंधान ठेवत जा, पण खरं सांगू महाराज, नेमके तेच मला जमतं नाही. सुखाचा प्रसंग आला की मी किती आणि कसा मोठा झालो आहे असे वाटते आणि दुःखाचा प्रसंग आला की मला आपली आठवण येते. आपण मला अनुग्रह देऊन कृपांकित केले आहे, परंतु मला तसे कायम वाटत नाही. माझी देहबुद्धि मला फसवते आणि ती माझ्यावर स्वार होते. सर्व कळलं असं वाटतं, पण प्रत्यक्ष आचरणात काहीच येत नाही. मी नामस्मरण या विषयावर खूप छान चर्चा करतो, चांगलं व्याख्यानही देतो, परंतु माझं नामस्मरण किती होतं, हे आपल्याला माहीत आहेच. जो सर्वज्ञानी आहे, त्यापासून काय लपुन राहणार… ?
मी या पत्रात काय लिहिणार आहे, हे सुद्धा आपल्याला माहीत आहे, परंतु आपल्याशी बोलून माझं मन हलकं होतं, म्हणून हा प्रयत्न….. ! आई पुढे चूक मान्य केली, तिची क्षमा मागितली की आई जवळ घेते, मायेने कुरवाळते आणि आपलं बाळ ‘द्वाड’ आहे हे माहीत असूनही म्हणते, बाळ माझं गुणांचं!!! हे मायेचे बोल ऐकण्यासाठी माझे कान व्याकुळ झालेत हो महाराज!! आपण अखिल ब्रह्मांडाच्या माऊली आहात. आपल्या मुलाला जवळ घ्या. मी अनेक वेळा चुकतो, करू नको ते करतो, अनेकांची मने दुखावतो, आपल्याला भूषण होईल असे वागत माही. हे सर्व अगदीच खरं आहे. पण काय करू महाराज, मला सर्व कळतं पण काहीही वळत नाही…… आणि जेव्हां कळतं तेव्हा वेळ निघून गेलेली असते….
0श्रीमहाराज, एक करा…. तुम्हीच काहीतरी करा, जेणेकरून मला यातून बाहेर पडता येईल…. प्रपंचाच्या मोहात पडून अधिकाधिक बुडणारा मी, मला फक्त आपला आधार आहे. ज्याला जगाने दूर लोटलं, त्याला आपण मात्र स्विकारले…. आता आपणच माझे मायबाप !!
प. पू. श्रीसद्गुरुंच्या समोर कसं बोलावं, कोणता विधिनिषेध पाळावा याचं ज्ञान आणि भान मला नाही. आपण माझ्या माऊली आहात आणि आईशी कसेही बोललं तरी ती माऊली लेकराला समजून घेत असते, साऱ्या जगाने अंतर दिलं, तरी आई कधीच लेकराला अंतर देत नाही. आणि याच भावनेने हे पत्र लिहिण्याचे धाडस मी केलं आहे….!
या पत्रामागील माझा भाव आपण शुद्ध करून समजून घ्यावा आणि मला आपल्या चरणांशी स्थान द्यावे ही प्रार्थना!!!
…. प्रत्येकाला आपल्या जीवनाचे विहीत कर्तव्य आकळावे आणि नामस्मरण करण्याची आणि पर्यायाने स्वतःचा आणि समाजाचा विकास साधावा असा आशीर्वाद आपण द्यावा.
☆ “नीलवर्ण मृत्यू… कृष्णवर्ण देवदूत !! ”☆ श्री संभाजी बबन गायके☆
आपले भगवान श्रीकृष्ण नीलवर्ण, आपले प्रभू श्री रामचंद्र नीलवर्ण…. आपले भगवान श्री शिवशंकर नीलकंठ ! निळा रंग विशाल, अथांग अवकाशाचे प्रतिक. पण सामान्य मानवाच्या देहावर, त्यातल्या त्यात तान्ह्या बाळांच्या नाजूक कांतीवर नखं, ओठ इत्यादी ठिकाणच्या नाजूक त्वचेवर निळ्या रंगाची छटा… म्हणजे साक्षात मृत्यूची पदचिन्हे ! वैद्यकीय भाषेत या अवस्थेला ‘ब्लू बेबी सिंड्रोम’ असे नाव आहे.
