(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “मौन रामलला”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 223 ☆
🌻लघुकथा🌻 🛕 मौन रामलला🛕
बरसों से अस्पताल के चक्कर महंगे ईलाज, गाँव का झाड़ फूँक, जगह-जगह देवी देवताओं की मन्नत, करते-करते वह थक चुकी थी।
शायद उसके आँसू और हृदय की वेदना को समझने के लिए, अभी रामलला मौन है। यही कहकर सविता अपने आप को धीरज बाँधती थी।
भरा- पूरा परिवार, परिवार के ताने और शायद बच्चें की किलकारी के लिए तरसती सविता। वेदना से भरी।
पतिदेव की सांत्वना सब कुछ समय आने पर ठीक होगा। हजारों की संख्या में मंदिर में आज भक्त भगवान श्री रामनवमी का महोत्सव मना रहे थे। पूजा की थाल लिए पीछे खड़ी सविता अखियाँ बंद परंतु अश्रुं की धार अविरल बह रही थी। इतनी भीड़ में भी वह अकेली शायद प्रभु भी नहीं, मौन सिर्फ मौन।
थककर वह बैठ गई। अब तो दर्शन की चाहत भी नहीं, बस समय को जाते हुए देख रही थी। अचानक दस वर्ष का बालक सविता के आँखों को पोछते गले में बाहें डाल कहने लगा— माँ जल्दी दर्शन करो रामलला दिखने लगे। वह आवाज चारों तरफ देखने लगी। आश्चर्य से न जाने कहाँ से यह बच्चा इतनी भीड़ में आ गया। पीछे पतिदेव कंधे पर हाथ रख मुस्कुराते कहने लगे सविता यह तुम्हारा मौन रामलला।
बस स्वागत करो। सविता को समझते देर ना लगी। आज पतिदेव ने जो कर दिखाया। प्रभु राम को हाथ जोड़ थाली में रखा पुष्प हार पतिदेव को पहना, माथे तिलक लगा चरणों पर गिर पड़ी।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 126 ☆ देश-परदेश – Marry a Colleague ☆ श्री राकेश कुमार ☆
जब तक विवाह नहीं हो जाता है, तब तक पेरेंट्स परेशान रहते हैं। विवाह हो जाने पर “विवाहित युगल” परेशान रहते हैं। इसी समस्या को लेकर बेंगलुरु के युवाओं ने इसके समाधान हेतु एक नई पहल आरम्भ कर दी है।
विगत कुछ वर्षों से युवा लड़के और लड़कियां समान रूप से किसी संस्था में कार्य करते हैं। रेल के इंजन चालक से देश के सुरक्षा बलों में महिलाएं पूर्णतः सहभागी बन चुकी हैं।
पति और पत्नी दोनों का नौकरी करना और अपने पेरेंट्स के बिना रहने से अनेक कठिनाइयां उनकी जिंदगी को दूभर बना देती है।
एक जापानी कांसेप्ट “क्वालिटी सर्कल” कार्यालय की समस्या को सुलझाने के लिए प्रचलन में हुआ करता था। उसी से प्रेरणा लेकर आज के युवा अपने कुलीग से ही विवाह कर बहुत सारी समस्याओं का निराकरण स्वत: कर सकते हैं।
पूर्व में भी कुलीग से प्रेम विवाह या पेरेंट्स द्वारा भी विवाह तय किया जाता रहा है। ये कोई नई बात तो नहीं है, परंतु इसके होने वाले लाभ की चर्चा आजकल सोशल मीडिया में खूब हो रही है।
आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक सुविधाओं की चर्चा में घर किराए से लेकर यातायात में शत प्रतिशत बचत की बात की जा रही है। एक ही टिफिन में दोपहर के भोजन से भविष्य में युगल के बच्चों को पति और पत्नी दोनों रेफर कर, दोहरा लाभ अर्जित कर सकते हैं।
दोनों द्वारा “घर से कार्य” करने पर तो ये लाभ की मात्रा तो कई गुना बढ़ जाएगी। एक ही कार्यालय में काम करने से एक दूसरे पर शक सुबहा की संभावना भी नगण्य हो जाती है। इतनी सुख सुविधाओं के कारण “marry a colleague” एक बहुत अच्छा आइडिया कहा जा सकता है।
☆ सुश्री विनीता सिन्हा की पुस्तक ‘प्रेरणादीप : वर्तमान और अतीत’ लोकार्पित – साभार – क्षितिज ब्यूरो ☆