सुमारे ८० वर्षांपूर्वीची गोष्ट. अमेरिकेत एका वैद्यकीय महाविद्यालयात एक हृदयशस्त्रक्रिया सुरु होती. ती पहायला तेथील तज्ज्ञ डॉक्टर्स मोठ्या संख्येने उपस्थित होते. डॉक्टर अल्फ्रेड ब्लालॉक, डॉक्टर हेलन ताऊसीग हे दोन तज्ज्ञ शल्यविशारद. या दोघांनी या रुग्णाचे हृदय उघडले होते…. रुग्णाचे वय होते पंधरा महिने… मुलगी होती… तिचे नाव होते Eileen Saxon. पण या दोन्ही डॉक्टरांच्या मागे उभे राहून
… ही शस्त्रक्रिया नेमकी कशी करायची याचे मार्गदर्शन करत होती एक वैद्यकीय डॉक्टर नसलेली व्यक्ती… त्या वैद्यकीय महाविद्यालयात स्वच्छता कर्मचारी म्हणून नेमणूक असलेला एक कृष्णवर्णीय माणूस !
शस्त्रक्रिया अयशस्वी झाली असती तर त्या दोन्ही डॉक्टरांचे संपूर्ण वैद्यकीय आयुष्य उध्वस्त झाले असते. शस्त्रक्रिया करताना तसा प्रसंग उद्भवला सुद्धा होता…. पण वैद्यकीय पदवी नसलेल्या त्या कृष्णवर्णीय माणसाने वेळीच मार्ग दाखवला आणि ते मूल पुन्हा श्वास घेऊ लागले… बाळाच्या शरीरावरील निळे डाग गेले… आणि बाळाची कांती गुलाबी झाली… !
जगातली अशा स्वरूपाची ती पहिली शस्त्रक्रिया यशस्वी ठरली होती… जगभरात डॉक्टर अल्फ्रेड ब्लालॉक, डॉक्टर हेलन ताऊसीग यांचे नाव झाले…. लाखो बालके त्या विशिष्ट विकारातून मुक्त झाली. काय होता तो विकार?…..
… नायट्रेट नावाचा पदार्थ रक्तात गेला की त्याचे नायट्राईट मध्ये रूपांतर होते. आणि यामुळे रक्ताची प्राणवायू वहन करण्याची क्षमता अत्यंत कमी होते… त्यामुळे हृदयक्रिया बंद पडून मृत्यू होण्याची शक्यता निर्माण होते. यावर १९४४ पर्यंत काही उपाय सापडत नव्हता. विशेषत: अमेरिकेत या आजाराने खूप लोकांचा, विशेषत: बालकांचा बळी घेतला होता. नायट्रेट असलेले विहिरीचे पाणी पोटात जाणे, ते पाणी वापरून तयार केलेले द्रवपदार्थ, खाद्यपदार्थ पोटात जाणे अशी काही कारणे यामागे होती. शिवाय हा विकार अनुवांशिक सुद्धा आहेच.
सुतारकामाचे धडे आपल्या वडिलांच्या हाताखाली राबून गिरवणारा एक तरुण. त्याला डॉक्टर व्हायचे होते. त्यासाठी त्याने सात वर्षे अधिकचे काम करून काही रक्कम बँकेत जमा करून ठेवली होती. पण त्यावेळी आलेल्या जागतिक मंदीमुळे बँक बुडाली आणि याचे स्वप्नसुद्धा. पण पठ्ठा धैर्यवान होता. पुन्हा पैसे जमा करण्याच्या उद्योगाला लागला. जादाची कमाई करावी म्हणून एका वैद्यकीय महाविद्यालयात सफाई कर्मचारी म्हणून त्याने चाकरी स्वीकारली.. तुटपुंज्या वेतनावर. रंगाने काळ्या असणा-या कर्मचा-यांना तेथे प्रवेश करण्यासाठी मागील दाराने यावे-जावे लागे… त्या इमारतीत प्रवेश करणारे ते एकमेव कृष्णवर्णीय असत… इतर काळ्या लोकांना तिथे प्रवेश नव्हता…. इतका वर्णद्वेष त्या काळी अमेरिकेतही होता.
डॉक्टर अल्फ्रेड ब्लालॉक हे जॉन्स हाफ्कीन्स वैद्यकीय महाविद्यालयात प्राध्यापक होते. तर डॉक्टर हेलन ताऊसिग या लहान मुलांच्या डॉक्टर होत्या. या आजारावर उपाय शोधण्याचा आग्रह डॉक्टर हेलन यांनी धरला आणि डॉक्टर अल्फ्रेड ब्लालॉक यांनी तसा प्रयत्नही सुरु केला. कुत्र्यांच्या हृदयात असा विकार निर्माण करून त्यांच्यावर शस्त्रक्रिया करून, रक्तवाहिन्यांची वेगळी जोडणी करून काही करता येते का, हे त्यांनी आजमावयाला सुरुवात केली. त्या सफाई कर्मचाऱ्याने त्या कामात मदत करणे स्वत:हून स्वीकारले. सुतार काम सफाईने करण्याची सवय असलेल्या या तरुणाने कित्येक कुत्र्यांची हृदये उघडून त्यात तो विकार निर्माण करण्याचा यत्न कित्येक दिवस सुरूच ठेवला. त्यात त्याचा इतका हातखंडा झाला की, इतर प्रशिक्षित सहाय्यकाना जे काम शिकायला सहा महिने लागत होते, ते काम हा माणूस चार दिवसांत शिकला… आणि एके दिवशी त्याने त्यात यशही मिळवले… त्याने रक्तवाहिन्या अशा काही जोडल्या होत्या की जणू त्या तशा जन्मत:च, नैसर्गिकरीत्या तशाच असाव्यात…. देवाने बनवलेल्या असतात तशा !
अक्षरश: डोळे बंद करून तो रक्तवाहिन्या ओळखू, जोडू, कापू शकायचा. हे पाहून डॉक्टर अल्फ्रेड ब्लालॉक यांनी त्याला प्रयोगशाळा सहाय्यक म्हणून बढती दिली… मात्र पगार स्वच्छता कर्मचाऱ्याएवढाच. फक्त एक झाले की… त्या वैद्यकीय महाविद्यालयात पुढील दाराने प्रवेश करणारा तो पहिला काळा माणूस ठरला !
तो विकार मुद्दामहून निर्माण केल्यानंतर तो विकार बराही करण्याचे तंत्र डॉक्टर अल्फ्रेड ब्लालॉक आणि या काळ्या माणसाने विकसित केले. त्यासाठी लागणारी हत्यारे याच काळ्या माणसाने स्वत: तयार केली ! दरम्यानच्या काळात या काळ्या माणसाने अनेक वेळा अनेक प्रकारचे अपमान सहन केले. बायको, दोन मुली यांचा खर्च भागवण्यासाठी हा माणूस मोकळ्या वेळात सुतार कामही करू लागला. एवढेच नव्हे तर त्याच वैद्यकीय महाविद्यालयाच्या लोकांनी दिलेल्या पार्टीत तो चक्क वेटरचे कामही करत होता.. पैशांसाठी. खरे तर आता तो वैद्यकीय प्रयोगशाळा सहाय्यक होता… पण त्याला तसा मान आणि वेतन देणे मात्र तेथील गोऱ्या कातडीच्या व्यवस्थेने नाकारले. यामुळे एकदा तर तो माणूस नोकरी सोडून निघालाही होता… पण जगभरातील लहानग्या लेकरांचे नशीब थोर… तो कामावर परतला. आणि मग तो पहिल्या यशस्वी शस्त्रक्रियेचा इतिहास घडला.
डॉक्टर अल्फ्रेड ब्लालॉक यांच्या कामाची दखल साऱ्या वैद्यकीय विश्वाने घेतली.. त्यांच्यावर कौतुकाचा वर्षाव केला… पण खुद्द डॉक्टर आल्फ्रेडसुद्धा या काळ्या माणसाच्या अतुलनीय योगदानाचा साधा उल्लेखही करण्यास धजावले नाहीत. आपण शोध लावलेल्या कृतीचे जग कौतुक करत असताना हा मात्र दूर उभा राहून हे सारे ऐकत होता ! साहजिकच त्याने गावी परत जाण्याचा निर्णय घेतला.. जाताना मात्र तो व्यवस्थेविरुद्ध बोलून गेला… पण अशक्त लोकांचे बोल सशक्त व्यवस्थेच्या कानांवर काहीही प्रभाव टाकत नाहीत !