मुंबई, सुश्री विनीता सिन्हा जी की पुस्तक ‘प्रेरणादीप : वर्तमान और अतीत’ का विमोचन मुंबई प्रेस क्लब के सभागृह में शनिवार 22 मार्च को सम्पन्न हुआ। यह पुस्तक क्षितिज प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुई है।
इस अवसर पर सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ सूर्यबाला जी ने कहा कि – “कृति को और रचनाकार को अपने दम पर खड़ा होना चाहिए न कि पुरस्कार के दम पर। लेखक के पास अपनी आत्मा होनी चाहिए जिसमें वह झांक कर स्वयं को देख सके। आज का पुस्तक विमोचन समारोह एक पवित्र अनुष्ठान है। अपने आसपास की ऊँचाइयों को प्रेरणादीप के रूप में प्रस्तुत करने वाली लेखिका विनीता सिन्हा मेरे लिए ख़ुद एक प्रेरणादीप हैं। आज के समय में जब लेखन हृदय से नहीं केवल विचार से किया जाता हो, यह पुस्तक हृदय से लिखी गई है।हमारी आज की पीढ़ी को ऐसी पुस्तकों की आवश्यकता है।”
हिंदी आंदोलन परिवार के अध्यक्ष श्री संजय भारद्वाज जी ने कहा कि – “किसी सफल व्यक्ति से उसकी सफलता का राज़ पूछिए तो वह सामान्यत: कहता है कि फलां पुस्तक का प्रभाव उस पर पड़ा या बचपन में फलां लेखक की एक पंक्ति ने उसका जीवन बदल डाला। यह कथन, लेखन और पुस्तक के महत्व को प्रतिपादित करता है। तथापि जब दुनिया के सबसे प्रभावी 100 व्यक्तियों की सूची बनाई जाती है तो उसमें राजनेता, उद्योगपति, सिने कलाकार, खिलाड़ी तो होते हैं पर कभी लेखक नहीं होता। ‘प्रेरणादीप’ एक ऐसी पुस्तक है जिसमें लेखिका ने जिन व्यक्तित्वों का उल्लेख किया है, वे सभी लेखक हैं।” सुश्री विनीता सिन्हा जी को जिजीविषा का साकार रूप बताते हुए उन्होंने लेखिका के आत्मविश्वास की प्रशंसा की।
वरिष्ठ लेखक, अनुवादक श्री रमेश यादव जी ने पुस्तक की विस्तृत विवेचना की। उन्होंने लेखिका द्वारा उल्लिखित हर प्रेरणादीप के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा की। लेखिका द्वारा वर्णित स्व. चित्तरंजन दास बक्शी की जीवनगाथा के अनेक आयामों और तत्संबंधी घटनाओं पर प्रकाश डाला। स्व. चंद्रकांत खोत से सम्बंधित कुछ प्रसंगों को भी उन्होंने याद किया। उन्होंने लेखिका द्वारा अपने माता-पिता पर लिखी कविताओं का पाठ भी किया।
प्राध्यापिका डॉ. मेघा पवार ने पुस्तक के साहित्यिक शिल्प की चर्चा की। श्रीमति सुधा भारद्वाज जी ने प्रकाशक का मत रखते हुए लेखिका के व्यक्तित्व के विभिन्न शक्ति बिंदुओं का उल्लेख किया। श्री नवीन सिन्हा जी ने लेखिका की साहित्यिक यात्रा की जानकारी दी।
अपनी बात रखते हुए लेखिका सुश्री विनीता सिन्हा जी ने कहा कि- “बहुत लंबे वक़्त से मन में एक बात आती रहती थी कि हमारी पीढ़ी नें पुराना वक़्त भी देखा और अब नई शताब्दी की दिनों-दिन हासिल होती उपलब्धियों को भी देख रही है। हमारे बाद जो आने वाली पीढ़ियाँ होंगी, उनके लिए तो हमारे कल और आज, दोनों ही की बातें इतिहास होंगी। जो आज वर्तमान है, वही तो कल इतिहास होगा। अतः महसूस होता है कि उनके लिए धरोहर के रूप में कुछ ऐसी हस्तियों के कुछ ऐसे कारनामे बयान किए जाएँ जो उनकी ज़िन्दगी के सफ़र में पाथेय की भूमिका निभाएँ और उसे संवारने में उनकी मदद कर सके। यह पुस्तक उसी अतीत और वर्तमान के कुछ पन्नों को आने वाली पीढ़ियों के लिए संजोने का एक प्रयास मात्र है।”
वेरा सिन्हाजी ने कार्यक्रम का सटीक संचालन किया। वरिष्ठ लेखिका सुश्री वीनु जमुआर जी ने आभार प्रदर्शन किया।