पण त्याच्या पत्नीने त्याला त्या कामावर परत जाण्यास प्रोत्साहित केले… कारण त्याला त्याच्या आयुष्यात तेच करायचे होते… लेकरांचे जीव वाचवायचे होते… नव्या तरुण डॉक्टरांना प्रशिक्षित करायचे होते. तो प्रयोगशाळेत परतून आला… पुढे शेकडो प्रशिक्षणार्थी तरुण डॉक्टरांना शिकवले. डॉक्टर आल्फ्रेड दुस-या विद्यापीठात नोकरीस निघाले होते… त्यांनी यालाही सोबत चल म्हणून गळ घातली… पगार चांगला मिळेल असेही सांगितले.. पण हा गेला नाही ! सुमारे ४५ वर्षे शिकवत राहिला. मध्ये एकदा वैद्यकीय अभ्यासक्रमासाठी प्रवेश मिळतो का ते पहायला गेला होता… पण अपुरे शिक्षण पाहून त्याला कुणी प्रवेश दिला नाही… अनुभव तर प्रचंड होता… एखाद्या निष्णात डॉक्टरएवढा. आणि पुन्हा पहिल्यापासून सुरुवात करणे त्याला अशक्य होते…. मग तो शिकवण्यात रमला ! एका निष्णात डॉक्टरला हे जग मुकले !
डॉक्टर अल्फ्रेड कालवश झाले. त्यांचे तैलचित्र त्या वैद्यकीय महाविद्यालयाच्या दर्शनी भागात लावले गेले…. हा माणूस आता वैद्यकीय प्रयोगशाळा प्रमुख म्हणून कार्यरत होता… पगारात फारसा फरक पडलेला नव्हता… पण त्याच्या प्रेरणेने जगात कित्येक बाळांचे जीव वाचू शकतील असे शिक्षण लोक घेत होते.
त्याच्या जीवनाच्या पुढच्या टप्प्यावर मात्र व्यवस्थेला त्याची दखल घ्यावी लागली… त्याला “ मानद डॉक्टर “ ही उपाधी सन्मानपूर्वक देण्यात आली. त्याचे तैलचित्र डॉक्टर अल्फ्रेड यांच्याशेजारी लावण्यात आले. त्याने शोधण्यात महत्वपूर्ण योगदान दिलेल्या शस्त्रक्रिया-पद्धतीच्या नावात त्याच्याही नावाचा समावेश करण्यात आला ! “ Blalock-Thomas-Taussig shunt ! “ होय, त्यांचे नाव होते विवियन Thomas…. डॉक्टर विवीयन Thomas ! पण दुर्दैवाने त्यांना कधीही प्रत्यक्ष शस्त्रक्रिया करण्याची परवानगी दिली जाऊ शकली नाही…. ! कारण ते औपचारिकरित्या प्रशिक्षित डॉक्टर नव्हते !
या विषयावर एक अत्यंत सुंदर चित्रपट, एक माहितीपट बनवला गेला. त्यामुळे Thomas यांचे कार्य जगाला माहित झाले. त्यांचे आत्मचरित्रही गाजले. मात्र चित्रपट अधिक प्रभावशाली आहे. ‘ Something the Lord made ! ‘ हे या चित्रपटाचे नाव. सुमारे दोन तासांचा हा चित्रपट इंग्लिश भाषेत असून इंग्लिश सब-टायटल्स उपलब्ध असल्याने संवाद समजायला सोपे जाते. अभिनयाबाबत बोलायचे झाले तर शब्द नाहीत…. विवियन यांची भूमिका जगला आहे अभिनेता मॉस डेफ. डॉक्टर आल्फ्रेड उभे केले आहेत अभिनेते अलन रिकमन यांनी. चित्रपटातील एकही दृश्य अर्थहीन नाही !
…. निळ्या मरणाला गुलाबी श्वासांचे कोंदण देणारा हा कृष्णवर्णीय मनुष्य वर्णद्वेषाच्या गालावर एक चपराक लगावून गेला…. !
(अमेरिका, भारत आदी देशांत आजही हा विकार आढळतो. पण यावर आता उपाय आहेत. हा वैद्यकीय विषय मला समजला तसा मांडला आहे. तांत्रिक बाबी तपासून पहाव्यात. मात्र चित्रपट जरूर पहावा ज्यांना जमेल त्यांनी. एच. बी. ओ. वर आणि युट्यूब वर उपलब्ध आहे. पुस्तकेही आहेतच. पहिले छायाचित्र अभिनेत्यांचे आहे. दुस-या छायाचित्रात पांढरा कोट घातलेले आहेत ते मानद डॉक्टर विवियन थॉमस!)