कार्यक्रम में मुंबई -पुणे के लेखक, पत्रकार, विभिन्न क्षेत्रों के गणमान्य, लेखिका के परिजन तथा परिचित उल्लेखनीय संख्या में उपस्थित थे।
साभार : क्षितिज ब्यूरो
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≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
☆ 🐱 रागावलेले प्राणी 🐜 ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆
आज एक मुंगीची इमेज बघितली आपल्या गुगल बाबांची कृपा! आणि ती इमेज बघून एकदम घाबरलेच. आपली साधी घरात वावरणारी वेळेला आपल्या कपड्यांवर,अंगावर फिरणारी हीच ती मुंगी का? असा प्रश्न पडावा आणि भीती वाटावी असा तिचा चेहरा दिसत होता. एक विचार असा आला की देव मुंगी ( आपली गुदगुल्या करणारी काळी मुंगी ) आपल्याला चावत नाही. आपणच बरेचदा तिला त्रास देतो. म्हणूनच या लाल मुंग्यांना राग येत असावा आणि स्वत:ला मिळणारी वागणूक आणि काळ्या मुंगीला मिळणारी वागणूक हे दोन्ही मिळून ती एवढी रागीट चेहेऱ्याने आपल्याला कडकडून चावत असावी. 🐜
असेच सकाळी सकाळी म्हणजे साखर झोपेत असताना कोंबडा इतका कर्कश्श का ओरडत असावा? आमच्या शेजारच्या घरातील कोंबडा तर घड्याळाच्या दर तासाला नियमित पडणाऱ्या ठोक्या प्रमाणे दर तासाला आरवतो. बहुतेक दिवसभर त्याला माणसांच्या आवाजाचा जो त्रास होतो त्याचे उट्टे काढत असावा. 🐔
तीच गोष्ट कुत्र्यांची. कितीही लक्ष ठेवा आपला डोळा चुकवून आपण कंबर मोडून स्वच्छ केलेल्या दरवाजावर व त्या समोरील स्वच्छतेवर घाण करून जाणार. अनेक उपाय केले पण कुत्र्यांना आमच्या घरा समोरची जागा फारच आवडली होती. जणू मला चिडवायचे ठरवूनच टाकले होते. मग मी गुगल साहेबांची मदत घेऊन उपाय शोधले आणि उग्र वासाच्या फिनाईलची मदत घेतली. त्याचा कुत्र्यांना एवढा राग आला की त्यांनी रात्रभर निरनिराळ्या आवाजात ( प्रत्येक कुत्र्याचा आवाज वेगळाच असतो म्हणा ) ओरडून माझ्या झोपेवर घाला घातला. असेही वाचनात आले होते की, लाल व निळ्या रंगाचे पाणी भरून बाटलीत ठेवले तर कुत्री, मांजरे यांचा त्रास होत नाही. मग मी पण तो उपाय केला. पण बाटल्या गायब होऊ लागल्या. शोध घेण्यासाठी खूप प्रयत्न केले. त्यावेळी त्यातील एक बाटली चक्क कुत्र्याच्याच तोंडात बघितली. आणि या रंगीत पाण्याच्या बाटल्या कोण पळवत आहे याचे उत्तर मिळाले.🐶
आमच्या काकांच्या घरी एक लाडाची मांजर होती. कोणी आणले नव्हते. तीच आपणहून आली होती. आणि बळेच सगळ्यांच्या पायात येऊन लाड करून घ्यायची. आम्ही कॅरम खेळायला बसल्यावर तिला खूप राग यायचा. ती त्या बोर्ड वर बराच वेळ बसायची. सोंगट्यांचे बराच वेळ निरीक्षण करायची आणि रागाने आपण स्वतःच सर्व सोंगट्या बिळात पंजाने ढकलून द्यायची. ती इतकी शहाणी होती की एखादा पदार्थ आवडला नाही तर पळून जायची. आणि जबरदस्तीने दिला तर जीभ बाहेर काढून उलटी आल्या सारखे करायची आणि तो पदार्थ देणाऱ्याला पंजाचा प्रसाद द्यायची. 🐱
अशीच एकदा आपण जिला गरीब समजतो अशा शेळीची गंमत कसली, रागच बघितला होता. एका शेळीला एक व्रात्य मुलगा शेपटीला हात लावून,ओढून सारखा त्रास देत होता. चार पाच वेळा ती पुढे पळाली. नंतर मात्र ती त्या मुलाकडे वळली आणि त्याला आपल्या छोट्या शिंगाने मारले. जणू तिने अन्यायाचा प्रतिकार करा हीच शिकवण दिली. 🦙
अशा काही थोड्या गमती,काही राग सहज ओरडणाऱ्या कोंबड्या मुळे आठवले. तशा प्राण्यांच्या बऱ्याच आठवणी,अनुभव व गमती जमती आहेत. त्या पुन्हा केव्हातरी.
☆ ‘दैव देतं आणि कर्म नेतं…’ – भाग- १ – (अनुवादित) मूळ इंग्रजी लेखक– अनामिक ☆ अनुवाद – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆
मनीष ऑफिसमधून थकून भागून घरी आला तेव्हा त्याची एक वर्षाची मुलगी लवली बाहेर पोर्चमध्ये खेळतांना दिसली. घरात अजूनही अंधार होता. त्याला वाटले की कदाचित वीज गेली असेल, पण शेजारी तर दिवे चालू होते. मग आई, पत्नी मीनल घरात असताना अजून कोणी घराचे दिवे कसे लावले नाहीत याचे त्याला आश्चर्य वाटले.
त्याने मुख्य दरवाजा उघडला आणि पोर्चमध्ये आला. त्याची ब्रिफकेस बाजूला ठेवली आणि हातरुमालाने लव्हलीचं नाक साफ केलं. त्याच्या मनात विचार येऊ लागला की एक वर्षाची मुलगी पोर्चमध्ये एकटी काय करत असेल? आई तर यावेळी तिच्यासोबतच असते.
त्याला काहीतरी गडबड असल्याचा संशय आला आणि तो लव्हलीला उचलून घेत घरात आला. त्याने आधी बाहेरील खोलीचे दिवे लावले. समोरचे दृश्य पाहून त्याला आश्चर्याचा धक्का बसला. संपूर्ण खोली अस्ताव्यस्त होती. बिस्किटं इकडे तिकडे पडली होती आणि आई सोफ्याशेजारी जमिनीवर बेशुद्ध पडली होती. आईला अशा अवस्थेत पाहून त्याने मीनलला मोठ्याने आवाज दिला, “मीनल, मीनल, तू कुठे आहेस? लवकर ये, बघ आईला काहीतरी झालंय. “
पण मीनलकडून काहीच उत्तर आलं नाही. शेवटी त्याने लव्हलीला खाली ठेवून आईला उचलून सोफ्यावर ठेवण्याचा प्रयत्न केला. तो धावत स्वयंपाकघरात गेला आणि एका ग्लासात पाणी घेऊन आला. त्याने आईच्या चेहऱ्यावर थोडं पाणी शिंपडलं.
तेव्हा आई थोडंफार शुद्धीवर आली. त्याने आईला पाणी प्यायला दिले.
आईला थोडे बरे वाटल्यावर मनीष म्हणाला, “काय झालं आई, मीनल कुठे आहे? ती शेजारी गेली आहे का? की मंदिरात गेली आहे? आणि तु घरातील दिवे का लावले नाही ? लव्हली बाहेर एकटीच का खेळत होती?” मनीष लागोपाठ प्रश्न विचारत होता.
अचानक आई रडू लागली. आईला रडताना पाहून मनीषच्या मनात धस्स झाले. “काय झालं आई, नीट सांग. तू का रडत आहेस?”
आई रडत म्हणाली, “ती सून……”
“मीनलला काय झालं?” मनिष अस्वस्थ होत बोलला.
“सुन घर….घराबाहेर पडली. मी तिला थांबवण्याचा प्रयत्न केला, पण ती थांबली नाही. मला म्हणाली की मला तुमच्यासोबत राहायचे नाही. इथे माझे भविष्य नाही. मी तिच्या पाया पडले बेटा, पण तिने मला दूर ढकलले. मग काय झालं माहित नाही? डोळ्यांसमोर अंधार पसरला. आणि आता तू आल्यावर मला शुद्ध आली आहे. “
मनीष हताश होत धप्पकन जमिनीवर बसला. त्याच्या डोळ्यात अश्रू तरळले, “तीला माझी नसेलही, पण लाडक्या मुलीचीही पर्वा नाही. एक आई तिच्या मुलीला असं सोडून कशी जाऊ शकते?”
त्याच्या आईचे मन तिच्या मुलाला अशा प्रकारे हताश झालेले पाहून खूप हादरले. डोळे पुसत तिने त्याच्या खांद्यावर हात ठेवला आणि म्हणाली,
“ती म्हणाली की तीला लव्हलीची कोणतीही जबाबदारी नको आहे. तीला आयुष्य मुक्तपणे जगायचे आहे. ती तुझी नात आहे, तूच तिची काळजी घ्यावी. माझा याच्याशी काहीही संबंध नाही’. ” बोलता बोलता आई पुन्हा रडू लागली.
आई आणि मुलगा दोघेही एकमेकांचे अश्रू पुसू लागले. ते दोघेही का रडत आहेत, हे छोट्याशा लव्हलीला समजत नव्हते. दोघांना रडताना पाहून तीही रडू लागली.
तीन वर्षांपूर्वी मनीष आणि मीनल यांचे लग्न झाले होते. सुरुवातीला सर्व काही ठीक होते. त्याचा व्यवसाय चांगला चालला होता. मनीष आणि त्याचे वडील व्यवसाय खूप चांगल्या प्रकारे हाताळत होते. पैसेही भरपूर येत होते. कशाचीही ददात नव्हती. मनीषचे आई आणि वडील एवढे ऐश्वर्य असूनही जमिनीवर होते. ते खूप साधे जीवन जगत होते.
मीनल एका मध्यमवर्गीय कुटुंबातील होती. त्याच्या काकूने मध्यस्थी करीत मीनलचे लग्न मनीषशी लावले होते. घरी नोकरचाकर काम करायचे त्यामुळे मीनल ला घरी फारसे काम नव्हते म्हणून आईंनी तिला तिचे शिक्षण पूर्ण करण्यास सांगितले.
मीनलने अभ्यास तर सुरू केला, पण तिला शिक्षणाची विशेष आवडत नव्हती. घरी एवढं सगळं चांगलं असतांना अजून शिकून, अभ्यास करून काय करायचं? तिला कुठं नोकरी करायची आहे असं तिला वाटायचं. म्हणूनच ती कॉलेजच्या नावाखाली घरातून बाहेर पडायची, पण कधी कॅन्टीनमध्ये, कधी चित्रपट पाहण्यासाठी, कधी नवीन नवीन मित्रांसोबत शाॅपिंगसाठी जात असे.
मीनल ला उधळपट्टीची सवयच लागली होती. दररोज ती मनीषकडे पैसे मागायची. पैशांची कमतरता नाही म्हणून मनीष ही तिला काहीच विचारत नसे.
आई मनीषला म्हणायची, “बेटा, ज्या व्यक्तीने इतके पैसे कधी पाहिले नाहीत, ती ते नीट वापरू शकणार नाही. माणसाने नेहमी हात सांभाळून खर्च करावा. ती पैसे मागते आणि तू ते देतोस. ती पैसे कुठे खर्च करते हे देखील विचारत नाहीस. “
मनीष हसण्यावारी नेत म्हणायचा, “आई, ती बाहेर जाते. म्हणून तीलाही हातखर्चाला पैसा हवा असतो. “
“बेटा हातखर्च आणि निरुपयोगी खर्च यात फरक आहे. हे काय तुला समजत नाही. “
आईचे बोलणे ऐकून मनीष हसला.
“आई, मी त्यासाठीच तर कमावतोय. इतके कमावल्यानंतरही, जर बायको पैशामुळे नाराज होत असेल, तर माझ्या कमावण्याचा काय उपयोग? त्यात ती कॉलेजला जाते, तिच्या मैत्रीणींसोबत थोडीफार मजा करते. “
आई हिरमुसली झाली व मुलासमोर काहीही बोलू शकली नाही.
गेल्या वर्षी जेव्हा लव्हलीचा जन्म झाला, तेव्हा घरात ती मोठी आनंददायी घटना होती. पण दहा महिन्यांपूर्वी कारखान्याला आग लागली, ज्यामुळे त्यांचे मोठे नुकसान झाले. अजूनही विम्याची रक्कम मिळाली नाही कारण कोणीतरी खोटी अफवा पसरवली की कारखान्याला जाणूनबुजून आग लावण्यात आली होती. म्हणून तेव्हापासून चौकशीच सुरू आहे.
दरम्यान, मनीषच्या वडिलांचे तीन महिन्यांपूर्वी हृदयविकाराच्या झटक्याने निधन झाले. सर्व काही उद्ध्वस्त झाले होते. गुंतवणूकदार कर्जाच्या परतफेडीसाठी तगादा लावू लागले, पण या घटनेला जबाबदार लोक तोंड लपवून बसले. शेवटी वैतागून मनीषने सर्व काही विकले आणि कर्जदारांचे पैसे फेडले. तरी अजूनही काही देणे बाकी होतेच.
— क्रमशः भाग पहिला
मूळ इंग्रजी कथालेखक : अनामिक
मराठी अनुवाद – मेघःशाम सोनवणे
मो 9325927222
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
निवडुंग या काटेरी, झुडुप प्रकारच्या वनस्पतीशी माझ्या काही बालपणीच्या आठवणी जोडलेल्या आहेत. धारदार बोथट मणके असलेल्या निवडुंगाच्या चांगल्या गलेलठ्ठ फांदीचे एक सारखे उभे तुकडे करून, त्याचे सुरेख दिवे आई बनवायची. त्यात तेल वात रुजवायची. आणि चांदीच्या ताटात ते पेटवलेले दिवे लावून दिवाळीच्या धनतेरसच्या दिवशी धनाची पूजा करायची. इतका देखणा देखावा असायचा तो!
आजी म्हणायची प्रत्येक वनस्पतीचा सन्मान ठेवणे ही आपली संस्कृती आहे.
याच निवडुंगाशी माझी एक कडवट आठवणही आहे. आमच्या बागेत सदाफुली, मोगरा, जास्वंदी, जाई आणि जुई सोबत एका कुंडीत कोरफड लावलेलं होतं. काटेरी धारदार गुळगुळीत, मऊ, हिरवागार कोरफडीचा वाढलेला गुच्छ छानच दिसायचा. पण मला खोकला झाला की आजी, या कोरफडीची फणी कापून त्यातला गुळगुळीत गराचा रस करून प्यायला लावायची. खोकला पळायचा पण मनात रुतलेला त्याचा कडवटपणा मात्र नकोसा वाटायचा.
कधी कधी आजी तो गर केसांनाही चोपडायची. माझे कुरळे दाट केस पाहून मैत्रिणी म्हणायच्या,
“इतके कसे ग दाट तुझे केस?” मी त्यांना सांगायची, “कोरफडाचा चीक लावा”. तेव्हां त्या नाकं मुरडायच्या.
ठाण्याला शहराचे स्वरूप गेल्या काही वीस पंचवीस वर्षापासून आलं असेल. पण त्याआधी ठाण्याच्या आसपास खूप जंगलं होती. काटेरी, वेडी वाकडी, मोकाट वाढलेली. प्रामुख्याने तिथे निवडुंगाची झाडे आढळायची. आणि त्या वयात निवडुंग या वनस्पतीविषयी कधी आकर्षण वाटलंच नाही. नजर खिळवून ठेवावी असं कधी झालं नाही.
नंतर कॉलेजमध्ये वनस्पती शास्त्राचा अभ्यास करताना या निवडुंगाची पुन्हा वेगळी शास्त्रीय ओळख झाली. कॅक्टेसी, फॅमिली झीरोफाइट्स(xerophytes) अंतर्गत येणाऱ्या या निवडुंगाचे अनेक प्रकार हाताळले. पाहिले. कितीतरी वेगवेगळे प्रकार, वेगवेगळी नावे. वई निवडुंग, त्रिधारी निवडुंग, फड्या निवडुंग, बिनकाट्याचा निवडुंग, पंचकोनी निवडुंग, वेली निवडुंग, लाल चुटूक फळं येणारी काही गोंडस निवडुंगं, काही काटेरी चेंडू सारखे दिसणारे..असे कितीतरी प्रकार अभ्यासले. वाळवंटातही हिरवगार राहण्याची क्षमता असलेलं हे काटेरी झाड, फांद्यांमधे कसं पाणी साचवून ठेवतं आणि स्वतःला टिकवतं, याचा वनस्पतीशास्त्राच्या पुस्तकातून भरपूर अभ्यास केला. त्याचे पर्यावरणीय आणि वैद्यकीय फायदे जाणून घेतले. पुढील आयुष्यात तर या निवडुंगाच्या छोट्या कुंड्यांनी घरही सुशोभित केलं. एक काळ असा होता की घरात विशिष्ट प्रकारचं कॅक्टस असणं हे स्टेटस झालं होतं! आजकाल तर एलोवेरा जेल, एलोवेरा क्रीम, ऑइल यांनी तर घराघरात ठाण मांडलेआहे. एलोवेरा म्हणजे तेच ना आजीचं कोरफड?
आता माझ्या अंगणात एका कोपऱ्यात, आई ज्याचे दिवे बनवायची ते चौधारी निवडुंग खूप वाढले आहे. कधी कधी ते उपटून टाकावं का असेही माझ्या मनात येतं. पण उन्हाळ्यात जेव्हा काही झाडं सुकून मरगळतात तेव्हा हे हिरवंगार निवडुंगाचं झुडुप मला काहीतरी सांगतं. शिकवण देतं. माझा गुरू बनतं. मला ते काटेरी झाड स्वयंपूर्ण वाटतं. स्वतःची शस्त्रं सांभाळत स्वतःचं रक्षण करणारं सक्षम जैविक वाटतं. वाळवंटातही हिरवेपण जपणारं एक कणखर व्यक्तिमत्त्वाच्या रूपात ते माझ्यासमोर येतं. आणि मनात सहज येतं, आपणही असेच निवडुंग होऊन जावे. जीवनाच्या वाळवंटी, विराण वाटेवरही हिरवेगार राहावे. काटे सुद्धा दिमाखाने मिरवावेत…
आणि जमलं तर आईच्या पूजेच्या ताटातला दिवाच होऊन जावे..
☆ ‘ओरडणारी, किंचाळणारी आई…‘ – लेखक : डॉ. अनिल मोकाशी ☆ प्रस्तुती : डॉ. ज्योती गोडबोले☆
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ओरडणारी, किंचाळणारी आई…
(‘घरोघरी मातीच्याच चुली’ की हो !)
बाईपण दे गा देवा. ओ के आहे. पण आईपणाचा बोजा नको रे बाप्पा! ऐसे कैसे चलेगा! मान्य आहे, सोपं नाही आहे ते. पण घेतला वसा तर निभावायलाच हवा ना. आनंदाने, सुख, समाधानाने संसार तर करायलाच हवा.
१. आईचे ताणतणाव
आईचे व्यक्तिमत्त्व आणि तिच्या वागणुकीचा मुलांच्या मानसिकतेवर आणि भावनिक विकासावर फार मोठा परिणाम होतो. आई जर वारंवार ओरडणारी, किंचाळणारी असेल तर मुलांवर त्याचा नकारात्मक परिणाम होऊ शकतो.
२. मुलांमध्ये तणाव आणि चिंता
मुलांना आईकडून हवे असते प्रेम आणि सुरक्षितता. लहान सहान चुकांवर ओरडणारी आई मुलांमध्ये तणाव आणि चिंता निर्माण करू शकते. त्यांच्या आत्मविश्वासाला धक्का देऊ शकते.
३. आत्म-संयम, वर्तणूक आणि सामाजिक कौशल्ये:
आईच्या ओरडण्यामुळे मुलं घाबरु शकतात. भेदरू शकतात. स्तब्ध, होऊ शकतात. कॉम्प्युटर हँग होतो तशी. वर्तणुकीत समस्या निर्माण होतात. आईच्या ओरडण्याला उत्तर म्हणून मुलं उलट उत्तर, आक्रमकता, विरोध किंवा विद्रोह करू शकतात. हे साद प्रतिसादाचे प्रकरण आहे. त्यांचे चुकीचे वागणे त्यांच्या सामाजिक कौशल्यांना बाधा पोचवू शकते. आईने संयम बाळगून वर्तणूक केली तर मुलेही संयम बाळगून वर्तणूक करायला शिकतील.
४. भावनिक विकास:
आईच्या ओरडण्यामुळे मुलांच्या भावनिक विकासावर नकारात्मक परिणाम होऊ शकतो. मुलं त्यांच्या भावना व्यक्त करण्यात कमी पडू शकतात. त्यांची भावनिक बुद्धिमत्ता कमी होऊ शकते. त्यांना आपल्या भावना दडपून ठेवायला शिकायला लागतं. त्यांच्या मानसिक स्वास्थ्यावर विपरीत परिणाम होऊ शकतो.
५. आत्मसन्मान:
वारंवार ओरडण्यामुळे मुलांचा आत्मसन्मान कमी होऊ शकतो. त्यांनी स्वतःबद्दल निगेटिव्ह भावना बाळगायला सुरुवात केली तर त्यांचा आत्मविश्वास खालावतो. “तू तर बॅड बॉयच आहे” हे त्याला वारंवार सांगून पटवून देण्याने काय साधणार? मुलांचा स्वतःचा स्वतःवरच विश्वास नसेल तर शैक्षणिक, सामाजिक जीवनावर परिणाम होऊ शकतो.
६. आईचे मानसशास्त्र:
आईचे वर्तनही तिच्या मानसिक स्थितीवर अवलंबून असते. ताण, चिंता, कौटुंबिक, आर्थिक, वैवाहिक समस्यांमुळे आईचा मूड बिघडू शकतो. आईनी स्वतःची मानसिकता सुधारली तर मुलांचे वर्तणूक सुधारते. मन पावन, पवित्र वातावरणात ठेवा. प्रसन्नतेने मिळवा, परम सुखाचा मेवा. बघायला गेलं तर, यादी मोठी समस्यांची. आवाक्याबाहेरची काळजी कशाला उद्याची. आईचे ताणतणाव पोखरती, तिच्या स्वतःच्या, व मुलाच्या मनाला आणि शरीराला. मनात नकोच जागा, त्यांच्यासाठी उरायला. आईने कायम चिंताग्रस्त राहून, काय साधणार. सशक्त मन, कधीच नाही कोलमडणार.
७. संवाद आणि सामंजस्य:
आई-मुलांमधील संवाद आणि सामंजस्य वाढवणे हे महत्वपूर्ण आहे. आईने आपल्या मुलांशी प्रेमळ, आदराने आणि सहनशीलतेने वागायला शिकायला हवं. जर मुलं चुका करतात, तर त्या चुका सुधारण्यासाठी प्रेमळ मार्गदर्शन करणं आवश्यक आहे. कणभर चुकीला मणभर रागवायला नको. जुन्या चुका आठवून, आठवून रागवायला नको. केल्या चुकीला लगेच रागवायला तर हवेच. पण ते एक दोन वाक्यात असावे. पानभर रागवायला नको.
८. सकारात्मक पालनपोषण:
पॉजिटिव्ह पॅरेंटिंग हवे. प्रेम, आदर, आणि सहनशीलता हवी. मुलांना शिस्त लावण्यासाठी सकारात्मक दृष्टिकोन हवा. मुलं आत्मविश्वासाने, स्वावलंबी आणि सामर्थ्यवान बनू शकतात.
निष्कर्ष:
ओरडणारी, किंचाळणारी आई मुलांच्या मानसिकतेवर आणि भावनिक विकासावर नकारात्मक परिणाम करू शकते. आईने सकारात्मक पद्धतीने मुलांचे पालनपोषण करणे आवश्यक आहे. त्यानी मुलं सुरक्षित, आत्मविश्वासपूर्ण आणि भावनिकदृष्ट्या स्थिर बनतील. आईने आपल्या मानसिक स्वास्थ्यावरही लक्ष देणे आवश्यक आहे, ज्यामुळे तिच्या वर्तनात सकारात्मक बदल होऊ शकतात. कंट्रोल मॅडम, कंट्रोल.
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लेखक : विद्यावाचस्पती डॉ. अनिल मोकाशी
बाल कल्याण केंद्र, मतीमंद, मूकबधिर, पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक शाळा. जामदार रोड, काराभारीनगर, कसबा, बारामती, ४१३१०२,